दुआ मांगो सब ठीक हो जाएगा : सुगमा की कशमकश

वह पेट से थी. कोख में किस का बच्चा पलबढ़ रहा था, ससुराल वाले समझ नहीं पा रहे थे. सब अंदर ही अंदर परेशान हो रहे थे.

पिछले 2 साल से उन का बड़ा बेटा जुबैर अपने बूढ़े मांबाप को 2 कुंआरे भाइयों के हवाले कर अपनी बीवी सुगरा को छोड़ कर खाड़ी देश कमाने गया था. शर्त के मुताबिक उसे लगातार 2 साल नौकरी करनी थी, इसलिए घर आने का सवाल ही नहीं उठता.

इसी बीच जुबैर की बीवी सुगरा कभी मायके तो कभी ससुराल में रह कर समय काट रही थी. 2 साल बाद उस के शौहर का भारत आनाजाना होता रहेगा, यही बात सोच कर वह खुश थी.

सुगरा जब भी मायके आती तो हर जुमेरात शहर के मजार जाती. उस मजार का नाम दूरदूर तक था. कई बार तो वह वहां अकेली आतीजाती थी.

एक शहर से दूसरे शहर में ब्याही गई सुगरा ज्यादा पढ़ीलिखी नहीं थी. उस ने शहर के एक मदरसे में तालीम पाई थी. सिलाईकढ़ाई और पढ़ाई सीखतेसीखते मदरसे के हाफिज से उस की जानपहचान हो गई थी. वह हाफिज से हंसतीबोलती, पर प्यार मुहब्बत से अनजान थी.

मदरसे में पढ़तेपढ़ते सुगरा के अम्मीअब्बू ने रिश्तेदारी में अच्छा रिश्ता पा कर उस की शादी करने की सोची.

‘सुनोजी, रिश्तेदारी में शादी करने से आपस में बुराई होती है. हालांकि वह हमारी खाला का बेटा है. रोजगार की तलाश में है. जल्द लग नौकरी जाएगी,  पर…’ सुगरा की मां ने कहा था.

‘पर क्या?’ सुगरा के अब्बू ने पूछा था.

‘कल को कोई मनमुटाव हो गया या लड़के को लड़की पसंद न आई तो…’ सुगरा की अम्मी बोली थीं.

‘सुना है कि लड़का खाड़ी देश में कमाने जा रहा है. नौकरी वाले लड़के मिलते ही कहां हैं,’ सुगरा के अब्बू ने कहा था.

दोनों परिवारों में बातचीत हुई और उन का निकाह हो गया. पर मदरसे के हाफिज को सुगरा अब भी नहीं भुला पाई थी.

आज मुर्शिद मियां का परिवार जश्न मना रहा था. एक तो उन के बेटे जुबैर की नौकरी खाड़ी देश में लग गई थी, दूसरी उन के घर खूबसूरत सी बहू आ गई.

‘सुगरा, तुम जन्नत की परी जैसी हो. तुम्हारे आने से हमारा घर नूर से जगमगा गया,’ कह कर जुबैर ने सुगरा को अपने सीने से लगा लिया था.

उन दोनों के बीच मुहब्बत की खुशियों ने डेरा जमा लिया था. पूरा परिवार खुश था.

एक महीने का समय कब बीत गया, पता ही नहीं चला. जुबैर खाड़ी देश जाने की तैयारी करने लगा. सुगरा को उदासी ने घेर लिया था. उस के दिल से आह निकलती कि काश, जुबैर उसे छोड़ कर न जाता.

‘सिर्फ 2 साल की ही तो बात है,’ कह कर जुबैर सुगरा को आंसू और प्यार के बीच झलता छोड़ कर नौकरी करने खाड़ी देश चला गया था.

सुगरा की मायूसी देख उस की सास ने अपने शौहर से कहा था, ‘इन दिनों सुगरा घर से बाहर नहीं निकलती है. बाबा के मजार पर हाजिरी देने के लिए उसे देवर रमजान के साथ भेज दिया करें, ताकि उस का मन बहला रहे.’

वे हंसे और बोले, ‘जुबैर के गम में परेशान हो रही होगी. भेज दिया करो. जमाना बदल रहा है. आजकल के बच्चे घर में कैद हो कर नहीं रहना चाहते,’ अपनी बात रखते हुए सुगरा के ससुर मुर्शिद मियां ने इजाजत दे दी थी.

सुगरा मजार आने लगी थी. उस की खुशी के लिए देवर रमजान उस से हंसताबोलता, मजाक करता था, ताकि वह जुबैर की याद भुला सके.

जुबैर को गए 2 महीने हो गए थे लेकिन सासससुर की खुली छूट के बाद भी सुगरा की जिंदगी में कोई खास बदलाव नहीं आया था.

इसी बीच सुगरा के अब्बू आए और उसे कुछ दिनों के लिए घर ले गए. सुगरा ने अम्मी से आगे पढ़ने की बात कही, ताकि उस का मन लगा रहे और वह तालीम भी हासिल कर सके.

मायके में सुगरा के मामा के लड़के को तालीम देने के लिए बुलाया गया. अब सुगरा घर पर ही पढ़ने लगी थी.

एक दिन मजार पर हाफिज ने सुगरा की खूबसूरती की तारीफ क्या कर दी, उस के दिल में हाफिज के लिए मुहब्बत पैदा हो गई.

शादीशुदा सुगरा जवानी का सुख भोग चुकी थी. वह खुद पर काबू नहीं रख पाई और हाफिज की तरफ झाकने लगी.

‘कल मजार पर मिलते हैं…’ आजमाने के तौर पर हाफिज ने कहा था, ‘शाम 7 बजे.’

यह सुन कर सुगरा शरमा गई.

‘ठीक है,’ सुगरा ने कहा था.

ठीक 7 बजे सुगरा मजार पर पहुंच गई. दुआ मांगने के बाद वह हाफिज के साथ गलियारे में बैठ कर बातें करने लगी.

हाफिज ने सुगरा को बताया कि मजार पर दुआ मांगने से दिल को सुकून मिलता है, मनचाही मुराद मिलती है.

अब वे दोनों रोजाना शाम को मजार पर मिलने लगे थे. उन के बीच के फासले कम होने लगे थे.

तकरीबन 4 महीने का समय बीत गया. एक दिन ससुराल से देवर आया और सुगरा की मां को अपनी अम्मी की तबीयत खराब होने की बात कह कर सुगरा को अपने साथ ले गया.

ससुराल में सुगरा जुबैर की याद में डूबी रहने के बजाय हाफिज की दीवानी हो गई थी. वह उस से मिलने को बेकरार रहने लगी थी.

धीरेधीरे सुगरा की सास ठीक हो गईं. सुगरा अब शहर के मजार पर जा कर हाफिज से मिलने की दुआ मांगती थी.

समय की चाल फिर बदली.

‘मैं कालेज में एक पीरियड में हाजिरी लगा कर आता हूं, तब तक तुम मजार पर रुकना,’ कह कर सुगरा को छोड़ उस का देवर कालेज चला गया.

इसी बीच सुगरा ने फोन पर हाफिज को मजार पर बुलाया. उन की मुलाकात दोबारा शुरू हो गई.

देवर के जाने के बाद मजार के नीचे पहाड़ी पर सुगरा अपनी जवानी की प्यास बुझाती और लौट कर मजार से दूर जा कर बैठ जाती. ससुराल में रह कर हाफिज से अपनी जवानी लुटाती सुगरा की इस हरकत से कोई वाकिफ नहीं था.

शहर की मसजिद में हाफिज को बच्चों को तालीम देने की नौकरी मिल जाने से अब सुगरा और उस के बीच की दूरियां मिट गईं. सुगरा को भी सासससुर से सिलाई सैंटर जा कर सिलाई सीखने की इजाजत मिलने की खुशी थी.

जुबैर को खाड़ी देश गए सालभर से ऊपर हो गया था.

‘तकरीबन 4-5 महीने की बात है,’ उस की अम्मी ने सुगरा से कहा था.

‘हां अम्मी, तब तक वे आ जाएंगे,’ सुगरा बोली थी.

पर सुगरा को अब जुबैर की नहीं हाफिज की जरूरत थी. सुगरा और हाफिज के बीच अब कोई दीवार नहीं थी. हाफिज की मसजिद वाली कोठी में वे बेफिक्री से मिलते थे.

सुगरा भी दिल खोल कर हाफिज के साथ रंगरलियां मनाने लगी थी और नतीजा…

सुगरा की तबीयत अचानक खराब होने पर उस की सास उसे अस्पताल ले कर गईं.

डाक्टर ने बताया, ‘आप की बहू मां बनने वाली है.’

घर लौट कर सास मायूसी के साए में डूब गईं. सोचा कि जब जुबैर डेढ़ साल से सुगरा से नहीं मिला तो फिर बहू के पैर भारी कैसे हो गए?

सुगरा ने जुबैर को फोन पर पूरी बात बताई.

जुबैर ने कहा, ‘दुआ मांगो सब ठीक हो जाएगा.’

जुबैर समझ गया था कि मामला क्या है, पर वह यह भी जानता था कि हल्ला मचाने पर वही बदनाम होगा. उसे अभी कई साल खाड़ी देश में काम करना था. एक बच्चा उस के नाम से रहेगा तो उसे ही अब्बा कहेगा न.

इमोशनल अत्याचार : खतरनाक मोड़ पर रक्षिता की जिंदगी

रक्षिता का सामाजिक बहिष्कार तो मानो हो ही चुका था. रहीसही कसर उस के दोस्त वरुण ने पूरी कर दी थी. रक्षिता को ऐसा लग रहा था कि वह जैसे कोई सपना देख रही हो. 20 दिनों में उस की जिंदगी तहसनहस हो चुकी थी.

20 दिनों पहले रक्षिता के पापा की हार्टअटैक से मौत हो चुकी थी. पापा की मौत के बाद भाई ने अपना असली रंग दिखा दिया. कहते हैं सफलता मिलने के बाद इंसान अपना असली रंग दिखाता है, लेकिन यहां तो दुख की घड़ी में भाई ने रक्षिता को अपना असली चेहरा दिखा दिया था.

अब क्या किया जाए. मां पहले ही इस दुनिया को अलविदा कह चुकी थी. दादी की भी एक साल पहले मृत्यु हो गई थी. रक्षिता ने कभी सपने में भी नहीं सोचा था कि उसे ऐसे दिन भी देखने पड़ेंगे.

रिश्तेदारों के सामने भाई ने हाथ नचा कर पुष्टि कर दी थी कि रक्षिता की वजह से ही पापा की मृत्यु हुई. बूआ, जो उसे बहुत मानती थीं, ने भी साफ कह दिया था, ‘ऐसी लड़की से वे कोई नाता नहीं रखना चाहतीं.’

उस के भाई ने उस से साफतौर पर कह दिया था, ‘अब घर वापस आने की जरूरत नहीं है. तुम्हारी शादी पर खर्च करने की मेरी कोई मंशा नहीं है.’ उस ने दिल्ली जाने का टिकट उस के हाथ में थमा दिया.

‘कोई बात नहीं, कम से कम वरुण तो साथ देगा ही. अब जब समस्या आ ही गई है तो समाधान भी ढूंढ़ना ही पड़ेगा,’ अपनी आंखें पोंछते हुए रक्षिता ने मन ही मन सोचा.

दिल्ली आ कर उस ने दोबारा औफिस जौइन कर लिया. रक्षिता ने वरुण से मिलने की काफी कोशिश की पर वरुण ने उस से दोबारा मिलने में कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई. रक्षिता ने सोचा कि हो सकता है वरुण औफिस के काम में बिजी हो.

एक दिन जब कैंटीन में रक्षिता की सपना से मुलाकात हुई तब उसे हकीकत मालूम हुई. सपना ने बताया, ‘‘रक्षिता, मैं तुम्हें एक बात बताना चाहती हूं. उम्मीद है कि तुम इसे हलके में नहीं लोगी.’’

‘‘पर बताओ तो सही बात क्या है,’’ रक्षिता परेशान होते हुए बोली.

‘‘वरुण कह रहा था कि तुम्हारे रोनेधोने की कहानियां सुनने का स्टेमिना उस में नहीं है.’’

यह सुनते ही रक्षिता के चेहरे की हवाइयां उड़ गईं. अब उसे मालूम हो गया था कि वरुण उस से कटाकटा सा क्यों रहता है. उस के प्यार ने ही तो उसे हिम्मत बंधाई थी. उसी के बलबूते उस ने अपने भाई की बातों का बहिष्कार किया था. उस से लड़ी थी, लेकिन अब तो सारी उम्मीदें चकनाचूर होती नजर आ रही थीं.

वरुण के प्यार में वह काफी आगे बढ़ चुकी थी.

पापा की मृत्यु ने उसे अंदर तक झकझोर दिया था. उस के बाद भाई ने और अब वरुण की बेवफाई ने उसे पूरी तरह तोड़ दिया था.

उस के मन में अब तरहतरह के खयाल आ रहे थे. अब क्या होगा. कौन शादी करेगा उस से. पापा की मृत्यु के बाद उन की नौकरी उस के भाई को मिल चुकी थी. घर और थोड़ीबहुत प्रौपर्टी पर भाई ने पहले ही अपना कब्जा जमा लिया था. रिश्तेदारों ने भी भाई का ही साथ दिया था. अब रक्षिता को पता चल गया था कि वह दुनिया में अकेली है. उस का संघर्ष सही माने में अब शुरू हुआ है.

पहली बार पता चला कि लड़के सामाजिक सुरक्षा, भावनात्मक सुरक्षा, रिश्तों की सुरक्षा के साथ पैदा होते हैं. खाली हाथ तो सिर्फ लड़कियां ही पैदा होती हैं.

लोग रक्षिता को लैक्चर देते कि तुम खुद सफल हो कर दिखाओ ताकि वरुण तुम्हें छोड़ने के निर्णय को ले कर पछताए. पर वह किसकिस को समझाए. ऐसा तो फिल्मों में ही संभव है. और रिश्तों की सुरक्षा के बिना वह कितना व क्या कर लेगी.

