जागरूकता : पूजापाठी नहीं कामकाजी बनें

आमतौर पर लोगों को बचपन से एक ही बात सिखाई जाती है कि मंदिर जाओ, जोत जला कर धूपबत्ती करो और फिर भगवान से जो भी मांगो वह मिल जाएगा. सवाल उठता है कि अपने मतलब के लिए मंदिर जा कर फलफूल और प्रसाद चढ़ा कर भगवान से इस तरह मांगने वालों को हम क्या कहेंगे? रिश्वत के नाम पर कुछ फलफूल, अगरबत्ती, मिठाई और सिक्के दे कर क्या आप भगवान से अपनी बात मनवा लेंगे? कभी नहीं.

रिश्वत देना तो वैसे भी अपराध होता है. फिर यहां इसे अपराध क्यों न माना जाए? बिना किसी मतलब के कौन है जो मंदिरों के चक्कर लगाता है? यह तो एक तरह का कारोबार बन गया है. कुछ हासिल करना है तो पूजा करने पहुंच जाओ या घर में ही आंख बंद कर के भगवान की मूर्ति के आगे अपनी बात दोहराते रहो.

हमें बचपन से कर्म यानी काम करने की सीख क्यों नहीं दी जाती है? अपनी मेहनत, लगन और काबिलीयत से मनचाही चीज हासिल करने की सलाह क्यों नहीं दी जाती है? कर्म की अहमियत क्यों नहीं समझाई जाती है? कामकाजी बनने से बढ़ कर कामयाबी के लिए और क्या चाहिए? बचपन से बच्चों को कर्मप्रधान बनने के बारे में सिखाया क्यों नहीं जाता है?

कितने ही लोग दिनरात मंदिर में पूजापाठ में लगे रहते हैं. कभी सावन, कभी नरक चतुर्दशी, कभी पूर्णमासी, कभी नवरात्र, कभी मंगलवार, कभी शनिवार और इसी तरह कितने ही खास दिन आते रहते हैं यानी पूजा के लिए जरूरी दिनों की कोई कमी नहीं है. इन सब के पीछे चाहे काम का कुछ भी नुकसान क्यों न हो जाए, सब चलता है.

किराने की दुकान चलाने वाले 50 साल के आनंद दास बताते हैं, “मेरे एक दोस्त हैं जिन से कामकाज के लिए बात करने को मिलने के लिए बोलो तो कहेंगे कि अभी नहाधो कर मंदिर जाना है, वहां एक घंटे का समय पूजापाठ में लगेगा और फिर पंडित से मिल कर व्रतउपवास और कर्मकांड से जुड़ी कुछ जरूरी बात करनी है, कुछ दानदक्षिणा भी देनी है. वहां से निबट कर घर जाऊंगा और फिर नाश्ता करूंगा. इन सब में 2-3 घंटे तो लग ही जाएंगे.

“अपने दोस्त की ये बातें सुन कर मैं यही सोचता हूं कि इस इनसान के पास काम करने का समय कहां रह जाता होगा?”

काम से होता है सब हासिल

सच है कि इनसान जिंदगीभर तरक्की खोजता रहता है, पर शायद उसे यह नहीं मालूम कि आप अगर कर्मशील बनेंगे तो सब हासिल किया जा सकता है. इनसान को जिंदगी में अच्छा ज्ञान हासिल करना चाहिए, ताकि उस के बल पर वह हुनरमंद बन सके और अपनी गुजरबसर अच्छे तरीके से कर पाए. कामधंधे की तालीम ले कर, अपने हुनर में पक्का हो कर अगर इनसान मन लगा कर काम करेगा तो उसे मनचाहा फायदा जरूर मिलेगा.

हमारे काम या व्यापार को बढ़ाने के लिए दिमाग में अचानक आने वाले विचार को तुरंत अपने व्यवसाय पर लागू कर दें और फिर देखें कमाल. पैसों की बरसात होगी.

इस तरह से इनसान अपने ज्ञान और अपनी मेहनत के बल पर धन खूब कमा सकता है और मन की मुरादें पूरी कर सकता है. इस के उलट 3-4 घंटे मंत्रजाप, भजनकीर्तन, दिनरात धूपबत्ती कर के या पंडितों और बाबाओं के बताए उपाय आजमा कर वह कभी भी तरक्की के रास्ते पर आगे नहीं पहुंचता है.

मेहनत है असली दौलत

जो इनसान अपने घर से कमाई करने के लिए निकलेगा उस का धूप से तो वास्ता पड़ेगा, मगर जब वह मेहनत कर और धूलमिट्टी फांक कर घर आएगा तो भले ही उस का रंग सांवला हो जाए, मगर शरीर मजबूत और कारोबार में कामयाबी जरूर मिलेगी.

अकसर लोग ज्योतिषी से अपना भविष्य पूछने जाते हैं. वह बताता है कि आप के ग्रहनक्षत्र ठीक नहीं हैं और इन को साधारण उपायों द्वारा ठीक किया जा सकता है. ग्रहनक्षत्र ठीक होते ही आप का शरीर अच्छा काम करेगा, आप की योजनाएं सही रूप में कामयाब होंगी और आप खूब धन कमा सकेंगे. आप की इज्जत बढ़ेगी, आप का परिवार सुखी रहेगा और घर में खुशहाली आएगी.

याद रखिए कि ग्रहनक्षत्र खराब नहीं होते. यह तो ज्योतिषियों का धन ऐंठने का तरीका है. आप उन के बहकावे में आ कर उपाय करवाते हैं और अपने पास मौजूद रकम भी गंवा बैठते हैं. इस के उलट अपनी मेहनत पर यकीन रखिए और फिर देखिए नतीजा. कोई राहुकेतु आप का कुछ नहीं बिगाड़ सकेगा.

कर्म ही पूजा है

एक सैनिक जो महीनों तक सीमा की रक्षा करता है, वह किसी मंदिरमसजिद के चक्कर नहीं लगाता. उस का काम ही उसे इज्जत के काबिल बनाता है. इसी तरह किसी डाक्टर को कोई जरुरी सर्जरी करनी है, मगर वह उसे छोड़ कर यह कहे कि उस की पूजा का समय हो गया है या मंदिर जाए बिना वह सर्जरी नहीं करेगा, तो ऐसे डाक्टर को हम क्या कहेंगे?

याद रखें कि एक इनसान जो अपना काम पूरी ईमानदारी के साथ करता है, उसे किसी से डरने की कोई जरूरत नहीं है. नौकरी वाले दफ्तर जाते हैं, किसान और मजदूर खेतों में जाते हैं, सिपाही लड़ाई के मैदान में जाते हैं, डाक्टर अस्पताल जाते हैं और वकील कोर्ट जाते हैं.

हर कोई अपनेअपने क्षेत्र में काम करता है. काम, जैसा कि हम सभी जानते हैं, वह है जो हमें अपनी रोजीरोटी चलाने के लिए, अपने चहेतों की जरूरतों को पूरा करने के लिए करना जरूरी होता है.

जिंदगी की सच्ची सीख यह है कि हम क्या करते हैं और कितने बेहतर तरीके से करते हैं, लेकिन यह नहीं कि हम भगवान की पूजा करने में कितना समय देते हैं.

चंपारण में रहने वाले निकुंज कहते हैं, “हमारे गांव में 2 दोस्त रहते थे. एक गरीब मगर मेहनती लोहार था, जबकि दूसरा मंदिर का एक आलसी पुजारी था. उसे काम किए बिना खाने की आदत थी.

“पुजारी अकसर उस लोहार से मजाक में कहता था कि चाहे वह जितनी मेहनत कर ले भगवान सुख उसे ही देंगे, क्योंकि वह नियमित रूप से पूजा करता है.

“लोहार अपने रोजमर्रा के काम में इतना मस्त रहता था कि उसे कभी भी मंदिर जाने का समय नहीं मिल पाता था. इन दोनों की मुलाकात कभी किसी त्योहार के समय हो जाती थी. समय बीतने के साथ और सालों की कड़ी मेहनत के बाद लोहार गांव का सब से अमीर आदमी बन चुका था, जबकि पुजारी वैसे ही मांग कर या दान के रुपयों से गुजारा कर रहा था. वह बीमार भी रहने लगा था.

“इधर लोहार ने गांव में एक स्कूल खोला और इस के लिए एक छोटा सा समारोह रखा. वहां वह अपने पुराने दोस्त यानी उस पुजारी से मिला. जब लोहार से उस की कामयाबी के राज के बारे में पूछा गया तो उस ने सिर्फ चार शब्द कहे कि कर्म ही पूजा है.

“लोहार की बात सुन कर पहली दफा पुजारी को अपनी गलती का अहसास हुआ. उस की नजरों में लोहार का कद बहुत ऊंचा हो चुका था और अब उसे जिंदगी की हकीकत समझ में आ गई थी.

ज्यादा पूजापाठ समय की बरबादी

दरअसल, हम खुद को ही इस बात से भरम में रखते हैं कि हमारी असली समस्या क्या है. हम नहीं जानते हैं कि हमारी परेशानी क्या है और उस परेशानी का हल क्या है. हम इस के बजाय मंदिरमसजिद के चक्कर लगाते हैं और पाते हैं कि वे चीजें काम नहीं आ रही हैं और कोई नतीजा नहीं निकल रहा है.

उदाहरण के लिए किसी को लोगों से बातचीत करने में शर्म आती है या वह इंगलिश नहीं बोल पाता, उसे डर या झिझक होती है और ऐसे में वह सुबहशाम पूजापाठ करे तो क्या उस की इस समस्या का हल हो जाएगा? नहीं, बल्कि उस की समस्या तो तभी हल होगी न जब वह लोगों से बातचीत करने की हिम्मत करेगा, किसी इंगलिश स्पीकिंग कोर्स में दाखिला लेगा और बोलने का अभ्यास करेगा.

इस के उलट अगर वह दिन का बहुत सारा समय पूजापाठ या भजनकीर्तन में लगाएगा, मंदिर की भीड़ में एक लोटा जल ले कर घंटों लाइन में लगा रहेगा या व्रतउपवास करेगा, तो कोई फायदा नहीं मिलेगा.

जाहिर है कि सुबहशाम पूजा करने के बाद भी ज्यादातर लोगों की जिंदगी और मन में कुछ खास बदलाव नहीं आता, इसलिए पूजापाठ के बजाय मेहनत करें.

यात्राओं में बढ़ती बेरोजगारों की भीड़ : इन की बरबादी में ही पंडों का फायदा

सावन में होने वाली कांंवड़ यात्रा को अब तथाकथित ऊंची जाति के तबके ने तकरीबन छोड़ दिया है. सवर्ण समाज के बच्चे अब इंगलिश स्कूलों यहां तक कि विदेशों तक में पढ़ते हैं. कांवड़ यात्रा अब सिर्फ पिछड़ा वर्ग, दलित और आदिवासियों के बच्चे करते हैं. आप चाहें तो कांंवड़ यात्रियों का सर्वे कर सकते हैं, उन के जनेऊ भी चैक कर सकते हैं.

मांं लोगों के घरों में चौकाबरतन कर के घर चला रही है, पिता मजदूरी कर रहे हैं या फिर किसी प्राइवेट कंपनी में छोटीमोटी नौकरी कर के परिवार के लिए रोजीरोटी का बंदोबस्त कर रहे हैं और जवान बेटा भगवा गमछा गले में लटका कर धर्म की रक्षा में जुटा है. ऐसे बेरोजगार ज्यादातर एससी, एसटी और ओबीसी में ही बहुतायात से पाए जाते हैं.

सावनभादों के मौसम में अकसर लोगों को रंगबिरंगे, पचरंगे, सतरंगे झंडेझंडिया लिए जयकारे लगाते पैदल सड़कों पर यात्रा करते देखा जा सकता है. जयपुर इलाके में कहीं डिग्गी कल्याण की पदयात्राएं, तो कहीं अजमेर की तरफ जाने वाले रास्तों पर ख्वाजा के जायरीन, कहीं सवाईभोज के दीवाने, तो कहीं जोगमाया के चाहने वाले… सब से ज्यादा भीड़ सड़कों पर इन दिनों रामदेवरा जाने वाले जातरुओं की होती है. भगवा रंग में रंगे कांवड़िए तो देशभर में नजर आते ही हैं.

