शख्सियत: आयशा मलिक- पाकिस्तान सुप्रीम कोर्ट की पहली महिला जस्टिस

पाकिस्तान की सुप्रीम कोर्ट को पहली बार कोई महिला जस्टिस मिली है. पाकिस्तान के ज्यूडिशियल कमीशन ने 6 जनवरी, 2022 को 55 साल की जस्टिस आयशा अहेद मलिक के नाम को सुप्रीम कोर्ट में जस्टिस के तौर पर मंजूरी दी है.

चीफ जस्टिस गुलजार अहमद की अध्यक्षता वाले पाकिस्तानी न्यायिक आयोग ने आयशा मलिक की बहाली को बहुमत (5 के मुकाबले 4 वोट) के आधार पर मंजूरी दी है. अब उन के नाम पर संसदीय समिति विचार करेगी, जो माना जाता है कि बमुश्किल ही जेसीपी (ज्यूडिशियल कमीशन औफ पाकिस्तान) के खिलाफ जाती है.

हालांकि पिछले साल 9 सितंबर, 2021 को भी जेसीपी ने आयशा मलिक के नाम पर विचार किया था, पर उस दौरान वोट बराबर होने के चलते उन का नाम रिजैक्ट हो गया था, पर इस बार पकिस्तान की न्यायपालिका में आयशा मलिक की बहाली इतिहास बनाने जा रही है.

क्यों जरूरी हैं आयशा मलिक

पाकिस्तान जैसे रूढि़वादी देश के लिए यह किसी बड़ी बात से कम नहीं है कि सुप्रीम कोर्ट में किसी महिला जस्टिस की बहाली को मंजूरी मिली है. पाकिस्तान वैसे भी दक्षिण एशिया का एकलौता ऐसा देश है, जिस ने कभी किसी महिला को सुप्रीम कोर्ट का जस्टिस बहाल नहीं किया है.

पाकिस्तान की मानवाधिकार कमीशन रिपोर्ट 2016 के मुताबिक, पाकिस्तान के हाईकोर्ट के जस्टिसों में केवल 5.3 फीसदी ही महिलाएं हैं, जो महिला नुमाइंदगी के तौर पर तादाद में बेहद कम हैं.

हालांकि वहां का संविधान भारत के संविधान के तर्ज पर यह हक तो देता है कि ‘सभी नागरिक कानून के आगे समान हैं और लिंग के आधार पर कोई भेदभाव नहीं होगा’, पर पाकिस्तान में इसलामिक कट्टरपन के चलते महिलाओं की नुमाइंदगी हमेशा से दरकिनार की जाती रही है. ऐसे में यह कदम पाकिस्तान में मर्दऔरत की बराबरी के नजरिए से जरूरी है.

इस से माना जा रहा है कि पाकिस्तान जैसे देश में सब से बड़ी अदालत में महिला जस्टिस के होने से वहां की महिलाओं को बल मिलेगा और उन से जुड़े बड़े मसलों पर प्रगतिशील बदलाव होंगे. ऐसे में पाकिस्तानी महिलाएं आयशा मलिक से खासा उम्मीदें बांध सकती हैं.

कौन हैं आयशा मलिक

आयशा मलिक का जन्म 3 जून, 1966 को हुआ था. उन की शादी हुमायूं एहसान से हुई है, जिन से उन के 3 बच्चे हैं.

जस्टिस आयशा मलिक ने अपनी शुरुआती पढ़ाई पैरिस और न्यूयौर्क के स्कूलों से हासिल की है. इस के बाद उन्होंने लाहौर में पाकिस्तान कालेज औफ ला से कानून की पढ़ाई की और लंदन के हौर्वर्ड ला स्कूल व मैसाचुसैट्स से मास्टर डिगरी हासिल की.

आयशा मलिक इस से पहले पाकिस्तान के चीफ इलैक्शन कमिश्नर रह चुके और मशहूर जस्टिस (रिटायर्ड) फखरुद्दीन इब्राहिम की सहयोगी थीं और साल 1997 से साल 2001 के बीच यानी 4 साल तक उन के साथ असिस्टैंट के तौर पर काम कर चुकी थीं.

आयशा मलिक साल 2012 में लाहौर हाईकोर्ट में जस्टिस के तौर पर बहाल हुई थीं. इस से पहले वे एक कौर्पोरेट और कमर्शियल ला फर्म में पार्टनर थीं.

हालांकि आयशा मलिक को सुप्रीम कोर्ट में जस्टिस के तौर पर चुने जाने को ले कर पाकिस्तान में वकील संघों ने सीनियर वाले मुद्दे को ले कर अपना विरोध दर्ज किया है, पर अगर आयशा मलिक की सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस के तौर पर बहाली नहीं भी होती, तो भी इस बात की पूरी उम्मीद थी कि वे साल 2026 में लाहौर हाईकोर्ट की चीफ जस्टिस होतीं, जो खुद में पाकिस्तान के लिए एक ऐतिहासिक बात होती.

आयशा का शानदार कैरियर

जस्टिस आयशा मलिक ने साल 1997 में अपना कानूनी कैरियर शुरू किया था और साल 2001 तक कराची में कानूनी फर्म में फखरुद्दीन इब्राहिम के साथ काम किया था. वे साल 2012 में लाहौर हाईकोर्ट में जस्टिस बन गई थीं.

बाद में वे साल 2019 में लाहौर में महिला जस्टिसों की हिफाजत के लिए बनाई गई समिति की अध्यक्ष बनी थीं. उसी साल जिला अदालतों में वकीलों ने महिला जस्टिसों के प्रति हिंसक बरताव के खिलाफ एक पैनल बनाया था. इतना ही नहीं, वे द इंटरनैशनल एसोसिएशन औफ विमन जज का हिस्सा भी रही हैं, जो एक गैरसरकारी संगठन है. वहां उन्होंने महिलाओं को समानता और इंसाफ दिलाते हुए उन्हें मजबूत बनाने की पहल की थी.

आयशा मलिक अपने अनुशासन के लिए भी जानी जाती हैं. उन्होंने कई प्रमुख संवैधानिक मुद्दों पर अहम फैसले लिए हैं, जिन में चुनावों में संपत्ति की घोषणा, गन्ना उत्पादकों को भुगतान और पाकिस्तान में अंतर्राष्ट्रीय मध्यस्थता को लागू करना शामिल है.

कुछ खास फैसले

आयशा मलिक ने पिछले साल जनवरी महीने में एक ऐतिहासिक फैसला सुनाया था. उन्होंने घोषणा की थी कि यौन हमले की सर्वाइवर पर टू फिंगर और हाइमन टैस्ट गैरकानूनी है और इसे पाकिस्तान के संविधान के खिलाफ माना जाएगा.

टू फिंगर और हाइमन टैस्ट पर अपने फैसले में उन्होंने कहा था, ‘‘यह एक अपमानजनक प्रथा है, जो सर्वाइवर पर ही संदेह डालती है और आरोपी व यौन हिंसा की घटना पर ध्यान केंद्रित नहीं किया जाता है.’’

साल 2016 में उन्होंने पहली बार पंजाब महिला न्यायाधीश सम्मेलन 2016 की शुरुआत की थी और तब से वे इस तरह के 3 सम्मेलनों की अगुआई कर चुकी हैं.

पाकिस्तान में साल 2022 में आयशा मलिक का सुप्रीम कोर्ट में बतौर पहली महिला जस्टिस चुना जाना स्वागत की बात तो है, पर चिंता वाली बात यह भी है कि वहां महिलाओं को अपनी पहली  मौजूदगी दर्ज कराने में आखिर इतने साल कैसे लग गए?

क्रिकेट :  विराट कोहली धुरंधर खिलाड़ी का मास्टरस्ट्रोक

सुनील शर्मा

विराट कोहली ने टैस्ट क्रिकेट टीम की कप्तानी अचानक छोड़ दी है. दक्षिण अफ्रीका से 3 टैस्ट मैचों की सीरीज 2-1 से हारने के बाद उन्होंने 15 जनवरी, 2022 को यह कदम उठाया है.

बता दें कि विराट कोहली का पिछले दिनों वनडे की कप्तानी छीने जाने को ले कर भी बीसीसीआई से विवाद हुआ था. इस के बाद उन्होंने पत्रकारों के सामने सार्वजनिक रूप से अपना पक्ष रखा था और बीसीसीआई को कठघरे में खड़ा किया था.

अब टैस्ट कप्तानी छोड़ते हुए विराट कोहली ने जो चिट्ठी लिखी है, उस में भी काफी नपेतुले शब्दों में उन्होंने बहुत कम लोगों का जिक्र करते हुए अपनी बात रखी है. कभी के जु झारू खिलाड़ी और कोच रह चुके अनिल कुंबले के साथसाथ किसी और साथी खिलाड़ी को ज्यादा भाव नहीं दिया गया है. हां, रवि शास्त्री और महेंद्र सिंह धौनी का खासतौर पर शुक्रिया अदा किया गया है.

इस में कोई दोराय नहीं है कि विराट कोहली एक आक्रामक बल्लेबाज और जु झारू खिलाड़ी हैं, जिन का गुस्सा उन के बल्ले और जबान से मैदान पर बखूबी दिखता है, पर यह भी एक कड़वा सच है कि बतौर बल्लेबाज वे पिछले तकरीबन 2 साल से जू झ रहे हैं. नवंबर, 2019 से अब टैस्ट कप्तानी छोड़ने तक उन्होंने इंटरनैशनल क्रिकेट में एक भी सैकड़ा नहीं बनाया है.

इस के बावजूद विराट कोहली के अब तक के खेल आंकड़े चौंकाने वाले हैं. 99 टैस्ट मैचों में उन्होंने 50.4 की औसत से 7,962 रन बनाए हैं. 254 वनडे मैचों में 59.1 की औसत से 12,169 रन बटोरे हैं, जबकि 95 ट्वैंटी20 मैचों में 52.0 की औसत से 3,227 रन अपने नाम किए हैं.

विराट कोहली ने 68 टैस्ट मुकाबलों में भारतीय टीम की कप्तानी की है. इन में से 40 मुकाबलों में टीम को जीत मिली, 17 मुकाबलों में हार मिली और 11 मैच बेनतीजा रहे. कुलमिला कर टीम का जीत फीसदी 58.82 रहा.

विराट कोहली ने 68 टैस्ट मैचों की 113 पारियों में 54.80 की औसत से 5,864 रन बनाए हैं. उन्होंने बतौर कप्तान 20 सैंचुरी जड़ी हैं और 18 हाफ सैंचुरी लगाई हैं.

भले ही टीम इंडिया विराट कोहली की कप्तानी में पहला वर्ल्ड टैस्ट चैंपियनशिप का खिताब जीतने से चूक गई, लेकिन फिर भी टीम ने शानदार प्रदर्शन करते हुए कई सीरीज जीतीं. उन की कप्तानी में भारत ने सब से ज्यादा टैस्ट मुकाबले जीते हैं.

अब सवाल उठता है कि विराट कोहली टीम के लिए बतौर बल्लेबाज जरूरी हैं या कप्तान? आज की तारीख में वे एकलौते ऐसे बल्लेबाज हैं, जो सचिन तेंदुलकर के बनाए गए रिकौर्डों की बराबरी करने का माद्दा रखते हैं और फिलहाल चाहे वे अपनी फौर्म से जू झ रहे हैं, पर उन की तकनीक और आक्रामकता आज भी वही है.

विराट कोहली बल्लेबाजी में जितने चाकचौबंद हैं उतने ही चपल फील्डर भी हैं. फिटनैस में कोई उन का सानी नहीं है और मैदान पर वे एक चीते की तरह चौकस दिखाई देते हैं.

एक समय था, जब सचिन तेंदुलकर कप्तानी में सिरे से फेल हो गए थे और वे उस का दबाव  झेलने की हालत में नहीं थे, इसलिए उन्होंने कप्तानी छोड़ते हुए अपनी बल्लेबाजी पर नए जोश के साथ फोकस किया था.

विराट कोहली अभी 33 साल के हैं और उन में कई साल का खेल बचा है. वे सचिन तेंदुलकर को देख कर क्रिकेट की दुनिया में आए हैं, लिहाजा, उन्हें ‘लिटिल मास्टर’ को ही आदर्श मान कर अब कप्तानी के बजाय अपनी बल्लेबाजी पर फोकस करना चाहिए, ताकि वह उन का ‘मास्टरस्ट्रोक’ साबित हो सके.

