Valentine’s Special- वादियों का प्यार: कैसे बन गई शक की दीवार

Valentine’s Special- प्यार या संस्कार: अदिति की जिंदगी में प्यार का बवंडर

अदिति ने अपनी स्कूली पढ़ाई पूरी करने के बाद बेंगलुरु महानगर के एक नामीगिरमी कालेज में मैनेजमैंट कोर्स में ऐडमिशन लिया तो मानो उस के सपनों को पंख लग गए. उस के जीवन की सोच से ले कर संस्कार तथा सपनों से ले कर लाइफस्टाइल सभी तेजी से बदल गए. अदिति के जीवन में कुछ दिनों तक तो सबकुछ ठीकठाक चलता रहा, लेकिन अचानक उस के जीवन में उस के ही कालेज के एक छात्र प्रतीक की दस्तक के कारण जो मोड़ आया वह उस पहले प्यार के बवंडर से खुद को सुरक्षित नहीं रख पाई. अदिति बहुत जल्दी प्रतीक के प्यार के मोहपाश में इस तरह जकड़ गई मानो वह पहले कभी उस से अलग और अनजान नहीं थी.

जवानी की दहलीज पर पहले प्यार की अनूठी कशिश में अदिति अपने जीवन के बीते दिनों तथा परिवार की चाहतों को पूरी तरह से विस्मृत कर चुकी थी. प्रतीक के प्यार में सुधबुध खो बैठी अदिति अपने सब से खूबसूरत ख्वाब के जिस रास्ते पर चल पड़ी वहां से पीछे मुड़ने का कोईर् रास्ता न तो उसे सूझा और न ही वह उस के लिए तैयार थी.

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गरमी की छुट्टी में जब अदिति अपने घर वापस आई तो उस के बदले हावभाव देख कर उस की अनुभवी मां को बेटी के बहके पांवों की चाल समझते देर नहीं लगी. जल्दी ही छिपे प्यार की कहानी किसी आईने की तरह बिलकुल साफ हो गई और मां को पहली बार अपनी गुडि़या सरीखी मासूम बेटी अचानक ही बहुत बड़ी लगने लगी.

अदिति ने अपनी मां से प्रतीक से शादी के लिए शुरू में तो काफी विनती की, लेकिन मां के इनकार को देखते हुए वह जिद पर अड़ गई. अदिति के पिता तो उसी वक्त गुजर गए थे जब अदिति ठीक से चलना भी नहीं सीख पाई थी. मां और बेटी के अलावा उस छोटे से संसार में प्रतीक के प्रवेश की तैयारी के लिए एक बड़ा द्वंद्व और दुविधा का जो माहौल तैयार हो गया था वह सब के लिए दुखदायी था, जिस की मद्घिम लौ में मां को अपनी बेटी के चिरपोषित सपनों की दुनिया जल जाने का मंजर साफ नजर आ रहा था.

‘‘मां, तुम समझती क्यों नहीं हो? मैं प्रतीक से सच्चा प्यार करती हूं. वह ऐसावैसा लड़का नहीं है. वह अच्छे घर से है और निहायत शरीफ है. क्या बुरा है, यदि मैं उस से शादी करना चाहती हूं,’’ अदिति ने बड़े साफ लहजे में अपनी मां को अपने विचारों से अवगत कराया.

मां  अपनी बेटी के इस कठोर निर्णय से    काफी आहत हुईं लेकिन खुद को संयमित करते हुए अदिति को अपने सांस्कारिक मूल्यों तथा पारिवारिक जिम्मेदारियों का एहसास कराने की काफी कोशिश करती हुई बोलीं, ‘‘बेटी, मैं सबकुछ समझती हूं, लेकिन अपने भी कुछ संस्कार होते हैं. तुम्हारे पापा ने तुम्हारे लिए क्या सपने संजो रखे थे लेकिन तुम उन सपनों का इतनी जल्दी गला घोंट दोगी, इस बारे में तो मैं ने सपने में भी नहीं सोचा था. अपनी जिद छोड़ो और अभी अपने भविष्य को संवारो. प्यारमुहब्बत और शादी के लिए अभी बहुत वक्त पड़ा है.’’

‘‘मां, आप समझती नहीं हैं, प्यार संस्कार नहीं देखता, यह तो जीवन में देखे गए सपनों का प्रश्न होता है. मैं ने प्रतीक के साथ जीवन के न जाने कितने खूबसूरत सपने देखे हैं, लेकिन मैं यह भूल गई थी कि मेरे इंद्रधनुषी सपनों के पंख इतनी बेरहमी से कुतर दिए जाएंगे. आखिर, तुम्हें मेरे सपनों के टूटने से क्या?’’

‘‘बेटी, सच पूछो तो प्रतीक के साथ तुम्हारा प्यार केवल तुम्हारे जीवन के लिए नहीं है. जीवन के रंगीन सपनों के दिलकश पंख पर बेतहाशा उड़ने की जिद में अपनों को लगे जख्म और दर्द के बारे में क्या तुम ने कभी सोचा है? प्यार का नाम केवल अपने सपनों को साकार होते देखनाभर नहीं है. वह सपना सपना ही क्या जो अपनों के दर्द की दास्तान की सीढ़ी पर चढ़ कर साकार किया गया हो.

‘‘आज तुम्हें मेरी बातें बचकानी लगती होंगी, लेकिन मेरी मानो जब कल तुम भी मेरी जगह पर आओगी और तुम्हारे अपने ही इस तरह की नासमझी की बातों को मनवाने के लिए तुम से जिद करेंगे तो तुम्हें पता चलेगा कि दिल में कितनी पीड़ा होती है. मन में अपनों द्वारा दिए गए क्लेश का शूल कितना चुभता है.’’

अदिति अपनी मां के मुंह से इस कड़वी सचाई को सुन कर थोड़ी देर के लिए सन्न रह गई. उसे ऐसा प्रतीत हुआ जैसे किसी ने उस की दुखती रग पर अनजाने ही हाथ रख दिया हो. उस के जेहन में अनायास ही बचपन से ले कर अब तक अपनी मां द्वारा उस के लालनपालन के साथसाथ पढ़ाई के खर्चे के लिए संघर्ष करने की कहानी का हर दृश्य किसी सिनेमा की रील की भांति दौड़ता चला गया.

अनायास ही उस की आंखें भर आईं. मन पर भ्रम और दुविधा की लंबे अरसे से पड़ी धूल की परत साफ हो चुकी थी और सबकुछ किसी शीशे की तरह साफसाफ प्रतीत होने लगा था. लेकिन बीते हुए कल के उस दर्र्द के आंसू को अपनी मां से छिपाते हुए वह भाग कर अपने कमरे में चली गई. अपनी मां की दिल को छू लेने वाली बातों ने अदिति को मानो एक गहरी नींद से जगा दिया हो.

छुट्टियों के बाद अदिति अपने कालेज वापस आ गई और जीवन फिर परिवर्तन के एक नए दौर से गुजरने लगा. कालेज वापस लौटने के बाद अदिति गुमसुम रहने लगी. प्रतीक से भी वह कम ही बातें करती थी, बल्कि उस ने उसे शादी के बारे में अपनी मां की मरजी से भी अवगत करा दिया और इस तरह मंजिल तक पहुंचने से पहले ही दोनों की राहें अलगअलग हो गईं.

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कालेज के अंतिम वर्ष में कैंपस सिलैक्शन में प्रतीक को किसी मल्टीनैशनल कंपनी में ट्रेनी मैनेजर के रूप में यूरोप का असाइनमैंट मिला और अदिति ने किसी दूसरी मल्टीनैशनल कंपनी में क्वालिटी कंट्रोल ऐग्जीक्यूटिव के रूप में अपनी प्लेसमैंट की जगह बेंगलुरु को ही चुन लिया.

अदिति अपनी मां के साथ इस मैट्रोपोलिटन सिटी में रह कर जीवन गुजारने लगी. सबकुछ ठीकठाक चल रहा था. इसी बीच कंपनी ने अदिति को 1 वर्ष के फौरेन असाइनमैंट पर आस्ट्रेलिया भेजने का निर्णय लिया. अदिति अपनी मां के साथ जब आस्टे्रलिया के सिडनी शहर आई तो संयोग से वहीं पर एक दिन किसी शौपिंग मौल में उस की प्रतीक से मुलाकात हो गई. अदिति के लिए यह एक सुखद लमहा था, जिस की नरम कशिश में वर्षों पूर्व के संबंधों की यादें बड़ी तेजी से ताजी हो गईं. लेकिन भविष्य में इस संबंध के मुकम्मल न होने के भय ने उस के पैर वापस खींच लिए.

प्रतीक अपने क्वार्टर में अकेला रहता था और अकसर हर रोज शाम के वक्त वह अदिति के घर पर आ जाया करता था. मां को भी अपने घर में अपने देश के एक परिचित के रूप में प्रतीक का आनाजाना अच्छा लगता था, क्योंकि परदेश में उस के अलावा सुखदुख बांटने वाला और कोई भी तो नहीं था.

अचानक एक दिन औफिस से घर लौटते वक्त अदिति की औफिस कार की किसी प्राइवेट कार के साथ टक्कर हो गई और अदिति को सिर में काफी चोट आई. महीनेभर तक अदिति  हौस्पिटल में ऐडमिट रही और इस दौरान उस का और उस की मां का ध्यान रखने वाला प्रतीक के अलावा और कोई नहीं था. प्रतीक ने मुसीबत की इस घड़ी में अदिति और उस की मां का भरपूर ध्यान रखा और इसी बीच अदिति और प्रतीक फिर से कब एकदूसरे के इतने करीब आ गए कि उन्हें इस का पता ही नहीं चला.

अदिति का यूरोप असाइनमैंट खत्म होने वाला था और उसे अब अपने देश वापस आना था. अदिति और उस की मां को छोड़ने के लिए प्रतीक भी बेंगलुरु आया था. प्रतीक के सेवाभाव से अदिति की मां अभिभूत हो गई थीं. प्रतीक सिडनी वापस जाने की पूर्व संध्या पर अपने मम्मीडैडी के साथ अदिति से मुलाकात करने आया था. अदिति का व्यवहार तथा शालीनता देख कर प्रतीक के पेरैंट्स काफी खुश हुए.

प्रतीक की अगले दिन फ्लाइट थी. एयरपोर्ट पर बोर्डिंग के समय जब अदिति का फोन आया तो उस के दिलोदिमाग में एक अजीब हलचल मच गई. पुराने प्यार की सुखद और नरम बयार में प्रतीक के मन का कोनाकोना सिहर उठा. प्रतीक ने अपनी फ्लाइट कैंसिल करवा ली. उस ने अपनी कंपनी को बेंगलुरु में ही उसे शिफ्ट करने के लिए रिक्वैस्ट भेज दी जो कुछ दिनों में अपू्रव भी हो गई. अदिति की मां प्रतीक के इस फैसले से काफी प्रभावित हुईं.

