महंगा इनाम : भाग 2- क्या शालिनी को मिल पाया अपना इनाम

वह बेचैनी से पहलू बदलते हुए बोला, ‘‘मैं बिना किसी जांच के उन मांबेटी को धोखेबाज कहना नहीं चाहता. लेकिन ऐसा भी हो सकता है कि वह मामले को बढ़ाचढ़ा कर पेश कर रही हों.’’

‘‘मेरे विचार में यह कुछ अधिक मुश्किल काम नहीं है,’’ मैं ने कहा, ‘‘2-4 दिनों लड़की पर नजर रखी जाए. होशियारी से उस का पीछा किया जाए तो पता चल जाएगा कि वह कहीं बोलती है या नहीं?’’

अर्पित गले को साफ करते हुए बोला, ‘‘यही तो समस्या है कि मैं तुम्हें 4 दिन तो क्या, 2 दिन का समय भी नहीं दे सकता. असल में मुझे विश्वास था कि यह मामला कोर्ट में नहीं जाएगा. इसलिए अंतिम क्षणों तक मैं ने किसी डिक्टेटिव या खोजी की तलाश शुरू नहीं की. इस बुधवार को 10 बजे अदालत में इस दावे की सुनवाई होनी है. हो सकता है पहली ही पेशी में निर्णय भी हो जाए.’’

इस का मतलब था कि मेरे पास केवल एक दिन का समय था, जिस में मुझे कोई ऐसा सबूत तलाश करना था, जिस की वजह से दावेदार अपना दावा वापस लेने पर विवश हो जाए.

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‘‘सौरी मिस्टर अर्पित, एक दिन में भला क्या हो सकता है?’’ मैं ने कहा.

‘‘इस परिस्थिति में अगर कोई समझौता हो भी जाए तो वह भी मेरे लिए जीत की तरह ही होगा,’’ अर्पित ने कहा, ‘‘मैं कह चुका हूं कि मुझे अपनी गलती की भरपाई करने पर कोई आपत्ति नहीं है. लेकिन इतनी सी बात पर मैं अपनी कुल संपत्ति का एक चौथाई उन मांबेटी को नहीं दे सकता.’’

एक बार फिर मेरी सांस ऊपर की ऊपर और नीचे की नीचे रह गई. मतलब अर्पित की कुल संपत्ति का एक चौथाई 100 करोड़ था. इस का मतलब था कि अर्पित मेरे अनुमान से कहीं अधिक धनवान था. संभवत: उन मांबेटी को अंदाजा था कि वह कितना मोटा आसामी है. तभी उन्होंने ज्यादा गहराई तक दांत गड़ाने का प्रोग्राम बनाया था.

आखिर मैं ने अपनी पूरी कोशिश करने की हामी भरते हुए उसे अपनी फीस के बारे में बताया तो उस ने कहा, ‘‘मैं केवल एक ही दिन के लिए तुम्हारी सेवाएं ले रहा हूं और इस का भुगतान पेशगी दे रहा हूं. अगर तुम कोई सबूत तलाश करने में कामयाब हो गईं तो मैं सारे खर्चों के अलावा तुम्हें 5 लाख रुपए का इनाम दूंगा. अगर तुम असफल रहीं तो मेरे कानूनी सलाहकार इस मसले से अपने हिसाब से निपटेंगे.’’

बातचीत के बाद मैं लौट आई. सब से पहले मैं ने उन मांबेटी के बारे में सूचना इकट्ठी की. बेटी का नाम रूपा सरकार था और मां का नाम सुषमा सरकार. वे द्वारका के सिंगल बैडरूम के छोटे से फ्लैट में रह रही थीं. मैं ने अपनी गाड़ी एक ऐसी जगह पार्क की, जहां से मैं उन के फ्लैट पर नजर रख सकती थी.

अर्पित मुझे उन के नाम और ठिकाने से अधिक कुछ नहीं बता सका था. मैं ने अपने तौर पर जानकारियां एकत्र करने की कोशिश की तो पता चला कि सुषमा सरकार यानी मां और रूपा सरकार किसी न किसी तरह के दावे कर के माल बटोरने में लगी रहती थीं. अगर मामला केवल उस औरत का होता तो शायद मैं उसे दे दिला कर राजी करने की कोशिश करती, लेकिन मसला उस की बेटी के अजीबोगरीब और अविश्वसनीय नुकसान का था. मैं ने उस डाक्टर से बात की, जो उस का इलाज कर रहा था. ऐसा मालूम होता था कि उस ने भी मांबेटी के दावे को सही साबित करने की बात को अपनी प्रेस्टीज का मसला बना लिया था.

9 बजे तक मैं अपनी कार में बैठेबैठे न्यूजपेपर पढ़ती रही. जब थक गई तो मैं ने गाड़ी से निकल कर हाथपांव सीधे किए और बिल्डिंग के चारों ओर एक चक्कर लगाया. मांबेटी के ग्राउंड फ्लोर स्थित फ्लैट का नंबर 7 था. उस के पीछे की तरफ एक पुरानी सी मारुति कार खड़ी थी, जिस पर लगे चंद निशानों से पता चल रहा था कि हाल ही उस का मामूली एक्सीडेंट हुआ है.

फ्लैट नंबर 7 में झांकने का मेरा प्रयास सफल नहीं हो सका. खिड़कियां बंद थीं और उन पर परदे पड़े हुए थे. अंदर तेज आवाज में म्युजिक बज रहा था. अंतत: मायूस हो कर मैं दोबारा अपनी कार में जा बैठी.

आखिर 10 बजे मांबेटी फ्लैट से बाहर निकलीं और गाड़ी में बैठ कर बाजार की ओर चल दीं. उन्होंने एकदूसरे से बिलकुल भी बात नहीं की. मैं ने उचित दूरी बना कर उन का पीछा करना शुरू कर दिया.

पहले दोनों एक बहुत अच्छे डिपार्टमेंटल स्टोर पर रुकीं और अंदर जा कर आधे घंटे तक बिना किसी मकसद के घूमती रहीं. उन्होंने महंगे फर्नीचर से ले कर मंगनी की अंगूठी तक का जायजा लिया. वे यकीनन उस दौलत को खर्च करने के तरीके सोच रही थीं, जो उन के ख्याल में उन्हें छप्पर फाड़ कर मिलने वाली थी. वे एकदम साधारण जीवन व्यतीत कर रही थीं, लेकिन उन की पसंद ऊंची लगती थी.

कुछ देर की आवारागर्दी के बाद आखिरकार वे एक ब्यूटीपार्लर में जा घुसीं. वे रिसैप्शन पर रुकीं तो मैं पीछे मुडे़ बिना सुषमा की आवाज सुन रही थी. मोटी सुषमा बाल सैट कराने के लिए एक कुरसी पर जा बैठी, जबकि दुबलीपतली रूपा वेटिंग रूम में बैठ गई. मुझे कुछ उम्मीद नजर आई कि संभवत: मुझे भाग्य आजमाने का अवसर मिलने वाला है.

मैं ने रिसैप्शन पर मौजूद लड़की से अपने बाल शैंपू और सैट कराने की बात की तो उस ने बताया कि करीब 10 मिनट बाद हेयर डे्रसर फ्री हो जाएगी.

मैं वेटिंग रूम में रूपा के सामने जा बैठी. वह सच्चे प्रेमप्रसंग प्रकाशित करने वाली एक पत्रिका के पृष्ठों पर नजरें जमाए बैठी थी. मैं ने भी मेज पर पड़ी 2-3 मैगजीनें उलटपलट कर देखने के बाद साधारण लहजे में कहा, ‘‘ऐसी जगहों पर हमेशा पुरानी मैगजीनें ही पड़ी रहती हैं.’’

रूपा ने मैगजीन से नजर हटा कर मेरी तरफ देखा, लेकिन बोली कुछ नहीं. मैं ने मुसकराते हुए मित्रवत लहजे में कहा, ‘‘तुम्हें शायद कोई अच्छी मैगजीन मिल गई है.’’

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उस ने इनकार में सिर हिलाया तो मैं ने जल्दी से पूछा, ‘‘किसी खास ब्यूटीशियन के साथ अपाइंटमेंट है क्या?’’

उस ने कोई जवाब नहीं दिया और दोबारा उसी मैगजीन पर नजरें जमा कर बैठ गई. इतने में एक ब्यूटीशियन ने फ्री हो कर मुझे बुला लिया. जब इंसान को फास्ट सर्विस की कोई खास जरूरत नहीं होती तो उसे अनचाहे ही फास्ट सर्विस मिल जाती है.

मैं कुरसी पर जा बैठी. हेयरड्रेसर ने मेरे चारों ओर काला कपड़ा लपेटा और मैं ने शैंपू के लिए सिंक पर सिर झुका लिया. जब मेरे बाल संवारे जा रहे थे तो मैं ने ठंडी सांस ले कर कहा, ‘‘मैं ने किसी इतनी नौजवान लड़की को इतना रफटफ रहते हुए नहीं देखा.’’

हेयर ड्रेसर समझ गई कि मेरा इशारा किस ओर था. वह सिर घुमा कर रूपा की ओर देखते हुए बोली, ‘‘क्या हुआ?’’

‘‘मैं इस लड़की से दोस्ताना तरीके से बात करना चाहती थी. लेकिन उस ने कोई जवाब नहीं दिया. एक शब्द भी नहीं बोली.’’

हेयरड्रेसर मेरी ओर झुकते हुए बोली, ‘‘दरअसल, वह बेचारी बोल नहीं सकती. 2 महीने पहले एक अमीर आदमी ने अपनी कार से इन मांबेटी की कार में टक्कर मार दी थी. तब से इस बेचारी की बोलने की शक्ति चली गई है.’’

‘‘ओह… यह तो बड़ी अफसोसजनक बात है. मुझे यह बात मालूम नहीं थी?’’ मैं ने जल्दी से कहा. इस बीच सुषमा मुझ से कुछ दूर दूसरी कुरसी पर बाल सैट कराते हुए तेज रफ्तार से ब्यूटीशियन से बातें कर रही थी. ऐसा जान पड़ता था कि जैसे उसे आसपास का कुछ पता ही नहीं था.

‘‘मां की कमर में भी चोट आई थी,’’ ब्यूटीशियन ने कहा, ‘‘ये अमीर लोग समझते हैं, जो चाहे कर गुजरें, इन्हें कोई पूछने वाला नहीं.’’

इस का मतलब था कि इन लोगों की कहानी को और लोग भी जानते थे और कुछ लोगों की हमदर्दियां भी इन के साथ थीं. मेरे बाल सैट हो चुके तो मेरे पास वहां ठहरने का कोई बहाना नहीं रहा.

मैं ब्यूटीपार्लर से निकल आई और सामने सड़क किनारे एक बैंच पर बैठ गई. सड़क लगभग सुनसान थी. मैं सुबह 5 बजे की उठी थी. नींद मेरी आंखों में उतरने की कोशिश कर रही थी. मैं ने अपना सिर बैंच की बैक से टिका कर आंखें बंद कर लीं. कुछ देर में मुझे एक अजीबोगरीब सुखद अहसास हुआ. लेकिन उस अहसास का मैं ज्यादा देर आनंद नहीं उठा सकी.

‘‘शालिनी…’’ किसी की आवाज ने मुझे चौंका दिया. मैं हड़बड़ा कर सीधी हो गई.

एक घबराया हुआ सा युवक मेरे ऊपर थोड़ा सा झुका हुआ खड़ा था. उस की आंखों में शरारत साफ झलक रही थी. मुझे सड़क किनारे की एक बैंच पर ऊंघते देख कर संभवत: वह बहुत ही खुश हो रहा था.

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मुझे केवल शालिनी के नाम से संबोधित कर के शायद उसे तसल्ली नहीं हुई थी. उस ने मेरा पूरा नाम लिया, ‘‘शालिनी चौहान…?’’ लेकिन यह मेरा शादी से पहले का नाम था. अब तो मुझे अपने पति से अलग हुए भी जमाना गुजर गया था. मैं हैरान हुए बिना न रह सकी कि यह कौन है, जो इस तरह मेरा नाम ले रहा है.

जानें आगे क्या हुआ कहानी के अगले भाग में…

उस की गली में : भाग 3 – हुस्न और हवस की कहानी

मास्टरनी जुलेखा उसी स्कूल में पढ़ाती थी. एक दिन वह स्कूल से निकल कर तांगे में बैठी तो घोड़ा बिदक कर भागा. विलायत अली फौरन तांगे के पीछे भागा.

कुछ दूर दौड़ कर वह उस पर चढ़ गया. तांगा एक पुलिया से टकराया और नहर में गिर गया. जुलेखा पानी के तेज बहाव में बहने लगी. बड़ी मुश्किल से विलायत ने उसे बचा कर बाहर निकाला.

इस कोशिश में उसे चोटें भी लगीं. उसे अस्पताल में भरती करना पड़ा. जुलेखा उस की देखरेख के लिए रोज अस्पताल जाती थी. वहीं से यह मुहब्बत शुरू हुई. इस के 4-5 महीने बाद अचानक जुलेखा ने शादी कर ली.