अंधविश्वास: वैष्णो देवी मंदिर हादसा- भय, भगदड़ और भेड़चाल

सुनील शर्मा

किसी भी जगह पर भगदड़ मचने की सब से बड़ी वजह तो बेकाबू भीड़ ही मानी जाती है, पर अगर गौर से देखा जाए तो ज्यादातर जगहों पर भीड़ पर काबू पाने का कोई पुख्ता इंतजाम नहीं होता है.

अगर धार्मिक जगहों की बात करें, तो वहां कुछ खास दिनों और मौकों पर जरूरत से ज्यादा लोग जमा हो कर खुद को ही परेशानी में डाल देते हैं. कोई बड़ा हादसा न भी हो, पर छोटीछोटी मुसीबतें सब को परेशान जरूर कर देती हैं. ऊपर से वहां आपदा प्रबंधन प्राधिकरण या पुलिस प्रशासन के बताए गए नियमों का पालन भी नहीं किया जाता है.

आमतौर पर भगदड़ मचने की 4 वजहें खास होती हैं, जैसे भीड़ की प्रतिबंधित इलाके में घुसने की कोशिश, दम घुटना या फिर धक्कामुक्की, किसी आपदा के चलते डर के हालात बन जाना और अफवाह की वजह से लोगों का डर के मारे भागना.

साल 2022 की शुरुआत कुछ लोगों का अंत साबित हुई. जम्मू के वैष्णो देवी मंदिर में नए साल के जश्न में शामिल लोगों की भारी भीड़ उन्हीं में से 12 लोगों के लिए जानलेवा बन गई.

इस हादसे के चश्मदीदों का कहना है कि नए साल के मौके पर वैष्णो देवी के दर्शन करने के लिए बड़ी तादाद में लोग पहुंचे थे. भवन के पास लोगों का इतना ज्यादा जमावड़ा था कि किसी तरह की अनहोनी पर वहां से निकलने तक का कोई रास्ता नहीं था. अचानक किसी तरह की हड़बड़ी में लोग इधरउधर भागने लगे, जिस की वजह से भगदड़ मच गई और यह कांड हो गया.

इस अफरातफरी से 12 लोगों की जान चली गई और कई घायल भी हुए. इस कांड में सब से ज्यादा गौर करने वाली बात यह है कि मरने वालों में ज्यादातर की उम्र 21 से 38 साल के बीच थी. मतलब वे सब नौजवान थे. केंद्रीय मंत्री जितेंद्र सिंह ने भी कहा था कि पहले लोग त्योहारों के दौरान मंदिर जाते थे, पर आजकल युवा न्यू ईयर के दिन मंदिर जाना चाहते हैं.

वैष्णो देवी मंदिर पर उमड़ी भीड़ का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि वहां लोग नए साल पर माता के दर्शन करने के लिए एक दिन पहले ही जा पहुंचे थे.

चश्मदीदों की मानें, तो गर्भगृह के बाहर गेट नंबर 3 पर नौजवानों के 2 गुटों में आपसी कहासुनी के बाद झगड़ा हुआ और फिर झगड़े के बाद लोगों में भगदड़ मच गई. नतीजतन, जो लोग थक कर वहीं जमीन पर सोए हुए थे, उन्हें भीड़ ने कुचल दिया.

अब यह हादसा हो चुका है. मृतकों और घायलों को मुआवजा देने का ऐलान भी कर दिया गया है. बड़े लोगों ने पीडि़त परिवारों के लिए हमदर्दी जता दी है, वैष्णो देवी की यात्रा दोबारा शुरू हो चुकी है, पर लाख टके का सवाल यह कि वैष्णो देवी मंदिर में किस ने लोगों की जान ली?

इस सवाल का एक ही जवाब है कि लोग यह मान लेते हैं कि जो भी दुनिया में हो रहा है, वह उन के पसंदीदा देवीदेवता की मरजी से हो रहा है. जब किसी का सोचा हुआ पूरा हो जाता है, तो वह यह मान लेता है कि ईश्वर ने उस की सुन ली है. लिहाजा, अब ऊपर वाले का शुक्रिया अदा करना तो बनता है.

इस बात को हम इस हादसे में मारे गए 24 साल के सोनू पांडे के पिता के कथन से समझ सकते हैं. उन्होंने बताया कि 2 महीने पहले सोनू की उंगली में चोट लग गई थी. तब उस ने मन्नत मांगी थी कि उंगली ठीक होने पर वह माता वैष्णो देवी के दर्शन करने जाएगा.

यहां सवाल यह उठता है कि क्या सोनू पांडे की उंगली अपनेआप किसी चमत्कार से ठीक हो गई थी? चूंकि उंगली में ज्यादा ही चोट लगी होगी, तभी तो सोनू ने ऐसी मन्नत मांगी थी. पर वह चोट किसी डाक्टर के इलाज से सही हुई होगी, क्या सोनू के मन में कभी यह खयाल आया कि डाक्टर को जा कर उस का शुक्रिया अदा कर देना चाहिए?

दुनिया में बहुत कम लोग ऐसे होते हैं, जो पड़ोस में रहने वाले डाक्टर को ठीक होने पर उस का क्रेडिट देने जाते हैं, जबकि इस में उन का कुछ भी खर्च नहीं होता है. पर ऊपर वाले का शुक्रिया अदा करने के लिए वे ही लोग अपना समय और अपना पैसा खर्च कर के हजारों किलोमीटर दूर जाने में कतई नहीं हिचकिचाते हैं.

सब से ज्यादा दुख की बात तो यह है कि यह जो ‘मन्नत’ शब्द है, बड़ा ही खौफनाक होता है. समाज ऐसी मन्नतों पर बड़ी टेढ़ी नजर रखता है. मान लो, अगर सोनू पांडे अपनी मन्नत पर ध्यान नहीं देता और उंगली ठीक होने के बाद वैष्णो देवी मंदिर नहीं जाता तो उस के आसपास के लोग ही उसे जीने नहीं देते और ईश्वर के प्रकोप का डर उस के मन में बिठा देते कि तू ने अपनी कही बात पूरी नहीं की, इसलिए माता रानी तुझ पर कोई विपदा ले आएंगी.

सोनू ही क्या भारत में ऐसे लोगों की कमी नहीं है, जो एक मन्नत की खातिर सालोंसाल खास दिन पर धार्मिक जगहों पर जाते ही रहते हैं, फिर चाहे दुनिया इधर की उधर ही क्यों न हो जाए. उन के मन में यह डर बैठ चुका होता है कि अगर यह चेन टूट गई तो 7 अरब की इस दुनिया की सारी मुसीबतें उसी पर कहर बन कर टूट जाएंगी. यही चेन एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में जाती रहती है.

पिछले 7-8 साल में भारत में धर्म के उन्माद का जिस तरह से प्रचारप्रसार हुआ है, उस की गिरफ्त में नौजवान पीढ़ी ही सब से ज्यादा आई है. सब के दिमाग में यह बात घुसा दी गई है कि सनातन धर्म ही तरक्की का एकमात्र रास्ता है. धार्मिक जगहों को सरकारी खर्च पर पर्यटन स्थलों में बदला जा रहा है. संसद हो या सड़क, हर जगह धार्मिक नारों का चलन बढ़ गया है. सत्ता पक्ष ही क्या विपक्ष भी खुद को धर्म का असली ठेकेदार बनाने और कहलाने पर तुला है.

जब ऐसी धार्मिक चाल में नौजवान पीढ़ी फंसती है, तो देश का भविष्य ही अंधकार की तरफ जाता दिखता है. इसी नौजवान पीढ़ी से एक और सवाल है कि वह किसी धार्मिक जगह पर जा कर आपा ही क्यों खोती है? वैष्णो देवी मंदिर में माता के दर्शन करने से कुछ देर पहले ही 2 गुटों में लड़ाई ही क्यों हुई? क्या माता ने उन्हें इतनी भी सहनशक्ति नहीं दी कि सब्र करो, सब का नंबर बारीबारी से आ जाएगा?

अगर उन 2 गुटों में कहासुनी नहीं होती, तो यह कांड ही नहीं होता. पर हमारे यहां तो हर जगह शौर्टकट मारने का मानो चलन सा बन गया है. मंदिर में भी बैकडोर ऐंट्री मिल जाए, तो क्या हर्ज है. यही वजह है कि देश के हर बड़े मंदिर में परची कटा कर या किसी दूसरे जुगाड़ से जल्दी दर्शन करने की सहूलियत दी गई है.

जनता की इस तरह की चालबाजियों से धर्म के ठेकेदारों पर कोई खास फर्क नहीं पड़ता है, बल्कि उन्हें तो मंदिर में आई भीड़ से मतलब होता है, तभी तो इतना बड़ा हादसा होने के बाद भी वैष्णो देवी मंदिर पर लोगों के हुजूम का आना जारी रहा और आगे भी जारी रहेगा.

धार्मिक जगहों पर  मची भगदड़ का इतिहास : चंद उदाहरण 

14 जुलाई, 2015 को आंध्र प्रदेश में गोदावरी नदी के तट पर मची भगदड़ में कम से कम 29 लोगों की मौत हो गई थी. वे लोग वहां पवित्र स्नान करने गए थे.

* 25 अगस्त, 2014 को मध्य प्रदेश के सतना जिले में चित्रकूट के कामतनाथ मंदिर में भगदड़ मच गई थी. इस में  11 लोगों की मौत हो गई थी और तकरीबन 60 लोग घायल हुए थे. वहां किसी ने करंट फैलने की अफवाह उड़ा दी थी.

* 25 सितंबर, 2012 को झारखंड के देवघर में ठाकुर अनुकूल चंद की 125वीं जयंती पर एक आश्रम में हजारों की भीड़ जमा हो जाने और सभागार में भारी भीड़ के चलते दम घुटने से 12 लोगों की मौत हो गई थी.

* 8 नवंबर, 2011 को उत्तर प्रदेश के हरिद्वार में गंगा नदी के तट पर हजारों लोगों के जमा हो जाने के दौरान मची भगदड़ में 16 लोगों की जान चली गई थी.

* 14 जनवरी, 2011 को केरल के इदुक्की में शबरीमाला के नजदीक पुलमेदु में मची भगदड़ में 102 लोग मारे गए थे.

* 4 मार्च, 2010 को उत्तर प्रदेश के प्रतापगढ़ में कृपालुजी महाराज आश्रम में प्रसाद बांटने के दौरान मची भगदड़ में 63 लोग मारे गए थे.

* 30 सितंबर, 2008 को राजस्थान के जोधपुर में चामुंडा देवी मंदिर में बम धमाके की अफवाह से मची भगदड़ में 250 लोगों की मौत हो गई थी.

* 3 अगस्त, 2008 को हिमाचल प्रदेश में भारी बारिश के चलते नैना देवी मंदिर की एक दीवार ढह गई थी. इस हादसे में 160 लोगों की मौत हो गई थी.

* 26 जून, 2005 को महाराष्ट्र के मंधार देवी मंदिर में मची भगदड़ में 350 लोगों की मौत हो गई थी.

सावधानी: चाइनीज मांझे से कटती जिंदगी की डोर

 देवेंद्रराज सुथार  

चाइनीज मांझे से  कटती जिंदगी  की डोर  पूरे देश में चाइनीज मांझे पर बैन है, लेकिन आज भी चाइनीज मांझे की खुलेआम बिक्री हो रही है, जिस के चलते आएदिन हादसे हो रहे हैं.  एक मामला दिल्ली के शाहदरा इलाके से सामने आया है, जहां के 46 साल के विजय शर्मा खेड़ा गांव में रहते हैं. वे नंद नगरी की तरफ जा रहे थे. 212 बसस्टैंड के पास चाइनीज मांझा उन के स्कूटर  चला रहे दोस्त के आगे आया, तो उन्होंने हाथ से पीछे की तरफ कर दिया.  वह मांझा विजय के चेहरे को काटता चला गया. इस से उन की भौंहें, पलकें और नाक बुरी तरह से जख्मी हो गईं.   जीटीबी अस्पताल और दयानंद अस्पताल के डाक्टरों ने पलक पर टांके लगाने में दिक्कत बताई, तो प्राइवेट नर्सिंगहोम में इलाज करवाया. उन के चेहरे पर 23 टांके आए.

34 साल के राधेश्याम दिल्ली के जगतपुरी ऐक्सटैंशन में रहते हैं. 5 जून, 2021 की शाम दुर्गापुरी से आते समय नत्थू कालोनी फ्लाईओवर पर पहुंचे. अचानक ही उन के आगे चाइनीज मांझा आ गया, जिस से उन की गरदन पर  कट लग गया. उन्होंने तुरंत अपनी मोटरसाइकिल रोक दी और खुद को मांझे से अलग किया. उन के गले का घाव पूरी तरह से भरा नहीं है.