अदिति हमेशा के लिए अब प्रतीक की हो गई थी और वह मां के साथ ही बेंगलुरु में रहने लगी थी. प्रतीक अपनी खुली आंखों से अपने सपने को अपनी बांहों में पा कर खुशी से फूले नहीं समा रहा था. अदिति के पांव भी जमीं पर नहीं पड़ रहे थे. उसे आज जीवन में पहली बार एहसास हुआ कि धरती की तरह सपनों की दुनिया भी गोल होती है और सितारे भले ही टूटते हों, लेकिन यदि विश्वास मजबूत हो तो सपने कभी नहीं टूटते.

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Valentine’s Special: जन्मदिन पर सुमन को मिला प्यार का तोहफा

‘‘कितनी लापरवाही से काम करती हो तुम,’’ रमेश के स्वर की कड़वाहट पिघले सीसे की तरह कानों में उतरती चली गई.

सुबहसुबह काम की हड़बड़ी में रमेश के लिए रखा दूध का गिलास मेज पर लुढ़क गया था. सुमन बेजबान बन कर अपमान के घूंट पीती रही, फिर खुद को संयत कर बोली, ‘‘टिफिन तो रख लो.’’

‘‘भाड़ में जाए तुम्हारा टिफिन. बच्चा रो रहा है और तुम्हें टिफिन की पड़ी है.’’

‘‘ले रही हूं विनय को, लेकिन आप के खानेपीने की चिंता भी तो मुझे ही करनी पडे़गी न.’’

‘‘छोड़ो ये बड़ीबड़ी बातें,’’ रोज की तरह सुमन को शर्मिंदा कर रमेश जूते खटखटाते हुए आफिस निकल गए और सुमन ठगी सी खड़ी रह गई. नन्हे विनय को गोद में उठा कर वह जब तक आंगन में पहुंचती, रमेश गाड़ी स्टार्ट कर फुर्र से निकल गए, न मुड़ कर देखा, न परवा की.

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‘‘अच्छा, भूख लगी है राजा बेटे को. हांहां, हम बिट्टू को दूध पिलाएंगे…’’ सुमन के हाथ यंत्रवत बोतल में दूध भरने लगे. मुंह में दूध की बोतल लगते ही विनय का रोना थम गया. लेकिन सुमन तो जैसे झंझावात से घिर गई थी. अंतर्मन में घुमड़ रहे बवंडर पर उस का खुद का भी बस न था.

वह सोच रही थी, आखिर उस की गलती क्या है? क्या समर्पण का यही फल मिलेगा उसे. 22 साल की उम्र में उस ने अपनी भावनाओं का गला घोंट दिया. दीदी के उजड़े परिवार को बसाने की खातिर खुद का बलिदान दे दिया तो क्या गलती हो गई उस से. यह ठीक है कि दीपिका दीदी के असमय बिछोह ने रमेश को अस्तव्यस्त कर दिया है, लेकिन क्या इस के लिए वह सुमन पर जबतब व्यंग्य बाण चलाने का हकदार बन जाते हैं?

दूसरे दिन आने वाले अपने जन्मदिन पर सुमन ने अपनी सहेलियों को घर पर आमंत्रित किया. मधु, रीना, वाणी, महिमा सब कितनी बेताब थीं उस के घर आने को. सुमन की अचानक हुई शादी में शामिल न होने की कसर वे उस का जन्मदिन मना कर ही पूरी कर लेना चाहती थीं. सुबह की घटना को भूल कर सुमन ने रमेश के सामने बात छेड़ी, ‘‘सुनिए, कल मैं ने कुछ सहेलियों को घर पर बुलाया है. आप भी 6 बजे तक आ जाएंगे न.’’

‘‘क्यों, कल क्या है?’’ रमेश ने आंखें तरेरते हुए पूछा.

‘तो जनाब का गुस्सा अभी ठंडा नहीं हुआ है,’ सुमन मन ही मन सोचते हुए चुहल के मूड में बोली, ‘‘जैसे आप को मालूम ही नहीं है?’’

‘‘हां, नहीं मालूम मुझे, क्या है कल?’’ कहते हुए रमेश के माथे पर बल पड़ गए.

रमेश के तेवर देख कर सुमन का सारा उत्साह ठंडा पड़ गया. वह मायूसी से बोली, ‘‘मधु, वाणी वगैरह कल मेरा बर्थडे मनाना चाहती थीं. इसी बहाने मिलना भी हो जाएगा और हम सहेलियां मिल कर गपशप भी कर लेंगी.’’

‘‘बर्थडे और तुम्हारा? ओह, कम आन सुमन. एक बच्चे की मां हो तुम और बर्थडे मनाओगी, सहेलियों को बुलाओगी. यह बचकानापन छोड़ो और थोड़ी मैच्योर हो जाओ,’’ रमेश की बातें सुन कर उस के धैर्य का बांध टूटने लगा.

‘‘इस में बचकानेपन की क्या बात है? आप नहीं आ पाएंगे क्या?’’ वह संयत स्वर में बोली.

‘‘देखूंगा. वैसे तुम्हारी सहेलियों से मिलने में मुझे कोई दिलचस्पी नहीं है. और तुम तो जानती हो कि दीपिका के बाद कोई भी फंक्शन, भले ही वह छोटा क्यों न हो, मैं उस में शामिल होना पसंद नहीं करता. फिर क्यों जोर दे रही हो तुम?’’ रमेश की आवाज में उपेक्षा साफ झलक रही थी.

शादी के बाद इस दिन के लिए कितनी कल्पनाएं की थीं सुमन ने पर वे सारी कल्पनाएं धराशायी हो गईं. वह मन ही मन आशाएं लगा रही थी कि उस दिन रमेश सुबहसुबह उसे उठा कर कोई अच्छा सा गिफ्ट देंगे और वह सारे गिलेशिकवे भुला कर उन्हें माफ कर देगी. सारी कड़वाहट भुला देगी. रमेश उसे सरप्राइज देते हुए, एक दिन की छुट्टी ले लेंगे. उस की सहेलियों के घर में आने पर सारे लोग मिल कर खूब मौजमस्ती करेंगे. विनय भी खूब खुश होगा. सब को हंसीखुशी देख कर बाबूजी को बहुत संतोष होगा कि उन का निर्णय गलत नहीं था. क्या कुछ नहीं सोचा था उस ने, पर सब धरा का धरा रह जाएगा.

‘मैच्योर होने की ही तो सजा भुगत रही हूं रमेश. आज मैं किसी दूसरे घर में होती तो मुझे यों उलाहने न सुनने पड़ते. दूसरी बीवी हूं न इसलिए मेरे किए का, मेरी भावनाओं का कोई मूल्य नहीं है आप के लिए,’ वह तड़प कर बुदबुदाई.

लेकिन उस की बुदबुदाहट सुनने के लिए रमेश वहां थे कहां? वह तो कब के मामले का पटाक्षेप कर के अपने कमरे में बैठे टेलीविजन देख रहे थे.

दूसरे दिन सुबह उठ कर जब बाबूजी को प्रणाम किया तो उन्होंने आशीर्वाद की झड़ी लगा दी, ‘‘खुश रहो बेटा. तुम्हारे आने से यह घर बस गया है बेटी. अच्छा सुनो, आज मां के यहां भी सहेलियों के आने से पहले हो आना. वे दोनों भी तो राह देखते होंगे. रमेश चला गया न, नहीं तो तुम तीनों ही चले जाते.’’

‘‘कोई बात नहीं, बाबूजी. मैं आटो कर लूंगी,’’ इतना कह कर वह धीरे से मुसकराई.

नए कपड़ों में 5 माह का गोलमटोल विनय और भी प्यारा लग रहा था. सुनहरी किनारी वाला रानी कलर का सूट सुमन पर खूब फब रहा था.

आटो रुकते ही मां दौड़ी चली आईं. उस ने विनय को अपनी मम्मी की गोद में दे कर मम्मीपापा दोनों को झुक कर प्रणाम किया.

पापा बोले, ‘‘बेटा, रमेश आते तो अच्छा होता.’’

‘‘वह तो चाहते थे, लेकिन छुट्टी ही नहीं मिली,’’ अपनी प्रतिष्ठा बचाने और मम्मीपापा को दिलासा देने की खातिर झूठ बोलने में कितनी कुशल हो गई थी सुमन.

थोड़ी देर बाद पापा विनय को घुमाने ले गए. उन के निकलते ही मां को टोह लेने का मौका मिल गया.

‘‘सच बता सुमी, तू खुश तो है न? रमेश का व्यवहार कैसा है?’’

‘‘सब ठीक है, मां,’’ वह उदास स्वर में बोली.

‘‘सब ठीक है तो फिर तू उदास, खोईखोई सी क्यों लगती है?’’

‘‘मां, विनय रात में सोने कहां देता है. नींद पूरी नहीं हो पाती, इसी से सुबह भी थकी हुई लगती हूं.’’

‘‘बेटी, वह तो ठीक है. पर…’’ मां की आवाज का प्रश्नचिह्न बहुत कुछ कह गया.

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‘‘पर क्या, मां? मैं ने कभी कुछ कहा क्या?’’ वह झुंझलाई.

‘‘बोला नहीं तभी तो सुमी. यह जो तेरी कुछ न बोलने की आदत है न, उसी से तो डर लगता है. तू शुरू से ही ऐसी है. मन की बात भीतर दबा कर रखने वाली. तू घुटघुट कर जी लेगी, लेकिन अपनी पीड़ा कहेगी नहीं. बेटी, क्या हम नहीं समझते कि यह शादी तुम ने सिर्फ हमारी इच्छा रखने की खातिर की है.’’

‘‘अब गड़े मुर्दे उखाड़ने से क्या फायदा?’’ उस का शुष्क स्वर उभरा.

मां लगभग चिल्लाते हुए बोलीं, ‘‘क्योंकि तू अभी जिंदा है और तू अपने परिवार के साथ हंसतीखेलती रहे यही हमारी हसरत है. एक बेटी को तो हम खो ही चुके हैं. आगे कुछ भलाबुरा सहन नहीं…’’ मां की आवाज तर हो गई. मां ने हथेलियों से आंसू छिपाने की कोशिश की, लेकिन नाकाम रहीं.

सुमन मां के कंधे पर हाथ रखते हुए बोली, ‘‘सौरी मां, मैं ने तुम्हें रुला दिया. मैं ने कहा न सब ठीक है, तुम बेकार ही परेशान होती हो. अच्छा, मां, बोलो तो मेरे लिए क्या बनाया है?’’

मां आंसू पोंछते हुए नाश्ते की थाली लगाने लगीं. पापा भी विनय को ले कर लौट आए. मां ने सुमन की सहेलियों के लिए भी केक, मटर कचौरी, नमकीन और गाजर का हलवा रखवा दिया.

पापा उसे घर तक छोड़ने गए. फिर दोनों समधी देर तक बरामदे में बैठ कर बतियाते रहे.