शादी के बाद विलायत अली पागल सा हो गया. यह भी पता चला था कि चोरी वाले दिन सेठ अहद का एक नौकर विलायत को उस के घर से बुला कर ले गया था.

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सेठ अहद ने ही उस पर चोरी का इलजाम लगाया था. थाने में लिखाई गई रिपोर्ट में सेठ अहद ने लिखवाया था कि विलायत उस के घर काम मांगने आया था. सेठ ने चोरी का जो टाइम रिपोर्ट में लिखाया था, उस वक्त वह अपने दोस्तों के साथ पान की दुकान पर था. उस वक्त सुबह के 10 बजे थे.

वक्त बहुत कम था. डीएसपी साहब के दिए टाइम में 2 घंटे बीत चुके थे. मैं ने सेठ अहद और मास्टरनी के पति नजीर से मिलने का फैसला किया.

रवाना होते समय मैं ने बलराज से पूछा, ‘‘अगर तुम्हारे दिमाग में कोई प्लान हो तो बताओ, मिल कर काम करते हैं.’’ उस ने तीखे लहजे में कहा, ‘‘नवाज खां, मेरे और तुम्हारे रास्ते अलगअलग हैं. इसलिए तुम अपनी राह जाओ.’’

मैं ने पहले ही 3-4 टीमें बना कर विलायत की तलाश में भेज दी थीं. सेठ अहद की लोहे के सामान बेचने की दुकान थी. 40-45 साल का दुबलापतला आदमी था. पता चला कि वह रंगीनमिजाज था. उस ने दुकान पर एक जवान खूबसूरत लड़की रख रखी थी.

मैं ने अहद से पूछताछ की तो उस ने वही बातें बताईं, जो मुझे पहले से पता थीं. कोई काम की बात पता न चलने पर मैं ने उसे शहर न छोड़ने की हिदायत दी. उस पर नजर रखने के लिए मैं ने सादा लिबास में एक सिपाही की ड्यूटी लगा दी. इस के बाद मैं चपरासी नजीर के यहां पहुंचा.

दरवाजा उस की खूबसूरत बीवी जुलेखा ने खोला. मुझे देख कर वह सहम गई. मैं ने तेज लहजे में पूछा, ‘‘तेरा शौहर कहां है?’’

‘‘जी…जी, वह अभी औफिस से नहीं आए हैं.’’ मैं ने उसे धमकाते हुए कहा, ‘‘देख लड़की, अगर अपनी खैर चाहती है तो विलायत अली के बारे में सब कुछ सचसच बता दे, वरना तेरा अंजाम बहुत बुरा होगा.’’ मेरी डांट से उस का चेहरा पीला पड़ गया.

वह डर गई और चेहरा हाथों से छिपा कर फूटफूट कर रो पड़ी. रोतेरोते ही बोली, ‘‘थानेदार साहब, अगर मैं ने कुछ भी बोल दिया तो वह मुझे जिंदा नहीं छोड़ेगा. जान से मार देगा.’’

मैं गरजा, ‘‘कोई तुझे हाथ नहीं लगा सकता. यह कानूनी मामला है. हम तेरी पूरी मदद करेंगे.’’ मेरी बात पर उस के अंदर जैसे कुछ हिम्मत आई. अपनी बात कहने के लिए मुंह खोलने ही वाली थी कि तभी बाहरी दरवाजे से साइकिल का अगला पहिया अंदर आया और तेज आवाज आई, ‘‘ले साइकिल पकड़, कहां मर गई कमीनी?’’

इस आवाज पर वह डर गई. वह दरवाजे की तरफ जाने को हुई, लेकिन उस के उठने से पहले ही एक सिपाही ने आगे बढ़ कर साइकिल पकड़ ली. यह उस का पति नजीर था. अंदर का हाल देख कर वह हैरान रह गया. मुझे सलाम कर के बोला, ‘‘साहब, यह क्या हो रहा है?’’

मैं ने उस से तेज लहजे में पूछा, ‘‘कितनी तनख्वाह है तेरी?’’

‘‘जी 20 हजार रुपए.’’

‘‘क्या स्मगलिंग करता है, कहां से पैसा कमा कर इतना अच्छा घर खरीदा?’’

‘‘नहीं जनाब, कैसी बातें कर रहे हैं? मैं ईमानदार, शरीफ आदमी हूं.’’

उस ने इतना ही कहा था कि मैं ने एक जोरदार थप्पड़ उस के गाल पर मारा. वह उछल कर साइकिल पर गिरा. उस की कमीज पकड़ कर मैं उसी कमरे में ले गया, जहां उस की बीवी बैठी थी.

बीवी के सामने हुई बेइज्जती से वह गुस्से से पगला सा गया. उस ने लपक कर सब्जी काटने वाली छुरी उठा ली और तेजी से घुमा कर मुझ पर वार कर दिया. लेकिन छुरी मेरे पेट से 2 इंच फासले से निकल गई. मैं बच गया. मैं ने लपक कर उस की कलाई थाम ली और एक लात उस के पेट पर मारी. वह धड़ाम से गिरा. इस के बाद एएसआई ने उस पर लातघूंसों की बारिश कर दी.

मुझे लगा कि जुलेखा के सिर से शौहर के डर का भूत उतर गया है तो मैं ने कहा, ‘‘देख लड़की, अब किसी से डरने की जरूरत नहीं है. बिना डर के सब कुछ बता दे.’’

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‘‘इंसपेक्टर साहब, मुझे और मेरी मां को तो कोई नुकसान नहीं पहुंचेगा?’’

मैं ने उसे भरोसा दिया और मदद का वायदा किया. मैं उसे दूसरे कमरे में ले गया.

वहां उस ने बताया, ‘‘साहब, मुझ पर बड़ा जुल्म हुआ है, मुझे बुरी तरह लूटा गया है. मैं ने यह जुल्म अपनी मां की खातिर बरदाश्त किया. आज से कोई 9 महीने पहले की बात है. मैं स्कूल में पढ़ाती थी. उसी स्कूल का एक कलर्क पता नहीं मुझ से क्यों दुश्मनी रखता था.

उस की वजह से मेरी 4-5 माह की तनख्वाह रुकी हुई थी. मेरी एक सहेली ने मुझे नेताजी गनपतलाल से मिलने की सलाह दी. ‘‘मैं उस से मिलने गई. मैं ने सारी विपदा कही. वह मुझ से बहुत अच्छे से मिला और उस ने मेरा काम करवाने का वायदा किया. इसी सिलसिले में मैं उस से मिलती रही. उसी बीच उस की नीयत मुझ पर खराब हो गई.

उस ने मुझे इस तरह अपने जाल में फंसाया कि मुझे अपनी बरबादी साफ नजर आने लगी. मैं होशियार हो गई. जब उसे अंदाजा हुआ कि मैं उस के हाथ नहीं आऊंगी तो उस ने पैंतरा बदला. एक दिन उस ने कहा, ‘जुलेखा, मैं तुम से ब्याह करना चाहता हूं.’

‘‘मैं ने तुरंत इनकार कर दिया. उसे ताज्जुब हुआ कि इतने मशहूर और रईस आदमी से मैं ने शादी से इनकार कर दिया. वह गुस्से में पागल हो गया. मुझे धमकी देने लगा कि वह मुझे ऐसी सजा देगा कि मैं उम्र भर तड़पती रहूंगी. शादी से पहले नजीर उस के यहां चमचागिरी करता था.

एक बार उस ने मुझ से बेहूदा मजाक किया तो मैं ने उसी समय उसे एक थप्पड़ जड़ दिया. ‘‘इस घटना के कुछ दिनों बाद नजीर मेरी मां के पास मेरा रिश्ता मांगने पहुंचा. मां ने मेरी शादी उस के साथ करने से मना कर दिया. इस के बाद एक औरत मेरी मां के पास नजीर के लिए मेरा रिश्ता मांगने आई.

मां ने फिर इनकार कर दिया. इस के बाद दूसरी औरत रिश्ता मांगने आई. मां ने उसे भी डांट कर भगा दिया.

‘‘दूसरे दिन मेरे छोटे भाई को उस के हौस्टल से किसी ने अगवा कर लिया. जब हमें पता चला कि इस के पीछे गनपतलाल का हाथ है तो हम रिपोर्ट दर्ज कराने थाने पहुंचे. लेकिन उस के खिलाफ रिपोर्ट नहीं लिखी गई. हमें डराधमका कर थाने से भगा दिया गया.

उसी रात गनपतलाल की तरफ से एक खत मिला, जिस में लिखा था, ‘तुम्हारा भाई वापस हौस्टल पहुंच गया है. ध्यान रखो, अगली बार गायब होगा तो हौस्टल में नहीं, मुरदाखाने में मिलेगा.’

‘‘उस रात मैं और मेरी मां बहुत रोईं. इस के बाद बेबस और मजबूर हो कर मुझे नजीर से शादी करनी पड़ी. तब से मैं बड़ी जिल्लत के साथ जी रही हूं. मेरी मां से भी नजीर बड़ा बुरा व्यवहार करता है. पिछले दिनों उस ने उन्हें कांच का गिलास फेंक कर मारा था.’’ इतना कह कर वह सिसकने लगी. उस की दुखभरी दास्तान सुन कर मेरा भी दिल भर आया. मैं ने पूछा, ‘‘यह कुल्फी वाले विलायत का क्या किस्सा है?’’

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जुलेखा बोली, ‘‘साहब, मैं नादान बच्ची नहीं, पढ़ीलिखी समझदार हूं. विलायत से मैं ने कभी शादी के बारे में सोचा तक नहीं था, पर अब मुझे लग रहा है कि वह गनपतलाल व नजीर से बेहतर इंसान था. उस ने जान पर खेल कर मेरी जिंदगी बचाई थी.

जानें आगे क्या हुआ कहानी के अगले भाग में…

उस की गली में : भाग 2 – हुस्न और हवस की कहानी

यह मामला बड़े अफसरों तक पहुंच चुका था. मैं फटाफट थाने पहुंच गया. मैं सीधे उस कमरे में पहुंचा, जहां विलायत अली को सुलाया गया था. मैं ने देखा, कंबल, बिस्तर सब वैसा ही पड़ा था. कमरे की दीवार में करीब डेढ़ फुट का सुराख था.

जो सिपाही ड्यूटी पर था, उस से बात की तो उस ने बताया कि किसी वक्त उस की आंख लग गई और वह फरार हो गया. एकदम से मुझे खयाल आया कि कहीं बलराज ने ही तो नहीं मुलजिम को फरार करा दिया.

इस की वजह यह थी कि केस मेरे पास आने से उस की बेइज्जती हुई थी. थाने में 4-5 सिपाही उस के पक्के चमचे थे. मैं ने विलायत को लौकअप के बजाय अलग कमरे में सुलाया था.

जाहिर है, उस के फरार होने से मेरी ही बदनामी होनी थी. मुलजिम तो दीवार तोड़ कर जा नहीं सकता था. मुझे यकीन हो गया कि उसे भगाने में बलराज की ही साजिश थी. मैं विलायत अली के घर पहुंचा. उस के बूढ़े बाप ने दरवाजा खोला. मुझे देख कर वह कांपने लगा.

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मांबहन भी बाहर आ गईं. सभी बुरी तरह से डरे हुए थे. मां ने पूछा, ‘‘थानेदार साहब, मेरा पुत्तर तो अच्छा है न?’’

उस की बात का जवाब दिए बिना मैं ने फौरन घर की तलाशी ली. पर विलायत अली वहां नहीं था. मैं ने उस की मां से कहा, ‘‘तेरे पुत्तर को मेरी मेहरबानी रास नहीं आई. वह थाने से फरार हो गया है. सचसच बता दे कि वह कहां छिप सकता है? इसी में उस की खैर है.’’

‘‘मुझे नहीं मालूम वह कहां है. पर मैं तुम से कुछ नहीं छिपाऊंगी. उस की पूरी कहानी बताए देती हूं. साहब मेरा बेटा विलायत स्कूल के सामने ठेली लगा कर कुल्फी बेचता था.

पता नहीं कैसे स्कूल की एक मास्टरनी सुलेखा का दिल उस पर आ गया. कुछ दिन तो यह सब चला, फिर उस मास्टरनी ने सब कुछ भुला कर किसी और से शादी कर ली.

‘‘इस से मेरे बेटे को इतनी ठेस पहुंची कि वह फकीरों की तरह मारामारा फिरने लगा. उस ने अपना कामधंधा सब छोड़ दिया. सुबह को घर से जाता तो शाम को ही घर आता.

4-5 दिन पहले पुलिस उसे चोरी के आरोप में पकड़ ले गई. साहब, मैं दावे से कह सकती हूं कि मेरा बेटा चोरी हरगिज नहीं कर सकता. मुझे तो इस में उस मास्टरनी की ही साजिश लगती है.’’

उस की बात सुन कर मैं बाहर आ गया. मेरा इरादा मास्टरनी के घर जाने का था. मास्टरनी की गली में नुक्कड़ पर पान की दुकान थी. वहीं पर मैं ने जीप रुकवा ली.