33 साल की गीतांजलि आईएसबीटी की तरफ से स्कूटर पर अपने मायके दिलशाद गार्डन जा रही थीं. वे मार्शल आर्ट की इंटरनैशनल खिलाड़ी हैं और कोचिंग भी करती हैं. जब वे वैलकम फ्लाईओवर से नीचे उतर रही थीं, तो अचानक मांझा उन के आगे आ गया.  उन्होंने तुरंत स्कूटर में ब्रेक लगाए और गरदन को साइड करने की कोशिश की, इसलिए उन की गरदन को साइड की तरफ से मांझा चीरता चला गया. वे 10 दिन तक घर से बाहर नहीं निकल सकीं.

38 साल के वहीद दिल्ली के ब्रह्मपुरी इलाके की गली नंबर 21 में रहते हैं. शास्त्री पार्क फ्लाईओवर पर उन के गले में मांझा उलझ गया. गले में कट लगने से जलन होने लगी, तो उन्होंने हाथ से हटाने की कोशिश की.  मांझे से उन की उंगली भी कट गई. जख्मी हालत में उन्हें जगप्रवेश चंद्र अस्पताल ले जाया गया, जहां उन की उंगली में 3 टांके आए. चांदनी चौक का चैरिटी बर्ड्स अस्पताल दिल्ली का एकलौता ऐसा अस्पताल है, जहां हर नस्ल के पक्षी  का मुफ्त इलाज किया जाता है. इस अस्पताल में रोजाना तकरीबन 70 से  80 पक्षियों को इलाज के लिए लाया जाता है. दिल्ली के खुले आसमान में उड़ रहे इन परिंदों पर चाइनीज मांझा  कहर बन कर टूट जाता है.  पिछले साल 13, 14 और 15 अगस्त के इन 3 दिनों में चाइनीज मांझे की चपेट में आने से तकरीबन 550 पक्षी घायल हो गए, जिन्हें इस अस्पताल में इलाज के लिए लाया गया था.  सब से चौंकाने वाला आंकड़ा यह है कि इन 3 दिनों में तकरीबन 200 पक्षियों की चाइनीज मांझे की चपेट में आने से मौत हो गई, जिन में तोता, मैना, कबूतर, चील और दूसरे पक्षी शामिल हैं.  ज्यादातर मामलों में इन बेजबान पक्षियों की गरदन और पंख मांझे की चपेट में आए. सैकड़ों ऐसे पक्षी भी हैं, जो अब कभी खुले आसमान में उड़ नहीं पाएंगे. प्लास्टिक की डोर में पक्षियों के पंख उलझ जाते हैं और वे इस डोर को काट नहीं पाते, जिस के चलते उन की जान चली जाती है.

नैशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल ने जुलाई, 2017 में खतरनाक चीनी मांझे की बिक्री पर पूरे देश में बैन लगा दिया था. पीपल्स फोर एथिकल ट्रीटमैंट औफ एनिमल यानी ‘पीटा’ की अर्जी पर यह आदेश आया था. इस में कहा गया था कि पतंग उड़ाना देश की परंपरा रही है, लेकिन खतरनाक चीनी मांझे से पशुपक्षी और लोग बुरी तरह जख्मी हो जाते हैं. मांझा बनाने वाली कंपनियां सुप्रीम कोर्ट गईं, जिन्हें वहां से राहत नहीं मिली. चाइनीज मांझा, जिसे कुछ लोग ‘प्लास्टिक मांझा’ भी कहते हैं, में कुल  5 तरह के कैमिकल और दूसरी धातुओं का इस्तेमाल किया जाता है. इन में सीसा, वजरम नामक औद्योगिक गोंद, मैदा फ्लौर, एल्युमीनियम औक्साइड और जिरकोनिया औक्साइड का इस्तेमाल होता है. इन सभी चीजों को मिला कर कांच के महीन टुकड़ों से रगड़ कर तेज धार वाला चाइनीज मांझा तैयार किया जाता है. सामान्य मांझे की अपेक्षा चाइनीज मांझा सस्ता होने से इस की बिक्री तेजी से होती है. यह मजबूत तो होता ही है, इस में धार भी काफी होती है. इस की डिमांड ज्यादा होती है.

चीनी मांझे की 6 रील की एक चरखी (एक रील में तकरीबन 1,000 मीटर होता है) 500 रुपए की आती है. देशी मांझे की 6 रील की चरखी 1,500 रुपए तक की आती है.  चाइनीज मांझे पर दुकानदारों का मार्जिन ज्यादा है, इसलिए वे इसे चोरीछिपे बेच रहे हैं. जरूरत है कि प्रशासन चाइनीज मांझे की हो रही गैरकानूनी बिक्री को ले कर अपनी कार्यवाही तेज करे. ऐसे दुकानदारों पर तुरंत शिकंजा कसे, जो नियमों की सीमा लांघ कर गैरकानूनी तौर पर चाइनीज मांझे का कारोबार  करते हैं.  पतंगबाजी सामूहिक रूप से किसी खुले मैदान में एक निश्चित समय  सीमा में हो, ताकि इन पक्षियों की हंसतीखिलखिलाती दुनिया सलामत रह सके और इनसान जख्मी होने व अपनी जान से हाथ धोने से बच सकें.

 गैंगमैन की  सिक्योरिटी तय हो

 अली खान

एक रिपोर्ट से यह बात उभर कर सामने आई है कि भीषण सर्दीगरमी, बारिश और कुहरे में रेल मुसाफिरों को महफूज घर पहुंचाने में हर साल औसतन 100 गैंगमैन ट्रेन की पटरियों पर कट कर मर जाते हैं.

आज देश और दुनिया में आधुनिक तकनीकी युग में तकरीबन सभी काम मशीनों से किए जा रहे हैं, लेकिन आधुनिक तकनीक के बावजूद गैंगमैन ट्रेन सिक्योरिटी की रीढ़ माने जाते हैं.

मौजूदा समय में मशीनों के इस्तेमाल ने काम को आसान जरूर किया है, पर ट्रैक पर काम करने के लिए गरमी, बरसात और ठंड हर मौसम का सामना अभी भी गैंगमैन ही करता है.

जब भी रेलवे की उपलब्धि की बात होती है, तो इन के काम के योगदान की कोई बात नहीं करता है, जबकि रेल को आगे बढ़ाने में ट्रैकमैन व गैंगमैन का अहम रोल होता है. आज भी शीतलहर व हाड़ कंपकंपाती ठंड में खुले आसमान के नीचे जंगल व सुनसान जगहों में रह कर हमारे सफर को सुखद बनाने का कोई काम करता है, तो वे हैं रेलवे ट्रैकमैन व गैंगमैन.

रेलवे में इन का पद भले ही छोटा है, तनख्वाह भी काफी कम है, लेकिन ये लोग जिम्मेदारी काफी बड़ी निभाते हैं. हम ट्रेनों में चैन की नींद लेते हैं, लेकिन ये खुले आसमान के नीचे रेल पटरियों की निगरानी करते हैं. इन की जिंदगी जितनी मुश्किल होती है, उतनी ही जोखिम भरी भी.

पिछले कुछ सालों के आंकड़े बताते हैं कि गैंगमैन हर दिन हादसों के शिकार हो रहे हैं. लिहाजा, गैंगमैन की सिक्योरिटी तय किए जाने की जरूरत है.

यह बेहद दुख की बात है कि भले ही गैंगमैन की जान बचाने के लिए साल 2016 में संसद में उन को सिक्योरिटी के उपकरण देने का ऐलान किया था, लेकिन रेलवे के पास पैसा नहीं होने के चलते 5 साल में 20 फीसदी गैंगमैन को ही ऐसे सिक्योरिटी के उपकरण दिए जा सके हैं. लिहाजा, सिक्योरिटी की कमी में गैंगमैन हादसों के शिकार हो रहे हैं.

रेल मंत्रालय के ताजा आंकड़ों के मुताबिक, वित्तीय वर्ष 2016-17 से 2021 तक रेल पटरियों की मरम्मत और निगरानी काम के दौरान 451 गैंगमैन ट्रेन से कट कर मारे गए यानी ट्रेनों के सुरक्षित परिचालन में हर साल औसतन 100 गैंगमैन पटरियों पर दम तोड़ रहे हैं. हालांकि, रेल यूनियन का दावा है कि हर साल औसतन 250 से 300 गैंगमैन हादसों के शिकार होते हैं.

अब सवाल है कि गैंगमैन आखिर हादसों के शिकार क्यों हो जाते हैं? बता दें कि रेलवे की सभी ट्रैक लाइनों (प्रमुख रेल मार्ग) पर क्षमता से ज्यादा 120 से 200 फीसदी सवारी ट्रेन चलाई जाती हैं. लिहाजा, गैंगमैन को पटरी की मरम्मत और रखरखाव के लिए ब्लौक नहीं मिलते हैं. ज्यादातर हादसे डबल लाइन या ट्रिपल लाइन सैक्शन पर होते हैं.

ट्रेन नजदीक आने पर जब वे दूसरी पटरी पर जाते हैं, तभी उस पर भी ट्रेन के आने से गैंगमैन कट कर मर जाते हैं. इस के अलावा काम के दबाव में ट्रेन की आवाज सुनाई नहीं देती है.

देश में कुछ साल पहले उत्तर प्रदेश के हरदोई में रेलवे की लापरवाही से 4 गैंगमैनों की मौत हो गई थी. वे गैंगमैन संडीला और उमरताली के बीच रेलवे ट्रैक पर काम कर रहे थे. उन्हें न तो ट्रेन के आने की कोई सूचना दी गई और न ही संकेत. तेज रफ्तार से आ रही ट्रेन गैंगमैनों के ऊपर से गुजर गई.

वे गैंगमैन रेलवे ट्रैक पर बेधड़क हो कर काम कर रहे थे. उन के काम करने की जगह से कुछ दूरी पर उन्होंने लाल रंग का कपड़ा भी बांध रखा था. तभी वहां अचानक कोलकाता से अमृतसर जा रही ‘अकालतख्त ऐक्सप्रैस’ ट्रेन आ गई और उन सभी गैंगमैनों को रौंदते हुए तेज रफ्तार से निकल गई थी. ऐसे हादसे देश में आएदिन होते रहते हैं.

ऐसे में सवाल मौजूं है कि आखिर गैंगमैन की सिक्योरिटी कैसे तय हो? गैंगमैन को बचाने के लिए हैलमैट, सुरक्षा जूते, सैल टौर्च, बैकपैक टूल जैसे खास उपकरण मुहैया कराए जाने की जरूरत है.

याद रहे कि रेल मंत्री रह चुके सुरेश प्रभु ने साल 2016-17 के रेल बजट भाषण में गैंगमैन को ‘रक्षक’ नामक मौडर्न डिवाइस देने का ऐलान किया था. कमर में पहनने वाली यह डिवाइस गैंगमैन को 400 मीटर से 500 मीटर की दूरी पर ट्रेन के आने पर ‘बीप’ के साथ अलर्ट कर देगी. कुहरे, बारिश व सर्दी के खराब मौसम में ट्रेन नहीं दिखाई पड़ने

पर यह डिवाइस गैंगमैन की जिंदगी बचाएगी.

हालांकि, इस डिवाइस को अभी तक गैंगमैन को मुहैया नहीं करवाया जा सका है. जानकारों का यह भी कहना है कि एक डिवाइस की कीमत तकरीबन 80,000 रुपए है.

सभी गैंगमैन को डिवाइस देने में रेलवे के तकरीबन 240 करोड़ रुपए खर्च होंगे. पैसे की कमी के चलते रेलवे को यह डिवाइस खरीदने में काफी समय लग सकता है.

गौरतलब है कि इस समय भारतीय रेलवे में तकरीबन 3 लाख गैंगमैन काम कर रहे हैं. इतनी बड़ी तादाद में काम कर रहे मुलाजिमों की सिक्योरिटी तय करना रेलवे की जिम्मेदारी है. इस दिशा में तत्काल कदम उठाए जाने की सख्त जरूरत है.

विराट कोहली और रोहित शर्मा: दिग्गजों की लड़ाई, कराई जग हंसाई

अपने समय के स्टार क्रिकेटर और भारतीय टीम के कप्तान रहे मोहम्मद अजहरुद्दीन आजकल सुर्खियों में हैं, पर उन्होंने खुद कोई कारनामा नहीं किया है, बल्कि भारतीय क्रिकेट टीम में रोहित शर्मा और विराट कोहली के बीच कप्तानी को ले कर जो लड़ाई चल रही है, उस पर उन्होंने कुछ ऐसा कह दिया है, जिस से भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड भी शक के दायरे में आ गया है. सब की जगहंसाई हो रही है, सो अलग.

