मैंने फिर विनम्रता और स्नेह से कहा, ‘बेटी, मैं तबादले की कोशिश करूंगी. तब तक तुम मेरे साथ रहो. एक साल के भीतर हम यहीं आ जाएंगे.’
नीलिमा ने पलट कर पिता की ओर देखा, ‘क्यों, मंजूर है?’
आनंद बोला, ‘सोच लो. मैं वहां नहीं रहूंगा. तुम्हें घर में अकेले दीवारों से बातें करते हुए रहना पड़ेगा. फिर तुम्हारी मां के कथन में न जाने कितनी सचाई. बाद में मुकर जाए तो…’
मुझे आनंद पर बहुत क्रोध आया कि न जाने भाईबहन ने नीलिमा से मेरे विरुद्ध क्या कुछ कह दिया था. वह बेचारी अपने नन्हे से मस्तिष्क में विचारों का बवंडर लिए चुप रह गई.
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मेरी ननद ने कहा, ‘अभी बच्ची को ले जाने की क्या जरूरत है. जब तबादला हो जाए तब देख लेंगे. अभी तो वह यहां बहुत खुश है.’ मुझे यह सलाह ठीक लगी. मैं अगली ट्रेन से ही दिल्ली लौट आई. मेरे मन में भी आगे के कार्यक्रमों के बारे में योजनाएं बनने लगी थीं. मैं ने लौटते ही अपने तबादले के बारे में सैक्रेटरी से अनुरोध किया तो उन्होंने कहा, ‘तुम्हारी प्रिंसिपल की नौकरी के लिए सिफारिश आई है. क्या यह सबकुछ छोड़ कर जयपुर जाना चाहोगी?’
मैं ने कहा, ‘परिवार की खुशी के लिए नारी को थोड़ा सा त्याग करना ही पड़ता है. तभी तो वह नारी होने का दायित्व निभा पाती है.’
मुझे लोगों ने बहुत समझाया, पर मैं टस से मस न हुई. लेकिन तबादले की अर्जी देते ही तो तबादला नहीं हो जाता. सरकारी विश्वविद्यालयों में प्रशिक्षकों का आदानप्रदान हो सकता है. यूनिवर्सिटी में उत्तरपुस्तिकाओं की जांच के दौरान मेरी रजनी से मुलाकात हुई. उस के पति का दिल्ली तबादला हो गया था और वह भी यहां आना चाहती थी. जयपुर कालेज से दिल्ली आने की उस की उत्सुकता देख मैं भी अत्यंत प्रसन्न हुई. हम दोनों ने ही आदानप्रदान के सारे कागजात जमा करवा दिए.
फिर मैं 4 दिनों की छुट्टी ले जयपुर गई. जयपुर से मेरे पति के पत्र नियमित रूप से नहीं आते थे. ननद तो कभी लिखती ही नहीं थी. मैं अपने खयालों में खोई हुई यह सोच भी नहीं पाई कि शायद वे लोग मुझ से कन्नी काट रहे हैं.
जयपुर पहुंचने पर पता चला कि ननद को कैंसर था. जब तक पता चला, काफी देर हो चुकी थी. उन की देखभाल के लिए माया नाम की 20-21 वर्षीय नर्स रख ली गई थी. मैं ने पति से पूछा, ‘मुझे सूचना क्यों नहीं दी, क्या मैं इतनी गैर हो गई थी?’
आनंद ने कहा, ‘पता नहीं, तुम छुट्टी ले कर आतीं या नहीं. और इस बीमारी में इलाज भी काफी दिनों तक चलता रहता है.’
मैं ने उस समय भी यही सोचा कि शायद उस ने मेरे बारे में ठीक ही निर्णय लिया होगा. मैं ने अपने तबादले के बारे में उस से जिक्र किया तो वह बोला, ‘इस समय तुम्हारा तबादला कराना ठीक नहीं होगा. दीदी बहुत बीमार हैं. माया उन की देखभाल अच्छी तरह कर ही लेती है. वह इलाज के बारे में सबकुछ जानती भी है. नीलू भी उस से काफी हिलमिल गई है.’
‘मेरे आने से इस में क्या रुकावट आ सकती है?’
‘डाक्टरों का कहना है कि दीदी महीने, 2 महीने से ज्यादा रहेंगी नहीं. फिर मैं भी जयपुर में रहना नहीं चाहता. मेरा अगला तबादला जहां होगा, तुम वहीं आ जाना. यही ठीक रहेगा.’
मैं समझ ही नहीं पाई कि वह मुझ से पीछा छुड़ाना चाह रहा है या मेरी भलाई चाहता है. मैं नीलू से जब भी कुछ बोलना चाहती, वह ‘मां, मुझे परेशान मत करो’, कह कर भाग जाती.
