Family Story In Hindi: फैसला – सुरेश और प्रभाकर में से बिट्टी ने किसे चुना

Family Story In Hindi: रजनीगंधा की बड़ी डालियों को माली ने अजीब तरीके से काटछांट दिया था. उन्हें सजाने में मुझे बड़ी मुश्किल हो रही थी. बिट्टी ने अपने झबरे बालों को झटका कर एक बार उन डालियों से झांका, फिर हंस कर पूछा, ‘‘मां, क्यों इतनी परेशान हो रही हो. अरे, प्रभाकर और सुरेश ही तो आ रहे हैं…वे तो अकसर आते ही रहते हैं.’’ ‘‘रोज और आज में फर्क है,’’ अपनी गुडि़या सी लाड़ली बिटिया को मैं ने प्यार से झिड़का, ‘‘एक तो कुछ करनाधरना नहीं, उस पर लैक्चर पिलाने आ गई. आज उन दोनों को हम ने बुलाया है.’’

बिट्टी ने हां में सिर हिलाया और हंसती हुई अपने कमरे में चली गई. अजीब लड़की है, हफ्ताभर पहले तो लगता था, यह बिट्टी नहीं गंभीरता का मुखौटा चढ़ाए उस की कोई प्रतिमा है. खोईखोई आंखें और परेशान चेहरा, मुझे राजदार बनाते ही मानो उस की उदासी कपूर की तरह उड़ गई और वही मस्ती उस की रगों में फिर से समा गई.

‘मां, तुम अनुभवी हो. मैं ने तुम्हें ही सब से करीब पाया है. जो निर्णय तुम्हारा होगा, वही मेरा भी होगा. मेरे सामने 2 रास्ते हैं, मेरा मार्गदर्शन करो.’ फिर आश्वासन देने पर वह मुसकरा दी. परंतु उसे तसल्ली देने के बाद मेरे अंदर जो तूफान उठा, उस से वह अनजान थी. अपनी बेटी के मन में उठती लपटों को मैं ने सहज ही जान लिया था. तभी तो उस दिन उसे पकड़ लिया.

कई दिनों से बिट्टी सुस्त दिख रही थी, खोईखोई सी आंखें और चेहरे पर विषाद की रेखाएं, मैं उसे देखते ही समझ गई थी कि जरूर कोई बात है जो वह अपने दिल में बिठाए हुए है. लेकिन मैं चाहती थी कि बिट्टी हमेशा की तरह स्वयं ही मुझे बताए. उस दिन शाम को जब वह कालेज से लौटी तो रोज की अपेक्षा ज्यादा ही उदास दिखी. उसे चाय का प्याला थमा कर जब मैं लौटने लगी तो उस ने मेरा हाथ पकड़ कर रोक लिया और रोने लगी.

बचपन से ही बिट्टी का स्वभाव बहुत हंसमुख और चंचल था. बातबात में ठहाके लगाने वाली बिट्टी जब भी उदास होती या उस की मासूम आंखें आंसुओं से डबडबातीं तो मैं विचलित हो उठती. बिट्टी के सिवा मेरा और था ही कौन? पति से मानसिकरूप से दूर, मैं बिट्टी को जितना अपने पास करती, वह उतनी ही मेरे करीब आती गई. वह सारी बातों की जानकारी मुझे देती रहती. वह जानती थी कि उस की खुशी में ही मेरी खुशी झलकती है. इसी कारण उस के मन की उठती व्यथा से वही नहीं, मैं भी विचलित हो उठी. सुरेश हमारे बगल वाले फ्लैट में ही रहता था. बचपन से बिट्टी और सुरेश साथसाथ खेलते आए थे. दोनों परिवारों का एकदूसरे के यहां आनाजाना था. उस की मां मुझे मानती थी. मेरे पति योगेश को तो अपने व्यापार से ही फुरसत नहीं थी, पर मैं फुरसत के कुछ पल जरूर उन के साथ बिता लेती. सुरेश बेहद सीधासादा, अपनेआप में खोया रहने वाला लड़का था, लेकिन बिट्टी मस्त लड़की थी.

बिट्टी का रोना कुछ कम हुआ तो मैं ने पूछ लिया, ‘आजकल सुरेश क्यों नहीं आता?’ ‘वह…,’ बिट्टी की नम आंखें उलझ सी गईं.

‘बता न, प्रभाकर अकसर मुझे दिखता है, सुरेश क्यों नहीं?’ मेरा शक सही था. बिट्टी की उदासी का कारण उस के मन का भटकाव ही था. ‘मां, वह मुझ से कटाकटा रहता है.’

‘क्यों?’ ‘वह समझता है, मैं प्रभाकर से प्रेम करती हूं.’

‘और तू?’ मैं ने उसी से प्रश्न कर दिया. ‘मैं…मैं…खुद नहीं जानती कि मैं किसे चाहती हूं. जब प्रभाकर के पास होती हूं तो सुरेश की कमी महसूस होती है, लेकिन जब सुरेश से बातें करती हूं तो प्रभाकर की चाहत मन में उठती है. तुम्हीं बताओ, मैं क्या करूं. किसे अपना जीवनसाथी चुनूं?’ कह कर वह मुझ से लिपट गई.

मैं ने उस के सिर पर हाथ फेरा और सोचने लगी कि कैसा जमाना आ गया है. प्रेम तो एक से ही होता है. प्रेम या जीवनसाथी चुनने का अधिकार उसे मेरे विश्वास ने दिया था. सुरेश उस के बचपन का मित्र था. दोनों एकदूसरे की कमियों को भी जानते थे, जबकि प्रभाकर ने 2 वर्र्ष पूर्व उस के जीवन में प्रवेश किया था. बिट्टी बीएड कर रही थी और हम उस का विवाह शीघ्र कर देना चाहते थे, लेकिन वह स्वयं नहीं समझ पा रही थी कि उस का पति कौन हो सकता है, वह किस से प्रेम करती है और किसे अपनाए. परंतु मैं जानती थी, निश्चितरूप से वह प्रेम पूर्णरूप से किसी एक को ही करती है. दूसरे से महज दोस्ती है. वह नहीं जानती कि वह किसे चाहती है, परंतु निश्चित ही किसी एक का ही पलड़ा भारी होगा. वह किस का है, मुझे यही देखना था.

रात में बिट्टी पढ़तेपढ़ते सो गई तो उसे चादर ओढ़ा कर मैं भी बगल के बिस्तर पर लेट गई. योगेश 2 दिनों से बाहर गए हुए थे. बिट्टी उन की भी बेटी थी, लेकिन मैं जानती थी, यदि वे यहां होते, तो भी बिट्टी के भविष्य से ज्यादा अपने व्यापार को ले कर ही चिंतित होते. कभीकभी मैं समझ नहीं पाती कि उन्हें बेटी या पत्नी से ज्यादा काम क्यों प्यारा है. बिस्तर पर लेट कर रोजाना की तरह मैं ने कुछ पढ़ना चाहा, परंतु एक भी शब्द पल्ले न पड़ा. घूमफिर कर दिमाग पीछे की तरफ दौड़ने लगता. मैं हर बार उसे खींच कर बाहर लाती और वह हर बार बेशर्मों की तरह मुझे अतीत की तरफ खींच लेता. अपने अतीत के अध्याय को तो मैं जाने कब का बंद कर चुकी थी, परंतु बिट्टी के मासूम चेहरे को देखते हुए मैं अपने को अतीत में जाने से न रोक सकी…

जब मैं भी बिट्टी की उम्र की थी, तब मुझे भी यह रोग हो गया था. हां, तब वह रोग ही था. विशेषरूप से हमारे परिवार में तो प्रेम कैंसर से कम खतरनाक नहीं था. तब न तो मेरी मां इतनी सहिष्णु थीं, जो मेरा फैसला मेरे हक में सुना देतीं, न ही पिता इतने उदासीन थे कि मेरी पसंद से उन्हें कुछ लेनादेना ही होता. तब घर की देहरी पर ज्यादा देर खड़ा होना बूआ या दादी की नजरों में बहुत बड़ा गुनाह मान लिया जाता था. किसी लड़के से बात करना तो दूर, किसी लड़की के घर भी भाई को ले कर जाना पड़ता, चाहे भाई छोटा ही क्यों न हो. हजारों बंदिशें थीं, परंतु जवानी कहां किसी के बांधे बंधी है. मेरा अल्हड़ मन आखिर प्रेम से पीडि़त हो ही गया. मैं बड़ी मां के घर गई हुई थी. सुमंत से वहीं मुलाकात हुई थी और मेरा मन प्रेम की पुकार कर बैठा. परंतु बचपन से मिले संस्कारों ने मेरे होंठों का साथ नहीं दिया. सुमंत के प्रणय निवेदन को मां और परिवार के अन्य लोगों ने निष्ठुरता से ठुकरा दिया.

फिर 1 वर्ष के अंदर ही मेरी शादी एक ऐसे व्यक्ति से कर दी गई जो था तो छोटा सा व्यापारी, पर जिस का ध्येय भविष्य में बड़ा आदमी बनने का था. इस के लिए मेरे पति ने व्यापार में हर रास्ता अपनाया. मेरी गोद में बिट्टी को डाल कर वे आश्वस्त हो दिनरात व्यापार की उन्नति के सपने देखते. प्रेम से पराजित मेरा तप्त हृदय पति के प्यार और समर्पण का भूखा था. उन के निस्वार्थ स्पर्श से शायद मैं पहले प्रेम को भूल कर उन की सच्ची सहचरी बनती, पर व्यापार के बीच मेरा बोलना उन्हें बिलकुल पसंद नहीं था. मुझे याद नहीं, व्यापारिक पार्टी के अलावा वे मुझे कभी कहीं अपने साथ ले गए हों.

लेकिन घर और बिट्टी के बारे में सारे फैसले मेरे होते. उन्हें इस के लिए अवकाश ही न था. बिट्टी द्वारा दी गई जिम्मेदारी से मेरे अतीत की पुस्तक फड़फड़ाती रही. अतीत का अध्याय सारी रात चलता रहा, क्योंकि उस के समाप्त होने तक पक्षियों ने चहचहाना शुरू कर दिया था… दूसरे दिन से मैं बिट्टी के विषय में चौकन्नी हो गई. प्रभाकर का फोन आते ही मैं सतर्क हो जाती. बिट्टी का उस से बात करने का ढंग व चहकना देखती. घंटी की आवाज सुनते ही उस का भागना देखती.

एक दिन सुरेश ने कहा, ‘चाचीजी, देखिएगा, एक दिन मैं प्रशासनिक सेवा में आ कर रहूंगा, मां का एक बड़ा सपना पूरा होगा. मैं आगे बढ़ना चाहता हूं, बहुत आगे,’ उस के ये वाक्य मेरे लिए नए नहीं थे, परंतु अब मैं उन्हें भी तोलने लगी.

प्रभाकर से बिट्टी की मुलाकात उस के एक मित्र की शादी में हुई थी. उस दिन पहली बार बिट्टी जिद कर के मुझ से साड़ी बंधवा कर गईर् थी और बालों में वेणी लगाई थी. उस दिन सुरेश साक्षात्कार देने के लिए इलाहाबाद गया हुआ था. बिट्टी अपनी एक मित्र के साथ थी और उसी के साथ वापस भी आना था. मैं सोच रही थी कि सुरेश होता तो उसे भेज कर बिट्टी को बुलवा सकती थी. उस के आने में काफी देर हो गई थी. मैं बेहद घबरा गई. फोन मिलाया तो घंटी बजती रही, किसी ने उठाया ही नहीं.

लेकिन शीघ्र ही फोन आ गया था कि बिट्टी रात को वहीं रुक जाएगी. दूसरे दिन जब बिट्टी लौटी तो उदास सी थी. मैं ने सोचा, सहेली से बिछुड़ने का दर्द होगा. 2 दिन वह शांत रही, फिर मुझे बताया, ‘मां, वहां मुझे प्रभाकर मिला था.’

‘वह कौन है?’ मैं ने प्रश्न किया. ‘मीता के भाई का दोस्त, फोटो खींच रहा था, मेरे भी बहुत सारे फोटो खींचे.’

‘क्यों?’ ‘मां, वह कहता था कि मैं उसे अच्छी लग रही हूं.’

‘तुम ने उसे पास आने का अवसर दिया होगा?’ मैं ने उसे गहराई से देखा. ‘नहीं, हम लोग डांस कर रहे थे, तभी बीच में वह आया और मुझे ऐसा कह कर चला गया.’

मैं ने उसे आश्वस्त किया कि कुछ लड़के अपना प्रभाव जमाने के लिए बेबाक हरकत करते हैं. फिर शादी वगैरह में तो दूल्हे के मित्र और दुलहन की सहेलियों की नोकझोंक चलती ही रहती है. परंतु 2 दिनों बाद ही प्रभाकर हमारे घर आ गया. उस ने मुझ से भी बातें कीं और बिट्टी से भी. मैं ने लक्ष्य किया कि बिट्टी उस से कम समय में ही खुल गई है.

फिर तो प्रभाकर अकसर ही मेरे सामने ही आता और मुझ से तथा बिट्टी से बतिया कर चला जाता. बिट्टी के कालेज के और मित्र भी आते थे. इस कारण प्रभाकर का आना भी मुझे बुरा नहीं लगा. जिस दिन बिट्टी उस के साथ शीतल पेय या कौफी पी कर आती, मुझे बता देती. एकाध बार वह अपने भाई को ले कर भी आया था. इस दौरान शायद बिट्टी सुरेश को कुछ भूल सी गई. सुरेश भी पढ़ाई में व्यस्त था. फिर प्रभाकर की भी परीक्षा आ गई और वह भी व्यस्त हो गया. बिट्टी अपनी पढ़ाई में लगी थी.

धीरेधीरे 2 वर्ष बीत गए. बिट्टी बीएड करने लगी. उस के विवाह का जिक्र मैं पति से कई बार चुकी थी. बिट्टी को भी मैं बता चुकी थी कि यदि उसे कोई लड़का पति के रूप में पसंद हो तो बता दे. फिर तो एक सप्ताह पूर्व की वह घटना घट गई, जब बिट्टी ने स्वीकारा कि उसे प्रेम है, पर किस से, वह निर्णय वह नहीं ले पा रही है.

सुरेश के परिवार से मैं खूब परिचित थी. प्रभाकर के पिता से भी मिलना जरूरी लगा. पति को जाने का अवसर जाने कब मिलता, इस कारण प्रभाकर को बताए बगैर मैं उस के पिता से मिलने चल दी.

बेहतर आधुनिक सुविधाओं से युक्त उन का मकान न छोटा था, न बहुत बड़ा. प्रभाकर के पिता का अच्छाखासा व्यापार था. पत्नी को गुजरे 5 वर्ष हो चुके थे. बेटी कोई थी नहीं, बेटों से उन्हें बहुत लगाव था. इसी कारण प्रभाकर को भी विश्वास था कि उस की पसंद को पिता कभी नापसंद नहीं करेंगे और हुआ भी वही. वे बोले, ‘मैं बिट्टी से मिल चुका हूं, प्यारी बच्ची है.’ इधरउधर की बातों के बीच ही उन्होंने संकेत में मुझे बता दिया कि प्रभाकर की पसंद से उन्हें इनकार नहीं है और प्रत्यक्षरूप से मैं ने भी जता दिया कि मैं बिट्टी की मां हूं और किस प्रयोजन से उन के पास आई हूं.

‘‘कहां खोई हो, मां?’’ कमरे से बाहर निकलते हुए बिट्टी बोली. मैं चौंक पड़ी. रजनीगंधा की डालियों को पकड़े कब से मैं भावशून्य खड़ी थी. अतीत चलचित्र सा घूमता चला गया. कहानी पूरी नहीं हो पाई थी, अंत बाकी था.

जब घर में प्रभाकर और सुरेश ने एकसाथ प्रवेश किया तो यों प्रतीत हुआ, मानो दोनों एक ही डाली के फूल हों. दोनों ही सुंदर और होनहार थे और बिट्टी को चाहने वाले. प्रभाकर ने तो बिट्टी से विवाह की इच्छा भी प्रकट कर दी थी, परंतु सुरेश अंतर्मुखी व्यक्तित्व का होने के कारण उचित मौके की तलाश में था.

सुरेश ने झुक कर मेरे पांव छुए और बिट्टी को एक गुलाब का फूल पकड़ा कर उस का गाल थपथपा दिया. ‘‘आते समय बगीचे पर नजर पड़ गई, तोड़ लाया.’’

प्रभाकर ने मुझे नमस्ते किया और पूरे घर में नाचते हुए रसोई में प्रवेश कर गया. उस ने दोचार चीजें चखीं और फिर बिट्टी के पास आ कर बैठ गया. मैं भोजन की अंतिम तैयारी में लग गई और बिट्टी ने संगीत की एक मीठी धुन लगा दी. प्रभाकर के पांव बैठेबैठे ही थिरकने लगे. सुरेश बैठक में आते ही रैक के पास जा कर खड़ा हो गया और झुक कर पुस्तकों को देखने लगा. वह जब भी हमारे घर आता, किसी पत्रिका या पुस्तक को देखते ही उसे उठा लेता. वह संकोची स्वभाव का था, भूखा रह जाता. मगर कभी उस ने मुझ से कुछ मांग कर नहीं खाया था.

मैं सोचने लगी, क्या सुरेश के साथ मेरी बेटी खुश रह सकेगी? वह भारतीय प्रशासनिक सेवा की प्रारंभिक परीक्षा में उत्तीर्ण हो चुका है. संभवतया साक्षात्कार भी उत्तीर्ण कर लेगा, लेकिन प्रशासनिक अधिकारी बनने की गरिमा से युक्त सुरेश बिट्टी को कितना समय दे पाएगा? उस का ध्येय भी मेरे पति की तरह दिनरात अपनी उन्नति और भविष्य को सुखमय बनाने का है जबकि प्रभाकर का भविष्य बिलकुल स्पष्ट है. सुरेश की गंभीरता बिट्टी की चंचलता के साथ कहीं फिट नहीं बैठती. बिट्टी की बातबात में हंसनेचहकने की आदत है. यह बात कल को अगर सुरेश के व्यक्तित्व या गरिमा में खटकने लगी तो? प्रभाकर एक हंसमुख और मस्त युवक है. बिट्टी के लिए सिर्फ शब्दों से ही नहीं वह भाव से भी प्रेम दर्शाने वाला पति साबित होगा. बिट्टी की आंखों में प्रभाकर के लिए जो चमक है, वही उस का प्यार है. यदि उसे सुरेश से प्यार होता तो वह प्रभाकर की तरफ कभी नहीं झुकती, यह आकर्षण नहीं प्रेम है. सुरेश सिर्फ उस का अच्छा मित्र है, प्रेमी नहीं. खाने की मेज पर बैठने के पहले मैं ने फैसला कर लिया था. Family Story In Hindi

Hindi Romantic Story: खेल – मासूम दिखने वाली दिव्या निकली माहिर

Hindi Romantic Story: आज से 6-7 साल पहले जब पहली बार तुम्हारा फोन आया था तब भी मैं नहीं समझ पाया था कि तुम खेल खेलने में इतनी प्रवीण होगी या खेल खेलना तुम्हें बहुत अच्छा लगता होगा. मैं अपनी बात बताऊं तो वौलीबौल छोड़ कर और कोई खेल मुझे कभी नहीं आया. यहां तक कि बचपन में गुल्लीडंडा, आइसपाइस या चोरसिपाही में मैं बहुत फिसड्डी माना जाता था. फिर अन्य खेलों की तो बात ही छोड़ दीजिए कुश्ती, क्रिकेट, हौकी, कूद, अखाड़ा आदि. वौलीबौल भी सिर्फ 3 साल स्कूल के दिनों में छठीं, 7वीं और 8वीं में था, देवीपाटन जूनियर हाईस्कूल में. उन दिनों स्कूल में नईनई अंतर्क्षेत्रीय वौलीबौल प्रतियोगिता का शुभारंभ हुआ था और पता नहीं कैसे मुझे स्कूल की टीम के लिए चुन लिया गया और उस टीम में मैं 3 साल रहा. आगे चल कर पत्रकारिता में खेलों का अपना शौक मैं ने खूब निकाला. मेरा खयाल है कि खेलों पर मैं ने जितने लेख लिखे, उतने किसी और विषय पर नहीं. तकरीबन सारे ही खेलों पर मेरी कलम चली. ऐसी चली कि पाठकों के साथ अखबारों के लोग भी मुझे कोई औलराउंडर खेलविशेषज्ञ समझते थे.