आप को याद होगा कि यूएई में खेले गए ट्वैंटी20 वर्ल्ड कप के बीच में ही विराट कोहली ने अपनी टी20 की कप्तानी छोड़ दी थी और यह कमान रोहित शर्मा को सौंप दी गई थी. तब तक तो सबकुछ ठीक ही लग रहा था, पर बाद में विराट कोहली को जिस तरह

8 दिसंबर, 2021 को वनडे की कप्तानी से भी हटाया गया, वह अब विवादों में है. वैसे, फिलहाल विराट कोहली भारतीय टैस्ट टीम के कप्तान बने हुए हैं.

लेकिन तब मामला और ज्यादा उछला, जब खबर आई कि विराट कोहली वनडे मैचों में और रोहित शर्मा टैस्ट मैचों में खेलने से बच रहे हैं, क्योंकि वे एकदूसरे की कप्तानी में नहीं खेलना चाहते हैं.

इस खबर पर ही मोहम्मद अजहरुद्दीन ने रोहित शर्मा और विराट कोहली को तकरीबन लताड़ते हुए अपने ट्वीट में लिखा था, ‘विराट कोहली ने जानकारी दी कि वे वनडे सीरीज के लिए उपलब्ध नहीं रहेंगे, जबकि रोहित शर्मा चोट के चलते टैस्ट सीरीज में नहीं खेल पाएंगे. ब्रेक लेने में कोई दिक्कत नहीं है, लेकिन टाइमिंग बेहतर होनी चाहिए. इस से दोनों के बीच तकरार की खबरों को और हवा मिलेगी.’

असल में यह सारी लड़ाई तब शुरू हुई थी, जब भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड ने बिना किसी ठोस वजह के विराट कोहली को वनडे टीम की कप्तानी से भी हटा दिया था.

ये भी पढ़ें- 70 की उम्र में भरी सूनी गोद

इस मुद्दे पर विराट कोहली ने15 दिसंबर, 2021 को एक प्रैस कौंफ्रैंस में बताया कि सबकुछ पहले से ही तय हो गया था और मु?ा से कुछ पूछा ही नहीं गया. मेरे पास स्वीकार करने के अलावा कुछ नहीं बचा था.

एक सवाल का जवाब देते हुए विराट कोहली ने कहा, ‘‘टैस्ट टीम के सैलेक्शन को ले कर चीफ सैलेक्टर्स ने मु?ा से बात की थी. टैस्ट टीम सैलेक्शन के बाद 5 मुख्य चयनकर्ताओं ने मु?ो बताया कि मैं अब वनडे टीम का कप्तान नहीं हूं. इस पर मैं ने कहा… ओके. इस फैसले से पहले मु?ो कप्तानी से हटाए जाने को ले कर किसी से कोई भी बात नहीं हुई थी.’’

पर बाद में बात को संभालते हुए विराट कोहली ने यह भी कहा, ‘‘रोहित शानदार कप्तान और राहुल भाई काफी अनुभवी हैं. दोनों को मेरा सपोर्ट मिलता रहेगा. बीसीसीआई ने जो भी फैसला लिया है, वह सोचसम?ा कर ही लिया गया है.

‘‘मेरे और रोहित के बीच में कोई टकराव नहीं है. मैं हमेशा ही इस बात को क्लियर करकर के थक गया हूं. जब तक मैं क्रिकेट खेलूंगा, तब तक उस से भारतीय क्रिकेट को कोई नुकसान नहीं होने दूंगा.’’

विराट कोहली द्वारा भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड को लपेटे जाने के बाद बोर्ड के एक सीनियर अफसर ने नाम न जाहिर करने की शर्त पर बताया कि विराट से सितंबर में ही कप्तानी पर बात कर ली गई थी. उन्हें तभी टी20 टीम की कप्तानी छोड़ने से रोकने की कोशिश हुई थी. जब वे नहीं माने तो तभी उन्हें चेतावनी दे दी गई थी कि ह्वाइट बाल क्रिकेट में टीम के 2 अलगअलग कप्तान नहीं हो सकते हैं.

याद रहे कि रोहित शर्मा को 8 दिसंबर, 2021 को भारत का वनडे और टी20 टीम का कप्तान बनाया गया था. कप्तानी पर विवाद को ले कर रोहित ने तब कहा था, ‘‘जब आप भारत के लिए क्रिकेट खेलते हो, तो आप पर हमेशा दबाव होता है. जब आप खेलते हो तो हमेशा लोग कुछ न कुछ कहेंगे. कोई पौजिटिव बातें करेगा, कोई नैगेटिव बातें करेगा. लेकिन मेरे लिए बतौर कप्तान नहीं, बल्कि एक क्रिकेटर के रूप में यह जरूरी है कि मैं अपने काम पर ध्यान दूं, न कि लोग जो कह रहे हैं उस पर. आप उस पर काबू नहीं पा सकते.

ये भी पढ़ें- सफलता के लिए तपना तो पड़ेगा

‘‘टीम का हर खिलाड़ी इस बात को सम?ाता है कि जब हम हाई प्रोफाइल टूर्नामैंट खेलते हैं, तो बातें होती ही हैं. हमारे लिए यह जरूरी है कि अपने काम को सम?ों और वह है टीम के लिए मैच जीतना. हम जिस तरह के खेल के लिए जाने जाते हैं, वैसा खेलें. बाहर जो बातें होती हैं, उस के कोई माने नहीं हैं.

‘‘हमारे लिए अहम यह है कि एकदूसरे के बारे में हम क्या सोचते हैं. मैं ऐक्स, वाई, जैड के बारे में क्या सोचता हूं, यह अहम है. हम खिलाडि़यों के बीच एक मजबूत संबंध बनाना चाहते हैं और इस तरह से हम यह रिश्ता बना पाएंगे. राहुल भाई (राहुल द्रविड़) भी इस में हमारी मदद करेंगे.’’

देखा जाए तो जब से सौरव गांगुली बीसीसीआई के अध्यक्ष बने हैं और उस के बाद राहुल द्रविड़ को भारत क्रिकेट टीम का कोच बनाया गया है, तब से ही विराट कोहली और रवि शास्त्री के पर काटे गए हैं. इस टी20 वर्ल्ड कप में भारत को पाकिस्तान और न्यूजीलैंड से पहले 2 अहम मुकाबले खेलने थे. भारत दोनों ही मैच हार गया था और बाद में सारे मैच जीतने के बाद भी वह सैमीफाइनल में जगह नहीं बना पाया था.

पाकिस्तान और न्यूजीलैंड के खिलाफ विराट कोहली ने अनुभवी औफ स्पिनर आर. अश्विन को नहीं खिलाया था, जिस का खमियाजा भारत को भुगतना पड़ा था. जबकि सौरव गांगुली ने तब कहा था कि विराट कोहली के कहने पर ही आर. अश्विन का चयन टीम में किया गया था.

हालांकि बाद के 3 मैचों में आर. अश्विन ने 6 विकेट लिए थे, इसलिए यह सवाल भी उठा कि विराट कोहली ने उन्हें पहले 2 मैच क्यों नहीं खेलने दिए? इस के बदले स्पिन गेंदबाज वरुण चक्रवर्ती को खेलने का मौका दिया था, जिन्होंने पाकिस्तान और न्यूजीलैंड के खिलाफ एक भी विकेट नहीं लिया था.

ये भी पढ़ें- समस्या: बौयफ्रैंड के साथ कहां करें सैक्स

इस के बाद अगर हम विराट कोहली के कप्तानी के गुणों की बात करें, तो वे अग्रैसिव बहुत ज्यादा हैं, पर कभीकभार वे काफी उत्तेजित दिखाई देते हैं. वे महेंद्र सिंह धौनी जैसे कूल व शार्प कप्तान नहीं हैं और न ही रोहित शर्मा जैसे धीरगंभीर.

पिछले 2 साल की अपनी कप्तानी में विराट बल्लेबाजी पर ज्यादा फोकस नहीं कर पाए हैं. हालिया न्यूजीलैंड टैस्ट सीरीज के दूसरे और आखिरी मैच में विराट ने पहली पारी में जीरो और दूसरी पारी में 36 रन बनाए थे.

विराट कोहली ने अपना आखिरी सैकड़ा 2 साल पहले बंगलादेश के खिलाफ पिंक बाल टैस्ट मैच में लगाया था. तब से ले कर अभी तक 13 टैस्ट मैचों में वे 26.04 की साधारण औसत से सिर्फ 599 रन ही बना पाए हैं. सभी फौर्मेट्स को मिला कर 57 पारियां हो गई हैं उन्हें सैंचुरी लगाए हुए.

वैसे, अब इस मसले पर लीपापोती की जा रही है और क्रिकेट से जुड़े दिग्गज यह बताने और जताने की कोशिश कर रहे हैं कि कप्तानी जाने के बाद भी विराट कोहली बतौर बल्लेबाज उतने ही आक्रामक रहेंगे, जैसी उन की इमेज है, पर रोहित शर्मा और उन की इस तनातनी से भारतीय क्रिकेट की किरकिरी तो हुई है, जिस की भरपाई तभी होगी, जब टीम में एकजुटता दिखाई देगी और वह दोबारा अपनी इमेज के मुताबिक खेल भी दिखाएगी.

70 की उम्र में भरी सूनी गोद

विज्ञान और तकनीक के जमाने में बांझ औरत की कोख से बच्चे का पैदा होना कोई अजूबा नहीं रहा. लेकिन 70 साल की औरत द्वारा बच्चे को जन्म देना विज्ञान जगत के लिए भी किसी अचंभे से कम नहीं होगा.

जीवुबेन ने पड़ोस में रहने वाली मीराबेन को कराहते हुए आवाज लगाई. उन की आवाज सुनते ही

मीराबेन भागती हुई उन के पास आ कर बोली, ‘‘हां दादी, कोई बात है… कुछ चाहिए क्या?’’

‘‘अरे हां, बहुत दर्द हो रहा बेटा, दर्द वाली दवाई दे दो, वहां ताखे पर रखी होगी,’’ बिछावन पर लेटी जीवुबेन  बोली.

‘‘लेकिन दादी, आप को दर्द की ज्यादा दवा लेने से डाक्टर ने मना किया है. थोड़ा बरदाश्त कर लिया करो… देखो तो तुम्हारा बेटा भी मेरी बात सुन रहा है… कैसा मुसकरा रहा है…’’ मीरा समझाती हुई बोली.

‘‘अभी तक मैं तुम्हारी ही तो बात मानती आई हूं और आगे भी मान… ना… ओह! आह!!’’ जीवुबेन बोलतेबोलते कराह उठी.

‘‘ये दर्द उस दर्द के सामने कुछ भी नहीं है दादी, जो तुम 40 से अधिक सालों से बरदाश्त किए हुए थीं,’’ मीरा बोली.

‘‘तुम तो मेरी भी अम्मादादी बन रही हो. वैसे कह सही रही हो… बेऔलाद होने का दर्द कहीं अधिक बड़ा और तकलीफ देने वाला था. मगर क्या करूं, बरदाश्त नहीं हो रहा है…’’ कहती हुई जीवु करवट बदलने की कोशिश करने लगीं.

ये भी पढ़ें- सफलता के लिए तपना तो पड़ेगा

मीरा ने उन्हें सहारा दे कर उन का मुंह बगल में लेटे बच्चे की ओर कर दिया.

‘‘लो, अब बेटे को देखती रहो. सारा दर्द छूमंतर हो जाएगा.’’ कहती हुई मीरा भी सिरहाने बैठ बगल में लेटे नवजात शिशु को पुचकारने लगी.

2 दिन पहले ही जीवुबेन का सीजेरियन औपरेशन हुआ था. घर में 45 साल बाद किलकारी गूंजी थी. उन का औपरेशन परिवार के सभी सदस्यों से ले कर डाक्टर तक के लिए खास था, कारण उन की उम्र 70 साल की थी.

इस औपरेशन की सफलता से सभी खुश थे. जच्चाबच्चा दोनों सुरक्षित और स्वस्थ थे. केवल औपरेशन के जख्म हरे होने के कारण जीवुबेन को थोड़ी तकलीफ थी. सब के लिए किसी अचंभे से कम नहीं था उन का औपेरशन.

डाक्टर ने बताया था कि अधिक उम्र में औपरेशन होने से उन का जख्म भरने में समय लग सकता है. डाक्टर ने दूसरी एंटीबायोटिक दवाओं के साथसाथ दर्द की दवा भी दी थी, लेकिन दर्द की दवा ज्यादा खाने से मना करते हुए हिदायत भी दी थी. कहा था कि असनीय या तेज दर्द हो तभी वह दवा खाएं, वरना उस का असर सीधे किडनी पर पड़ेगा.