झंडा उठाए इन भक्तगणों की सोशल प्रोफाइल देखने, इन के चेहरे पढ़ने, इन की माली, सामाजिक बैकग्राउंड पर ध्यान देते हैं, तो साफ जाहिर होता है कि ये दलित, पिछड़े व आदिवासी जमात के गरीबगुरबे, किसानमजदूर ही होते हैं.

हालांकि यह कीमती समय इन के खेतों में होने का है. इस समय फसलें आकार ले रही होती हैं, खेतों को निराईगुड़ाई की सख्त जरूरत रहती है, नदीनाले, तालाबएनीकट व खेतों के भरनेफूटने के दिन होते हैं, जलसंचय का मौसम होता है, अपनी आजीविका के साधनसंसाधनों को सहेजनेसंभालने का समय होता है, लेकिन ये अपना घरबार छोड़ कर निकल पड़ते हैं. इन गरीबों, मेहनतकशों को ईश्वर की तथाकथित कृपा चाहिए, इन्हें देवीदेवताओं का आशीर्वाद हासिल करना है, सो ये झंडा ले कर निकल पड़ते हैं.

घरबार, गायभैंस, बैलबकरी, बालबच्चे सब छोड़ जाते हैं. इन्हें कल्याण धणी, रामसा पीर और ख्वाजा साहब की रहमत की दरकार रहती है. ये मेहनत करने वाले हाथ भिक्षा की मुद्रा में होते हैं. इन का खुद से भरोसा उठ चुका होता है और ये सड़कों, मंदिरों और मजारों पर धोक लगाते फिर रहे होते हैं. इन पर आसमानी कृपा बरसेगी, ऐसा इन को यकीन होता है.

इन पैदल चल रहे लोगों में बहुत ही कम दुकानदार, फैक्टरी के मालिक, मिल वाले होंगे या सरकारी कर्मचारी ने छुट्टी ले कर इस तरह पैदल जाना गवारा किया होगा.

कौन समझदार इस मच्छरों और सांपों के सीजन में, बारिश और कीचड़ में अपनी परेशानी भोगने इस तरह सड़क पर निकलेगा, लेकिन आस्था के नाम पर जो निकल पड़े हैं, उन में से कई लोग दुर्घनाग्रस्त होंगे, वापस घर नहीं पहुंचेंगे, कई सांप के काटने के शिकार होंगे, कइयों को कुचल कर मरना पड़ेगा, कुछेक बारिश के पानी में बह जाएंगे, पर हाल साल ऐसे धर्म यात्रियों की तादाद बढ़ती ही जाती है.

इस जंजाल में फंसे लोग बड़ी मासूमियत से कहते हैं कि उन्होंने बाबा के पैदल जाने की मनौती कर रखी है. पैदल चलना ठीक है, पर अक्ल से पैदल होना बहुत खतरनाक है. अपने समय और संसाधनों की ऐसी बरबादी मत कीजिए. हर साल पैदल निकल कर क्या हासिल हुआ है? जब आज तक नहीं हुआ तो आगे भी नहीं होगा.

यह आध्यात्म का नहीं, बल्कि बरबादी का रास्ता है. अपने खेतखलिहान, रोजीरोटी और घरपरिवार को संभालनेसंवारने के इस कीमती वक्त में अंधभक्ति की अंधेरी सुरंग में नहीं धंसना चाहिए.

इस मसले पर सामाजिक कार्यकर्ता व विचारक प्रेमाराम सियाग कहते हैं, “ये पदयात्रा या कांवड़ यात्रा नहीं, बल्कि अपनी दुर्गति को बुलावा है. सिर्फ रामरसोड़ों के चायनाश्ते और खानेपीने के चक्कर मे अपना कीमती वक्त बरबाद करना है. इस तरह चलने से कुछ भी हासिल नहीं होगा. थोड़ा ठहर कर सोचिए और घर लौट जाइए. अच्छा काम कीजिए, मस्त रहिए, कानून को मानिए, सभ्य नागरिक बनिए, क्योंकि मेहनत से ही खुशहाली आएगी.”

बेकारी में कामकाजी होने का भरम

पैदल और कांवड़ यात्राएं ही नहीं, बल्कि मेहनतकश दलित, पिछड़े व आदिवासी समाज के नौजवान आजकल घरघर घूम कर चंदा जमा कर के भजन संध्याओं का आयोजन कर रहे हैं. भागवत व सत्यनारायण की कथाओं के बड़ेबड़े पंडाल खड़े कर रहे हैं. रामलीलाओं में जयकारे लगा रहे हैं. शोभायात्राओं की झांकियां कंधों पर उठाए घूम रहे हैं. मंदिर निर्माण के लिए चंदा जमा कर के बड़ेबड़े झंडे चढ़वा रहे हैं. धार्मिक जुलूसों में रंगबिरंगे झंडे लहरा रहे हैं. लेकिन इन सब का नतीजा कुछ नहीं निकलता है.

नेताओं की रैलियों में झंडेजयकारों का भार उठा रहे हैं. रातदिन सोशल मीडिया पर धर्मरक्षा की जंग लड़ रहे हैं. अपने धार्मिक और राजनीतिक आकाओं के लिए अपने परिवार और रिश्तेदारों तक से लड़ाई लड़ कर रहे हैं, जबकि होना तो यह चाहिए था कि किसान, गरीब, दलित, पिछड़ी जमात के नौजवान बेहतर स्कूल व कालेज के लिए लड़ें. बेहतर डाक्टरी इंतजामों के लिए जद्दोजेहद करें. सर्दीगरमी में तड़पते किसानों के बेहतर इंतजाम के लिए काम करें. नाइंसाफी व जोरजुल्म के खिलाफ आवाज उठाएं. नए रोजगार पैदा करें. देश की हिफाजत के लिए बेहतर तकनीक व हथियार बनाएं.

पंडों की कमाई की नई तरकीब

अकसर धर्म को कर्म, सेवा व भक्तिभाव से जोड़ कर देखा जाता है. कांंवड़ उत्सव हो या पदयात्राएं, इन में भी आखिर सवर्ण तबका ही बाजी मार रहा है. पिछड़े, दलित और कमेरे लोग सोचते हैं कि पसीना निकालने से ही धर्म कमाया जाता है, पसीना निकालना ही भक्ति भावना है. सवर्ण तबके के लोग जो हमेशा दिमाग से खेलते हैं, हार्डवर्क की बजाय सौफ्टवर्क में यकीन रखते हैं.

इस सवर्ण तबके ने कांंवड़ उत्सव में भी धर्म कमाने की, भोले को मनाने की नई तरकीब खोज निकाली है. इन्होंने तदबीर बनाई है कि जितने भी कांवड़िए आते हैं, उन की सेवा के लिए शिविर लगाए जाएं. शिविरों में कांवड़ियों के लिए खानेपीने की हर तरह का इंतजाम किया जाता है. ये अपनी औरतों समेत कांवड़ियों के पैर गरम पानी से धोते हैं. इन का मानना होता है कि यह सेवा कांवड़ लाने से भी बड़ी सेवा व भक्ति है.

गरीब कांवड़िए इन की इस सेवा में ही खुश हो लेते हैं और मारे खुशी के अरंड के पौधे पर चढ़ जाते हैं कि असली शिवभक्त तो हम ही हैं. ये शिविर और सेवा देहातियों को कांवड़ लाने के लिए और ज्यादा बढ़ावा देती है, जिस से हर बार कावड़ उत्सव में कांवड़ियों की तादाद बढ़ती जाती है, जिस से ऊंची जाति के इन बामणबाणियों के बाजारों में रौनक आती है. उस रौनक में से वे कुछ हिस्सा शिविरों में लगा देते हैं.

बेकारी का आईना है ऐसी भीड़

कांवड़ियों की बढ़ती भीड़ के मद्देनजर ‘मानवतावादी विश्व समाज’ के अध्यक्ष व एसपी किशन सहाय एक बार कहा था कि कांवड़ियों की जो भीड़ बढ़ी है, वह साबित करती है कि बेरोजगारी कितनी विकराल हो गई है.

किशन सहाय के इस बयान को मीडिया ने भले ही हिंदू धर्म के खिलाफ विवादास्पद व हिंदुओं का अपमान बताया हो, लेकिन एक आम जागरूक नागरिक के नजरिए से देखें तो इस में गलत क्या है?

जब लोग व्यवस्था से नाराज होते हैं तो अंधविश्वास में फंसते हैं. जब बेरोजगारों को सत्ता रोजगार नहीं दे पाएगी तो बेरोजगार नौजवान ठाली बैठे क्या करेंगे? कांवड़ लाने ही तो जाएंगे. भांगअफीम के नशे का सुनहरा अवसर व साथ में इस गरमी में नहाने के लिए गंगा का ठंडा पानी हो तो किस  का मन नहीं करेगा कांवड़ लाने का. अगर किसी को शक हो तो इन यात्रियों का सामान चैक कर लो, भरम से परदा उठ जाएगा. अगर कोई सचाई को बोल दे तो सारे पाखंडी इकट्ठे हो कर आग उगलने लग जाते हैं.

पश्चिमी राजस्थान में रामदेवरा धाम है. वहां पर भी ऐसी ही यात्राओं का हुजूम लगता है. सब बेरोजगार व गरीब, दलितपिछड़े लोग सड़कों पर झंडा उठाए चलते हुए मिलेंगे. वहां इस मौसम में सांप भी बहुत ज्यादा होते हैं. सांप के काटने के चलते कई लोग मर जाते हैं. वाहनों में भेड़बकरियों की तरह भरभर कर चलते हैं और हादसे के शिकार हो जाते हैं.

शिक्षाविद शिवनारायण इनाणियां कहते हैं, “किसानोंदलितों का काम के समय को इस तरह धर्मांधता में फंस कर बरबाद करना ठीक नहीं है. इस से खुद का ही नुकसान होता है. गरीबों का शोषण होता है. काम ठप होता है. रसोई लगा कर लोग फर्जी धर्मगुरु व नेता बन जाते हैं. वैसे भी जिन को दान करना है, उन्हें अपने गांव के स्कूल में सुविधाएं बढ़ाने के लिए पैसा खर्च करना चाहिए. गांव में किसी गरीब बच्चे की शिक्षा का खर्चा उठाना चाहिए. किसी बेसहारा के इलाज में मदद करनी चाहिए.

“ऐसी उन्मादी भीड़ यात्राओं के फैशन को बढ़ावा दे कर शोषण की दुकानें चलाने वालों को फायदा नहीं पहुंंचाना चाहिए. जबजब सत्ता की तरफ से लोगों को निराशा मिलती है, तो लोगों का मानसिक स्तर कमजोर होता है. कमजोरी के इस समय का उपयोग धर्मांधता फैलाने वालों को नहीं करने देना चाहिए.”

धर्मांधता कमजोर सोच की देन

जब नेपाल में भूकंप आया तो लोग भूख व दर्द में तड़प रहे थे. सत्ता फेल हो चुकी थी, तब पौप फ्रांसिस ने एक ट्वीट किया था कि मिशनरी के लिए यह सही वक्त है. उस समय लोगों का मानसिक स्तर डांवांडोल था और उन का मतलब धर्म प्रचार से था.

दुनियाभर से उन का विरोध हुआ, नेपाल के जागरूक लोगों ने मिशनरियों को घुसने तक नहीं दिया तो पौप ने सफाई दे कर माफी मांगी थी. जिक्र करने का मतलब यह है कि कमजोर सोच ही धर्मांधता में फंसने की एकमात्र वजह है और धर्म के नाम पर दुकान चलाने वाले ठग इसे बखूबी समझते हैं.

भारत के नौजवानों के अलग सपने, अलग रास्ते हैं. ये बजरंग दल, बीएचपी, ब्रह्मकुमारी, इस्कोन, आर्ट औफ लिविंग, नागा, अखाड़ा परिषद आदि में भरती हो कर अध्यात्म के रास्ते मोक्ष हासिल करना चाहते हैं.

हमें गलतफहमी है कि रेलवे का निजीकरण होने से बेरोजगारी बढ़ेगी, लेकिन देखना यह है कि कांवड़ योजना कितनों को रोजगार दे रही है. पैदल यात्रा योजना के तहत चीन की सीमा से होते मानसरोवर तक पहुंचा जा रहा है.