महीनों बाद सुमन खुल कर हंस रही थी, वरना शादी के बाद तो उस का जीवन जैसे दुस्वप्न बन गया था. उस की बड़ी बहन दीपिका की सड़क दुर्घटना में हुई आकस्मिक मौत ने जैसे सभी के जीवन से खुशियों के रंग छीन लिए थे. मम्मी, पापा और बाबूजी की समझ से परे था कि दीपिका की मौत का गम करें या विनय और रमेश के बचने के लिए नियति को धन्यवाद दें.

सुमन ने स्वेच्छा से नन्हे विनय की देखभाल का जिम्मा खुद पर ले लिया था. पत्नी की इस तरह मौत से रमेश बिलकुल जड़ हो गए. चिड़चिड़े, तुनकमिजाज और छोटीछोटी बातों पर बिफरने वाले. घर के बड़े लोगों ने सोचा कि यदि रमेश की शादी कर दी जाए तो शायद वह फिर सामान्य जीवन बिता सके.. और उन्हें इस के लिए सुमन से बेहतर विकल्प नहीं दिख रहा था. बड़ों के प्रश्न के जवाब में वह ना नहीं कह सकी और ब्याह कर इस घर में आ गई, जो कभी उस की दीदी का घर था.

मुखर दीपिका को शांत सुमन में खोजने की रमेश की कोशिश निष्फल रही. धीरेधीरे घर में उन का व्यवहार सिर्फ खाना खाने, कर्तव्यपूर्ति के लिए धन और सामान जुटाने व आराम करने के लिए ही शेष रह गया था.

सुमन के प्रति रमेश का कटु व्यवहार कभीकभी उस में भी अपराधभाव जगाता, लेकिन जल्द ही वह उस से फारिग भी हो जाता. हां, रमेश के इस आचरण से सुमन जरूर दिन ब दिन उन से दूर होती चली जा रही थी. रमेश के उखड़े व्यवहार के बावजूद सुमन विनय की बाललीलाओं और बाबूजी के स्नेह के सहारे अपने नवनिर्मित घरौंदे को बचाने की कोशिश करती रहती.

उस दिन सुमन की उम्मीद के विपरीत रमेश सही वक्त पर घर पहुंच गए. उस की सखियां चुहल करने लगीं कि तू तो कह रही थी कि जीजाजी नहीं आएंगे.

रमेश बड़ी देर तक सुमन की सभी सहेलियों से बातचीत करते रहे. बड़े खुशनुमा माहौल में उस की सखियों ने सब से विदा ली. जातेजाते वे बोलीं, ‘‘जीजाजी, सुमन को ले कर घर जरूर आइएगा.’’

‘‘जरूरजरूर, क्यों नहीं.’’

वह विस्मित थी कि लोगों के सामने उस के साथ से भी कतराने वाले रमेश आज इतने मुखर कैसे हो उठे?

‘‘थैंक्स, रमेश, जल्दी आने के लिए,’’ सुमन, विनय को चादर ओढ़ाते हुए बोली.

‘‘इस में थैंक्स की क्या बात है. मैं ने सिर्फ अपना फर्ज पूरा किया है,’’ रमेश का स्वर हमेशा की तरह सपाट था.

‘‘फर्ज निभाया? और मेरी गिफ्ट?’’ वह शरारत से बोली.

‘‘गिफ्ट, कैसी गिफ्ट? तुम्हारी सहेलियों से जरा अच्छे से बात क्या कर ली कि तुम्हारे तो हौसले ही बढ़ने लगे. इस घर में किस बात की कमी है तुम्हें जो एक गिफ्ट और चाहिए. इन सब की उम्मीद मत रखना मुझ से,’’ रमेश गुस्से में बोला.

‘‘क्यों, मैं ने ऐसी कौन सी बात बोल दी, जो इतने लालपीले हो रहे हो,’’ पहली बार जबान खोली उस ने. आवेश में उस की आवाज कांपने लगी.

‘‘मैं लालपीला हो रहा हूं, यह बोलने की हिम्मत कैसे हुई तुम्हारी,’’ रमेश फटकारते हुए बोले.

‘‘रमेश, सब्र की भी कोई सीमा होती है. 6 माह से मैं लगातार आप का मन जीतने और आप को सामान्य महसूस कराने की कोेशिश कर रही हूं. लेकिन आप ने तो जैसे खुद को एक पिंजरे में कैद कर लिया है. न खुद बाहर निकलते हैं, न मुझे अपने करीब आने देते हैं. दीदी के जाने का सदमा सिर्फ आप को ही नहीं हम सब को हुआ है. अब तो इस पिंजरे की दीवारों से टकरा कर मैं लहूलुहान हो चुकी हूं. अब इस से ज्यादा मैं नहीं सह सकती. आप के इस रवैये को देख कर तो मैं कभी का घर छोड़ चुकी होती, लेकिन बाबूजी के स्नेह ने मुझे ऐसा करने नहीं दिया. आप मुझे सह नहीं पा रहे हैं इस घर में तो मैं यह घर ही छोड़ दूंगी. कल सुबह ही मैं मुन्ने को ले कर मां के यहां जा रही हूं,’’ सुमन की आवाज थरथराई, वह धम्म से पलंग पर बैठ गई.

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रमेश पैर पटकते हुए तकिया और चादर ले, हाल में जा कर सोफे पर लेट गए.

वह सोचने लगी, ‘मैं कोई बेजबान गुडि़या तो नहीं जो ठोकरों को सहती रहे और उसे चोट भी न लगे.’ आवेश के मारे उस का रगरग तपने लगा और सोचतेसोचते शरीर को बुखार ने चपेट में ले लिया. रात 1 बजे तक चिंतन से जब दिमाग जवाब देने लगा तो वह खुद नींद की आगोश में चली गई.

सुबह आंख खुली तो घड़ी 7 बजा रही थी. विनय सोया हुआ था. सिर दर्द से फटा जा रहा था. उस ने उठने की असफल कोशिश की. उसे जागा देख कर रमेश तुरंत आ गए. उस ने घृणा से मुंह फेर लिया.

‘‘ओह, तुम्हें तो बहुत तेज बुखार है,’’ रमेश उस के तपते माथे पर हाथ रखते हुए बोले.

वह आंखें मूंदे लेटी रही.

‘‘लो, चाय पी लो.’’

‘‘बाई आ गई क्या?’’ क्षीण स्वर में सुमन ने पूछा.

‘‘नहीं तो.’’

‘‘फिर चाय?’’

‘‘क्यों, मैं नहीं बना सकता क्या?’’ रमेश ने मुसकराते हुए बिस्कुट की तश्तरी आगे कर दी.

‘‘एक मिनट, ब्रश कर के आती हूं.’’

जैसे ही सुमन उठने को हुई कि उसे चक्कर सा आ गया और वह फिर से पलंग पर बैठ गई. तब रमेश उसे सहारा दे कर वाशबेसिन तक ले कर आए.

जब वह मुंह धो चुकी तो रमेश हाथों में टावेल ले कर खड़े थे.

वह चाय पी कर लेट गई. रमेश उस के सिरहाने ही बैठ गए.

पिछली रात के घटनाक्रम और रमेश के सुबह के रूप में तालमेल बिठातेबिठाते सुमन की आंखों से आंसुओं की धारा बहने लगी.

‘‘प्लीज, रोओ मत तुम, नहीं तो तबीयत और खराब होगी.’’

रमेश का चिंतित स्वर अंदर तक हिला गया उसे.

रमेश का कौन सा रूप सच्चा है.

रमेश उस के सिर पर हथेली रख कर बोले, ‘‘कल के लिए सौरी, सुमन. मैं सारी सीमाएं तोड़ गया कल. तुम्हें चोट पहुंचा कर मेरा अहं संतुष्ट होता रहा अब तक. दीपिका के बाद मैं तो टूट ही चुका था. तुम्हीं थीं जिस ने मेरा उजड़ा घर फिर बसाया. नातेरिश्तेदार तुम्हारी तारीफ करते नहीं थकते थे. इस से मुझे बहुत तकलीफ होती थी, लेकिन ये तारीफ मिलने के पहले तुम ने अपने सारे अरमानों को राख कर दिया है, इतनी छोटी सी बात को नहीं समझ पाया मैं. हर रोज छोटीछोटी बातों पर तुम्हें अपमानित कर के भले ही मैं थोड़ी देर का संतोष पा लेता था, लेकिन अपनी यह हरकत मुझे भी कचोटती रहती थी. आखिर इतना बुरा तो नहीं हूं मैं. हां, मैं अपनी कुंठा, तुम पर निकालता रहा, तुम्हारी तपस्या को कभी देख ही नहीं पाया. कल तुम ने घर छोड़ कर जाने की बात की तो मैं बर्दाश्त नहीं कर सका.’’

एक पल को रमेश रुके फिर बोले, ‘‘सुमन, तुम्हारे बिना अब मैं अपने जीवन की कल्पना भी नहीं कर सकता.’’

यह सब सुन कर सुमन उन्हें अपलक देखती रही. तभी दरवाजे के बाहर बाबूजी की आहट पा कर रमेश एक झटके में उठ खड़े हुए.

‘‘बेटा, डाक्टर साहब से बात हो गई है. वह आधे घंटे में क्लिनिक पहुंच जाएंगे. सुमन बेटा, तुम विनय की चिंता मत करना, वह मेरे पास खेल रहा है.’’

‘‘जी, बाबूजी, हम लोग अभी तैयार हो जाते हैं,’’ सुमन ने कहा.

‘‘सुनो, तुम कपड़े बदल लो. हमें 10 मिनट में निकलना है.’’

‘‘हां,’’ सुमन का स्वर अशक्त था.

पलंग से उठ कर सुमन ने मेज पर देखा तो लखनवी कढ़ाई वाला आसमानी रंग का सूट रखा था और पास ही थी लाल गुलाब की ताजी कली.

सुमन सोचने लगी कि वह कहीं कोई सपना तो नहीं देख रही है.

डाक्टर के क्लिनिक से लौटते समय उस ने रमेश से पूछा, ‘‘आफिस के लिए लेट हो रहे हो न?’’

‘‘नहीं, आज छुट्टी ले ली है.’’

सुन कर वह बड़ी आश्वस्त हुई. हलके से मुसकराते हुए यह विचार उस के दिलोदिमाग में कौंध गया कि रमेश ने उसे भले ही कोई कीमती उपहार न दिया हो, पर जन्मदिन का इस प्यार से बढ़ कर बड़ा तोहफा क्या हो सकता है?

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बदलाव: भाग 3

अवधेश सिंह के 2 बेटे थे. दोनों ही शादीशुदा थे. गांव में खेतीकिसानी करते थे. बेटों ने दूसरी शादी का विरोध किया, तो उस ने उन से रिश्ता ही तोड़ लिया. दरअसल, अवधेश सिंह औरत के बिना नहीं रह सकता था. वह वासना का भेडि़या था. भोलीभाली और गरीब लड़कियों को बहलाफुसला कर वह अपने घर लाता था, फिर तरहतरह का लोभ दिखा कर उन के साथ मनमानी करता था.