थोड़ी देर बैठने के बाद मीरा वहां से जाने को उठी, तभी जीवु के पति मालधारी आ गए. मीरा सिर पर दुपट्टा संभालती हुई बोली, ‘‘नमस्ते दादाजी.’’

‘‘कैसी है रे तू?’’ मालधारी मीरा से बोले.

‘‘अच्छी हूं, दादाजी. आप अब तो खुश हैं न?’’ मीरा बोली.

‘‘तू खुश रहने की बात बोल रही है, मैं तो इतना खुश हूं कि तुझे बता नहीं सकता… और बेटा तूने जो औलाद की मुराद पूरी करवाई है वह कभी नहीं भूलने वाला उपकार है.’’ बोलतेबोलते मालधारी भावुक हो गए.

‘‘उपकार किस बात का दादाजी, सब ऊपर वाले की मरजी से हुआ है.’’ मीरा बोली.

‘‘कुछ भी कह लो, लेकिन मेरे घर आई औलाद की खुशी बेटा तेरी ही बदौलत मिली है. जो मैं 75 साल की उम्र में बाप बन गया हूं… और देखो जीवु मुझ से कुछ ही साल तो छोटी है…‘‘ मालधारी ने कहा.

‘‘बस दादाजी, बस. मेरी तारीफ और मत करो…’’ मीरा बोली.

‘‘अरे, मैं तेरी तारीफ नहीं कर रहा हूं बल्कि मैं यह नहीं समझ पा रहा हूं कि तू ठहरी निपट अनपढ़ औरत, फिर भी इतनी गहरी बात की जानकारी तुझे मिली कैसे? मैं तो वही सोचसोच कर अचरज में हूं.’’ मालधारी काफी दिनों तक मन में दबी जिज्ञासा को और नहीं रोक पाए.

ये भी पढ़ें- New Year 2022: नई आस का नया सवेरा

‘‘अच्छा तो यह बात है. चलो, मैं आज बता ही देती हूं दादादी… मैं जब 2 साल पहले सूरत में काम करने गई थी, तब मुझे एक नर्सिंगहोम में काम मिला था. वहां केवल बच्चा जन्म देने वाली औरतों को ही रखा जाता था. मुझे उन की देखभाल करने की नौकरी मिली थी. वहां और भी कई नर्सें और दाई काम करती थीं. भरती औरतों को समय पर दवाइयां खिलानी होती थी, खानेपीने की देखभाल करनी थी और उन्हें घुमानेफिराने के लिए ले जाना होता था…’’

‘‘तुम भी तो वहां गए थे.’’ बीच में जीवु बोली.

‘‘लगता है, अब दर्द कम हो गया है,’’ मीरा मुसकराती हुई बोली.

‘‘हां, तुम्हारी कहानी सुन कर दर्द चला गया,’’ जीवु गहरी सांस लेती हुई बोली.

‘‘…लेकिन तुम्हें टेस्टट्यूब के बारे में किस ने बताया?’’ मालधारी ने पूछा.

‘‘अरे तुम क्या समझोगे, मैं बताती हूं न सब कि कितने तरह की जांच हुई मेरी. वैसे तुम को भी तो डाक्टर ने बताया ही होगा. तुम्हारी भी तो डाक्टर ने जांच की थी,’’ जीवु बोली.

‘‘मेरी जांच का तो कुछ पता ही नहीं चला. डाक्टर ने सिर्फ बोला कि देखता हूं… अभी कुछ कह नहीं सकता.’’ मालधारी बोले.

‘‘मैं जब मीरा के पास 2 साल पहले गई थी, तब मीरा मुझे एक दिन जहां काम करती थी अपने साथ ले गई थी. वहीं भरती औरतों से मालूम हुआ कि उस के पेट में पलने वाला बच्चा उन का है, जो खुद मांबाप नहीं बन सकते थे. उसे पालने के बदले में पैसे मिले हैं.’’ जीवु बोली.

‘‘उस से क्या हुआ?’’ मालधारी ने पूछा.

‘‘हुआ यह कि जब एक दफा उन को देखने डाक्टर आए तब उन से मीरा ने पूछ लिया कि डाक्टर साहब मेरी दादी ‘मां’ नहीं बन सकती? डाक्टर साहब मुझे देख कर मुसकराए.’’ जीवु बोली.

‘‘..और दादाजी?’’ डाक्टर साहब के मुसकराने का अर्थ मैं समझ गई थी. अगले रोज ही उन के चैंबर में दादी को ले कर चली गई थी. दादी से उन्होंने बहुत देर तक बात की. अब रहने भी दो न दादाजी, वह सब पुरानी बातें हो गईं.’’ मीरा बोली.

‘‘अरे नहीं मीरा, कैसे रहने दूं उन बातों को, जिस से मेरी इस उम्र में औलाद की मुराद पूरी हुई. इस उम्र में कोई बाप बनता है भला! …और इस उम्र में कोई आज तक किसी औरत ने बच्चे को जन्म दिया है क्या? मैं तो अब उस बारे में सब को बताना चाहता हूं… क्या कहते हैं उसे आईवीएफ. उस इलाज के बारे में उन्हें समझाना चाहता हूं, जो बच्चा जन्म के लिए औरत को ही दोषी ठहराते हैं.’’

दरअसल, गुजरात के कच्छ इलाके में रापर तालुका स्थित एक छोटे से गांव मोरा की रहने वाली जीवुबेन रबारी ने सितंबर, 2021 में शादी के 45 साल बाद आईवीएफ तकनीक की बदौलत एक स्वस्थ बच्चे को जन्म दिया था.

उस के पति मालधारी को पिता बनने का सौभाग्य तब मिला, जब वह 75 साल के हो गए. इस कारण दोनों मीडिया में चर्चा का विषय बन गए.

बच्चे के जन्म के बाद परिवार और रिश्तेदारों में खुशी की लहर दौड़ गई. बच्चा सीजेरियन से हुआ था. उन को यह उपलब्धि आईवीएफ तकनीक के विशेषज्ञ डा. नरेश भानुशाली की देखरेख से मिली, जो सभी के लिए अचंभे से भरी हुई थी. जिस ने भी सुना, सभी जीवुबेन और मालधारी से मिलने को बेचैन हो गए.

जीवुबेन ने जब इस बारे में डा. नरेश भानुशाली से संपर्क किया था, तब उन्होंने अधिक उम्र में मां बनने की मुश्किलों को ले कर सचेत किया था. डा. भानुशाली ने एक तरह से दंपति को शुरू में तो साफतौर पर पर कहा था कि उम्र अधिक होने के कारण बच्चे को जन्म देना मुश्किल होगा, लेकिन वृद्ध दंपति ने डाक्टर पर विश्वास जताते हुए अपनी मजबूत इच्छाशक्ति का हवाला दिया था. यही वजह रही कि प्रजनन का असंभव और कठिन काम संभव बन गया. यह घटना चिकित्सा जगत के लिए भी किसी चमत्कार से कम नहीं थी. ऐसा कर जीवुबेन और मालधारी ने दुनिया भर में एक मिसाल पेश कर दी. इसे ले कर ही मीडिया ने जीवुबेन द्वारा दुनिया में सब से अधिक उम्र में मां बनने कादावा किया.

ये भी पढ़ें- समस्या: बौयफ्रैंड के साथ कहां करें सैक्स

जीवुबेन विवाह के कई सालों तक गर्भवती नहीं हो पाई थीं. उन के द्वारा की गई तमाम कोशिशें बेकार गई थीं. कई डाक्टरी इलाज भी चले थे और पतिपत्नी देवीदेवताओं के पूजापाठ से ले कर धार्मिक स्थलों की कठिन से कठिन यात्राएं तक कर चुके थे. फिर भी असफलता ही हाथ लगी थी.

नतीजा यह था कि उन्हें संतान नहीं होने का दंश सताता रहता था. उन्हें जरा सी भी उम्मीद की किरण दिखती थी, वे उस ओर दौड़ पड़ते थे. उस के उपायों और प्रयासों को आजमाने में कोई भी लापरवाही नहीं बरतते थे. एक बार उन्होंने बच्चा गोद लेने की भी सोची थी, जो उन्हें सामाजिक और पारिवारिक स्तर पर अच्छा नहीं लगा.

इसी तरह से समय गुजरता गया. एक दिन उन की एक रिश्तेदार मीराबेन के माध्यम से आईवीएफ तकनीक के जरिए से नई उम्मीद जागी थी. इस बारे में उन्हें पहली बार जानकारी मिली थी.

जीवुबेन और मालधारी ने टेस्टट्यूब बच्चा और किराए की कोख के बारे में सुन तो रखा था, लेकिन उस बारे में बहुत अधिक नहीं जानते थे. मीरा की बदौलत वे डा. नरेश भानुशाली के संपर्क में आए. वह आईवीएफ तकनीक से गर्भधारण करवाने और बच्चा प्रसव के स्त्रीरोग विशेषज्ञ थे.

जीवु ने जब डा. भानुशाली को अपनी इच्छा जताई, तब वह भी सोच में पड़ गए. पहली बार में ही उन्होंने कहा कि उन की उम्र काफी अधिक हो गई है. ऐसा कहते हुए उन्होंने एक तरह से सीधेसीधे मना ही कर दिया था. समझाया था कि ज्यादा से ज्यादा 50-55 साल की माहिलाएं मेनोपाज के कारण आईवीएफ अर्थात इन विट्रो फर्टिलाइजेशन तकनीक की मदद से गर्भधारण कर सकती हैं, लेकिन उन की उम्र 70 साल के करीब हो चुकी है. इस उम्र में इस की संभावना नहीं के बराबर रहती है.

डाक्टर द्वारा इनकार करने के बावजूद दंपति ने एक बार जांच करने का जोर दिया. दंपति के कहने पर डाक्टर ने चुनौतीपूर्ण काम के लिए तैयारी शुरू की. मालधारी जांच में स्वस्थ पाए गए. उन के स्पर्म की भी जांच हुई.

महत्त्वपूर्ण जांच जीवुबेन की होनी थी, कारण बच्चा उन्हें जन्म देना था, या फिर उन्हें किसी किराए की कोख का इंतजाम करना था. दंपति चाहते थे कि बच्चे का जन्म भी जीवुबेन की कोख से ही हो, ताकि उन के पीछे बच्चे को किसी तरह की सामाजिक या पारिवारिक उपेक्षा का दंश नहीं झेलना पड़े.

डाक्टर ने जीवुबेन की डाक्टरी जांच शुरू की. उन्होंने पाया कि शरीर के भीतरी अंग सही तरह से काम कर रहे हैं. उन में कोई कमी नहीं है सिर्फ उम्र के अनुसार उन की कोख काफी सिकुड़ चुकी है.

पहले उसे दुरुस्त करने के लिए दवाई खिलाई गईं. उसी के साथ मासिक चक्र को नियमित करने के लिए भी दवाइयां दी गईं. कुछ समय में ही उन का सिकुड़ा हुआ गर्भाशय चौड़ा हो गया. उस के बाद उन के अंडों को निषेचित कर प्रजनन की जगह बना दी गई, फिर उस में उन के पति के अलग से निकाल कर रखे गए स्पर्म को डाला गया.

इस तरह से पूरी हुई गर्भधारण की प्रक्रिया के नतीजे अच्छे आने पर डाक्टर आश्वस्त हो गए.

गर्भावस्था के 8 महीने बाद डाक्टरों से जीवुबेन का सी-सेक्शन किया, जिस से उन को पहली संतान की प्राप्ति हुई.

इस सफलता पर डा. भानुशाली ने हर्ष जताते हुए बताया कि इस में जितना योगदान उन का है, उतना ही जीवुबेन का भी है, उन की हिम्मत और नीयत काम कर गई और एकदो नहीं, पूरे 45 साल के इंतजार के बाद 70 साल की उम्र में उन की सूनी गोद भर गई.

बांझ औरत भी बन सकती है आईवीएफ तकनीक से मां

संतानहीनों के लिए वरदान साबित हुआ आईवीएफ तकनीक का चिकित्सा जगत में पूरा वैज्ञानिक नाम इन विट्रो फर्टिलाइजेशन कहा जाता है. इस तकनीक की मदद से पुरुष के शुक्राणु यानी स्पर्म और महिला के अंडाणु को लैब में मिला कर उसे ऐसी महिला के गर्भाशय में डाला जाता है, जो मां बनना चाहती है.