यह हमारी गलतफहमी है कि लोक सेवा आयोग समय पर भरतियां नहीं करते, इसलिए नौजवानों की ऊर्जा फालतू के कामों में बरबाद हो रही है, जबकि नौजवनाओं ने बड़ी दूरदर्शिता दिखाते हुए अध्यात्म से ओतप्रोत सत्ता चुनी है जो तमाम भरती एजेंसियों को खत्म कर के, तमाम संस्थानों का निजीकरण कर के मोक्ष के रास्ते के रोड़े हटा रही है. नौजवानों का भरतियों में बहुत समय खराब हो रहा था और नौकरी कर के इस जन्म में गृहस्थी के जंजाल में फंस कर अगली जिंदगी खराब करना नहीं चाहते हैं.

– खेत में खुदकुशी करते किसानमजदूर

-इलाज की कमी में मरते बीमार

-कुपोषण में बिलखता भारत

-शिक्षा की कमी में भटकता बचपन

-कारखानों में वर्कलोड से मरते मजदूर

-महिलाओं के साथ होते बलात्कार व हिंसा

-दलितों के साथ होते अत्याचार

-जातीय भेदभाव में कराहता देश

-भुखमरी से मरते इनसान

-धार्मिक उन्माद की भेंट चढ़ता समाज

-रोजगार की कमी में अपराध को मिलता बढ़ावा

-भ्रष्टाचार द्वारा देश को नोचता सिस्टम

-देश को लूटते देशीविदेशी लुटेरे

ये सब दलितपिछड़े तबके की वर्तमान जिंदगी की छोटी समस्याएं हैं. इन को वैसे ही इस जिंदगी के साथ खत्म होना ही है, इसलिए नौजवानों का इन से कोई लेनादेना नहीं है.

पंडित रविशंकर ठीक कह रहे हैं कि सरकारी स्कूलों को बंद कर देना चाहिए, क्योंकि यहां नक्सलवाद पैदा होता है. स्कूलें बंद होंगे तो एकाएक अध्यात्मिक सड़कों पर नौजवानों का रेला नजर आने लग जाएगा. अस्पताल भी बंद होने चाहिए. बूढ़े और बीमारों को वहां तक पहुंचाने में समय बरबाद होता है और धर्मस्थलों से भीड़ डाइवर्ट हो रही है.

शिक्षाविद केएल परास्या कटाक्ष करते हुए कहते हैं, “हर बुनियादी सुविधा दे रहे संस्थानों व योजनाओं को बंद कर देना चाहिए. फालतू में इस जन्म में उलझाए बैठे हैं. नौजवानों की चाहत के मुताबिक जल्द से जल्द मोक्ष की मंजिल पाने में हमे सहयोग करना चाहिए. भारत का नौजवान तबका बिलकुल जागा हुआ है और बहुत मेहनत कर रहा है. हमें हमारे नौजवानों का सहयोग करना चाहिए. आखिर उन के सपनों का सवाल जो है.”

जिम्मेदारियों से भागना

कांवड़ और पैदल यात्रियों के जत्थे डीजे पर भजनों की बेतुकी धुनों पर नशे में चूर हो कर नाचते हैं, तो ऐसा लगता है जैसे पागलपन का दौरा पड़ा हो. अगर ये यात्रा में नहीं नाच कर कहीं दूसरी जगह ऐसी हरकत कर रहे होते तो घर वाले कब के किसी अच्छे दिमागी डाक्टर की शरण में ले जाते.

आस्था के नाम पर जो लोग यात्राओं पर निकलते हैं, असल में वे अपनी जिम्मेदारियों से भागने वाले लोग हैं. मातापिता, भाईबहन, देशसमाज के प्रति अपनी जिम्मेदारियों को नहीं निभा पाने वाले लोग धर्म का सहारा लेते हैं. अपने मांबाप को उन के हाल पर छोड़ कर उन की इच्छा के खिलाफ अपनी मौजमस्ती के लिए जहां मरजी निकल पड़ते हैं, जबकि जो आदमी अपनी जिम्मेदारी व फर्ज निभा लेता है उसे कहीं पर भी जाने की जरूरत नहीं है.

आज से 40 साल पहले कोई यात्रा नहीं थी, तो क्या हमारे पुरखे धार्मिक नहीं थे? क्या पैदल यात्रा, कांवड़ यात्रा, गणेश उत्सव, गरबा, मटकी फोड़, करवाचौथ हमारे पुरखे मनाते थे? क्या ये किसी भी धर्म का हिस्सा थे? कौन लोग हैं, जिन्होंने ऐसे आयोजन शुरू किए? इन लोगों का मकसद क्या है? सच तो यह है कि इन आयोजनों को धर्म से जोड़ने वालों का मकसद इस देश के कमेरे तबके को लूट कर खुद के लिए रोजगार पैदा करना है.

शर्मनाक: जीती जागती लड़की का मृत्युभोज

कल एक ह्वाट्सएप ‘ग्रुप में शोक संदेश का कार्ड आया. शोक संदेश में एक लड़की की मौत होने और उस की ‘पीहर गौरणी’ यानी मृत्युभोज का आयोजन होने का ब्योरा छपा था. शोक संदेश पर लड़की की तसवीर भी छपी थी.

बहुत ही कमउम्र लड़की की मौत के इस शोक संदेश को पढ़ कर दुख हुआ, लेकिन जैसे ही कार्ड के साथ लिखी इबारत को पढ़ा तो मैं हैरान रह गया. आंखें हैरानी से खुली रह गईं, क्योंकि यह मृत्युभोज किसी लड़की की मौत पर नहीं, बल्कि उस के जीतेजी किया जा रहा था.

उस शोक संदेश में लड़की की मौत की तारीख  1 जून, 2023 लिखी थी और मृत्युभोज  का आयोजन 13 जून, 2023 को आयोजित किया जाना लिखा था. यह मृत्युभोज लड़की के दादा, पिता, चाचा, ताऊ और भाई कर रहे थे.

यह मामला केवल हैरानी तक सीमित नहीं है, बल्कि यह परेशान करने वाला है. इस से पता चलता है कि हमारा समाज आज भी किस मोड़ पर खड़ा है. यह शोक संदेश राजस्थान के भीलवाड़ा जिले के एक गांव से आया था.

वहां की 18 साल की एक लड़की ने अपनी पसंद के लड़के से शादी रचा ली थी और उस के इस ‘अपराध’ की सजा उसे जीतेजीते मरा घोषित कर के दी जा रही थी.

इस लड़की की सगाई गांव के ही एक लड़के से हुई थी. किसी वजह से परिवार वालों ने यह सगाई तोड़ दी, लेकिन लड़की ने इसे मंजूर नहीं किया. वह उसी लड़के से शादी करने पर अड़ गई.

परिवार वालों ने हामी नहीं भरी, तो लड़की ने घर से भाग कर उसी लड़के से शादी कर ली.  जब परिवार वालों ने लड़की की गुमशुदगी दर्ज कराई, तो पुलिस ने उसे ढूंढ़ कर बयान लिए. लड़की ने अपनी मरजी से शादी करने की बात कह कर परिवार वालों के साथ जाने से इनकार कर दिया.

लड़की का यह रवैया परिवार वालों को किस कदर नागवार गुजरा होगा, इस बात का अंदाजा शोक संदेश से लगाया जा सकता है. उन्होंने इस के विरोध में वही तरीका अपनाया, जो गांवदेहात में प्रचलित है यानी लड़की को मरा घोषित कर के उस का मृत्युभोज कर देना.

लड़की के परिवार वालों ने इसे अपनी ‘पगड़ी की लाज’ बचाने का कदम बताया है.  जब कोई लड़की भाग कर शादी कर लेती है, तो समाज उस के परिवार वालों को किस कदर शर्मिंदा करता है, यह किसी से छिपा नहीं है.

लड़की के भाग जाने की खबर सार्वजनिक होते ही उस के परिवार वालों पर थूथू की जाने लगती है. इस मामले में भी यही हुआ. जब प्रिया नामक इस लड़की ने अपनी मरजी से शादी रचाई, तो किसी ने इस की खुशी नहीं मनाई.

परिवार वालों पर यह खबर बिजली की तरह गिरी. उन्हें लगा कि वे किसी को चेहरा दिखाने लायक नहीं रहे. गांव के पंचपटेलों ने भी जलती आग  में घी का काम किया.

इस का नतीजा जीतीजागती लड़की के शोक संदेश के रूप में सामने आया. यह अपनी तरह का कोई पहला मामला नहीं है. लड़की के अपनी मरजी से शादी कर लेने पर गांवदेहात में ऐसी बातें अकसर सुनने को मिलती रहती हैं.

पहले ऐसी बातें अखबारों की सुर्खियां नहीं बनती थीं, लेकिन सोशल मीडिया के दौर में अब ऐसी बातें फौरन घरघर तक पहुंच जाती हैं. 2-3 साल पहले मध्य प्रदेश में मंदसौर के पास एक गांव की 19 साल की शारदा ने अपनी पसंद के लड़के से शादी की, तो उस के परिवार वालों ने भी वैसा ही कुछ किया था, जो अब प्रिया के परिवार वालों ने करने की सोची.

सवाल उठता है कि आखिर ऐसा कर के किसी को मिलेगा क्या? दरअसल, भाग कर शादी करने वाली लड़कियों के परिवार वाले उन के जीतेजी मृत्युभोज कर के अपनी नाक ‘ऊंची’ फिर से करना चाहते हैं.  उन्हें लगता है कि जब वे अपनी लड़की को मरा मान लेंगे, तो समाज उन्हें कुसूरवार नहीं ठहराएगा, बल्कि उन की गिनती उन ‘बेचारों’ में होगी, जिन की परवाह उस औलाद ने भी  नहीं की, जिसे उन्होंने पालापोसा और पढ़ायालिखाया.

21वीं सदी में पहुंचने के बावजूद भी समाज की असली तसवीर यही है. इस का सुबूत हैं वे बातें, जो भीलवाड़ा की प्रिया के मृत्युभोज का कार्ड सोशल मीडिया पर वायरल होने पर सामने आईं.  ऐसे लोगों की तादाद कम नहीं है, जो जीतीजागती लड़की का मृत्युभोज करने को सही ठहरा रहे हैं.

इसे अच्छी पहल बताया जा रहा है. समाज में हम अकसर लोगों को नारी सशक्तीकरण की बातें करते सुनते हैं, लेकिन जब कोई लड़की अपनी मरजी  से शादी कर लेती है, तो उसे कुलटा, कलंकिनी, कुलबैरन, खानदान की नाक कटाने वाली और न जाने क्याक्या कहा जाने लगता है.

कई बार तो मनमरजी से शादी करने का बदला लड़की की हत्या कर के लिया जाता है. समझ नहीं आता कि लड़की के अपनी मरजी से शादी करने पर ही कुल की नाक नीची क्यों होती है? कोई लड़का अगर पसंद की लड़की से शादी कर ले, तो ऐसा हंगामा क्यों नहीं बरपता? इस से भी बड़ा सवाल यह है कि क्या एक बालिग लड़की को अपनी पसंद से शादी करने का भी हक नहीं है?

तो अब धार्मिक रिवाजों से इंसाफ मिलेगा

आखिरकार धार्मिक रीति और नीतियां कैसे महिलाओं के इंसाफ के लिए रुकावट बनती हैं, इस का जीताजागता उदाहरण इलाहाबाद हाईकोर्ट के उस आदेश से सामने आया, जो उस ने 23 मई, 2023 को दिया था.

मामला उत्तर प्रदेश के चिनहट क्षेत्र का है, जहां एक लड़की ने गोविंद राय उर्फ मोनू पर शादी का झांसा दे कर सैक्स संबंध बनाने का आरोप लगाया. अपने बचाव में आरोपी ने दलील दी

कि उस ने आरोप लगाने वाली लड़की से ब्याह करना तो चाहा, पर चूंकि लड़की मांगलिक थी, इसलिए उस ने शादी नहीं की.