अवधेश सिंह सुबहसवेरे कभीकभी गंगा स्नान के लिए भी जाता था. उस दिन सुबह 8 बजे गए, तो उर्मिला पर उस की नजर चली गई. वह समझ गया कि उर्मिला कहीं दूर देहात की है. वह उस के चाल में जल्दी आ जाएगी.

वह उसे अपने घर ले जाने में कामयाब भी हो गया. अवधेश सिंह उर्मिला को निहायत ही भोलीभाली समझता था, पर वह उस की चालाकी समझ नहीं पाया. उसे लगा कि वह उर्मिला की बात मान लेगा, तो वह राजीखुशी उस का बिस्तर गरम कर देगी. फिर तो वह उर्मिला का दिल जीतने के लिए जीतोड़ कोशिश करने लगा. उस की हर जरूरत पर ध्यान देने लगा. महंगे से महंगा गिफ्ट भी वह उसे देने लगा.

इस तरह 10 दिन और बीत गए. इस बीच उर्मिला को राधेश्याम की कोई खबर नहीं मिली. उस के बाद एक दिन अचानक उर्मिला ने पति राधेश्याम को छोड़ अवधेश सिंह के साथ एक नई जिंदगी की शुरुआत करने का फैसला किया. हुआ यह कि एक दिन अवधेश सिंह दफ्तर से लौट कर रात में घर आया. उस समय रतन सो चुका था. आते ही उस ने उर्मिला को अपने कमरे में बुलाया. उर्मिला कमरे में आई, तो अवधेश सिंह ने झट से दरवाजा बंद कर दिया.

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वह उर्मिला से बोला, ‘‘तुम मान जाओगी, तो जो कुछ कहोगी, वह सबकुछ करूंगा. तुम चाहोगी तो तुम से शादी भी कर सकता हूं.’’ उर्मिला उलझन में पड़ गई. बेशक, वह गांव से पति की तलाश में निकली थी, मगर शहरी चकाचौंध ने पति से उस का मोह भंग कर दिया था. अब वह गांव की नहीं, शहरी जिंदगी जीना चाहती थी.

अवधेश सिंह के प्रस्ताव पर वह यह सोचने लगी कि उस का पति मिल भी गया तो क्या वह अवधेश सिंह की तरह ऐशोआराम की जिंदगी दे पाएगा? अवधेश सिंह की उम्र भले ही उस से ज्यादा थी, मगर उस के पास दौलत की कमी नहीं थी. उस ने अवधेश सिंह का प्रस्ताव स्वीकार करने का फैसला किया.

अवधेश सिंह अपनी बात से मुकर न जाए, इसलिए उर्मिला ने लिखवा लिया कि वह उस से शादी करेगा. उस के बाद उर्मिला ने अपनेआप को उस के हवाले कर दिया. उर्मिला को पा कर अवधेश सिंह की खुशी का ठिकाना न रहा. उस ने अगले हफ्ते ही उस से शादी करने का फैसला किया.

उर्मिला भी जल्दी से जल्दी अवधेश सिंह से शादी कर लेना चाहती थी. 2 दिन बाद ही उस ने अपने भाई रतन को गांव जाने वाली ट्रेन में बिठा दिया. उस से कह दिया कि वह गांव लौट कर नहीं जाएगी. अवधेश सिंह के साथ शहर में ही रहेगी. शादी के 2 दिन बाकी थे, तो अचानक राधेश्याम के रूममेट राघव के फोन पर उर्मिला को बताया कि गणपत गांव से आ गया है.

उर्मिला हर हाल में अवधेश सिंह से शादी करना चाहती थी, इसलिए वह राधेश्याम का पता लगाने नहीं गई. तय समय पर उस ने अवधेश सिंह से शादी कर ली. एक महीने बाद अवधेश सिंह की गैरहाजिरी में राधेश्याम उर्मिला से मिला. ‘‘कहां थे इतने दिन…?’’ उर्मिला ने पूछा.

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‘‘गांव से आने के बाद मैं एक अमीर विधवा औरत के प्रेमजाल में फंस गया था. अब मैं उस के साथ नहीं रहना चाहता.

‘‘गणपत से मुझे जैसे ही पता चला कि तुम अवधेश सिंह के घर पर हो, मैं यहां चला आया. अब मैं तुम्हारे साथ गांव लौट जाना चाहता हूं.’’

‘‘आप ने आने में बहुत देर कर दी. मैं ने अवधेश सिंह से शादी कर ली है. अब मैं आप के साथ नहीं जा सकती.’’ राधेश्याम सबकुछ समझ गया. उस ने उर्मिला से फिर कुछ नहीं कहा और चुपचाप वहां से लौट गया.

Valentine’s Special: यह कैसा प्यार- क्या हो पाई शिवानी और नितिन की शादी?

आज मैं ने वह सब देखा जिसे देखने की मैं कल्पना भी नहीं कर सकती थी. कालिज से घर लौटते समय मुझे डैडी अपनी कार में एक बेहद खूबसूरत औरत के साथ बैठे दिखाई दिए. जिस अंदाज में वह औरत डैडी से बात कर रही थी, उसे देख कर कोई भी अंदाजा लगा सकता था कि वह डैडी के बेहद करीब थी.

10 साल पहले जब मेरी मां की मृत्यु हुई थी तब सारे रिश्तेदारों ने डैडी को दूसरा विवाह करने की सलाह दी थी लेकिन डैडी ने सख्ती से मना करते हुए कहा था कि मैं अपनी बेटी शिवानी के लिए दूसरी मां किसी भी सूरत में नहीं लाऊंगा और डैडी अपने वादे पर अब तक कायम रहे थे, लेकिन आज अचानक ऐसा क्या हो गया, जो वह एक औरत के करीब हो कर मेरे वजूद को उपेक्षा की गरम सलाखों से भेद रहे थे.

मुझे अच्छी तरह  से याद है कि मम्मी और डैडी के बीच कभी नहीं बनी थी. मम्मी के खानदान के मुकाबले में डैडी के खानदान की हैसियत कम थी, इसलिए मम्मी बातबात पर अपनी अमीरी के किस्से बयान कर के डैडी को मानसिक पीड़ा पहुंचाया करती थीं. मेरी समझ में आज तक यह बात नहीं आई कि जब डैडी और मम्मी के विचार आपस में मिलते नहीं थे तब डैडी ने उन्हें अपनी जीवनसंगिनी क्यों बनाया था.

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कालिज से घर आते ही काकी मां ने मुझ से चाय के लिए पूछा तो मैं उन्हें मना कर अपने कमरे मेें आ गई और अपने आंसुओं से तकिए को भिगोने लगी.

5 बजे के आसपास डैडी का फोन आया तो मैं अपने गुस्से पर जबरन काबू पाते हुए बोली, ‘‘डैडी, इस वक्त आप कहां हैं?’’

‘‘बेटे, इस वक्त मैं अपनी कार ड्राइव कर रहा हूं,’’ डैडी बडे़ प्यार से बोले.

‘‘आप के साथ कोई और भी है?’’ मैं ने शक भरे अंदाज में पूछा.

‘‘अरे, तुम्हें कैसे पता चला कि इस समय मेरे साथ कोई और भी है. क्या तुम्हें फोन पर किसी की खुशबू आ गई?’’ डैडी हंसते हुए बोले.

‘‘हां, मैं आप की इकलौती बेटी हूं, इसलिए मुझे आप के बारे में सब पता चल जाता है. बताइए, कौन है आप के साथ?’’

‘‘देखा तुम ने अरुणिमा, मेरी बेटी मेरे बारे मेें हर खबर रखती है.’’

मुझे समझते देर नहीं लगी कि डैडी के साथ कार में बैठी औरत का नाम अरुणिमा है.

‘‘जनाब, यहां आप गलत फरमा रहे हैं,’’ डैडी के मोबाइल से मुझे एक औरत की खनकती आवाज सुनाई दी, ‘‘अब वह आप की नहीं, मेरी भी बेटी है.’’

उस औरत का यह जुमला जहरीले तीर की तरह मेरे सीने में लगा. एकाएक मेरे दिमाग की नसें तनने लगीं और मेरा जी चाहा कि मैं सारी दुनिया को आग लगा दूं.

‘‘शिवानी बेटे, तुम लाइन पर तो हो न?’’ मुझे डैडी का बेफिक्री से भरा स्वर सुनाई दिया.

‘‘हां,’’ मैं बेजान स्वर में बोली, ‘‘डैडी, यह सब क्या हो रहा है? आप के साथ कौन है?’’

‘‘बेटे, मैं तुम्हें घर आ कर सब बताता हूं,’’ इसी के साथ डैडी ने फोन काट दिया और मैं सोचती रह गई कि यह अरुणिमा कौन है? यह डैडी के जीवन में कब और कैसे आ गई?

डैडी और अरुणिमा के बारे में सोचतेसोचते कब मेरी आंख लग गई, मुझे पता ही नहीं चला.

7 बजे शाम को काकी मां ने मुझे उठाया और चिंतित स्वर में बोलीं, ‘‘बेटी शिवानी, क्या बात है? आज तुम ने चाय नहीं पी. तुम्हारी तबीयत तो ठीक है न?’’

‘‘काकी मां, मेरी तबीयत ठीक है. डैडी आ गए?’’ मैं ने पूछा.

‘‘हां, और वह तुम्हें बुला रहे हैं. उन्होंने कहा है कि तुम अच्छी तरह से तैयार हो कर आना,’’ इतना कह      कर काकी मां कमरे से बाहर निकल गईं.

थोड़ी देर बाद मैं ड्राइंगरूम में आई तो मुझे सोफे पर वही औरत बैठी दिखाई दी जिसे आज मैं ने डैडी के साथ उन की कार में देखा था.

‘‘अरु, यह है मेरी बेटी, शिवानी,’’ डैडी उस औरत से मेरा परिचय कराते हुए बोले.

न चाहते हुए भी मेरे हाथ नमस्कार करने की मुद्रा में जुड़ गए.

‘‘जीती रहो,’’ वह खुद ही उठ कर मेरे करीब आ गईं और फिर मेरा चेहरा अपने हाथों में ले कर उन्होंने मेरे माथे पर एक प्यारा चुंबन अंकित कर दिया.

‘‘अगर मेरी कोई बेटी होती तो वह बिलकुल तुम्हारे जैसी होती. सच में तुम बहुत प्यारी हो.’’

‘‘अरु, यह भी तो तुम्हारी बेटी है,’’ डैडी हंसते हुए बोले.

डैडी के ये शब्द पिघले सीसे की तरह मेरे कानों में उतरते चले गए. मेरा जी चाहा कि मैं अपने कमरे में जाऊं और खूब फूटफूट कर रोऊं. आखिर डैडी ने मेरे विश्वास का खून जो किया था.