इस प्रक्रिया को अपनाने के लिए गहन चिकित्सीय सलाह की जरूरत होती है तथा इस का फायदा 5 तरह की शिकायत वालों मिल सकता है. जैसे— किसी महिला की फैलोपियन ट्यूब में ब्लौकेज हो जाना. पुरुष बांझपन यानी स्पर्म की संख्या में कमी का आना. किसी जेनेटिक बीमारी से ग्रसित होना. इनफर्टिलिटी का सही कारण का पता नहीं चलना या फिर महिला को हारमोंस विकार की समस्या से पीसीओएस की समस्या की शिकायत रहना.

इस तकनीक की सफलता भी 5 चरणों में पूरी होती है. जैसे पहले चरण में औरत के कोख को दुरुस्त किया जाता है. यह काम दवाइयों के अलावा माइनर औपरेशन से कर लिया जाता है.

दूसरे चरण में अंडे की पर्याप्त मात्रा को गर्भाशय में डाला जाता है. उस के बाद तीसरे चरण की प्रक्रिया में अंडे के साथ स्पर्म को लैब में अलग से मिला कर फर्टिलाइज करवाया जाता है. उस के बाद बच्चे की चाह रखने वाली महिला के गर्भ में डाल दिया जाता है.

कई बार इसे किसी दूसरी महिला के गर्भ में डाल कर गर्भधारण की प्रक्रिया पूरी कर ली जाती है. कुछ समय बाद अंतिम चरण के अनुसार महिला के गर्भावस्था की जांच की होती है.

तुलसी गौड़ा: इनसाइक्लोपीडिया औफ फारेस्ट

किसी को भी सम्मान, ईनाम और अवार्ड मिलता है तो कुछ लोगों को यही लगता है कि गलत व्यक्ति को अवार्ड दिया गया है. खास कर जब सरकार की ओर से मान, सम्मान या अवार्ड दिया जाता है, तब हमेशा इस तरह की बातें होती हैं. देश में सर्वोच्च अवार्ड दिए जाने का इतिहास हमेशा विवादास्पद रहा है.

ऐसे में 9 नवंबर, 2021 को राष्ट्रपति के हाथों पद्म, पद्मश्री, पद्मभूषण और पद्मविभूषण अवार्ड दिए गए. उन में से कुछ ऐसे व्यक्ति भी अवार्ड लेने वाले थे, जिन्हें देख कर चौंके बिना नहीं रहा गया.

9 नवंबर को राष्ट्रपति भवन में आयोजित अवार्ड वितरण समारोह में जब तुलसी गौड़ा का नाम अवार्ड लेने के लिए पुकारा गया तो जो महिला अवार्ड लेने के लिए आई, उसे देख कर सभी की नजरें उसी पर टिकी रह गईं. उन की सादगी ने सब का मन मोह लिया.

अवार्ड लेने आने वाली वृद्ध महिला नंगे पैर आई थीं. उन के शरीर पर मात्र एक धोती (साड़ी) जैसा कपड़ा लिपटा था. गले में आदिवासी जीवनशैली की कुछ मालाएं थीं. 72 साल से अधिक उम्र वाली उस महिला को जब राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद ने देश के चौथे सब से बड़े नागरिक सम्मान पद्मश्री अवार्ड दे कर सम्मानित किया तो राष्ट्रपति भवन तालियों की गड़गड़ाहट से गूंज उठा.

कर्नाटक के हलक्की जनजाति से आने वाली तुलसी गौड़ा ने कभी स्कूल का मुंह नहीं देखा. क्योंकि वह बहुत ही गरीब परिवार में पैदा हुई थीं. फिर भी पर्यावरण में उन के योगदान और पेड़पौधों सहित जड़ीबूटियों की तमाम प्रजातियों के बारे में उन के अथाह ज्ञान के कारण आज उन की पहचान ‘इनसाइक्लोपीडिया औफ फारेस्ट’ के रूप में होती है.

ये भी पढ़ें- सफलता के लिए तपना तो पड़ेगा

वह आज भी तमाम नर्सरियों की देखभाल करती हैं. इस से पहले भी उन्हें और कई अवार्डों से सम्मानित किया जा चुका है. इस से पहले उन्हें ‘इंदिरा प्रियदर्शिनी वृक्ष मित्र अवार्ड’, ‘राज्योत्सव अवार्ड’, ‘कविता मेमोरियल’ जैसे अवार्ड मिल चुके हैं. तुलसी गौड़ा को पद्मश्री अवार्ड मिलने पर बहुत लोगों ने दिल खोल कर उन की प्रशंसा की है.

कर्नाटक के फारेस्ट डिपार्टमेंट में 10 साल की उम्र से ही मां के साथ जंगल में काम करने के लिए जाने वाली तुलसी ने अब तक जंगल में 30 हजार से भी अधिक पेड़ लगाए होंगे. वन विभाग में दैनिक मजदूरी पर काम शुरू करने वाली तुलसी को इसी विभाग में परमानेंट नौकरी मिल गई थी.

अपना फर्ज अदा करते हुए उन्होंने अपनी समझ से इतनी जानकारी प्राप्त कर ली है कि जंगल में उगने वाले लगभग 3 सौ पौधे इंसान के लिए दवा के काम आते हैं.

ये भी पढ़ें- समस्या: बौयफ्रैंड के साथ कहां करें सैक्स

देखा जाए तो वह 10 साल की उम्र से पर्यावरण संरक्षण का काम कर रही हैं. एक तरह से उन्होंने अपना पूरा जीवन ही प्रकृति की रक्षा के लिए समर्पित कर दिया है.

तुलसी जिस जनजाति से आती हैं, वह हलक्की जनजाति औषधीय वनस्पति के ज्ञान के लिए जानी जाती है. तुलसी ने जंगल में रह कर अपने इस परंपरागत ज्ञान को बढ़ा कर असंख्य लोगों की आदिव्याधि का वनस्पति के उपयोग से निवारण किया है.

कौन सा वृक्ष किस समय बीज देता है, उस बीज को कब (रोपा) बोया जाए तो वह उगेगा, इस बात की एकदम सही जानकारी तुलसी गौड़ा को है.

जंगल में मदर ट्री को खोजना बहुत ही मुश्किल काम है. क्योंकि इस मदर ट्री का बीज सब से ज्यादा असरदार होता है. तुलसी जंगल के लाखों वृक्षों में से मदर ट्री को खोज सकती हैं. उन की इस तरह की असंख्य जानकारियों की ही वजह से कर्नाटक के जंगल समृद्ध हुए हैं.

तुलसी के इन्हीं कामों की वजह से कर्नाटक राज्य सरकार ने भी उन्हें समयसमय पर सम्मानित किया है.

सफलता के लिए तपना तो पड़ेगा

Writer- रोहित

कई लोग मेहनत और अनुशासन के पथ पर चलने को कष्टदायक सम झते हैं. वे इस से मुंह मोड़ लेते हैं. ऐसे में वे लोग कभी अपनी क्षमता का आकलन नहीं कर पाते और भविष्य में आने वाली छोटीमोटी मुसीबतों से ही जल्दी टूट जाते हैं.

कहते हैं आग में जल कर ही सोना कुंदन बनता है. यानी पहले खुद को तपाना पड़ता है, उस के बाद सफलता चूमने को मिलती है. लेकिन अजीब यह है कि इंसान अपनी सफलता व असफलता के पैमाने को अपने तथाकथित ‘भाग्य’ और ‘शौर्टकट’ से जोड़ कर देखने लगता है. वह मानने लगता है कि यदि ‘भाग्य’ में होगा तो ही कुछ मिलेगा, भाग्य प्रबल होगा तो घर बैठे ही मिल जाएगा या जीवन में कुछ तो जुगाड़ कर लिया जाएगा.

ऐसे में व्यक्ति मेहनत करने के लिए उतना नहीं सोचता जितना इन चीजों के प्रबल होने के बारे में सोचता है. थोड़ा सा कष्ट मिलते ही वह अपने पांव पीछे खींचने लगता है. वह संघर्ष के आगे खुद को असहाय महसूस करता है और हार मानने लगता है. ऐसे में वह खुद पर विश्वास करने की जगह दूसरों पर अधिक निर्भर होता जाता है. लेकिन जैसे ही यह निर्भरता टूटती है, उसे एहसास होता है. पर तब तक काफी देर हो चुकी होती है, उस के पास अपना सिर पीटने के अलावा रास्ता नहीं बचता. सच, सही समय पर कड़े परिश्रम का कोई सानी नहीं है.

इस का उदाहरण धावक हिमा दास से लिया जा सकता है, जिन्होंने सम झाया कि असल जीवन में भी सफलता के लिए लगातार दौड़ना ही पड़ता है. किसान परिवार में पैसों की अहमियत काफी होती है. किसान परिवार में जन्मी हिमा दास सम झौतों से रूबरू होती सफलता की आसमान छूती इमारत के शिखर पर चढ़ीं. किसान पिता ने अपनी मेहनत की गाढ़ी कमाई से 1,200 रुपए के एडिडास कंपनी के जूते खरीदे, जिन्हें बड़े जतन से अपनी पुत्री हिमा दास को सौंपे, जैसे एक पिता अपने पुत्र को विरासत सौंपता है. अब उसी एडिडास कंपनी ने हिमा को चिट्ठी लिख अपना एंबैसडर बनाने का फैसला किया है.

ये भी पढ़ें- New Year 2022: नई आस का नया सवेरा

गरीब व कमजोर परिवार से आने वाली हिमा दास ने अपनी मेहनत पर भरोसा किया. कड़े अनुशासन और कठिन परिश्रम को जीवन जीने का ढंग बनाया. उस ने शौर्टकट को दलील नहीं बनाया, क्योंकि वह जानती थी कि रेस चाहे कोई भी हो, उस में शौर्टकट नहीं होता. जिस चीज को लोग अपना भाग्य सम झते हैं, उस ने रियलिस्टिक हो कर उसे अपना अवसर बताया. वह बहुत बार गिरी, थकी, बैठी लेकिन दौड़ना नहीं छोड़ा, फिर चाहे वह ट्रैक पर हो या अपने जीवन के संघर्ष में हो.

ऐसे ही दीपा करमाकर हैं, जिन के बारे में तो यहां तक कह दिया गया था कि जिमनास्टिक खेल के लिए उन के पैर अनुकूल नहीं हैं. यहां तो लोगों ने सीधा उन के हिस्से में लिखे कथित भाग्य को ही चुनौती दे दी. उन्होंने अपने कड़े परिश्रम और अटूट अनुशासन से सफलता की इबारत लिख दी. वे न सिर्फ जिमनैस्टिक की खिलाड़ी बनीं बल्कि ओलिंपिक खेलों में पहली खिलाड़ी के तौर पर भारत का प्रतिनिधित्व किया. कारण सीधा है कि उन्होंने अपने भाग्य से ज्यादा मेहनत पर जोर दिया. ऐसे और कई लोगों की फेहरिस्त है, फिर चाहे वे किसी भी पेशे से जुड़े व्यक्ति रहे हों, जिन्होंने ऐसे कारनामे किए हैं.

भाग्य पर भरोसा

आमतौर पर भाग्य को कोसना सब से आसान तरीका होता है. इस से व्यक्ति अपनी गलतियों पर आसानी से परदा डाल लेता है. इस का असर इतना ज्यादा होता है कि बहुत बार ऐसे व्यक्ति अपने ‘भाग्य की होनी’ पर इतना विश्वास करने लग जाते हैं कि कुछ करने की जहमत नहीं उठाते. उन का यही मानना रहता है कि जो होना होगा वह तो होगा ही. वहीं जब बिन किए कुछ होताजाता नहीं, तब फिर से वे अपनी असफलता के लिए अपने भाग्य को कोसने में जुट जाते हैं. वे इसे अपना बुरा समय बताते तो हैं, लेकिन इस बुरे समय को मेहनत और लगन से ठीक करने के बजाय राशिफल, जादूटोना, पूजापाठ, अंधविश्वास से सुल झाने की कोशिश करते हैं. अपनी इस सनक से वे न सिर्फ भ्रमजाल में फंसते हैं बल्कि ‘गरीबी में आटा गीला’ वाली कहावत की तर्ज पर पैसा भी खूब लुटा देते हैं.

भाग्य के भरोसे खुद को छोड़ने से वे आलस और नीरसता से भर जाते हैं. उन के हाथों में कलावे, गले में मालाएं, उंगलियों में अंगूठियां बढ़ने लगती हैं. ऐसे में किसी तरह की महत्वाकांक्षा उन में नहीं रहती. बिना महत्वाकांक्षा और तय गोल के वे अपने रास्ते में भटकते फिरते हैं, जिस कारण वे अपने जीवन में अनुशासन भी तय नहीं कर पाते.

