अखबार और मैट्रिमोनियल साइट पर मनचाहे जीवनसाथी के लिए इश्तिहार दिए जाते हैं, जिन में लिखा होता है कि लड़की में क्याक्या गुण होने चाहिए. आमतौर पर उन में लड़की की पढ़ाईलिखाई, खूबसूरती, अच्छे रंगरूप, लंबाई का जिक्र होता है. लड़के के लिए लड़की खोजते समय इन सब बातों के साथसाथ उस की तनख्वाह का जिक्र भी होता है.

कुछ समय पहले सोशल मीडिया पर मध्य प्रदेश के छिंदवाड़ा के रहने वाले एक लड़के का पोस्टर लिए फोटो वायरल हुआ था, जिस में लिखा था ‘लड़की सरकारी नौकरी वाली चाहिए. दहेज हम देंगे’. इस पोस्टर ने एक समस्या की तरफ ध्यान खींचने का काम किया था कि ‘दहेज नहीं नौकरी वाली लड़की जरूरी है’.

50 के दशक तक दहेज को कुप्रथा के रूप में दिखाते हुए तमाम फिल्में बन चुकी हैं. सिनेमा समाज का आईना होता है. आज भी दहेज की समस्या पूरी तरह से खत्म नहीं हुई है. इसी मुद्दे को फिर से फिल्में बड़े परदे पर ले कर आई हैं, जिन से यह पता चलता है कि दहेज बंद नहीं हो रहा है. इस के रूप बदल गए हैं. कई फिल्मों में इस परेशानी को दिखाया गया है.

हिंदी फिल्म ‘रक्षाबंधन’ टैलीविजन सीरियल की तरह पारिवारिक है. अक्षय कुमार ने बतौर प्रोड्यूसर और हीरो फिल्म के डायरैक्टर आनंद एल. राय के साथ कोशिश की थी कि आज के जमाने में सदियों से चलती आ रही दहेज की इस कुप्रथा को दिखाया जाए.

साल 1980 में फिल्म ‘सौ दिन सास के’ आई थी. दहेज प्रथा पर 80 के दशक में डायरैक्टर विजय सदाना ने यह एक सुपरहिट फिल्म बनाई थी. इस फिल्म में ललिता पवार को एक जालिम सास का तमगा दिया गया था. फिल्म में आशा पारेख एक पीडि़त बहू बनी थीं और रीना राय एक धाकड़ बहू थीं, जो दहेज की कुप्रथा के खिलाफ आवाज उठाती हैं.

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