पर तुम तो मुझ से भी बड़ी खेल विशेषज्ञा निकली. तुम्हें रिश्तों का खेल खेलने में महारत हासिल है. 6-7 साल पहले जब पहली बार तुम ने फोन किया था तो मैं किसी कन्या की आवाज सुन कर अतिरिक्त सावधान हो गया था. ‘हैलो सर, मेरा नाम दिव्या है, दिव्या शाह. अहमदाबाद से बोल रही हूं. आप का लिखा हुआ हमेशा पढ़ती रहती हूं.’

‘जी, दिव्याजी, नमस्कार, मुझे बहुत अच्छा लगा आप से बात कर. कहिए मैं आप की क्या सेवा कर सकता हूं.’ जी सर, सेवावेवा कुछ नहीं. मैं आप की फैन हूं. मैं ने फेसबुक से आप का नंबर निकाला. मेरा मन हुआ कि आप से बात की जाए.

‘थैंक्यूजी. आप क्या करती हैं, दिव्याजी?’ ‘सर, मैं कुछ नहीं करती. नौकरी खोज रही हूं. वैसे मैं ने एमए किया है समाजशास्त्र में. मेरी रुचि साहित्य में है.’

‘दिव्याजी, बहुत अच्छा लगा. हम लोग बात करते रहेंगे,’ यह कह कर मैं ने फोन काट दिया. मुझे फोन पर तुम्हारी आवाज की गर्मजोशी, तुम्हारी बात करने की शैली बहुत अच्छी लगी. पर मैं लड़कियों, महिलाओं के मामले में थोड़ा संकोची हूं. डरपोक भी कह सकते हैं. उस का कारण यह है कि मुझे थोड़ा डर भी लगा रहता है कि क्या मालूम कब, कौन मेरी लोकप्रियता से जल कर स्टिंग औपरेशन पर न उतर आए. इसलिए एक सीमा के बाद मैं लड़कियों व महिलाओं से थोड़ी दूरी बना कर चलता हूं.

पर तुम्हारी आवाज की आत्मीयता से मेरे सारे सिद्धांत ढह गए. दूरी बना कर चलने की सोच पर ताला पड़ गया. उस दिन के बाद तुम से अकसर फोन पर बातें होने लगीं. दुनियाजहान की बातें. साहित्य और समाज की बातें. उसी दौरान तुम ने अपने नाना के बारे में बताया था. तुम्हारे नानाजी द्वारका में कोई बहुत बड़े महंत थे. तुम्हारा उन से इमोशनल लगाव था. तुम्हारी बातें मेरे लिए मदहोश होतीं. उम्र में खासा अंतर होने के बावजूद मैं तुम्हारी ओर आकर्षित होने लगा था. यह आत्मिक आकर्षण था. दोस्ती का आकर्षण. तुम्हारी आवाज मेरे कानों में मिस्री सरीखी घुलती. तुम बोलती तो मानो दिल में घंटियां बज रही हैं. तुम्हारी हंसी संगमरमर पर बारिश की बूंदों के माध्यम से बजती जलतरंग सरीखी होती. उस के बाद जब मैं अगली बार अपने गृहनगर गांधीनगर गया तो अहमदाबाद स्टेशन पर मेरीतुम्हारी पहली मुलाकात हुई. स्टेशन के सामने का आटो स्टैंड हमारी पहली मुलाकात का मीटिंग पौइंट बना. उसी के पास स्थित चाय की एक टपरी पर हम ने चाय पी. बहुत रद्दी चाय, पर तुम्हारे साथ की वजह से खुशनुमा लग रही थी. वैसे मैं बहुत थका हुआ था. दिल्ली से अहमदाबाद तक के सफर की थकान थी, पर तुम से मिलने के बाद सारी थकान उतर गई. मैं तरोताजा हो गया. मैं ने जैसा सोचा समझा था तुम बिलकुल वैसी ही थी. एकदम सीधीसादी. प्यारी, गुडि़या सरीखी. जैसे मेरे अपने घर की. एकदम मन के करीब की लड़की. मासूम सा ड्रैस सैंस, उस से भी मासूम हावभाव. किशमिशी रंग का सूट. मैचिंग छोटा सा पर्स. खूबसूरत डिजाइन की चप्पलें. ऊपर से भीने सेंट की फुहार. सचमुच दिलकश. मैं एकटक तुम्हें देखता रह गया. आमनेसामने की मुलाकात में तुम बहुत संकोची और खुद्दार महसूस हुई.

कुछ महीने बाद हुई दूसरी मुलाकात में तुम ने बहुत संकोच से कहा कि सर, मेरे लिए यहीं अहमदाबाद में किसी नौकरी का इंतजाम करवाइए. मैं ने बोल तो जरूर दिया, पर मैं सोचता रहा कि इतनी कम उम्र में तुम्हें नौकरी करने की क्या जरूरत है? तुम्हारी घरेलू स्थिति क्या है? इस तरह कौन मां अपनी कम उम्र की बिटिया को नौकरी करने शहर भेज सकती है? कई सवाल मेरे मन में आते रहे, मैं तुम से उन का जवाब नहीं मांग पाया. सवाल सवाल होते हैं और जवाब जवाब. जब सवाल पसंद आने वाले न हों तो कौन उन का जवाब देना चाहेगा. वैसे मैं ने हाल में तुम से कई सवाल पूछे पर मुझे एक का भी उत्तर नहीं मिला. आज 20 अगस्त को जब मुझे तुम्हारा सारा खेल समझ में आया है तो फिर कटु सवाल कर के क्यों तुम्हें परेशान करूं.

मेरे मन में तुम्हारी छवि आज भी एक जहीन, संवेदनशील, बुद्धिमान लड़की की है. यह छवि तब बनी जब पहली बार तुम से बात हुई थी. फिर हमारे बीच लगातार बातों से इस छवि में इजाफा हुआ. जब हमारी पहली मुलाकात हुई तो यह छवि मजबूत हो गई. हालांकि मैं तुम्हारे लिए चाह कर भी कुछ कर नहीं पाया. कोशिश मैं ने बहुत की पर सफलता नहीं मिली. दूसरी पारी में मैं ने अपनी असफलता को जब सफलता में बदलने का फैसला किया तो मुझे तुम्हारी तरफ से सहयोग नहीं मिला. बस, मैं यही चाहता था कि तुम्हारे प्यार को न समझ पाने की जो गलती मुझ से हुई थी उस का प्रायश्चित्त यही है कि अब मैं तुम्हारी जिंदगी को ढर्रे पर लाऊं. इस में जो तुम्हारा साथ चाहिए वह मुझे प्राप्त नहीं हुआ.

बहरहाल, 25 जुलाई को तुम फिर मेरी जिंदगी में एक नए रूप में आ गई. अचानक, धड़धड़ाते हुए. तेजी से. सुपरसोनिक स्पीड से. यह दूसरी पारी बहुत हंगामाखेज रही. इस ने मेरी दुनिया बदल कर रख दी. मैं ठहरा भावुक इंसान. तुम ने मेरी भावनाओं की नजाकत पकड़ी और मेरे दिल में प्रवेश कर गई. मेरे जीवन में इंद्रधनुष के सभी रंग भरने लगे. मेरे ऊपर तुम्हारा नशा, तुम्हारा जादू छाने लगा. मेरी संवेदनाएं जो कहीं दबी पड़ी थीं उन्हें तुम ने हवा दी और मेरी जिंदगी फूलों सरीखी हो गई. दुनियाजहान के कसमेवादों की एक नई दुनिया खुल गई. हमारेतुम्हारे बीच की भौतिक दूरी का कोई मतलब नहीं रहा. बातों का आकाश मुहब्बत के बादलों से गुलजार होने लगा.

तुम्हारी आवाज बहुत मधुर है और तुम्हें सुर और ताल की समझ भी है. तुम जब कोई गीत, कोई गजल, कोई नगमा, कोई नज्म अपनी प्यारी आवाज में गाती तो मैं सबकुछ भूल जाता. रात और दिन का अंतर मिट गया. रानी, जानू, राजा, सोना, बाबू सरीखे शब्द फुसफुसाहटों की मदमाती जमीन पर कानों में उतर कर मिस्री घोलने लगे. उम्र का बंधन टूट गया. मैं उत्साह के सातवें आसमान पर सवार हो कर तुम्हारी हर बात मानने लगा. तुम जो कहती उसे पूरा करने लगा. मेरी दिनचर्या बदल गई. मैं सपनों के रंगीन संसार में गोते लगाने लगा. क्या कभी सपने भी सच्चे होते हैं? मेरा मानना है कि नहीं. ज्यादा तेजी किसी काम की नहीं होती. 25 जुलाई को शुरू हुई प्रेमकथा 20 अगस्त को अचानक रुक गई. मेरे सपने टूटने लगे. पर मैं ने सहनशीलता का दामन नहीं छोड़ा. मैं गंभीर हो गया था. मैं तो कोई खेल नहीं खेल रहा था. इसलिए मेरा व्यवहार पहले जैसा ही रहा. पर तुम्हारा प्रेम उपेक्षा में बदल गया. कोमल भावनाएं औपचारिक हो गईं. मेरे फोन की तुम उपेक्षा करने लगी. अपना फोन दिनदिन भर, रातभर बंद करने लगी. बातों में भी बोरियत झलकने लगी. तुम्हारा व्यवहार किसी खेल की ओर इशारा करने लगा.

इस उपेक्षा से मेरे अंदर जैसे कोई शीशा सा चटख गया, बिखर गया हो और आवाज भी नहीं हुई हो. मैं टूटे ताड़ सा झुक गया. लगा जैसे शरीर की सारी ताकत निचुड़ गई है. मैं विदेह सा हो गया हूं. डा. सुधाकर मिश्र की एक कविता याद आ गई,

इतना दर्द भरा है दिल में, सागर की सीमा घट जाए.

जल का हृदय जलज बन कर जब खुशियों में खिलखिल उठता है. मिलने की अभिलाषा ले कर,

भंवरे का दिल हिल उठता है. सागर को छूने शशधर की किरणें,

भागभाग आती हैं, झूमझूम कर, चूमचूम कर,

पता नहीं क्याक्या गाती हैं. तुम भी एक गीत यदि गा दो,

आधी व्यथा मेरी घट जाए. पर तुम्हारे व्यवहार से लगता है कि मेरी व्यथा कटने वाली नहीं है.

अभी जैसा तुम्हारा बरताव है, उस से लगता है कि नहीं कटेगी. यह मेरे लिए पीड़ादायक है कि मेरा सच्चा प्यार खेल का शिकार बन गया है. मैं तुम्हारी मासूमियत को प्यार करता हूं, दिव्या. पर इस प्यार को किसी खेल का शिकार नहीं बनने दे सकता. लिहाजा, मैं वापस अपनी पुरानी दुनिया में लौट रहा हूं. मुझे पता है कि मेरा मन तुम्हारे पास बारबार लौटना चाहेगा. पर मैं अपने दिल को समझा लूंगा. और हां, जिंदगी के किसी मोड़ पर अगर तुम्हें मेरी जरूरत होगी तो मुझे बेझिझक पुकारना, मैं चला आऊंगा. तुम्हारे संपर्क का तकरीबन एक महीना मुझे हमेशा याद रहेगा. अपना खयाल रखना.

Romantic Story In Hindi: मिट गई दूरियां – कैसे एक हुए राजेश और अंजलि

Romantic Story In Hindi: कोरोना महामारी की पहली लहर के दौरान जहां सभी लोग अपनेअपने घरों में सिमट गए थे, वहीं नौकरीपेशा लोगों के लिए ड्यूटी पर जमे रहना जरूरी था.

उत्तर प्रदेश के सहारनपुर जिले का रहने वाला 25 साल का राजेश कुमार रेलवे में ट्रैकमैन की नौकरी कर रहा था. उस की पोस्टिंग बिहार के रोहतास जिले में हुई थी. वह कई सालों से रोहतास के डेहरी औन सोन के रेलवे क्वार्टर में रह रहा था.

रेलवे लाइन के किनारे सरकारी क्वार्टर बने हुए थे. वैसे, इस महकमे के सरकारी क्वार्टरों की हालत अच्छी नहीं थी. ज्यादातर रेलवे मुलाजिम इन क्वार्टरों में रहना पसंद नहीं करते थे. इस की वजह यह थी कि सरकारी क्वार्टर होने के चलते इन के रखरखाव और मरम्मत ठीक से नहीं हो पाई थी, जिस से कुछ को छोड़ कर ज्यादार क्वार्टर जर्जर हो चुके थे, इसलिए लोगों को रहने में काफी दिक्कतों का सामना करना पड़ता था.

लिहाजा, ज्यादातर रेलवे मुलाजिम सरकारी क्वार्टर को अलौट नहीं करवाना चाहते थे. दूसरी वजह यह भी थी कि रेलवे स्टेशन शहर से थोड़ा दूर था. लेकिन राजेश कुंआरा था और उसे घर के लिए पैसे भी बचाने थे, इसलिए उस के लिए रेलवे क्वार्टर में ही रहना ठीक था.

जब कोरोना की पहली लहर आई तो राजेश को हाजिरी लगाने भर के लिए ड्यूटी जाना पड़ता था, क्योंकि देशभर में ट्रेनों की आवाजाही बंद कर दी गई थी.

उस दिन रात के तकरीबन 9 बजे राजेश क्वार्टर से खाना खा कर आदतन चहलकदमी करने निकला था. वह जैसे ही घर से बाहर निकला, घर के पिछवाड़े में एक औरत उस के कमरे की दीवार के पास बदहवास हालत में पड़ी हुई थी.

राजेश उसे देख कर हैरान हुआ. दूर से आ रही लैंपपोस्ट की रोशनी में भी वह साफ देख पा रहा था. उस की साड़ी और पेटीकोट घुटने से ऊपर तक चढ़े हुए थे. ब्लाउज का ऊपरी हुक टूट हुआ था, जिस के चलते उस के उभार साफ दिख रहे थे. उस की साड़ी जगहजगह से फटी हुई थी. उस के पैर लहूलुहान दिख रहे थे. देखने में वह भले घर की लग रही थी. राजेश को ऐसा महसूस हुआ कि उस औरत के साथ कुछ न कुछ गलत जरूर हुआ है.

राजेश को समझ में नहीं आ रहा था कि वह क्या करे? उसे हिम्मत नहीं हो रही थी कि उस से कुछ पूछे. फिर भी वह इनसानियत के नाते उस औरत के नजदीक गया और पूछा, ‘‘तुम कौन हो? यहां क्या कर रही हो?’’

वह औरत सिसक रही थी. उस ने अपने आंचल से आंखों के कोनों को साफ किया. वह कुछ पल राजेश की तरफ देखती रही, फिर डरतेडरते बोलने की कोशिश की, ‘‘मुझे जोर से प्यास लगी है.’’

राजेश झटपट जा कर कमरे से एक गिलास पानी ले आया था. वह पानी के गिलास को एक ही सांस में खाली कर गई थी. देखने से अंदाजा लगा कि वह काफी भूखीप्यासी है.

‘‘मैं काफी थकी हूं. मुझे सोने दो,’’ यह कह कर वह एक तरफ वहीं जमीन पर सोने लगी थी.

‘‘बाहर बहुत कीड़ेमकोड़े और मच्छर भी हैं. यहां सोना महफूज भी नहीं है… अंदर आ कर मेरे कमरे में सो जाओ,’’ राजेश ने उस से कहा.

वह औरत कुछ पल सोचती रही, क्योंकि बाहर बहुत सन्नाटा था. वह ऐसी सुनसान जगह में कभी नहीं रही थी.

उसे अजनबी आदमी पर यकीन नहीं हो रहा था, फिर भी वह बाहर डर महसूस कर रही थी. वर्तमान हालात ऐसे थे कि उसे राजेश पर यकीन करना ही ठीक लगा था, इसलिए वह उस के कहने पर अंदर आ गई थी.

राजेश उसे कमरे में सो जाने के लिए बोला था. उस के पास कुछ रोटियां थीं, उसे खाने के लिए दी थीं, पर वह बिना खाए ही कमरे में सो गई थी. राजेश बाहर बरामदे में सो गया था.

किंतु राजेश को नींद नहीं आ रही थी. वह उसी के बारे में सोच रहा था. कुछ भी अंदाजा नहीं लगा पा रहा था. आखिर यह औरत कौन है? इस हालत में यहां तक यह कैसे पहुंची है? इसी उधेड़बुन में उसे कब नींद लग गई, पता भी नहीं चला था.

राजेश की सुबह जल्दी ही नींद खुल गई थी. कुछ देर बाद वह औरत भी जाग गई थी. राजेश ने उसे बाथरूम के बारे में बता दिया. उस के पैर में छाले होने के चलते वह ठीक से चल भी नहीं पा रही थी.

राजेश के मन में कई तरह के सवाल उठ रहे थे. तभी राजेश किचन से चाय बना कर ले आया था. वह डरते हुए चाय पीने लगी थी और खुद के बारे में सोच रही थी.

चाय पीते ही राजेश ने उस औरत से कई तरह के सवाल पूछ डाले थे.

उस औरत ने बताना शुरू किया, ‘‘मैं अंजली हूं और मेरा घर तिलौथू ब्लौक के निमियाडीह गांव में है, जो यहां से तकरीबन 12 किलोमीटर दूर है.

‘‘दरअसल, मैं घर से भाग कर रेलवे लाइन पर मरने के लिए आई थी, लेकिन लौकडाउन होने के चलते कई दिनों से ट्रेन आजा नहीं रही है. मैं पिछली रात को ही अपने घर से चुपके से निकल गई थी. रातभर चलने के बाद यहां पहुंची थी.

‘‘दिनभर रेलवे लाइन के किनारे मरने के लिए भूखीप्यासी इधरउधर भटकती रही. लेकिन एक भी ट्रेन नहीं आ पाई तो मैं बहुत निराश हो गई थी.

‘‘मैं भूखप्यास से काफी थक गई थी, इसीलिए रात में आप के घर के पिछवाड़े पड़ी हुई थी. मैं यहां अपनी किस्मत पर रो रही थी. मुझे समझ में नहीं आ रहा था कि अब मैं क्या करूं? मुझे सुनसान जगह होने के चलते काफी डर लग रहा था.’’

राजेश ने सवाल किया, ‘‘आखिर तुम मरना क्यों चाहती हो?’’

यह सुन कर अंजली काफी उदास हो गई थी. उस की आंखों से आंसू छलक पड़े थे. काफी कोशिश के बाद उस ने बताया, ‘‘मेरा पति एक नंबर का शराबी है. वह नकारा है. वह मुझे कोसता रहता था कि बेटी की शादी कौन करेगा?

‘‘एक दिन शराब के नशे में उस ने मेरी बेटी को बिस्तर से नीचे फेंक दिया था. ज्यादा चोट लगने के चलते मेरी बेटी मर गई.

‘‘इस के बाद मुझे अपने पति से नफरत हो गई थी, इसीलिए मैं जीना नहीं चाहती थी,’’ यह कहते हुए अंजली की आंखों में आंसू झिलमिलाने लगे थे.

राजेश को अंजली की आपबीती सुन कर दुख हुआ था. उसे अंजली के पति पर काफी गुस्सा आ रहा था, लेकिन कुछ शक भी हो रहा था कि कोई भी औरत इतनी दूर मरने के लिए क्यों आएगी?

राजेश ने चाय के खाली प्याले को टेबल पर रखते हुए अंजली को समझाया, ‘‘अब तुम नहाधो लो. अभी लौकडाउन है. तुम कहीं जा भी नहीं सकती हो. अगर तुम चाहो तो यहां अपने पैर के जख्म को ठीक होने तक रुक सकती हो. वैसे, तुम इस हालत में कहीं जाने लायक भी नहीं हो.