पान वाला मुझे जानता था. मैं ने उस से विलायत अली और मास्टरनी के बारे में पूछा तो उस ने मास्टरनी के बारे में मुझे ढेर सारी जानकारी दी. मैं पान वाले की दुकान पर खड़ा था, तभी मास्टरनी के घर से एक आदमी साइकिल ले कर निकला.

पता चला कि वह उस मास्टरनी का पति नजीर था, जो इनकम टैक्स विभाग में चपरासी था. उस के पीछेपीछे मास्टरनी भी दरवाजे तक आ गई. मैं देख कर हैरान रह गया कि अदने और साधारण से आदमी से खूबसूरती की मल्लिका मास्टरनी ने शादी कैसे कर ली?

और तो और, वह उम्र में भी उस से काफी बड़ा था. उस की पहली बीवी मर चुकी थी. यह मकान उस ने 4-5 महीने पहले ही लिया था. इस से पहले वह एक कमरे में किराए पर रहता था. चपरासी की नौकरी में उस ने इतना आलीशान मकान कैसे खरीद लिया, इस बात की मुझे हैरानी हो रही थी. अभी मैं सोच ही रहा था कि गनपतलाल लपक कर मेरे पास आया.

मैं उसे अच्छी तरह से जानता था. उस का अपनी पार्टी में अच्छा रसूख था. हाथ मिला कर वह मुझ से घर चलने का अनुरोध करने लगा. मैं ने उस से कहा कि मैं नजीर के बारे में मालूम करने आया था. इस पर उस ने कहा, ‘‘फिर तो आप मेरे साथ चलिए. उस के बारे में मुझ से ज्यादा कौन बता सकता है.’’

मेरा मकसद विलायत तक पहुंचना था. सोचा कि शायद गनपतलाल से ही उस के बारे में कोई जानकारी मिल जाए, इसलिए मैं उस के साथ उस की कोठी में चला गया. मेरे पूछने पर उस ने बताया, ‘‘नजीर काफी तेज बंदा है. वह मेरे पास अकसर आताजाता रहता है.

इनकम टैक्स में चपरासी है, पर उस की काफी पैठ है. शायद उस ने अभी कोई लंबा हाथ मारा है, जो कोठी खरीद ली है. खान साहब, इस की बीवी बड़ी खूबसूरत है. पता नहीं इस ने क्या चक्कर चलाया कि उस ने इस से शादी कर ली.’’ मैं ने पूछा, ‘‘आप इस की बीवी के बारे में कुछ जानते हों तो बताएं.’’

वह कुछ सोचते हुए बोला, ‘‘खान साहब, मैं उस की मां को ही बुलवा लेता हूं. आप जो चाहें, उसी से पूछ लेना.’’ कह कर उस ने अपने एक आदमी को कुछ कह कर भेज दिया. करीब 10 मिनट में उस का आदमी एक बूढ़ी औरत को बुला लाया.

वह औरत डरीसहमी थी. उस के माथे पर पट्टी बंधी थी. मैं ने पूछा, ‘‘अम्मा, कल रात एक मुलजिम थाने से फरार हुआ है. मैं ने सुना है कि तुम्हारी बेटी का उस से नाम जोड़ा जाता रहा है.’’

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मेरी इस बात से उस का चेहरा उतर गया, वह दुखी हो कर बोली, ‘‘साहब, मेरी बेटी का उस से कोई ताल्लुक नहीं था, वह लड़का ही उस के पीछे पड़ा था. अब शादी के बाद वह बात भी खत्म हो गई,’’

उस की बात से मैं संतुष्ट नहीं था. इसलिए वहां से 12 बजे के करीब मैं थाने आ गया. थाने में सब के मुंह पर हवाइयां उड़ रही थीं. मैं डीएसपी साहब के कमरे में पहुंचा. बलराज मुंह फुलाए एक कोने में खड़ा था. डीएसपी साहब काफी गुस्से में थे. मेरे सैल्यूट के जवाब में बोले, ‘‘क्या रिपोर्ट है नवाज?’’

मैं ने कहा, ‘‘सर, सुबह से उसी कोशिश में लगा हुआ हूं, पर अभी कुछ पता नहीं चला.’’

‘‘नवाज खां, कोशिश नहीं, मुझे रिजल्ट चाहिए और मुलजिम मिलना चाहिए. तुम्हें पता नहीं कि यहां क्या हुआ? आधे घंटे पहले थाने के सामने 2 हजार आदमी जमा हो गए थे.

वे मांग कर रहे थे कि पुलिस के जुल्म से जो आदमी मरा है, उस की मौत की जिम्मेदार पुलिस है. मरने वाले की लाश हमें दो.’’ डीएसपी साहब ने गुस्से में कहा.

बलराज तीखे स्वर में बोला, ‘‘यह सब नवाज खान की नरमी की वजह से हुआ.’’

‘‘खामोश रहो,’’ मैं डीएसपी साहब की मौजूदगी में चिल्ला पड़ा, ‘‘यह मेरी नरमी की वजह से नहीं, तुम्हारी सख्ती का नतीजा है. तुम ने उसे जानवरों की तरह मारा.

तुम ने उस से पैसे वसूल किए. तुम्हारे मातहत ने उस की मांबहन को तंग किया. सिर्फ तुम्हारी वजह से वह छत से कूद कर खुदकुशी कर रहा था. गनीमत समझो कि टाहम पर पहुंच कर मैं ने उसे बचा लिया, वरना तुम्हारी तो बेल्ट उतर चुकी होती.’’ मेरा गुस्सा देख कर बलराज चुप हो गया. इस बार डीएसपी साहब नरमी से बोले, ‘‘देखो, आपस में अंगुलियां उठाने से कोई फायदा नहीं. यह हमारी इज्जत का सवाल बन गया है. कुछ सियासी लोग मामले को हवा दे रहे हैं. इस वक्त साढ़े 12 बजे हैं.

कल सुबह साढ़े 10 बजे तक मुलजिम मिल जाना चाहिए. हमारे पास 22 घंटे हैं. उसे ढूंढ़ कर लाना तुम दोनों की जिम्मेदारी है. इस बारे में जो मदद चाहिए, वह मिलेगी. एसपी साहब भी कौन्टैक्ट में हैं.’’

मैं अपने कमरे में गया. एएसआई विलायत अली के 4 दोस्तों को पकड़ लाया था, पर उन से कोई खास बात मालूम नहीं हो सकी थी. बस यही पता चला कि विलायत स्कूल के सामने कुल्फी बेचता था.

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जानें आगे क्या हुआ कहानी के अगले भाग में…

उस की गली में : भाग 1 – हुस्न और हवस की कहानी

बगल वाले कमरे में इंसपेक्टर बलराज एक मुलजिम की जम कर पिटाई कर रहा था. उस की पिटाई से मुलजिम जोरजोर चीख रहा था, ‘‘साहब, मैं ने कुछ नहीं किया. मुझे माफ कर दो, मैं बेकसूर हूं.’’

वह एक शहरी थाना था. वहां मेरे अलावा दूसरा इंसपेक्टर बलराज था. थाने में ही डीएसपी का भी औफिस था. इंसपेक्टर बलराज बेहद सख्त था.

गाली उस के मुंह से बातबात में निकलती थी. कई मुलजिम तो डर के मारे झूठे इलाजम को भी अपने  सिर ले लेते थे. लेकिन मुझे वह ‘बाऊजी थानेदार’ कह कर पुकारता था, लेकिन पीठ पीछे मेरा मजाक उड़ाता था.

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जिस मुलजिम की वह पिटाई कर रहा था, उस की आवाज आई, ‘‘साहब, बहुत जोर से पेशाब लगा है. मुझे जाने दीजिए.’’ पता नहीं क्यों मुलजिम की आवाज में मुझे एक अजीब सा दर्द महसूस हुआ. सर्दियों के दिन थे, शाम भी होने वाली थी.

मैं ने खिड़की पर पड़ी चिक से देखा, 2 सिपाही सहारा दे कर उस मुलजिम को छत पर बने पेशाबखाने ले जा रहे थे. उस की हालत देख कर ही लग रहा था कि उस की जम कर खातिरदारी की गई थी.

पुलिस भाषा में पिटाई को खातिरदारी कहते हैं. मैं खाली बैठा था, टहलता हुआ बाहर चला गया. अचानक मुझे छत पर धमाचौकड़ी की आवाज आती महसूस हुई.

ऊपर कौन भाग रहा है, जानने के लिए मैं छत पर चला गया. छत कोई 20 फुट ऊंची थी. ऊपर पहुंच कर मैं ने मुलजिम को मुंडेर की ओर भागते देखा. उसे पकड़ने के चक्कर में एक सिपाही गिर पड़ा था. मैं समझ गया कि मुलजिम पुलिस से छूट कर छत से नीचे छलांग लगाना चाहता है.

मैं तेजी से उस की तरफ दौड़ा. तब तक वह मुंडेर पर पांव रख चुका था, वह छलांग लगाता, उस के पहले ही मैं ने पीछे से उसे पकड़ लिया. नीचे सड़क पर लोगों का आनाजाना चालू था.

मैं उसे घसीटता हुआ पीछे ले आया. सड़क के लोग घबरा कर ऊपर देख रहे थे. वह जोरों से चीख रहा था, ‘‘मुझे छोड़ दो, मुझे मर जाने दो.’’

वह जैसे पागल हो रहा था. दोनों सिपाहियों ने मुश्किल से उसे काबू में किया. देखतेदेखते छत और सड़क पर मजमा लग गया. जैसे ही उसे नीचे लाया गया, गुस्से से पागल हो कर इंसपेक्टर बलराज उस पर टूट पड़ा. मुलजिम की मां और बहन थाने में बैठी थीं.

वे रोने लगीं. पिटतेपिटते मुलजिम बेहोश हो गया, पर बलराज के हाथ नहीं रुक रहे थे. मैं ने किसी तरह बलराज को रोका.

मुलजिम का नाम विलायत अली था. वह शहर का ही रहने वाला था. उस की मां और बहन हाथ जोड़ कर रोते हुए मुझ से कह रही थीं कि विलायत बेकसूर है. दोनों लोगों के घरों में काम कर के गुजारा करती हैं. बलराज ने उन से 5 सौ रुपए मांगे थे.

घर के जेवर, बरतन आदि बेच कर उन्होंने रुपए दे दिए थे. इस के बावजूद भी वह विलायत को नहीं छोड़ रहे. अब वह और पैसे मांग रहे हैं. वे और पैसे कहां से लाएं.

बलराज विलायत अली के खिलाफ फरारी का नया मामला दर्ज कर रहा था, जबकि 20 फुट ऊंची उस बिल्डिंग से किसी मरेकुचे आदमी का कूदना असंभव लगता था.

सही में तो जुल्म से घबरा कर खुदकुशी का मामला बनना चाहिए था. मैं सबकुछ देख और समझ रहा था. अगर मैं कुछ कहता तो बलराज और नाराज हो जाता. इसलिए मैं चुप रहा.

विलायत की मां और बहन ने जो बातें बताई थीं, उस से साफ लग रहा था कि उसे जबरदस्ती फंसाया जा रहा था. मुझे यहां आए अभी एक महीना ही हुआ था.

मैं अपने कमरे में पहुंचा तो वहां विलायत की मां बेहोश पड़ी थी, बहन रो रही थी. बहन हाथ जोड़ कर बोली, ‘‘थानेदार साहब, मेरी मां और भाई को उस जालिम से बचा लीजिए. आप जहां कहेंगे, जिस के पास कहेंगे, मैं चली जाऊंगी. बस मेरे भाई पर रहम करें.’’

उस की बात सुन कर मैं चौंका. उस की बातों से लगा, उसे कोई कहीं भेजना चाहता था? वजह साफ थी, लड़की जवान थी. देखने में भी अच्छी थी. मैं ने पूछा, ‘‘किसी ने तुम से कहीं चलने को कहा था क्या?’’

‘‘हां, कल एक सिपाही ने थानेदार के घर जा कर भाई की जमानत की बात करने को कहा था.’’

‘‘क्या तुम उस के यहां गई थी, फिर क्या हुआ?’’

‘‘हां, मैं गई थी उस सिपाही के साथ. मेरी मां भी साथ थी. उस ने हमें बहुत डरायाधमकाया. इस के बाद उस सिपाही की नीयत खराब हो गई. उस ने मां को कोई फार्म लाने के लिए बाहर जाने को कहा तो मैं उस की मंशा समझ कर मां के साथ बाहर चली गई.’’

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उस की बात सुन कर मुझे उस पुलिस वाले पर बहुत गुस्सा आया. अब तक उस की बूढ़ी मां होश में आ चुकी थी. मैं ने उन दोनों को तसल्ली दी. इस के बाद मैं एक निर्णय ले कर डीएसपी साहब के पास जा कर बोला, ‘‘जनाब, विलायत का केस मैं हैंडल करना चाहता हूं.

बलराज के पास वक्त नहीं है, जिस की वजह से वह इस केस पर ठीक से ध्यान नहीं दे पा रहे हैं.’’

‘‘नवाज, यह कोई खास मामला नहीं है. उसी के पास रहने दो. ऐसा करने से आपस में खटास पैदा हो सकती है.’’