‘‘बेटी, तुम करती क्या हो?’’  अरुणिमाजी ने मुझे अपने साथ बैठाते हुए पूछा.

उस वक्त मेरी हालत बड़ी अजीब सी थी. जिस औरत से मुझे नफरत करनी चाहिए थी वह औरत मेरे वजूद पर अपने आप छाती जा रही थी.

मैं उन्हें अपनी पढ़ाई के बारे में बताने लगी. हम दोनों के बीच बहुत देर तक बातें हुईं.

‘‘काकी मां, देखो तो कौन आया है?’’ डैडी ने काकी मां को आवाज दी.

‘‘मैं जानती हूं, कौन आया है,’’ काकी मां ने वहां चाय की ट्राली के साथ कदम रखा.

‘‘अरे, काकी मां आप,’’  अरुणिमा उन्हें देखते ही खड़ी हो गईं.

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चाय की ट्राली मेज पर रख कर काकी मां उन की तरफ बढ़ीं. फिर दोनों प्यार से गले मिलीं तो मैं दोनों को उलझन भरी निगाहों से देखने लगी.

अरुणिमा का इस घर से पूर्व में गहरा संबंध था, यह बात तो मैं समझ गई थी, लेकिन कोई सिरा मेरे हाथों में नहीं आ रहा था.

‘‘काकी मां, आप इन्हें जानती हैं?’’ मैं ने हैरत भरे स्वर में काकी मां से पूछा.

काकी मां के बोलने से पहले ही डैडी बोल पड़े, ‘‘बेटी, अरुणिमाजी का इस घर से गहरा संबंध रहा है. हम दोनों एक ही स्कूल और एक ही कालिज में पढ़े हैं.’’

तभी अरुणिमाजी ने डैडी को इशारा किया तो डैडी ने फौरन अपनी बात पलटी और सब को चाय पीने के लिए कहने लगे.

अब मेरी समझ में कुछकुछ आने लगा था कि मम्मीडैडी के बीच ऐसा क्या था जो वे एकदूसरे से बात करना तो दूर, देखना तक पसंद नहीं करते थे. निसंदेह डैडी शादी से पहले इसी अरुणिमाजी से प्यार करते थे.

चाय पीने के दौरान मैं ने अरुणिमाजी से काफी बातें कीं. वह बहुत जहीन थीं. वह हर विषय पर खुल कर बोल सकती थीं. उन की नालेज को देख कर मेरी उन के प्रति कुछ देर पहले जमी नफरत की बर्फ तेजी से पिघलने लगी.

उन की बातों से मुझे यह भी पता चला कि वह एक प्रोफेसर थीं. कुछ साल पहले उन के पति का देहांत हो गया था. उन का अपना कहने को इकलौता बेटा नितिन था, जो बिजनेस के सिलसिले में कुछ दिनों के लिए लंदन गया हुआ था.

रात का डिनर करने के बाद जब अरुणिमा गईं तो मैं अपने कमरे में आ गई. मैं ने कहीं पढ़ा था कि कुछ औरतों की भृकुटियों में संसार भर की राजनीति की लिपि होती है, जब उन की पलकें झुक जाती हैं तो न जाने कितने सिंहासन उठ जाते हैं और जब उन की पलकें उठती हैं तो न जाने कितने राजवंश गौरव से गिर जाते हैं.

अरुणिमाजी भी शायद उन्हीं औरतों में एक थीं, तभी डैडी ने दूसरी शादी न करने की जो कसम खाई थी, उसे आज वह तोड़ने के लिए हरगिज तैयार नहीं होते. मैं बिलकुल नहीं चाहती कि इस उम्र में डैडी अरुणिमाजी से शादी कर के दीनदुनिया की नजरों में उपहास का पात्र बनें.

सुबह टेलीफोन की घंटी से मेरी आंख खुली. मैं ने फोन उठाया तो मुझे अरुणिमाजी की मधुर आवाज सुनाई दी. ‘‘स्वीट बेबी, मैं ने तुम्हें डिस्टर्ब तो नहीं किया?’’

‘‘नहीं, आंटीजी,’’ मैं जरा संभल कर बोली, ‘‘आज मेरे कालिज की छुट्टी थी, इसलिए मैं देर तक सोने का मजा लेना चाह रही थी.’’

‘‘इस का मतलब मैं ने तुम्हारी नींद में खलल डाला. सौरी, बेटे.’’

‘‘नहीं, आंटीजी, ऐसी कोई बात नहीं है. कहिए, कैसे याद किया?’’

‘‘आज तुम्हारी छुट्टी है. तुम मेरे घर आ जाओ. हम खूब बातें करेंगे. सच कहूं तो बेटे, कल तुम से बात कर के बहुत अच्छा लगा था.’’

‘‘लेकिन आंटी, डैडी की इजाजत के बिना…’’ मैं ने अपना वाक्य जानबूझ कर अधूरा छोड़ दिया.

‘‘तुम्हारे डैडी से मैं बात कर लूंगी,’’ वह बडे़ हक से बोली, ‘‘वह मना नहीं करेंगे.’’

उस पल जेहन में एक ही सवाल परेशान कर रहा था कि जिस से मुझे बेहद नफरत होनी चाहिए, मैं धीरेधीरे उस के करीब क्यों होती जा रही हूं?

1 घंटे बाद मैं अरुणिमाजी के सामने थी. उन्होंने पहले तो मुझे गले लगाया, फिर बड़े प्यार से सोफे पर बैठाया. इस के बाद वह मेरे लिए नाश्ता बना कर लाईं. नाश्ते के दौरान मैं ने उन से पूछा, ‘‘आंटी, मेरी समझ में नहीं आ रहा है कि आप से मिले हुए मुझे अभी सिर्फ 1 दिन हुआ है. सच कहूं तो मैं कल से सिर्फ आप के बारे में ही सोचे जा रही हूं. अगर आप मुझे पहले मिल जातीं तो कितना अच्छा होता,’’ यह कह कर मैं उन के घर को देखने लगी.

उन का सलीका और हुनर ड्राइंग रूम से बैडरूम तक हर जगह दिखाई दे रहा था. हर चीज करीने से रखी हुई थी. उन का घर इतना साफसुथरा और खूबसूरत था कि वह मुझे मुहब्बतों का आईना जान पड़ा.

उन के सलीके और हुनर को देख कर मेरे दिल में एक हूक सी उठ रही थी. मैं सोच रही थी कि काश, उन के जैसी मेरी मां होतीं. तभी मेरी आंखों के सामने मेरी मम्मी का चेहरा घूम गया. मेरी मम्मी एक मगरूर औरत थीं, उन्होंने अपनी जिंदगी का ज्यादातर वक्त डैडी से लड़ते हुए बिताया था.

मेरी मम्मी ने बेशक मेरे डैडी के शरीर पर कब्जा कर लिया था, लेकिन वह उन के दिल में जगह नहीं बना पाई थीं, जोकि एक स्त्री अपने पति के दिल में बनाती है.

अब अरुणिमाजी की जिंदगी एक खुली किताब की तरह मेरे सामने आ गई थी. उन के दिल के किसी कोने में मेरे डैडी के लिए जगह जरूर थी. लेकिन उन्होंने डैडी से शादी क्यों नहीं की थी, यह बात मेरी समझ से बाहर थी.

शाम होते ही डैडी मुझे लेने आ गए. रास्ते में मैं ने उन से पूछा, ‘‘डैडी, अगर आप बुरा न मानें तो मैं आप से एक बात पूछ सकती हूं?’’

डैडी ने बड़ी हैरानी से मुझे देखा, फिर आहत भाव से बोले, ‘‘बेटे, मैं ने आज तक  तुम्हारी किसी बात का बुरा माना है, जो आज तुम ऐसी बात कह रही हो. तुम जो पूछना चाहती हो पूछ सकती हो. मैं तुम्हारी किसी बात का बुरा नहीं मानूंगा.’’

‘‘आप अरुणिमाजी से प्यार करते हैं न?’’ मैं ने बिना किसी भूमिका के कहा.

डैडी पहले काफी देर तक चुप रहे फिर एक गहरी सांस छोड़ते हुए बोले, ‘‘यह सच है कि एक वक्त था जब हम दोनों एकदूसरे को हद से ज्यादा चाहते थे और हमेशा के लिए एकदूसरे का होने का फैसला कर चुके थे.’’

‘‘ऐसी बात थी तो आप ने एकदूसरे से शादी क्यों नहीं की?’’

‘‘क्योंकि तुम्हारे दादा ने मुझे अरुणिमा से शादी करने से मना किया था. तब मैं ने अपने मांबाप की मर्जी के बिना घर से भाग कर अरुणिमा से शादी करने का फैसला किया, लेकिन उस वक्त अरुणिमा ने मेरा साथ नहीं दिया था. तब उस का यही कहना था कि हमारे मांबाप के हम पर बहुत एहसान हैं, हमें उन के एहसानों का सिला उन के अरमानों का खून कर के नहीं देना चाहिए. उन की खुशियों के लिए हमें अपने प्यार का बलिदान करना पडे़गा.

‘‘मैं ने तब अरुणिमा को काफी समझाया, लेकिन वह नहीं मानी. इसलिए हमें एकदूसरे की जिंदगी से दूर जाना पड़ा. कुछ दिन पहले वह मुझे एक पार्टी में नहीं मिलती तो मैं उसे तुम्हारी मम्मी कभी नहीं बना पाता. आज की तारीख में उस का एक ही लड़का है, जिसे अरुणिमा के तुम्हारी मम्मी बनने से कोई एतराज नहीं है.’’

‘‘लेकिन डैडी, मुझे एतराज है,’’ मैं कड़े स्वर में बोली.

‘‘क्यों?’’ डैडी की भवें तन उठीं.

‘‘क्योंकि मैं नहीं चाहती कि आप की जगहंसाई हो.’’

‘‘मुझे किसी की परवा नहीं है,’’ डैडी सख्ती से बोले, ‘‘तुम्हें मेरा कहा मानना ही होगा. तुम अपने को दिमागी तौर पर तैयार कर लो. कुछ ही दिनों में वह तुम्हारी मम्मी बनने जा रही है.’’

उस वक्त मुझे अपने डैडी एक इनसान न लग कर एक हैवान लगे थे, जो दूसरों की इच्छाओं को अपने नुकीले नाखूनों से नोंचनोंच कर तारतार कर देता है.

2 दिन पहले ही अरुणिमाजी का इकलौता बेटा नितिन लंदन से वापस लौटा तो उन्होंने उस से सब से पहले मुझे मिलाया. नितिन के बारे में मैं केवल इतना ही कहूंगी कि वह मेरे सपनों का राजकुमार है. मैं ने अपने जीवन साथी की जो कल्पना की थी वह हूबहू नितिन जैसा ही था.