यहां इस धार्मिक रिवाज का जिक्र करना जरूरी है कि मंगली या मांगलिक होना हिंदू परंपरा के अनुसार मंगल के प्रभाव में पैदा हुआ वह इनसान है, जिस की शादी सिर्फ किसी मांगलिक इनसान से ही हो सकती है.

धार्मिक रिवाजों के अनुसार इसे एक तरह का ‘भाग्यदोष’ कहा जाता है यानी लड़की की शादी इस दोष में आसान नहीं होती और कहा जाता है कि अगर वह किसी गैरमांगलिक लड़के से शादी करेगी तो भारी अनहोनी घट सकती है, जैसे शादी टूटना, परिवार में किसी की मौत होना, लड़ाईझगड़े या तरक्की न कर पाना वगैरह.

अब चूंकि उत्तर प्रदेश में पौराणिक सरकार है और सरकार ने आधिकारिक तौर पर ज्योतिष विद्या की पढ़ाई करनेकराने का कोर्स यूनिवर्सिटी में शुरू करा ही दिए हैं, तो लखनऊ बैंच के जस्टिस बृज राज सिंह ने सोचा कि लड़के की बात में तो दम है, आखिर भला कोई भारतीय संस्कृति को मानने वाला कैसे किसी मांगलिक लड़की से शादी कर सकता है? तो फौरन लखनऊ यूनिवर्सिटी के ज्योतिष विभाग के अध्यक्ष से 10 दिन के भीतर लड़की की कुंडली जांचने का आदेश दे दिया कि वह मांगलिक है भी कि नहीं.

यह तो उस दलील से भी घटिया बात निकली, जब कोई लड़का कहे कि चूंकि फलां लड़की घर से बाहर निकली, इसलिए उस के साथ रेप किया. इस में उस बेचारे की गलती नहीं, बल्कि सारी गलती तो लड़की की है और कोर्ट यह पता लगाने लग जाए कि लड़की घर से निकली थी या नहीं.

हालांकि 3 जून, 2023 को सुप्रीम कोर्ट ने हाईकोर्ट के इस आदेश पर यह कहते हुए रोक लगा दी कि ‘सवाल यह नहीं है कि मांगलिक तय किया जा सकता है या नहीं और ज्योतिष भी एक विज्ञान है, सवाल यह है कि क्या कोर्ट ऐसा आदेश दे सकता है?’

सुप्रीम कोर्ट ने भले ही आदेश को रोक दिया, लेकिन इस से यह सवाल उठा कि क्या आने वाले समय में देश में इंसाफ की यही भाषा होने जा रही है? क्या ऐसे जज देशभर के कोर्टों में भरने नहीं लग गए हैं? सवाल यह भी है कि क्या अब इंसाफ करते समय वैज्ञानिक तर्कों की जगह धार्मिक रिवाजों को ऊपर रखा जाने लगा है?

अगर ऐसा होने लगता है, तो कल को कोई महिला अगर घरेलू हिंसा का मामला ले कर अदालत पहुंच कर कोर्ट में तलाक की अर्जी लगाती है, तो उस का मामला तो ऐसे ही रफादफा हो जाएगा कि धार्मिक रिवाज तो औरतों को पति की दासी बनी रहने का आदेश देता है, वह चाहे मारेपीटे, उसे चुपचाप सहना है और पति के आदेश का पालन करना है, क्योंकि ऐसे मौकों पर ही तो आरोपी पति अपने पक्ष में सती प्रथा में जलाई जाने वालों के तर्क रखेंगे.

ऐसा होता है तो कोई दलित कुएं से पानी पीने की फरियाद ले कर पहुंचेगा तो पहले चैक किया जाएगा कि हिंदू रिवाजों में दलित सवर्णों के बनाए कुओं से पानी पी सकता है कि नहीं? वह साथ बैठ कर खाना खा सकता है कि नहीं? या उसे पढ़नेलिखने का हक है कि नहीं?

जिस समाज में लड़की के रंगरूप वगैरह को ले कर इतना भेदभाव किया जाता है, जहां दहेज जैसी कुरीति का बोलबाला है, दहेज हत्या के मामले भयानक हैं, वहां ऐसे आदेश देशभर की लड़कियों का मजाक उड़ाने जैसे नहीं हैं क्या? इस तरह के आदेश कहीं न कहीं पंडोंज्योतिषियों की लूट की दुकान चलती रहे, इसलिए दिए जा रहे हैं.

जरूरत तो यह थी कि कुंडली जैसे फिजूल के रिवाजों और प्रथाओं से लड़ने की एक वैज्ञानिक चेतना जगाई जाए, लेकिन इस की जिम्मेदारी ही जिन्हें सौंपी जा रही है, वे ही ऐसे आदेश देंगे तो हो गया फिर सब का भला.

दोस्त के ब्रेकअप के बाद कैसे करें मदद

‘‘क्या हुआ, तुम इतनी उदास क्यों बैठी हो,’’ नीता ने पूछा तो नेहा फूट पड़ी, ‘‘अविनाश से मेरा ब्रेकअप हो गया है. काफी समय से हम दोनों साथ थे परंतु उस ने मुझे धोखा दे दिया. आई डोंट नो यार, वह तो हमेशा साथ निभाने की बातें करता था, लेकिन उस के मन में क्या चल रहा था यह मुझे पता नहीं था.’’

‘‘यार नेहा, छोड़ अब इन बातों को और अपनी जिंदगी की नए सिरे से शुरुआत कर,’’ नीता ने नेहा के आंसू पोंछते हुए समझाया.

अकसर देखने में आता है कि ब्रेकअप के बाद युवतियां अपनेआप को काफी हताश महसूस करने लगती हैं साथ ही मानसिक रूप से भी इतनी अधिक कमजोर पड़ जाती हैं कि उन्हें जरूरत होती है ऐेसे दोस्त की जो उन्हें समझ सके.

अगर आप की दोस्त का भी ब्रेकअप हो गया है तो आप अपनी दोस्त को इस मुश्किल घड़ी से निकालने में मदद कर सकते हैं जानिए कैसे :

समझदारी दिखाएं

सब से पहले जरूरी है कि आप उस की बात समझिए आखिर उन के बीच हुआ क्या था? उसे अपने मन की बात बोलने दें, इस से उस का मन हलका होगा और जब आप उस की बात सुनेंगे तो उसे अपनेपन का एहसास भी होगा.

ब्रेकअप के बाद वैसे भी दोनों पार्टनर के मन में काफी कुछ चलता रहता है. दोनों एकदूसरे को दोषी ठहराते नजर आते हैं. ऐसे में आप की दोस्त में भी काफी गुस्सा होना लाजमी है. यदि वह आप को सबकुछ बता देगी तो उस का मन शांत हो जाएगा इसलिए बिना कोई राय दिए उस की पूरी बात सुनें.

अनदेखा करना

कई बार ऐसा होता है कि शुरू में जब आप की दोस्त का दिल टूटा होता है, आप उस की सब बातें सुन लेते हैं, लेकिन थोड़े दिन बाद उसे अनदेखा करने लगते हैं. इस से वह मानसिक तौर पर भी टूट जाती है, क्योंकि जिस से वह प्यार करती थी वह तो दूर चला ही गया अब तो उस के सच्चे दोस्त भी उसे अनदेखा कर रहे हैं.

इसलिए जरूरी है कि इस दौरान जब भी उसे अकेलापन महसूस हो, तो आप उसे खुशी का एहसास कराएं. इस से वह बेहतर तरीके से आप से जुड़ पाएगी और मजबूत होती चली जाएगी. इस के लिए आप उसे ज्यादा से ज्यादा समय दें, जब वह निराश हो तो उस में अपनी पौजिटिव बातों से नई ऊर्जा भरने की कोशिश करें. इस से वह बहुत जल्दी इस गम से उभर पाएगी.

घूमने जाएं

यदि आप उस के साथ कहीं घूमने का प्रोग्राम बनाते हैं तो उसे अच्छा लगेगा, क्योंकि ब्रेकअप के बाद युवतियां काफी तनाव में आ जाती हैं. इस तनाव से उभारने के लिए जरूरी है कि  आप उस का ध्यान किसी और जगह पर लगाएं. सभी पुराने दोस्तों को इकट्ठा करें और कहीं घूमने का प्लान बनाएं. किसी ऐसी जगह, जहां आप सभी ऐंजौय कर सकें. जैसे किसी कौमेडी मूवी को देखने या ऐम्यूजमैंट पार्क आदि जगहों पर वह अपनेआप को बेहतर महसूस करेगी और वैसे भी पुराने दोस्तों के साथ मजा दोगुना हो जाएगा.

विश्वासघात न करें

यदि आप अपनी दोस्त का सच्चा मित्र बनना चाहते हैं तो जरूरी है कि आप उस से विश्वासघात न करें. जब वह आप के  सामने अपनी बातें शेयर कर रही हो तो जरूरी है कि आप उस की बातों को और कहीं किसी के सामने न बताएं, क्योंकि शायद उस ने अपने ब्रेकअप से पहले की कुछ सीक्रेट बातें आप से कह दी हों, लेकिन ऐसे में आप का फर्ज है कि उन की बातों को अपने तक ही रखें. धीरेधीरे आप उन के सब से भरोसेमंद फ्रैंड बन जाएंगे और वह आप से हर तरह की बात शेयर कर पाएगी.

बौयफ्रैंड की बुराई न करें

आप की दोस्त का बौयफ्रैंड जिस से उस का ब्रेकअप हुआ है, की बुराई न करें. इस से उस का मन और भी दुखी होगा. साथ ही वह बहुत ज्यादा तनाव महसूस करेगी बल्कि कोशिश करें कि  वह इन बातों से उबर सके, क्योंकि जितनी बातें आप उस से ब्रेकअप के बारे में करेंगे या उस के ऐक्स केबारे में करेंगे वह उतनी ही परेशान होगी. यह भी हो सकता है कि वह इरिटेट हो कर आप से बात करना ही छोड़ दे.

मजाक न बनाएं

कई लोगों की आदत होती है कि वे दूसरों की बातों का मजाक उड़ाते फिरते हैं. यह भी नहीं सोचते कि उस पर क्या गुजर रही है. जरूरी यह है कि आप किसी की भावनाओं को बिना ठेस पहुंचाए उस को ऐसी परिस्थितियों से उबारने की कोशिश करें. मुश्किलें तो हर किसी के जीवन में आती हैं, लेकिन यदि हम सच्चे दोस्त हैं तो जरूरी है कि इस मुश्किल घड़ी में उस का साथ दें.

नए रिश्ते बनाने की सलाह

ब्रेकअप के बाद जब आप की फ्रैंड सिंगल है तो इस का यह मतलब कतई न निकालें कि उसे एक बौयफ्रैंड की सख्त जरूरत है. उसे समझाएं कि उस का ऐक्स बौयफ्रैंड उस के लिए बना ही नहीं था, उसे किसी ऐसे का चुनाव करना चाहिए जो उसे समझ सके. इस से उसे भी लगेगा कि जल्दबाजी में किसी से भी दोस्ती करने का कोई फायदा नहीं होगा.

दहेज नही नौकरी वाली लड़की जरूरी

अखबार और मैट्रिमोनियल साइट पर मनचाहे जीवनसाथी के लिए इश्तिहार दिए जाते हैं, जिन में लिखा होता है कि लड़की में क्याक्या गुण होने चाहिए. आमतौर पर उन में लड़की की पढ़ाईलिखाई, खूबसूरती, अच्छे रंगरूप, लंबाई का जिक्र होता है. लड़के के लिए लड़की खोजते समय इन सब बातों के साथसाथ उस की तनख्वाह का जिक्र भी होता है.

कुछ समय पहले सोशल मीडिया पर मध्य प्रदेश के छिंदवाड़ा के रहने वाले एक लड़के का पोस्टर लिए फोटो वायरल हुआ था, जिस में लिखा था ‘लड़की सरकारी नौकरी वाली चाहिए. दहेज हम देंगे’. इस पोस्टर ने एक समस्या की तरफ ध्यान खींचने का काम किया था कि ‘दहेज नहीं नौकरी वाली लड़की जरूरी है’.