मुझे उन से इस जवाब की उम्मीद नहीं थी. मैं समझ गया कि बलराज मुझ से पहले डीएसपी साहब से मिल कर गया है. मैं कुरसी से उठ ही रहा था कि डीएसपी साहब के फोन की घंटी बज उठी.

बीच में उठ कर जाना ठीक नहीं था, इसलिए मैं बैठ गया. करीब 10 मिनट बात होती रही. डीएसपी साहब फोन पर बड़े अदब से बात कर रहे थे. बातचीत से लग रहा था कि फोन शायद एसपी या डीआईजी का था. फोन पर बात खत्म होते ही डीएसपी साहब ने चेहरे का पसीना पोंछने के बाद कहा, ‘‘नवाज खां, यह केस तुम हैंडल करो. बलराज से सारा रिकौर्ड ले लो.’’ उन्होंने कहा कि थाने की छत पर जो तमाशा हुआ, उसे देखने के लिए सड़क पर चल रहे लोग जमा हो गए थे.

ट्रैफिक जाम हो गया था. उस भीड़ में किसी मंत्री की गाड़ी थी. उस के पीछे एक जीप में प्रैस वाले थे. उन लोगों ने उस हाथापाई की फोटो खींच ली थी.

इस घटना से मंत्रीजी बेहद नाराज हो गए. उन्होंने सारा मामला खुद देखा था. इस थाने के मारपीट के पहले भी 1-2 मामले उछले थे. उन्होंने ही डीआईजी साहब से कहा है कि इस केस की सख्ती से जांच की जाए और जिस की वजह से यह सब हुआ है, उस के खिलाफ सख्ती से काररवाई की जाए.

मैं चलने लगा तो उन्होंने मुझ से इसंपेक्टर बलराज को भेजने को कहा. मैं ने बलराज को उन का मैसेज दे दिया. विलायत अली की हालत काफी खराब थी.

मैं ने करीब के क्लीनिक से डाक्टर बुला कर उसे दवा दिलवाई और हल्दी मिला दूध दे कर उसे लौकअप के बजाय कमरे में सुला कर क्वार्टर पर चला आया. उस की निगरानी के लिए एक सिपाही की ड्यूटी लगा दी थी.

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अगले दिन सवेरेसवेरे एक सिपाही ने मेरा दरवाजा खटखटाया और खबर दी कि मुलजिम विलायत अली जेल से फरार हो गया है. मैं सोच में पड़ गया. उस की हालत ऐसी नहीं थी कि वह भाग जाता. उसे काफी अंदरूनी चोटें लगी थीं.

जानें आगे क्या हुआ कहानी के अगले भाग में…

उस की गली में : भाग 4 – हुस्न और हवस की कहानी

उस का यह एहसान मैं कभी नहीं भूल सकती. उसे झूठे चोरी के केस में फंसाया गया है. जरूर इस के पीछे इन्हीं लोगों का हाथ होगा.’’ यह एक खास बात थी, जो मैं ने दिमाग में रख ली. विलायत अली के बारे में उसे कुछ खबर नहीं थी. मैं ने नजीर को गिरफ्तार किया और एक सिपाही को जुलेखा की हिफाजत के लिए छोड़ा. जुलेखा के भाई को भी हौस्टल से निकाल कर बहन के पास पहुंचा दिया.

नजीर को ले कर मैं थाने पहुंचा. थाने के गेट पर बहुत से सिपाही खड़े थे. सभी परेशान थे. पूछने पर एक सिपाही ने कहा, ‘‘साहब, बलराज साहब की किसी ने गोली मार कर हत्या कर दी है.’’

एक पल को मेरा दिमाग सुन्न हो गया. नजीर को 2 सिपाहियों के हवाले किया और 2 सिपाहियों के साथ मौकाएवारदात के लिए रवाना हो गया. सिपाही ने मुझे बताया था कि बलराज की लाश एक बोरी में दरिया के किनारे मिली थी.

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जब मैं वहां पहुंचा तो पुलिस वाले काररवाई कर रहे थे. डीएसपी साहब भी वहीं मौजूद थे. गोली बलराज के हलक में लगी थी. जिस्म पर वर्दी मौजूद थी, पर उस की हालत से लगता था कि उस की किसी से जम कर हाथापाई हुई थी. अचानक मेरे दिमाग में एक खयाल आया. बलराज चंद घंटे पहले जब थाने से निकला था तो वह ऐसे निकला था, जैसे मुलजिम को ले कर ही आएगा. पर उस का तो कत्ल हो गया था.

डीएसपी समेत तमाम अमला ड्यूटी पर था. जैसेजैसे रात बीत रही थी, सब की बेचैनी बढ़ती जा रही थी. विलायत की तलाश में भेजी गई सारी टीमें मुस्तैदी से अपने काम में लगी थीं. बलराज के कत्ल ने मामले को और संगीन बना दिया था. हमारे पास सुबह साढ़े 10 बजे तक का वक्त था.

एसपी साहब की इत्तला के मुताबिक हालात बहुत खराब थे. शहर में काफी तनाव था. खबर मिली कि सुबह को हजारों लोग जुलूस की शक्ल में थाने तक पहुंचेंगे और धरना देंगे. डर यह था कि कहीं भीड़ थाने पर हमला न कर दे.

इस खतरे को टालना जरूरी था और उस के लिए एक ही रास्ता था, विलायत अली की बरामदगी. उस वक्त रात के ढाई बजे थे. डीएसपी साहब ने मुझे अपने कमरे में बुलाया. मैं उस वक्त नजीर से पूछताछ कर रहा था. सख्ती करने के बाद उस ने बताया कि उसी के कहने पर ही गनपतलाल और सेठ अहद ने विलायत अली को चोरी के झूठे केस में फंसाया था, लेकिन उसे उस के फरार होने के बारे में कुछ पता नहीं था. जब मैं डीएसपी साहब के कमरे में पहुंचा तो वहां वह सिपाही भी मौजूद था, जिसे मैं ने सेठ अहद की कोठी पर लगाया था.

डीएसपी के कहने पर उस ने मेरे सामने अपनी रिपोर्ट दोहराई. उस ने बताया कि शाम 4 बजे बलराज सेठ अहद के घर गया था. फिर दोनों एक कार में बैठ कर कहीं चले गए थे. उस के डेढ़ घंटे बाद बलराज की लाश मिली थी. इस रिपोर्ट में खास बात यह थी कि बलराज ने ही विलायत को फरार कराया था और उस में सेठ अहद भी शामिल था.

डीएसपी से सलाह ले कर मैं सीधा सेठ अहद को गिरफ्तार करने पहुंचा. उस वक्त सुबह हो रही थी. सेठ अहद ने अपनी गिरफ्तारी पर बहुत हंगामा किया, धमकियां भी दीं. उस की कोठी की भी तलाशी ली गई, लेकिन वहां कुछ नहीं मिला. सेठ अहद के थाने पहुंचते ही गनपतलाल और अन्य लोगों के सिफारिशी फोन आने लगे. इतना ही नहीं, 3-4 कारों से कुछ रसूख वाले लोग भी आए.

एसपी साहब भी थाने पहुंच गए. रसूखदार लोग सेठ अहद को जमानत पर छोड़ने की सिफारिश कर रहे थे. एसपी साहब ने उन की बात नहीं मानी. सेठ अहद से पूछताछ जारी थी. सुबह साढ़े 8 बज रहे थे, पर उस ने कुछ नहीं बताया था.

एकाएक मेरे जेहन में बिजली कौंधी, मैं उछल पड़ा. मैं भागता हुआ एसपी साहब के पास पहुंचा. मैं ने पूछा, ‘‘सर, इस जुलूस का सरगना कौन है? इस विरोध के पीछे कौन है?’’

एसपी साहब बोले, ‘‘वैसे तो 2-4 लोग हैं, पर खास नाम नेता गनपतलाल का है.’’

मैं तुरंत 5-6 सिपाहियों व एक एएसआई को ले कर डीएसपी साहब की जीप से फौरन रवाना हो गया. मैं सीधा गनपतलाल की कोठी पर पहुंचा. उस समय गनपतलाल वहां नहीं था. कोठी की तलाशी लेने पर एक अंधेरे कमरे में विलायत मिल गया. तुरंत उसे कब्जे में ले कर कोठी से निकल आया.

ठीक डेढ़ घंटे बाद जब मैं थाने वाली सड़क पर मुड़ा तो ट्रैफिक पुलिस वाले ने बताया कि आगे रास्ता बंद है. एक बड़ा जुलूस थाने की तरफ गया है. मैं ने घड़ी देखी, 11 बजने वाले थे. मुलजिम विलायत अली मेरी जीप में 2 सिपाहियों के बीच पिछली सीट पर बैठा था.

रास्ता बदल कर मैं थाने पहुंचा. मैं ने देखा 3-4 हजार लोगों का एक बड़ा हुजूम थाने की तरफ आ रहा था. लेकिन पुलिस ने भीड़ को थाने से करीब 50 गज दूर रोक रखा था.

मैं जीप ले कर भीड़ के पास पहुंच गया. भीड़ में सब से आगे मुझे गनपतलाल नजर आया. उस के आसपास नौजवानों ने घेरा बना रखा था. वे जोरजोर से नारे लगा रहे थे. मैं ने डीएसपी साहब से मेगाफोन मांगा. उन दिनों यह नयानया आया था.

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मैं ने मेगाफोन पर गनपतलाल का नाम पुकारा. एकदम शांति छा गई. मैं ने पूछा, ‘‘गनपतलाल, आप की डिमांड क्या है?’’

गनपतलाल भड़क कर 2 कदम आगे आया. वह चीख कर बोला, ‘‘आग लगाना चाहते हैं हम इस जुल्म के गढ़ को, जहां विलायत अली जैसे बेगुनाह लोगों की जान ली जाती है.’’ मैं ने एएसआई को इशारा किया. उस ने विलायत अली को थाम कर सारे हुजूम के सामने खड़ा कर दिया.

विलायत को जीवित देख कर गनपतलाल का चेहरा एकदम सफेद पड़ा गया. उस की आंखें फटी की फटी रह गईं. भीड़ में कुछ विलायत अली के रिश्तेदार भी थे. उन्होंने आगे बढ़ कर उसे गले लगा लिया और जोर से पूछा, ‘‘विलायत अली, तुम किस की कैद में थे?’’ विलायत के एक रिश्तेदार ने मुझ से मेगाफोन ले कर जोश में कहा, ‘‘इस में पुलिस का कुसूर नहीं है. यह सारा दोष गनपतलाल का है.’’

भीड़ में मौजूद लोग आपस में खुसुरफुसुर करने लगे. मेरी नजर गनपतलाल पर ही जमी थी. अचानक वह लड़खड़ा कर गिर पड़ा. पुलिस वाले तेजी से उस की ओर बढ़े.

उसे पुलिस की गाड़ी से अस्पताल भेजा गया, जहां पता चला कि उसे दिल का दौरा पड़ा था. अस्पताल में जब उसे होश आया तो उस से पूछताछ की गई. पता चला कि बलराज ने सेठ अहद और गनपतलाल के साथ मिल कर ही विलायत अली को थाने से फरार कराया था.

बलराज के साथ उन दोनों के गहरे संबंध थे. इस तरह उन लोगों ने एक तीर से 2 शिकार किए थे. बलराज को मुझ से बदला लेना था और गनपतलाल को वह आदमी मिल गया था, जिस का वह कत्ल करना चाहता था.

वह उस का कत्ल कर के नजीर की इच्छा पूरी करना चाहता था, ताकि नजीर पर उस की पकड़ मजबूत हो जाए. लेकिन हालात कुछ इस तरह बने कि लोग पुलिस का विरोध करने पर उतर आए. गनपतलाल पुलिस को बदनाम करने का मौका खोना नहीं चाहता था.

वह अपनी राजनीति की दुकान चमकाना चाहता था. उसी ने लोगों को भड़काया था कि पुलिस के जुल्म से विलायत मर गया है. विभागीय दबाव बढ़ने पर बलराज ने गनपतलाल से विलायत को छोड़ने के लिए कहा. उस ने उस की बात नहीं मानी. इसी बात पर दोनों में कहासुनी हुई, जो हाथापाई तक जा पहुंची. उसी दौरान बलराज ने रिवौल्वर निकाला. हाथापाई में बलराज से गोली चल गई, जो उसी को लगी.

जुलूस के सामने अगर विलायत को पेश नहीं किया जाता तो हालात बिगड़ सकते थे. जांच में नजीर मुलजिमों का साथी साबित हुआ. उस पर गबन का भी केस बना. अदालत में मामला चला तो उसे 7 सालों की सजा हुई.

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सेठ अहद और गनपतलाल को मौत की सजा हुई. बाद में हाईकोर्ट ने उन की सजा को उम्रकैद में बदल दिया. जुलेखा ने केस लड़ कर पति से तलाक ले लिया. बाद में उस ने विलायत अली से निकाह कर लिया. विलायत ने 2 सालों में बहुत तरक्की की. वह बर्फ के एक कारखाने में हिस्सेदार है. जुलेखा उस के साथ खुश है.