कितनी अजीब बात है, जिस बाप को शादी की उम्र की दहलीज पर खड़ी अपनी औलाद के हाथ पीले करने के बारे में सोचना चाहिए वह बाप अपने स्वार्थ के लिए अपनी औलाद की खुशियों का खून कर के अपने सिर पर सेहरा बांधने की सोच रहा है.

आज अरुणिमाजी खरीदारी के लिए मुझे अपने साथ ले गई थीं. मैं उन के साथ नहीं जाना चाहती थी, लेकिन डैडी के कहने पर मुझे उन के साथ जाना पड़ा. शौपिंग के दौरान जब अरुणिमाजी ने एक नई नवेली दुलहन के कपड़े और जेवर खरीदे, तो मुझे उन से भी नफरत होने लगी थी.

मैं ने मन ही मन निश्चय कर अपनी डायरी में लिख दिया कि जिस दिन डैडी अपने माथे पर सेहरा बांधेंगे, उसी दिन इस घर से मेरी अर्थी उठेगी.

आज मुझे अपने नसीब पर रोना आ रहा है और हंसना भी. रोना इस बात पर आ रहा है कि जो मैं ने सोचा था वह हुआ नहीं और जो मैं ने नहीं सोचा था वह हो गया.

यह बात मुझे पता चल गई थी कि डैडी को अरुणिमा आंटी को मेरी मां बनाने का फैसला आगे आने वाले दिन 28 नवंबर को करना था और यह विवाह बहुत सादगी से गिनेचुने लोगों के बीच ही होना था.

28 नवंबर को सुबह होते ही मैं ने खुदकुशी करने की पूरी तैयारी कर ली थी. मैं ने सोच लिया था कि डैडी जैसे ही अरुणिमा आंटी के साथ सात फेरे लेंगे, वैसे ही मैं अपने कमरे में आ कर पंखे से लटक कर फांसी लगा लूंगी.

दोपहर को जब मैं अपने कमरे में मायूस बैठी थी तभी काकी मां ने कुछ सामान के साथ वहां कदम रखा और धीमे स्वर में बोलीं, ‘‘ये कपड़े तुम्हारे डैडी की पसंद के हैं, जोकि उन्होंने अरुणिमा बेटी से खरीदवाए थे. उन्होंने कहा है कि तुम जल्दी से ये कपड़े पहन कर नीचे आ जाओ.’’

मैं काकी मां से कुछ पूछ पाती उस से पहले वह कमरे से बाहर निकल गईं और कुछ लड़कियां मेरे कमरे में आ कर मुझे संवारने लगीं.

थोड़ी देर बाद मैं ने ड्राइंगरूम में कदम रखा तो वहां काफी मेहमान बैठे थे. मेहमानों की गहमागहमी देख कर मेरी समझ में कुछ नहीं आया.

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मैं सोफे पर बैठी ही थी कि वहां अरुणिमाजी आ गईं. उन के साथ नितिन नहीं आया था.

‘‘शिशिर, हमें इजाजत है?’’ उन्होंने डैडी से पूछा.

‘‘हां, हां, क्यों नहीं, यह रही तुम्हारी अमानत. इसे संभाल कर रखिएगा,’’  डैडी भावुक स्वर में बोले.

तभी वहां नितिन ने कदम रखा, जो दूल्हा बना हुआ था. मेरा सिर घूम गया. मैं ने उलझन भरी निगाहों से डैडी की तरफ देखा तो वह मेरे करीब आ कर बोले, ‘‘मैं ने तुम से कहा था न कि मैं अरुणिमा आंटी को तुम्हारी मम्मी बनाऊंगा. आज से अरुणिमा आंटी तुम्हारी मम्मी हैं. इन्हें हमेशा खुश रखना.’’ एकाएक मेरी रुलाई फूट पड़ी. मैं डैडी के गले लग गई और फूटफूट कर रोने लगी. इस के बाद पवित्र अग्नि के सात फेरे ले कर मैं नितिन की हमसफर और अरुणिमाजी की बेटी बन गई.

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Valentine’s Special: अनाम रिश्ता- कैसा था नेहा और अनिरुद्ध का रिश्ता

आज मेरे लिए बहुत ही खुशी का दिन है क्योंकि विश्वविद्यालय ने 15 वर्षों तक निस्वार्थ और लगनपूर्वक की गई मेरी सेवा के परिणामस्वरूप मुझे कालेज का प्रिंसिपल बनाने का निर्णय लिया था. आज शाम को ही पदग्रहण समारोह होने वाला है. परंतु न जाने क्यों रहरह कर मेरा मन बहुत ही उद्विग्न हो रहा है. ‘अभी तो सिर्फ 9 बजे हैं और ड्राइवर 2 बजे तक आएगा. तब तक मैं क्या करूं…’ मैं मन ही मन बुदबुदाई और रसोई की ओर चल दी. सोचा कौफी पी लूं, क्या पता तब मन को कुछ राहत मिले.

कौफी का मग हाथ में ले कर जैसे ही मैं सोफे पर बैठी, हमेशा की तरह मुझे कुछ पढ़ने की तलब हुई. मेज पर कई पत्रिकाएं रखी हुई थीं. लेकिन मेरा मन तो आज कुछ और ही पढ़ना चाह रहा था. मैं ने यंत्रवत उठ कर अपनी किताबों की अलमारी खोली और वह किताब निकाली जिसे मैं अनगिनत बार पढ़ चुकी हूं.

जब भी मैं इस किताब को हाथ में लेती हूं, एक अलग ही एहसास होता है मुझे, मन को अपार सुख व शांति मिलती है. ‘आप मेरी जिंदगी में गुजरे हुए वक्त की तरह हैं सर, जो कभी लौट कर नहीं आ सकता. लेकिन मेरी हर सांस के साथ आप का एहसास डूबताउतरता रहता है,’ अनायास ही मेरे मुंह से अल्फाज निकल पड़े और मैं डूबने लगी 30 वर्ष पीछे अतीत की गहराइयों में जब मैं परिस्थितियों की मारी एक मजबूर लड़की थी, जो अपने साए तक से डरती थी कि कहीं मेरा यह साया किसी को बरबाद न कर दे.

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जन्म लेते ही मां को खा जाने वाला इलजाम मेरे माथे पर लेबल की तरह चिपका दिया गया था. पिताजी ने भी कभी मुझे अपनी बेटी नहीं माना. उन्होंने तो कभी मुझ से परायों जैसा भी बरताव नहीं किया. मुझे इंसान नहीं, एक बोझ समझा. मैं अपने पिताजी के साथ अकेली ही इस घर में रहती थी, क्योंकि मुझे पालने वाले चाचाचाची इस दुनिया से चले गए थे. और मैं तो अभी 8वीं में पढ़ने वाली 13 साल की बच्ची थी. फिर भला मैं कहां जाती. मैं घर में पिताजी के साथ एक अनचाहे मेहमान की तरह रहती थी, लेकिन घर के नौकरचाकर मुझ से बहुत प्यार करते थे.

जन्म से ले कर आज तक कभी भी मैं ने मां और पापा शब्द नहीं पुकारा है. मुझे तो यह भी नहीं मालूम कि इन रिश्तों को नाम ले कर बुलाने से कैसा महसूस होता है. पिताजी की सख्त हिदायत थी कि जब तक वे घर में रहें, तब तक मैं उन के सामने न जाऊं. इसलिए जितनी देर पिताजी घर में रहते, मैं पीछे बालकनी में जा कर नौकरों से बातें करती थी.

बालकनी से ही मैं ने उन्हें पहली बार देखा था. सामने वाले मकान में किराएदार के रूप में आए थे वे. पहले मैं नहीं जानती थी कि वे कौन हैं, क्या करते हैं? लेकिन जब भी मैं बालकनी में खड़ी होती तो उन की दैनिक गतिविधियों को निहारने में मुझे अद्भुत आनंद आता था. उम्र में तो वे मेरे पिताजी के ही बराबर थे लेकिन उन का आकर्षक व्यक्तित्व किसी को भी आकर्षित कर सकता था.

मैं अकसर उन्हें पढ़ते हुए देखती थी. कभीकभार खाना बनाते या कपड़े धोते हुए देखा करती थी. कई बार उन की नजर भी मुझ पर पड़ जाती थी. मैं अकसर उन के बारे में सोचती थी, परंतु पास जा कर कुछ पूछने की हिम्मत नहीं होती थी.

एक दिन जब मैं स्कूल से लौटी तो उन्हें बैठक में पिताजी के साथ चाय पीते देख कर चकित रह गई. मैं कुछ देर वहां खड़ी रहना चाहती थी, लेकिन पिताजी का इशारा समझ कर तुरंत अंदर चली गई और छिप कर बातें सुनने लगी. उस दिन पहली बार मुझे पता चला कि उन का नाम अनिरुद्ध है. नहीं…नहीं, अनिरुद्ध सर क्योंकि वे वहां के महिला महाविद्यालय में हिंदी के लैक्चरर थे.

कालेज के ट्रस्टी होने के नाते पिताजी और अनिरुद्ध सर की दोस्ती बढ़ती गई. और साथ ही मैं भी उन के करीब होती गई. स्कूल से आते वक्त कभीकभी मैं उन के घर भी चली जाया करती थी. वे बेहद हंसमुख स्वभाव के थे. जब भी मैं उन से मिलती, उन के चेहरे पर खुशी और ताजगी दिखती थी. वे मुझ से केवल मेरे स्कूल और मेरी सहेलियों के बारे में ही पूछा करते थे.

मेरी पढ़ाई का उन्हें विशेष खयाल रहता था, जबकि उतनी फिक्र तो शायद मुझे भी नहीं थी. मैं तो केवल पढ़ाई नाम की घंटी गले में बांधे घूम रही थी.

मैं ने तो सर से मिलने के बाद ही जाना कि ये किताबें किस हद तक मंजिल तक पहुंचने में मददगार सिद्ध होती हैं. सर कहा करते थे कि ये किताबें इंसान की सच्ची दोस्त होती हैं जो कभी विश्वासघात नहीं करतीं और न ही कभी गलत दिशा दिखलाती हैं.

ये हमेशा खुशियां बांटती हैं और दुखों में हौसलाअफजाई का काम करती हैं. उसी दौरान मुझे यह भी पता चला कि वे एक अच्छे लेखक भी हैं. इन दिनों वे एक नई किताब लिख रहे थे जिस का शीर्षक था ‘निहारिका.’ जब मैं ने 9वीं कक्षा पास कर ली तब उन्होंने एक दिन मुझ से कहा कि उन की ‘निहारिका’ आज पूरी हो गई है, और वे चाहते हैं कि मैं उसे पढूं.