50 के दशक तक दहेज को कुप्रथा के रूप में दिखाते हुए तमाम फिल्में बन चुकी हैं. सिनेमा समाज का आईना होता है. आज भी दहेज की समस्या पूरी तरह से खत्म नहीं हुई है. इसी मुद्दे को फिर से फिल्में बड़े परदे पर ले कर आई हैं, जिन से यह पता चलता है कि दहेज बंद नहीं हो रहा है. इस के रूप बदल गए हैं. कई फिल्मों में इस परेशानी को दिखाया गया है.

हिंदी फिल्म ‘रक्षाबंधन’ टैलीविजन सीरियल की तरह पारिवारिक है. अक्षय कुमार ने बतौर प्रोड्यूसर और हीरो फिल्म के डायरैक्टर आनंद एल. राय के साथ कोशिश की थी कि आज के जमाने में सदियों से चलती आ रही दहेज की इस कुप्रथा को दिखाया जाए.

साल 1980 में फिल्म ‘सौ दिन सास के’ आई थी. दहेज प्रथा पर 80 के दशक में डायरैक्टर विजय सदाना ने यह एक सुपरहिट फिल्म बनाई थी. इस फिल्म में ललिता पवार को एक जालिम सास का तमगा दिया गया था. फिल्म में आशा पारेख एक पीडि़त बहू बनी थीं और रीना राय एक धाकड़ बहू थीं, जो दहेज की कुप्रथा के खिलाफ आवाज उठाती हैं.

साल 1950 में फिल्म ‘दहेज’ वी. शांताराम ने बनाई थी. इस फिल्म में पृथ्वीराज कपूर और जयश्री ने काम किया था. साल 1982 में फिल्म ‘दूल्हा बिकता है’ बनी थी. राज बब्बर और अनीता राज की इस फिल्म को दर्शकों ने पसंद किया था. फिल्म ‘रक्षाबंधन’ की तरह इस फिल्म में एक ऐसे भाई की कहानी थी, जो बहनों की शादी के लिए अपनी कुरबानी दे देता है.

फिल्म ‘ये आग कब बुझेगी’ साल 1991 में बनी थी. इस फिल्म में सुनील दत्त ने हीरोइन शीबा को लौंच किया था, जो उन की दहेज पीडि़त बेटी बनी थीं. कैसे शीबा को उस के ससुराल वाले दहेज की खातिर जला कर मार डालते हैं, यह इस फिल्म की कहानी थी.

इसी तरह से डायरैक्टर राजकुमार संतोषी ने तकरीबन 15 साल पहले मनीषा कोइराला और माधुरी दीक्षित के साथ फिल्म ‘लज्जा’ बनाई थी, जहां पर अलगअलग नारी प्रधान मुद्दे उठाए गए थे. उसी में से एक था दहेज का मुद्दा, जिस में महिमा चौधरी एक दहेज पीडि़त लड़की बनी थीं.

इसी तरह से फिल्म ‘अंतर्द्वंद्व’ में भी दहेज के मुद्दे को उठाया गया कि कैसे बिहार में एक दूल्हे का अपहरण हो जाता है. इस में दहेज के मुद्दे को एक नए अंदाज में दिखाया गया था. साल 2009 में इस फिल्म को नैशनल अवार्ड भी दिया गया था.

साल 2014 में फिल्म ‘दावत ए इश्क’ फिल्म भी दहेज की परेशानियों को ले कर बनी थी, जिस से यह पता चला कि दहेज अब भी खत्म नहीं हुआ है. आज भी देश के छोटे शहरों, कसबों और गांवों में यह चलन जारी है. यशराज फिल्म्स ने परिणीति चोपड़ा और आदित्य राय कपूर के साथ यह फिल्म बनाई थी.

तलाक और घरेलू हिंसा में बढ़ोतरी

दहेज के चलते न केवल शादियां टूटती हैं, बल्कि घरेलू हिंसा भी होती है. कोई लड़का लड़की वालों की तरफ से बाइक नहीं मिलने से, कोई कार तो कोई घर में वाशिंग मशीन नहीं मिलने से रूठ जाता है. लड़का और उस के परिवार वाले लड़की को ताने मारमार कर परेशान कर देते हैं. हालात यहां तक पहुंच जाते हैं कि इस के चलते लड़कियों को हिंसा का सामना करना पड़ता है. कई मामलों में जान तक गंवानी पड़ती है.

सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी ने दहेज प्रथा पर एक बार फिर बहस छेड़ दी है. गैरसरकारी और सामाजिक संगठन पहले से ही जो बात कहते रहे थे अब बड़ी अदालत ने भी वही बात कही है.

भारत में महिलाओं ने शिक्षा और रोजगार के क्षेत्र में बहुत प्रगति की है, लेकिन शादियों में दहेज की समस्या ज्यों की त्यों बनी हुई है. पिछले कुछ दशकों में लगातार बने नए कानूनों के बावजूद इस के रोकने में कोई कामयाबी नहीं मिली है. अब सुप्रीम कोर्ट ने दहेज निरोधक कानून पर दोबारा विचार करने की भी जरूरत बताई है.

देश में शिक्षा के प्रचारप्रसार और समाज के लगातार आधुनिक होने के बावजूद दहेज प्रथा पर अंकुश नहीं लगाया जा सका है. दहेज के लिए हत्या और उत्पीड़न के भी हजारों मामले सामने आते रहे हैं. लेकिन साथ ही दहेज निरोधक कानून के गलत इस्तेमाल के मामले भी अकसर सामने आते हैं. इस से इस कानून पर सवाल उठते रहे हैं.

भारत में शादी के मौकों पर लेनदेन यानी दहेज प्रथा आदिकाल से चली आ रही है. पहले यह वधू पक्ष की सहमति से उपहार के तौर पर दिया जाता था, बाद में यह एक सौदा और शादी की जरूरी शर्त बन गया.

वर्ल्ड बैंक ने अपनी एक रिपोर्ट में कहा है कि बीते कुछ दशकों में भारत के गांवों में दहेज प्रथा काफी हद तक स्थिर रही है. लेकिन यह जस की तस है. यह हालत तब है, जब साल 1961 से ही भारत में दहेज को गैरकानूनी घोषित किया जा चुका है. यह रिपोर्ट भारत के 17 राज्यों पर आधारित है.

वर्ल्ड बैंक की अर्थशास्त्री

एस. अनुकृति, निशीथ प्रकाश और सुंगोह क्वोन की टीम ने साल 1960 से ले कर साल 2008 के दौरान ग्रामीण इलाकों में हुई 40,000 शादियों की स्टडी में पाया कि 95 फीसदी शादियों में दहेज दिया गया.

दहेज में बड़ा खर्च

दहेज में परिवार की बचत और आमदनी का एक बड़ा हिस्सा खर्च होता है. साल 2007 में ग्रामीण भारत में कुल दहेज वार्षिक घरेलू आय का 14 फीसदी था. देश में साल 2008 से ले कर अब तक समाज में काफी बदलाव आए हैं. लेकिन रिसर्च करने वालों का कहना है कि दहेज के लेनदेन के तौरतरीकों में अब तक कोई बदलाव देखने को नहीं मिला है.

स्टडी से यह बात भी सामने आई है कि दहेज प्रथा सभी प्रमुख धर्मों में प्रचलित है. दिलचस्प बात यह है कि ईसाई और सिख समुदाय में हिंदुओं और मुसलिमों की तुलना में औसत दहेज में बढ़ोतरी हुई है.

स्टडी में पाया गया कि दक्षिणी राज्य केरल में 70 के दशक से दहेज में बढ़ोतरी दर्ज की गई है और हाल के सालों में भी वहां दहेज की औसत सब से ज्यादा रही है.

भारत में दहेज प्रथा की शुरुआत उत्तर वैदिक काल से मानी जाती है. उस समय वस्तु के रूप में इस प्रथा का चलन शुरू हुआ था, जिस का स्वरूप मौजूदा दहेज प्रथा से एकदम अलग था. तब लड़की का पिता घर से विदा करते समय कुछ तोहफे देता था. लेकिन उसे दहेज नहीं, उपहार माना जाता था.

मध्यकाल में इस वस्तु को स्त्री धन के नाम से पहचान मिलने लगी. पिता अपनी इच्छा और काबिलीयत के मुताबिक धन या तोहफे दे कर बेटी को विदा करता था. इस के पीछे सोच यह थी कि जो उपहार वह अपनी बेटी को दे रहा है, वह किसी परेशानी या फिर किसी बुरे समय में उस के काम आएगा.

आज दहेज व्यवस्था एक ऐसी प्रथा का रूप ले चुकी है, जिस के तहत लड़की के मातापिता और परिवार वालों का सम्मान दहेज में दिए गए पैसों पर ही निर्भर करता है.

सीधे तौर पर कहें तो दहेज को सामाजिक मानप्रतिष्ठा से जोड़ दिया गया है. वर पक्ष भी सरेआम अपने बेटे का सौदा करता है. प्राचीन परंपराओ के नाम पर लड़की के परिवार वालों पर दबाव डाल कर उन्हें सताया जाता है. इस व्यवस्था ने समाज के सभी वर्गों को अपनी चपेट में ले लिया है. कानून से नहीं हुआ समाधान

दहेज प्रथा को खत्म करने के लिए अब तक न जाने कितने नियमकानून बनाए जा चुके हैं, लेकिन उन में से कोई भी असरदार साबित नहीं हुआ है. साल 1961 में सब से पहले दहेज निरोधक कानून वजूद में आया, जिस के मुताबिक दहेज देना और लेना दोनों ही गैरकानूनी घोषित किए गए. लेकिन इस का कोई ज्यादा फायदा नहीं मिल पाया.

आज भी वर पक्ष खुलेआम दहेज की मांग करता है. साल 1985 में दहेज निषेध नियमों को तैयार किया गया था. इन नियमों के मुताबिक शादी के समय दिए गए उपहारों की एक दस्तखत की गई लिस्ट बना कर रखा जाना चाहिए.

महज कानून बनाना इस समस्या का समाधान नहीं है. समाज में हर किस्म के लोग हैं. कोई भी कानून तब तक असरदार नहीं हो सकता, जब तक उसे समाज का समर्थन नहीं मिले. सब से बड़े दुख और हैरानी की बात यह है कि अब सामाजिक संगठन भी दहेज के विरोध में कोई जागरूकता अभियान नहीं चलाते.

पढ़ेलिखे लोग भी बेहिचक इस की मांग करते हैं. इस कलंक को मिटाने के लिए समाज की सोच और नजरिया बदलना जरूरी है. नौजवान पीढ़ी में जागरूकता पैदा किए बिना इस समस्या का समाधान मुश्किल है.

तेलंगाना में एक मामला सामने आया है, जहां एक लड़की ने दहेज कम होने के चलते आखिरी समय में शादी करने से इनकार कर दिया. हैदराबाद के आदिवासी समाज में लड़कियों के परिवार को दहेज देने का रिवाज है.

9 मार्च को घाटकेसर में शादी होनी तय थी. लड़के वाले वैडिंग हाल में पहुंच गए. लेकिन अचानक पता चला कि लड़की ने शादी करने से इनकार कर दिया. लड़की ने दूल्हे के परिवार वालों से मांग कर दी कि उसे 2 लाख से ज्यादा रुपए चाहिए. शादी से पहले लड़के के परिवार वालों ने दहेज में 2 लाख रुपए दिए थे.

जब लड़की ने वैडिंग हाल पहुंचने से मना कर दिया, तो लड़के के परिवार वाले उस के परिवार के सदस्यों से मिलने पहुंच गए. लड़की वालों से जवाब मांगा गया. वहां लड़के वालों को कहा गया कि लड़की और ज्यादा दहेज मांग रही है.

इस के बाद लड़के के परिवार वाले पुलिस स्टेशन पहुंच गए. वहां पुलिस ने लड़की के घर वालों को भी बुला लिया. बाद में दोनों परिवारों ने शादी कैंसिल करने का फैसला किया. ऐसे मामले हर प्रदेश में छिटपुट रूप से सुनाई देते हैं. इस के बाद भी परेशानी का हल होता नहीं नजर आ रहा है.

गुजरात में दहेज न लेने वजह देश में शादियों को ले कर कई तरह के रीतिरिवाज हैं. अलगअलग जगहों पर वहां की सभ्यता के हिसाब से रिवाज बदलते रहते हैं. गुजरात के कुछ गांवों में शादी के लिए अलग ही रिवाज हैं.

