‘‘मेरी मरजी, मेरी इच्छा, मेरी सोच, अजीब तो है ही. मेरा घर कहीं नहीं है, दीदी. शादी से पहले अपना घर सजाने का प्रयास करती थी तो मां कहती थीं, अभी पढ़ोलिखो. सजा लेना अपना घर जब अपने घर जाओगी. शादी कर के आई तो ब्रजेश ने ढेर सारी जिम्मेदारियां दिखा दीं. एक बेटी की इच्छा थी, वह भी पूरी नहीं होने दी ब्रजेश ने. पिता की बेटियों को निभातेनिभाते अपनी बेटी के लिए कुछ बचा ही नहीं. अब इस उम्र में कुछ बचा ही नहीं है जिसे कहूं, यह मेरा शौक है. मेरा घर तो सब का घर ही सजाने में कहीं खो गया. बच गया है कबाड़खाना, जिसे हर 3 साल के बाद ब्रजेश ढो कर एक शहर से दूसरे शहर ले जाते हैं.’’
मन भर आया शुभा का.
‘‘मन भर गया है, दीदी. अब कुछ भी अच्छा नहीं लगता.’’
‘‘चलो, पहले इस कागज पर लिखो तो सही, क्या बदलना चाहती हो. ब्रजेश ने मुझे कहा है न कि मैं तुम्हारी सहायता करूं. वे कुछ कहेंगे तो मुझे बताना. इल्जाम मुझ पर लगा देना, कहना कि मैं ने कहा था बदलने को.’’
सोमवार को ब्रजेश 3 दिन के लिए बाहर गए और सचमुच नेहा को साथ नहीं ले गए. शुभा ने वास्तव में नेहा का घर बदल दिया.
पुराने सारे बरतन निकाल दिए और थोड़े से पैसे और डाल कर रसोई चमचमा गई. 10 हजार रुपए का लोहाकबाड़ बिक गया जिस में नया गैस चूल्हा, माइक्रोवेव आ गया. रद्दी सामान और पुराना फर्नीचर निकाला जिस में छोटा सा कालीन नए परदे और 2 नई चादरें आ गईं.
3 दिन से दोनों रोज बाजार आजा रही थीं और इस बीच शुभा बड़ी गहराई से नेहा में धीरेधीरे जागता उत्साह देख रही थी. उस ने चुनचुन कर अपने घर का सामान खरीदा, कटोरियां, प्लेटें, गिलास, चम्मच, दालों के डब्बे, मसालों की डब्बियां, रंगीन परदे, लुभावना कालीन, सुंदर चादरें, चार चूल्हों वाली गैस, सुंदर फूलों की झालरें, छोटा सा माइक्रोवेव, सुंदर तोरण और बंदनवार.
हर रात या तो शुभा उस के घर सोती थी या उसे अपने घर पर सुलाती थी. घर सज गया नेहा का. बुझीबुझी सी रहने वाली नेहा अब कहीं नहीं थी. मुसकराती, अपना घर सजा कर बारबार खुश होती नेहा थी जिस की दबी हुई छोटीछोटी खुशियां पता नहीं कहांकहां से सिर उठा रही थीं. बहुत छोटीछोटी सी थीं नेहा की खुशियां. बाहर बालकनी में चिडि़यों का घर और उन के खानेपीने के लिए मिट्टी के बरतन, बालकनी में बैठ कर चाय पीने के लिए 4 प्लास्टिक की कुरसियां और मेज.
ये भी पढ़ें- हैवान: आखिर लोग प्रतीक को क्यों हैवान समझते थे?
‘‘दीदी, वे नाराज तो नहीं होंगे न?’’
‘‘उन के लिए भी कुछ ले लो न. कोई शर्ट या टीशर्ट या पाजामाकुरता. कुछ बहू के लिए भी तो लो. बेटी की इच्छा पूरी तो हो चुकी है तुम्हारी. वह तुम्हारी बच्ची है न. उसे भी अच्छा लगेगा जब तुम उस के लिए कुछ लोगी. तुम्हें शौक पूरे करने को कुछ नहीं मिला क्योंकि जिम्मेदारियां थीं. तुम बहू का शौक तो पूरा कर दो. अब क्या जिम्मेदारी है? जो तुम्हें नहीं मिला कम से कम वह अपनी बहू को तो दे दो.’’
‘‘उसे पसंद आएगा, जो मैं लाऊंगी?’’
‘‘क्यों नहीं आएगा. मेरे पास कुछ रुपए हैं. मुझ से ले लो.’’
‘‘अपने हाथ से इतने रुपए मैं ने कभी खर्च ही नहीं किए. अजीब सा लग रहा है. पता नहीं, क्याक्या सुनना पड़ेगा जब ब्रजेश आएंगे. दीदी, आप पास ही रहना जब वे आएंगे.’’