धीरेधीरे समय बीतने लगा और रक्षिता ने अब किसी प्राइवेट इंस्टिट्यूट में इवनिंग क्लासेस ले कर एलएलबी की पढ़ाई शुरू कर दी. उस ने सोचा कि एक डिगरी भी हो जाएगी और खाली समय भी आराम से कट जाएगा.

नीलेश से उस की वहीं मुलाकात हुई थी. लेकिन वह अब लड़कों से इतना उकता चुकी थी कि उन से बातें करने में भी कतराती थी. नीलेश एक अंगरेजी अखबार में काम करता था. एमबीए करने के बाद उस ने एक दैनिक न्यूजपेपर के विज्ञापन विभाग में नौकरी जौइन की थी. अब एलएलबी की पढ़ाई रक्षिता के साथ कर रहा था.

अब तक बेवकूफ बनी रक्षिता को इतनी समझ आ चुकी थी कि जिंदगी बिताने के लिए एक साथी की अहम जरूरत होती है और इस के लिए जरूरी नहीं कि उसे प्यार किया जाए. प्यार का दिखावा भी किया जा सकता है लेकिन फिर से दिल लगा बैठी तो पता नहीं कितनी तकलीफ होगी.

नीलेश से उस का मेलजोल इस कदर बढ़ा कि धीरेधीरे बात शादी तक पहुंच गई. दिखावा ही सही, पर रक्षिता ने शादी करने में देरी नहीं की. नीलेश की मां ने भी खुलेदिल से रक्षिता को स्वीकार किया. सब ने प्रेमविवाह होने के बावजूद उस का खूब स्वागत किया था और भरपूर प्यार दिया था. पर रक्षिता ने मन की गांठें नहीं खोलीं. उसे लगता था कि एक बार भावनात्मक रूप से जुड़ गई तो गई काम से.

उस के व्यवहार से ससुराल में सभी खुश थे. गलती से भी उस ने कोई कटु शब्द नहीं बोला था. उसे गुस्सा आता ही नहीं था. बातचीत वह बहुत ज्यादा नहीं करती थी. जब भी कोई किसी की बुराई शुरू करता तो वह वहां से खिसक जाती थी.

लेकिन उस की आंखें उस दिन खुलीं जब नीलेश की मां अपनी बहन को बता रही थी, ‘‘बड़ा शौक था मुझे अपनी बहू में बेटी ढूंढ़ने का. वह तो बिलकुल मशीन है. आज तक मैं उस की सास ही हूं, मां नहीं बन पाई.’’

यह सुन कर रक्षिता अपने इमोशंस रोक न सकी और उस पर हुए इमोशनल अत्याचार आंसू बन कर बहने लगे. आंसुओं के साथ बहुतकुछ बह रहा था.

निशि डाक: अंधेरी रात में किसने भूपेश को पुकारा

आज खेत से लौटने में रात हो गई थी. भूपेश ने इस बार अपने खेत में गेहूं की फसल बोई थी. आवारा जानवरों से फसल को उजड़ने से बचाना था, सो रातरातभर जाग कर रखवाली करनी पड़ती थी. बाड़ लगाने का भी कोई ज्यादा फायदा नहीं था, क्योंकि आवारा पशु उसे भी काट डालते थे. आज तो खेत में पानी भी लगाना था, सो भूपेश को लौटने में बहुत रात हो गई थी.

अगलबगल के खेतों वाले बाकी साथी भी चले गए थे. भूपेश को रात में अकेले ही लौटना पड़ा. घर पर मां इंतजार कर रही थी. रात सायंसायं कर रही थी. खेतोंखेतों होता हुआ भूपेश चला आ रहा था. पीपल, नीम, आम, बबूल के पेड़ों की छाया ऐसी लग रही थी जैसे प्रेतात्माएं आ कर खड़ी हो गई हों. बीचबीच में किसी पक्षी की आवाज सन्नाटे को चीर जाती थी. ‘ऐसी गहरी काली रात में ही अकेले आदमी को प्रेतात्माएं घेरने की कोशिश करती हैं. वे अकसर खूबसूरत औरत का वेश बना कर आती हैं और बड़ी ही मीठी आवाज में बुलाती हैं…

‘अम्मां कहती हैं कि अंधियारी रात में अगर कोई औरत मीठी आवाज में बुलाए तो पीछे मुड़ कर मत देखो, बस सीधे चलते चले जाओ.  ‘प्रेतात्मा 2 बार ही पुकारती है और अगर मुड़ कर देखो भी तो तीसरी आवाज पर मुड़ो, क्योंकि प्रेतात्मा तो  2 बार ही आवाज दे सकती है…’

अम्मां की इस सीख को याद करता हुआ भूपेश चला जा रहा था. नहर की मेंड़ के किनारे झाड़झंखाड़, मूंज और झरबेरी की झाड़ियां उगी हुई थीं. इन जगहों पर सांपबिच्छू, कीड़ेमकोड़े भी रहते थे.  भूपेश के मोबाइल फोन में टौर्च थी, जिस से वह रास्ता देखता जा रहा था. उस की भी बैटरी डिस्चार्ज हो जाने का खतरा था. अपने डर को काबू में करते हुए वह जल्दीजल्दी कदम बढ़ा रहा था.

‘‘क्या आप राजपुर गांव तक जा रहे हैं?’’ पीछे से एक मधुर आवाज आई. राजपुर भूपेश के गांव का ही नाम था. यह सुन कर उस के दिल की धड़कनें बढ़ गईं और चाल तेज हो गई. भूपेश को लगा कि निशि डाक यानी रात की आत्मा उसे आवाज दे रही है. अगर वह उस के चंगुल में फंस गया, तो निशि डाक उसे बंधक बना लेगी, उस के अंदर घुस जाएगी और फिर वह आत्मा का गुलाम बन जाएगा.

‘‘क्या आप राजपुर गांव तक जा रहे हैं?’’ फिर वही मधुर आवाज आई. ‘2 बार आवाज आ गई है. पीछे मुड़ कर नहीं देखना है…’ दिल की तेज धड़कनों के साथ भूपेश चलता जा  रहा था.  तीसरी बार फिर वही आवाज गूंजी, ‘‘क्या आप राजपुर गांव जा रहे हैं?’’

‘आत्मा तो बस 2 बार आवाज देती है. इस ने तीसरी बार भी आवाज दी है, तो इस का मतलब यह आत्मा नहीं है…’ भूपेश ने सोचा और डरतेडरते सिर घुमाया और टौर्च की रोशनी में देखा कि यह तो उसी के गांव की एक लड़की गौरी है… गांव के पंडितजी की बेटी. शहर जाती है. बीए की पढ़ाई कर रही है.

‘‘गौरी, तुम इतनी रात को कहां से आ रही हो?’’ डरी हुई आवाज में भूपेश ने पूछा. अभी उस का अपने डर और घबराहट पर काबू नहीं हुआ था. ‘‘आज मैं कालेज से देर में छूट पाई थी और फिर बस भी देर से मिली, इसी के चलते देर हो गई,’’ गौरी ने बताया. रास्ता तकरीबन कट ही चुका था.

भूपेश और गौरी हंसतेबतियाते घर आ गए थे. भूपेश और गौरी दोनों तकरीबन हमउम्र थे. बचपन में वे एक ही स्कूल में पढ़े थे. साथ खेले, लड़ेझगड़े थे, उन के बीच प्यार का बीज पिछली रात की आत्मा ने बो दिया था. भूपेश के पिता खेतीकिसानी करने वाले एक मेहनती इनसान थे. सामाजिक रूढि़यों और व्यवस्था के मुताबिक वे निचली जाति के कहे जाते थे. गौरी ब्राह्मण परिवार से थी. उस के पिता पंडित गंगाधर शास्त्री पीढि़यों से चला आ रहा पंडिताई का धंधा करते थे. आसपास के गांवों में भी उन का अच्छाखासा सम्मान था.

ग्रेजुएशन कर रहा भूपेश पढ़ाई के साथसाथ पिता की खेतीबारी में भी अपना पूरा योगदान देता था. वह बहुत मेहनती था. कुछ बन कर मातापिता को सुख देना चाहता था. छोटे भाई और बहन को भी पढ़ने और आगे बढ़ने का मौका मिले, यह उस की दिली तमन्ना थी.

‘‘कुछ पढ़तीलिखती भी हो या बस ऐसे ही मौजमस्ती करने जाती हो कालेज में?’’ एक दिन भूपेश ने गौरी को छेड़ा.  ‘‘अरे, अगर मैं फेल हो गई, तो पिताजी डिगरी भी पूरी नहीं करने देंगे… घर पर बिठा देंगे,’’ गौरी ने कहा, ‘‘और तुम्हारा क्या इरादा है… आगे क्या करोगे?’’ ‘‘ग्रेजुएशन की डिगरी ले कर फिर सरकारी नौकरी के लिए तैयारी करूंगा. अम्मांबाबूजी को कुछ बन कर दिखाना है. उन्होंने बहुत दुख उठाए हैं मेरे लिए,’’ भूपेश ने कहा.

कुछ समय के बाद भूपेश का रिजल्ट आ गया था. वह फर्स्ट डिवीजन में पास हो गया था और आगे की तैयारी के लिए इलाहाबाद जाने की सोच रहा था.  जब से गौरी को यह बात पता लगी थी, उस की भूखप्यास गायब हो गई थी.  ‘न जाने कब लौटेगा अब वह… तब तक तो पिता और भाई मेरा ब्याह कहीं और करवा देंगे…’ यही सब सोच कर गौरी को घबराहट होती थी.

‘‘तुम इलाहाबाद चले गए, तो पीछे से मेरे घर वाले मेरी शादी करा ही देंगे. वैसे भी मेरे पिता और भाई हमारी शादी को कभी राजी नहीं होंगे,’’ गौरी ने कहा. ‘‘तुम बस अपनी शादी मत होने देना. जब मैं अच्छी नौकरी पा लूंगा, फिर तुम्हारा हाथ मांगूंगा. तब तुम्हारे पिता मना नहीं कर पाएंगे,’’ भूपेश गौरी को दिलासा दे रहा था.

गौरी गांव में ही रह गई और भूपेश इलाहाबाद चला गया. गौरी को आज भी याद थी उस के बचपन की वह घटना, जब गांव के ही रूपेंद्र ठाकुर के परिवार ने अपने ही घर की बेटी को मार कर फांसी पर लटका दिया था, क्योंकि वह गांव के ही एक पासी लड़के से इस कदर दिल लगा बैठी थी कि उस के साथ भाग जाने को भी तैयार हो गई थी.  यह पता चलने पर उस के पिता और भाइयों ने ही उस का गला घोंट कर उसे फंदे से लटका दिया था और पुलिस को घूस दे कर मामला रफादफा करवा  दिया था. वह पासी लड़का और उस का पूरा परिवार ठाकुरों के डर से जान बचा कर गांव छोड़ कर भाग गया था और शहर में मजदूरी करने लगा था.

3 साल बीत गए थे. गौरी ने बीए कर लिया था. उस के लिए वर की तलाश जोरों पर थी. इस बीच भूपेश 1-2 दिन के लिए घर आता और चला जाता. उस ने अपना पूरा ध्यान पढ़ाई पर लगा रखा था. परिवार वालों पर पैसे का बोझ न पड़े, इसलिए वह शहर में ट्यूशन पढ़ा कर अपने खर्चे पूरे करता था.

‘‘लो पंडितजी, मिठाई खाओ…’’ एक दिन भूपेश के पिता सारे गांव में लड्डू बांट रहे थे. खुशी उन के चेहरे से छलक रही थी.

‘‘क्या खुशखबरी है भूपेश के बापू?’’ पंडित गंगाधर शास्त्री ने हंस  कर पूछा.

‘‘भूपेश को डिगरी कालेज में पढ़ाने की नौकरी मिल गई है. शुरू में ही 60,000 रुपए महीना मिलेंगे. अपने गांव का पहला लड़का है, जो इतनी बड़ी पोस्ट पर पहुंचा है. अखबार में भी खबर छपी है,’’ बेटे की कामयाबी ने पिता की छाती गर्व से चौड़ी कर दी थी.

यह सुन कर पंडित गंगाधर शास्त्री के मन में जलन ने जन्म ले लिया. दिल से आह सी निकली. पर फिर मन ने यह भी माना कि भूपेश है भी मेहनती और लगनशील, इसीलिए इस मुकाम तक पहुंचा है, वरना उन के दोनों बेटों में से तो एक भी इंटर भी सही से पास नहीं कर पाया था. दोनों को मजबूरन अपने पंडिताई के धंधे में ही उतारना पड़ा था. गौरी ने भी यह खबर सुनी, तो उस के दिल में खुशी की एक लहर दौड़ गई. अब इंतजार था कि कब भूपेश घर वापस आएगा.

भविष्य क्या होगा, यह तो समय ही बताएगा, पर उम्मीद की एक लौ तो जली ही थी. आखिर वह दिन आ ही गया. भूपेश घर आया, तो उस के परिवार में खुशी की लहर दौड़ गई. भूपेश अब गौरी के पिता से अपने रिश्ते की बात करने को बेताब था.

‘‘नमस्कार बाबूजी,’’ कहते हुए भूपेश ने पंडित गंगाधर शास्त्री के पैर छुए.

‘‘अरे, आओ भूपेश. बहुत अच्छी नौकरी लग गई है तुम्हारी. सारे गांव का नाम रोशन कर दिया तुम ने तो.’’ ‘‘सब आप के आशीर्वाद का ही फल है बाबूजी,’’ भूपेश ने कहा.

‘‘बहुत बढ़िया. ऐसे ही तरक्की करो जीवन में,’’ इस बार उन का आशीर्वाद दिल से निकला था.

‘‘बाबूजी, एक बात कहनी है आप से,’’ डरतेडरते भूपेश किसी तरह बोल पाया.

‘‘हां, बोलो बेटा… इस में पूछने की क्या बात है,’’ पंडितजी ने कहा.

‘‘अगर आप को मंजूर हो, तो मैं गौरी का हाथ आप से मांगना चाहता हूं. मैं उसे जीवन में कभी कोई दुख नहीं दूंगा,’’ भूपेश किसी तरह बोल पाया. सुनते ही पंडितजी सन्न रह गए. कुछ बोल न फूटे. उन्हें अंदाजा तो था कि गौरी और भूपेश में अच्छी बोलचाल है, पर वे दोनों शादी करना चाहते हैं, उन्होंने इतना नहीं सोचा था. पंडित गंगाधर शास्त्री की चुप्पी को उन की नाराजगी जान कर भूपेश चुपचाप वहां से चला गया. सब कशमकश में थे.