ये भी पढ़ें- समस्या: बौयफ्रैंड के साथ कहां करें सैक्स

ऐसी ही फंतासी में जयपाल सिंह असवाल (59) का परिवार भी फंसा है. जयपाल सिंह दिल्ली के नेहरूनगर इलाके में रहते हैं. उन के 3 बेटे हैं जिन में से 2 बेटों आशीष और विकास की शादी हो चुकी है. 58 वर्ष की उम्र में निजी कंपनी से जयपाल रिटायर हो गए थे. उस दौरान उन के दोनों बेटे कार्यरत थे. आशीष सऊदी अरब में होटल मैनेजमैंट के काम में था, तो विकास रीड एंड टेलर कंपनी में सेल्समैन था.

3 साल पहले आशीष अपना कौट्रैक्ट खत्म कर सऊदी अरब से वापस दिल्ली आया. दिल्ली आने के बाद उस का कहीं काम करने का मन नहीं किया. उस के पास कुछ सेविंग्स थी तो वही खर्च करता रहा. वहीं विकास का भी यही हाल रहा. पहले उस की जौब कनाट प्लेस में लगी थी, लेकिन जैसे ही उसे कंपनी ने अपनी दूसरी ब्रांच नोएडा जाने को कहा तो उस ने दूर काम करने से मना कर दिया और कामधाम छोड़ कर घर पर बैठ गया. अब आलस का आलम यह है कि नजदीक उसे मनमुताबिक काम मिल नहीं रहा और दूर वह जाना नहीं चाहता. ऐसे में घर के जवान हट्टेकट्टे सदस्य पिछले 2-3 सालों से निठल्ले बैठे हैं. उन के घरखर्च का एकमात्र माध्यम फिलहाल किराएदार से मिलने वाला किराया है.

हालफिलहाल जयपाल सिंह से इस सिलसिले में बात हुई. जयपाल ने बताया कि उन के परिवार पर किसी का बुरा साया पड़ा है. उन के बेटों पर किसी ने जादूटोना किया हुआ है. इसी के चलते उन्होंने अपने गांव में इष्ट देवताओं को खुश करने के लिए बड़ी पूजा रखवाई है. अब जयपाल को कौन सम झाए कि समस्या ‘बुरे साए’ की नहीं, बल्कि बेटों के आलसपन की है. फिलहाल, जयपाल इस बात से चिंतित हैं कि पूजा में लगने वाले खर्च को वे कैसे पूरा करेंगे, क्योंकि पूजा में लगने वाला खर्च लेदे कर 50 से 60 हजार रुपए तक हो ही जाएगा.

शौर्टकट भ्रमभरा रास्ता

इंसान अपने जीवन में मेहनत से बचने के लिए न सिर्फ भाग्य पर निर्भर रहता है बल्कि वह सोचता है कि कोई ऐसा शौर्टकट हो जिस से कम समय में ज्यादा पैसे कमाए जा सकें. ऐसे व्यक्ति जितनी जल्दी उठते हैं उस से कई गुना रफ्तार से नीचे गिर पड़ते हैं. सफलता मेहनत से मिलती है, इस के लिए कोई शौर्टकट नहीं होता है. शौर्टकट के बल पर हासिल की गई सफलता कुछ समय के लिए ही टिकती है. सच यह है कि एक समय के बाद व्यक्ति को अर्श से फर्श तक आने में समय नहीं लगता.

ऐसे ही कई वाकए लौकडाउन के समय देखने को मिले, जहां पैसा कमाने के लिए आपदा को अवसर बनाने में लोगों ने कोई कमी नहीं छोड़ी. जिस दौरान पहला लौकडाउन लगा, लोगों में खूब भ्रम और डर फैल गया था. लोगों को गलत सूचना मिली कि फूड सप्लाई में भारी शौर्टेज होगी, जिस कारण शहरों में राशन की कमी होने लगेगी. यह भ्रम इलाकों के रिटेल विक्रेताओं और थोक व्यापारियों द्वारा फैलाया गया था. जनता के बीच खाद्य सामग्री स्टोर करने की होड़ सी मचने लग गई. किराए पर रहने वाले लोग इस अव्यवस्था को ले कर खासा सकते में रहे और उन में से कई इस कारण अपने राज्यों को पैदल ही लौट पड़े. लेकिन जो शहरी थे, वे डबल मार  झेलते रहे. दुकानदारों ने मौके का फायदा उठाते हुए राशनपानी के दाम बढ़ा दिए.

लेकिन कहते हैं न, शौर्टकट से कुछ पल के लिए खिलाड़ी बना जा सकता है, लेकिन अंत में मुंह की खानी ही पड़ती है. ऐसा ही एक उदाहरण बलजीत नगर के आनंद जनरल स्टोर के अभिषेक कुमार का है. अभिषेक के पिताजी (आनंद) ने 30 साल पहले परचून की दुकान इलाके में खोली थी, जो काफी चलती थी. पिताजी ने बड़ी ईमानदारी और मेहनत से इसे शुरू किया था. इलाके में दुकान का खासा नाम भी था. इलाके के लोग घर की जरूरतों की खरीदारी इसी दुकान से करते थे. यानी कुल मिला कर एक विश्वास आनंद ने ग्राहकों में कायम कर के रखा था.

लौकडाउन लगते ही इलाके में राशन की कमी का भ्रम फैला. अभिषेक ने मौका पाते ही सामान के भाव बढ़ाने शुरू कर दिए. जो सामान 5 रुपए का था उसे 10 में देना शुरू कर दिया. जो 100 का था उसे 150 में. लोग मजबूर थे, उन्हें अपनी जरूरत पूरी करने के लिए सामान लेना ही था. एक दिन टीवी पर सामान के ‘शौर्टेज वाले भ्रम’ की  झूठी खबरों को सरकार ने क्लीयर किया. लेकिन अभिषेक और आसपास की दुकान वाले फिर भी बढ़े दाम में सामान बेचते रहे. ऐसे में किसी सज्जन ने दुकान की कंप्लैंट कर दी. पुलिस ने यह बात पुख्ता की और अभिषेक की दुकान सील कर दी. थाने के चक्कर काटने तो पड़े ही, साथ ही भारी बदनामी भी  झेलनी पड़ी. लगभग 3-4 महीने तक उस की दुकान बंद रही. लेदे कर उस ने दुकान खुलवाने की आज्ञा प्राप्त की. लेकिन खुलने के बाद लोगों ने उस की दुकान का बायकाट कर दिया. अब उस दुकान पर कुछ ही ग्राहक जा कर सामान खरीदते हैं. पहले जैसी रौनक न रही.

जाहिर है मेहनत का रास्ता मुश्किलों भरा, लंबा और कुछ हद तक तनहा होता है. मगर सफलता का एहसास इस रास्ते की सारी तकलीफें भुलाने के लिए काफी होता है. अपनी मंजिल का रास्ता चुनते समय यह हमेशा याद रखना चाहिए कि मंजिल तक पहुंचने के लिए हम जिस शौर्टकट रास्ते का चुनाव कर रहे हैं, उस की हमें क्या कीमत चुकानी पड़ सकती है.

ये भी पढ़ें- पिता बनने की भी हैं जिम्मेदारियां

मेहनत के साथ अनुशासन ही सफलता देगा

अनुशासन शब्द 2 शब्दों के योग से बना है- अनु और शासन. अनु उपसर्ग है जिस का अर्थ है विशेष. इस प्रकार से अनुशासन का अर्थ हुआ- विशेष शासन. अनुशासन का शाब्दिक अर्थ है- आदेश का पालन या नियमसिद्धांत का पालन करना ही अनुशासन है. दूसरे शब्दों में हम कह सकते हैं कि नियमबद्ध जीवन व्यतीत करना अनुशासन कहलाता है.

भारत में आज के युवाओं में एक अजीब तरह की संस्कृति पनपती जा रही है. वे अनुशासन से खुद को बंधाबंधा सा महसूस करते हैं. वे इसे अपनी आजादी के बीच बाधा मानते हैं. उन का मानना रहता है कि वे अपने जीवन के खुद मालिक हैं, जिसे जैसे चाहे वे जिएं. ऐसे में कब उठना है, कब कौन सा काम करना है, किस काम को प्राथमिकता देनी है आदि सिर्फ मूड और इच्छा पर निर्भर करता है. यदि कोई दूसरा व्यक्ति खुद को अनुशासित करता दिखता है, खुद का टाइम मैनेजमैंट करता है, तो वे उसे बड़ी हैरानी और हिकारतभरी नजरों से देखते हैं, उस का सामूहिक उपहास उड़ाया जाता है.

अनुशासन का पालन करने का अर्थ यह नहीं है कि आप नियमों और तौरतरीकों के गुलाम हो गए और आप की आजादी छिन गई है. यह सोच गलत है. सोचिए, यदि ट्रेन को पटरी से उतार दें तो वह आजाद तो हो जाएगी लेकिन ऐसे में क्या वह चल पाएगी? इस का आराम से अनुमान लगाया जा सकता है. अनुशासन आजादी में खलल नहीं है, बल्कि नियमकानून के अनुसार किसी काम को करने की सीख है.

एक महत्त्वाकांक्षी व्यक्ति कुछ पाने की ललक में खुद को पूरी तरह  झोंक देता है. उस का खुद को  झोंकना सिर्फ काफी नहीं. उस की सफलता के लिए खुद को व्यवस्थित करना बहुत जरूरी है और अनुशासन ही उस की रीढ़ है. सड़क हो या सदन, व्यवसाय हो या खेती, खेल का मैदान हो या युद्धभूमि, अनुशासन के बिना जीत संभव ही नहीं है.

जाहिर सी बात है, मेहनत के साथ अनुशासन या सू झबू झ का होना बहुत जरूरी है वरना पता चला कि चढ़ना था दिल्ली की ट्रेन में और बैठ गए कोलकाता की ट्रेन में. अनुशासन में रहने वाला व्यक्ति अपनी प्राथमिकताएं अच्छे से सम झता है. वह यह भलीभांति जानता है कि अपने गोल तक पहुंचने के लिए उसे किस काम को वरीयता देनी है. वह अपनी दिनचर्या निर्धारित करता है. कामों का बंटवारा करता है. वरना बिना अनुशासन के वह कम जरूरी काम में ही फंस कर रह जाएगा और ऐसे में अपने दिनोंदिन खपा देगा. अनुशासनहीन व्यक्ति चाहे मेहनती ही क्यों न हो, वह अपने गोल से भटकता रहता है. वह अपनी एनर्जी को केंद्रित नहीं कर पाता. उस के पास योजना की कमी रहती है. अगर योजना नहीं, तो उस का विकासपथ विनाश को आमंत्रण भी दे सकता है.

खुद को तपाना तो पड़ेगा ही

आज तमाम सफल व्यक्तियों से उन की सफलता का राज पूछा जा सकता है, चाहे वे नौकरशाह, डाक्टर, वकील इत्यादि क्यों न हों. वे सभी एक बात पर सहमत होंगे कि मेहनत और अनुशासन के ही कारण वे इस मुकाम तक पहुंचे हैं. देश में इस का सब से बड़ा उदाहरण महात्मा गांधी को लिया जा सकता है. कहते हैं, वे अपने दोनों हाथों से लिखा करते थे. दायां हाथ थक जाए तो बाएं हाथ से लिखने लग जाते थे. किसी काम को अंत तक करने की ललक उन में खूब थी. उस पर वे पूरी शिद्दत से लग जाते थे. लेकिन उन की सफलता में सिर्फ मेहनत ही नहीं, बल्कि उन के अनुशासन की भी बड़ी भूमिका है. बड़ा नेता होने के बावजूद उन्होंने खुद के लिए अनुशासन सैट किए हुए थे. जो नियम कार्यकारिणी के लिए बने थे वे उन्हें खुद पर भी अप्लाई करते थे. इसी चक्कर में उन्हें एक रोज देरी के चलते खाना खाने की लाइन में लंबा इंतजार करना पड़ गया.

यह सच है कि कई लोग मेहनत और अनुशासन के पथ पर चलने को कष्टदायक सम झते हैं. वे अपना मुंह मोड़ लेते हैं. ऐसे में वे लोग कभी अपनी क्षमता का आकलन नहीं कर पाते. भविष्य में आने वाली छोटीमोटी मुसीबतों से वे जल्दी टूट जाते हैं. वे साधारण जीवन व्यतीत करते हैं, जिस में उन्हें सामाजिक प्रतिष्ठा तो खोनी ही पड़ती है, साथ में अपने असफल जीवन से समयसमय पर आर्थिक चोट भी खानी पड़ती है.