गुजरात के पाटीदार समाज में शादी करने के लिए लड़के वालों को दहेज देना पड़ता है. जो लड़के 42 गांव के पाटीदार समाज की लड़कियों से शादी करना चाहते हैं, वे उन्हें दहेज देते हैं.

इस में गांधीनगर और मेहसाणा जिलों के 42 गांवों के लोग शामिल हैं, जो विदेशों में ही शादी कर के बसना चाहते हैं, वहीं ज्यादातर लड़कियां भी एनआरआई लड़कों से शादी करना पसंद करती हैं.

जो लड़के पहले से ही अमेरिका में बस गए हैं, वे अमेरिका में बसी लड़कियों को दहेज दे रहे हैं. लड़की के परिवार द्वारा उसे गैरकानूनी तौर पर दूसरे देश में बसाने में मदद करने के खर्च को दहेज के रूप में लिया जाता है. दहेज की रकम तकरीबन 15 लाख से 30 लाख रुपए तक होती है.

अगर कोई लड़का अमेरिका नहीं गया है और न ही कोई रिश्तेदार विदेश में है, तो उस के लिए शादी करना मुश्किल हो जाता है. गांव में कई लड़के हैं, जो कुंआरे रह गए हैं. उन के पास अमेरिका में बसने का कोई रास्ता नहीं था. इसी के चलते कुछ लड़के खतरनाक और गैरकानूनी रूप से अमेरिका भी जाते हैं.

इसलिए है जरूरी दहेज को ले कर बहुत सारे कानून और सामाजिक जागरूकता के बाद भी इस समस्या का कोई हल नहीं निकल पाया है. इस की वजह हमारे समाज में गैरधर्म और गैरजाति में शादी को सामाजिक मंजूरी नहीं मिल रही है. पढ़ीलिखी लड़कियों के सामने भी यही परेशानी है.

लेख की शुरुआत में इस बात का जिक्र आया था, जहां एक लड़का पोस्टर के जरीए यह कह रहा है कि सरकारी नौकरी वाली लड़की के लिए वह दहेज देने को तैयार है.

समाज में यह बदलाव अभी सरकारी नौकरी तक सीमित है. प्राइवेट नौकरी के मामले में कई बार यह देखा गया है कि शादी के बाद लड़कियों पर नौकरी छोड़ने का दबाव होता है. इस दबाव में लड़कियों को अपनी प्राइवेट नौकरी छोड़नी पड़ती है.

इस की यह वजह मानी जाती है कि प्राइवेट नौकरी में तनख्वाह कम है. नौकरी में सुरक्षा की गारंटी नहीं है. लड़कियों को शादी के शुरुआती कुछ सालों में ससुराल में तालमेल बिठाने के लिए समय चाहिए होता है.

कई बार घरपरिवार के दबाव में लड़कियां यह सोचती हैं कि शादी के पहले वाली नौकरी छोड़ने के बाद दूसरी नौकरी कर लेंगी, लेकिन फिर अच्छी नौकरी नहीं मिलती है. लड़कियां भी धीरेधीरे उसी ढांचे में ढल जाती हैं. 3-4 साल के बाद उन्हें लगता है कि नौकरी छोड़ कर गलत किया.इस सोच को बदलने की जरूरत है. दहेज नहीं नौकरी वाली लड़की हर घरपरिवार की जरूरत है. ससुराल वालों को दहेज की जगह इन लड़कियों को पसंद करना चाहिए.

व्हाट्सऐप की लत है गलत

जब से व्हाट्सऐप नामक तकनीकी भूचाल ने हमारी जिंदगी में प्रवेश किया है, तब से हमारी जिंदगी का स्वरूप ही बदल गया है. पुरुष हो या महिला, बुजुर्ग हों या बच्चे, सभी के हाथ में स्मार्टफोन हैं. सभी व्यस्त हैं अपनेआप में व्हाट्सऐप के माध्यम से. जहां एक तरफ व्हाट्सऐप ने हमारे लिए जीवन में अत्यंत सुगमता और खुशियां भर दी हैं वहीं उस की ही वजह से जिंदगी में अनेक तरह के तनाव भी उत्पन्न हो रहे हैं.

ये तनाव एक साइलैंट किलर की तरह हमारे स्वास्थ्य को खा रहे हैं जिस का एहसास हमें होता तो है पर अपने इस तनाव की चर्चा हम किसी से कर नहीं सकते. चर्चा करने पर हंसी के पात्र बनने की संभावना होती है, क्योंकि व्हाट्सऐप से उपजा तनाव होता ही है कुछ अलग तरह का.

व्हाट्सऐप से उत्पन्न होने वाले तनाव देखनेसुनने में तो बहुत मामूली लगते हैं पर जिन लोगों ने व्हाट्सऐप को अपनी दिनचर्या का अहम हिस्सा बना रखा है, निश्चितरूप से ये छोटीछोटी बातें उन के दिलोदिमाग पर दिनरात हावी हो कर न केवल उन की दिनचर्या को प्रभावित करती हैं, बल्कि उन के मानसिक स्वास्थ्य और दैनिक व्यवहार को भी प्रभावित करती हैं.

जवाब का इंतजार

जब भी लोग व्हाट्सऐप पर कोई मैसेज भेजते हैं तो भेजने के तुरंत बाद से ही दिमाग यह जानने को उत्सुक हो उठता है कि मैसेज डिलीवर हुआ या नहीं और उस के तुरंत बाद से मैसेज के जवाब या उस पर आने वाले कमैंट्स के इंतजार में दिमाग उलझ जाता है. हर मिनट 2 मिनट पर व्हाट्सऐप औन कर के जवाब चैक किया जाता है.

अगर भेजे गए मैसेज का जवाब आशा के अनुरूप तुरंत आ गया तब तो ठीक है, किंतु यदि जवाब आने में देर हुई या किसी वजह से 1-2 दिनों तक नहीं आया तब तो तनाव का माप अत्यंत बढ़ जाता है. जैसा कि इंसान का स्वभाव होता है उस के दिमाग में गलत और खराब खयाल ही जल्दी आते हैं और वह बजाय यह सोचने के कि हो सकता है मैसेज पढ़ने वाला किसी वजह से अत्यंत व्यस्त या परेशान हो जिस की वजह से मैसेज का जवाब नहीं दे पाया, वह यह सोचने लगता है कि कहीं वह नाराज तो नहीं है, कहीं वह जानबूझ कर उपेक्षा तो नहीं कर रहा है या कहीं ऐसा तो नहीं कि मैसेज का जवाब न दे कर वह नीचा दिखाना चाहता है.

यानी मैसेज डिलीवर हुआ या नहीं, पढ़ा गया या नहीं और उस के बाद मैसेज का जवाब आया या नहीं और जवाब आया तो वह अनुकूल आया या प्रतिकूल, यह जिंदगी में व्हाट्सऐप के माध्यम से उत्पन्न हुआ ऐसा तनाव है जो हर पल, हर क्षण हमारे व्यवहार व हमारे स्वास्थ्य को प्रभावित कर रहा है.

ग्रुप, चैटिंग व मनमुटाव

व्हाट्सऐप पर ग्रुप बनाना और ग्रुप चैटिंग करना समय व्यतीत करने और एक समय में ही बहुत सारे लोगों के साथ जुड़ने का बहुत ही रोचक व पसंदीदा माध्यम है. पारिवारिक सदस्यों का ग्रुप, मित्रों का ग्रुप, कार्यालय ग्रुप, पड़ोसियों का ग्रुप, बच्चों के स्कूल का ग्रुप, भाईबहनों का ग्रुप, ऐसे कम से कम 5-7 ग्रुप लगभग हर व्हाट्सऐप यूजर्स के होते हैं.

ग्रुप चैटिंग की सब से खास बात यह होती है कि जब यह चैटिंग शुरू हो जाती है तब उस का रुकना और उस में शामिल न होना दोनों ही अपने वश में नहीं रह जाता और एकएक कर के अनेक लोग जब चैटिंग में शामिल होते जाते हैं तो एक अंतहीन सिलसिला शुरू हो जाता है.

ग्रुप चैटिंग का समापन यदि अच्छी और खुशनुमा बातों के साथ हो जाता है तब तो वह दिनभर हमारे मुसकराने और दिन को खुशनुमा बनाने के लिए पर्याप्त होता है किंतु यदि चैटिंग में किसी बात पर बहस या वादविवाद शुरू हो जाए तो वह फिर न केवल दिन खराब करने के लिए काफी हो जाता है, बल्कि बैठेबैठे ही रिश्तों में दरार भी डाल जाता है.

अगर हम आमने सामने होते हैं तो बात बुरी लगने पर हमें चेहरे के हावभाव से पता भी लग जाता है और हमें बात को संभालने का मौका मिल जाता है पर व्हाट्सऐप पर लिखी हुई बात तीर से निकले कमान की तरह हो जाती है जिसे रोक पाने का कोई माध्यम नहीं होता. बात चूंकि कई लोगों के बीच हुई होती है, इसलिए वह सरलता से शांत भी नहीं होती. और कई बार तो ऐसा होता है कि उस बहस पर व्यक्तिगत चैटिंग द्वारा एक नई बहस शुरू हो जाती है.

कई बार तो ऐसा भी होता है कि ग्रुप में विवाद या बहस होने के बाद उस ग्रुप के 4-6 सदस्यों का अलग एक ग्रुप बन जाता है जहां वे खुल कर अपने विरोधी पक्ष के बारे में अपनी भड़ास निकालने लगते हैं. यानी व्हाट्सऐप एक ऐसा कीड़ा है जो दूरदूर से ही लोगों के मन में द्वेष उत्पन्न कर दरार व मनमुटाव का जहर फैला देता है.

कमतरी का एहसास

यों तो सभी अपनेअपने जीवन में सुखी, संपन्न और खुश है किंतु जिस तरह किसी बड़ी लाइन के बगल में उस से बड़ी लाइन खींच दी जाती है तो वह बड़ी लाइन छोटी लगने लग जाती है, ठीक उसी तरह शांत और सुखी जीवन में असंतोष तब व्याप्त हो जाता है जब आसपास बड़ी कोई लकीर दिख जाती है और इस तरह का असंतोष फैलाने में व्हाट्सऐप अपनी भूमिका बखूबी निभा रहा है.

किसी ने शिमला की वादियों में घूमते हुए अपनी फोटो खींच कर व्हाट्सऐप पर डाल दी तो खुशीखुशी घरगृहस्थी में रमी गृहिणी के मन में असंतोष का बीज पनप उठा, ‘मेरी जिंदगी में तो चूल्हाचौका के अलावा कुछ और लिखा ही नहीं है.’

किसी ने अपने बेटे के 93 प्रतिशत अंक पाने की खुशी सुनाई तो अपने बेटे के 85 प्रतिशत अंक पर पानी फिर जाता है. किसी ने रैस्टोरैंट में खाना खाते हुए अपनी फोटो शेयर कर दी तो घर में पूरे परिवार के साथ हंसते खिलखिलाते माहौल में खाना खाते सदस्यों के मुंह का स्वाद बिगड़ जाता है.

इसी तरह ग्रुप चैटिंग में किस ने हमारे पोस्ट पर कमैंट किया, किस ने नहीं किया, कौन किस के पोस्ट पर ज्यादा कमैंट्स दे रहा है और कौन नहीं, जैसी बचकानी बातें भी कुछ व्हाट्सऐप यूजर्स को तनाव दे रही हैं और रिश्तों में मनमुटाव उत्पन्न कर रही हैं.

समय की बरबादी

सच तो यह है कि जहां एक तरफ व्हाट्सऐप का आवश्यकता से अधिक उपयोग करना हमारे समय और मानसिक स्वास्थ्य दोनों के लिए हानिकारक है वहीं दूसरी तरफ व्हाट्सऐप ने हमारे जीवन को इतना सरल, रोचक और साधनसंपन्न बना दिया है कि अब उस के बिना जीवन की कल्पना रसहीन लगती है. व्हाट्सऐप के माध्यम से अपनों के बीच एकएक पल की खुशियां, एकएक पल की जानकारी शेयर कर के जो खुशी मिलती है उस का कोई जवाब नहीं है.