गौरी के दोनों भाई गुस्से से आगबबूला हो रहे थे. ‘‘उस हरामखोर की इतनी हिम्मत… नौकरी लग गई तो अपनी औकात भूल गया… हम से बराबरी करने लगा…’’ बड़ा बेटा कह रहा था.

‘‘आप कहो तो अभी हाथपैर तोड़ कर फेंक आएं…’’ छोटा बेटा हां में हां मिला रहा था. पंडितजी ने उन्हें शांत रहने को कहा. दोनों समझ नहीं पा रहे थे कि पिताजी को क्या हो गया है. एक नीची जाति के लड़के की इतनी हिम्मत कि ब्राह्मणों की बेटी का हाथ मांगे. वे दोनों अपनी बहन को भी कोस रहे थे.

पंडितजी ऊहापोह में थे. ब्राह्मण थे, पर वे एक पढ़ेलिखे और प्रैक्टिकल इनसान भी थे. वे भूपेश की पढ़ाईलिखाई, उस की कामयाबी से खुश थे और उन की बेटी उस के साथ सुखी रहेगी, इस का भी उन्हें यकीन था.  उन की आंखों पर धर्मांधता का परदा नहीं चढ़ा था. उन के दोनों बेटे, जो फुजूल के तेवर दिखा रहे थे, उस का उन्हें एहसास था. उन्होंने भूपेश को अपने पिता के साथ खेतों में मेहनत करते, पीठ पर भारी वजन लादे हुए अनाज ढोते हुए और पढ़ाई करते हुए देखा था.

दिन बीत रहे थे. भूपेश के जाने का दिन आ गया था. जाते समय वह हिम्मत जुटा कर पंडित गंगाधर शास्त्री के पैर छूने गया. ‘‘जा रहा हूं बाबूजी,’’ कह कर वह पंडितजी के पैर छूने के लिए झुका. ‘‘जाओ बेटा, अपना काम मन लगा कर करना. शिक्षा देना एक महान और पवित्र काम है. कभी अपने कर्तव्य से मुंह मत मोड़ना,’’ पंडितजी ने अपना आशीर्वाद दिया और आगे कहा,

‘‘तुम्हारी और गौरी की शादी की बात हम तुम्हारे मातापिता के साथ मिल कर तय कर लेंगे.’’ यह सुन कर भूपेश खुश हो गया था. सब मुरझाए फूल खिल गए थे. खेतों में सरसों फूल रही थी. वसंत आ गया था. निशि डाक यानी रात की आत्मा से शुरू हुई कहानी अपने मुकाम पर पहुंच गई थी.

दिल हथेली पर : अमित कैसे हारा मेनका पर दिल

अमित और मेनका चुपचाप बैठे हुए कुछ सोच रहे थे. उन की समझ में नहीं आ रहा था कि क्या करना चाहिए.

तभी कालबेल बजी. मेनका ने दरवाजा खोला. सामने नरेन को देख चेहरे पर मुसकराहट लाते हुए वह बोली, ‘‘अरे जीजाजी आप… आइए.’’

‘‘नमस्कार. मैं इधर से जा रहा था तो सोचा कि आज आप लोगों से मिलता चलूं,’’ नरेन ने कमरे में आते हुए कहा.

अमित ने कहा, ‘‘आओ नरेन, कैसे हो? अल्पना कैसी है?’’

नरेन ने उन दोनों के चेहरे पर फैली चिंता की लकीरों को पढ़ते हुए कहा, ‘‘हम दोनों तो ठीक हैं, पर मैं देख रहा हूं कि आप किसी उलझन में हैं.’’

‘‘ठीक कहते हो तुम…’’ अमित बोला, ‘‘तुम तो जानते ही हो नरेन कि मेनका मां बनने वाली है. दिल्ली से बहन कुसुम को आना था, पर आज ही उस का फोन आया कि उस को पीलिया हो गया है. वह आ नहीं सकेगी. सोच रहे हैं कि किसी नर्स का इंतजाम कर लें.’’

‘‘नर्स क्यों? हमें भूल गए हो क्या? आप जब कहेंगे अल्पना अपनी दीदी की सेवा में आ जाएगी,’’ नरेन ने कहा.

‘‘यह ठीक रहेगा,’’ मेनका बोली.

अमित को अपनी शादी की एक घटना याद हो आई. 4 साल पहले किसी शादी में एक खूबसूरत लड़की उस से हंसहंस कर बहुत मजाक कर रही थी. वह सभी लड़कियों में सब से ज्यादा खूबसूरत थी.

अमित की नजर भी बारबार उस लड़की पर चली जाती थी. पता चला कि वह अल्पना है, मेनका की मौसेरी बहन.

अब अमित ने अल्पना के आने के बारे में सुना तो वह बहुत खुश हुआ.

मेनका को ठीक समय पर बच्चा हुआ. नर्सिंग होम में उस ने एक बेटे को जन्म दिया.

4 दिन बाद मेनका को नर्सिंग होम से छुट्टी मिल गई.

शाम को नरेन घर आया तो परेशान व चिंतित सा था. उसे देखते ही अमित ने पूछा, ‘‘क्या बात है नरेन, कुछ परेशान से लग रहे हो?’’

‘‘हां, मुझे मुंबई जाना पड़ेगा.’’

‘‘क्यों?’’

‘‘बौस ने हैड औफिस के कई सारे जरूरी काम बता दिए हैं.’’

‘‘वहां कितने दिन लग जाएंगे?’’

‘‘10 दिन. आज ही सीट रिजर्व करा कर आ रहा हूं. 2 दिन बाद जाना है. अब अल्पना यहीं अपनी दीदी की सेवा में रहेगी,’’ नरेन ने कहा.

मेनका बोल उठी, ‘‘अल्पना मेरी पूरी सेवा कर रही है. यह देखने में जितनी खूबसूरत है, इस के काम तो इस से भी ज्यादा खूबसूरत हैं.’’

‘‘बस दीदी, बस. इतनी तारीफ न करो कि खुशी के मारे मेरे हाथपैर ही फूल जाएं और मैं कुछ भी काम न कर सकूं,’’ कह कर अल्पना हंस दी.

2 दिन बाद नरेन मुंबई चला गया.

अगले दिन शाम को अमित दफ्तर से घर लौटा तो अल्पना सोफे पर बैठी कुछ सोच रही थी. मेनका दूसरे कमरे में थी.

अमित ने पूछा, ‘‘क्या सोच रही हो अल्पना?’’

‘‘कुछ नहीं,’’ अल्पना ने कहा.

‘‘मैं जानता हूं.’’

‘‘क्या?’’

‘‘नरेन के मुंबई जाने से तुम्हारा मन नहीं लग रहा?है.’’

‘‘ऐसी बात नहीं है. वे जिस कंपनी में काम करते हैं, वहां बाहर जाना होता रहता है.’’

‘‘जैसे साली आधी घरवाली होती है वैसे ही जीजा भी आधा घरवाला होता है. मैं हूं न. मुझ से काम नहीं चलेगा क्या?’’ अमित ने अल्पना की आंखों में झांकते हुए कहा.

‘‘अगर जीजाओं से काम चल जाता तो सालियां शादी ही क्यों करतीं?’’ कहते हुए अल्पना हंस दी. 5-6 दिन इसी तरह हंसीमजाक में बीत गए.

एक रात अमित बिस्तर पर बैठा हुआ अपने मोबाइल फोन पर टाइमपास कर रहा था. जब आंखें थकने लगीं तो वह बिस्तर पर लेट गया.

तभी अमित ने आंगन में अल्पना को बाथरूम की तरफ जाते देखा. वह मन ही मन बहुत खुश हुआ.

जब अल्पना लौटी तो अमित ने धीरे से पुकारा.

अल्पना ने कमरे में आते ही पूछा, ‘‘अभी तक आप सोए नहीं जीजाजी?’’

‘‘नींद ही नहीं आ रही है. मेनका सो गई है क्या?’’

‘‘और क्या वे भी आप की तरह करवटें बदलेंगी?’’

‘‘मुझे नींद क्यों नहीं आ रही है?’’

‘‘मन में होगा कुछ.’’

‘‘बता दूं मन की बात?’’

‘‘बताओ या रहने दो, पर अभी आप को एक महीना और करवटें बदलनी पड़ेंगी.’’

‘‘बैठो न जरा,’’ कहते हुए अमित ने अल्पना की कलाई पकड़ ली.

‘‘छोडि़ए, दीदी जाग रही हैं.’’

अमित ने घबरा कर एकदम कलाई छोड़ दी.

‘‘डर गए न? डरपोक कहीं के,’’ मुसकराते हुए अल्पना चली गई.

सुबह दफ्तर जाने से पहले अमित मेनका के पास बैठा हुआ कुछ बातें कर रहा था. मुन्ना बराबर में सो रहा था.

तभी अल्पना कमरे में आई और अमित की ओर देखते हुए बोली, ‘‘जीजाजी, आप तो बहुत बेशर्म हैं.’’

यह सुनते ही अमित के चेहरे का रंग उड़ गया. दिल की धड़कनें बढ़ गईं. वह दबी आवाज में बोला, ‘‘क्यों?’’

‘‘आप ने अभी तक मुन्ने के आने की खुशी में दावत तो क्या, मुंह भी मीठा नहीं कराया.’’

अमित ने राहत की सांस ली. वह बोला, ‘‘सौरी, आज आप की यह शिकायत भी दूर हो जाएगी.’’

शाम को अमित दफ्तर से लौटा तो उस के हाथ में मिठाई का डब्बा था. वह सीधा रसोई में पहुंचा. अल्पना सब्जी बनाने की तैयारी कर रही थी.

अमित ने डब्बा खोल कर अल्पना के सामने करते हुए कहा, ‘‘लो साली साहिबा, मुंह मीठा करो और अपनी शिकायत दूर करो.’’

मिठाई का एक टुकड़ा उठा कर खाते हुए अल्पना ने कहा, ‘‘मिठाई अच्छी है, लेकिन इस मिठाई से यह न सम?ा लेना कि साली की दावत हो गई है.’’

‘‘नहीं अल्पना, बिलकुल नहीं. दावत चाहे जैसी और कभी भी ले सकती हो. कहो तो आज ही चलें किसी होटल में. एक कमरा भी बुक करा लूंगा. दावत तो सारी रात चलेगी न.’’

‘‘दावत देना चाहते हो या वसूलना चाहते हो?’’ कह कर अल्पना हंस पड़ी.

अमित से कोई जवाब न बन पड़ा. वह चुपचाप देखता रह गया.

एक सुबह अमित देर तक सो रहा था. कमरे में घुसते ही अल्पना ने कहा, ‘‘उठिए साहब, 8 बज गए हैं. आज छुट्टी है क्या?’’

‘‘रात 2 बजे तक तो मुझे नींद ही नहीं आई.’’

‘‘दीदी को याद करते रहे थे क्या?’’

‘‘मेनका को नहीं तुम्हें. अल्पना, रातभर मैं तुम्हारे साथ सपने में पता नहीं कहांकहां घूमता रहा.’’

‘‘उठो… ये बातें फिर कभी कर लेना. फिर कहोगे दफ्तर जाने में देर हो रही है.’’

‘‘अच्छा यह बताओ कि नरेन की वापसी कब तक है?’’

‘‘कह रहे थे कि काम बढ़ गया है. शायद 4-5 दिन और लग जाएं. अभी कुछ पक्का नहीं है. वे कह रहे थे कि हवाईजहाज से दिल्ली तक पहुंच जाऊंगा, उस के बाद ट्रेन से यहां तक आ जाऊंगा.’’

‘‘अल्पना, तुम मुझे बहुत तड़पा रही हो. मेरे गले लग कर किसी रात को यह तड़प दूर कर दो न.’’

‘‘बसबस जीजाजी, रात की बातें रात को कर लेना. अब उठो और दफ्तर जाने की तैयारी करो. मैं नाश्ता तैयार कर रही हूं,’’ अल्पना ने कहा और रसोई की ओर चली गई.

एक शाम दफ्तर से लौटते समय अमित ने नींद की गोलियां खरीद लीं. आज की रात वह किसी बहाने से मेनका को 2 गोलियां खिला देगा. अल्पना को भी पता नहीं चलने देगा. जब मेनका गहरी नींद में सो जाएगी तो वह अल्पना को अपनी बना लेगा.

अमित खुश हो कर घर पहुंचा तो देखा कि अल्पना मेनका के पास बैठी हुई थी.

‘‘अभी नरेन का फोन आया है. वह ट्रेन से आ रहा है. ट्रेन एक घंटे बाद स्टेशन पर पहुंच जाएगी. उस का मोबाइल फोन दिल्ली स्टेशन पर कहीं गिर गया. उस ने किसी और के मोबाइल फोन से यह बताया है. तुम उसे लाने स्टेशन चले जाना. वह मेन गेट के बाहर मिलेगा,’’ मेनका ने कहा.

अमित को जरा भी अच्छा नहीं लगा कि नरेन आ रहा है. आज की रात तो वह अल्पना को अपनी बनाने जा रहा था. उसे लगा कि नरेन नहीं बल्कि उस के रास्ते का पत्थर आ रहा है.

अमित ने अल्पना की ओर देखते हुए कहा, ‘‘ठीक?है, मैं नरेन को लेने स्टेशन चला जाऊंगा. वैसे, तुम्हारे मन में लड्डू फूट रहे होंगे कि इतने दिनों बाद साजन घर लौट रहे हैं.’’

‘‘यह भी कोई कहने की बात है,’’ अल्पना बोली.

‘‘पर, नरेन को कल फोन तो करना चाहिए था.’’

‘‘कह रहे थे कि अचानक पहुंच कर सरप्राइज देंगे,’’ अल्पना ने कहा.

अमित उदास मन से स्टेशन पहुंचा. नरेन को देख वह जबरदस्ती मुसकराया और मोटरसाइकिल पर बिठा कर चल दिया.

