Writer- जसविंदर शर्मा
पिछले अंक में आप ने पढ़ा कि कैसे पापा की प्रेमिका ने हमारे घर में तूफान ला दिया था. सभी टोनेटोटकों के बावजूद मां उसे घर से बाहर नहीं निकाल पाईं. लेकिन मां द्वारा अदालत का दरवाजा खटखटाने पर उसे घर छोड़ना पड़ा और इस तरह पापा दो परिवारों के मुखिया बन कर रह गए. लेकिन पापा ने हम से पल्ला झाड़ लिया. पढि़ए शेष भाग…
छोटीछोटी बातों पर शादी में दरारें आती हैं. शादी को कायम रखने के लिए उसे किसी भी प्रकार के वैचारिक हमलों से बचाना चाहिए. यह सोच कर शादी नहीं करनी चाहिए कि यह तो करनी ही है क्योंकि सब करते हैं.
पापा ने जो किया था वह एक सम्माननीय और संतुलित व्यक्ति का व्यवहार नहीं था. अपनी वासनात्मक लालसाएं पूरी करने के लिए पापा ने इस घर के 4 जनों को दिनरात घुलते चले जाने को विवश किया था. विवाहेतर संबंध तो ठीक थे मगर उस पर यह अतिरेक और कुचेष्टा कि उन की रखैल मिस्ट्रैस को इस घर में सम्मान मिले और वह हमारे साथ भी रहे. दैहिक जरूरतों के सामने घर जैसी पवित्र जगह को युद्ध की रणभूमि बना डाला था ऐसे में तो कुंठा और दमन ही हाथ आना था.
यह तो बहुत ही मार देने वाला काम था. मां की हिम्मत थी कि पिछले इतने सालों से वे किसी तरह घर को जोड़ कर के रखे हुए थीं. वे पस्त हो जातीं, टूट जातीं या भाग कर मायके चली जातीं तो हम बच्चों का भविष्य खराब हो जाता.
लगभग 1 साल बाद मां को मोटी रकम मिल गई और पापा को तलाक मिल गया. ‘उस ने’ अगले ही महीने पापा से शादी कर ली. मां ने पापा को माफ कर दिया यह समझ कर कि गलती तो उस युवती की है जो एक अधेड़ व्यक्ति का पीछा नहीं छोड़ती.
तब मैं तय नहीं कर पाई कि सच में सारी गलती ‘उस की’ ही थी. क्या मां या पापा कुसूरवार नहीं थे? त्रिकोणीय संबंधों में अगर 1 को बलि का बकरा बनना पड़ता है तो बाकी के 2 लोग भी ज्यादा देर तक ऐसे अनैतिक संबंध को सहजता से नहीं जी पाते.
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जल्दी ही उस मायावी औरत से पापा का मोहभंग हो गया. जब तक उस से पापा की शादी नहीं हुई थी तब तक पापा में उसे सारा आकर्षण दिखता था. गलत पते की चिट्ठी की तरह पापा 1 साल बाद हमारे घर के चक्कर लगाने लगे. भरापूरा घर, जिसे वे एक जवान नई औरत के लिए लात मार कर चले गए थे, अब हम बच्चेबच्चियों को देखने के बहाने फिर आने लगे थे.
पापा हमारे जन्मदिन पर बढि़या तोहफे लाते, हमें कपड़े ले कर देते. हमारे कालेज के बारे में पूछते. मेरे छोटे भाई में उन्हें खास दिलचस्पी रहती. हमें यकीन नहीं होता कि ये हमारे वही पापा हैं जिन्होंने हम से बात तक करनी बंद कर दी थी क्योंकि हम हमेशा मां की तरफदारी करते थे.
मां के मन की स्थिति कोई खास निश्चित नहीं थी कि अब पापा को ले कर वे क्या सोचती थीं. ‘उस ने’ जब पापा को हासिल कर लिया तभी से उन के रिश्ते के अंत का काउंटडाउन शुरू हो गया.
हम दोनों बहनों ने अच्छे संस्थानों से डिगरी ले ली थी और हमें अच्छी जौब मिल गई थी. पापा हम दोनों को ले कर कुछ ज्यादा ही वात्सल्य दिखाने लगे थे. मां के प्रति उन के मन में सोया प्यार जागने लगा था. अपनी मिस्ट्रैस की परवा कम ही करते थे. मां तो कहती कि
अब इस बूढे़ का दिल लगता है, दफ्तर की किसी अन्य स्त्री पर आ गया है
और हमारी आड़ ले कर यह अपनी मिस्ट्रैस से जान छुड़ाना चाहता है.
हो सकता है मां की बातों में कुछ सचाई हो मगर हमें अब सारा मामला समझ में आने लगा था. पापा इतनी ऊंची पोस्ट पर थे, अच्छा कमाते थे, फिर मां की उन से एक दिन भी नहीं बनी. क्या मां का कोई दोष नहीं था? मेरी बड़ी बहन का मानना था कि मां के हर समय शक करते रहने से पापा ऐसे बन गए.
खैर, मां और पापा का कोई समझौता नहीं हो सका. पापा पेंडुलम की तरह इधर से उधर, उधर से इधर आतेजाते रहे. मां ने उन्हें कोई तबज्जुह न दी. मां अब धार्मिक व अंधविश्वासी हो गई थीं. मेरे छोटे भाई ने जब डिगरी हासिल कर ली तो मां का ध्यान पूरा ईश्वर में लग गया. वे हर दुखसुख से ऊपर उठ गई थीं.
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घर के मामलों में उन्होंने रुचि लेनी बंद कर दी थी. हमारी शादी के बारे में भी उन्होंने कभी सीरियसली नहीं सोचा. उन्होंने सबकुछ पापा और वक्त पर छोड़ दिया था. कोई इतना उदासीन कैसे हो सकता है, यह मां को देख कर अंदाजा लगाया जा सकता था.
मां को मालूम था कि पापा अब भी घर में रुचि लेते हैं. मां को एक निश्चित रकम हर महीने मिल जाती. हम बच्चे भी अच्छा कमा रहे थे, कारों में घूमते थे.
जब मेरी बहन ने अपने दोस्त के साथ रहने का फैसला किया तो उस ने मेरी ड्यूटी लगाई कि मैं मां को सारी बातों के बारे में ब्रीफ करूं. उस में हिम्मत नहीं थी यह सब कहने की. पापा को तो हम इतनी अंतरंग बातें कभी न बता सकते थे.