माया दिल की अच्छी लगती थी, देखने में भी सुंदर थी. नीलू से वह बहुत प्यार करती थी. परंतु मैं ने पाया कि वह मेरे पति और बेटी के कुछ ज्यादा ही करीब है. वातावरण कुछ बोझिल सा लगने लगा. ननद मुझ से ठीक तरह से बोलती ही नहीं थी. वह बोलने की स्थिति में थी भी नहीं, क्योंकि काफी कमजोर और बीमार थी.
मैं वहां 2 दिनों से ज्यादा रुक न पाई. जाने से पहले मैं ने रजनी को अपनी मजबूरी बताते हुए फोन कर दिया था.
जब दिल्ली लौटी तो मन में दुविधा थी, ‘क्या मुझे जबरदस्ती वहां रुक जाना चाहिए था. पर किस के लिए रुकती? सब तो मुझे अजनबी समझते थे.’ कुछ भी समझ में नहीं आ रहा था.
मुश्किल से 10 दिन बीते होंगे कि आनंद का पत्र आया. ‘दीदी की मृत्यु उसी दिन हो गई थी, जिस दिन तुम दिल्ली लौटी. मैं ने यहां से तबादले के लिए अर्जी भेजी है. आगे कुछ नहीं लिखा था. मैं ने संवेदना प्रकट करते हुए जवाब भेज दिया. इस के बाद एक महीना बीत गया. आनंद ने मेरे किसी भी पत्र का जवाब नहीं दिया.
मैं ने चिंतातुर जब बैंक मुख्यालय को फोन किया तो पता चला कि आनंद 15 दिन पहले ही तबादला ले कर मुंबई जा चुका है. उस ने जाने की मुझे कोई खबर नहीं दी थी.
मेरा मन आनंद की तरफ से उचट गया. मुझे मर्दों से नफरत सी होने लगी. इस प्रकार मुझ से दूरी बनाए रखने का क्या कारण हो सकता है, मेरी समझ में कुछ नहीं आ रहा था.
मैं ने अभी तक अपनी घर की स्थिति के बारे में पिताजी को कुछ नहीं बताया था. सोचा, उन्हें क्यों परेशानी में डालूं. मां तो थी नहीं. पिताजी वैसे भी व्यापार के सिलसिले में हमेशा ही दौरे पर रहते थे. अभी मैं सोच ही रही थी कि पिताजी से मिल आऊं कि आनंद का पत्र आ गया. पत्र देख कर मेरा मन आनंदित हो गया.
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बड़े ही उत्साह से मैं ने पत्र खोला. अब तो मैं नौकरी छोड़ कर भी अपनी बच्ची और पति के पास लौटने के लिए बेताब हो रही थी. कितनी अजीब होती है नारी, अपनी अस्मिता के लिए संघर्ष करते हुए परिवार से अलग हुई थी. अब उसी प्रकार परिवार से जुड़ने के लिए सबकुछ छोड़ने को उद्यत हो गई. लेकिन पत्र पढ़ते ही मेरा चेहरा फक पड़ गया. ऐसा लगा, मानो हजारों बरछियां शरीर को छलनी कर रही हों. बड़े ही अनुनयविनय से कड़वी दवा पर मीठी टिकिया का लेप चढ़ा कर पत्र भेजा था. सारांश यही था कि वह माया से विवाह करना चाहता है. माया के गर्भ में उस का बच्चा है. वह मुझ से तलाक चाहता है.
मेरी समझ में सारी बातें आ गईं. मुझ से अलगाव रखना, चिट्ठी न लिखना और खिंचेखिंचे रहने के पीछे क्या कारण था. यह मैं समझ गई. उस कायर की दुर्बलता पर मुझे हंसी आई. साफसाफ कह देता तो क्या मैं मुकर जाती.
मुझे नीलिमा के लिए डर लगने लगा था. परंतु उस ने लिखा था, नीलिमा माया से बहुत प्यार करती है. इसलिए वह हमारे साथ ही रहेगी. मैं ने अपने दिल को कठोर बना कर तलाक के कागजों पर हस्ताक्षर कर दिए, कानूनी कार्यवाही के बाद 4 वर्षों में तलाक भी हो गया. मैं पिता के पास चेन्नई लौट आई.
मैं ने व्यापार में पिताजी का हाथ बंटाने का निश्चय कर लिया. दिल्ली की नौकरी से भी इस्तीफा दे दिया. चेन्नई में हमारी कंपनी खूब अच्छी चल रही थी. मैं ने पूरी निष्ठा से अपने को काम में समर्पित कर दिया. पर पिताजी वह सदमा झेल न पाए. तलाक होने के 2 महीने बाद ही हृदयगति रुक जाने से उन की मृत्यु हो गई.
मेरी जिंदगी की गाड़ी मंथर गति से आगे बढ़ने लगी. मैं कई मर्दों से व्यापार के दौरान मिलती. परंतु किसी से भी व्यापारिक चर्चा के अलावा कोई बात न करती. लोग मुझ से कहते भी कि तुम दोबारा विवाह क्यों नहीं कर लेतीं. परंतु मैं ने पुनर्विवाह न करने का दृढ़ संकल्प कर लिया था.
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