रास्ते में नरेन मुंबई की बातें बता रहा था, पर अमित केवल ‘हांहूं’ कर रहा था. उस का मूड खराब हो चुका था.

भीड़ भरे बाजार में एक शराबी बीच सड़क पर नाच रहा था. वह अमित की मोटरसाइकिल से टकराताटकराता बचा. अमित ने मोटरसाइकिल रोक दी और शराबी के साथ झगड़ने लगा.

शराबी ने अमित पर हाथ उठाना चाहा तो नरेन ने उसे एक थप्पड़ मार दिया. शराबी ने जेब से चाकू निकाला और नरेन पर वार किया. नरेन बच तो गया, पर चाकू से उस का हाथ थोड़ा जख्मी हो गया.

यह देख कर वह शराबी वहां से भाग निकला.

पास ही के एक नर्सिंग होम से मरहमपट्टी करा कर लौटते हुए अमित ने नरेन से कहा, ‘‘मेरी वजह से तुम्हें यह चोट लग गई है.’’

नरेन बोला, ‘‘कोई बात नहीं भाई साहब. मैं आप को अपना बड़ा भाई मानता हूं. मैं तो उन लोगों में से हूं जो किसी को अपना बना कर जान दे देते हैं. उन की पीठ में छुरा नहीं घोंपते.

‘‘शरीर के घाव तो भर जाते हैं भाई साहब, पर दिल के घाव हमेशा रिसते रहते हैं.’’

नरेन की यह बात सुन कर अमित सन्न रह गया. वह तो हवस की गहरी खाई में गिरने के लिए आंखें मूंदे चला जा रहा था. नरेन का हक छीनने जा रहा था. उस से धोखा करने जा रहा था. उस का मन पछतावे से भर उठा.

दोनों घर पहुंचे तो नरेन के हाथ में पट्टी देख कर मेनका व अल्पना दोनों घबरा गईं. अमित ने पूरी घटना बता दी.

कुछ देर बाद अमित रसोई में चला गया. अल्पना खाना बना रही थी.

नरेन मेनका के पास बैठा बात कर रहा था.

अमित को देखते ही अल्पना ने कहा, ‘‘जीजाजी, आप तो बातोंबातों में फिसल ही गए. क्या सारे मर्द आप की तरह होते हैं?’’

‘‘क्या मतलब…?’’

‘‘लगता है दिल हथेली पर लिए घूमते हो कि कोई मिले तो उसे दे दिया जाए. आप को तो दफ्तर में कोई भी बेवकूफ बना सकती है. हो सकता है कि कोई बना भी रही हो.

‘‘आप ने तो मेरे हंसीमजाक को कुछ और ही समझ लिया. इस रिश्ते में तो मजाक चलता है, पर इस का मतलब यह तो नहीं कि… अब आप यह बताइए कि मैं आप को जीजाजी कहूं या मजनूं?’’

‘‘अल्पना, तुम मेनका से कुछ मत कहना,’’ अमित ने कहा.

‘‘मैं किसी से कुछ नहीं कहूंगी पर आप तो बहुत डरपोक हैं,’’ कह कर अल्पना मुसकरा उठी.

अमित चुपचाप रसोईघर से बाहर निकल गया.

देवर : अपने पति से क्यों दूर हो रही थी मंजू

प्रदीप को पति के रूप में पा कर मंजू के सारे सपने चूरचूर हो गए. प्रदीप का रंग सांवला और कद नाटा था. वह मंजू से उम्र में भी काफी बड़ा था.

मंजू ज्यादा पढ़ीलिखी तो नहीं थी, मगर थी बहुत खूबसूरत. उस ने खूबसूरत फिल्मी हीरो जैसे पति की कल्पना की थी.

प्रदीप सीधासादा और नेक इनसान था. वह मंजू से बहुत प्यार करता था और उसे खुश करने के लिए अच्छेअच्छे तोहफे लाता था. मगर मंजू मुंह बिचका कर तोहफे एक ओर रख देती. वह हमेशा तनाव में रहती. उसे पति के साथ घूमनेफिरने में भी शर्म महसूस होती.

मंजू तो अपने देवर संदीप पर फिदा थी. पहली नजर में ही वह उस की दीवानी हो गई थी.

संदीप मंजू का हमउम्र भी था और खूबसूरत भी. मंजू को लगा कि उस के सपनों का राजकुमार तो संदीप ही है.

प्रदीप की नईनई नौकरी थी. उसे बहुत कम फुरसत मिलती थी. अकसर वह घर से बाहर ही रहता. ऐसे में मंजू को देवर का साथ बेहद भाता. वह उस के साथ खूब हंसीमजाक करती.

संदीप को रिझाने के लिए मंजू उस के इर्दगिर्द मंडराती रहती. जानबूझ कर वह साड़ी का पल्लू सरका कर रखती. उस के गोरे खूबसूरत बदन को संदीप जब चोर निगाहों से घूरता तो मंजू के दिल में शहनाइयां बज उठतीं.

वह चाहती कि संदीप उस के साथ छेड़छाड़ करे मगर लोकलाज के डर और घबराहट के चलते संदीप ऐसा कुछ नहीं कर पाता था.

संदीप की तरफ से कोई पहल न होते देख मंजू उस के और भी करीब आने लगी. वह उस का खूब खयाल रखती. बातोंबातों में वह संदीप को छेड़ने लगती. कभी उस के बालों में हाथ फिराती तो कभी उस के बदन को सहलाती. कभी चिकोटी काट कर वह खिलखिलाने लगती तो कभी उस के हाथों को अपने सीने पर रख कर कहती, ‘‘देवरजी, देखो मेरा दिल कैसे धकधक कर रहा है…’’

जवान औैर खूबसूरत भाभी की मोहक अदाओं से संदीप के मन के तार झनझना उठते. उस के तनबदन में आग सी लग जाती. वह भला कब तक खुद को रोके रखता. धीरेधीरे वह भी खुलने लगा.

देवरभाभी एकदूसरे से चिपके रहने लगे. दोनों खूब हंसीठिठोली करते व एकदूसरे की चुहलबाजियों से खूब खुश होते. अपने हाथों से एकदूसरे को खाना खिलाते. साथसाथ घूमने जाते. कभी पार्क में समय बिताते तो कभी सिनेमा देखने चले जाते. एकदूसरे का साथ उन्हें अपार सुख से भर देता.

दोनों की नजदीकियां बढ़ने लगीं. संदीप के प्यार से मंजू को बेहद खुशी मिलती. हंसतीखिलखिलाती मंजू को संदीप बांहों में भर कर चूम लेता तो कभी गोद में उठा लेता. कभी उस के सीने पर सिर रख कर संदीप कहता, ‘‘इस दिल में अपने लिए जगह ढूंढ़ रहा हूं. मिलेगी क्या?’’

‘‘चलो देवरजी, फिल्म देखने चलते हैं,’’ एक दिन मंजू बोली.

‘‘हां भाभी, चलो. अजंता टौकीज में नई फिल्म लगी है,’’ संदीप खुश हो कर बोला और कपड़े बदलने के लिए अपने कमरे में चला गया.

मंजू कपड़े बदलने के बाद आईने के सामने खड़ी हो कर बाल संवारने लगी. अपना चेहरा देख कर वह खुद से ही शरमा गई. बनठन कर जब वह निकली तो संदीप उसे देखता ही रह गया.

‘‘तुम इस तरह क्या देख रहे हो देवरजी?’’ तभी मंजू इठलाते हुए हंस कर बोली.

अचानक संदीप ने मंजू को पीछे से बांहों में भर लिया और उस के कंधे को चूम कर बोला, ‘‘बहुत खूबसूरत लग रही हो, भाभी. काश, हमारे बीच यह रिश्ता न होता तो कितना अच्छा होता?’’

‘‘अच्छा, तो तुम क्या करते?’’ मंजू शरारत से बोली.

‘‘मैं झटपट शादी कर लेता,’’ संदीप ने कहा.

‘‘धत…’’ मंजू शरमा गई. लेकिन उस के होंठों पर मादक मुसकान बिखर गई. देवर का प्यार जताना उसे बेहद अच्छा लगा. खैर, वे दोनों फिल्म देखने चल पड़े.

फिल्म देख कर जब वे बाहर निकले तो अंधेरा हो चुका था. वे अपनी ही धुन में बातें करते हुए घर लौट पड़े. उन्हें क्या पता था कि 2 बदमाश उन का पीछा कर रहे हैं.

रास्ता सुनसान होते ही बदमाशों ने उन्हें घेर लिया और बदतमीजी करने लगे. यह देख कर संदीप डर के मारे कांपने लगा.

‘‘जान प्यारी है तो तू भाग जा यहां से वरना यह चाकू पेट में उतार दूंगा,’’

एक बदमाश दांत पीसता हुआ संदीप के आगे गुर्राया.

‘‘मुझे मत मारो. मैं मरना नहीं चाहता,’’ संदीप गिड़गिड़ाने लगा.

‘‘जा, तुझे छोड़ दिया. अब फूट ले यहां से वरना…’’

‘‘मुझे छोड़ कर मत जाओ संदीप. मुझे बचा लो…’’ तभी मंजू घबराए लहजे में बोली.

लेकिन संदीप ने जैसे कुछ सुना ही नहीं. वह वहां से भाग खड़ा हुआ. सारे बदमाश हो… हो… कर हंसने लगे.

मंजू उन की कैद से छूटने के लिए छटपटा रही थी पर उस का विरोध काम नहीं आ रहा था.

बदमाश मंजू को अपने चंगुल में देख उसे छेड़ते हुए जबरदस्ती खींचने लगे. वे उस के कपड़े उतारने की फिराक में थे.

‘‘बचाओ…बचाओ…’’ मंजू चीखने लगी.

‘‘चीखो मत मेरी रानी, गला खराब हो जाएगा. तुम्हें बचाने वाला यहां कोई नहीं है. तुम्हें हमारी प्यास बुझनी होगी,’’ एक बदमाश बोला.

‘‘हाय, कितनी सुंदर हो? मजा आ जाएगा. तुम्हें पाने के लिए हम कब से तड़प रहे थे?’’ दूसरे बदमाश ने हंसते हुए कहा.

बदमाशों ने मंजू का मुंह दबोच लिया और उसे घसीटते हुए ले जाने लगे. मंजू की घुटीघुटी चीख निकल रही थी. वह बेबस हो गई थी.

इत्तिफाक से प्रदीप अपने दोस्त अजय के साथ उसी रास्ते से गुजर रहा था. चीख सुन कर उस के कान खड़़े हो गए.

‘‘यह तो मंजू की आवाज लगती है. जल्दी चलो,’’ प्रदीप अपने दोस्त अजय से बोला.

दोनों तेजी से घटनास्थल पर पहुंचे. अजय ने टौर्च जलाई तो बदमाश रोशनी में नहा गए. बदमाश मंजू के साथ जबरदस्ती करने की कोशिश कर रहे थे. मंजू लाचार हिरनी सी छटपटा रही थी.

प्रदीप और अजय फौरन बदमाशों पर टूट पड़े. उन दोनों ने हिम्मत दिखाते हुए उन की पिटाई करनी शुरू कर दी. मामला बिगड़ता देख बदमाश भाग खडे़ हुए, लेकिन जातेजाते उन्होंने प्रदीप को जख्मी कर दिया.

मंजू ने देखा कि प्रदीप घायल हो गया है. वह जैसेतैसे खड़ी हुई और सीने से लग कर फूटफूट कर रो पड़ी. उस ने अपने आंसुओं से प्रदीप के सीने को तर कर दिया.

‘‘चलो, घर चलें,’’ प्रदीप ने मंजू को सहारा दिया.

उन्हें घर पहुंचा कर अजय वापस चला गया. मंजू अभी भी घबराई हुई थी. पर धीरेधीरे वह ठीक हुई.

‘‘यह क्या… आप के हाथ से तो खून बह रहा है. मैं पट्टी बांध देती हूं,’’ प्रदीप का जख्म देख कर मंजू ने कहा.

‘‘मामूली सा जख्म है, जल्दी ठीक हो जाएगा,’’ प्रदीप प्यार से मंजू को देखते हुए बोला.

मंजू के दिल में पति का प्यार बस चुका था. प्रदीप से नजर मिलते ही वह शरमा गई. वह मासूम लग रही थी. उस का प्यार देख कर प्रदीप की आंखें छलछला आईं.

बीवी का सच्चा प्यार पा कर प्रदीप के वीरान दिल में हरियाली छा गई. वह मंजू को अपनी बांहों में भरने के लिए मचल उठा.

इतने में मंजू का देवर संदीप सामने आ गया. वह अभी भी घबराया हुआ था. बड़े भाई के वहां से जाने के बाद संदीप ने अपनी भाभी का हालचाल पूछना चाहा तो मंजू ने उसे दूर रहने का इशारा किया.

‘‘तुम ने तो मुझे बदमाशों के हवाले कर ही दिया था. अगर मेरे पति समय पर न पहुंचते तो मैं लुट ही गई थी. कैसे देवर हो तुम?’’ जब मंजू ने कहा तो संदीप का सिर शर्म से झुक गया.

इस एक घटना ने मंजू की आंखें खोल दी थीं. अब उसे अपना पति ही सच्चा हमदर्द लग रहा था. वह अपने कमरे में चली गई और दरवाजा बंद कर लिया.

विदेश: मीता के मन में कौन सा मैल था

बेटी के बड़ी होते ही मातापिता की चिंता उस की पढ़ाई के साथसाथ उस की शादी के लिए भी होने लगती है. मन ही मन तलाश शुरू हो जाती है उपयुक्त वर की. दूसरी ओर बेटी की सोच भी पंख फैलाने लगती है और लड़की स्वयं तय करना शुरू कर देती है कि उस के जीवनसाथी में क्याक्या गुण होने चाहिए.

प्रवेश के परिवार की बड़ी बेटी मीता इस वर्ष एमए फाइनल और छोटी बेटी सारिका कालेज के द्वितीय वर्ष में पढ़ रही थी. मातापिता ने पूरे विश्वास के साथ मीता को अपना जीवनसाथी चुनने की छूट दे दी थी. वे जानते थे कि सुशील लड़की है और धैर्य से जो भी करेगी, ठीक ही होगा.