‘‘अरे हां, तुम्हारे पास तो कपड़े भी नहीं हैं. हैंगर पर मेरी पैंट और टीशर्ट टंगे हुए हैं. अभी तुम्हें वही पहन कर काम चलाना पड़ेगा. मैं थोड़ा बाहर से सब्जी, दूध और तुम्हारे लिए दवा लेने जा रहा हूं. यहां 2 घंटे के बाद दुकानें बंद हो जाएंगी,’’ यह कह कर वह एक थैला ले कर बाहर निकल गया.

जब राजेश डेढ़ घंटे बाद अपने क्वार्टर में वापस आया, तो अंजली उस हालत में भी घर की साफसफाई कर चुकी थी. वह नहाधो कर कर पैंटटीशर्ट पहन चुकी थी और अपनी साड़ी, ब्लाउज और पेटीकोट को सूखने के लिए आंगन में रस्सी पर फैला रखा था.

अंजली बालों में कंघी कर रही थी. वह देखने में काफी खूबसूरत लग रही थी. वह कहीं से भी शादीशुदा नहीं लग रही थी. अभी मुश्किल से उस की उम्र 24-25 साल के आसपास रही होगी. खिलेखिले बड़े उभारों की गोलाई और उस के गुलाबी होंठ देख कर एकबारगी राजेश का मन मचलने लगा था.

राजेश ने अंजली को गरम दूध के साथ ब्रैड खाने को दी. इस के बाद अपने हाथों से दवा खिलाई थी.

राजेश तौलिया ले कर बाथरूम में नहाने चला गया था. जब वह नहा कर आया, तो औफिस में हाजिरी लगाने के लिए निकल पड़ा. तकरीबन ढाई घंटे बाद जब वह घर लौट कर आया, तो अंजली खाना पका कर उस के इंतजार में बैठी हुई थी.

राजेश ने आते ही पूछा, ‘‘तुम ने खाना खा लिया?’’

‘‘नहीं,’’ अंजली ने छोटा सा जवाब दिया.

राजेश के कहने पर उस ने थोड़ा सा खाना खाया. खाना खाने के बाद वे एकदूसरे के सामने बैठे हुए थे. राजेश ने उस से कुरेदकुरेद कर पूछना शुरू किया, तो उस ने बताया, ‘‘मैं 10वीं जमात तक पढ़ी हूं. गरीबी के चलते मेरे मामा ने कम उम्र में ही मेरी शादी कर दी थी, क्योंकि मेरे मातापिता बचपन में ही गुजर गए थे.

‘‘मेरे मामा किसी तरह से मेरी शादी कर के छुटकारा पाना चाहते थे, इसलिए उन्होंने बिना जानेसमझे मुझे उस पियक्कड़ के गले बांध दिया था.’’

1-2 दिन बाद ही राजेश को यह एहसास हुआ कि जिस घर में वह अकेलापन महसूस करता था, उस घर में अब रौनक आ गई थी. पहले वह घर से बाहर ज्यादा समय बिताना चाहता था, पर अब अंजली के आते ही उस का रूटीन बदल गया था. वह ज्यादा से ज्यादा समय उस के साथ बिताना चाहता था. उस के साथ बातें करना अच्छा लग रहा था.

अंजली कुछ दिन में ही अपना दुखदर्द भूल चुकी थी. अब वह बातचीत के दौरान थोड़ाबहुत हंसनेमुसकराने लगी थी. वह रोज उस के लिए खाना पकाने लगी थी. दोनों मिल कर खाते थे और देर रात तक इधरउधर की बातें करते थे.

तकरीबन हफ्तेभर बाद राजेश एक दिन औफिस से छुट्टी ले कर अपने एक दोस्त की बाइक से अंजली के गांव की तरफ चला गया था. वहां उस ने एक पान बेचने वाले से पूछा, ‘‘भैया, यहां कोरोना वायरस से कितने लोगों की मौत हुई होगी?’’

उस पान वाले ने बताया, ‘‘यहां कोरोना से किसी की मौत नहीं हुई है, पर हालफिलहाल में एक औरत ने घर से भाग कर नदी में कूद कर अपनी जान दे दी है. उस की लाश अभी तक नहीं मिल पाई है.’’

‘‘वे लोग कैसे जानें कि वह औरत नदी में कूद गई है?’’ राजेश ने पान वाले से सवाल किया.

‘‘उस औरत की चप्पल नदी के किनारे पड़ी मिली थी. अब उस औरत का श्राद्ध किया जा रहा है. उस का पति शराबी होने के साथसाथ नालायक भी है. वह बिना शराब पिए रह ही नहीं पाता है. बेचारी उस औरत को मुक्ति मिल गई,’’ पान बेचने वाले ने राजेश को बताया.

राजेश भरे मन से वापस लौट आया. वह इस उधेड़बुन में था कि अंजली को यह सब बात बताए कि नहीं बताए.

लेकिन वह अंजली से सचाई को छिपाना नहीं चाहता था, इसलिए उस ने बताया, ‘‘आज मैं तुम्हारे गांव में गया था. तुम उन लोगों की नजरों में मर चुकी हो, इसलिए तुम्हारे परिवार के द्वारा तुम्हारा श्राद्ध भी किया जा रहा था.’’

यह सुन कर अंजली निराश हुई. धीरेधीरे अनलौक की प्रक्रिया शुरू हो गई थी. दुकानें वगैरह ज्यादा समय के लिए खुलने लगी थीं, इसीलिए राजेश अंजली के लिए पहनने के लिए कुछ नई साड़ी खरीद लाया था. अबतक राजेश को अंजली से लगाव हो चुका था.

राजेश की नईनई नौकरी लगी थी, इसलिए शादी के लिए उस के घर पर लड़की वाले आ रहे थे. उस के मातापिता जल्दी ही शादी कराना चाहते थे, लेकिन लौकडाउन के चलते ऐसा नहीं हो पा रहा था.

अंजली के आने के बाद राजेश की इच्छा बदलने लगी थी. अंजली भी चाहती थी कि जब वह मर नहीं सकी तो राजेश के लिए ही जिएगी, क्योंकि उसी के चलते उसे नई जिंदगी मिली थी. वह मन ही मन राजेश को चाहने लगी थी.

उस रात मूसलाधार बारिश होने लगी थी. राजेश बरामदे में सो रहा था, लेकिन तेज बारिश के झोंकों के चलते बरामदे का बिस्तर गीला हो गया था. अंजली के कहने पर राजेश उस के साथ बिस्तर पर सो गया था.

तेज हवा और बारिश के चलते वातावरण में ठंडापन भी आ गया था. ऐसे में बिजली चली गई. जैसे ही दोनों की गरम सांसें टकराईं, दोनों के अंदर बिजली कौंधने लगी थी. वे एकदूसरे की बांहों में समाने लगे थे. कुछ देर में दूरियां मिट गई थीं. अब वे दोनों एकदूसरे की बांहों में पड़ कर भविष्य के नए सपने बुन रहे थे. Romantic Story In Hindi

Romantic Story In Hindi: कायर – श्रेया ने श्रवण को छोड़ राजीव से विवाह क्यों किया

Romantic Story In Hindi: श्रेया के आगे खड़ी महिला जैसे ही अपना बोर्डिंग पास ले कर मुड़ी श्रेया चौंक पड़ी. बोली, ‘‘अरे तन्वी तू…तो तू भी दिल्ली जा रही है… मैं अभी बोर्डिंग पास ले कर आती हूं.’’

उन की बातें सुन कर काउंटर पर खड़ी लड़की मुसकराई, ‘‘आप दोनों को साथ की सीटें दे दी हैं. हैव ए नाइस टाइम.’’ धन्यवाद कह श्रेया इंतजार करती तन्वी के पास आई.

‘‘चल आराम से बैठ कर बातें करते हैं,’’ तन्वी ने कहा.

हौल में बहुत भीड़ थी. कहींकहीं एक कुरसी खाली थी. उन दोनों को असहाय से एकसाथ 2 खाली कुरसियां ढूंढ़ते देख कर खाली कुरसी के बराबर बैठा एक भद्र पुरुष उठ खड़ा हुआ. बोला, ‘‘बैठिए.’’

‘‘हाऊ शिवैलरस,’’ तन्वी बैठते हुए बोली, ‘‘लगता है शिवैलरी अभी लुप्त नहीं हुई है.’’

‘‘यह तो तुझे ही मालूम होगा श्रेया…तू ही हमेशा शिवैलरी के कसीदे पढ़ा करती थी,’’ तन्वी हंसी, ‘‘खैर, छोड़ ये सब, यह बता तू यहां कैसे?’’

‘‘क्योंकि मेरा घर यानी आशियाना यहीं है, दिल्ली तो एक शादी में जा रही हूं.’’

‘‘अजब इत्तफाक है. मैं एक शादी में यहां आई थी और अब अपने आशियाने में वापस दिल्ली जा रही हूं.’’

‘‘मगर जीजू तो सिंगापुर में सैटल्ड थे?’’

‘‘हां, सर्विस कौंट्रैक्ट खत्म होने पर वापस दिल्ली आ गए. नौकरी के लिए भले ही कहीं भी चले जाएं, दिल्ली वाले सैटल कहीं और नहीं हो सकते.’’

‘‘वैसे हूं तो मैं भी दिल्ली की, मगर अब भोपाल छेड़ कर कहीं और नहीं रह सकती.’’

‘‘लेकिन मेरी शादी के समय तो तेरा भी दिल्ली में सैटल होना पक्का ही था,’’ श्रेया ने उसांस भरी.

‘‘हां, था तो पक्का ही, मगर मैं ने ही पूरा नहीं होने दिया और उस का मुझे कोई अफसोस भी नहीं है. अफसोस है तो बस इतना कि मैं ने दिल्ली में सैटल होने का मूर्खतापूर्ण फैसला कैसे कर लिया था.’’

‘‘माना कि कई खामियां हैं दिल्ली में, लेकिन भई इतनी बुरी भी नहीं है हमारी दिल्ली कि वहां रहने की सोचने तक को बेवकूफी माना जाए,’’ तन्वी आहत स्वर में बोली.

‘‘मुझे दिल्ली से कोई शिकायत नहीं है तन्वी,’’ श्रेया खिसिया कर बोली, ‘‘दिल्ली तो मेरी भी उतनी ही है जितनी तेरी. मेरा मायका है. अत: अकसर जाती रहती हूं वहां. अफसोस है तो अपनी उस पसंद पर जिस के साथ दिल्ली में बसने जा रही थी.’’

तन्वी ने चौंक कर उस की ओर देखा. फिर कुछ हिचकते हुए बोली, ‘‘तू कहीं श्रवण की बात तो नहीं कर रही?’’

श्रेया ने उस की ओर उदास नजरों से देखा. फिर पूछा, ‘‘तुझे याद है उस का नाम?’’

‘‘नाम ही नहीं उस से जुड़े सब अफसाने भी जो तू सुनाया करती थी. उन से तो यह पक्का था कि श्रवण वाज ए जैंटलमैन, ए थौरो जैंटलमैन टु बी ऐग्जैक्ट. फिर उस ने ऐसा क्या कर दिया कि तुझे उस से प्यार करने का अफसोस हो रहा है? वैसे जितना मैं श्रवण को जानती हूं उस से मुझे यकीन है कि श्रवण ने कोई गलत काम नहीं किया होगा जैसे किसी और से प्यार या तेरे से जोरजबरदस्ती?’’

श्रेया ने मुंह बिचकाया, ‘‘अरे नहीं, ऐसा सोचने की तो उस में हिम्मत ही नहीं थी.’’

‘‘तो फिर क्या दहेज की मांग करी थी उस ने?’’

‘‘वहां तक तो बात ही नहीं पहुंची. उस से पहले ही उस का असली चेहरा दिख गया और मैं ने उस से किनारा कर लिया,’’ श्रेया ने फिर गहरी सांस खींची, ‘‘कुछ और उलटीसीधी अटकल लगाने से पहले पूरी बात सुनना चाहेगी?’’

‘‘जरूर, बशर्ते कोई ऐसी व्यक्तिगत बात न हो जिसे बताने में तुझे कोई संकोच हो.’’

‘‘संकोच वाली तो खैर कोई बात ही नहीं है, समझने की बात है जो तू ही समझ सकती है, क्योंकि तूने अभीअभी कहा कि मैं शिवैलरी के कसीदे पढ़ा करती थी…’’ इसी बीच फ्लाइट के आधा घंटा लेट होने की घोषणा हुई.

‘‘अब टुकड़ों में बात करने के बजाय श्रेया पूरी कहानी ही सुना दे.’’

‘‘मेरा श्रवण की तरफ झुकाव उस के शालीन व्यवहार से प्रभावित हो कर हुआ था. अकसर लाइबेरी में वह ऊंची शैल्फ से मेरी किताबें निकालने और रखने में बगैर कहे मदद करता था. प्यार कब और कैसे हो गया पता ही नहीं चला. चूंकि हम एक ही बिरादरी और स्तर के थे, इसलिए श्रवण का कहना था कि सही समय पर सही तरीके से घर वालों को बताएंगे तो शादी में कोई रुकावट नहीं आएगी. मगर किसी और ने चुगली कर दी तो मुश्किल होगी. हम संभल कर रहेंगे.

प्यार के जज्बे को दिल में समेटे रखना तो आसान नहीं होता. अत: मैं तुझे सब बताया करती थी. फाइनल परीक्षा के बाद श्रवण के कहने पर मैं ने उस के साथ फर्नीचर डिजाइनिंग का कोर्स जौइन किया था. साउथ इंस्टिट्यूट मेरे घर से ज्यादा दूर नहीं था.

श्रवण पहले मुझे पैदल मेरे घर छोड़ने आता था. फिर वापस जा कर अपनी बाइक ले कर अपने घर जाता था. मुझे छोड़ने घर से गाड़ी आती थी. लेने भी आ सकती थी लेकिन वन वे की वजह से उसे लंबा चक्कर लगाना पड़ता. अत: मैं ने कह दिया  था कि नजदीक रहने वाले सहपाठी के साथ पैदल आ जाती हूं. यह तो बस मुझे ही पता था कि बेचारा सहपाठी मेरी वजह से डबल पैदल चलता था. मगर बाइक पर वह मुझे मेरी बदनामी के डर से नहीं बैठाता था. मैं उस की इन्हीं बातों पर मुग्ध थी.

वैसे और सब भी अनुकूल ही था. हम दोनों ने ही इंटीरियर डैकोरेशन का कोर्स किया. श्रवण के पिता फरनिशिंग का बड़ा शोरूम खोलने वाले थे, जिसे हम दोनों को संभालना था. श्रवण का कहना था कि रिजल्ट निकलने के तुरंत बाद वह अपनी भाभी से मुझे मिलवाएगा और फिर भाभी मेरे घर वालों से मिल कर कैसे क्या करना है तय कर लेंगी.

लेकिन उस से पहले ही मेरी मामी मेरे लिए अपने भानजे राजीव का रिश्ता ले कर आ गईं. राजीव आर्किटैक्ट था और ऐसी लड़की चाहता था, जो उस के व्यवसाय में हाथ बंटा सके. मामी द्वारा दिया गया मेरा विवरण राजीव को बहुत पसंद आया और उस ने मामी से तुरंत रिश्ता करवाने को कहा.

‘‘मामी का कहना था कि नवाबों के शहर भोपाल में श्रेया को अपनी कला के पारखी मिलेंगे और वह खूब तरक्की करेगी. मामी के जाने के बाद मैं ने मां से कहा कि दिल्ली जितने कलापारखी और दिलवाले कहीं और नहीं मिलेंगे. अत: मेरे लिए तो दिल्ली में रहना ही ठीक होगा. मां बोलीं कि वह स्वयं भी मुझे दिल्ली में ही ब्याहना चाहेंगी, लेकिन दिल्ली में राजीव जैसा उपयुक्त वर भी तो मिलना चाहिए. तब मैं ने उन्हें श्रवण के बारे में सब बताया. मां ने कहा कि मैं श्रवण को उन से मिलवा दूं. अगर उन्हें लड़का जंचा तो वे पापा से बात करेंगी.

‘‘दोपहर में पड़ोस में एक फंक्शन था. वहां जाने से पहले मां ने मेरे गले में सोने की चेन पहना दी थी. मुझे भी पहननी अच्छी लगी और इंस्टिट्यूट जाते हुए मैं ने चेन उतारी नहीं. शाम को जब श्रवण रोज की तरह मुझे छोड़ने आ रहा था तो मैं ने उसे सारी बात बताई और अगले दिन अपने घर आने को कहा.

‘‘कल क्यों, अभी क्यों नहीं? अगर तुम्हारी मम्मी कहेंगी तो तुम्हारे पापा से मिलने के लिए भी रुक जाऊंगा,’’ श्रवण ने उतावली से कहा.

‘‘तुम्हारी बाइक तो डिजाइनिंग इंस्टिट्यूट में खड़ी है.’’

‘‘खड़ी रहने दो, तुम्हारे घर वालों से मिलने के बाद जा कर उठा लूंगा.’’

‘‘तब तक अगर कोई और ले गया तो? अभी जा कर ले आओ न.’’

‘‘ले जाने दो, अभी तो मेरे लिए तुम्हारे मम्मीपापा से मिलना ज्यादा जरूरी है.’’

सुन कर मैं भावविभोर हो गई और मैं ने देखा नहीं कि बिलकुल करीब 2 गुंडे चल रहे थे, जिन्होंने मौका लगते ही मेरे गले से चेन खींच ली. इस छीनाझपटी में मैं चिल्लाई और नीचे गिर गई. लेकिन मेरे साथ चलते श्रवण ने मुझे बचाने की कोई कोशिश नहीं करी. मेरा चिल्लाना सुन कर जब लोग इकट्ठे हुए और किसी ने मुझे सहारा दे कर उठाया तब भी वह मूकदर्शक बना देखता रहा और जब लोगों ने पूछा कि क्या मैं अकेली हूं तो मैं ने बड़ी आस से श्रवण की ओर देखा, लेकिन उस के चेहरे पर पहचान का कोई भाव नहीं था.

एक प्रौढ दंपती के कहने पर कि चलो हम तुम्हें तुम्हारे घर पहुंचा दें, श्रवण तुरंत वहां से चलता बना. अब तू ही बता, एक कायर को शिवैलरस हीरो समझ कर उस की शिवैलरी के कसीदे पढ़ने के लिए मैं भला खुद को कैसे माफ कर सकती हूं? राजीव के साथ मैं बहुत खुश हूं. पूर्णतया संतुष्ट पर जबतब खासकर जब राजीव मेरी दूरदर्शिता और बुद्धिमता की तारीफ करते हैं, तो मुझे बहुत ग्लानि होती है और यह मूर्खता मुझे बुरी तरह कचोटती है.’’

‘‘इस हादसे के बाद श्रवण ने तुझ से संपर्क नहीं किया?’’

‘‘कैसे करता क्योंकि अगले दिन से मैं ने डिजाइनिंग इंस्टिट्यूट जाना ही छोड़ दिया. उस जमाने में मोबाइल तो थे नहीं और घर का नंबर उस ने कभी लिया ही नहीं था. मां के पूछने पर कि मैं अपनी पसंद के लड़के से उन्हें कब मिलवाऊंगी, मैं ने कहा कि मैं तो मजाक कर रही थी. मां ने आश्वस्त हो कर पापा को राजीव से रिश्ता पक्का करने को कह दिया. राजीव के घर वालों को शादी की बहुत जल्दी थी. अत: रिजल्ट आने से पहले ही हमारी शादी भी हो गई. आज तुझ से बात कर के दिल से एक बोझ सा हट गया तन्वी. लगता है अब आगे की जिंदगी इतमीनान से जी सकूंगी वरना सब कुछ होते हुए भी, अपनी मूर्खता की फांस हमेशा कचोटती रहती थी.’’