न्याय-अन्याय : निम्मी ने जब लांघी दरवाजे की दहलीज

न्याय-अन्याय : भाग 2 – निम्मी ने जब लांघी दरवाजे की दहलीज

लेखक – आरती लोहानी 

निम्मी अब बेफिक्र थी कि उसे मदद मिल जाएगी और वह धनी सेठ की रपट लिखा सकेगी.

शाम को देवेंद्र उस के पास आया, तो निम्मी ने सारी बात बताई और मदद मांगी.

‘‘तुम बिलकुल मत घबराओ. मैं तुम्हारी हर संभव मदद करूंगा,‘‘ पुलिस वाले ने कहा.

चाय पी कर जब देवेंद्र वहां से जाने लगा, तो अचानक बहुत तेज आंधी और बारिश होने लगी. आसमान से बिजली ऐसे कड़क रही थी, मानो सबकुछ खत्म कर के ही मानेगी. अब तो देवेंद्र को वहीं रुकना पड़ा.

छत पर सूख रहे कपड़े उतारने लिए निम्मी भागी, तो उस की साड़ी ही उड़ने लगी. देवेंद्र ने उस से कहा, ‘‘मैं ले आता हूं कपडे़. आप रहने दीजिए.‘‘

बारिश रुकने का नाम नहीं ले रही थी. इधर देवेंद्र अपने पर काबू नहीं  कर पाया और जो उस की शिकायत सुनने आया था, उसी निम्मी को दबोच बैठा, जैसे शिकारी को कोई खास शिकार हाथ लगा हो.

लगभग आधे घंटे तक तेज की बारिश होती रही और पुलिस वाला एक लाचार को अपनी जिस्म की भूख मिटाने को मसलता रहा. उस के जाने के बाद निम्मी बदहवास सी इधरउधर घूम रही थी, पर घर की दीवारें भला उसे क्या सांत्वना देती.

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वह सोच रही थी कि क्या महिला का जिस्म इतना जरूरी है कि हर कोई अपना ईमान तक गिरवी रख दे. निम्मी मर जाना चाहती थी, पर जहर भी कहां से लाए इस तालाबंदी में. उसे कुछ समझ नहीं आ रहा था.

निम्मी ने अमर को फोन करना चाहा. जैसे ही उस ने मोबाइल हाथ में लिया, तो खुद से ही सवाल करने लगी, ‘क्या कहेगी निम्मी उस से… वह परदेश में क्या करेगा, कैसे मदद को आएगा?‘

उस के बाद निम्मी ने फोन रख दिया. उसे सहसा याद आया कि बीती सुबह एक ट्रेन यहां से गुजरी थी और उस ने सुना था कि श्रमिक ट्रेन इन दिनों चल रही है. उसे अब यही एक रास्ता दिखा. किसी तरह वह रात काट लेती है और तड़के उठ कर घर से चल देती है पास में ही पटरियों की ओर.

पौ फटने का समय था और निम्मी बदहवास सी जा रही थी. सामने से आता पुजारी उसे देख लेता है और उस का पीछा करता है.

पुजारी पीपल के पेड़ को जल दे कर आ रहा था. तभी वह देखता है कि निम्मी पटरी पर लेट गई और ट्रेन की आवाज उसे सुनाई दी.

पुजारी भाग कर उसे पटरी से खींच लेता है और समझाबुझा कर घर ले आता है.

‘‘ये क्या कर रही थीं तुम… क्या करोगी इस तरह मर कर. इतनी खूबसूरत हो तुम और मुझ जैसे यौवन के पुजारी पूरी उम्र तुम्हारी पूजा करने को तैयार हैं,‘‘ पुजारी उस से कहता है.

‘‘तो और क्या करूं इस जिस्म का… कैसे इसे संभालू,‘‘ कह कर निम्मी रोने लगती है.

‘‘जरूरत ही क्या है इसे सहेज कर रखने की… ऐसा सुंदर रूप तो आज तक नहीं देखा मैं ने,‘‘ मौका पा कर पुजारी उसे सांत्वना देने के बहाने से अपने समीप ले आता है. धीरेधीरे वह उस के नशे में डूब जाता है और उसे यह भी भान नहीं रहता कि वह उस की मदद को आया था.

इसी तरह एक पुजारी भी किसी न किसी वजह से वहां आनेजाने लगा. अब तो लगभग हर रोज कोई न कोई वहां आता ही था कि तालाबंदी खत्म होने का आदेश भी जारी हो गया.

अब अमर के आने की भी उम्मीद होने लगी. इधर निम्मी अमर की राह देख रही थी, उधर निम्मी के दीवाने दुखी हो रहे थे.

निम्मी की मजबूरी का खूब फायदा उठा चुके ये लोग अभी तृप्त नहीं हुए थे. अनूप तो सोचने लगा कि अमर घर आता ही नहीं तो अच्छा था, क्योंकि उसे निम्मी के शरीर की मादक खुशबू से अभी तक मन नहीं भरा था. उस के साथ बिताया हर पल उसे याद आ रहा था.

अनूप को निम्मी की मिन्नतें, रोना और याचना करना भी याद था. उस शाम जब निम्मी चीनी लेने घर से बाहर निकली, तो वह जबरन उस के साथ अंदर आ गया. निम्मी ने उस से घर से बाहर जाने को कहा, तो उस ने मना कर दिया.

निम्मी मदद के लिए चिल्लाने लगी, तो उस ने उस का मुंह बंद कर दरवाजे की अंदर से कुंडा लगा दी. निम्मी रोती रही, पर उस की मदद को भला कौन आता. पुलिस पर भरोसा भी कैसे करे. अनूप उसे अपनी हवस की आग में जला रहा था और वह रोए जा रही थी, तभी वहां से कश्यप मास्टर गुजर रहे थे, तो उन्होंने उस की चीख सुनी तो फौरन घर की ओर मुड़े.

‘‘क्या हुआ बेटी? क्यों चीख रही हो तुम? दरवाजा खोलो बेटी.‘‘

बेटी शब्द सुनते ही निम्मी को न जाने कैसी शक्ति आ गई और उस ने अनूप के बालों को खींच कर उस के अंग पर वार कर दिया.

अनूप दर्द से चीखने लगा और मौका पा कर निम्मी ने दरवाजा खोल दिया. सामने मास्टर कश्यप खड़े थे. उन्होंने अपना अंगोछा निम्मी को ओढ़ा दिया. इस बीच अनूप भाग गया.

‘‘रो मत बेटी,‘‘ मास्टर साहब उसे सांत्वना दे रहे थे. निम्मी रोतेरोते कब मास्टर साहब की गोद में ही सो गई. मास्टर साहब ने अपनी बेटी को बुला कर निम्मी की देखभाल करने को कहा और चले गए.

अगले दिन अमर को घर आया देख वह बहुत खुश थी. अमर ने देखा कि गेहूं गोदाम में भरे हुए हैं, तो उस ने पूछा, ‘‘निम्मी, ये गेहूं किस ने काटे?‘‘

निम्मी ने उत्तर देते हुए कहा ,‘‘पुजारी और धनी सेठ ने.‘‘

अमर समझ रहा था कि निम्मी कुछ अनमनी सी है और कुछ कहने की कोशिश कर रही है, पर कुछ कह नहीं पा रही.

कुछ ही दिन बीते थे कि अमर की तबीयत खराब हो गई. उसे लोगों की मदद से अस्पताल ले जाया गया, जहां उस के टेस्ट चल रहे थे… इधर निम्मी भी एक रोज चक्कर खा कर गिर पड़ी.

पड़ोस की मिसेस सुधा उसे अस्पताल ले गई, जहां डाक्टर ने तुरंत उसे दवा दे कर कहा कि घबराने की कोई बात नहीं है… कुछ कमजोरी है… उधर, अमर के टेस्ट की रिपोर्ट आ चुकी थी. उसे डाक्टर ने एचआईवी पौजिटिव की तसदीक की, तो उस के तो जैसे पैरों के नीचे से जमीन ही खिसक गई. उसे याद नहीं आ रहा था कि उस ने ऐसा क्या किया. उस ने कभी गलत रिश्ता तो किसी से बनाया भी न था.

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अमर सोचसोच कर परेशान था. वह जैसेतैसे घर आया, तो निम्मी की तबीयत और खराब हो रही थी. उस की शुगर भी बढ़ रही थी.

अमर ने उसे तुरंत दवा दी, तो थोड़ा आराम हुआ. इस तरह दिन बीत रहे थे. अमर निम्मी को कैसे बताए, यह सोच रहा था, उधर निम्मी परेशान थी कि अमर को कैसे बताए कि कैसे उस के जिस्म के टुकड़ेटुकड़े हुए.

अमर ने चुप्पी तोड़ते हुए कहा, ‘‘निम्मी, तुम मुझ पर भरोसा करती हो न?‘‘

‘‘यह पूछने की जरूरत है अमर?‘‘

‘‘तो सुनो… मेरी रिपोर्ट एचआईवी पौजिटिव आई है,‘‘ अमर ने एक ही सांस में कह दिया, ‘‘पर, यकीन मानो कि मेरा किसी से कोई संबंध नहीं है. मुझे याद आ रहा है, जब पिछली बार मैं शहर काम से गया था, तो एक सैलून में मैं ने अपनी दाढ़ी बनवाई थी, क्योंकि मुझे मीटिंग को देर हो रही थी, इसलिए मैं ने ही नाई को जल्दी शेव करने को कहा… शायद, उस ने ब्लेड को बदला नहीं था.‘‘ गहरी सांस लेते हुए अमर ने कहा.

यह सुन कर निम्मी चुप थी. बस वह आंखों से आंसू बहाए जा रही थी. कुछ देर बाद सहसा उस के चेहरे पर एक जीत की जैसी मुसकान दौड़ गई.

अमर अपनी बीमारी के कारण ही अधमरा हुआ जा रहा था और निम्मी मुसकरा रही थी. वह बोली, ‘‘अभी चलो, मुझे भी यह टेस्ट कराना है.‘‘

‘‘कल तुम्हें भी बुलाया है डाक्टर ने,’’ अमर ने कहा.

पूरी रात दोनों के लिए काटनी मुश्किल हो रही थी. निम्मी ने भी अमर को सबकुछ सच बता दिया था. दोनों बस रोए जा रहे थे.

अगले दिन निम्मी का भी टेस्ट किया गया, तो वह भी एचआईवी पौजिटिव निकली. दुखी होने के बजाय निम्मी खुश थी. पर दोनों के लिए जीना आसान न था. दोनों अपनी मजबूरियों पर रो रहे थे. जैसेतैसे संभलते हुए दोनों घर आए और एकदूजे को दिलासा दे ही रहे थे कि अनूप, देवेंद्र, धनी सेठ, पुजारी सब निम्मी के घर आए और अमर की तबीयत पूछने लगे.

इन सब को निम्मी ने ही फोन कर के बुलाया था. पहले तो अमर को बहुत गुस्सा आ रहा था, पर जैसेतैसे संभल कर उस ने सब को निम्मी का साथ देने के लिए धन्यवाद दिया और निम्मी से चाय बनाने को कहा.

‘‘आप लोगों का मैं जितना भी धन्यवाद करूं कम ही होगा,‘‘ अमर ने कहा, तो धनी सेठ ने कहा, ‘‘इस में धन्यवाद कैसा अमर साहब… हम अगर एकदूसरे के काम नहीं आएंगे, तो और कौन आएगा?‘‘

‘‘जी, कह तो आप बिलकुल सही रहे हैं… पर आप तो हमारे दुखसुख के सचमुच भागीदार हैं. इतना ही नहीं, हमारी बीमारी के भी…‘‘ एक कुटिल हंसी के साथ अमर ने कहा.

‘‘हम कुछ समझे नहीं अमर… बीमारी के भागीदार कैसे?’’ सभी ने चौंकते हुए पूछा.

अमर ने रहस्य खोला, तो सब के सब सकपका कर रह गए और एकदूसरे का मुंह ताकने लगे.

पुजारी समेत वहां मौजूद सब के चेहरे पीले पड़ गए. उधर निम्मी और अमर चैन की सांस ले रहे एकदूसरे को हिम्मत दे रहे थे और कुदरत के इस अजब न्याय और अन्याय को समझने की कोशिश कर रहे थे.

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न्याय-अन्याय : भाग 1 – निम्मी ने जब लांघी दरवाजे की दहलीज

लेखक – आरती लोहानी 

दरवाजे की कुंडी खड़कने की आवाज सुन कर निम्मी ने दरवाजा खोला, ‘‘जी कहिए…‘‘ निम्मी ने बाहर खड़े 2 लड़कों को अभिवादन करते हुए कहा.

‘‘जी, हम आप के महल्ले से ही हैं… आप को राशन की जरूरत तो नहीं… यही पूछने आए हैं,‘‘ उन में से एक व्यक्ति ने निम्मी से कहा.

‘‘जी धन्यवाद, अभी घर में पर्याप्त राशन है…‘‘ निम्मी ने जवाब दिया.

‘‘ठीक है… जब भी जरूरत हो, तो इस मोबाइल नंबर पर फोन करना…‘‘ उन में से एक बड़ी मूंछों वाले लड़के ने निम्मी को एक कागज पर मोबाइल नंबर लिख कर देते हुए कहा.