रिश्तेदारों की निगाहें भी मीता पर थीं क्योंकि आज के समय में पढ़ीलिखी होने के साथ और भी कई गुण देखे थे उन्होंने उस में. मां के काम में हाथ बंटाना, पिता के साथ जा कर घर का आवश्यक सामान लाना, घर आए मेहमान की खातिरदारी आदि वह सहर्ष करती थी.

उसी शहर में ब्याही छोटी बूआ का तो अकसर घर पर आनाजाना रहता था और हर बार वह भाई को बताना नहीं भूलती कि मीता के लिए वर खोजने में वह भी साथ है. मीता की फाइनल परीक्षा खत्म हुई तो जैसे सब को चैन मिला. मीता स्वयं भी बहुत थक गई थी पढ़ाई की भागदौड़ से.

अरे, दिन न त्योहार आज सुबहसुबह भाई के काम पर जाने से पहले ही बहन आ गई. कमरे में भाई से भाभी धीमी आवाज में कुछ चर्चा कर रही थी. सारिका जल्दी से चाय बना जब कमरे में देने गई तो बातचीत पर थोड़ी देर के लिए विराम लग गया.

पापा समय से औफिस के लिए निकल गए तो चर्चा दोबारा शुरू हुई. वास्तव में बूआ अपने पड़ोस के जानपहचान के एक परिवार के लड़के के लिए मीता के रिश्ते की सोचसलाह करने आई थी. लड़का लंदन में पढ़ने के लिए गया था और वहां अच्छी नौकरी पर था. वह अपने मातापिता से मिलने एक महीने के लिए भारत आया तो उन्होंने उसे शादी करने पर जोर दिया. बूआ को जैसे ही इस बात की खबर लगी, वहां जा लड़के के बारे में सब जानकारी ले तुरंत भाई से मिलने आ पहुंची थी.

अब वह हर बात को बढ़ाचढ़ा कर मीता को बताने बैठी. बूआ यह भी जानती थी कि मीता विदेश में बसने के पक्ष में नहीं है. शाम को भाईभाभी से यह कह कि पहले मीता एक नजर लड़के को देख ले, वह उसे साथ ले गई. समझदार बूआ ने होशियारी से सिर्फ अपनी सहेली और लड़के को अपने घर बुला चायपानी का इंतजाम कर डाला. बातचीत का विषय सिर्फ लंदन और वहां की चर्चा ही रहा.

बूआ की खुशी का ठिकाना न रहा जब अगले दिन सुबह ही सहेली स्वयं आ बूआ से मीता व परिवार की जानकारी लेने बैठीं. और आखिर में बताया कि उन के बेटे निशांत को मीता भा गई है. मीता यह सुन सन्न रह गई.

मीता ने विदेश में बसे लड़कों के बारे में कई चर्चाएं सुनी थीं कि वे वहां गर्लफ्रैंड या पत्नी के होते भारत आ दूसरा विवाह कर ले जाते हैं आदि. बूआ के घर बातचीत के दौरान उसे निशांत सभ्य व शांत लड़का लगा था. उस ने कोई शान मारने जैसी फालतू बात नहीं की थी.

मीता के मातापिता को जैसे मनमांगी मुराद मिल गई. आननफानन दोनों तरफ से रस्मोरिवाज सहित साधारण मगर शानदार विवाह संपन्न हुआ. सब खुश थे. मातापिता को कुछ दहेज देने की आवश्यकता नहीं हुई सिवा बेटीदामाद व गिनेचुने रिश्तेदारों के लिए कुछ तोहफे देने के.

नवदंपती के पास केवल 15 दिन का समय था जिस में विदेश जाने के लिए मीता के लिए औपचारिक पासपोर्ट, वीजा, टिकट आदि का प्रबंध करना था. इसी बीच, 4 दिन के लिए मीता और निशांत शिमला घूम आए.

अब उन की विदाई का समय हुआ तो दोनों परिवार उदास थे. सारिका तो जैसे बहन बगैर अकेली ही पड़ गई थी. सब के गले लगते मीता के आंसू तो जैसे खुशी व भय के गोतों में डूब रहे थे. सबकुछ इतनी जल्दी व अचानक हुआ कि उसे कुछ सोचने का अवसर ही नहीं मिला. मां से तो कुछ कहते नहीं बन पड़ रहा था, पता नहीं फिर कब दोबारा बेटी को देखना हो पाएगा. पिता बेटी के सिर पर आशीर्वाद का हाथ रखे दामाद से केवल यह कह पाए कि इस का ध्यान रखना.

लंदन तक की लंबी हवाईयात्रा के दौरान मीता कुछ समय सो ली थी पर जागते ही फिर उसे उदासी ने आ घेरा. निशांत धीरेधीरे अपने काम की व अन्य जानकारी पर बात करता रहा. लंदन पहुंच कर टैक्सी से घर तक जाने में मीता कुछ संयत हो गई थी.

छोटा सा एक बैडरूम का 8वीं मंजिल पर फ्लैट सुंदर लगा. बाहर रात में जगमगाती बत्तियां पूरे वातावरण को और भी सुंदर बना रही थीं. निशांत ने चाय बनाई और पीते हुए बताया कि उसे कल से ही औफिस जाना होगा पर अगले हफ्ते वह छुट्टी लेने की कोशिश करेगा.

सुबह का नाश्ता दोनों साथ खाते थे और निशांत रात के खाने के लिए दफ्तर से आते हुए कुछ ले आता था.

मीता का अगले दिन का लंच उसी में हो जाता था. अगले हफ्ते की छुट्टी का इंतजाम हो गया और निशांत ने उसे लंदन घुमाना शुरू किया. अपना दफ्तर, शौपिंग मौल, बसटैक्सी से आनाजाना आदि की बातें समझाता रहा. काफी पैसे दे दिए और कहा कि वह बाहर आनाजाना शुरू करे. जो चाहे खरीदे और जैसे कपड़े यहां पहने जाते हैं वैसे कुछ कपड़े अपने लिए खरीद ले. मना करने पर भी एक सुंदर सी काले प्रिंट की घुटने तक की लंबी ड्रैस मीता को ले दी. एक फोन भी दिलवा दिया ताकि वह उस से और इंडिया में जिस से चाहे बात कर सके. रसोई के लिए जरूरत की चीजें खरीद लीं. मीता ने घर पर खाना बनाना शुरू किया. दिन बीतने लगे. निशांत ने समझाया कि यहां रहने के औपचारिक पेपर बनने तक इंतजार करे. उस के बाद यदि वह चाहे तो नौकरी की तलाश शुरू कर सकती है.

एक दिन मीता ने सुबह ही मन में सोचा कि आज अकेली बाहर जाएगी और निशांत को शाम को बता कर सरप्राइज देगी. दोपहर को तैयार हो, टैक्सी कर, वह मौल में पहुंची. दुकानों में इधरउधर घूमती चीजें देखती रही. एक लंबी ड्रैस पसंद आ गई. महंगी थी पर खरीद ली. चलतेचलते एक रेस्टोरैंट के सामने से गुजरते उसे भूख का एहसास हुआ पर वह तो अपने लिए पर्स में सैंडविच ले कर आई थी. अभी वह यहां नई है और अब बिना निशांत के अकेले खाने का तुक नहीं बनता, उस ने बस, उस ओर झांका ही था, वह निशांत…एक लड़की के साथ रेस्टोरैंट में, शायद नहीं, पर लड़की को और निशांत का दूर से हंसता चेहरा देख वह सन्न रह गई. दिमाग में एकदम बिजली सी कौंधी, तो सही थी मेरी सोच. गर्लफ्रैंड के साथ मौजमस्ती और घर में बीवी. हताश, वह टैक्सी ले घर लौटी. शाम को निशांत घर आया तो न तो उस ने खरीदी हुई ड्रैस दिखाई और न ही रेस्टोरैंट की चर्चा छेड़ी.

तीसरे दिन औफिस से लौटते वह उस लड़की को घर ले आया और मीता से परिचय कराया, ‘‘ये रमा है. मेरे दूर के रिश्ते में चाचा की बेटी. ये तो अकेली आना नहीं चाह रही थी क्योंकि इस के पति अभी भारत गए हैं और अगले हफ्ते लौट आएंगे. रेस्टोरैंट में जब मैं खाना पैक करवाने गया था तो इसी ने मुझे पहचाना वहां. मैं ने तो इसे जब लखनऊ में देखा था तब ये हाईस्कूल में थी. मीता का दिल धड़का, ‘तो अब घर तक.’ बेमन से मीता ने उसे चायनाश्ता कराया.

दिन में एक बार मीता स्वयं या निशांत दफ्तर से फोन कर लेता था पर आज न मीता ने फोन किया और न निशांत को फुरसत हुई काम से. कितनी अकेली हो गई है वह यहां आ कर, चारदीवारी में कैद. दिल भर आया उस का. तभी उसे कुछ ध्यान आया. स्वयं को संयत कर उस ने मां को फोन लगाया. ‘‘मीता कैसी हो? निशांत कैसा है? कैसा लगा तुम्हें लंदन में जा कर?’’ उस के कुछ बोलने से पहले मां ने पूछना शुरू कर दिया.

‘‘सब ठीक है, मां.’’ कह फौरन पूछा, ‘‘मां, बड़ी बूआ का बेटा सोम यहां लंदन में रहता है. क्या आप के पास उस का फोन या पता है.’’

‘‘नहीं. पर सोम पिछले हफ्ते से कानपुर में है. तेरे बड़े फूफाजी काफी बीमार थे, उन्हें ही देखने आया है. मैं और तेरे पापा भी उन्हें देखने परसों जा रहे हैं. सोम को निशांत का फोन नंबर दे देंगे. वापस लंदन पहुंचने पर वही तुम्हें फोन कर लेगा.’’

‘‘नहीं मां, आप मेरा फोन नंबर देना, जरा लिख लीजिए.’’

मीता, सोम से 2 वर्ष पहले उस की बहन की शादी में कानपुर में मिली थी और उस के लगभग 1 वर्ष बाद बूआ ने मां को फोन पर बताया था कि सोम ने लंदन में ही एक भारतीय लड़की से शादी कर ली है और अभी वह उसे भारत नहीं ला सकता क्योंकि उस के लिए अभी कुछ पेपर आदि बनने बाकी हैं. इस बात को बीते अभी हफ्ताभर ही हुआ था कि शाम को दफ्तर से लौटने पर निशांत ने मीता को बताया कि रमा का पति भारत से लौट आया है और उस ने उन्हें इस इतवार को खाने पर बुलाया है.

मीता ने केवल सिर हिला दिया और क्या कहती. खाना बनाना तो मीता को खूब आता था. निशांत उस के हाथ के बने खाने की हमेशा तारीफ भी करता था. इतवार के लंच की तैयारी दोनों ने मिल कर कर ली पर मीता के मन की फांस निकाले नहीं निकल रही थी. मीता सोच रही थी कि क्या सचाई है, क्या संबंध है रमा और निशांत के बीच, क्या रमा के पति को इस का पता है, क्योंकि निशांत ने मुझ से शादी…?

ध्यान टूटा जब दरवाजे की घंटी 2 बार बज चुकी. आगे बढ़ कर निशांत ने दरवाजा खोला और गर्मजोशी से स्वागत कर रमा के पति से हाथ मिलाया. वह दूर खड़ी सब देख रही थी. तभी उस के पैरों ने उसे आगे धकेला क्योंकि उस ने जो चेहरा देखा वह दंग रह गई. क्या 2 लोग एक शक्ल के हो सकते हैं? उस ने जो आवाज सुनी, ‘आई एम सोम’, वो दो कदम और आगे बढ़ी और चेहरा पहचाना, और फिर भाग कर उस ने उस का हाथ थामा, ‘‘सोम भैया, आप यहां.’’

‘‘क्या मीता, तुम यहां लंदन में, तुम्हारी शादी’’ और इस से आगे सोम बिना बोले निशांत को देख रहा था. उसे समझते देर न लगी, कुछ महीने पहले मां ने उसे फोन पर बताया था कि मीता की शादी पर गए थे जो बहुत जल्दी में तय की गई थी. मीता अब सोम के गले मिल रही थी और रमा अपने कजिन निशांत के, भाईबहन का सुखद मिलाप.

सब मैल धुल गया मीता के मन का, मुसकरा कर निशांत को देखा और लग गई मेहमानों की खातिर में. उसे लगा अब लंदन उस का सुखद घर है जहां उस का भाई और भाभी रहते हैं और उस के पति की बहन भी यानी उस की ननद व ननदोई. ससुराल और मायका दोनों लंदन में. मांपापा सुनेंगे तो हैरान होंगे और खुश भी और बड़ी बूआ तो बहुत खुश होंगी यह जानकर कि सोम की पत्नी से जिस से अभी तक वे मिली नहीं हैं उस से अकस्मात मेरा मिलना हो गया यहां लंदन में. मीता की खुशी का आज कोई ओरछोर नहीं था. सब कितना सुखद प्रतीत हो रहा था.

समझौता: रामेश्वर ने अपने हक से किया समझौता

‘‘क्या करूं, वह मेरी बचपन की सहेली है,’’ अनसुना करते हुए दुर्गा बोली.

‘‘देख दुर्गा, आखिरी बार कह रहा हूं कि अब तू मानमल की लुगाई से कभी नहीं मिलेगी…’’ एक बार फिर समझाते हुए रामेश्वर बोला, ‘‘बोलती है और कभीकभार हलवापूरी भी भिजवा देती है. बड़ा प्रेम दिखाने लगी है आजकल उस से.’’

‘‘अरे, मनुष्य योनि में जन्म लिया है तो प्रेम से रहना चाहिए,’’ दुर्गा एक बार फिर समझाते हुए बोली.

‘‘बड़ी आई प्रेम दिखाने वाली…’’ गुस्से से रामेश्वर बोला, ‘‘वहां उस का प्रेम कहां गया था, जब मानमल ने अपना रास्ता बंद किया? हम ने थाने में रपट लिखवा दी. अदालत में पेशी चल रही है. वह हमारा दुश्मन है, फिर भी उन से प्रेम जताती है.’’

‘‘देखो, वह अदालती दुश्मनी है…’’ समझाते हुए दुर्गा बोली, ‘‘यह क्यों नहीं समझते कि वह पैसे वाला है. हम से ऊंची जात का भी है.’’