तभी यात्रियों को सुरक्षा जांच के लिए बुला लिया गया. प्लेन में बैठ कर श्रेया ने कहा, ‘‘मेरा तो पूरा कच्चा चिट्ठा सुन लिया पर अपने बारे में तो तूने कुछ बताया ही नहीं.’’

‘‘दिल्ली से एक अखबार निकलता है दैनिक सुप्रभात…’’

‘‘दैनिक सुप्रभात तो दशकों से हमारे घर में आता है,’’ श्रेया बीच में ही बोली, ‘‘अभी भी दिल्ली जाने पर बड़े शौक से पढ़ती हूं खासकर ‘हस्तियां’ वाला पन्ना.’’

‘‘अच्छा. सुप्रभात मेरे दादा ससुर ने आरंभ किया था. अब मैं अपने पति के साथ उसे चलाती हूं. ‘हस्तियां’ स्तंभ मेरा ही विभाग है.’’

‘‘हस्तियों की तसवीर क्यों नहीं छापते आप लोग?’’

‘‘यह तो पापा को ही मालूम होगा जिन्होंने यह स्तंभ शुरू किया था. यह बता मेरे घर कब आएगी, तुझे हस्तियों के पुराने संकलन भी दे दूंगी.’’

‘‘शादी के बाद अगर फुरसत मिली तो जरूर आऊंगी वरना अगली बार तो पक्का… मेरा भोपाल का पता ले ले. संकलन वहां भेज देना.’’

‘‘मुझे तेरा यहां का घर मालूम है, तेरे जाने से पहले वहीं भिजवा दूंगी.’’

दिल्ली आ कर श्रेया बड़ी बहन के बेटे की शादी में व्यस्त हो गई. जिस शाम को उसे वापस जाना था, उस रोज सुबह उसे तन्वी का भेजा पैकेट मिला. तभी उस का छोटा भाई भी आ गया और बोला, ‘‘हम सभी दिल्ली में हैं, आप ही भोपाल जा बसी हैं. कितना अच्छा होता दीदी अगर पापा आप के लिए भी कोई दिल्ली वाला लड़का ही देखते या आप ने ही कोई पसंद कर लिया होता. आप तो सहशिक्षा में पढ़ी थीं.’’

सुनते ही श्रेया का मुंह कसैला सा हो गया. तन्वी से बात करने के बाद दूर हुआ अवसाद जैसे फिर लौट आया. उस ने ध्यान बंटाने के लिए तन्वी का भेजा लिफाफा खोला ‘हस्तियां’ वाले पहले पृष्ठ पर ही उस की नजर अटक गई, ‘श्रवण कुमार अपने शहर के जानेमाने सफल व्यवसायी और समाजसेवी हैं. जरूरतमंदों की सहायता करना इन का कर्तव्य है. अपनी आयु और जान की परवाह किए बगैर इन्होंने जवान मनचलों से एक युवती की रक्षा की जिस में गंभीर रूप से घायल होने पर अस्पताल में भी रहना पड़ा. लेकिन अहं और अभिमान से यह सर्वथा अछूते हैं.’

हमारे प्रतिनिधि के पूछने पर कि उन्होंने अपनी जान जोखिम में क्यों डाली, उन की एक आवाज पर मंदिर के पुजारी व अन्य लोग लड़नेमरने को तैयार हो जाते तो उन्होंने बड़ी सादगी से कहा, ‘‘इतना सोचने का समय ही कहां था और सच बताऊं तो यह करने के बाद मुझे बहुत शांति मिली है. कई दशक पहले एक ऐसा हादसा मेरी मित्र और सहपाठिन के साथ हुआ था. चाहते हुए भी मैं उस की मदद नहीं कर सका था. एक अनजान मूकदर्शक की तरह सब देखता रहा था. मैं नहीं चाहता था कि किसी को पता चले कि वह मेरे साथ थी और उस का नाम मेरे से जुडे़ और बेकार में उस की बदनामी हो.

‘‘मुझे चुपचाप वहां से खिसकते देख कर उस ने जिस तरह से होंठ सिकोड़े थे मैं समझ गया था कि वह कह रही थी कायर. तब मैं खुद की नजरों में ही गिर गया और सोचने लगा कि क्या मैं उसे बदनामी से बचाने के लिए चुप रहा या सच में ही मैं कायर हूं? जाहिर है उस के बाद उस ने मुझ से कभी संपर्क नहीं किया. मैं यह जानता हूं कि वह जीवन में बहुत सुखी और सफल है. सफल और संपन्न तो मैं भी हूं बस अपनी कायरता के बारे में सोच कर ही दुखी रहता था पर आज इस अनजान युवती को बचाने के बाद लग रहा है कि मैं कायर नहीं हूं…’’

श्रेया और नहीं पढ़ सकी. एक अजीब सी संतुष्टि की अनुभूति में वह यह भी भूल गई कि उसे सुकून देने को ही तन्वी ने ‘हस्तियां’ कालम के संकलन भेजे थे और एक मनगढ़ंत कहानी छापना तन्वी के लिए मुश्किल नहीं था. Romantic Story In Hindi

Romantic Story In Hindi: खूबसूरत – असलम को कैसे हुआ मुमताज की खूबसूरती का एहसास

Romantic Story In Hindi: असलम ने धड़कते दिल के साथ दुलहन का घूंघट उठाया. घूंघट के उठते ही उस के अरमानों पर पानी फिर गया था.

असलम ने फौरन घूंघट गिरा दिया. अपनी दुलहन को देख कर असलम का दिमाग भन्ना गया था. वह उसे अपने ख्वाबों की शहजादी के बजाय किसी भुतहा फिल्म की हीरोइन लग रही थी.

असलम ने अपने दांत पीस लिए और दरवाजा खोल कर बाहर निकल गया. बड़ी भाभी बरामदे में टहलते हुए अपने रोते हुए मुन्ने को चुप कराने की कोशिश कर रही थीं. असलम उन के पास चला गया.

‘‘मेरे साथ आइए भाभी,’’ असलम भाभी का हाथ पकड़ कर बोला.

‘‘हुआ क्या है?’’ भाभी उस के तेवर देख कर हैरान थीं.

‘‘पहले अंदर चलिए,’’ असलम उन का हाथ पकड़ कर उन्हें अपने कमरे में ले गया.

‘‘यह दुलहन पसंद की है आप ने मेरे लिए,’’ असलम ने दुलहन का घूंघट झटके से उठा कर भाभी से पूछा.

‘‘मुझे क्या पता था कि तुम सूरत को अहमियत दोगे, मैं ने तो सीरत परखी थी,’’ भाभी बोलीं.

‘‘आप से किस ने कह दिया कि सूरत वालों के पास सीरत नहीं होती?’’ असलम ने जलभुन कर भाभी से पूछा. ‘‘अब जैसी भी है, इसी के साथ गुजारा कर लो. इसी में सारे खानदान की भलाई है,’’ बड़ी भाभी नसीहत दे कर चलती बनीं.

‘‘उठो यहां से और दफा हो जाओ,’’ असलम ने गुस्से में मुमताज से कहा.

‘‘मैं कहां जाऊं?’’ मुमताज ने सहम कर पूछा. उस की आंखें भर आई थीं.

‘‘भाड़ में,’’ असलम ने झल्ला कर कहा.

मुमताज चुपचाप बैड से उतर कर सोफे पर जा कर बैठ गई. असलम ने बैड पर लेट कर चादर ओढ़ ली और सो गया. सुबह असलम की आंख देर से खुली. उस ने घड़ी पर नजर डाली. साढ़े 9 बज रहे थे. मुमताज सोफे पर गठरी बनी सो रही थी.

असलम बाथरूम में घुस गया और फ्रैश हो कर कमरे से बाहर आ गया.

‘‘सुबहसुबह छैला बन कर कहां चल दिए देवरजी?’’ कमरे से बाहर निकलते ही छोटी भाभी ने टोक दिया.

‘‘दफ्तर जा रहा हूं,’’ असलम ने होंठ सिकोड़ कर कहा.

‘‘मगर, तुम ने तो 15 दिन की छुट्टी ली थी.’’

‘‘अब मुझे छुट्टी की जरूरत महसूस नहीं हो रही.’’

दफ्तर में भी सभी असलम को देख कर हैरान थे. मगर उस के गुस्सैल मिजाज को देखते हुए किसी ने उस से कुछ नहीं पूछा. शाम को असलम थकाहारा दफ्तर से घर आया तो मुमताज सजीधजी हाथ में पानी का गिलास पकड़े उस के सामने खड़ी थी. ‘‘मुझे प्यास नहीं है और तुम मेरे सामने मत आया करो,’’ असलम ने बेहद नफरत से कहा.

‘‘जी,’’ कह कर मुमताज चुपचाप सामने से हट गई.

‘‘और सुनो, तुम ने जो चेहरे पर रंगरोगन किया है, इसे फौरन धो दो. मैं पहले ही तुम से बहुत डरा हुआ हूं. मुझे और डराने की जरूरत नहीं है. हो सके तो अपना नाम भी बदल डालो. यह तुम पर सूट नहीं करता,’’ असलम ने मुमताज की बदसूरती पर ताना कसा.

मुमताज चुपचाप आंसू पीते हुए कमरे से बाहर निकल गई.

इस के बाद मुमताज ने खुद को पूरी तरह से घर के कामों में मसरूफ कर लिया. वह यही कोशिश करती कि असलम और उस का सामना कम से कम हो. दोनों भाभियों के मजे हो गए थे. उन्हें मुफ्त की नौकरानी मिल गई थी.

एक दिन मुमताज किचन में बैठी सब्जी काट रही थी तभी असलम ने किचन में दाखिल हो कर कहा, ‘‘ऐ सुनो.’’

‘‘जी,’’ मुमताज उसे किचन में देख कर हैरान थी.

‘‘मैं दूसरी शादी कर रहा हूं. यह तलाकनामा है, इस पर साइन कर दो,’’ असलम ने हाथ में पकड़ा हुआ कागज उस की तरफ बढ़ाते हुए कहा.

‘‘क्या…?’’ मुमताज ने हैरत से देखा और सब्जी काटने वाली छुरी से अपना हाथ काट लिया. उस के हाथ से खून बहने लगा.

‘‘जाहिल…,’’ असलम ने उसे घूर कर देखा, ‘‘शक्ल तो है ही नहीं, अक्ल भी नहीं है तुम में,’’ और उस ने मुमताज का हाथ पकड़ कर नल के नीचे कर दिया.

मुमताज आंसुओं को रोकने की नाकाम कोशिश कर रही थी. असलम ने एक पल को उस की तरफ देखा. आंखों में उतर आए आंसुओं को रोकने के लिए जल्दीजल्दी पलकें झपकाती हुई वह बड़ी मासूम नजर आ रही थी. असलम उसे गौर से देखने लगा. पहली बार वह उसे अच्छी लगी थी. वह उस का हाथ छोड़ कर अपने कमरे में चला गया. बैड पर लेट कर वह देर तक उसी के बारे में सोचता रहा, ‘आखिर इस लड़की का कुसूर क्या है? सिर्फ इतना कि यह खूबसूरत नहीं है. लेकिन इस का दिल तो खूबसूरत है.’

पहली बार असलम को अपनी गलती का एहसास हुआ था. उस ने तलाकनामा फाड़ कर डस्टबिन में डाल दिया. असलम वापस किचन में चला आया. मुमताज किचन की सफाई कर रही थी.

‘‘छोड़ो यह सब और आओ मेरे साथ,’’ असलम पहली बार मुमताज से बेहद प्यार से बोला.

‘‘जी, बस जरा सा काम है,’’ मुमताज उस के बदले मिजाज को देख कर हैरान थी.

‘‘कोई जरूरत नहीं है तुम्हें नौकरों की तरह सारा दिन काम करने की,’’ असलम किचन में दाखिल होती छोटी भाभी को देख कर बोला.

असलम मुमताज की बांह पकड़ कर अपने कमरे में ले आया, ‘‘बैठो यहां,’’  उसे बैड पर बैठा कर असलम बोला और खुद उस के कदमों में बैठ गया.

‘‘मुमताज, मैं तुम्हारा अपराधी हूं. मुझे तुम जो चाहे सजा दे सकती हो. मैं खूबसूरत चेहरे का तलबगार था. मगर अब मैं ने जान लिया है कि जिंदगी को खूबसूरत बनाने के लिए खूबसूरत चेहरे की नहीं, बल्कि खूबसूरत दिल की जरूरत होती है. प्लीज, मुझे माफ कर दो.’’

‘‘आप मेरे शौहर हैं. माफी मांग कर आप मुझे शर्मिंदा न करें. सुबह का भूला अगर शाम को वापस आ जाए तो उसे भूला नहीं कहते,’’ मुमताज बोली.

‘‘थैंक्स मुमताज, तुम बहुत अच्छी हो,’’ असलम प्यार से बोला.

‘‘अच्छे तो आप हैं, जो मुझ जैसी बदसूरत लड़की को भी अपना रहे हैं,’’ कह कर मुमताज ने हाथों में अपना चेहरा छिपा लिया और रोने लगी.

‘‘पगली, आज रोने का नहीं हंसने का दिन है. आंसुओं को अब हमेशा के लिए गुडबाय कह दो. अब मैं तुम्हें हमेशा हंसतेमुसकराते देखना चाहता हूं.

‘‘और खबरदार, जो अब कभी खुद को बदसूरत कहा. मेरी नजरों में तुम दुनिया की सब से हसीन लड़की हो,’’ ऐसा कह कर असलम ने मुमताज को अपने सीने से लगा लिया. मुमताज सोचने लगी, ‘अंधेरी रात कितनी भी लंबी क्यों न हो, मगर उस के बाद सुबह जरूर होती है.’ Romantic Story In Hindi

Hindi Romantic Story: कारीगरी – नाहिद बड़े घर की बहू बन कर क्यों इतरा उठी?

Hindi Romantic Story: ‘‘नहीं अम्मी, बिलकुल नहीं. अपने निकाह में मैं तुम्हें साउथहौल की दुकान के कपड़े नहीं पहनने दूंगी’’, नाहिद काफी तल्ख आवाज में बोली, ‘‘जानती भी हो ज्योफ के घर वाले कितने अमीर हैं? उन का महल जितना बड़ा तो घर है.’’

‘‘हांहां, मैं समझती हूं. जैसा तू चाहेगी,

वैसा ही होगा,’’ जोया ने दबी आवाज में जवाब दिया.

‘‘और हां, प्लीज उन लोगों से यह मत कह डालना कि तुम उस फटीचर दुकान को चलाती हो. मैं ने उन से कहा है कि तुम फैशन डिजाइनिंग की दुनिया से सरोकार रखती हो.’’

नाहिद के कथन पर जोया ने सिर्फ एक आह भरी. 20 बरस पहले जिस दुकान ने उन की लड़खड़ाती गृहस्थी को संभाला था, वही आज उस के बच्चों के लिए शर्मिंदगी का कारण बन गई थी. आज भी वे उन दिनों को भुला नहीं पातीं जब उन की शादी इरफान से हुई थी. सहारनपुर की लड़की का निकाह लंदन में कार्यरत लड़के के साथ होना सभी के लिए फख्र की बात थी. बड़े धूमधाम से निकाह होने के बाद इरफान 15 दिन जोया के पास रह कर लंदन चला गया था और जोया के पिता उस का पासपोर्ट, वीजा बनवाने में जुट गए थे. पड़ोस की लड़कियां जोया से रश्क करने लगी थीं.

लंदन आ कर जोया को वहां की भाषा और संस्कृति को अपनाने के लिए बहुत संघर्ष करना पड़ा था. एबरडीन में एक छोटे से घर से उन्होंने अपनी गृहस्थी की शुरुआत की थी. इरफान की तनख्वाह लंदन की महंगी जिंदगी में गुजारा करने लायक नहीं थी, किंतु जोया की कुशलता से इरफान की गृहस्थी ठीकठाक चलने लगी थी.

2  लोगों का गुजारा तो हो जाता था लेकिन तीसरे से तंगी बढ़ सकती थी. नाहिद के जन्म के बाद जब ऐसा ही हुआ तो इरफान कुछ उदास रहने लगा. उस की अपनी तनख्वाह पूरी नहीं पड़ती थी और जोया दूसरे मर्दों के साथ काम करे, यह उसे बरदाश्त न था.

नाहिद जब 3 वर्ष की थी और ओमर 8 महीने का, तभी इरफान यह कह कर चला गया कि घरगृहस्थी का झंझट उस के बस की बात नहीं. कुल 5 वर्ष ही तो हुए थे जोया को वहां बसे और फिर इरफान कहां गया, इस की उन्हें आज तक खबर नहीं हुई. उन दिनों घर का सामान बेचबेच कर जोया ने काम चलाया था. पर ऐसा कब तक चलता? यदि नौकरी करने की सोचतीं तो दोनों बच्चों को किस के सहारे छोड़तीं?

‘‘ज्योफ की मां एक कंप्यूटर कंपनी में काम करती हैं, डैरीफोर्ड रोड पर’’, नाहिद बोली, ‘‘और उस के पिता सहकारी दफ्तर में अधीक्षक हैं.’’

जोया ने कोई उत्तर न दिया. ‘यदि उन की साउथहौल वाली दुकान न होती तो नाहिद ज्योफ से कहां टकराती? 6 महीने पहले नाहिद दुकान आई थी तो वहीं उसे ज्योफ मिला था. वह पास की दुकान में पड़े ताले की पूछताछ करने आया था.’

‘‘यह दुकान आप की है?’’ उस ने काफी अदब से नाहिद से पूछा था.

‘‘नहींनहीं, मैं तो यहां बस यों ही…’’, नाहिद फौरन बात टाल गई थी.

दुकान से जाते वक्त ज्योफ ने नाहिद से अपनी गाड़ी में चलने का प्रस्ताव रखा था, जिसे नाहिद ने स्वीकार कर लिया था.

‘‘उस के दादा पुरानी चीजों की दुकान चलाते हैं,’’ नाहिद ने कहा.

‘‘पुरानी चीजों की दुकान तो मैं भी चलाती हूं,’’ नाहिद की बात पर जोया बोल पड़ी, ‘‘पुराने कपड़े…’’

‘‘बेवकूफी की बात मत करो, अम्मी.’’

बरसों पहले जब गृहस्थी खींचने के जोया के सभी तरीके खत्म हो चुके थे और वे इसी उधेड़बुन में रहती थीं कि क्या करें, तभी एक दिन एक पड़ोसिन के साथ वे यों ही फैगन बाजार चली गई थीं अपनी पड़ोसिन के लिए ईवनिंग ड्रैस लेने. वहां पहुंच कर वे तो जैसे हतप्रभ रह गई थीं. इस कबाड़ी बाजार में क्याक्या नहीं बिकता. बिना इस्तेमाल किए हुए तोहफे, पहने जूते, कपड़े, स्वैटर वगैरह. इस के अलावा और भी बहुत कुछ.

बस फिर क्या था जोया ने साउथहौल में एक दुकान किराए पर ले ली. हर शाम वे फैगन बाजार से कपड़े खरीद लातीं, फिर उन कपड़ों को घर ला कर धोतीं, सुखातीं और प्रैस कर के नया बना देतीं. जोया की इस कारीगरी का अंजाम यह होता कि कौडि़यों के दाम की चीजें कई पौंड की हो जातीं.

‘‘और हां, तुम्हें उन का घर देखना चाहिए. हमारा पूरा घर उन की बैठक में समा जाएगा,’’ नाहिद बोली.

उस के स्वर के उतारचढ़ाव ने जोया को यह सोचने पर विवश कर दिया कि आज तक उन्होंने हजारों कपड़े सिर्फ इसलिए खरीदे बेचे थे कि नाहिद और ओमर को अपने दोस्तों को घर लाने में शर्मिंदगी न महसूस हो. और सिर्फ अपनी बेटी की खुशी के लिए जोया ने उस के एक ईसाई से शादी करने के फैसले पर कोई आपत्ति नहीं की थी. शादी भी ईसाई ढंग से हो रही थी और शादी की दावत ज्योफ के घर ही निश्चित हुई थी. ज्योफ की मां ने एक पत्र द्वारा जोया से यह पूछा था कि इस पर उन्हें कोई एतराज तो नहीं? इस पर जोया का उत्तर था कि दावत भले ही वहां हो, भोजन का खर्च वे उठाएंगी.