पलभर में हजारों किलोमीटर दूर बैठे अपनों की तसवीर देख पाना, समयाभाव वश किसी कार्यक्रम में न पहुंच पाने के बावजूद हर एक पल की जानकारी फोटो समेत तुरंत पा जाना, लिखित दस्तावेज एक सैकंड में एक जगह से दूसरी जगह पहुंचा देना जैसी सुविधाएं व्हाट्सऐप के माध्यम से ही संभव हैं.

समझदारी से सदुपयोग करें

आवश्यकता इस बात की है कि हम व्हाट्सऐप के इस्तेमाल को अपनी आदत न बनाएं बल्कि उस का सदुपयोग समझदारीपूर्वक करें.

  • व्हाट्सऐप पर मनोरंजन के नाम पर जितना ही अधिक समय गुजारेंगे वह उतना ही अधिक हानिकारक होगा किंतु सोचसमझ कर और आवश्यकतानुसार उस का उपयोग करना हमारे लिए बेहद फलदायी हो सकता है.
  • आवश्यकता इस बात की भी है कि यदि व्हाट्सऐप को पूरी तरह अपने जीवन में रचाबसा लिया है और हर

5 मिनट पर उसे चैक किए बिना रहा नहीं जाता तो कुछ बातों को ध्यान में रख कर अपने तनाव पर नियंत्रण करें.

  • कोशिश इस बात की करनी चाहिए कि यदि आवश्यकता से अधिक व्हाट्सऐप यूज करने की आदत पड़ गई हो तो सब से पहले, धीरेधीरे कर के ही सही, व्हाट्सऐप में अपनी तल्लीनता में कमी लाएं.
  • मैसेज भेजने के बाद वह पढ़ा गया या नहीं, और उस का जवाब आया कि नहीं, उस पर किसी ने कमैंट किया या नहीं, यह देखने के लिए और जवाब के इंतजार में बारबार व्हाट्सऐप चैक न करें.
  • यदि अपेक्षित समय में जवाब नहीं आता है तो मन में नकारात्मक विचार न उत्पन्न होने दें, क्योंकि हो सकता है कि जब मैसेज डिलीवर हुआ हो और पढ़ा गया हो, उस समय प्राप्तकर्ता इस परिस्थिति में न हो कि वह तुरंत मैसेज का रिप्लाई कर सके क्योंकि मैसेज पढ़ा तो कभी भी, कहीं भी और किसी भी परिस्थिति में  जा सकता है किंतु रिप्लाई करने के लिए मनोस्थिति का शांत और परिस्थिति का अनुकूल होना जरूरी है.
  • अगर कोई अस्पताल में अपने या अपने प्रियजन के इलाज के लिए गया हुआ है या किसी इंटरव्यू के लिए औफिस के बाहर बैठा हुआ है तो ऐसी दशा में अपना समय व्यतीत करने या दिमाग से तनाव को झटकने के लिए व्हाट्सऐप के मैसेजेज पढ़े तो जाते हैं किंतु जवाब एक का भी नहीं लिखा जाता क्योंकि उस समय उस की मनोस्थिति अस्थिर होती है.
  • ट्रेन, बस, आटो, कार से कहीं भी सफर करतेकरते भी मैसेज पढ़ना तो आम बात है पर जवाब उस समय भी नहीं लिखा जा सकता. और अकसर ऐसा भी हो जाता है कि मैसेज पढ़ कर के तुरंत अगर उस का जवाब नहीं दे दिया गया हो, तो बाद में वह दिमाग से उतर भी जाता है.
  • व्हाट्सऐप का प्रयोग अगर अपने व्यवसाय, आवश्यक सूचनाओं के आदानप्रदान, अध्ययन, तथा आवश्यक दस्तावेजों के आदानप्रदान के लिए करें तो यह हमारे जीवन को सुगम व सरल बनाता प्रतीत होता है और अत्यंत सुविधाजनक होता है किंतु जब इस का प्रयोग मनोरंजन और टाइमपास के लिए किया जाता है तो जरा सी असावधानी से कई बार यह तनाव का कारण बन जाता है.
  • आवश्यक है कि व्हाट्सऐप का प्रयोग तो करें पर उसे अपने जीवन के लिए जहर न बनाएं. जन्मदिन, शादी की वर्षगांठ, दुखबीमारी आदि अवसरों पर व्हाट्सऐप के बजाय मिल कर या फोन कर के रिश्तों को मजबूत व सुखद बनाने का प्रयत्न करें.

बोलने की क्षमता का हृास

व्हाट्सऐप से यूजर्स को एक अहम नुकसान यह भी हो रहा है कि उन का बातचीत करने का कौशल घट रहा है. फोन की सुविधा ने मिलनेजुलने की परंपरा कम कर दी थी. इंसान मिलने के बजाय फोन के माध्यम से ही लेनेदेने का कार्य करने लगा था. उस में गनीमत इतनी थी कि इंसान आवाज के माध्यम से एक दूसरे से जुड़ता था पर अब व्हाट्सऐप द्वारा तो मूकबधिरों की तरह सूचनाओं और हालचाल का आदान प्रदान होने लगा है. ऐसा लगता है कि अभी तो सुबह सुबह पार्क में लोग इकट्ठे होते हैं हंसने के लिए, कुछ सालों बाद बोलने के लिए भी इकट्ठे होने लगेंगे.

धर्मस्थलों में बरबाद होता बुढ़ापा

हर दौर के युवा व्यवस्था, विसंगतियों और भ्रष्टाचार को ले कर आक्रोशित रहते हैं. वे सोचते रहते हैं कि जिस दिन लाइफ सैटल हो जाएगी और वे पारिवारिक व सामाजिक रूप से आत्मनिर्भर हो जाएंगे उस दिन जरूर इन खामियों से लड़ेंगे. युवाओं के पास क्रांतिकारी विचार तो होते हैं पर वे उपकरण नहीं होते जिन से वे समाज व देश को बदल सकें. ये उपकरण पैसा और वक्त होते हैं.

सेवानिवृत्ति और 60-65 वर्ष की उम्र तक खासा पैसा ये कल के युवा कमा चुके होते हैं और घरगृहस्थी के अलावा नौकरी या व्यवसाय के काफीकुछ अनुभव भी हासिल कर चुके होते हैं. यानी सैटल हो चुके होते हैं. लेकिन जवानी का वह आक्रोश और हालात वे भूल जाते हैं जो उन्हें उद्वेलित करता था और कुछ करने को उकसाता रहता था.

आज के बुजुर्ग यानी गुजरे कल के युवा कोई आंदोलन खड़ा न करें, यह हर्ज की बात नहीं, हर्ज की बात है इन का बेबस हो कर धर्मस्थलों में जा कर वक्त गुजारना, भजन, कीर्तन, पूजापाठ करना. इस से तो कुछ बदलने से रहा पर धर्म के चक्कर में वे खुद बदल कर सामाजिक विसंगतियों को बढ़ावा दे रहे होते हैं. वे खुद नहीं जानते वे क्या कर रहे हैं और न ही उन्हें यह बताने वाला कोई होता है.

बरबादी क्यों

सामाजिक संरचना हर दशक में बदलती है पर जो एक बात उस में स्थिर रहती है वह है वृद्धों की उपेक्षा. दरअसल, वे अनुपयोगी करार दिए जा चुके होते हैं. दिक्कत यह है कि ये वृद्ध भी खुद को अनुपयोगी मान लेते हैं और सुकून की तलाश में भटकते हुए धर्मस्थलों का कारोबार बढ़ाते देखे जा सकते हैं.

हर धर्म में वृद्धों के लिए निर्देश दिए गए हैं कि यह उम्र भजनपूजन, ईश्वरीय ध्यान और तीर्थयात्राओं के अलावा जिंदगीभर के पापों को पुण्यों में तबदील करने की होती है. चूंकि यह काम धर्मस्थलों में ज्यादा से ज्यादा वक्त बिता कर ही हो सकता है, इसलिए अधिकांश वृद्ध भगवान के चरणों मेें जा कर मोक्षमुक्ति की कामना किया करते हैं. चूंकि बगैर दानदक्षिणा के धर्म में कुछ नहीं मिलता, इसलिए जिंदगीभर मेहनत से कमाई आमदनी का बड़ा हिस्सा वे तथाकथित भगवान के तथाकथित दूतों को देते रहते हैं.

इस में कोई शक नहीं कि पहले के मुकाबले बुजुर्ग अब ज्यादा तनहा हो चले हैं क्योंकि संतानें बाहर नौकरी करने चली जाती हैं जिस के बाबत उन्हें रोका भी नहीं जा सकता क्योंकि सवाल जिंदगी और कैरियर का होता है. बच्चों को भले ही न रोक पाएं पर बुजुर्ग खुद को तो धर्मस्थलों में जाने से रोक सकते हैं. ऐसा वे नहीं करते तो जाहिर है खुद मान लेते हैं कि वे अब वाकई किसी काम के नहीं रहे. यानी धर्म और धर्मस्थल निकम्मों व निठल्लों के विषय हैं.

बुजुर्गों की एक बड़ी परेशानी यह है कि वे खाली वक्त कहां जा कर गुजारें कि जिस से वे दिल की बातें किसी से साझा कर सकें. नई दिक्कत यह खड़ी हो गई है कि बढ़ते शहरीकरण ने पासपड़ोस, यारदोस्त और नातेरिश्तेदार तक छीन लिए हैं. ऐसे में बचता है तो धर्मस्थल, जो हर कहीं मिल जाता है.

कहने को धर्मस्थल और मंदिर शांति देते हैं, हालांकि सब से ज्यादा बेचैनी और परेशानी यहीं जा कर महसूस होती है जो दिखती नहीं. यह परेशानी है खाली दिमाग वाले घर में किसी विचार को जगह देने की. ये विचार कर्मकांड के रूप में प्रदर्शित होते हैं. इफरात से मंदिरों में बैठे वृद्ध बेवजह की बातें यानी अज्ञात आशंकाओं को ले कर सोचते, घबराते रहते हैं और अपनी समस्याओं व परेशानियों का हल मूर्तियों यानी पत्थरों में ढूंढ़ने की गलती करने लगते हैं.

विकल्प हैं

इफरात से धर्मस्थल बनाए जाने की वजह यह है कि लोगों, खासतौर से वृद्धों, का पैसा निचोड़ा जा सके. वृद्धों की दयनीय हालत में परिवार और समाज की भूमिका एक अलग बहस का मुद्दा है पर यह बात वृद्धों के सोचने की है कि धर्मस्थलों में जा कर उन्हें क्या हासिल होता है. ‘चूंकि फुरसत है, इसलिए मंदिर चलें’ वाली सोच न केवल उन के लिए, बल्कि पूरे समाज के लिए घातक साबित होती है.

धर्मस्थलों में मोक्ष और मुक्ति का झूठा आश्वासन मिलता है जिस के लिए कीमती वक्त और पैसा बरबाद करने की मानसिकता से किसी को कोई फायदा नहीं होता. उलटे, सामाजिक माहौल और बिगड़ता है. जो वृद्ध खुद को बोझ और अनुपयोगी मान लेते हैं वे एक दफा अगर खुद की ताकत व उपयोगिता पर गौर करें तो वे वाकई समाज और देश के लिए काफी उपयोगी साबित हो सकते हैं. मंदिर के बाहर गिड़गिड़ाते भिखारी को दोचार रुपए दे देना समस्या का हल नहीं है, बल्कि यह पुण्य कमाने का भ्रम या अहंकार भर है.

जवानी और अधेड़ावस्था में जिस वक्त की कमी का रोना वे रोते रहते थे अब जब वह बहुतायत से मिलता है तो क्यों नहीं वे समाजोपयोगी या मनपसंद काम करते. ऐसा नहीं है कि उन की इच्छाशक्ति खत्म हो गई है, बल्कि सच यह है कि धर्मस्थलों में लगातार जाजा कर वे अंधविश्वासों और आशंकाओं की जकड़न में आ जाते हैं.

इस जकड़न से मुक्ति के कई उपाय हैं. इन में से पहला, किसी के लिए कुछ करना और कोई न मिले तो खुद के लिए जीना है. समाज कई जरूरतों का मुहताज है, अधिकांश लोग हैरानपरेशान हैं, ऐसे में बुजुर्ग काफीकुछ कर सकते हैं.