‘‘हम से ऊंची जात का हुआ तो क्या हुआ. क्या हम ढोर हैं. देख दुर्गा, कान खोल कर अच्छी तरह सुन ले. अब तू उस दुश्मन की औरत से नहीं बोलेगी और न ही मिलेगी.’’

‘‘झगड़ा तुम्हारा मानमल से है, उस की औरत से तो नहीं है,’’ दुर्गा बोली.

‘‘मानमल और उस की लुगाई क्या अलगअलग हैं?’’ गुस्से से रामेश्वर बोला, ‘‘है तो उस की लुगाई.’’

‘‘झगड़ा झगड़े की जगह होता है. तुम मत बोलो, मैं तो बोलूंगी.’’

‘‘रस्सी जल गई, मगर ऐंठन नहीं गई,’’ रामेश्वर गुस्से से बोला.

‘‘तुम एक बात कान खोल कर सुन लो. तुम्हारा लाड़ला मांगीलाल, जो 12वीं में पढ़ रहा है और मानमल का लड़का भी 12वीं जमात में मांगीलाल के साथ पढ़ रहा है. दोनों में गहरी दोस्ती है. वे साथसाथ स्कूल जाते हैं और आते भी हैं. मुझे तो रोक लोगे, उसे कैसे रोकोगे?’’

‘‘अरे, तुम मांबेटे दोनों मिल कर दुश्मन से कहीं मुकदमे को हरवा न दो,’’ शक जाहिर करते हुए रामेश्वर बोला.

‘‘जैसा तुम सोच रहे हो मांगीलाल के बापू, वैसा नहीं है. हम में मुकदमे संबंधी कोई बात नहीं होती…’’ एक बार फिर दुर्गा बोली, ‘‘हमारे बीच घरेलू बातें

ही होती हैं.’’

‘‘मतलब, तुम उस से मिलनाजुलना बंद नहीं करोगी?’’ रामेश्वर ने पूछा और कहा, ‘‘जैसी तेरी मरजी. अब मैं कुछ भी नहीं कहूंगा.’’

इस के बाद रामेश्वर झल्लाते हुए घर से बाहर निकल गया.

यह कहानी जिस गांव की है उस गांव का नाम है रिंगनोद जो पिंगला नदी के किनारे बसा हुआ है. एक जमाना था जब यह नदी 12 महीने बहती रहती थी. उस जमाने में इस नदी में पुल नहीं बना हुआ था, इसलिए शहर जाने के लिए नदी में से हो कर जाना पड़ता था. मगर आज तो यह नदी गरमी आतेआते सूख जाती है. अब तो इस के ऊपर बड़ा पुल बन गया है, तो गांव शहर से पूरी तरह जुड़ गया है.

इसी गांव के रहने वाला रामेश्वर जाति से अनुसूचित है और मानमल बनिया है. उस की गांव में किराने की दुकान के साथ खेती भी है. वह ज्यादा पैसे वाला है, इसलिए अच्छा दबदबा है. रामेश्वर के पास केवल खेती है.

वह इसी पर ही निर्भर है. बापदादा के जमाने से दोनों के खेत असावती रोड पर पासपास हैं. जावरा से सीतामऊ तक कंक्रीट की रोड बन गई है, जो उन के खेत के पास से ही निकली है. इसी सड़क से लगा हुआ एक रास्ता है, जो दोनों की सुविधा के लिए था. दोनों का अपने खेत पर जाने के लिए यही एक रास्ता था.

रामेश्वर के खेत थोड़े से अंदर थे और मानमल के खेत सड़क से लगे हुए थे. उस रास्ते को ले कर अभी तक दोनों में कभी कोई झगड़ा नहीं हुआ, मगर जब से पक्का रोड बना है, तब से मानमल के भीतर खोट आ गया. वह अपनी जमीन पर होटल खोलना चाहता था. अगर वह दीवार बना कर निकलने का गलियारा देता, जो होटल के लिए कम जमीन पड़ती इसलिए उस ने अपनी दबंगता के बल पर जहां से रामेश्वर के खेत शुरू होते हैं, वहां रातोंरात दीवार खिंचवा दी.

रामेश्वर ने एतराज किया कि इस जमीन पर उस का भी हक है. बापदादा के जमाने से यह रास्ता बना हुआ है. मगर मानमल बोला था, ‘‘देख रामेश्वर, यह सारी जमीन मेरी है.’’

‘‘तेरी कैसे हो गई भई?’’ रामेश्वर ने पूछा.

‘‘मेरी जमीन सड़क से शुरू होती है और जो सड़क से शुरू हुई वह मेरी हुई न,’’ मानमल ने कहा.

‘‘मगर, मैं अब कहां से निकलूंगा?’’

‘‘यह तुझे सोचना है. अरे, बापदादा ने गलती की तो इस की सजा क्या मैं भुगतूंगा?’’

‘‘देखो मानमलजी, आप बड़े लोग हो. मैं आप से जरा नीचा हूं. इस का यह मतलब नहीं है कि नाजायज कब्जा कर लें.’’

‘‘अरे, आप की जमीन है तो

कागज दिखाओ? मेरी तो यहां दीवार बनेगी.’’

‘‘मैं दीवार नहीं बनने दूंगा,’’ विरोध जताते हुए रामेश्वर बोला.

‘‘कैसे नहीं बनने देगा. जमीन मेरी है. इस पर चाहे मैं कुछ भी करूं, तुम कौन होते हो मुझे रोकने वाले?’’

‘‘मतलब, तुम दीवार बनाओगे और मेरा रास्ता रोकोगे?’’

‘‘पटवारी ने भी इस जमीन का मालिक मुझे बना रखा है.’’

‘‘देखो, मैं आखिरी बार कह रहा हूं, तुम यहां दीवार मत बनाओ.’’

‘‘मैं तो दीवार बनाऊंगा… तुझ से जो हो कर ले.’’

‘‘ठीक है, मैं तुझे कोर्ट तक खींच कर ले जाऊंगा.’’

‘‘ठीक है, ले जा.’’

फिर मानमल के खिलाफ रामेश्वर ने थाने में शिकायत दर्ज कर दी. पुलिस ने चालान बना कर कोर्ट में पेश कर दिया. कोर्ट ने फैसला आने तक जैसे हालात थे, वैसे रहने का आदेश दिया.

पुलिस ने मुकदमा कायम कर दिया. पूरे 5 साल हो गए, पर कोई फैसला न हो पाया. तारीख पर तारीख बढ़ती गई. दोनों परिवारों में पैसा खर्च होता रहा.

रामेश्वर इस मुकदमे से टूट गया. पैसा अलग खर्च हो रहा था और मानमल फैसला जल्दी न मिले, इसलिए पैसे दे कर तारीखें आगे बढ़वाता रहा ताकि रामेश्वर टूट जाए और मुकदमा हार जाए.

मगर रामेश्वर की जोरू दुर्गा मानमल की लुगाई से संबंध बढ़ा रही है. उस के घर भी काफी आनाजाना करती है. कभीकभार मिठाइयां भी खिला रही है, जबकि रामेश्वर और मानमल एकदूसरे को देखना भी पसंद नहीं करते थे, बल्कि कोर्ट में जब भी तारीख लगती थी और मानमल से उस का सामना होता था, तब मानमल उसे देख कर हंसता था. यह जताने की कोशिश करता था कि मुकदमा लड़ने की हैसियत नहीं है, फिर भी लड़ रहा है.

मुकदमा तो वे ही लड़ सकते हैं, जिन के पास पैसों की ताकत है.10 साल तक अगर और मुकदमा चलेगा तो जमीन बिक जाएगी. मुकदमा लड़ना हंसीखेल नहीं है. मानमल तो चाहता है कि रामेश्वर बरबाद हो जाए.

5 साल के मुकदमे ने रामेश्वर की कमर तोड़ दी. अब भी न जाने कितने साल तक चलेगा. वकील का घर भरना है. वह तो केवल खेती के ऊपर निर्भर है, जबकि मानमल के किराने की दुकान भी अच्छी चल रही है और भी न जाने क्याक्या धंधा कर रहा है. खेती भी उस से ज्यादा है, इसलिए मुकदमे के फैसले से वह निश्चिंत है.

मगर, रामेश्वर जब भी तारीख पर जाता है, तारीख आगे बढ़ जाती है और जब तारीख आगे बढ़ जाती है, तब मानमल मन ही मन हंसता है. उस की हंसी में बहुत ही गहरा तंज छिपा हुआ रहता है.

‘‘चाय पी लो,’’ दुर्गा चाय का कप लिए खड़ी थी. तब रामेश्वर अपनी सोच से बाहर निकला.

‘‘क्या सोच रहे थे?’’ दुर्गा ने पूछा.

‘‘इस मुकदमे के बारे में?’’ हारे हुए जुआरी की तरह रामेश्वर ने जवाब दिया.

‘‘बस सोचते रहना, पहले ही कोई समझौता कर लेते, तब ये दिन देखने को नहीं मिलते,’’ दुर्गा ने कहा.

रामेश्वर नाराज हो कर बोला, ‘‘तुम जले पर नमक छिड़क रही हो? एक तो मैं इस मुकदमे से टूट गया हूं, फिर न जाने कब फैसला होगा. मानमल पैसा दे कर तारीख पर तारीख बढ़ाता जा रहा है और तुझे मजाक सूझ रहा है.’’

‘‘मेरा यह मतलब नहीं था,’’ दुर्गा ने सफाई दी.

‘‘तब क्या मतलब था तेरा? एक तो दुश्मन की औरत से बोलती हो… कितनी बार कहा है कि तुम उस से संबंध

मत बनाओ, मगर मेरी एक भी नहीं सुनती हो.’’

‘‘देखोजी, उस से संबंध बनाने से मेरा भी लालच है.’’

‘‘क्या लालच है?’’

‘‘जैसे आप टूट रहे हो न, वैसे मानमल भी चाहता है कि कोई बीच का रास्ता निकल जाए.’’

‘‘तुझे कैसे मालूम?’’

‘‘मानमल की जोरू बताती रहती है,’’ दुर्गा बोली.

‘‘समझौता क्यों नहीं कर

लेता है? रास्ता क्यों बंद कर

रहा है?’’

‘‘वह रास्ता देने को

तैयार है.’’

‘‘जब वह देने को तैयार है, तब तारीखें क्यों बढ़वाता है? यह तो वही हुआ कि आप खावे काकड़ी और दूसरे को दे आकड़ी,’’ नाराजगी से रामेश्वर बोला.

‘‘आप कहें तो मैं उस की जोरू से बात कर के देखती हूं,’’ दुर्गा ने रामेश्वर को सलाह दी.

‘‘कोई जरूरत नहीं है उस से बात करने की. अब तो अदालत से ही फैसला होगा…’’ इनकार करते हुए रामेश्वर बोला, ‘‘तू औरत जात ठहरी. मानमल की चाल को तू क्या समझे.’’

‘‘ठीक है तो लड़ो मुकदमा और वकीलों का भरो पेट,’’ दुर्गा ने कहा, फिर उन के बीच सन्नाटा पसर गया.

रामेश्वर इसलिए नाराज है कि दुर्गा अपने दुश्मन की जोरू से पारिवारिक संबंध बनाए हुए है. दुर्गा इसलिए नाराज है कि हर झगड़ा अदालत से नहीं निबटा जा सकता है. थोड़ा तुम झुको, थोड़ा वह झुके. मगर मांगीलाल के पापा तो जरा भी झुकने को तैयार नहीं हैं.

मगर इसी बीच एक घटना घट गई.

मानमल और उस की पत्नी का अचानक उन के घर आना.

मानमल की जोरू बोली, ‘‘दुर्गा, हम इसलिए आए हैं कि हम दोनों जमीन

के जिस टुकड़े के लिए अदालत में

लड़ रहे हैं, उस का फैसला तो न जाने कब होगा.’’

‘‘हां बहन,’’ दुर्गा भी हां में हां मिलाते हुए बोली, ‘‘अदालत में सालों लग जाते हैं फैसला होने में.’’

‘‘भाई रामेश्वर, हम आपस में मिल कर ऐसा समझौता कर लें कि सांप भी मर जाए और लाठी भी न टूटे,’’ मानमल समझाते हुए बोला.

‘‘कैसा समझौता? मैं समझा नहीं,’’ रामेश्वर नाराजगी से बोला.

‘‘तुम नाराज मत होना. मैं ने बहुत सोचसमझ कर यह फैसला लिया है कि तुम्हें 5 फुट जमीन का गलियारा देता हूं ताकि तुम्हें अपने खेत में आनेजाने के लिए कोई तकलीफ न पड़े…’’ समझाते हुए मानमल बोला, ‘‘मैं 5 फुट छोड़ कर दीवार बना लेता हूं.’’

‘‘वाह मानमलजी, वाह, खूब फैसला लिया. मुझे इतना बेवकूफ समझ लिया कि बाकी की 10 फुट जमीन खुद रख रहे हो. मुझे आधी जमीन चाहिए,’’ रामेश्वर भी गुस्से से अड़ गया.

‘‘देखो नाराज मत होना. जिस जमीन के लिए तुम अदालत में लड़ रहे हो. अदालत देर से सही मगर फैसला मेरे पक्ष में देगी. मैं ने सारे सुबूत लगा रखे हैं, जबकि मैं अपनी मरजी से तुम्हें गलियारा दे रहा हूं, इसलिए ले लो वरना बाद में पछताना न पड़े.’’

‘‘देखोजी, इतना भी मत सोचो, कोर्ट का फैसला तो न जाने कब आएगा. अगर हमारे खिलाफ आएगा, तब हमें 5 फुट जमीन से भी हाथ धोना पड़ेगा,’’

दुर्गा समझाते हुए बोली.

‘‘हां भाई साहब, मत सोचो, जो हम दे रहे हैं वह कबूल कर लो…’’ मानमल की पत्नी ने प्रस्ताव रखते हुए कहा, ‘‘हम तो आप की भलाई की बात कर रहे हैं ताकि हमारे बीच अदालत का फैसला खत्म हो जाए.’’