‘‘अब इस छोटे से घर में तुम्हें अधिक दिन तो रहना नहीं है,’’ जोया ने नाहिद से कहा.

‘‘नहीं अम्मी, यह बात नहीं है. आप ने मेरे लिए बहुत कुछ किया है. वह तो बस…’’

‘‘बस मुझे अपनी मां कहने में तुम्हें शर्म आती है,’’ जोया बीच में ही बोल पड़ीं.

‘‘अम्मी, ऐसी बात नहीं है,’’ कह कर नाहिद ने जोया के गले में बांहें डाल दीं, ‘‘तुम तो सब से अच्छी अम्मी हो, ज्योफ की मां से कहीं ज्यादा खूबसूरत. बस वह दुकान…’’

‘‘दुकान क्या घटिया है?’’

‘‘हां,’’ कह कर नाहिद हंसने लगी.

‘‘जोया की दुकान से बहुत सी मध्यवर्गीय परिवार की स्त्रियां कपड़े खरीदती थीं. मैडम ग्रांच तो वहां जब भी किसी धारियों वाली ड्रैस को देखतीं, फौरन खरीद लेतीं. इतने वर्षों में अपनी ग्राहकों की नाप, चहेते रंग और पसंद जानने के बाद जोया ऐसी ही पोशाकें लातीं जिन्हें वे पसंद करतीं. उन में से कुछ किसी जलसे या पार्टी से पहले जोया को अपने लिए अच्छी डै्रस लाने को कह जातीं. एक बार तो अखबार में शहर के मेयर के घर हुए जलसे की तसवीर में उन की एक ग्राहक का चित्र भी था, जिस ने उन्हीं की दुकान की डै्रस पहनी हुई थी. वह ड्रैस जोया केवल 15 पैन्स में लाई थीं और उस पर थोड़ी मेहनत के बाद वही पोशाक 10 पौंड की थी.’’

सहारनपुर में जब भी कोई निकाह होता तो सभी सहेलियों के कपड़ों पर सजावट जोया ही तो करतीं. फिर चाहे वह तल्हा का शरारा हो या समीना की कुरती, सभी को जरीगोटे से सुंदर बनाने की कला सिर्फ जोया ही दिखातीं. और इतनी मेहनत के बाद भी जो कारीगरी जोया के कपड़ों पर होती, वही नायाब होती.

‘‘वे लोग ईसाई हैं और शादी भी ईसाई ढंग से होगी. यह तुम जानती ही हो. इसलिए मैं चाहती हूं कि तुम कोई बढि़या सा ईवनिंग गाउन खरीद लो अपने लिए. सभी औरतें अच्छी से अच्छी पोशाकों में होंगी. आखिर इतने अमीर लोग हैं वे. ऐसे में तुम्हारा सूट या शरारा पहनना कितना खराब लगेगा.’’

नाहिद की हिदायत पर जोया ने अपने लिए एक विदेशी गाउन तैयार करने की सोची. नाहिद को बताए बिना ही जोया ने अपनी दुकान की एक पोशाक चुनी. वे जानती थीं कि नाहिद कभी उन्हें अपनी दुकान की पोशाक नहीं पहनने देगी. लेकिन सिर्फ एक शाम के लिए पैसे बरबाद करने के लिए जोया कतई तैयार न थीं. और फिर जब उन जैसे अमीर घरों की औरतें उन की दुकान से पोशाकें खरीदती हैं, तो यह कहां की अक्लमंदी होगी कि वे खुद दूसरी दुकान से पोशाक खरीदें.

काफी सोचविचार के बाद उन्होंने अपने लिए एक नीली ड्रैस चुनी, जो कुछ महीने पहले फैगन बाजार से ली थी. पर वह इतनी घेरदार थी कि तंग कपड़ों का फैशन की वजह से उसे किसी ने हाथ तक न लगाया था. जोया ने उसे काट कर काफी छोटा और अपने नाप का बनाया. फिर बचे हुए कपड़े की दूधिया सफेदी हैट के चारों तरफ छोटी झालर लगा दी.

शादी के बाद जोया दावत के लिए ज्योफ के घर पहुंचीं. वहां की चमकदमक देख वे काफी प्रभावित हुईं. भव्य, आलीशान बंगले के चारों तरफ खूबसूरती व करीने से पेड़ लगे हुए थे. उन पर बल्बों की झालर यों पड़ी थी मानो नाहिद के साथसाथ आज उन की भी शादी हो.

जोया अपनी बेटी की पसंद पर खुश हो ही रही थीं कि ज्योफ की मां मौरीन वहां आ पहुंचीं, ‘‘जोया, क्या खूब शादी थी न. नाहिद कितनी खूबसूरत लग रही है. आप को गर्व होता होगा अपने बच्चों पर. बच्चों को अकेले ही पालपोस लेना कोई छोटी बात नहीं. नाहिद से पता चला कि आप के पति सालों पहले ही… मुझे खेद है.’’

मौरीन बातचीत और हावभाव से एक बड़े घराने की सभ्य स्त्री मालूम पड़ती थीं, ‘‘मैं तो कल्पना भी नहीं कर सकती विदेश में अपने पति की गैरमौजूदगी में बच्चों को अकेले पालने की. मैं वाकई आप से बहुत प्रभावित हूं. कैसे संभाल लिया आप ने सब कुछ? आप के बच्चे आप की कुशलता के तमगे हैं.’’

‘‘शुक्रिया मौरीन’’, जोया खुश अवश्य थीं किंतु कुछ असंतुष्ट भी. कहीं न कहीं उन का मन यह मना रहा था कि उन की कोई ग्राहक ज्योफ की रिश्तेदार निकल आए. ऐसे में वे अपने कार्य के प्रति नाहिद के दृष्टिकोण को बदल पातीं. किंतु ऐसा हुआ नहीं.

तभी मौरीन जोया की बांह में बांह डालते हुए कहने लगीं, ‘‘नाहिद ने मुझे बताया था कि आप फैशन की दुनिया से सरोकार रखती हैं. कितना आकर्षक लगता है यह सब. यह ड्रैस जो आप ने पहनी है ‘हिलेयर बैली’ से ली है न?’’

जोया ने खामोशी से सिर हिला हामी भर दी.

‘‘क्या खूब फब रही है आप पर. मुझे नहीं पता था कि वे घेरदार के अलावा तंग नाप की भी ड्रैसेज बेचते हैं या इस के साथ हैट भी मिलती है. कितने आश्चर्य की बात है कि मेरे पास भी ऐसी एक घेरदार ड्रैस थी, रंग भी बिलकुल यही. लेकिन वह इतनी घेरदार थी कि आजकल उसे पहनना मुमकिन नहीं था. आप से क्या कहना, आजकल का फैशन आप से बेहतर भला कौन जानेगा,’’ फिर कुछ सोचते हुए मौरीन बोलीं, ‘‘पता नहीं मैं ने उस ड्रैस के साथ क्या किया.’’

‘‘हां, पता नहीं…’’ जोया ने अपनी भोलीभाली आंखों को मटकाते हुए कहा

और इतना कह कर अपनी कारीगरी पर मुसकरा उठीं. Hindi Romantic Story

Long Hindi Story: सौदा – पहला भाग

Long Hindi Story, लेखक – हरे राम मिश्र

उस दिन बड़े विधवा दुलारी मनोहर लाल, जिन्हें उन की जाति के लोग ‘भैया’ और गांवमहल्ले के लोग ‘नेताजी कहते थे, की हवेली के गेट पर आंखों में आंसू भरे खड़ी थी. उस के गोरे बेदाग चेहरे की रंगत उड़ी हुई थी. वह बहुत बेचैन थी. उस के चेहरे से यह साफ दिखता था कि कुछ ऐसा जरूर हुआ है, जिस के लिए वह कतई तैयार नहीं थी.

और सचमुच, यह बड़ी चिंता की ही बात थी कि दुलारी की 17 साल की एकलौती बेटी रुपाली, जिसे वह प्यार से ‘रूपा’ बुलाती थी, जो घर की बकरियों के लिए हर रोज बिना नागा घास काटने गांव के बाहर खेतों की तरफ जाती थी, कल दोपहर घर से जाने के बाद वापस नहीं लौटी थी.

दुलारी की चिंता का एक ही केंद्र था कि आखिर उस की बेटी रुपाली कहां चली गई? वह घर क्यों नहीं लौटी? क्या गलत हो गया उस के साथ? आखिर वह कहां होगी अभी? किस हालत में होगी? ऐसे सवाल उस के जेहन में लगातार उभर रहे थे, उसे बहुत ज्यादा परेशान किए हुए थे.

एकलौती बेटी रूपा के साथ किसी अनहोनी से उपजी इस घबराहट में दुलारी को बीती शाम से ही कुछ भी अच्छा नहीं लग रहा था. ज्योंज्यों समय बढ़ता जा रहा था, उस की चिंता भी बढ़ती जा रही थी. आखिर एक विधवा, जिस के पति ने उसे सिर्फ इसलिए छोड़ दिया हो कि उसे पहली औलाद बेटी हो गई, अपनी एकमात्र धरोहर के पास नहीं रहने पर परेशान क्यों नहीं हो?

हालांकि, छोड़ने के कुछ ही महीने बाद पति रामलाल जहरीली शराब पीने से मर गया. इस के बाद दुलारी अपनी बेटी को ले कर मायके आ गई, क्योंकि इस विधवा को ससुराल में कोई भी रहने देने के लिए तैयार नहीं था.

आम दलित की तरह रामलाल के पास भी एक ?ाग्गी से ज्यादा कोई जायदाद नहीं थी, जो जंगल महकमे की जमीन पर कब्जा कर के बनाई गई थी. इस के बाद दुलारी फिर कभी ससुराल वापस नहीं गई. इस घटना को 17 साल हो गए थे.

दुलारी धीरे बोलने वाली 35 साल की औरत थी. वह एक ऐसी विधवा थी जो भले ही मायके में रहती थी, लेकिन गांव में भी किसी से कोई खास मतलब नहीं था. अपने मांबाप की एकलौती औलाद उन के मरने के बाद उन्ही के घर में रहने लगी. उसी झोपड़ीनुमा घर में, जहां घर में कुछ बकरियां पाली गई थीं और जिन की वह देखभाल करती थी. यही उस की धरोहर थी.

हालांकि, अब दुलारी के पास सिर्फ एक कमरे का सरकार का दिया हुआ पक्का मकान था. यह भी पाने के लिए उसे अपनी जाति के सरपंच कल्लू, कई मालाएं पहनने वाले पंचायत सैक्रेटरी त्रिभुवन, पंचायत मित्र नोखे और उस के 2 मुंहबोले समर्थकों का 4 महीने तक बिस्तर गरम करना पड़ा, क्योंकि वह मकान पाने के लिए तयशुदा 20,000 रुपए की घूस देने में नाकाम थी.

लेकिन इस सब की भनक दुलारी ने अपनी बेटी को कभी नहीं लगने दी.

बेटी के आलावा घर में पाली गईं यही 4 बकरियां उस की पूंजी थीं. मांबेटी दोनों इन्हीं 4 बकरियों से अपना गुजारा करती थीं. इन से ही सुबहशाम इन का चूल्हा जलता था.

दुलारी भले ही 35 साल की थी, लेकिन उस की सादगी भरी खूबसूरती किसी को भी उस का दीवाना बना सकती थी. गांव के दलितों में यह सोच थी कि दुलारी जरूर किसी ऊंची जाति का बीज है, क्योंकि उन की जाति में औरतें इतनी खूबसूरत हो ही नहीं सकतीं.

दुलारी के कपड़े भले ही बहुत साफ नहीं होते थे, लेकिन उन में लिपटी हुई छरहरे बदन वाली दुलारी किसी का भी मन मोह लेने के काबिल थी. गोरा बदन और गोल चेहरे पर कंटीली उभरी आंखें उसे अप्सरा जैसी बना देती थीं.

दुलारी की बेटी रुपाली, जो अभी जवानी की दहलीज पर कदम रख रही थी, बस एकदम दुलारी ही लगती थी.

हवेली के मालिक मनोहर लाल दुलारी की जाति के बड़े नेता थे. वे भले ही 50 साल पार हो गए थे, लेकिन खिजाब से बाल रंगते थे और चेहरे की मालिश भी किसी विदेशी लिक्विड से बिना नागा करवाते थे. हर वक्त खद्दर का काफी भड़कीला कुरता पहनते थे. चप्पल भी ब्रिटेन की बनी पहनते थे और कौम की गरीबी पर रोज आंसू बहाते थे.

इस के साथ मनोहर लाल सफेद गमछा अपने गले में लपेटे रहते थे. मूंछें भी तावदार थीं, लेकिन दाढ़ी क्लीन शेव थी. किसी राजनीतिक सवाल पर कभी कुछ खुल कर नहीं बोलते थे. हर बात में गहरा राज छिपा रहता था, जिसे सिर्फ उन के कुछ खास शागिर्द ही समझ पाते थे.

मनोहर लाल की हवेली थोड़ी बड़ी थी, जिस के एक हिस्से को उन की जाति के ही लोगों ने कभी चंदा इकट्ठा कर के इसलिए बनवाया था, ताकि इलाके में उन के विपक्ष में सियासत कर रहा ऊंची जात का ‘ठाकुर’ ऐंठ कर नहीं चल सके और उस के सामने चुनाव में मनोहर लाल को किसी हीनभावना का शिकार नहीं होना पड़े.

जवानी के दिनों में मनोहर लाल जमींदार ठाकुरों को सबक सिखाने से ले कर, ऊंची जाति की लड़कियों को केंद्रित कर के ब्राह्मणों को गालियां देते थे, गंदे और उकसावे भरे नारे लगाते थे, जिस से इलाके के पीडि़त दलित नौजवान उन की तरफ आकर्षित हों.

इसी के बलबूते वे 2 बार विधानसभा का चुनाव भी लड़ गए और इतने वोट हासिल कर लिए कि विपक्षी राजनीति में उन्हें ‘सीरियसली’ लिया जाने लगा था. कुलमिला कर वे विधानसभा में अपनी जाति का एक बड़ा चेहरा हो चुके थे.

यही नहीं, मनोहर लाल पिछली बार ही सदन पहुंचतेपहुंचते रह गए थे. क्षेत्र में उन का दबदबा था. इस चुनाव में उन के हारने के पीछे यह दलील थी कि विधानसभा के पिछड़ों ने दलित उम्मीदवार की जगह क्षत्रिय जाति के नेता को इसलिए वोट दे दिए, ताकि ये दलित लोग मजबूत न होने पाएं, वरना खेतों में काम को मजदूर ही नहीं मिलेंगे. दलित ऐक्ट में जेल अंदर जाओगे, वह अलग समस्या आएगी, इसलिए मनोहर लाल चुनाव हार गए.

हालांकि, इस हार ने मनोहर लाल को यह सीख दी कि किसी जाति से खुला विरोध वोट का नुकसान करता है, इसलिए अब वे क्षेत्र के क्षत्रियों, ब्राह्मणों, दबंग पिछड़ों के खिलाफ ज्यादा आक्रामक नहीं रहते थे और हर कदम संभल कर उठाते थे, ताकि सामाजिक दूरी को वह पाट सकें और बाकी जातियों के वोट भी पा सकें.

जब मनोहर लाल का काम कौम से मिलने वाले चंदे से नहीं चला तो वे बालू खनन में ठेकेदारी भी करने लगे. अब यह कारोबार बड़ा हो गया था. वे खुद को एक ‘इलीट क्लास दलित’ मानते थे. उन्होंने अपनी हवेली के एक हाल में सभी दलित नेताओं की मढ़ी हुई तसवीरें लगवा रखी थीं. लेकिन उस में सिर्फ इलाके के छोटे फिगर वाले दलित नेताओं के साथ मीटिंग की जाती थी. बाकी के लिए एक बैठका रिजर्व्ड था जिस में बुद्ध, कृष्ण और राम, महावीर और नानक देव के बड़े फोटो लगे हुए थे.

यहीं नहीं, मनोहर लाल खुद को पुराने समय के किसी जमींदार के वंश से जोड़ते थे. हालांकि इतिहास उन के किसी दावे की कभी तसदीक नहीं करता था. लेकिन इस बात से वे क्षेत्र के दलितों में काफी मजबूती से खुद की पैठ बना चुके थे. इस पैठ के पीछे एक ही लौजिक था कि उन के पास दलितों के सियासी नेतृत्व की ‘दैवीय’ प्रेरणा है और दलितों को भी उन्हें ही अपना नेता मानना चाहिए.

खैर, दुलारी हवेली के गेट पर 10 मिनट से खड़ी हुई आंसू बहा रहा थी. हवेली के मुख्य गेट पर बंदूकधारी सिक्योरिटी गार्ड, जो कुरसी पर बैठा हुआ ऊंघ रहा था, सहसा दुलारी को गेट पर देख कर संभला और जोर से टोका.

‘‘क्या है? कहां से आई हो? क्या काम है?’’ सिक्योरिटी गार्ड ने एकसाथ कई सवाल दागे.

घबराहट और आंसू भरी आंखों से दुलारी ने गार्ड को देखा, लेकिन कुछ खास बोल नहीं पाई.

सिक्योरिटी गार्ड ने फिर से पूछा कि कौन है और किस से मिलना है?

दुलारी ने रोते हुए कुछ बोलना शुरू किया कि उस ?ाबरीली मूंछ वाले सिक्योरिटी गार्ड ने कहा, ‘‘10 बजे आओ, अभी नेताजी सो रहे हैं.’’

दुलारी के पास तब तक के लिए समय नहीं था. वह बहुत परेशान थी. लेकिन, वह कुछ नहीं बोली, क्योंकि सिक्योरिटी गार्ड की बड़ी मूंछें देख कर ही वह सहम गई. हवेली के गेट के बाहर ही पास में रखे गए एक सीमेंट के बैंच पर बैठ गई और 10 बजने का इंतजार करने लगी.

तकरीबन 2 घंटे बाद जब सूरज कुछ चढ़ आया तो कुछ लोग हवेली के भीतर मनोहर लाल से मिलने आए. उन की चारपहिया गाड़ी सीधे गेट के अंदर खड़ी हुई. आधे घंटे बाद गाड़ी वापस निकली, फिर कुछ दूसरे मुलाकाती भी आनेजाने लगे.

हवेली पर मिलने वालों की कुछ भीड़ हुई और दुलारी ने फिर हिम्मत बटोर कर सिक्योरिटी गार्ड से कहा कि नेताजी से मिलवा दो.

सिक्योरिटी गार्ड ने भी काफी अनमने भाव से इंटरकौम पर किसी से बात की और थोड़ी देर में दुलारी के लिए अंदर जाने का बुलावा आ गया.

दुलारी हवेली के अहाते से होते हुए बरामदे में पहुंची और रोते हुए जमीन पर बैठ गई.

पास खड़े एक लड़के ने दुलारी से कुछ पूछना शुरू किया और पौकेट डायरी में सब नोट किया.

थोड़ी देर में दुलारी को मनोहर लाल के कमरे में भेजा गया, जहां वे एक महंगे सोफे पर पाजामा और बनियान पहने बैठे हुए थे.

‘‘हां, बोलो… क्या हुआ?’’ मनोहर लाल ने पूछा.

दुलारी ने रोते हुए अपनी बेटी के वापस नहीं लौटने का दर्द मनोहर लाल से बयां किया.

‘‘थाने गई? दारोगा से मिली? बताया उस को?’’ मनोहर लाल ने पूछा.

‘‘हम किसी को नहीं जानते. हम तो आप को ही जानते हैं…’’ और दुलारी फिर जोरजोर से रोने लगी.

‘‘रुको… चुप हो जाओ… देखता हूं…’’ मनोहर लाल ने समझाते हुए कहा.

मनोहर लाल ने तुरंत अपने एक शागिर्द को इशारा किया कि दारोगा को फोन करो और इन की मदद के
लिए कहो.