लौकडाउन का तीसरा दिन था. पूरा शहर एक अंतहीन उदासी और सन्नाटे की ओर बढ़ रहा था. किसी को नहीं पता था कि कब बाजार खुलेगा, कब घर से बाहर निकल सकेंगे और कब हालात सामान्य होंगे. सब अपनेअपने घरों में कैद परिवारों के साथ समय बिता रहे थे.

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निम्मी का पति अमर किसी काम से दूसरे शहर गया हुआ था कि अचानक से ही कर्फ्यू जैसे हालात बन गए. निम्मी का विवाह हुए अभी सालभर भी नहीं हुआ था. निम्मी बहुत खूबसूरत थी और उस की सुंदरता के किस्से पूरे इलाके में हो रहे थे. कितने नौजवानों को अमर की किस्मत से रश्क था और कितने आदमी निम्मी को किसी न किसी तरह पाना चाहते थे, पर समाज का डर भी था. इस वक्त कइयों को पता था कि अमर घर पर नहीं है, इसलिए कई नएनए तरीकों से महल्ले के मर्द उस के घर के चक्कर काटने में लग गए.

उधर, अमर को इस बात का अंदाजा था कि उस की गैरमौजूदगी में निम्मी जरूर मुश्किलों से रूबरू होगी. अमर दिन में कई बार फोन करता और हालचाल पूछता था.

कहते हैं न कि जब मुश्किल घड़ी आती है तो अपने नातेरिश्तेदार मसलन दुख, चिंता, परेशानी और अवसाद आदि सब को साथ लाती है.

ये तालाबंदी भी निम्मी के जीवन में घोर अंधेरा ले कर आई थी. किसी तरह अपने रिश्तेदारों को फोन कर के वो अपना दर्द और अकेलापन दूर करने की कोशिश कर रही थी.

धीरेधीरे समय बीत रहा था और निम्मी को अमर से मिलने की उम्मीद दिखने लगी थी, तभी लौकडाउन को और आगे बढ़ा दिया गया. अब तो मुसीबत ही मुसीबत.

एक ओर राशन खत्म हो रहा था, तो वहीं दूसरी ओर अमर के खेत में गेहूं की खड़ी फसल. अब कौन फसल को काटे और कौन मंडी ले जाए.

हिमालय सरीखा सवाल निम्मी के सामने खड़ा था. वो किस से मदद मांगे, किस पर भरोसा करे और कैसे करे… क्योंकि निम्मी घर से बाहर कम निकलती थी. शादी कर के जब से वह यहां आई थी, उस ने किसी से कोई खास मेलजोल नहीं बढ़ाया था.

निम्मी सोच ही रही थी, तभी अमर का फोन का फोन आया, ‘‘निम्मी, मुझे तो अभी वहां आना संभव नहीं लगता… खेत का क्या हाल है… तुम गई हो क्या किसी रोज?‘‘ अमर ने चिंता जाहिर करते हुए पूछा.

‘‘बस एक दिन गई थी… फसल पक चुकी है, पर अमर, अब ये कटेगी कैसे… मजदूर भी नहीं मिल रहे हैं इस समय यहां,‘‘ निम्मी ने बताया. कुछ और इधर उधर की बात कर के निम्मी ने फोन रख दिया.

तभी उस के दरवाजे पर किसी ने आवाज दी, ‘‘अमर… ओ अमर, बाहर निकल.‘‘

महल्ले के धनी सेठ की आवाज सुन कर निम्मी बाहर आई.

‘‘अमर को बुलाओ तो बाहर. उस से कहो कि अगर गेहूं को जल्द ही नहीं काटा तो सारी फसल खराब हो जाएगी.‘‘

‘‘जी, वे तो शहर से बाहर गए थे किसी काम से और तालाबंदी के चलते वहीं फंस गए,‘‘ निम्मी ने बताया.

हालांकि धनी सेठ अच्छी तरह से जानता था कि अमर घर पर नहीं है, फिर भी अनजान बनने की अदाकारी बखूबी कर रहा था. बोला, ‘‘ओह, लेकिन अगर फसल नहीं कटेगी तो भारी नुकसान उठाना पड़ेगा…‘‘ धनी सेठ ने हमदर्दी जताने की कोशिश की और बातचीत जारी रखी.

‘‘ठीक है, अब मैं चलता हूं… अगर कोई जरूरत हो, तो मुझे जरूर बता देना. मैं गेहूं मंडी तक पंहुचा दूंगा.‘‘

‘‘जी जरूर… वैसे, इतनी खेती तो है नहीं कि मंडी तक पंहुचाई जाए. हमारा ही गुजर होने लायक अनाज होता है,‘‘ निम्मी ने हाथ जोड़ कर कहा.

धनी सेठ कई सवाल ले कर जा रहा था कि निम्मी मुझे बुलाएगी या नहीं, क्या कभी निम्मी के साथ गुफ्तगू संभव है. वह खुद से ही बोले जा रहा था कि सामने से आते हुए पुजारी से सामना हो गया.

‘‘प्रणाम पुजारीजी… कैसे हैं आप?‘‘ धनी सेठ पुजारी से बोला.

‘‘चिरंजीवी रहो सेठ… तरक्की तुम्हारे कदम चूमे,‘‘ दोनों हाथ से आशीष देते हुए पुजारी ने कहा.

‘‘इस दुपहरी में कहां से आ रहे हैं और कहां जा रहे हैं?‘‘ धनी सेठ ने पुजारी से पूछा.

सकपकाते हुए पुजारी ने उत्तर दिया, ‘‘बस, एक यजमान के घर से आ रहा हूं… सोचा, थोड़ा नदी किनारे टहल ही आऊं.‘‘

‘‘अच्छाजी रामराम,‘‘ कह कर धनी सेठ आगे बढ़ गया.

इधर निम्मी ने अमर को धनी सेठ के प्रस्ताव के बारे में बताया, तो अमर ने साफ इनकार करने को कहा, क्योंकि वह उसे अच्छी तरह जानता था और इस सहयोग के पीछे की मंशा पर भी उसे संदेह था.

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निम्मी ने फोन रखा ही था कि घर का दरवाजा किसी ने खटखटाया.

‘‘प्रणाम पुजारीजी,‘‘ निम्मी ने दरवाजा खोल कर सामने खड़े पुजारी का अभिवादन किया.

पुजारी ने भी धनी सेठ की तरह हमदर्दी और सहयोग का प्रस्ताव दिया. इसी तरह हेडमास्टर किशोर कश्यप ने भी सहयोग का प्रस्ताव निम्मी के सामने रखा.

निम्मी असमंजस में थी. एक ओर उस की शुगर की दवा भी खत्म हो रही थी, वहीं दूसरी ओर राशन भी खत्म होने को था.

अगले दिन मुंह पर चुन्नी लपेटे निम्मी महल्ले की दुकान तक गई. वहां से जरूरी सामान ले कर वह लौट रही थी, तभी सामने से उसी मूंछ वाले लड़के ने उसे पहचान लिया. उस का नाम अनूप शुक्ल था.

उसी ने हमदर्दी जताते हुए निम्मी से कहा, ‘‘अरे निम्मीजी, आप को किसी चीज की जरूरत थी, तो मुझ से कहतीं… आप क्यों इस धूप में बाहर निकलीं.‘‘

‘‘जी, इस में परेशानी की कोई बात नहीं… बस इस बहाने मैं टहल भी ली और सामान भी ले लिया.‘‘

इतना कह कर निम्मी तेजी से घर की ओर बढ़ गई. पर, तभी खयाल आया कि उस ने शुगर की दवा तो ली नहीं. वजह, उस की शुगर की दवा अगले दिन बिलकुल ही खत्म हो रही थी और मैडिकल स्टोर बहुत दूर था. तभी उसे अनूप के मोबाइल नंबर वाला कागज भी दिख गया, तो उस ने उसे फोन कर ही दिया.

फोन सुनते ही अनूप वहां आया. परेशानी सुन अनूप ने उसे फौरन दवा ला कर दे दी.

इसी तरह कुछ दिन बीत गए, पर गेहूं की फसल का कुछ तो करना था, वह यह सोच ही रही थी कि धनी सेठ और पुजारी कुछ मजदूरों के साथ उस के घर आ गए.

‘‘आप तो संकोच करेंगी निम्मीजी, पर हमारा भी तो कोई फर्ज बनता है कि नहीं?‘‘

‘‘मैं कुछ समझी नहीं,‘‘ निम्मी ने कहा.

‘‘इस में न समझने जैसा क्या है? बस, तुम हां कह दो, तो खेत से गेहूं ले आएं.‘‘

निम्मी कुछ समझती, इस से पहले दोनों ने मजदूरों को खेत में जाने का आदेश दे दिया. निम्मी ने औपचारिकतावश उन को चाय पीने को कह दिया. दोनों चाय पी कर चले गए.

उसी शाम धनी सेठ फिर निम्मी के घर आ धमका और बोला, ‘‘तुम ठीक तो हो न निम्मी… मेरा मतलब है कि खुश तो हो.‘‘

‘‘जी, मैं ठीक हूं,‘‘ निम्मी ने कहा. धीरेधीरे सेठ उस की ओर बढ़ने लगा… और पास आ कर बोला, ‘‘तुम इतनी खूबसूरत और कमसिन हो…‘‘ इतना कह कर उस ने निम्मी की कमर में हाथ डाल दिया.

निम्मी कुछ रोकती या कहती, सेठ ने उस के मुंह पर हाथ रख दिया और उसे बेहिसाब चूमने लगा. निम्मी रोती, कभी मिन्नत करती. विरोध की हर कोशिश उस की जाया हो रही थी. धनी सेठ की मजबूत बांहों से बचना उस के लिए नामुमकिन था. हर तरह का वास्ता निम्मी दे चुकी थी, पर जिस्म के भूखे सेठ को कुछ दिखाई नहीं दे रहा था, सिवाय निम्मी के शरीर के और उस ने उसे हर तरीके से भोगा. लगभग घंटेभर बाद वह झूमता हुआ घर से निकला, मानो सालों की प्यास बुझ गई हो.

सेठ के जाने के बाद निम्मी जोरजोर से रो रही थी, पर उस की चीख सुनने वाला कोई न था. सहसा उसे याद आया कि उस के महल्ले का देवेंद्र सिंह पुलिस में नौकरी करता है. किसी तरह निम्मी ने उस का पता किया.

‘‘हैलो… कौन बोल रहा है?‘‘ देवेंद्र सिंह ने फोन रिसीव करते हुए पूछा.

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‘‘जी, मैं आप के ही महल्ले से बोल रही हूं… मुझे आप की मदद चाहिए,‘‘ निम्मी ने जवाब दिया.

‘‘आप को अगर कोई परेशानी है, तो आप थाने आ कर रपट लिखा सकती हैं,‘‘ देवेंद्र सिंह ने यह कह कर फोन रख दिया.

निम्मी ने फिर से फोन किया, ‘‘हैलो… प्लीज, फोन मत काटना… मैं… मैं निम्मी बोल रही हूं. आप के ही महल्ले में रहती हूं. मेरे पति अमर इस समय यहां नहीं हैं और मैं मुसीबत में हूं.’’

अमर का नाम सुनते ही वह निम्मी को पहचान गया. ‘‘अच्छाअच्छा, मैं समझ गया. आप चिंता न करें. मैं शाम को आप के पास आता हूं.”

जानें आगे क्या हुआ कहानी के अगले भाग में…

कायर : भाग 1 – कैसे बन गए दोनों में संबंध

बचपन की एकएक कर उभर रही तमाम घटनाओं ने विशाल के दिलोदिमाग पर बहुत ही गहरा असर छोड़ा था. यही वजह थी कि जब कभी भी वह किसी मर्द को औरत के ऊपर हाथ उठाते हुए देखता था तो उस की रगों में बहता जवान खून खौल जाता था.

बचपन में विशाल ने अपनी मां पर होने वाले बाप के जुल्मों को देखा था और यह उसी का नतीजा था.

विशाल का बाप शराबी था. वह शाम को शराब पी कर ही घर आता था. मां घर के राशनपानी के लिए पैसे मांगती थीं तो बाप गालियां बकने लगता था, पीटने लगता था.

मां को शराबी बाप की पिटाई से बचाने की कोशिश में विशाल कई बार बाप की टांगों से लिपट जाता था. इस पर शराबी बाप उसे दोनों हाथों से उठा कर चारपाई पर पटक देता था.

विशाल को एक ऐसे माहौल में रहने को मजबूर होना पड़ रहा था जहां मर्दों द्वारा औरतों से गालीगलौज और मारपीट करना एक मामूली बात थी.

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विशाल के बाप को उस की शराब ही ले डूबी थी. मां भी बहुत ज्यादा दिन जिंदा नहीं रही थीं पर मरने से पहले उन्होंने विशाल को इतना काबिल बना दिया था कि वह दो वक्त की रोटी कमा सके.

पेट पालने के लिए विशाल को कोई ढंग का रोजगार चाहिए था. लिहाजा, गांव को छोड़ वह कामधंधे की तलाश में शहर आ गया था. गांव वाला मकान बेच कर विशाल को इतने पैसे मिल गए थे कि शहर में कामधंधे की तलाश करते हुए वह कुछ दिन अपना गुजारा कर सके.