वे गरीब बस्तियों में जा कर बच्चों को पढ़ा सकते हैं, सड़क के किनारे पेड़ लगा कर पर्यावरण की रक्षा कर सकते हैं, जो पैसा दानदक्षिणा में बरबाद करते हैं उस से बीमारों और निशक्तों की मदद कर सकते हैं. लेकिन बजाय ऐसे रचनात्मक और सृजनात्मक काम करने के, वे धर्मस्थलों में वक्त जाया करते हैं. ऐसे में उन पर तरस ही आना स्वभाविक है.

देश में, अपवादस्वरूप ही सही, ऐसे भी वृद्ध हैं जो अपनी उपयोगिता और महत्ता बनाए हुए हैं. ये वे वृद्ध हैं जिन्होंने अनुभव और वक्त का सही इस्तेमाल किया है. रेलवेस्टेशनों पर प्यासों को पानी पिलाना वक्त का सही इस्तेमाल नहीं, तो क्या है. रिटायर्ड लोग अगर रचनात्मक काम और समाजसेवा करने लगें तो देश की हुलिया बदलने में देर नहीं लगने वाली. अगर हरेक वृद्ध वक्त का सही इस्तेमाल करते हुए स्कूलों में जा कर बच्चों को पढ़ाए तो इस से बड़ा पुण्य कोई और हो ही नहीं सकता.

मध्य प्रदेश के ग्वालियर में एक पुस्तकालय संचालित करने वाले देवेंद्र शर्मा बताते हैं, ‘‘यह हैरत की बात है कि किताबों और पत्रिकाओं में छिपे और छपे ज्ञान के खजाने को हासिल करने के बजाय वृद्ध मंदिरों में घंटा बजाया करते हैं जबकि पुस्तकालय निशुल्क हैं. मंदिरों में जाने पर कुछ न कुछ पैसा चढ़ाना ही पड़ता है.’’

एक बार दृढ़ और निष्पक्ष हो कर अगर बुजुर्ग अपनी किशोरावस्था व युवावस्था के संकल्पों को याद कर उन पर अमल करने की हिम्मत जुटा पाएं तो देखेंगे कि उन का सपना धर्मस्थल, पूजापाठ और आडंबर तो कतई नहीं थे. उन का सपना भ्रष्टाचार और भेदभावमुक्त देश था जिसे बनाने के लिए यह बेहतर वक्त है. बुढ़ापा  कोई अभिशाप नहीं, बल्कि वह उन्हें कुछ करगुजरने का मौका देता है. यह मौका अगर धर्मस्थलों में जा कर खुद को दिया जाने वाला धोखा बन रहा है तो सच है कि फिर कोई क्या कर लेगा.

औलाद के फेर में ओझाओं का शिकार औरतें

हर शादी शुदा औरत की यही ख्वाहिश होती है कि उस के भी एक औलाद हो. जिन औरतों को औलाद नहीं होती, तो उस के लिए वे हर तरह की कोशिश करने से बाज नहीं आती हैं. दवा, दुआ, तावीज से ले कर तरह तरह की मन्नतें, यहां तक कि औलाद पाने के चक्कर में वे अपना सबकुछ लुटा देती हैं.

रुक्मिणी की शादी को 7 साल बीत चुके थे, पर उस के कोई औलाद नहीं थी. घर वाले भी औलाद न होने के चलते उस पर ध्यान देना कम कर चुके थे.

रुक्मिणी के गांव के एक लड़के ने बताया कि वह एक ओझा को जानता है. उस के पास सैकड़ों औरतों ने झाड़फूंक कराई और वे मां बन गईं.

रुक्मिणी रिश्ते में उस लड़के की भाभी लगती थी. उस ने यकीन कर लिया और उस के साथ उस ओझा के पास चली गई.

ओझा ने बताया कि मामला गंभीर है, इसलिए रुक्मिणी को एक हफ्ता उस के पास रह कर हवन करना पड़ेगा. उस के रहने का इंतजाम हो जाएगा. ओझा की बात सुन कर रुक्मिणी तैयार हो गई.

एक हफ्ते तक औलाद का लालच दे कर ओझा और उस के एक सहयोगी ने रुक्मिणी का यौन शोषण किया और उस से रुपए भी ऐंठे. हां, रुक्मिणी के बच्चा हो गया, तो वह मुंह बंद कर के पति के साथ रहती रही, पर ओझाओं के चक्कर भी लगाती रही.

इसी तरह फरजाना खातून का निकाह हुए महज 2 साल ही बीते थे कि उस की ससुराल वाले फरजाना खातून के पति पर दबाव बनाने लगे कि इस औरत से बच्चा नहीं होगा, तुम दूसरी शादी कर लो. फरजाना उचित इलाज के लिए कहती रही, पर उस की एक न सुनी गई.

ससुराल वालों ने अपने लड़के की दूसरी शादी कर दी. वह दोनों पत्नियों की झाड़फूंक, दुआ तावीज कराता रहा, पर औलाद न हो सकी.

इसी तरह रीता औलाद पाने के चक्कर में एक ओझा के पास गई. ओझा ने कहा कि रात 12 बजे एक पूजा करनी पड़ेगी. उस पूजा से तमाम औरतों को औलादें हुई हैं.

रीता उस की बातों में आ गई. जब आधी रात हुई, तो उस ओझा ने उस के साथ दुष्कर्म किया और डर की वजह से उस की हत्या कर दी. घर वाले जब उसे खोजने लगे, तो कहीं पता नहीं चला.

पुलिस के पास मामला दर्ज कराया गया. पुलिस ने रीता की जमीन में गड़ी लाश बरामद कर उस ओझा को जेल भेज दिया.

एक गांव में बेटा पाने के लिए यज्ञ कराया गया. वहां हजारों औरतें आईं. रोजाना रात को रंगा रंग कार्यक्रम होता. मौके का फायदा उठा कर बहुत सी औरतों की इज्जत के साथ खिलवाड़ किया गया.

चैत नवमी और दुर्गा पूजा के मौके पर उत्तर प्रदेश में कछौसा शरीफ, बिहार में अमझरशरीफ, मनोराशरीफ समेत कई जगहों पर ‘भूतना मेला’ लगता है. वहां ज्यादातर हिस्टीरिया बीमारी से पीडि़त और औलाद की चाह रखने वाली औरतें जाती हैं और अपना सबकुछ लुटा कर घर लौटती हैं.

डाक्टर विमलेंदु कुमार ने बताया कि  औरतों के बच्चा न होने की कई वजहें  हैं, जिन का सही इलाज होने से ही औलाद पैदा हो सकती है. लेकिन बहुत से लोग उचित इलाज नहीं करा कर ओझागुनी, झाड़फूंक के फेर में पड़ कर अपना समय और पैसे की बरबादी के साथसाथ इज्जत तक भी दांव पर लगा देते हैं.

धन दौलत से बढ़ कर रिश्ते नाते

भरतपुर, राजस्थान के ओमी पटवारी अपनी छोटी बहन से बहुत स्नेह करते थे. जब उन की बहन की शादी हुई, तो वे भरतपुर में ही एक किराए के मकान में रहने लगी थी. उस समय ओमी पटवारी की नौकरी धौलपुर में थी. जब उन्हें अपनी बहन के किराए के मकान में रहने का पता लगा, तो वे उसे अपने साथ ही मकान में रहने के लिए ले आए थे.

ऐसा करते समय उन्होंने सोचा था कि अपने घर में रखने से उन की गरीब बहन को किराए के रुपयों की बचत ही नहीं होगी, बल्कि उस के वहां रहने पर मां की देखभाल होती रहेगी, क्योंकि उन की मां का धौलपुर में रहने पर मन नहीं लगता था.

सालों तक बहन उन के मकान में रहते हुए उस मकान को हथियाना चाहती थी. उस ने मां को बहला फुसला कर उन से अपने नाम गुपचुप तरीके से वसीयत करवा ली थी, क्योंकि वह मकान ओमी पटवारी ने अपनी मां के नाम पर खरीदा था.

एक दिन जब उन की मां की मौत हुई, तो उस ने मां का गुपचुप तरीके से अंतिम संस्कार भी कर दिया था. मां की मौत की सूचना उस ने अपने भाई को भी नहीं दी थी.

पड़ोस के लोगों ने जब बहन से उस के भाई ओमी पटवारी के बारे में पूछा, तो उस ने झूठमूठ ही कह दिया था कि उस ने तो उन्हें फोन पर सूचना दी थी, मगर उन्होंने आने से मना कर दिया था. ओमी पटवारी अपनी मां की मौत के समय जयपुर में थे.अपने बड़े भाई का मकान हथियाते समय उन की बहन ने सोचा था कि अब उसे अपने बड़े भाई से क्या मतलब है? उसे उन की अहमियत उस समय महसूस हुई, जब वह अपने बीमार बेटे को उपचार के लिए जयपुर के सवाई मानसिंह अस्पताल ले कर आई थी.

महीनों तक उपचार के लिए जयपुर में रहते हुए परेशान हो कर वह दिनरात अपनी भूल पर पछतावा कर रोते हुए यही सोचती रहती थी कि अगर वह अपने भाई के मकान को हथियाने की भूल नहीं करती, तो उसे अपने भाई की बहुत मदद मिलती.

इसी तरह की भूल गांव के गरीब किसान रामलाल की दोनों बेटियों ने की थी. रामलाल ने वहां के सेठजी से कर्ज ले कर धूमधाम से अपनी दोनों बेटियों की शादियां की थीं.

जब रामलाल की मौत हुई, तो उन दोनों बेटियों ने उन की जमीन में अपना हिस्सा ले कर उसे बेच दिया था.

रामलाल का बेटा अपने हिस्से की जमीन बेच कर उस पैसे से उन की शादियों में लिए हुए कर्ज को चुका कर आजकल शहर के एक कारखाने में काम कर के अपनी गुजरबसर कर रहा है. उस की दोनों बहनें अपने भाई से रिश्ता खत्म करने की भूल पर पछतावा करते हुए आंसू बहाती रहती हैं.

इसी तरह से एक राजकीय प्राथमिक विद्यालय में तृतीय श्रेणी के शिक्षक श्यामलाल ने बड़े भाई से अपना रिश्ता खत्म करने की बहुत बड़ी भूल की थी.

जब वे बहुत छोटे थे, तभी उन के पिताजी की मौत हो गई थी. बड़े भाई ने अपने हिस्से की खेती की जमीन को बेच कर न सिर्फ श्यामलाल को पालापोसा था, बल्कि पढ़ा लिखा कर राजकीय शिक्षक भी बनवाया था.

शादी के बाद श्याम लाल की बीवी ने सिखा पढ़ा कर बड़े भाई से अलग करवा दिया था. बड़ा भाई शहर में जा कर अपनी बीवी के साथ मेहनतमजदूरी करने लगा था. उस ने अपने दोनों बेटों को खूब पढ़ाया लिखाया था. वे दोनों बेटे अब पुलिस के बड़े अफसर हैं. श्यामलाल की दोनों बेटियों के साथ उन के गांव के दबंग लोगों के बेटे हमेशा छेड़छाड़ करते रहते थे. एक दिन तो उन्होंने उन के साथ बलात्कार ही कर दिया था.

जब बलात्कार करने वाले नौजवानों के पिताओं से उन की शिकायत की, तो उन्होंने उस शिक्षक और बेटे की इतनी पिटाई की कि वे उस समय अपने बड़े भाई से अलग होने की भूल पर पछतावे के आंसू बहा रहे थे. वे सोच रहे थे कि अगर अपनी बीवी के कहने में आ कर बड़े भाई से अलग हो कर रिश्ता खत्म नहीं करते, तो आज उन की यह हालत नहीं होती. बड़े भाई के दोनों पुलिस अफसर बेटे उन की मदद करते.

लिहाजा, हमें धनदौलत के लिए घर वालों और रिश्तेदारों से अपने रिश्ते खत्म नहीं करने चाहिए, क्योंकि पैसों से भी बढ़ कर होते हैं रिश्तेनाते, जो जरूरत के समय काम आते हैं.

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