‘‘मैं फायदे का सौदा कर रहा हूं रामेश्वर,’’ एक बार फिर समझाते हुए मानमल बोला, ‘‘इस के बावजूद तुम्हें लगे कि कोर्ट के फैसले तक इंतजार करूं, तब भी मुझे कोई एतराज नहीं है,’’ कह कर मानमल ने गेंद रामेश्वर के पाले में फेंक दी.

रामेश्वर के लिए इधर खाई उधर कुआं थी. शायद मानमल को यह एहसास हो गया हो कि 15 फुट जमीन, जिस के लिए सारी लड़ाई है, वह खुद ही हार रहा हो, इसलिए फैसला आए उस के पहले ही यह समझौता कर रहा है. बड़ा चालाक है मानमल. यह इस तरह कभी हार मानने वाला नहीं है.

लगता है कि अपनी हार देख कर ही यह फैसला लिया हो. वह कचहरी के चक्कर काटतेकाटते हार गया है. इस ने अपनी जमीन पर होटल बना लिया है. जो चल भी रहा है. इस ने कहा भी है कि इस तरफ दीवार खींच कर पूरा इंतजाम करना चाहता है. तभी तो समझौता करने के लिए आगे आया है. इस में भी इस का लालच है.

उसे चुप देख कर मानमल एक बार फिर बोला, ‘‘अब क्या सोच रहे हो?’’

‘‘ठीक है, मुझे यह समझौता मंजूर है. यह घूंट भी पी लेता हूं,’’ कह कर रामेश्वर ने अपने हथियार डाल दिए.

यह सुन कर मानमल खुशी से खिल उठा. उस ने रामेश्वर को गले से लगा लिया. फिर उन दोनों ने यह भी फैसला लिया कि अगली तारीख पर कोर्ट से मुकदमा वापस ले लेंगे. कोर्ट से दोनों के समझौते के मुताबिक कागज ले लेंगे. इस के बाद वे दोनों चले गए.

चुप्पी तोड़ते हुई दुर्गा बोली, ‘‘अच्छा हुआ जो समझौता कर लिया?’’

‘‘मानमल की गरज थी तो उस ने समझौता किया है?’’ चिढ़ कर रामेश्वर बोला.

‘‘उस की तो पूरी की पूरी जमीन हड़पने की योजना थी. मगर, यह सब मैं ने मानमल की बीवी को समझाया था.

‘‘उस ने ही मानमल को मनाया था. इसी वजह से मैं ने संबंध बनाए थे, आप के लाख मना करने के बाद भी. 5 फुट का गलियारा देने के लिए मैं ने ही मानमल की बीवी के सामने प्रस्ताव रखा था,’’ कह कर दुर्गा ने अपनी बात पूरी कर दी. रामेश्वर कोई जवाब नहीं दे पाया.  द्य

नया द्वार: नये दरवाजे पर खुशियों ने दी दस्तक

एक दिन रास्ते में रेणु भाभी मिल गईं. बड़ी उदास, दुखी लग रही थीं. मैं ने कारण पूछा तो उबल पड़ीं. बोलीं, ‘‘क्या बताऊं तुम्हें? माताजी ने तो हमारी नाक में दम कर रखा है. गांव में पड़ी थीं अच्छीखासी. इन्हें शौक चर्राया मां की सेवा का. ले आए मेरे सिर पर मुसीबत. अब मैं भुगत रही हूं.’’

भाभी की आवाज कुछ ऊंची होती जा रही थी, कुछ क्रोध से, कुछ खीज से. रास्ते में आतेजाते लोग अजीब नजरों से हमें घूरते जा रहे थे. मैं ने धीरे से उन का हाथ पकड़ कर कहा, ‘‘चलो न, भाभी, पास ही किसी होटल में चाय पी लें. वहीं बातें भी हो जाएंगी.’’

भाभी मान गईं और तब मुझे उन का आधा कारण मालूम हुआ.

रेणु भाभी मेरी रिश्ते की भाभी नहीं हैं, पर उन के पति मनोज भैया और मेरे पति एक ही गांव के रहने वाले हैं. इसी कारण हम ने उन दोनों से भैयाभाभी का रिश्ता जोड़ लिया है.

मनोज भैया की मां मझली चाची के नाम से गांव में काफी मशहूर हैं. बड़ी सरल, खुशमिजाज और परोपकारी औरत हैं. गरीबी में भी हिम्मत से इकलौते बेटे को पढ़ाया. तीनों बेटियों की शादी की.

अब पिछले कुछ वर्षों से चाचा की मृत्यु के बाद, मनोज भैया उन्हें शहर लिवा लाए. कह रहे थे कि वहां मां के अकेली होने के कारण यहां उन्हें चिंता सताती रहती थी. फिर थोड़ेबहुत रुपए भी खर्चे के लिए भेजने पड़ते थे.

‘‘तभी से यह मुसीबत मेरे पल्ले पड़ी है,’’ रेणु भाभी बोलीं, ‘‘इन्हीं का खर्चा चलाने के लिए तो मैं ने भी नौकरी कर ली. कहीं इन्हें बुढ़ापे में खानेपीने, पहनने- ओढ़ने की कमी न हो. पर अब तो उन के पंख निकल आए हैं,’’

‘‘सो कैसे?’’

‘‘तुम ही घर आ कर देख लेना,’’ भाभी चिढ़ कर बोलीं, ‘‘अगर हो सके तो समझा देना उन्हें. घर को कबाड़खाना बनाने पर तुली हुई हैं. दीपक भैया को भी साथ लाएंगी तो वह शायद उन्हें समझा पाएंगे. बड़ी प्यारी लगती हैं न उन्हें मझली चाची?’’

चाय खत्म होते ही रेणु भाभी उठ खड़ी हुईं और बात को ठीक तरह से समझाए बिना ही चली गईं.

मैं ने अपने पति दीपक को रेणु भाभी के वक्तव्य से अवगत तो करा दिया था, लेकिन बच्चों की परीक्षाएं, घर के अनगिनत काम और बीचबीच में टपक पड़ने वाले मेहमानों के कारण हम लोग चाची के घर की दिशा भूल से गए.

तभी एक दिन मेरी मौसेरी बहन सुमन दोपहर को मिलने आई. उस ने एम.ए., बी.एड कर रखा था, पर दोनों बच्चे छोटे होने के कारण नौकरी नहीं कर पा रही थी. हालांकि उस के परिवार को अतिरिक्त आय की आवश्यकता थी. न गांव में अपना खुद का घर था, न यहां किराए का घर ढंग का था. 2 देवर पढ़ रहे थे. उन का खर्चा वही उठाती थी. सास बीमार थी, इसलिए पोतों की देखभाल नहीं कर सकती थी. ससुर गांव की टुकड़ा भर जमीन को संभाल कर जैसेतैसे अपना काम चलाते थे.

फिर भी सुमन की कार्यकुशलता और स्नेह भरे स्वभाव के कारण परिवार खुश रहता था. जब भी मैं उसे देखती, मेरे मन में प्यार उमड़ पड़ता. मैं प्रसन्न हो जाती.

उस दिन भी वह हंसती हुई आई. एक बड़ा सा पैकेट मेरे हाथ में थमा कर बोली, ‘‘लो, भरपेट मिठाई खाओ.’’

‘‘क्या बात है? इस परिवार नियोजन के युग में कहीं अपने बेटों के लिए बहन के आने की संभावना तो नहीं बताने आई?’’ मैं ने मजाक में पूछा.

‘‘धत दीदी, अब तो हाथ जोड़ लिए. रही बहन की बात तो तुम्हारी बेटी मेरे शरद, शिशिर की बहन ही तो है.’’

‘‘पर मिठाई बिना जाने ही खा लूं?’’

‘‘तो सुनो, पिछले 2 महीने से मैं खुद के पांवों पर खड़ी हो गई हूं. यानी कि नौ…क…री…’’ उस ने खुशी से मुझे बांहों में भर लिया. बिना मिठाई खाए ही मेरा मुंह मीठा हो गया. तभी मुझे उस के बच्चों की याद आई, ‘‘और शरद, शिशिर उन्हें कौन संभालता है? तुम कब जाती हो, कब आती हो, कहां काम करती हो?’’

‘‘अरे…दीदी, जरा रुको तो, बताती हूं,’’ उस ने मिठाई का पैकेट खोला, चाय छानी, बिस्कुट ढूंढ़ कर सजाए तब कुरसी पर आसन जमा कर बोली, ‘‘सुनो अब. नौकरी एक पब्लिक स्कूल में लगी है. तनख्वाह अच्छी है. सवेरे 9 बजे से शाम को 4 बजे तक. और बच्चे तुम्हारी मझली चाची के पास छोड़ कर निश्ंिचत हो जाती हूं.’’

‘‘क्या?’’

‘‘जी हां. मझली चाची कई बच्चों को संभालती हैं. बहुत प्यार से देखभाल करती हैं.’’

खापी कर पीछे एक खुशनुमा ताजगी में फंसे हुए प्रश्न मेरे लिए छोड़ कर सुमन चली गई. मझली चाची ऐसा क्यों कर रही थीं? रेणु भाभी क्या इसी कारण से नाराज थीं?

‘‘बात तो ठीक है,’’ शाम को दीपक ने मेरे प्रश्नों के उत्तर में कहा, ‘‘फिर भैयाभाभी दोनों कमाते हैं. मझली चाची के कारण उन्हें समाज की उठती उंगलियां सहनी पड़ती होंगी. हमें चाची को समझाना चाहिए.’’

‘‘दीपक, कभी दोपहर को बिना किसी को बताए पहुंच कर तमाशा देखेंगे और चाची को अकेले में समझाएंगे. शायद औरों के सामने उन्हें कुछ कहना ठीक नहीं होगा,’’ मैं ने सुझाव दिया.

दीपक ने एक दिन दोपहर को छुट्टी ली और तब हम अचानक मनोज भैया के घर पहुंचे.

भैयाभाभी काम पर गए हुए थे. घर में 10 बच्चे थे. मझली चाची एक प्रौढ़ा स्त्री के साथ उन की देखभाल में व्यस्त थीं. कुछ बच्चे सो रहे थे. एक को चाची बोतल से दूध पिला रही थीं. उन की प्रौढ़ा सहायिका दूसरे बच्चे के कपड़े बदल रही थी.

चाची बड़ी खुश नजर आ रही थीं. साफ कपड़े, हंसती आंखें, मुख पर संतोष तथा आत्मविश्वास की झलक. सेहत भी कुछ बेहतर ही लग रही थी.

‘‘चाचीजी, आप ने तो अच्छीखासी बालवाटिका शुरू कर दी,’’ मैं ने नमस्ते कर के कहा.

चाची हंस कर बोलीं, ‘‘अच्छा लगता है, बेटी. स्वार्थ के साथ परमार्थ भी जुटा रही हूं.’’

‘‘पर आप थक जाती होंगी?’’ दीपक ने कहा, ‘‘इतने सारे बच्चे संभालना हंसीखेल तो नहीं.’’

‘‘ठहरो, चाय पी कर फिर तुम्हारी बात का जवाब दूंगी,’’ वह सहायिका को कुछ हिदायतें दे कर रसोईघर में चली गईं, ‘‘यहीं आ जाओ, बेटे,’’ उन्होंने हम दोनों को भी बुला लिया.

‘‘देखो दीपक, अपने पोतेपोती के पीछे भी तो मैं दौड़धूप करती ही थी? तब तो कोई सहायिका भी नहीं थी,’’ चाची ने नाश्ते की चीजें निकालते हुए कहा, ‘‘अब ‘वसुधैव कुटुंबकम्’ की उम्र है न मेरी? इन सभी को पोतेपोतियां बना लिया है मैं ने.’’

फिर मेरी ओर मुड़ कर कहा, ‘‘तुम्हारी सुमन के भी दोनों नटखट यहीं हैं. सोए हुए हैं. दोपहर को सब को घंटा भर सुलाने की कोशिश करते हैं. शाम को 5 बजे मेरा यह दरबार बरखास्त हो जाता है. तब तक मनोज के बच्चे शुचि और राहुल भी आ जाते हैं.’’

‘‘पर चाची, आप…आप को आराम छोड़ कर इस उम्र में ये सब झमेले? क्या जरूरत थी इस की?’’

‘‘तुम से एक बात पूछूं, बेटी? तुम्हारे मांपिताजी तुम्हारे भैयाभाभी के साथ रहते हैं न? खुश हैं वह?’’

मेरी आंखों के सामने भाभी के राज में चुप्पी साधे, मुहताज से बने मेरे वृद्ध मातापिता की सूरतें घूम गईं. न कहीं जाना न आना. कपड़े भी सब की जरूरतें पूरी करने के बाद ही उन के लिए खरीदे जाते. वे दोनों 2 कोनों में बैठे रहते. किसी के रास्ते में अनजाने में कहीं रोड़ा न बन जाएं, इस की फिक्र में सदा घुलते रहते. मेरी आंखें अनायास ही नम हो आईं.

चाची ने धीरे से मेरे बाल सहलाए. ‘‘बेटी, तू दीपक को मेरी बात समझा सकेगी. मैं तेरी आंखों में तेरे मातापिता की लाचारी पढ़ सकती हूं, लेकिन जब तुझ पर किसी वयोवृद्ध का बोझ आ पड़े, तब आंखों की इस नमी को याद रखना.’’

दीपक के चेहरे पर प्रश्न था.

‘‘सुनो बेटे, पति की कमाई या मन पर जितना हक पत्नी का होता है उतना बेटे की कमाई या मन पर मां का नहीं होता. इस कारण से आत्मनिर्भर होना मेरे लिए जरूरी हो गया था. रही काम की बात तो पापड़बडि़यां, अचारमुरब्बे बनाना भी तो काम ही है, जिन्हें करते रहने पर भी करने वालों की कद्र नहीं की जाती. घर में रह कर भी अगर ये काम हम ने कर भी लिए तो कौन सा शेर मार दिया? बहू कमाएगी तो सास को यह सबकुछ तो करना ही पड़ेगा,’’ चाची ने एक गहरी सांस ली.

‘‘कब आते हैं बच्चे?’’ दीपक ने हौले से पूछा.