इस के बाद मनोहर लाल ने दुलारी से कहा कि थाने में जा कर रिपोर्ट लिखवा दो. एक फोटो लेती जाना.

रिपोर्ट लिख जाएगी. इस के बाद मनोहर लाल के उस शागिर्द ने थाने में फोन पर थानेदार से बात की.

दुलारी को यह पता ही नहीं था कि उस का थाना कौन सा है, क्योंकि उस का थाने से कोई वास्ता कभी पड़ा ही नहीं था. मनोहर लाल के शागिर्द ने दुलारी को उस के थाने के बारे में बताया और तुरंत जा कर थानेदार से मिलने को कहा.

थकीहारी दुलारी कांपते पैरों के साथ तेजी से घर लौट आई और बेटी की एक फोटो खोज कर एक पौलीथिन में लपेट कर ब्लाउज के भीतर रख लिया. घर में उस के पास चांदी की एक अंगूठी थी, जिसे उस ने पास रख लिया, ताकि इसे गिरवी रख कर कुछ पैसा उधार ले पाए. घर में कुछ पैसे थे, जल्दी से उन्हें भी उठाया और बाजार के रास्ते थाने जाने वाले टैंपो पर सवार हो गई.

दुलारी सबकुछ बहुत जल्दीजल्दी करना चाहती थी, लेकिन जैसे उस की देह में कोई ताकत ही नहीं बची थी. यह सब करते हुए दोपहर का समय हो गया.

दुलारी को पहली बार पुलिस थाने में घुसते हुए बड़ी घबराहट हो रही थी, क्योंकि उस का वास्ता इस सब से कभी पड़ा नहीं था. वह सीधीसादी औरत थी जो किसी तरह अपनी जिंदगी बसर कर रही थी. लेकिन, फिर दुलारी किसी तरह थाने के भीतर हिम्मत कर के दाखिल हुई.

अंदर घुसते ही गेट पर मिले एक सिपाही से बेटी की गुमशुदगी के बारे में जैसे ही रोते हुए बोलना शुरू किया, तो सिपाही ने थानेदार के कमरे की तरफ इशारा कर के वहां जाने को कहा.

दुलारी ने हिम्मत कर के थानेदार के कमरे के दरवाजे पर लगा परदा उठाया. कुरसी पर बैठा थानेदार फोन पर किसी ठेकेदार को तय रकम से कम भेजने के लिए गंदीगंदी गालियां दे रहा था.

खैर, थोड़ी देर के इंतजार के बाद किसी तरह से दुलारी ने हिम्मत बटोरी और रोते हुए दरवाजे से ही कहा, ‘‘साहब, बिटिया कल से घर नहीं आई है. बिटिया तो गायब हो गई साहब…’’

‘‘क्यों? कौन हो तुम? क्या नाम है?’’ थानेदार ने कड़क कर पूछा.

दुलारी सहम गई.

‘‘कहां गई बिटिया तुम्हारी? क्या नाम है? कहां से आई हो?’’ थानेदार ने कई सवाल एकसाथ कर डाले.

‘‘रूपा…’’ दुलारी ने रोते हुए बताया, साथ ही नेताजी के बारे में भी बोला कि मनोहर नेताजी.

‘‘उफ… ठीक है… फोटो लाओ,’’ थानेदार ने अंदर बुलाया.

थानेदार ने फोटो के पीछे ही नाम, पता और उम्र सब पूछ कर लिखा. फिर थाने के मुंशी को बुलाया और फोटो दे कर गुमशुदगी की रिपोर्ट लिखने के लिए कहा.

इस के बाद थानेदार ने दुलारी से कहा, ‘‘बाहर बैठो… अभी ये एक कागज देंगे’’

एक घंटे के बाद थाने के मुंशी किशोरी लाल ने, जो जाति से पिछड़े थे, खुद को कृष्ण भक्त बताते थे, ने दुलारी को अपने कमरे में बुलाया और लड़की की गुमशुदगी बाबत पूछताछ कर के एक रजिस्टर में नोट किया, फिर एक कागज में ब्योरा लिख कर एक सिपाही को, जो शायद उसी के गांव का था, दे दिया.

मुंशी किशोरी लाल बारबार रूपा के किसी लड़के के साथ जाने, प्रेम प्रसंग में भाग जाने के बाबत जानकारी चाहते थे. उन का कहना था कि आजकल की लड़कियां टीवी देख कर उड़ने लगती हैं और मांबाप थाने में आ कर ‘ड्रामा’ करते हैं.

मुंशी ने आगे कहा कि लड़की को खोजने में जो खर्च आएगा, उस का खर्चापानी दो. फिर उस ने दुलारी के पास जो चांदी की एक अंगूठी थी, ले कर अपनी जेब में रख लिया. इस समय दुलारी को सिर्फ बेटी चाहिए, इस के अलावा वह कुछ नहीं सोच रही थी.

थाने से बाहर निकल कर दुलारी तेज कदमों से चल कर घर पहुंची. शाम के 5 बज चुके थे. अनहोनी के डर में उस के हाथपैर अब भी बुरी तरह से कांप रहे थे, जैसे देह में खून ही नहीं हो.

घर में बंधी बकरियां कल से काफी भूखी थीं, जिन्हें दानापानी देना था. चिंता और हताशा में उस की भूखप्यास सब खत्म हो चुकी थी, लेकिन बकरियों को तो दानापानी देना ही होगा, क्योंकि उन्हें जिंदा रखना है.

किसी तरह घर पहुंच कर दुलारी ने एक लोटा पानी अपनी हलक में उतारा. इस के बाद उस ने बकरियों को दानापानी दिया और फिर गांव के नए बने सरपंच से मिलने उस के घर गई, जिसे वह एकदम पसंद नहीं करती थी, क्योंकि उस की निगाह में वह सिर्फ औरतों का भूखा ऐसा ऐयाश था, जिस ने दुलारी को ‘धंधे वाली’ के हालात में पहुंचाने की पूरी कोशिश की थी, क्योंकि उस ने कभी उस से 3,000 रुपए का उधार लिया था और नहीं दे पाने की हालत में वह उस के 2 जवान बकरे घर से ही जबरदस्ती खोल कर ले गया था.

हालांकि, सरपंच से दुलारी की मुलाकात नहीं हुई और वह फिर से घर लौट आई. काफी शाम हो चुकी थी. उस ने पतीले में थोड़ा चावल डाला और नमकप्याज के साथ पका कर किसी तरह उसे हलक से नीचे डाला. दालसब्जी कुछ नहीं था.

दुलारी की रात किसी तरह कटी. पूरी रात वह जागती रही. लेकिन, बिटिया का अभी कोई सुराग नहीं मिला था.

दूसरे दिन अलसुबह ही दुलारी फिर से मनोहर लाल के घर पहुंच गई थी. इस बार वह अपने साथ गांव के एक लड़के को ले कर गई थी. हालांकि, बदनामी के डर से उस ने रास्ते में बिटिया के गायब होने के बारे में कोई चर्चा नहीं की, लेकिन गांव में यह बात रायते की तरह फैनल चुकी थी, क्योंकि थाने से सरपंच को फोन पर मामले की जानकारी दी गई थी, ताकि लापता रूपा को खोजने में मदद मिल सके.

मनोहर लाल के यहां दुलारी की जाति के ही एक और आदमी, जो बगल के गांव का छुटभैया नेता था, से उस की मुलाकात हुई. वह मनोहर लाल से अपने गांव के वोट उन के लिए फिक्स करवाने के एवज में सौदा करने आया था और मछली बाजार के ग्राहक की तरह उन से ‘मोलतोल’ कर रहा था. उस नेता के बारे में दुलारी अच्छे से जानती थी कि उस का धंधापानी क्या है और कैसे वह नकली दारू का सप्लायर है, क्योंकि उसी की दी हुई दारू पीने से उस के गांव में कुछ लोगों की मौत हुई थी.

‘‘क्या हुआ…’’ देखते ही मनोहर लाल ने पूछा, ‘‘मिली बेटी आप की…’’

‘‘नहीं मिली…’’ और दुलारी रोने लगी.

‘‘थाने गई थी…’’ पूछने पर दुलारी ने हां में सिर हिलाया.

फिर मनोहर लाल ने थानेदार को अपने एक शागिर्द से फोन करवाया और दुलारी को बताया गया कि बेटी को पुलिस खोज रही है. मिलने पर सूचित करेगी. परेशान नहीं हो.

थकहार कर दुलारी फिर घर लौट आई. अब तक दोपहर का सूरज चढ़ आया था.

2 दिन बीत गए. रोतेरोते दुलारी के आंसू खत्म हो गए. दुलारी ने इन दिनों ठीक से खानापीना भी नहीं किया था और भागदौड़ में उसे तेज बुखार अलग से हो गया.

तीसरे दिन, दोपहर का समय था. दुलारी घर के भीतर अपनी खटिया पर चिंतित बैठी थी. गांव के चौकीदार लुल्लन ने आ कर दुलारी को बताया कि उस की बेटी पड़ोस के जिले के एक अस्पताल में भरती है. पुलिस जा रही है बयान लेने. तुम भी अस्पताल पहुंचो. दारोगाजी ने बोला है.

चौकीदार ने आगे कहा कि तुम्हारी बेटी नशे की हालत में तहसील के बसस्टैंड पर लावारिस मिली है, जिसे कुछ लोगों ने स्थानीय चौकी के सुपुर्द कर दिया था. पुलिस वालों ने उसे अस्पताल में भरती करवा दिया है. जाओ मिल लो.

दुलारी की आंखों में चमक आ गई. उस ने किसी तरह गांव के एक आदमी से कुछ पैसे उधार लिए और अस्पताल साथ चलने की चिरौरी की. वह अस्पताल पहुंची, तो बेटी उसे अकेले एक बिस्तर पर पड़ी मिली, जिसे कुछ पुलिस वाले और डाक्टर घेरे हुए थे और कुछ लिखापढ़ी कर रहे थे. काफी देर बाद दुलारी को अपनी बेटी रूपा से बात करने का मौका मिल पाया.

दुलारी ने देखते ही अपनी बेटी को प्यार से भींच लिया, माथा चूमा, गले लगाया. उस का हीरा उसे मिल गया था. उस ने बेतहाशा उसे चूमा, दुलारा और प्यार किया. बेटी भी मां को देख कर रोने लगी. आखिर वही तो उस का सबकुछ थी.

रूपा ने देर शाम को अपनी मां से अपने साथ रेप और मारपीट की दर्दनाक घटना बताई, जिसे गांव के बगल के यादव टोला के लड़कों ने अंजाम दिया था. दोनों लड़के गांव की ताकतवर और बहुसंख्यक पिछड़ी बिरादरी से थे, लेकिन उन की जातियां अलगअलग थीं. खैर, पुलिस ने रूपा का बयान दर्ज किया और नियमानुसार मैडिकल भी हुआ. एफआईआर भी दर्ज हुई.

दुलारी अगले 2 दिन रूपा के साथ अस्पताल और थानेअदालत के चक्कर लगाती रही.

चूंकि मनोहर लाल इस मामले में थोड़ा लगे हुए थे, इसलिए पुलिस ने जांच शुरू की. पहले आरोपी सुमेश के नाई समुदाय के लोग सामने आ गए और आरोपी के घर वाले रूपा को ही सैक्स की भूखी लड़की साबित करने लगे. ऐसा इसलिए हुआ, क्योंकि यह आरोपी लड़का टोले के पूर्व पंचायत सदस्य का बेटा और वर्तमान विधायक ‘मुंशीजी’ का खास आदमी था. दूसरा आरोपी युवक क्षत्रिय समुदाय का रितेश था, जिस के यहां यह सब करना ‘मर्दानगी’ की पहचान थी. इस समुदाय में अपराध पर बहस न हो कर कौन उस लड़की की मदद कर रहा है, उस पर चर्चा हो रही थी. सब जल्द ही पता चल गया. नाम मनोहर लाल का आया. बात मनोहर लाल तक, जो कुछ समय पहले ही में दिल्ली से एक बिजनेस डील कर के लौटे थे, इस धमकी के साथ पहुंचाई गई कि क्षत्रियों की इज्जत से एक ‘धंधे वाली’ की आड़ में मत खेलो. निबटना है तो निबट लो. देखते हैं चुनाव कैसे जीतते हो.

मनोहर लाल ने इस मामले को ध्यान से सुना. फिर कुछ दिन चुप रहे. उन्हें लगा कि मामला खत्म हो जाएगा. लेकिन, इधर नाई समुदाय जहां लड़के के पक्ष में जुलूस निकाल रहा था, वहीं क्षत्रिय समुदाय मनोहर लाल पर मामले को खत्म करवाने वरना सबक सीखने के लिए तैयार रहने का अल्टीमेटम दे कर पंचायत कर रहा था.

इधर दुलारी की जाति और गांव के कई छुटभैया लोग उस के पास सम?ाते के लिए दबाव बनाने के लिए रोज उस के घर पहुंच रहे थे. पुलिस आरोपियों से पैसा खाने के लिए दबाव बना कर रख रही थी. हालांकि, थानेदार की भी आरोपियों को पकड़ने में कोई दिलचस्पी नहीं थी. वह दबाव बना कर सिर्फ वसूली कर रहा था.

परेशान थी तो बस दुलारी. उस के गांव और जाति के ताकतवर लोग भी उस के साथ खड़े होने को तैयार नहीं थे. जो भी उस से मिलता, एक ही ‘डील’ करने की फिराक में रहता. जातबिरादरी के किसी नेता, कार्यकर्ता की कोई दिलचस्पी नहीं थी कि पीडि़त परिवार को ‘इंसाफ’ मिले.

इधर, आरोपी लड़कों के परिवार वालों के साथ यह मामला जातबिरादरी का सवाल दिन ब दिन बनता जा रहा था. इस मामले को सत्ताधारी विधायकों ने भी अपने हित में मोड़ना शुरू कर दिया. नया तर्क गढ़ा गया कि मनोहर लाल को वोट नहीं देने के कारण क्षत्रिय और नाई बिरादरी को बदनाम करने का खेल खेला जा रहा है. एक दलित लौंडिया कैसे रेप का आरोप लगा सकती है…? उस की हैसियत क्या है…? इसी बात पर आरोपियों ने जात की 2 सम्मिलित पंचायत भी करवाईं, जिन में कई स्थानीय नेता शामिल हुए. इस से पुलिस के साथ मनोहर लाल भी बैकफुट आ गए. वे मामले में शामिल नहीं होने की कसमें खाने लगे, क्योंकि उन्हें इस से दलित बिरादरी के वोट खिसकने का कोई डर नहीं था. डर तो बाकी जातियों के बिदकने का था. इन सब से रूपा और दुलारी तो इतने ज्यादा घबरा गईं कि उन्हें अपने ही घर में अब बहुत डर लगने लगा.

इधर, खुलेआम माइक लगा कर मनोहर लाल को ललकारा जाने लगा. मनोहर लाल को बड़े चुनावी नुकसान का डर लग गया, क्योंकि विधानसभा की 2 ताकतवर जातियों की गोलबंदी से उन का चुनाव हारना तय था. उन्हें कुछ लोगों ने सम?ाया कि एक अदद ‘लौंडिया’ के लिए अपनी सियासी पारी को कमजोर मत करो. केस में सम?ाता करवाइए और मामला निबटा दीजिए. रूपा की जाति और गांव के कई छुटभैए नेता भी यही चाहते थे, ताकि मनोहर लाल को दोनों जातियों का सपोर्ट मिल सके और वे चुनाव जीत सकें.

अब मनोहर लाल को लगा कि चुप्पी से काम नहीं चलेगा, क्योंकि मामला बिगड़ चुका है. मनोहर लाल अब अपने ‘सियासी’ नुकसान के डर से इस मामले को मैनेज कराने में लग गए. उन्होंने अपने शार्गिंदो से लड़की को सैक्स की भूखी होने का प्रचार भी करवाया. उस की मां का भी दामन दागदार बताने की पूरी कोशिश करवाई गई, ताकि यह लगे कि उन्हें इस मामले से कोई दिलचस्पी नहीं है. इस तरह पूरा एक महीना निकल गया.

लेकिन, इन सब से बहुत दूर विधवा दुलारी को बस इसी बात का संतोष था कि उस की बेटी उस के पास आ गई है. एक गरीब को और क्या चाहिए. पुलिस, थाना, वकील, कचहरी उस के बस का नहीं है. अब उसे और किसी चीज में कोई दिलचस्पी नहीं थी, क्योंकि वह रोज थानेकचहरी और वकील के पास जाने का खर्च ही नहीं उठा सकती थी. उसे तकरीबन रोज थाने बुलाया जाता और दिनभर बयान लेने के नाम पर बैठाए रखा जाता.

इस मामले का विवेचक भी दलित जाति का था, जिस के लिए एकमात्र मकसद पैसा कमाना था, क्योंकि वह एक खेत खरीदने के लिए 30 लाख की रकम किसी भी कीमत पर जल्द इकट्ठा करना चाहता था. इस केस में आरोपी, पुलिस, जाति के छोटे नेता, कार्यकर्ता सब अपने हिसाब से फायदा लेने के लिए खेल रहे थे.

लेकिन, दुलारी और रूपा इन सब से बेपरवाह और अनजान थीं. वे अपनी रोजमर्रा की जिंदगी को फिर से पटरी पर लाना चाहती थीं, जो रूपा के साथ हुई घटना के बाद उतर गई थी.

दुलारी को अपनी बेटी मिल गई थी, बाकी उसे किसी ‘इज्जत’ की कोई फिक्र नहीं थी. भूखे, नंगे और गरीब लोग इंसाफ के बारे में नहीं सोचते.

तकरीबन एक हफ्ता और बीता होगा. एक दिन सुबह अचानक दुलारी को मनोहर लाल के एक शागिर्द ने हवेली पर पहुंचने का संदेश दिया. दुलारी हवेली पर गई भी. बेटी के भविष्य को ले कर लंबी भूमिका बनाने के बाद, जिस में उसे रूपा के बदनाम होने से ले कर, शादी, सुरक्षा का डर सबकुछ दिखाया गया, धमकी वाली भाषा में भी समझाया गया. बोला गया कि समझौता कर लो.

डरीसहमी दुलारी से कुछ कागजों पर अंगूठा लगवाया गया, जो बाद में अदालत में समझौते के प्रपत्र के बतौर पुलिस द्वारा जमा किया गया. हवेली से चलते वक्त उसे एक लिफाफा दिया गया, जिसे उस ने घर में खोल कर देखा. उस मे 500 के 10 नोट थे. उस के इंसाफ का ‘सौदा’ हो चुका था, जिस में, जाति के नेता, पुलिस, सरपंच सब शामिल थे. लेकिन, इस सौदे में शामिल नहीं थी तो सिर्फ दुलारी की ‘इच्छा’, जिसे पैसे और ताकत के दम पर मनोहर लाल ने हम जाति होने के बावजूद रौंदवा दिया था.

हालांकि, इस के बाद भी मनोहर लाल इस बार फिर विधायक नहीं बन पाए, क्योंकि पिछड़ों ने दलितों को इसलिए वोट नहीं दिए, ताकि वे सियासीतौर पर मजबूत न हों. शायद एक विधवा की आह ने उन के सियासी कैरियर को भस्म कर दिया था. Long Hindi Story

Story In Hindi: सफर

Story In Hindi, लेखक – सुमित सेनगुप्ता

मैं यानी अनिल दादर रेलवे स्टेशन के वेटिंग रूम में आ कर बैठ गया हूं. स्टेशन के पास ही शापुर रैस्टोरैंट है. उन की बनाई ग्रिल्ड पौम्फ्रैट फ्राई, दाल फ्राई और रुमाली रोटी का कौम्बिनेशन मेरा हौट फेवरेट है. दादर आते ही मैं उन की दुकान में जरूर झांकता हूं. इस के लिए एक बार भारी कीमत चुकातेचुकाते बच गया था.