‘‘कितने पैसे खर्च किए हैं तुम ने? कबाड़खाने से ही तो सारे पैसे निकल आए हैं. जो रुपए ब्रजेश दे कर गए थे उस से ब्रजेश के लिए और बच्चों के लिए कुछ ले लो. टीशर्ट और शर्ट खरीद लो, बहू के लिए कुरती ले लो, आजकल लड़कियां जींस के साथ वही तो पहनती हैं.’’
बुधवार की शाम ब्रजेश आने वाले थे. बड़े उत्साह से घर सजाया नेहा ने. चाय के साथ पकौड़ों का सामान तैयार रखा. रात के लिए मटरपनीर और दालमखनी भी रसोई में ढकी रखी थी. शुभा के लिए भी एक प्रयोग था जिस का न जाने क्या नतीजा हो. पराई आग में जलना उस का स्वभाव है. आज पराया सुख उसे सुख देगा या नहीं, इस पर भी वह कहीं न कहीं आश्वस्त नहीं थी. पुरानी आदतें इतनी जल्दी साथ नहीं छोड़तीं, पत्नी को दी गई आजादी कौन जाने ब्रजेश सह पाते हैं या नहीं?
द्वारघंटी बजी और शुभा ने ही दरवाजा खोला. ब्रजेश के साथ शायद बेटा और बहू भी थे. बड़े प्यारे बच्चे थे दोनों. उसे देख दोनों मुसकराए और झट से पैर छूने लगे.
‘‘आप शुभा आंटी हैं न. पापा ने बताया सब. मम्मी खुश हैं न?’’ बहुत धीरे से बुदबुदाया वह लड़का.
एक ही प्रश्न में ढेर सारे प्रश्न और आंखों में भी बेबसी और डर. कुछ खो देने का डर. मंदमंद मुसकरा पड़ी शुभा. ब्रजेश आंखें फाड़फाड़ कर अपना सुंदर सजा घर देख रहे थे. आभार था जुड़े हाथों में, भीग उठी पलकों में, शायद आत्मग्लानि की पीड़ा थी. ऐसा क्या ताजमहल या कारूं का खजाना मांगा था नेहा ने. छोटीछोटी सी खुशियां ही तो और कुछ अपनी इच्छा से कर पाने की आजादी.
‘‘नेहा, देखो तुम्हारी बेटी आई है,’’ शुभा ने आवाज दी.
पलभर में सारा परिवार एकसाथ हो गया. नेहा भागभाग कर उन के लिए संजोए उपहार ला रही थी. बेटे का सामान, बहू का सामान, ब्रजेश का सामान.
‘‘मम्मी, आप ने घर कितना सुंदर सजाया है. परदे और कालीन दोनों के रंग बहुत प्यारे हैं. अरे, बाहर चिडि़या का घर देखो, पापा. पापा, चाय बाहर बालकनी में पिएंगे. बड़ी अच्छी हवा चल रही है बाहर. पूरा घर कितना खुलाखुला लग रहा है.’’
नेहा की बहू जल्दी से कुरती पहन भी आई, ‘‘मम्मी, देखो कैसी है?’’
‘‘बहुत सुंदर है बच्चे. तुम्हें पसंद आई न?’’
धन्यवाद देने हेतु बहू ने कस कर नेहा के गाल चूम लिए. ब्रजेश मंत्रमुग्ध से खड़े थे. अति स्नेह से उस के सिर पर हाथ रख पूछा, ‘‘अपने लिए क्या लिया तुम ने, नेहा?’’
‘‘अपने लिए?’’ कुछ याद करना चाहा. क्या याद आता, उस ने तो बस घर सजाया था, अपने लिए अलग कुछ लेती तो याद आता न. बस, गरदन हिला कर बता दिया कि अपने लिए कुछ नहीं लिया.
ये भी पढ़ें- Short Story: राखी का उपहार
‘‘देखो, मैं लाया हूं.’’
बैग से एक सूती साड़ी निकाली ब्रजेश ने. तांत की क्रीम साड़ी और उस का खूब चौड़ा लाल सुनहरा बौर्डर.
शुभा को याद आया ब्रजेश को सूती साड़ी पहनना पसंद नहीं जबकि नेहा की पहली पसंद है कलफ लगी सूती साड़ी. खुशी से रोने लगी नेहा. ब्रजेश जानबूझ कर 3 दिन के लिए आगरा बेटे के पास चले गए थे. पलपल की खबर विजय और शुभा से ले रहे थे. शुभा की तरफ देख आभार व्यक्त करने को फिर हाथ जोड़ दिए. अफसोस हो रहा था उन्हें. क्यों नहीं समझ पाए वे, खुशी भारी साड़ी या भारी गहने में नहीं, खुशी तो है खुल कर सांस लेने में. छोटीछोटी खुशियां जो वे नेहा को नहीं दे पाए.