शहर में विशाल को रहने के लिए जहां किराए की जगह मिली वह एक झुग्गी बस्ती थी. वहां लड़ाईझगड़ा होना आम बात थी. इलाके में रहने वाले ज्यादातर लोग मेहनतमजदूरी कर के पेट पालते थे. सारा दिन मजदूरी कर के पैसे कमाना और रात को शराब पी कर गालीगलौज और लड़ाईझगड़ा करना वहां के तकरीबन सभी मर्दों की आदत थी.

विशाल को रहने के लिए किराए की जो जगह मिली थी, उस का मालिक रघुनाथ नाम का शख्स था. लोग उसे रघु कह कर पुकारते थे. रघु की उम्र 45 साल थी. वह किराए का आटोरिकशा चलाता था और पक्का शराबी था.

रघु ने अपने मकान का आगे वाला हिस्सा विशाल को किराए पर दिया था. वह कमरा अकेली जान के लिए काफी था. रघु मकान के पिछले वाले हिस्से में रहता था.

मकान के अगले और पिछले वाले हिस्से के बीच में एक आंगन था. आंगन में एक तरफ गुसलखाना और शौचालय बना हुआ था. वहां से कुछ ही दूरी पर पानी का सरकारी नल लगा हुआ था. सुबहशाम उस में एक घंटे के लिए पानी आता था.

रघु की बेहद खूबसूरत और जवान बीवी थी जो उम्र में उस से आधे से भी कम की लगती थी.

रघु की बीवी ने विशाल की जिंदगी में जबरदस्त हलचल पैदा कर दी थी. रघु की जवान बीवी से विशाल का सीधा आमनासामना किराए की जगह पर आने के 2 दिन बाद उस वक्त हुआ था जब वह सुबह आंगन में लगे हुए नल में से पानी की बालटी भर रहा था. ठीक उसी समय खाली बालटी हाथ में लिए अपने कमरे से बाहर निकल रघु की बीवी भी नल की तरफ आ गई.

वह अभीअभी नींद से जगी लगती थी. उस के बेहिसाब हुस्न और जवानी की दमक किसी बिजली की तरह विशाल के दिल पर गिरी. वह कुछ पल के लिए बुत बन कर रह गया. एकदम से गोरा रंग, तीखे नाकनक्श, खूब भराभरा सा बदन विशाल की रगों में बहता लहू उबलने लगा.

किसी तरह अपनी हालत को काबू में करते हुए विशाल ने अपनी बालटी को नल के नीचे से हटा दिया ताकि वह पहले पानी भर सके.

विशाल के बालटी हटाने पर उस ने अपनी खाली बालटी नल के नीचे रख दी और उस के भरने का इंतजार करने लगी. इस बात का फायदा उठाते हुए विशाल उस के रूप और जोबन का रसपान करता रहा.

बालटी जब लबालब भर गई तो वह झुक कर उस को उठाने लगी. वह दुपट्टा नहीं लिए थी इसलिए जब वह पानी से भरी बालटी उठाने के लिए झुकी तो कसे हुए सूट में से उस के उभारों की झलक विशाल पर जैसे सैकड़ों बिजलियां गिरा गईं.

विशाल को उस के चेहरे के भावों से लगा कि बालटी को उठा कर अपने कमरे तक ले जाने में उसे काफी दिक्कत महसूस हो रही थी. उस ने कहा, ‘‘लाइए, मैं छोड़ आता हूं.’’

उस ने इनकार नहीं किया. एक नजर विशाल को देखते हुए उस ने पानी से भरी हुई बालटी विशाल के बढ़े हाथ में थमा दी.

बालटी थामते वक्त विशाल का हाथ उस के हाथ से छू गया. विशाल की रगों में एक सनसनाहट सी फैल गई.

पानी से भरी बालटी उस के कमरे तक पहुंचा कर जब विशाल वापस जाने को हुआ तो वह एकाएक बोली, ‘‘तुम ही शायद नए किराएदार हो. मैं अभी तक तुम्हारा नाम भी नहीं जानती.’’

‘‘विशाल नाम है मेरा.’’

‘‘अच्छा नाम है. शादीशुदा हो?’’

‘‘शादी तो अभी बाद की बात है, फिलहाल तो मैं नौकरी ढूंढ़ रहा हूं,’’ विशाल ने कहा.

‘‘शराब पीते हो?’’ उस ने अटपटा सा सवाल पूछा.

‘‘नहीं, मुझे शराब से नफरत है,’’ विशाल ने जवाब दिया. पहली बार की मुलाकात में ही उस के इतने सवालों से विशाल हैरान था.

‘‘अच्छी बात है. कम से कम शादी के बाद तुम्हारी बीवी को पीटना तो नहीं पड़ेगा,’’ तारा ने ठहाका मार कर हंसते हुए कहा.

विशाल से बातचीत को खत्म करने से पहले रघु की बीवी एक बहाने से उसे अपना नाम बताना नहीं भूली, ‘‘हम दोनों की उम्र में इतना फासला नहीं है कि तुम मुझे आप कह कर बुलाओ. मेरा नाम तारा है. तुम मुझ को मेरा नाम ले कर भी बुला सकते हो,’’ इतना कहने के बाद वह पानी की बालटी उठा कर कमरे के अंदर चली गई.

इस के बाद तैयार हो कर विशाल काम की तलाश में घर से निकला तो उस के खयालों में तारा छाई हुई थी. तारा एक शादीशुदा औरत थी. उस के लिए जैसी भावनाएं विशाल के मन में जन्म ले रही थीं वे एक तरह से गलत थीं. मगर अपनी इन गलत भावनाओं पर विशाल का कोई कंट्रोल नहीं था.

नौकरी तो नहीं मिली, पर बाहर ढाबे पर खाना खा कर घर आने में विशाल को देरी हो गई.

घर का दरवाजा खुला हुआ था. अंदर दाखिल होने के बाद अपने कमरे का ताला खोलने से पहले विशाल ने एक सरसरी नजर आंगन के दूसरी तरफ डाली. वहां कमरे की लाइट जल रही थी और बरतनों की हलकी खनक भी सुनाई दे रही थी.

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मकान के बाहर रघु का आटोरिकशा नहीं खड़ा था. इस का मतलब था कि वह अभी घर नहीं आया था.

विशाल में एक अजीब सी बेचैनी भर गई. उसे डर लगने लगा कि खयालों के भटकाव में उस से कहीं कुछ गलत न हो जाए. लिहाजा विशाल अपने कमरे में आया और अंदर से कुंडी लगा ली.

इस के बाद विशाल चारपाई पर लेट तो गया, मगर नींद उस की आंखों से कोसों दूर थी. न चाहते हुए भी उस का खयाल बारबार तारा की तरफ ही जा रहा था. नींद विशाल की आंखों से आंखमिचौली खेलती रही. उस रात वह हुआ जिस में एक बार फिर से विशाल में सालों पहले वाले हालात में ला कर खड़ा कर दिया.

उस रात रघु ज्यादा शराब पी कर घर आया था. ज्यादा कमाई होने पर शायद वह ज्यादा शराब पी लेता था.

विशाल ने आटोरिकशा के आने की आवाज सुनी. कुछ देर बाद मकान का दरवाजा भी जोरदार आवाज के साथ बंद हुआ.

विशाल को डर था कि रघु के ज्यादा पी कर आने के नतीजे में कुछ न कुछ अनहोनी होगी.

विशाल का डर गलत नहीं निकला. रात की खामोशी को चीरते हुए पहले ऊंची आवाज में रघु और तारा के बीच तीखी कहासुनी की आवाजें सुनाई दीं. इस के बाद एकाएक ही कहासुनी भारी गालीगलौज और मारपीट में बदल गई. तारा के दर्द से चीखनेचिल्लाने की आवाजें आने लगीं. साफ था कि रघु उसे पीट रहा था.

विशाल बेचैन हो बिस्तर से उठ बैठा. उस का खून खौल रहा था. बाजुओं की नसें फड़क रही थीं पर वह अपनी बेबसी पर छटपटाता रहा.

सवाल यह था कि वह कैसे और किस हैसियत से पतिपत्नी के मामले में दखल दे सकता था. समाज इस की इजाजत नहीं देता था.

रात के अनुभव से सुबह विशाल का मन खिन्न था. आंखें भी न सोने की वजह से भारी थीं इसलिए नौकरी की तलाश में घर से बाहर निकलने का इरादा उस ने छोड़ दिया.

रात को कसाई की तरह अपनी बीवी को पीटने वाला रघु अपने ठीक समय पर आटोरिकशा ले कर कामधंधे के लिए निकल गया.

विशाल दरवाजा खोल कर अपने कमरे से बाहर आ गया. उस की नजरें आंगन के दूसरी तरफ गईं. वहां कोई दिखाई नहीं दिया.

विशाल कुछ पल कशमकश वाली हालत में रहा और फिर उस के कदम अपनेआप आंगन के दूसरी तरफ जाने के लिए उठ गए.

विशाल को देख कर तारा चौंक गई. बीती रात हुई मारपीट के निशान उस के चेहरे पर साफ देखे जा सकते थे. उस की बाईं आंख के नीचे और ऊपरी होंठ पर सूजन नजर आ रही थी. बाकी जिस्म पर भी मारपीट के निशान जरूर रहे होंगे जो विशाल देख नहीं सकता था.

विशाल खुद को रोक नहीं सका और गुस्से का इजहार करते हुए बोला, ‘‘तुम्हारा मर्द इनसान है या जानवर. कोई अपनी औरत को इस तरह से पीटता है भला?’’

‘‘तो कैसे पीटता है?’’ तारा ने सवाल किया.

तारा के सवाल का जवाब विशाल को नहीं सूझा और वह बगलें झांकने लगा.

यह देख तारा अजीब तरीके से हंस दी और बोली, ‘‘तुम अभी इस बस्ती में नएनए आए हो इसलिए अजीब लगता होगा. मगर इस बस्ती में सभी मर्द अपनी औरतों को ऐसे ही पीटते हैं. तुम को यहां रहना है तो यह सब देखने की आदत डालनी होगी.’’

‘‘शायद तुम ने भी अपने मर्द के हाथों इस तरह से पिटने की आदत डाल ली है?’’ विशाल ने चुभती हुई आवाज में कहा.

‘‘इस के सिवा मैं कर भी क्या सकती हूं?’’

‘‘ऐसे जानवर को छोड़ क्यों नहीं देतीं?’’

‘‘छोड़ कर मैं कहां ठिकाना करूं? मांबाप ने बेचा था तो इस जानवर के पल्ले पड़ गई. अब इसे छोड़ कर क्या मैं किसी कोठे पर जा कर बैठ जाऊं?’’ तारा का लहजा बड़ा तल्ख था.

‘‘इस तरह की बातें पागलपन हैं. जिंदगी जीने के और भी रास्ते हैं,’’ विशाल ने कहा.

‘‘हमदर्दी जताते के लिए शुक्रिया. बिना किसी मर्द के समाज में एक अकेली और बेसहारा औरत की जिंदगी खुले मैदान में पड़े मांस के टुकड़े से ज्यादा नहीं होती, जिस को हर कोई नोचना चाहेगा.’’

‘‘तुम किसी दूसरे मर्द का हाथ भी तो थाम सकती हो?’’

‘‘जबरदस्ती…? जब तक कोई मेरा हाथ मांगने के लिए अपना हाथ आगे नहीं करेगा तब तक मैं उस का हाथ कैसे मांग सकती हूं? असली जिंदगी और बातों में बड़ा फर्क होता है,’’ तारा बोली.

‘‘एक बार इस नरक की जिंदगी से छुटकारा पाने का इरादा कर लोगी तो कोई न कोई हाथ थामने वाला भी मिल ही जाएगा,’’ विशाल ने कहा.

‘‘तुम थामोगे मेरा हाथ…?’’ तारा ने पूछा.

‘‘हां, मैं ऐसा कर सकता हूं,’’

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जोश में विशाल की जबान से यह बात निकल गई.

‘‘एक बार फिर सोच लो. याद रखो, औरत एक बेल की तरह है. सहारा देने वाले से एक बार लिपट जाए तो आसानी से छोड़ती नहीं,’’ तारा ने जोर दे कर कहा.

‘‘बेल लिपटने की हिम्मत तो दिखाए. सहारा भी कभी उस को छोड़ना नहीं चाहेगा,’’ तारा के गदराए जिस्म पर नजर गड़ाते हुए विशाल ने कहा.

तारा को जैसे यही बात कहने का इंतजार था. वह किसी बेल की तरह विशाल से लिपट गई. सबकुछ इतना अचानक और तेजी से हुआ कि विशाल हक्काबक्का रह गया.

शादीशुदा होने के बावजूद मर्द के मामले में तारा प्यासी लगती थी. वासना के उफनते ज्वार में जो भूमिका एक मर्द होने के नाते विशाल की बनती उस को एक तरीके से तारा निभा रही थी और उसे बेतहाशा चूम रही थी.

कुछ पलों में ही तारा ने जैसे अपने जिस्म की सारी गरमी और प्यार विशाल की रगों में उतारने की कोशिश की.