तब मैं साहित्य शब्द का अर्थ भी नहीं जानती थी. कोर्स की किताबों के अलावा अन्य किताबों से मेरा न तो कोई परिचय था और न ही रुचि. लेकिन ‘निहारिका’ को मैं पढ़ना चाहती थी क्योंकि उसे सर ने लिखा था और उन की इच्छा थी कि मैं उसे पढ़ूं. और सर की खुशी के लिए मैं कुछ भी कर सकती थी. जब मैं ने ‘निहारिका’ पढ़नी शुरू की तो उस के शब्दों में मैं डूबती चली गई. उस के हर पन्ने पर मुझे अपना चेहरा झांकता नजर आ रहा था. ऐसा लगता था जैसे सर ने मुझे ही लक्ष्य कर, यह कहानी मेरे लिए लिखी है, क्योंकि अंत में सर के हाथों मेरे नाम से लिखी वह चिट इस बात की प्रमाण थी.

‘प्रिय नेहा, ‘मैं जानता हूं कि तुम्हारे अंदर किसी भी कार्य को करगुजरने की अनोखी क्षमता है, लेकिन जरूरत है उसे तलाश कर उस का सही इस्तेमाल करने की. मेरी कहानी की नायिका निहारिका ने भी यही किया है. तमाम कष्टों को झेलते हुए भी उस ने अपने डरावने अतीत को पीछे छोड़ कर उज्ज्वल भविष्य को अपनाया है, तभी वह अपनी मंजिल पाने में कामयाब हो सकी है. मैं चाहता हूं कि तुम भी निहारिका की तरह बनो ताकि इस किताब को पढ़ने वालों को यह विश्वास हो जाए कि ऐसा असल जिंदगी में भी हो सकता है.

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‘तुम्हारा, अनिरुद्ध सर.’ इस चिट को पढ़ने के साथ ही इस के हरेक शब्द को मैं ने जेहन में उतार लिया और फिर शुरू हो गया नेहा से निहारिका बनने तक का कभी न रुकने वाला सफर. जिस में सर ने एक सच्चे गुरु की तरह कदमकदम पर मेरा मार्गदर्शन किया. 10वीं का पंजीकरण कराते समय ही मैं ने अपना नाम बदल कर नेहा भाटिया की जगह नेहा निहारिका कर लिया.

स्कूल तथा कालेज की पढ़ाई समाप्त करने के बाद मैं ने पीएचडी भी कर ली. मेरी 10 वर्षों की मेहनत रंग लाई और मुझे अपने ही शहर के राजकीय उच्च विद्यालय में शिक्षिका के रूप में नियुक्ति मिल गई.

उस दिन जब मैं अपना नियुक्तिपत्र ले कर सर के पास गई तो उन की खुशी का ठिकाना न रहा. तब उन्होंने कहा था, ‘नेहा, अपनी इस सफलता को तुम मंजिल मत समझना, क्योंकि यह तो मंजिल तक पहुंचने की तुम्हारी पहली सीढ़ी है. मंजिल तो बहुत दूर है जो अथक परिश्रम से ही प्राप्त होगी.’ उधर, पिताजी को मेरा नौकरी करना बिलकुल रास नहीं आ रहा था.

परंतु न जाने क्यों वे खुले शब्दों में मेरा विरोध नहीं कर रहे थे. इसलिए उन्होंने मेरी शादी करने का फैसला किया ताकि वे नेहा नाम की इस मुसीबत से छुटकारा पा सकें. बचपन से ही आदत थी पिताजी के फैसले पर सिर झुका कर हामी भरने की, सो, मैं ने शादी के लिए हां कर दी.

अगले ही दिन पिताजी के मित्र के सुपुत्र निमेष मुझे देखने आए. साथ में उन के मातापिता और 2 छोटी बहनें भी थीं. जैसे ही मैं बैठक में पहुंची, पिताजी ने मेरी बेटी नेहा कह कर मेरा परिचय दिया. पहली बार पिताजी के मुंह से अपने लिए बेटी शब्द सुना और तब मुझे शादी करने के अपने फैसले पर खुशी महसूस हुई. मगर यह खुशी ज्यादा देर तक न रह सकी.

निमेष और उन के परिवार वालों ने मुझे पसंद तो कर लिया, लेकिन कुछ ऐसी शर्तें भी रख दीं जिन्हें मानना मेरे लिए मुमकिन नहीं था.

निमेष की मां ने स्पष्ट रूप से कह दिया कि मुझे शादी के बाद नौकरी छोड़नी होगी और उन के परिवार के सदस्यों की तरह शाकाहारी बनना होगा. एक पारंपरिक गृहिणी के नाम पर शोपीस बन कर रहना मुझे गवारा नहीं था. मैं तो अपने सर के बताए रास्ते पर चलना चाहती थी और उन के सपनों को पूरा करना चाहती थी, जो अब मेरे भी सपने बन चुके थे.

सब के सामने तो मैं चुप रही परंतु शाम को हिम्मत कर के पिताजी से अपने मन की बात कह दी. यह सुन कर पिताजी आगबबूला हो गए. उस दिन मैं ने पहली बार बहुत कड़े शब्दों में उन का विरोध किया, जिस के एवज में उन्होंने मुझे सैकड़ों गालियां दीं व कई थप्पड़ मारे. फिर तो मैं लोकलाज की परवा किए बिना ही सर के पास चली गई. सर ने जैसे ही दरवाजा खोला, मैं उन से लिपट कर फफक पड़ी. इतनी रात को मेरी ऐसी हालत देख कर सर भी परेशान हो गए थे, लेकिन उन्होंने पूछा कुछ नहीं. फिर मैं ने उन के पूछने से पहले ही अपनी सारी रामकहानी उन्हें सुना डाली.

इतना कुछ होने के बाद भी सर ने मुझे पिताजी के पास ही जाने को कहा, लेकिन मैं टस से मस नहीं हुई. तब सर ने समझाना शुरू किया.

वे समझाते रहे और मैं सिर झुकाए रोती रही. उन की दुनिया व समाज को दुहाई देने वाली बातें मेरी समझ के परे थीं. फिर भी, अंत में मैं ने कहा कि यदि पिताजी मुझे लेने आएंगे तो मैं जरूर चली जाऊंगी, लेकिन वे नहीं आए. दूसरे दिन उन का फोन आया था.

मुझे ले जाने के लिए नहीं, बल्कि सर के लिए धमकीभरा फोन…यदि सर ने कल तक मुझे पिताजी के घर पर नहीं छोड़ा तो वे पुलिस थाने में रिपोर्ट कर देंगे कि अनिरुद्ध सर ने मेरा अपहरण कर लिया है. इतना सबकुछ जानने के बाद मैं सर की और अधिक परेशानी का कारण नहीं बनना चाहती थी, इसलिए सर के ही कहने पर मैं अपनी सहेली निशा के घर चली गई. पूरा एक सप्ताह बीत चुका था. मेरे

पिताजी को पता चल चुका था कि मैं निशा के घर पर हूं. फिर भी वे मुझे लेने नहीं आए. लेकिन मुझे कोई चिंता नहीं थी. मैं तो बस इसलिए परेशान थी कि इतने सालों बाद मैं पहली बार सर से इतने दिनों के लिए दूर हुई थी. इसलिए मुझे घबराहट होने लगी थी, जिस के निवारण के लिए मैं सर के कालेज चली गई. वहां मैं ने जो कुछ भी सुना वह मेरे लिए अकल्पनीय व असहनीय था. सर ने अपना स्थानांतरण दूसरे शहर में करवा लिया था और दूसरे दिन जा रहे थे.

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फिर तो मैं शिष्या होने की हर सीमा को लांघ गई और सर को वह सबकुछ कह दिया जिसे मैं ने आज तक केवल महसूस किया था. अपने प्रति सर के लगाव को प्यार का नाम दे दिया मैं ने. और सर…एक निष्ठुर की भांति मेरी हर बात को चुपचाप सुनते रहे. अंत में बस इतना कहा, ‘नेहा, आज तक तुम ने मुझे गलत समझा है. मेरे गुरुत्व का, मेरी शिक्षा का अपमान किया है तुम ने.’ ‘नहीं सर, मैं ने आप का अपमान नहीं किया है. मैं ने तो केवल वही कहा है जो अब तक महसूस किया है.

मैं ने सिर्फ प्यार ही नहीं, बल्कि हर रिश्ते का अर्थ आप से ही सीखा है. आप ने एक पिता की तरह मेरे सिर पर हाथ रख कर मुझे स्नेहसिक्त कर दिया, एक प्रेमी की तरह सदैव मुझे खुश रखा, एक भाई की तरह मेरी रक्षा की, एक दोस्त और शिक्षक की तरह मेरा मार्गदर्शन किया. यहां तक कि आप ने एक पति की तरह मेरे आत्मसम्मान की रक्षा भी की है. सच तो यह है सर, मन से तो मैं हर रिश्ता आप के साथ जोड़ चुकी हूं. इस के लिए तो मुझे किसी से भी पूछने की कोई आवश्यकता नहीं है.’

‘नेहा, मेरा अपना एक अलग परिवार है और मैं अपने परिवार के साथ विश्वासघात नहीं कर सकता. साथ ही, गुरु और शिष्य के इस पवित्र रिश्ते को भी कलंकित नहीं कर सकता.’ सर की आंखों में समाज का डर सहज ही झलक रहा था. ‘मैं जानती हूं सर, और मैं कभी ऐसा चाह भी नहीं सकती.

मैं ने आप से प्यार किया है. आप के अस्तित्व को चाहा है, सर. इसलिए मैं आप को अपनी नजरों में कभी गिरने नहीं दूंगी. मैं ने तो बस अपनी भावनाएं आप के साथ बांटी हैं. आप जहां चाहे जाइए, मुझे आप से कोई शिकायत नहीं. बस, कामना कीजिए कि मैं आप की दी हुई शिक्षा का अनुसरण कर सकूं.’

‘मेरी शुभकामनाएं तो हमेशा तुम्हारे साथ हैं नेहा, पर क्या जातेजाते मेरी गुरुदक्षिणा नहीं दोगी?’ सर ने रहस्यात्मक लहजे में कहा तो मैं दुविधा में पड़ गई.

मुझे असमंजस में पड़ा देख कर सर बोले, ‘मैं तो, बस इतना चाहता हूं नेहा कि मेरे जाने के बाद तुम न तो मुझे ढूंढ़ने की कोशिश करना और न ही मुझ से संपर्क स्थापित करने का कोई प्रयास करना. हो सके तो मुझे भूल जाना. यही तुम्हारे भविष्य के लिए उचित रहेगा.’

इतना कह कर उन्होंने अपनी पीठ मेरी तरफ कर ली. कुछ पलों के लिए मैं सन्न रह गई. समझ में नहीं आ रहा था कि इतनी कीमती चीज मैं उन को कैसे दे दूं? फिर भी मैं ने साहस किया और बस इतना ही कह पाई, ‘सर, क्या आप अपनी ‘निहारिका’ को भूल पाएंगे? यदि आप ने इस का जवाब पा लिया तो आप को अपनी गुरुदक्षिणा अपनेआप ही मिल जाएगी.’