दरअसल, जो ट्रेन कभी 10 मिनट लेट से कुर्लाटीटी स्टेशन से नहीं छूटती थी, वह ट्रेन उस दिन 45 मिनट लेट हुई और मु झे बचाया. वह समय दुर्गापूजा की पूर्वसंध्या का था. मैं मुंबई से पटना लौट रहा था. उस समय पटना के लिए सिर्फ एक ही ट्रेन थी, वह भी हफ्ते में 2 दिन, इसलिए ज्यादातर लोग कोलकाता हो कर ही आतेजाते थे.

उस दिन कुर्ला स्टेशन तक आतेआते मैं ने मन ही मन प्रतिज्ञा कर ली थी कि आज ट्रेन मिल जाए, तो ऐसे लालच में कभी नहीं पड़ूंगा. लालच में पाप, पाप में मौत. मगर 3 महीने बाद ही वह प्रतिज्ञा तोड़ दी.

भीष्म अपनी प्रतिज्ञा निभा कर अमर हो गए और मैं हर बार अपनी प्रतिज्ञा तोड़ कर ‘हक्काबक्का’ हो रहा हूं. सिगरेट नहीं पीऊंगा कह कर कितनी बार छोड़ी है, उस का याद नहीं. ‘घर के फ्रिज की मिठाई चुराऊंगा नहीं’ कह कर पत्नी ने माफीनामा लिखवाया था. हर बार पकड़ा गया. इतनी सारी निराशाओं के बीच एक चीज नहीं बदली, वह है मेरा अडि़यल किरदार.

पेटभर खाने के बाद दोपहर 4 बजे वेटिंग रूम की कुरसी पर शरीर लटका दिया. पुणे वापसी की ट्रेन साढ़े 6 बजे आएगी. तभी वेटिंग रूम इंचार्ज आ कर मेरा टिकट देखना चाहते हैं. मैं मोबाइल की स्क्रीन खोल कर दिखाता हूं.

वे देखते ही चौंक जाते हैं और बोलते हैं, ‘‘अरे, यह ट्रेन तो सुबह साढ़े 5 बजे निकल गई है.’’

उन की बात सुन कर मेरी नींद भरी आंखों से नींद गायब. उन के हाथ से अपना मोबाइल ले कर देखता हूं…

आज खुद ही अपने लिए बेवजह की मुसीबत खड़ी कर बैठा हूं. लैपटौप पर टिकट बुक करते समय सुबह को शाम सम झ बैठा. पूरी तरह शर्मिंदा और बेइज्जत हो कर उठ खड़ा हुआ. अभी बस पकड़नी होगी, नहीं तो घर पहुंच कर और शर्मिंदा होना पड़ेगा.

कुछ दूर खड़ी पुणे जाने वाली बस. मुंबई से पुणे शहर पहुंचने के 3 पते… शिवाजीनगर, स्टेशन और स्वारगेट. स्टेशन मेरे लिए सुविधाजनक है. अच्छा है बस स्टेशन ही जाएगी. बस को 4 एजेंट घेरे हुए हैं. जहां से जो मुमकिन हो ग्राहक पकड़ कर ला रहे हैं. मेरे जाते ही वे टूट पड़ते हैं, मुमकिन हो तो मु झे गोदी में उठा कर बैठा देते.

बस काफी खाली है. खिड़की के पास सीट ले कर बैठ गया. अरे, बाप रे… 5-6 सवारियों को ले कर बस तुरंत छोड़ देती है. राहत की सांस आती है कि चलो 8 बजे तक पुणे पहुंच जाएंगे.

बस आगे बढ़ती है, दाएं मुड़ती है, फिर दाएं, उस के बाद फिर दाएं और थोड़ा आगे जा कर रुक जाती है.

यानी जहां से बस निकली थी, वहीं अब खड़ी है. फिर डेढ़ घंटे तक ऐसे ही 5 बार चक्कर काटती है.

आखिर में तंग आ कर मैं पूछता हूं, ‘‘यह सब करने का मतलब?’’

जवाब आता है, ‘‘आरटीओ औफिस के लोग खड़े हैं. ज्यादा देर खड़ी रही तो फाइन देना पड़ेगा.’’

जिंदगी में कितनी तरह के अनुभव होते हैं. आखिरकार शाम साढ़े 7 बजे बस दादर से निकलती है. तब तक सभी सीटें भर चुकी हैं. दिन शुक्रवार है, इसलिए पुणे में तैनात मुंबई के नौजवान लड़केलड़कियां वीकैंड पर घर लौट रहे हैं. बस में उन्हीं की भरमार है.

मेरे पास एक कम उम्र की लड़की बैठ गई है. उम्र न सिर्फ कम है, बल्कि ध्यान से देखा तो कद भी छोटा है. पैर पूरी तरह फुटरैस्ट तक नहीं पहुंच रहे.

तभी मेरा फोन बज उठा. फोन के दूसरी तरफ मेरी पत्नी श्रावंती. खतरा… फोन उठाते ही रास्ते के हौर्न की आवाज सुनाई देगी. मेरी नाकामी का भेद खुल जाएगा. पर फोन न उठाना भी ठीक नहीं. वह छोड़ेगी नहीं, लगातार बजाती रहेगी. फोन बंद कर दूं तो भी मुसीबत, बात न करने पर श्रावंती टैंशन लेगी. हाई ब्लडप्रैशर की पेशेंट है. अकेली घर पर है, यह भी समस्या है.

मजबूरन रिसीवर को ढकते हुए जोर से बोला, ‘‘चढ़ गया हूं, बाद में फोन करता हूं.’’

मकसद था मुंबई शहर छोड़ कर बस जब सुनसान इलाके में पहुंचेगी, तो बात कर लूंगा.

पश्चिम भारत में बेवजह हौर्न बजाने की आदत कम है. यह बात मु झे मेरे पुरानी कंपनी के डायरैक्टर मिस्टर बाफना ने कोलकाता के कैमाक स्ट्रीट औफिस में बैठ कर सम झाई थी. उस दिन लंबे समय तक लोडशैडिंग के चलते सड़क किनारे बने कौंफ्रैंस रूम की खिड़कियां खोलनी पड़ी थीं. फिर कारों के हौर्न के शोर से कान पक गए थे.

कुछ देर बाद बस एक पैट्रोल पंप पर रुकती है. जल्दी से उतर कर एक सुनसान जगह ढूंढ़ कर श्रावंती को रिपोर्ट कर देता हूं. बस की रफ्तार देख कर अंदाजा लगा लिया है कि रात 11 बजे से पहले पुणे नहीं पहुंचेगी. ट्रेन होती तो साढ़े 9 बजे ही पहुंच जाता, इसलिए पहले ही ट्रेन लेट होने की कहानी गढ़ ली है.

बस मुंबई शहर छोड़ कर मुंबईपुणे ऐक्सप्रेसवे पर चल पड़ती है. महसूस करता हूं कि पास वाली लड़की सीट पर सो गई है. बीचबीच में झुक कर मेरे कंधे से टकरा रही है. बेचारी पूरे दिन औफिस में काम कर के अब सफर कर रही है. वह मेरी छोटी बेटी जितनी है. तोरसा भी बस में मेरे कंधे पर सिर रख कर सोती थी.

कभी गोद में सिर दे कर लेट जाती थी. छोटी उम्र से ही वह मेरी बगलगीर थी.

एक बार औफिस के काम से कुछ दिनों के लिए कोलकाता जाना हुआ. तोरसा तब 3 साल की थी. जिद करने लगी कि मेरे साथ कोलकाता जाएगी. यह सुन कर कोलकाता से भाई की पत्नी दोला ने कहा, ‘‘दादा, ले आइए. मैं संभाल लूंगी.’’

चेयरकार से दोनों गए थे. वह मंजर आज भी आंखों में तैरता है. एक कोल्डड्रिंक की बोतल, चिप्स का पैकेट सामने रख कर 3 साल की बच्ची खिड़की के पास बैठी बाहर का नजारा देखतेदेखते पटना से कोलकाता पहुंच गई. हावड़ा स्टेशन पर उतर कर उस ने मेरा हाथ नहीं पकड़ा. ‘ठकठक’ कर चलने लगी.

औफिस के एक साथी गोपाल ने देख कर कहा था, ‘‘तेरी बेटी बहुत स्मार्ट है.’’

मन ही मन आज सोचता हूं, ‘जरूरत से ज्यादा सम झदार…’

22 साल पूरे होतेहोते एमबीए कर के दूल्हे के हाथ ससुराल चली गई और उस की बड़ी बहन को शादी के लिए मनाने में तो नाकों चने चबवा लिए. आखिर धमकी दे कर शादी के पीढ़े पर बैठाना पड़ा.

बस अचानक तेज ब्रेक मारती है. झटके से लड़की जाग जाती है और शर्मिंदा होती है.

वह शरमाते हुए कहती है, ‘‘सौरी अंकल, मैं सो गई थी.’’

मैं प्यार से कहता हूं, ‘‘कोई बात नहीं, तुम थक गई होगी. मेरी छोटी बेटी भी ऐसे ही सो जाती थी.’’

अब लड़की ने पूछा, ‘‘आप कहां उतरोगे?’’

मैं ने कहा, ‘‘पुणे स्टेशन.’’

सुन कर उसे राहत मिली. उस का अगला सवाल, ‘‘आप बंगाली हैं?’’

मैं ने कहा, ‘‘जी, कैसे पता चला?’’

लड़की बोली, ‘‘आप के बोलने के लहजे से. हमारे डिपार्टमैंट में बंगाली बहुत हैं.’’

अब मैं ने पूछा, ‘‘आप मराठी हो?’’

उस लड़की ने कहा, ‘‘आप को कैसे पता?’’

मैं ने जवाब दिया, ‘‘मेरे साथ वाले पड़ोसी भी मराठी हैं. आप ने अपनी ‘आई’ से बात की है न?’’

इतना सुन कर वह जोर से हंसी.

2 घंटे चलने के बाद बस एक रोड साइड ढाबे के पास रुकती है. यहां सभी उतरेंगे. कोई चाय पीएगा, कोई खाना खाएगा, कोई वाशरूम जाएगा.

मैं भी उतरा. समय देखा, तकरीबन 10 बजे हैं यानी पुणे स्टेशन पहुंचतेपहुंचते रात के 12 बज ही जाएंगे. आज पकड़ा जाऊंगा. मेरा झूठ टिकेगा नहीं, क्योंकि रात जितनी बढ़ेगी, देरी होगी, श्रावंती के फोन उतने ही बार आएंगे और किसी न किसी समय आसपास का शोर पकड़ में आ जाएगा और मैं फंस जाऊंगा.

फिर सुनसान जगह ढूंढ़ कर फोन लगाता हूं. यहां के लोग ट्रेन में ज्यादा बात नहीं करते. हौकर्स भी वैसे नहीं चलते, यह श्रावंती जानती है, इसलिए सुनसानी के आंचल में बच सकता हूं.

सब ठीक चल रहा था, श्रावंती से बात शांति से हो रही थी. अचानक हमारी बस के पास खड़ी बस भयानक आवाज में गरज उठी. श्रावंती के कान में वह आवाज जरूर पहुंची और ऐसा ही हुआ.

वह बोली, ‘‘बस की आवाज आ रही है. तुम कहां हो?’’

मैं धीरे से बोला, ‘‘अरे, खंडाला घाट के ऊपर ट्रेन खड़ी है. पास ही ऐक्सप्रैसवे है.’’

श्रावंती मान जाती है या मन ही मन सम झ जाती है. मैं बच गया. जल्दी से बात खत्म की. बोला, ‘‘बात ठीक से सुनाई नहीं दे रही. टावर नहीं मिल रहा.’’

पास वाली लड़की बस में लौट आई. एक जीरो शुगर कोक की बोतल मेरी तरफ बढ़ाते हुए बोली, ‘‘अंकल, यह लीजिए.’’

उस ने नोटिस किया था कि मेरी पानी की बोतल खाली हो गई है. टैंशन में मैं भूल गया था पानी खरीदना.

हमारी बस लोनावला घाट में जाम में फंस गई. पुणे शहर के नजदीक पहुंचते ही रात का 1 बज गया. रेल स्टेशन पहुंचतेपहुंचते रात के 2 बज गए थे.

लड़की से पूछा, ‘‘आप कहां जाओगी?’’

जवाब आया, ‘‘शिवाजीनगर.’’

फिर मैं ने पूछा, ‘‘कोई आप को लेने आ रहा है?’’

कुछ देर चुप रह कर मेरी तरफ देखती हुई वह बोली, ‘‘नहीं, मैं चली जाऊंगी.’’

थोड़ा अधिकार दिखाते हुए मैं बोला, ‘‘मु झे ‘खड़की’ जाना है. चलो, तुम्हें छोड़ देता हूं. इतनी रात अकेली कैसे जाओगी.’’

लड़की ने एक आटोरिकशा बुलाया और आटोरिकशा वाले को मराठी में सम झाया कि उसे ‘शिवाजीनगर’ छोड़ कर मु झे ‘खड़की’ पहुंचाना है. मेरा फोन चार्ज खत्म हो चुका था. पहले ही श्रावंती से कह दिया था, ‘‘ट्रेन बहुत लेट है. फोन का चार्ज भी खत्म हो रहा है. तुम चिंता मत करो.’’

लड़की को उस के अपार्टमैंट के दरवाजे तक छोड़ कर विदा किया. आटोरिकशा वाला ‘खड़की’ की ओर चल पड़ा.

मैं ड्राइवर से कहा, ‘‘गाड़ी वापस मोड़ो. मु झे ‘एनआईबीएम’ जाना है.’’

आटोरिकशा वाला बोला, ‘‘लेकिन, उस ने तो ‘खड़की’ कहा था.’’

मैं ने कहा, ‘‘क्या करूं… इतनी रात अकेली कैसे छोड़ दूं? मुंबई से साथ चले थे. सच बोलने पर वह पहुंचाने को राजी नहीं थी.’’

आटोरिकशा वाला बोला, ‘‘चलिए सर, जहां बोलोगे पहुंचा दूंगा.’’ Story In Hindi

Hindi Romantic Story: ई-ग्रुप

Hindi Romantic Story: ‘‘वाह, इसे कहते हैं कि आग लेने गए थे और पैगंबरी मिल गई,’’ रवि और पूनम के लौन में अन्य दोस्तों को बैठा देख कर विकास बोला, ‘‘हम लोग तो तुम्हें दावत देने आए थे, पर अब खुद ही खा कर जाएंगे.’’

‘‘दावत तो शौक से खाइए पर हमें जो दावत देने आए थे वह कहीं हजम मत कर जाइएगा,’’ पूनम की इस बात पर सब ठहाका लगा कर हंस पड़े.

‘‘नहीं, ऐसी गलती हम कभी नहीं कर सकते. वह दावत तो हम अपनी जिंदगी का सब से अहम दिन मनाने की खुशी में कर रहे हैं यानी वह दिन जिस रोज मैं और रजनी दो से एक हुए थे,’’ विकास बोला.

‘‘ओह, तुम्हारी शादी की सालगिरह है. मुबारक हो,’’ पूनम ने रजनी का हाथ दबा कर कहा.

‘‘मुबारकबाद आज नहीं, शुक्रवार को हमारे घर आ कर देना,’’ रजनी अब अन्य लोगों की ओर मुखातिब हुईं, ‘‘वैसे, निमंत्रण देने हम आप के घर…’’

‘‘अरे, छोडि़ए भी, रजनीजी, इतनी तकलीफ और औपचारिकता की क्या जरूरत है. आप बस इतना बताइए कि कब आना है. हम सब स्वयं ही पहुंच जाएंगे,’’ रतन ने बीच में ही टोका.

‘‘शुक्रवार को शाम में 7 बजे के बाद कभी भी.’’

‘‘शुक्रवार को पार्टी देने की क्या तुक हुई? एक रोज बाद शनिवार को क्यों नहीं रखते?’’ राजन ने पूछा.

‘‘जब शादी की सालगिरह शुक्रवार की है तब दावत भी तो शुक्रवार को ही होगी,’’ विकास बोला.

‘‘सालगिरह शुक्रवार को होने दो, पार्टी शनिवार को करो,’’ रवि ने सुझाव दिया.

‘‘नहीं, यार. यह ईद पीछे टर्र अपने यहां नहीं चलता. जिस रोज सालगिरह है उसी रोज दावत होगी और आप सब को आना पड़ेगा,’’ विकास ने शब्दों पर जोर देते हुए कहा.

‘‘हां, भई, जरूर आएंगे. हम तो वैसे ही कोई पार्टी नहीं छोड़ते, यह तो तुम्हारी शादी की सालगिरह की दावत है. भला कैसे छोड़ सकते हैं,’’ राजन बोला.

‘‘पर तुम यह पार्टी किस खुशी में दे रहे हो, रवि?’’ विकास ने पूछा.

‘‘वैसे ही, बहुत रोज से राजन, रतन वगैरा से मुलाकात नहीं हुई थी, सो आज बुला लिया.’’

रजनी और विकास बहुत रोकने के बाद भी ज्यादा देर नहीं ठहरे. उन्हें और भी कई जगह निमंत्रण देने जाना था. पूनम ने बहुत रोका, ‘‘दूसरी जगह कल चले जाना.’’

‘‘नहीं, पूनम, कल, परसों दोनों दिन ही जाना पड़ेगा.’’

‘‘बहुत लोगों को बुला रहे हैं क्या?’’

‘‘हां, शादी की 10वीं सालगिरह है, सो धूमधाम से मनाएंगे,’’ विकास ने जातेजाते बताया.

‘‘जिंदादिल लोग हैं,’’ उन के जाने के बाद राजन बोला.

‘‘जिंदादिल तो हम सभी हैं. ये दोनों इस के साथ नुमाइशी भी हैं,’’ रवि हंसा.

‘‘क्या मतलब?’’

‘‘शादी की सालगिरह इतने हल्लेगुल्ले के साथ मनाना मेरे खयाल में तो अपने प्यार की नुमाइश करना ही है. दोस्तों को बुलाने के लिए किसी बहाने की जरूरत नहीं होती.’’

‘‘तो आप के विचार में शादी की सालगिरह नहीं मनानी चाहिए?’’ शोभा ने पूछा.

‘‘जरूर मनानी चाहिए, लेकिन अकेले में, एकदूसरे के साथ,’’ रवि पूनम की ओर आंख मार कर मुसकराया, ‘‘पार्टी के हंगामे में नहीं.’’

‘‘तभी आज तक तुम्हारी शादी की सालगिरह की दावत नहीं मिली. वैसे, तुम्हारी शादी की सालगिरह होती कब है, रवि?’’ रतन ने पूछा.

‘‘यह बिलकुल खुफिया बात है,’’ राजन हंसा, ‘‘रवि ने बता दिया तो तुम उस रोज मियांबीवी को परेशान करने आ पहुंचोगे.’’

‘‘लेकिन, यार, इंसान शादी करता ही बीवी के साथ रहने को है और हमेशा रहता भी उस के साथ ही है. फिर अगर खुशी के ऐसे चंद मौके दोस्तों के साथ मना लिए जाएं तो हर्ज ही क्या है? खुशी में चारचांद ही लग जाते हैं,’’ रतन ने कहा.

‘‘यही तो मैं कहती हूं,’’ अब तक चुप बैठी पूनम बोली.

‘‘तुम तो कहोगी ही, क्योंकि तुम भी उसी ‘ई ग्रुप’ की जो हो,’’ रवि ने व्यंग्य से कहा.

‘‘ई ग्रुप? वह क्या होता है, रवि भाई?’’ शोभा ने पूछा.

‘‘ई ग्रुप यानी एग्जिबिशन ग्रुप, अपने प्यार की नुमाइश करने वालों का जत्था. मियांबीवी को शादी की सालगिरह मना कर अपने लगाव या मुहब्बत का दिखावा करने की क्या जरूरत है? रही बात दोस्तों के साथ जश्न मनाने की, तो इस के लिए साल के तीन सौ चौंसठ दिन और हैं.’’

‘‘इस का मतलब यह है कि शादी की सालगिरह बैडरूम में अपने पलंग पर ही मनानी चाहिए,’’ राजन ने ठहाका लगा कर फब्ती कसी.