जब ज्वार उतरा तो उस की आंखों में कोई पछतावा नहीं था बल्कि उस की जगह जीने की एक नई उमंग थी, कुछ सपने थे.

विशाल के लिए तारा का जिस्म पाना एक तिलिस्म जैसा था. तारा ने उस तिलिस्म को एक झटके में ही खोल दिया था. सबकुछ इतना जल्दी हो गया था कि विशाल हैरान था.

तारा के साथ गहराते रिश्तों के बीच विशाल को बहुत सी बातें जानने को मिलीं. कुछ महल्ले के लोगों से तो कुछ तारा की जबानी.

(क्रमश:)

 क्या विशाल ने तारा का साथ जिंदगीभर निभाया? क्या तारा रघु से छुटकारा पा सकी? पढ़िए अगले अंक में…

कायर : भाग 2 – कैसे बन गए दोनों में संबंध

पिछले अंक में आप ने पढ़ा था…

विशाल का बाप शराबी था. वह उस की मां को रोज पीटता था. विशाल को उस से नफरत हो गई थी. मांबाप के मरने के बाद विशाल रोजगार के लिए शहर आ गया और किराए पर रहने लगा. उस का मकान मालिक रघु अधेड़ उम्र का था, जो अपनी कमउम्र पत्नी तारा को जानवरों की तरह पीटता था. तारा की बेबसी देख कर विशाल उस का हमदर्द बन गया. धीरेधीरे तारा उस की ओर खिंचने लगी. कुछ दिनों बाद उन में संबंध बन गए.

अब पढ़िए आगे…

महल्ले के लोग रघु के बारे में अच्छी राय नहीं रखते थे. वे उसे मुंह लगाना भी पसंद नहीं करते थे. तारा को रघु ने जोरजबरदस्ती और पैसे के दम पर हासिल किया था. तारा की मानें तो रघु से पैसे ले कर उस के गरीब मांबाप ने उसे रघु के हवाले कर दिया था. शादी की रस्में तो कहने को निभाई गई थीं.

तारा के साथ जिस्मानी रिश्ता बनाने के बाद जब कोई परदा नहीं रहा तो विशाल ने उस के जिस्म पर मारपीट के निशान देखे. ‘‘यह इनसान तो मेरी उम्मीद से भी ज्यादा वहशी है. कब तक तुम यह सब सहती रहोगी?’’ विशाल ने पूछा.

‘‘जब तक मेरा नसीब चाहेगा,’’ एक ठंडी सांस भरते हुए तारा ने कहा. ‘‘नसीब को बदला भी जा सकता है,’’ विशाल बोला.

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‘‘अगर सचमुच ऐसा हो सकता है तो बिना देरी किए अभी मेरा हाथ थामो और यहां से कहीं दूर ले चलो,’’ उम्मीद भरी नजरों से विशाल को देखते हुए तारा ने कहा.

‘‘नहीं, अभी सही समय नहीं है. इस के लिए थोड़ा इंतजार करना होगा… जब तक मेरा कहीं और ठिकाना नहीं बन जाता,’’ विशाल बोला. ‘‘ठीक है, मैं तब तक इंतजार करूंगी. एक बात का ध्यान रखना कि मेरी बरदाश्त की हद हो सकती है, मगर रघु के वहशीपन और जुल्म की कोई हद नहीं है,’’ तारा की बात में एक किस्म की मायूसी थी.

‘‘मैं वह हद नहीं आने दूंगा. उस से पहले ही मैं तुम को इस नरक से निकाल दूंगा,’’ विशाल ने भरोसा दिया. ‘‘उम्मीद नहीं है कि मेरे साथ धोखा नहीं होगा,’’ तारा बोली. जाल में फड़फड़ाते पक्षी के समान वह जल्दी से इस जाल को काट कर उड़ने को बेचैन थी.

इस में जरा भी शक नहीं कि एक औरत के रूप में तारा ने विशाल को जितना दिया था उस से ज्यादा कोई भी औरत किसी मर्द को नहीं दे सकती थी. लेकिन विशाल की सोच एकाएक मतलबी हो चली थी. एक आम मर्द की तरह वह भी सोचने लगा था कि तारा अब तक उस को जो दे चुकी थी स्थायी रिश्ते में उस से ज्यादा क्या दे सकती थी? इनसानी हमदर्दी वाली सोच पर वासना हावी होने लगी थी.

औरत को जिस्मानी तौर पर हासिल करने के बाद अकसर कई मर्दों को यह लगने लगता है कि औरत के पास अब उस को देने के लिए कुछ खास नहीं रहा. इसी बीच न जाने कैसे अचानक रघु को इन दोनों के संबंधों को ले कर शक होने लगा. शक्की मर्द अकसर बेहद बेरहम हो जाता है, लेकिन रघु बेरहमी के मामले में पहले ही जानवर था. उस ने तारा पर जुल्मों की हद कर दी.

मगर यह क्या… तारा की रौंगटे खड़े कर देने वाली चीखों को सुन कर विशाल की रगों में बहते खून का खौलना एकाएक बंद हो गया था. खून के ठंडेपन से विशाल खुद भी हैरान था. इस सब के पीछे कहीं न कहीं विशाल के अंदर की कायरता थी. वह सच का सामना करने से घबरा रहा था. हालात का यही तकाजा था कि वह तारा को ले कर जल्दी ही कोई फैसला करे.

एक दिन सुबहसवेरे काम पर जाने से पहले रघु ने विशाल को एक हफ्ते के अंदर जगह खाली करने का हुक्म दे दिया, ‘‘7 दिन के अंदर शराफत से जगह खाली कर देना, वरना सामान उठा कर बाहर फेंक दूंगा.’’ रघु की धमकी वाली जबान विशाल को अखरी, फिर भी कड़वा घूंट पी कर वह खामोश रहा. वैसे देखा जाए तो विशाल वहां से भागने की तैयारी कर रहा था, चुपके से चोरों की तरह.

7 दिन में जगह खाली करने वाली बात तारा को शायद मालूम नहीं थी. मगर रघु के इतना कह कर जाने के कुछ देर बाद ही तारा विशाल के कमरे में आ गई. वह बहुत ही टूटी हुई नजर आ रही थी.

‘‘अब मुझ से और बरदाश्त नहीं होता. मैं पता नहीं क्या कर बैठूंगी? देखो, जालिम ने इस बार मुझ पर कैसा सितम ढाया है,’’ यह कहने के बाद तारा ने ब्लाउज को हटा कर अपने बदन पर जलती बीड़ी से दागने के निशान विशाल को दिखाए. उन निशानों को देख एक बार तो विशाल भी कांप गया.

‘‘क्या इतना सब देखने के बाद भी तुम मुझ को अभी इंतजार करने के लिए ही कहोगे?’’ तारा ने पूछा. विशाल से जवाब देते नहीं बना. तारा ने जैसे सीधे उस की मर्दानगी पर ही सवाल उठाया था.

‘‘नहीं, अब तुम को ज्यादा इंतजार नहीं करना होगा. मैं जल्दी ही तुम को इस नरक से निकाल कर कहीं दूर ले जाऊंगा,’’ सूखे होंठों पर जबान फेरते हुए विशाल ने कहा. ‘‘आज तुम्हारे शब्दों में पहले वाली आग नहीं रही है. फिर भी मेरे पास इस के सिवा कोई चारा नहीं कि मैं तुम्हारी बात पर यकीन करूं. वैसे भी मेरी हालत बेल जैसी है. सहारा गया तो खत्म,’’ तारा ने अजीब हंसी हंसते हुए कहा.

‘‘तुम को मुझ पर बने अपने भरोसे को कायम रखना चाहिए.’’ ‘‘इसी की कोशिश कर रही हूं, मगर मेरी बरदाश्त की एक हद है और इस हद के टूटने से मैं कब क्या कर बैठूंगी, मैं खुद नहीं जानती,’’ इतना कहने के बाद तारा चली गई.

तारा के तेवर विशाल को हैरानी में डालने वाले थे. पहले कभी तारा ने ऐसे अंदाज में बात नहीं की थी. विशाल को महसूस भी हुआ कि वह कायर था, औरत पर जुल्म होता देख उस की रगों में उबलने वाला खून बासी कढ़ी में आए उबाल से ज्यादा नहीं था. हकीकत का सामना करने की उस में हिम्मत नहीं थी. तारा के प्रति हमदर्दी के पीछे कहीं वासना की वह चाशनी थी जिस का स्वाद चखने के बाद विशाल की सोच में बहुत बदलाव आ गया था.

विशाल यह बात भी नजरअंदाज नहीं कर सकता था कि तारा दुनिया की नजरों में एक शादीशुदा औरत थी. उस के साथ विशाल के संबंध दुनिया की नजरों में गलत थे. उस पर रघु भी एक खतरनाक इनसान था. उस से दुश्मनी मोल लेने की विशाल में हिम्मत नहीं थी. रघु विशाल को एक हफ्ते के अंदर कमरा खाली करने की चेतावनी दे चुका था. रघु और विशाल के बीच कोई लेनदेन नहीं रह गया था. जगह का किराया वह महीने के शुरू में ही रघु को दे चुका था.

सामान के नाम पर विशाल के पास भारीभरकम कुछ भी नहीं था. वह किसी भी समय जगह खाली करने के लिए आजाद था. रात के वक्त चुपचाप ही अपनी जगह को छोड़ने से बेहतर रास्ता विशाल को नजर नहीं आ रहा था. दिन के उजाले में तारा कभी भी उस को आसानी से जाने नहीं देती.

आखिर रघु द्वारा दी गई समय सीमा के खत्म होने से पहले ही एक रात को विशाल ने खामोशी से अपना सामान बांधा और चोरों की तरह वहां से निकल जाने का फैसला किया. पर आधी रात के समय इस से पहले कि विशाल चोरों की तरह अपना सामान उठा कर वहां से निकल पाता एकाएक तारा दरवाजे पर आ कर खड़ी हो गई.

तारा को देख विशाल सकते में आ गया. उस की चोर जैसी हालत हो गई. इस से पहले कि वह कुछ कह पाता, तारा ने एक नजर बंधे हुए सामान पर डाली और फिर उस की तरफ देखने लगी. तारा की खामोश आंखों में कई सवालों के रूप में एक आग सी धधक रही थी. उस आग ने विशाल को डरा दिया.

एकाएक तारा अजीब ढंग से हंसी और बोली, ‘‘मैं तुम्हारे भरोसे किस हद से गुजर गई और तुम एक मर्द हो कर भी इस तरह रात के अंधेरे में चोरों की तरह भाग रहे हो. मैं हैरान भी हूं और सदमे में भी हूं. आखिर मैं ने तुम्हारे जैसे कायर मर्द पर भरोसा कैसे कर लिया? ‘‘मगर, अब पछताने का कोई मतलब नहीं. मैं इतनी आगे बढ़ आई हूं कि वापसी के सभी रास्ते बंद हो चुके हैं.

‘‘तुम जैसे भी हो, मेरी किस्मत अब तुम्हारे साथ ही बंध गई है. मेरा हाथ पकड़ो और सुबह होने से पहले यहां से कहीं दूर निकल चलो. इस बात को तुम दिमाग से निकाल दो कि मैं तुम्हें अकेला यहां से जाने दूंगी.’’ तारा के लहजे में खुली धमकी थी जिस ने विशाल को चौंका दिया.

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‘‘तुम्हें गलतफहमी हो गई है. मैं इस समय कहीं नहीं जा रहा हूं, तुम को भी इस तरह इस वक्त मेरे कमरे में नहीं आना चाहिए था. रघु को इस बात का पता चल गया तो हम दोनों के लिए मुसीबत खड़ी हो जाएगी.’’ ‘‘एक औरत से प्यार भी करते हो और इस तरह डरते भी हो. तुम मुझ को एक खूबसूरत जिंदगी का सपना दिखा कर कायर हो गए और मैं तुम्हारे भरोसे क्या से क्या बन गई? झूठ बोलने से कोई फायदा नहीं.

‘‘मैं जानती हूं कि तुम चुपचाप यहां से भागने की तैयारी में थे. लेकिन अब मुझे साथ लिए बगैर तुम ऐसा नहीं कर सकोगे. मैं ने तुम से पहले ही कहा था कि औरत एक बेल की तरह होती है. लिपट जाए तो आसानी से छोड़ती नहीं. ‘‘रही बात रघु की, उस से डरने वाली कोई बात नहीं. वह यहां नहीं आएगा और न ही हमें जाने से रोकेगा. मुरदे कभी जागते नहीं,’’ तारा ने ठंडी आवाज में कहा.

‘‘क्या मतलब…?’’ विशाल के शरीर को जैसे बिजली का तार छू गया. ‘‘मतलब यह कि मैं ने उस जानवर को मौत के घाट उतार दिया है. जो खुद को मेरा पति कहता था और मुझ को इस का जरा भी अफसोस नहीं,’’ तारा की आवाज पहले की तरह ही बर्फ की सिल जैसी ठंडी थी.

विशाल के सिर पर जैसे कोई बम फूटा, वह हैरान सा तारा को देख रहा था. सामने खड़ी तारा को देख कर विशाल को कायर होने का एहसास हो रहा था.

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