लेकिन यह भलीभांति सम झने की जरूरत है कि जीवन कोई सौफ्टी नहीं, जिसे जीभ लगाया और चाट लिया. इस में कांटे भी समयसमय पर मिलते रहेंगे. जीवन संघर्षों से भरा हुआ है, इस में अंधेरापन भी आएगा ही. काले ब्लैकबोर्ड पर काली चौक मार कर अपनी बात लिखी तो जा सकती है, लेकिन पढ़ी नहीं जा सकती, इसलिए खुद में परिस्थिति के अनुसार कंट्रास पैदा कर सफेद चौक बनना ही पड़ता है. उसी प्रकार खुद को तपाने के लिए जीवन में कंट्रास से गुजरना ही पड़ेगा. जो जीवन के कंट्रास से मुंह मोड़ लेगा वह अपनी बात लिख तो रहा है लेकिन उसे कोई पढ़ नहीं सकता.

समस्या: बौयफ्रैंड के साथ कहां करें सैक्स

बिहार के जिला बेगूसराय के इलाके साहेबपुर कमाल की चंदा बीबी का इश्क साल 2016 से ही राजीव कुमार से चल रहा था, जो पेशे से आटोरिकशा ड्राइवर था. दोनों पहली दफा बलिया के डिज्नीलैंड मेले में मिले थे और पहली नजर में ही एकदूसरे को दिल दे बैठे थे.

प्यार करने वाले धर्मकर्म, अमीरीगरीबी और जातपांत नहीं देखते, यह इन दोनों ने भी साबित कर दिखाया था, क्योंकि चंदा मुसलमान थी और राजीव हिंदू था. यह हकीकत सम?ाते हुए भी दोनों दिल के मारे अपने प्यार को शादी की मंजिल तक पहुंचाने के लिए कोई भी खतरा उठाने तैयार थे.

यहां तक कि दोनों अपने घर वालों से कह भी चुके थे कि अब कोई दीवार उन का रास्ता नहीं रोक सकती. तय है कि ये दोनों हर लिहाज से एकदूसरे के हो चुके थे, इसलिए घर और समाज से हार मानने को तैयार नहीं थे. इधर प्यार के दुश्मन भी मौका तलाश रहे थे कि कब इन्हें रंगे हाथ पकड़ें और इन की राह में जुदाई के कांटे बोए जाएं.

आखिर वह मौका 25 अगस्त, 2021 को मिल ही गया, जब राजीव बेसब्री से उस का इंतजार कर रही चंदा से मिलने  रात को उस के घर जा पहुंचा. लेकिन इस बार चंदा के घर वाले चौकन्ने थे, जिन्होंने दोनों को प्यार करते देख लिया. बस, फिर क्या था. चंदा के घर वाले भूखे भेडियों की तरह राजीव पर टूट पड़े और उसे मारमार कर अधमरा कर दिया.

ये भी पढ़ें- वैवाहिक उम्र 21: राष्ट्र को कमजोर बनाने वाला “कानून”

चंदा अपने आशिक की पिटाई बरदाश्त नहीं कर पाई और उस ने जहर खा लिया. दोनों का इलाज चला, लेकिन बदनामी मुफ्त उन के हिस्से में आई. मामला चूंकि हिंदू लड़के और मुसलमान लड़की का था, इसलिए बात को दबा दिया गया.

ऐसा ही एक मामला बिहार के ही कटिहार से 14 नवंबर, 2021 को देखने में आया था. भवानीपुर का रहने वाला एक आशिक अपनी माशूका पार्वती (बदला हुआ नाम) से मिलने उस के गांव मोहना चांदपुर आदिवासी टोला जा पहुंचा.

समय वही सूरज ढलने के बाद का था. दोनों ने अभी अपनेअपने कपड़े खिसका कर सैक्स करना शुरू किया ही था कि एकाएक ही घात लगाए बैठे गांव वाले दोनों पर मधुमक्खियों की तरह टूट पड़े. उन दोनों की खासी धुनाई की गई और फिर उन्हें रातभर मवेशियों की तरह खूंटे से बांध कर रखा गया.

बाहर भी गारंटी नहीं

इन प्रेमियों की बड़ी परेशानी यह होती है कि सैक्स कहां करें. वैसे, सब से मुनासिब और महफूज जगह तो घर ही है, लेकिन वहां भी देखे और पकड़े जाने का खतरा कम नहीं. इस के अलावा सभी के घरों की बनावट ऐसी नहीं होती कि आशिक आसानी से सब से नजरें बचा कर दाखिल हो सके और इतमीनान से दोनों सैक्स कर सकें.

लेकिन खतरे बाहर भी कम नहीं हैं. भोपाल के नजदीक सीहोर की रहने वाली एक 24 साला लड़की करिश्मा (बदला हुआ नाम) की मानें, तो उसे भोपाल के बस कंडक्टर नरेश (बदला हुआ नाम) से इश्क हो गया और दोनों सैक्स करने के लिए राजी हो गए.

रजामंदी के बाद दिक्कत पेश आई जगह की, जिस के बाबत दोनों ने बस से ?ांक?ांक कर सिविल इंजीनियरों की तरह लोकेशन देखी, लेकिन हर जगह इमारतें खड़ी नजर आईं. कुछ जगहे ठीकठाक लगी, पर पकड़े जाने का डर वहां भी था.

आखिर में थकहार कर दोनों ने तय किया कि कोई सस्ता सा लौज या होटल में चला जाए, वहां कोई खतरा नहीं रहेगा.

नरेश की जानपहचान भोपाल के नजदीक के कुछ होटल वालों से थी लेकिन उन की मदद लेने में राज खुल जाने का डर था, इसलिए दोनों ने उज्जैन का रुख किया और रेलवे स्टेशन के पास एक लौज में कमरा ले लिया.

होटल के रजिस्टर में खानापूरी करने के बाद वे दोनों कमरे में पहुंचे, तो दरवाजा बंद कर एकदूसरे में गुंथ गए, क्योंकि मुद्दत से प्यारमुहब्बत और सैक्स की बातें दिन में बस में और रात में ह्वाट्सएप पर करतेकरते दोनों रातदिन सैक्स के ही सपने देखा करते थे.

ये भी पढ़ें- पिता बनने की भी हैं जिम्मेदारियां

उज्जैन के लौज में यह सपना पूरा हुआ और दोनों ने जीभर कर खुद की और एकदूसरे की प्यास बु?ाई. अभी दोनों कपड़े ठीक कर के भोपाल वापस जाने की तैयारी कर ही रहे थे कि फिल्मी स्टाइल में दरवाजा खटखटाया गया.

‘होगा कोई वेटर…’ यह सोचते हुए नरेश ने दरवाजा खोला तो सामने एक लेडी सबइंस्पैक्टर 2 सिपाहियों समेत खड़ी थी.

नरेश के तो होश फाख्ता हो गए, जब पुलिस वालों ने उन दोनों पर देह धंधे का इलजाम लगा डाला. जैसेतैसे मामला रफादफा हुआ, लेकिन इस में उन दोनों की जेब खाली हो गई.

गिड़गिड़ाने पर पुलिस वाली ने वापसी का किराया भर छोड़ा. इस तरह दोनों को सैक्स तकरीबन 4,000 रुपए का पड़ा.

जाएं तो जाएं कहां

तो फिर सैक्स की अपनी जरूरत पूरी करने के लिए प्रेमी जोड़े कहां जाएं? यह बहुत पेचीदा सवाल है. गांवदेहात में भी अब न पहले सी ?ाडि़यां, पेड़ और ?ारमुट हैं और न ही टीलेटोले बचे हैं. सड़कें बन जाने से वहां भी आशिक और माशूक आधा घंटे की तनहाई के लिए तरस जाते हैं.

शहर में पार्कों में भीड़ है, जहां बैठ कर प्रेमी बातें और थोड़ी छेड़छाड़ तो एकदूसरे से कर सकते हैं, लेकिन सैक्स नहीं कर सकते. पैसे वाले तो अपनी यह जरूरत दौड़ती कार में पूरी कर लेते हैं या एकांत में कहीं रोक कर कार के काले शीशे चढ़ा लेते हैं. दिक्कत कम पैसे वाले जोड़ों को ज्यादा होती है, जो बेचारे शांत और सूनी जगह के लिए तरस जाते हैं.

धर्मकर्म है एक सहारा

लेकिन प्रेमी जोड़े भी ‘तू डालडाल मैं पातपात’ वाली कहावत को अमल में लाते हुए यह ख्वाहिश पूरी कर ही लेते हैं, जिस में कभीकभी प्यार और सैक्स का दुश्मन धर्मकर्म ही उन का सहारा बनता है.

विदिशा की एक लड़की की मानें, तो उस ने पहली बार सैक्स धर्म की आड़ में ही किया था. दुर्गा ?ांकियों के दौरान उसे शाम को घर से जाने की इजाजत मिली, तो उस ने अपने बौयफ्रैंड को शहर से 3 किलोमीटर दूर बेतवा नदी के किनारे बने एक मंदिर में बुला लिया. पहले दोनों ने दर्शन किए और फिर मंदिर के नीचे जा कर ?ाडि़यों में सैक्स किया.

गुजरात का गरबा बहुत मशहूर है, जिस में नवरात्रि के दौरान लाखों नौजवान लड़केलड़की सैक्स करते हैं. इस पर हर साल खूब होहल्ला भी कट्टरवादी मचाते हैं, लेकिन इन्हें रोक नहीं पाते.

धार्मिक जलसों में इफरात से भीड़भाड़ होती है. ये प्रेमी दूर अकेले में जा कर सैक्स करते हैं और बाद में धूल ?ाड़ते फिर नाचनेगाने लगते हैं यानी धर्म के सहारे सैक्स करना महफूज है, जो सदियों से प्रेमी करते आ रहे हैं. ?ांकियों के दिनों में गुजरात में ही नहीं, बल्कि पूरे देश में इफरात से कंडोम बिकते हैं.

साल 1973  में आई फिल्म ‘हीरा’ का आशा पारेख और सुनील दत्त पर फिल्माया गया एक गाना तब के नौजवानों में खूब मशहूर हुआ था. उस गाने के बोल थे, ‘मैं तु?ा से मिलने आई मंदिर जाने के बहाने…’

सहेलियों की लें मदद

बौयफ्रैंड से सैक्स करने में सहेलियों की मदद लेना ज्यादा कारगर साबित होता है. कैसे? इस का खुलासा करते हुए भोपाल की 20 साला गौरी बताती है कि उस ने अपनी सहेली खुशबू की मदद ली थी और अभी भी लेती रहती है.

खुशबू के घर जब कोई नहीं होता था, तब वह और उस का बौयफ्रैंड उस के घर पहुंच जाते थे और अंदर के कमरे में सैक्स का लुत्फ उठाते थे.

होता यह था कि जब तीनों को इतमीनान हो जाता था कि किसी ने नहीं देखा है तो खुशबू घर पर ताला लगा कर चली जाती थी और एहतियात के तौर पर ये भी अंदर से कुंडी लगा लेते थे.

फारिग हो जाने के बाद गौरी खुशबू को फोन कर देती थी. उस के आने के बाद दोनों एकएक कर निकल जाते थे. इस में खतरा कम है.

ये भी पढ़ें- रिश्ते अनमोल होते हैं

गौरी बताती है कि क्योंकि कोई शक नहीं करता और कभी पकड़े भी गए तो आशिक को रिश्ते का भाई बता कर बचने का भी उस ने सोच रखा है. इस तरीके में जरूरी यह है कि सहेली भरोसेमंद हो और जरूरत पड़ने पर आप भी उस की इसी तरह मदद करें.

हालांकि होटल और लौज भी सहूलियत वाली जगह हैं, लेकिन इस में भी बहुत एहतियात बरतना जरूरी है. मसलन, दोनों के नाम से अलगअलग कमरे अलगअलग वक्त में लिए जाएं और फिर एक कमरे में सैक्स किया जाए. कमरे का सलीके से मुआयना भी कर लेना चाहिए कि उस में कहीं कैमरा न लगा हो.

पुलिस के खतरे से बचने के लिए नामपता सही लिखाना चाहिए और डरना नहीं चाहिए, क्योंकि पुलिस को भी यह हक नहीं कि वह ?ाठे मामले में फंसा सके. घर हो या होटल दोनों ही जगह रात के बजाय दिन में सैक्स प्लान करना कम खतरे वाला काम होता है, नहीं तो कभीकभी हालत चंदा और पार्वती जैसी भी हो सकती है.

अनलिमिटेड कहानियां-आर्टिकल पढ़ने के लिएसब्सक्राइब करें