‘‘जरूरी नहीं है कि अपने घर का ही बैडरूम हो,’’ रवि ने ठहाकों की परवा किए बगैर कहा.

‘‘किसी हिल स्टेशन के शानदार होटल का बढि़या कमरा हो सकता है, किसी पहाड़ी पर पेड़ों का झुंड हो सकता है या समुद्रतट का एकांत कोना.’’

‘‘केवल हो ही सकता है या कभी हुआ भी है, क्यों, पूनम भाभी?’’ रतन ने पूछा.

‘‘कई बार या कहिए हर साल.’’

‘‘तब तो आप लोग छिपे रुस्तम निकले,’’ राजन ने ठहाका लगाते हुए कहा.

शोभा भी सब के साथ हंसी तो सही, लेकिन रवि का सख्त पड़ता चेहरा और खिसियाई हंसी उस की नजर से न बच सकी. इस से पहले कि वातावरण में तनाव आता, वह जल्दी से बोली, ‘‘भई, जब हर किसी को जीने का अंदाज जुदा होता है तो फिर शादी की सालगिरह मनाने का तरीका भी अलग ही होगा. उस के लिए बहस में क्यों पड़ा जाए. छोडि़ए इस किस्से को. और हां, राजन भैया, विकास और रजनी के आने से पहले जो आप लतीफा सुना रहे थे, वह पूरा करिए न.’’

विषय बदल गया और वातावरण से तनाव भी हट गया, लेकिन पूनम में पहले वाला उत्साह नहीं था.

कोठी के बाहर खड़ी गाडि़यों की कतारें और कोठी की सजधज देख कर यह भ्रम होता था कि वहां पर जैसे शादी की सालगिरह न हो कर असल शादी हो रही हो. उपहारों और फूलों के गुलदस्ते संभालती हुई रजनी लोगों के मुबारकबाद कहने या छेड़खानी करने पर कई बार नईनवेली दुलहन सी शरमा जाती थी.

कहकहों और ठहाकों के इस गुलजार माहौल की तुलना पूनम अपनी सालगिरह के रूमानी मगर खामोश माहौल से कर रही थी. उस रोज रवि अपनी सुहागरात को पलदरपल जीता है, ‘हां, तो ठीक इसी समय मैं ने पहली बार तुम्हें बांहों में भरा था, और तुम…तुम एक अधखिले गुलाब की तरह सिमट गई थीं और… और पूनम, फिर तुम्हारी गुलाबी साड़ी और तुम्हारे गुलाबी रंग में कोई फर्क ही नहीं रह गया था. तुम्हें याद है न, मैं ने क्या कहा था…अगर तुम यों ही गुलाबी हो जाओगी तो तुम्हारी साड़ी उतारने के बाद भी मैं इसी धोखे में…ओह, तुम तो फिर बिलकुल उसी तरह शरमा गईं, बिलकुल वैसी ही छुईमुई की तरह छोटी सी…’ और उस उन्माद में रवि भी उसी रात का मतवाला, मदहोश, उन्मत्त प्रेमी लगने लगता.

‘‘पूनम, सुन, जरा मदद करवा,’’ रजनी उस के पास आ कर बोली, ‘‘मैं अकेली किसेकिसे देखूं.’’

‘‘हां, हां, जरूर.’’ पूनम उठ खड़ी हुई और रजनी के साथ चली गई.

मेहमानों में डाक्टर शंकर को देख कर वह चौंक पड़ी. रवि डाक्टर शंकर के चहेते विद्यार्थियों में से था और इस शहर में आने के बाद वह कई बार डाक्टर शंकर को बुला चुका है, पर हमेशा ही वह उस समय किसी विशेष कार्य में व्यस्त होने का बहाना बना, फिर कभी आने का आश्वासन दे, कर रवि को टाल देते थे. पर आज विकास के यहां कैसे आ गए? विकास से तो उन के संबंध भी औपचारिक ही थे और तभी जैसे उसे अपने प्रश्न का उत्तर मिल गया.

‘‘क्यों, डाक्टर, हम से क्या नाराजगी है? हमारा निमंत्रण तो हमेशा इस बेदर्दी से ठुकराते हो कि दिल टूट कर रह जाता है. यह बताओ, विकास किस जोर पर तुम्हें खींच लाया?’’ एक गंजा आदमी डाक्टर शंकर से पूछ रहा था.

‘‘क्या बताऊं, गणपतिजी, व्यस्त तो आज भी बहुत था, लेकिन इन लोगों की शादी की सालगिरह थी. अब ऐसे खास मौके पर न आना भी तो बुरा लगता है.’’

‘‘यह बात तो है. मेरी पत्नी का भी इन लड़केलड़कियों के जमघट में आने को दिल नहीं था पर रजनी की जिद थी कि शादी की 10वीं सालगिरह पर उसे हमारा आशीर्वाद जरूर चाहिए, सो, आना पड़ा वरना मुझे भी रोटरी मीटिंग में जाना था.’’

पूनम को मेहमानों की आवभगत करते देख कर रवि उस के पास आया, ‘‘पूनम, जरा डाक्टर शंकर को आने के लिए कहो न कभी घर पर.’’

‘‘वे मेरे कहने से नहीं आने वाले.’’ पूनम अवहेलना से मुसकराई.

‘‘फिर कैसे आएंगे?’’

‘‘मेरे साथ आओ, बताती हूं.’’ पूनम ने रवि को अपने पीछेपीछे पैंट्री में आने का इशारा किया और वहां जा कर डाक्टर शंकर और गणपतिजी के बीच हुई बातचीत दोहरा दी.

‘‘तो इस का मतलब है कि वे लोग मजबूरन आए हैं. किसी को जबरदस्ती बुलाना और वह भी अपने प्यार की नुमाइश कर के, हम से नहीं होगा भई, यह सब.’’

‘‘मेरे खयाल में तो बगैर मतलब के पार्टी देने को ही आजकल लोग पैसे की नुमाइश समझते हैं,’’ पूनम कुछ तलखी से बोली.

‘‘तो आज जो कुछ हो रहा है उस में पैसे की नुमाइश नहीं है क्या? तुम्हारे पास पैसा होगा, तभी तो तुम दावत दोगी. लेकिन किसी निहायत व्यक्तिगत बात को सार्वजनिक रूप देना और फिर व्यस्त लोगों को जबरदस्ती खींच कर लाना मेरी नजर में तो ई ग्रुप की ओर से की जाने वाली अपनी प्रतिष्ठा की नुमाइश ही है. जहां तक मेरा खयाल है, विकास और रजनी में प्यार कभी रहा ही नहीं है. वे इकट्ठे महज इसीलिए रह रहे हैं कि हर साल धूमधाम से एकदूसरे की शादी की सालगिरह मना सकें,’’ कह कर रवि बाहर चला गया.

तभी रजनी अंदर आई, ‘‘कर्नल प्रसाद कोई भी तली हुई चीज नहीं खा रहे और अपने पास तकरीबन सब ही तली हुई चीजें हैं.’’

‘‘डबलरोटी है क्या?’’ पूनम ने पूछा, ‘‘अपने पास 3-4 किस्में की चटनियां हैं, पनीर है, उन के लिए 4-5 किस्मों के सैंडविच बना देते हैं.’’

‘‘डबलरोटी तो है लेकिन तेरी साड़ी गंदी हो जाएगी, पूनम. ऐसा कर, मेरा हाउसकोट पहन ले,’’ रजनी बोली, ‘‘उधर बाथरूम में टंगा होगा.’’ कह कर रजनी फिर बाहर चली गई. पूनम ने बाथरूम और बैडरूम दोनों देख लिए पर उसे हाउसकोट कहीं नजर नहीं आया. वह रजनी को ढूंढ़ते हुए बाहर आई.

‘‘भई, यह जश्न तो कुछ भी नहीं है, असली समारोह यानी सुहागरात तो मेहमानों के जाने के बाद शुरू होगी,’’ लोग रजनी और विकास को छेड़ रहे थे.

‘‘वह तो रोज की बात है, साहब,’’ विकास रजनी की कमर में हाथ डालता हुआ बोला, ‘‘अभी तो अपना हर दिन ईद और हर रात शबेरात है.’’

‘‘हमेशा ऐसा ही रहे,’’ हम तो यही चाहते हैं मिर्जा हसन अली बोले.

‘‘रजनी जैसे मिर्जा साहब की शुभकामनाओं से वह भावविह्वल हो उठी हो. पूनम उस से बगैर बोले वापस रसोईघर में लौट आई और सैंडविच बनाने लगी.

‘‘तू ने हाउसकोट नहीं पहना न?’’ रजनी कुछ देर बाद आ कर बोली.

‘‘मिला ही नहीं.’’

‘‘वाह, यह कैसे हो सकता है. मेरे साथ चल, मैं देती हूं.’’

रजनी को अतिथिकक्ष की ओर मुड़ती देख कर पूनम बोली, ‘‘मैं ने तुम लोगों के कमरे में ढूंढ़ा था.’’

‘‘लेकिन मैं आजकल इस कमरे में सोती हूं, तो यही बाथरूम इस्तेमाल करती हूं.’’

‘‘मगर क्यों?’’

‘‘विकास आजकल आधी रात तक उपन्यास पढ़ता है और मुझे रोशनी में नींद नहीं आती.’’

‘‘लेकिन आज तो तू अपने ही बैडरूम में सोएगी,’’ पूनम शरारत से बोली, ‘‘आज तो विकास उपन्यास नहीं पढ़ने वाला.’’

‘‘न पढ़े, मैं तो इतनी थक गई हूं कि मेहमानों के जाते ही टूट कर गिर पड़ूंगी.’’

‘‘विकास की बांहों में गिरना, सब थकान दूर हो जाएगी.’’

‘‘क्यों मजाक करती है, पूनम.

यह सब 10 साल पहले होता था. अब तो उलझन होती है इन सब चोचलों से.’’

पूनम ने हैरानी से रजनी की ओर देखा, ‘‘क्या बक रही है तू? कहीं तू एकदम ठंडी तो नहीं हो गई?’’

‘‘यही समझ ले. जब से विकास के उस प्रेमप्रसंग के बारे में सुना था…’’

‘‘वह तो एक मामूली बात थी, रजनी. लोगों ने बेकार में बात का बतंगड़ बना दिया था.’’

‘‘कुछ भी हो. उस के बाद विकास के नजदीक जाने की तबीयत ही नहीं होती और अब, पूनम, करना भी क्या है यह सब खेल खेल कर 2 बच्चे हो गए, अब इस सब की जरूरत ही क्या है?’’ पूनम रजनी की ओर फटीफटी आंखों से देखती हुई सोच रही थी कि रवि की ई ग्रुप की परिभाषा कितनी सही है. Hindi Romantic Story

Hindi Story: रबड़ का आदमी

Hindi Story, लेखक – प्रभात गौतम

इत्तिफाक से उस दिन हमारा आमनासामना हो गया. नरेश कालेज के दिनों में मेरा सहपाठी रह चुका था. हमारी आपस में कभी भी गहरी दोस्ती नहीं रही थी, पर आज वह इतना अपनापन दिखा रहा था, जैसे हम जन्मजन्मांतर के साथी हों. बिना मेरी बोरियत को समझे वह लगातार अपने कालेज के दिनों की घटनाएं दोहराए जा रहा था.

मैं कभी सड़क पर गुजरती कारों को देख रहा था, तो कभी आसमान पर छाए हलके बादलों को. किसी भी तरह जल्दी से जल्दी उस से छुटकारा पाने के लिए मैं ‘हां या न’ में उस का समर्थन जता देता था, जिस से वह और भी खुश हो रहा था.

‘‘अच्छा अभी तो मैं चलता हूं. फिर कभी घर आना. यहीं गांधीनगर में,’’ जैसे ही नरेश ने अपनी बात को खत्म किया, मैं ने अपने घर जाने का उतावलापन जाहिर कर दिया.

‘‘फिर कभी क्यों राजन… चलो, अभी चलते हैं. इसी बहाने भाभीजी के हाथों की चाय भी पी लेंगे,’’ नरेश तुरंत बोल पड़ा.

मुझे लगा कि मेरे द्वारा आसमान में उछाला गया कोई पत्थर मेरे ही सिर पर आ गिरा है. मुझे अपनी गलती का पछतावा होने लगा. कितना अच्छा होता मैं यहीं रुक कर कुछ देर और उस की बातें सुन लेता, जिस से मेरा रविवार का मजा खराब होने से तो बच जाता.

घर पर पहुंचने पर जो मेरा बुरा हाल होने वाला था, उस का मुझे आभास होने लगा था. मैं उस की बातों में सारे सामान की लिस्ट भूल चुका था, जो मुझे घर के लिए ले जाना था.

‘‘यार, थोड़ी मिठाई और नमकीन भी ले चल. भूख लगी है,’’ नरेश जैसे फिर बेशर्मी पर उतर आया.

मैं अंदर ही अंदर गुस्से से भर गया था और जेब में पड़े एकलौते नोट के जाने का शोक मनाते हुए मिठाई की दुकान की तरफ बढ़ रहा था.

घर के भीतर आते ही नरेश ‘धम्म’ से सोफे पर बैठ गया और दीवारों पर लगी पेंटिंग्स पर अपनी राय जाहिर करने लगा, जबकि मुझे सीधे लग रहा था कि वह इन के बारे में कुछ नहीं जानता.

कमरे में सजे गुलदस्ते, मूर्तियां नरेश ऐसे देख रहा था जैसे वह इसे पहली बार देख रहा हो. बातचीत को कुछ देर भी रोकना उसे गंवारा नहीं था. कोई न कोई बात खोज कर वह लगातार बोलता जा रहा था और नहीं तो वह कालेज के दिनों की क्लास के दोस्तों की बात ही छेड़ देता, जिसे वह कुछ ही देर पहले बता चुका था. यहां तक कि मुझे ही मेरी आदतों से अवगत कराने लगता था. मुझे उस के मुंह से शराब की हलकीहलकी बदबू भी आ रही थी.

‘‘अरे राजन, तुम तो आज बड़े उदास नजर आ रहे हो. कहीं भाभीजी से झगड़ा तो नहीं हो गया,’’ नरेश मेरी उदासी भांप कर बोल पड़ा.

मुझे अपने एकमात्र नोट के जाने का दुख सता रहा था जिसे बचाने के लिए मुझे अपनी औफिस की पार्टी छोड़नी पड़ी थी और औफिस से घर के लिए कभी किसी से, कभी किसी से लिफ्ट लेनी पड़ी थी.

‘‘नहीं… तो. मैं उदास कहां हूं. वह तो थोड़ी सी थकावट है,’’ मैं ने चेहरे पर बनावटी मुसकराहट लाने की कोशिश की.

‘‘तुम बैठो, मैं अभी तुम्हारे लिए चाय बनवा देता हूं,’’ मैं ने बात पलटने के अंदाज में कहा, जिस से मुझे उठ कर श्रीमतीजी को हालात समझाने का मौका भी मिल सके.

‘‘चाय आए तब तक तुम मिठाई ही ले आओ,’’ अब नरेश एकदम अनौपचारिकता पर उतर आया था, जो मुझे बेशर्मी लग रही थी. मन चाहा कि उसे इसी समय धक्का मार कर बाहर निकाल दूं, पर किसी तरह अपनेआप को रोका और कमरे से बाहर आ गया. हालांकि, मैं मन ही मन उसे ढेर सारी गालियां दे चुका था.

अपनी पत्नी को थोड़े में सारी बात समझा कर मैं दोबारा नरेश के सामने वाले सोफे पर बैठ गया. अब उसे हमारी बातचीत के विषय याद नहीं आ रहे थे. आसपास नजरें दौड़ा कर वह किसी अखबार या पत्रिका की तलाश में था, जिसे जानते हुए भी मैं अनजान बना हुआ था, क्योंकि मैं अखबार वगैरह मंगवाता ही नहीं था.

कुछ देर के लिए हमारे बीच चुप्पी बनी रही, जिसे तोड़ने के लिए नरेश अपने जूते हिला कर ‘खटखट’ की आवाज कर लेता था. कभी हम घूमते पंखे को देखते थे, कभी दीवारों पर टंगे कलैंडर में तारीखें पढ़ने लगते थे. जैसे ही वह मेरी तरफ देखता था, मैं अपने चेहरे पर बनावटी मुसकराहट तैरा लेता.

कुछ ही देर में चाय, मिठाई और नमकीन से सजी ट्रे के साथ मेरी पत्नी हमारे सामने थी, जिस को देखते ही नरेश ने फिर से अपनी बकबक शुरू कर दी. वह लगातार चाय, नमकीन की तारीफ कर प्लेट साफ किए जा रहा था. मेरे साथ होने वाली बातें बड़े यकीन से वह मेरी पत्नी को बताए जा रहा था, जो कभी मेरे साथ घटित ही नहीं हुई थीं. फिर भी हम दोनों चुपचाप उसे सुने जा रहे थे.

मुझे नरेश के द्वारा सुनाए जा रहे किसी भी चुटकुले पर हंस नहीं आ रही थी. कई बार तो मुझे वह एक डाकू या लुटेरा जैसा लगने लगा था, जो हमारे घर को लूटने पर आमदा है और हम उसे चुपचाप बैठे देख रहे हैं. पत्नी भी उस की बातों का औपचारिक जवाब दे कर चुप हो जाती थी.

आखिरकार सबकुछ खा पीने के बाद जब नरेश जाने के लिए उठा, तो मुझे कुछ संतोष हुआ. कदम बढ़ाते हुए मैं उसे बाहरी दरवाजे तक ले आया था, पर वह था कि कोई न कोई विषय पर नई बात शुरू कर देता था.

‘‘कितने बरसों बाद तो हम मिले हैं,’’ कह कर नरेश फिर से पत्नी की तरफ मुखातिब हो गया.

‘‘भाभीजी, आप क्या करती हैं? आप तो अच्छी पढ़ीलिखी हैं कहीं सर्विस क्यों नहीं कर लेतीं?’’ उस ने पत्नी से पूछा.

‘‘करना तो चाहती हूं, पर मिले भी तो,’’ पत्नी ने टालने के अंदाज में जवाब दिया.

‘‘तुम दिला दो इन्हें सर्विस,’’ मैं ने कुछ गुस्से से कहा.

‘‘आप की तो इंगलिश भी बहुत अच्छी लग रही है. आप बता रही थीं आप ने बीएड भी कर रखा है… कोई स्कूल जौईन करना चाहें तो आप कल ही आ जाओ. आप की नौकरी पक्की. अभी 20,000 से स्टार्ट करवा दूंगा, फिर आगे देख लेंगे. स्कूल का मालिक मेरा अच्छा जानकार है. एकदम जिगरी यार. समझो, अपना ही स्कूल है.’’

नरेश ने किसी नामी स्कूल का नाम बताया. मुझे यकीन ही नहीं हो रहा था कि वह इतने बड़े स्कूल के मालिक का जानकार होगा.

इस एक वाक्य से एकदम नरेश अच्छे और भले आदमी में तबदील हो गया. जैसे मेरे सामने पैंटशर्ट पहने कोई दूत खड़ा था. मैं उस के कपड़ों में लगे परफ्यूम की भीनीभीनी महक महसूस कर रहा था. उस की बातें अब हमें बड़ी अच्छी लग रही थी.

‘‘आप खाना खा कर जाते,’’ पत्नी ने भी अब उस की मेहमाननवाजी शुरू कर दी थी.

‘‘नहीं, आप ने इतना कुछ तो खिला दिया. खाना खाऊंगा आप की पहली तनख्वाह मिलने पर,’’ कह कर नरेश आगे बढ़ने लगा.

‘‘मैं तुम्हें स्कूटर पर छोड़ देता हूं,’’ मैं भी पूरी तरह नरेश की खातिरदारी पर उतर आया था. वह मना करते हुए चुपचाप आगे बढ़ गया.

…और कमरे में वापस जाते हुए मैं नरेश की तारीफ के पुल बांधे जा रहा था. Hindi Story

अनलिमिटेड कहानियां-आर्टिकल पढ़ने के लिएसब्सक्राइब करें