उस दिन मैं ने आखिरी बार अनिरुद्ध सर को आह भर के देखा. उन की शुभकामना ली तो? सर के मुंह से बस इतना ही निकला, ‘हमेशा खुश रहो.’ शायद इसीलिए मैं किसी भी परिस्थिति में दुखी नहीं हो पाती हूं. जिंदगी के हर सुखदुख को हंसते हुए झेलना मेरी आदत बन गई है.

मैं ने सर की आधी बात तो मान ली और उन से कभी भी संपर्क करने की कोशिश नहीं की मगर उन्हें भूल जाने वाली बात मैं नहीं मान सकी, क्योंकि मैं गुरुऋ ण से उऋ ण नहीं होना चाहती थी.

सर के चले जाने के बाद मैं ने आजीवन अविवाहित रह कर शिक्षा के क्षेत्र में अपना जीवन समर्पित करने का फैसला कर लिया. न चाहते हुए भी पिताजी को मेरी जिद के आगे झुकना पड़ा.

इसी बीच, लगातार बजते मोबाइल की रिंगटोन को सुन कर मेरी तंद्रा भंग हुई, और मैं अतीत से वर्तमान के धरातल पर आ गई. पिताजी का फोन था, ‘‘आखिर तुम ने अपनी जिद पूरी कर ही ली. खैर, बधाई स्वीकार करो. मुझे अफसोस है कि मैं शहर से बाहर हूं और समारोह में नहीं आ सकता. आगे यही कामना है कि तुम और तरक्की करो.’’ पिताजी ने ये सबकुछ बहुत ही रूखी जबान से कहा था. फिर भी, मुझे अच्छा लगा कि पिताजी ने मुझे फोन किया. काश, एक बार सर का भी फोन आ जाता…

बदलाव: भाग 2

‘दरअसल, उसे किसी अमीर औरत से प्यार हो गया था. वह उसी के साथ रहने चला गया था,’ 3 दोस्तों में से एक दोस्त ने बताया. उर्मिला को लगा, जैसे उस के दिल की धड़कन बंद हो जाएगी और वह मर जाएगी. उस के हाथपैर सुन्न हो गए थे, मगर जल्दी ही उस ने अपनेआप को काबू में कर लिया.

उर्मिला ने पूछा, ‘वह औरत कहां रहती है?’

तीनों में से एक ने कहा, ‘यह हम तीनों में से किसी को पता नहीं है. सिर्फ गणपत को पता है. उस औरत के बारे में हम लोगों ने उस से बहुत पूछा था, मगर उस ने बताया नहीं था. ‘उस का कहना था कि उस ने राधेश्याम से वादा किया है कि उस की प्रेमिका के बारे में वह किसी को कुछ नहीं बताएगा.’

‘गणपत कौन…’ उर्मिला ने पूछा.

‘वह हम लोगों के साथ ही रहता है. अभी वह गांव गया हुआ है. वह एक महीने बाद आएगा. आप पूछ कर देखिएगा. शायद, वह आप को बता दे.’

‘मगर, तब तक मैं रहूंगी कहां?’

‘चाहें तो आप इसी कमरे में रह सकती हैं. रात में हम लोग इधरउधर सो लेंगे.’ मगर उर्मिला उन लोगों के साथ रहने को तैयार नहीं हुई. उसे पति की बात याद आ गई थी. गांव से विदा लेते समय राधेश्याम ने उस से कहा था, ‘मैं तुम्हें ले जा कर अपने साथ रख सकता था, मगर दोस्तों पर भरोसा करना ठीक नहीं है.

‘वैसे तो वे बहुत अच्छे हैं. मगर कब उन की नीयत बदल जाए और तुम्हारी इज्जत पर दाग लगा दें, इस की कोई गारंटी नहीं है.’ उर्मिला अपने भाई रतन के साथ बड़ा बाजार की एक धर्मशाला में चली गई. धर्मशाला में उसे सिर्फ 3 दिन रहने दिया गया. चौथे दिन वहां से उसे जाने के लिए कह दिया गया, तो मजबूर हो कर उसे धर्मशाला छोड़नी पड़ी.

अब उर्मिला अपने भाई रतन के साथ गंगा किनारे बैठी थी कि अचानक उस के पास एक 40 साला शख्स आया. पहले उस ने उर्मिला को ध्यान से देखा, उस के बाद कहा, ‘‘लगता है कि तुम यहां पर नई हो. कहीं और से आई हो. काफी चिंता में भी हो. कोई परेशानी हो, तो बताओ. मैं मदद करूंगा…’’

वह शख्स उर्मिला को हमदर्द लगा. उस ने बता दिया कि वह कहां से और क्यों आई है.

वह शख्स उस के पास बैठ गया. अपनापन जताते हुए उस ने कहा, ‘‘मेरा नाम अवधेश सिंह है. मेरा घर पास ही में है. जब तक तुम्हारा पति मिल नहीं जाता, तब तक तुम मेरे घर में रह सकती हो. तुम्हें कोई परेशानी नहीं होगी.

‘‘मेरी जानपहचान बहुतों से है. तुम्हारे पति को मैं बहुत जल्दी ढूंढ़ निकालूंगा. जरूरत पड़ने पर पुलिस की मदद भी लूंगा.’’ कुछ सोचते हुए उर्मिला ने कहा, ‘‘अपने घर ले जा कर मेरे साथ कुछ गलत हरकत तो नहीं करेंगे?’’

‘‘तुम पति की तलाश करना चाहती हो, तो तुम्हें मुझ पर यकीन करना ही होगा.’’

‘‘आप के घर में कौनकौन हैं?’’

‘‘यहां मैं अकेला रहता हूं. मेरा बेटा और परिवार गांव में रहता है. मेरी पत्नी नहीं है. उस की मौत हो चुकी है.’’

‘‘तब तो मैं हरगिज आप के घर नहीं रह सकती. अकेले में आप मेरे साथ कुछ भी कर सकते हैं.’’ अवधेश सिंह ने उर्मिला को हर तरह से समझाया. उसे अपनी शराफत का यकीन दिलाया. आखिरकार उर्मिला अपने भाई रतन के साथ अवधेश सिंह के घर पर इस शर्त पर आ गई कि वह उस के घर का सारा काम कर दिया करेगी. उस का खाना भी बना दिया करेगी.

अवधेश सिंह के फ्लैट में 2 कमरे थे. एक कमरा उस ने उर्मिला को दे दिया. शुरू में उर्मिला अवधेश सिंह को निहायत ही शरीफ समझती थी, मगर 10 दिन होतेहोते उस का असली रंग सामने आ गया. अवधेश सिंह अकसर किसी न किसी बहाने से उस के पास आ जाता था. यहां तक कि जब वह रसोईघर में खाना बना रही होती, तो वह उस के करीब आ कर चुपके से उस का अंग छू देता था. कभीकभी तो उस की कमर को भी छू लेता था.

उर्मिला को यह समझते देर नहीं लगी कि उस का मन बेईमान है. वह उस का जिस्म पाना चाहता है.

एक बार उर्मिला का मन हुआ कि वह उस का घर छोड़ कर कहीं और चली जाए, मगर इस विचार को उस ने यह सोच कर तुरंत दिमाग से हटा दिया कि वह जाएगी तो कहां जाएगी? क्या पता दूसरी जगह कोई उस से भी घटिया इनसान मिल जाए.

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गणपत के गांव से लौट आने तक उर्मिला को कोलकाता में रहना ही था. उस ने मीठीमीठी रोमांटिक बातों से अवधेश सिंह को उलझा कर रखने का फैसला किया. एक दिन उर्मिला रसोईघर में काम कर रही थी, अचानक वह वहां आ गया. उसी समय किसी चीज के लिए उर्मिला झुकी, तो ब्लाउज के कैद से उस के उभारों का कुछ भाग दिखाई पड़ गया.

फिर तो अवधेश सिंह अपनेआप को काबू में न रख सका. झट से उस ने कह दिया, ‘‘मैं तुम्हें प्यार करने लगा हूं. तुम मेरी बन जाओ.’’

सही मौका देख कर उर्मिला ने अवधेश सिंह पर अपनी बातों का जादू चलाने का निश्चय कर लिया.

उर्मिला ने भी झट से कहा, ‘‘मैं भी अपना दिल आप को दे चुकी हूं.’’

अवधेश सिंह खुशी से झूम उठा. उस का हाथ पकड़ कर कहा, ‘‘सच कह रही हो तुम?’’

‘‘आप तो अच्छे आदमी नहीं हैं. मैं तो आप को शरीफ समझ कर अपना दिल दे बैठी थी, मगर आप ने तो मेरा हाथ पकड़ लिया.’’

अवधेश सिंह ने तुरंत हाथ छोड़ कर कहा, ‘‘तो क्या हो गया?’’

‘‘मेरी एक मुंहबोली भाभी कहती हैं कि किसी का प्यार कबूल करने से पहले कुछ समय तक उस का इम्तिहान लेना चाहिए.

‘‘वे कहती हैं कि जो आदमी झट से हाथ लगा दे, वह मतलबी होता है. प्यार का वास्ता दे कर जिस्म हासिल कर लेता है. उस के बाद छोड़ देता है, इसलिए ऐसे आदमियों के जाल में नहीं फंसना चाहिए.’’ ‘‘तुम मुझे गलत मत समझो उर्मिला. मैं मतलबी नहीं हूं, न ही मेरी नीयत खराब है. तुम जितना चाहो इम्तिहान ले लो, मुझे हमेशा खरा प्रेमी पाओगी.’’

‘‘तो फिर हाथ क्यों पकड़ लिया?’’

‘‘बस यों ही दिल मचल गया था.’’

‘‘दिल पर काबू रखिए. जबतब मचलने मत दीजिए. एक बात साफ बता देती हूं. ध्यान से सुन लीजिए.

‘‘अगर आप मेरा प्यार पाना चाहते हैं, तो सब्र से काम लेना होगा. जिस दिन यकीन हो जाएगा कि आप मेरे प्यार के काबिल हैं, उस दिन हाथ ही नहीं, पैर भी पकड़ने की छूट दे दूंगी. तब तक आप सिर्फ बातों से प्यार जाहिर कीजिए. हाथ न लगाइए.’’

‘‘वह दिन कब आएगा?’’ अवधेश सिंह ने पूछा.

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‘‘कम से कम एक महीना तो लगेगा.’’ उर्मिला की चालाकी अवधेश सिंह समझ नहीं पाया और उस की शर्त को मान लिया. अवेधश सिंह सरकारी अफसर था. कोलकाता में वह अकेला ही रहता था. जब तक उस की पत्नी जिंदा थी, वह साल में 4-5 बार गांव जाता था. पत्नी की मौत के बाद उस ने गांव जाना ही छोड़ दिया था. बात यह थी कि पत्नी की मौत के बाद उस ने दूसरी शादी करने का निश्चय किया, जिस का उस के बेटों ने पुरजोर विरोध किया था.

Serial Story: प्यार अपने से

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