‘‘9 बजे से शुरू हो जाते हैं. कोई थोड़ी देर से या जल्दी भी आ जाते हैं कभीकभी. मेरी सहायिका पार्वती भी जल्दी आ जाती है. उसे भी मैं कुछ देती हूं. वह खुशी से मेरा हाथ बंटाती है.’’

‘‘और भी बच्चों के आने की गुंजाइश है?’’ मैं ने पूछा.

‘‘पूछने तो आते हैं लोग, पर मैं मना कर देती हूं. इस से ज्यादा रुपयों की मुझे आवश्यकता नहीं. सेहत भी संभालनी है न?’’

चाय खत्म हो चुकी थी. सोए हुए बच्चों के जागने का समय हो रहा था. इसलिए ‘नमस्ते’ कह कर हम चलना ही चाहते थे कि चाची ने कहा, ‘‘बेटी, दीवाली के बाद मैं एक यात्रा कंपनी के साथ 15 दिन घूमने जाने की बात सोच रही हूं. अगर तुम्हारे मातापिता भी आना चाहें तो…’’

मैं चुप रही. भैयाभाभी इतने रुपए कभी खर्च न करेंगे. मैं खुद तो कमाती नहीं.

चाची को भी मनोज भैया ने कई बहानों से यात्रा के लिए कभी नहीं जाने दिया था. उन की बेटियां भी ससुराल के लोगों को पूछे बिना कोई मदद नहीं कर सकती थीं. अब चाची खुद के भरोसे पर यात्रा करने जा रही थीं.

‘‘सुनीता के मातापिता भी आप के साथ जरूर जाएंगे, चाची,’’ अचानक दीपक ने कहा, ‘‘आप कुछ दिन पहले अपने कार्यक्रम के बारे में बता दीजिएगा.’’

रेणु भाभी और मनोज भैया की नाराजगी का साहस से सामना कर के मझली चाची ने एक नया द्वार खोल लिया था अपने लिए, देखभाल की जरूरत वाले बच्चों के लिए और सुमन जैसी सुशिक्षित, जरूरतमंद माताओं के लिए.

हरेक के लिए इतना साहस, इतना धैर्य, इतनी सहनशीलता संभव तो नहीं. पर अगर यह नहीं तो दूसरा कोई दरवाजा तो खुल ही सकता है न?

जीवन बहुत बड़ा उपहार है हम सब के लिए. उसे बोझ समझ कर उठाना या उठवाना कहां तक उचित है? क्यों न अंतिम सांस तक खुशी से, सम्मान से जीने की और जिलाने की कोशिश की जाए? क्यों न किसी नए द्वार पर धीरे से दस्तक दी जाए? वह द्वार खुल भी तो सकता है.

अलविदा काकुल : रिश्ते की तपिश एकदूसरे के लिए प्यार

पेरिस का अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डा चार्ल्स डि गाल, चारों तरफ चहलपहल, शोरशराबा, विभिन्न परिधानों में सजीसंवरी युवतियां, तरहतरह के इत्रों से महकता वातावरण…

काकुल पेरिस छोड़ कर हमेशाहमेशा के लिए अपने शहर इसलामाबाद वापस जा रही थी. लेकिन अपने वतन, अपने शहर, अपने घर जाने की कोई खुशी उस के चेहरे पर नहीं थी. चुपचाप, गुमसुम, अपने में सिमटी, मेरे किसी सवाल से बचती हुई सी. पर मैं तो कुछ पूछना ही नहीं चाहता था, शायद माहौल ही इस की इजाजत नहीं दे रहा था. हां, काकुल से थोड़ा ऊंचा उठ कर उसे सांत्वना देना चाहता था. शायद उस का अपराधबोध कुछ कम हो. पर मैं ऐसा कर न पाया. बस, ऐसा लगा कि दोनों तरफ भावनाओं का समंदर अपने आरोह पर है. हम दोनों ही कमजोर बांधों से उसे रोकने की कोशिश कर रहे थे.

तभी काकुल की फ्लाइट की घोषणा हुई. वह डबडबाई आंखों से धीरे से हाथ दबा कर चली गई. काकुल चली गई.

2 वर्षों पहले हुई जानपहचान की ऐसी परिणति दोनों को ही स्वीकार नहीं थी. हंगरी के लेखक अर्नेस्ट हेंमिग्वे ने लिखा है कि ‘कुछ रिश्ते ऐसे होते हैं जैसे बरसात के दिनों में रुके हुए पानी में कागज की नावें तैराना.’ ये नावें तैरती तो हैं, पर बहुत दूर तक और बहुत देर तक नहीं. शायद हमारा रिश्ता ऐसी ही एक किश्ती जैसा था.

टैक्निकल ट्रेनिंग के लिए मैं दिल्ली से फ्रांस आया तो यहीं का हो कर रह गया. दिलोदिमाग में कुछ वक्त यह जद्दोजेहद जरूर रही कि अपनी सरकार ने मुझे उच्चशिक्षा के लिए भेजा था. सो, मेरा फर्ज है कि अपने देश लौटूं और देश को कुछ दूं. लेकिन स्वार्थ का पर्वत ज्यादा बड़ा निकला और देशप्रेम छोटा. लिहाजा, यहीं नौकरी कर ली.

शुरू में बहुत दिक्कतें आईं. अपने को सर्वश्रेष्ठ समझने वाले फ्रैंच समुदाय में किसी का भी टिकना बहुत कठिन है. बस, एक जिद थी, एक दीवानगी थी कि इसी समुदाय में अपना लोहा मनवाना है. जैसा लोकप्रिय मैं अपनी जनकपुरी में था, वैसा ही कुछ यहां भी होना चाहिए.

पहली बात यह समझ आई कि अंगरेजी से फ्रैंच समुदाय वैसे ही भड़कता है जैसे लाल रंग से सांड़. सो, मैं ने फ्रैंच भाषा पर मेहनत शुरू की. फ्रैंच समुदाय में अपनी भाषा, अपने देश, अपने भोजन व सुंदरता के लिए ऐसी शिद्दत से चाहत है कि आप अंगरेजी में किसी से पता भी पूछेंगे तो जवाब यही मिलेगा, ‘फ्रांस में हो तो फ्रैंच बोलो.’

पेरिस की तेज रफ्तार जिंदगी को किसी लेखक ने केवल 3 शब्दों में कहा है, ‘काम करना, सोना, यात्रा करना.’ यह बात पहले सुनी थी, यकीन यहीं देख कर आया. मैं कुछकुछ इसी जिंदगी के सांचे में ढल रहा था, तभी काकुल मिली.

काकुल से मिलना भी बस ऐसे था जैसे ‘यों ही कोई मिल गया था सरेराह चलतेचलते.’ हुआ ऐसा कि मैं एक रैस्तरां में बैठा कुछ खापी रहा था और धीमे स्वर में गुलाम अली की गजल ‘चुपकेचुपके रातदिन…’ गुनगुना रहा था. कौफी के 3 गिलास खाली हुए और मेरा गुनगुनाना गाने में तबदील हो गया. मेज पर उंगलियां भी तबले की थाप देने लगी थीं. पूरा आलाप ले कर जैसे ही मैं ‘दोपहर… की धूप में…’ तक पहुंचा, अचानक एक लड़की मेरे सामने आ कर झटके से बैठी और पूछा, ‘वू जेत पाकी?’

‘नो, आई एम इंडियन.’

‘आप बहुत अच्छा गाते हैं, पर इस रैस्तरां को अपना बाथरूम तो मत समझिए’.

‘ओह, माफ कीजिएगा,’ मैं बुरी तरह झेंप गया.

काकुल से दोस्ती हो गई, रोज  मिलनेजुलने का सिलसिला शुरू हुआ. वह इसलामाबाद, पाकिस्तान से थी. पिताजी का अपना व्यापार था. जब उन्होंने काकुल की अम्मी को तलाक दिया तो वह नाराज हो कर पेरिस में अपनी आंटी के पास आ गई और तब से यहीं थी. वह एक होटल में रिसैप्शनिस्ट का काम देखती थी.

ज्यादातर सप्ताहांत, मैं काकुल के साथ ही बिताने लगा. वह बहुत से सवाल पूछती, जैसे ‘आप जिंदगी के बारे में क्या सोचते हैं?’

‘हम बचपन में सांपसीढ़ी खेल खेलते थे, मेरे खयाल से जिंदगी भी बिलकुल वैसी है…कहां सीढ़ी है और कहां सांप, यही इस जीवन का रहस्य है और यही रोमांच है,’ मैं ने अपना फलसफा बताया.

‘आप के इस खेल में मैं क्या हूं, सांप या सीढ़ी?’ बड़ी सादगी से काकुल ने पूछा.

‘मैं ने कहा न, यही तो रहस्य है.’

मैं ने लोगों को व्यायाम सिखाना शुरू किया. मेरा काम चल निकला. मुझे यश मिलना शुरू हुआ. मैं ज्यादा व्यस्त होता गया. काकुल से मिलना बस सप्ताहांत पर ही हो पाता था.

कम मिलने की वजह से हम आपस में ज्यादा नजदीक हुए. एक इतवार को स्टीमर पर सैर करते हुए काकुल ने कहा, ‘मैं आप को आई एल कहा करूं?’

‘भई, यह ‘आई एल’ क्या बला है?’ मैं ने अचकचा कर पूछा.

‘आई एल, यानी इमरती लाल, इमरती हमें बहुत पसंद है. बस यों जानिए, हमारी जान है, और आप भी…’ सांझ के आकाश की सारी लालिमा काकुल के कपोलों में समा गई थी.

‘एक बात पूछूं, क्या पापामम्मी को काकुल मंजूर होगी?’ उस ने पूछा.

मैं ने पहली बार गौर किया कि मेरे पापामम्मी को अंकल, आंटी कहना वह कभी का छोड़ चुकी है. मुझे भी नाम से बुलाए उसे शायद अरसा हो गया था.

‘काकुल, अगर बेटे को मंजूर, तो मम्मीपापा को भी मंजूर,’ मैं ने जवाब दिया.

काकुल ने मेरा हाथ कस कर पकड़ लिया और अपनी आंखें बंद कर लीं. शायद बंद आंखों से वह एक सजीसंवरी दुलहन और उस का दूल्हा देख रही थी. इस से पहले उस ने कभी मुझ से शादी की इच्छा जाहिर नहीं की थी. बस, ऐसा लगा, जैसे काकुल दबेपांव चुपके से बिना दरवाजा खटखटाए मेरे घर में दाखिल हो गई हो.

मैं ज्यादा व्यस्त होता गया, सुबह नौकरी और शाम को एक ट्रेनिंग क्लास. पर दिन में काकुल से फोन पर बात जरूर होती. अब मैं आने वाले दिनों के बारे में ज्यादा गंभीरता से सोचता कि इस रिश्ते के बारे में मेरे पापामम्मी और उस के पापा, कैसी प्रतिक्रया जाहिर करेंगे. हम एकदूसरे से निभा तो पाएंगे? कहीं यह प्रयोग असफल तो नहीं होगा? ऐसे ढेर सारे सवाल मुझे घेरे रहते.

एक दिन काकुल ने फोन कर के बताया कि उस के अब्बा के दोस्त का बेटा जावेद, कुछ दिनों के लिए पेरिस आया हुआ है. हम कुछ दिनों के लिए आपस में मिल नहीं पाएंगे. इस का उसे बहुत रंज रहेगा, ऐसा उस ने कहा.

धीरेधीरे काकुल ने फोन करना कम कर दिया. कभी मैं फोन करता तो काकुल से बात कम होती, वह जावेदपुराण ज्यादा बांच रही होती. जैसे, जावेद बहुत रईस है, कई देशों में उस का कारोबार फैला हुआ है. अगर जावेद को बैंक से पैसे निकालने हों तो उसे बैंक जाने की कोई जरूरत नहीं. मैनेजर उसे पैसे देने आता है. उस की सैक्रेटरी बहुत खूबसूरत है. उस का इसलामाबाद में खूब रसूख है. वह कई सियासी पार्टियों को चंदा देता है. जावेद का जिस से भी निकाह होगा, उस का समय ही अच्छा होगा.

मुझे बहुत हैरानी हुई काकुल को जावेद के रंग में रंगी देख कर. मैं ने फोन करना बंद कर दिया.

जैसे बर्फ का टुकड़ा धीरेधीरे पिघल कर पानी में तबदील हो जाता है, उसी तरह मेरा और काकुल का रिश्ता भी धीरेधीरे अपनी गरमी खो चुका था. रिश्ते की तपिश एकदूसरे के लिए प्यार, एक घर बसाने का सपना, एकदूसरे को खूब सारी खुशियां देने का अरमान, सब खत्म हो चुका था.

इस अग्निकुंड में अंतिम आहुति तब पड़ी जब काकुल ने फोन पर बताया कि उस के अब्बा उस का और जावेद का निकाह करना चाहते हैं. मैं ने मुबारकबाद दी और रिसीवर रख दिया.

कई महीने गुजर गए. शुरूशुरू में काकुल की बहुत याद आती थी, फिर धीरेधीरे उस के बिना रहने की आदत पड़ गई. एक दिन वह अचानक मेरे अपार्टमैंट में आई. गुमसुम, उदास, कहीं दूर कुछ तलाशती सी आंखें, उलझे हुए बाल, पीली होती हुई रंगत…मैं उसे कहीं और देखता तो शायद पहचान न पाता. उसे बैठाया, फ्रिज से एक कोल्ड ड्रिंक निकाल कर, फिर जावेद और उस के बारे में पूछा.

‘जावेद एक धोखेबाज इंसान था, वह दिवालिया था और उस ने आस्ट्रेलिया में निकाह भी कर रखा था. समय रहते अब्बा को पता चल गया और मैं इस जिल्लत से बच गई,’ काकुल ने जवाब दिया.

‘ओह,’ मैं ने धीमे से सहानुभूतिवश गरदन हिलाई. चंद क्षणों के बाद सहज भाव से पूछा, ‘‘कैसे आना हुआ?’’

‘मैं आज शाम की फ्लाइट से वापस इसलामाबाद जा रही हूं. मुझे विदा करने एअरपोर्ट पर आप आ पाएंगे तो बहुत अच्छा लगेगा.’

‘मैं जरूर आऊंगा.’

शायद वह चाहती थी कि मैं उसे रोक लूं. मेरे दिल के किसी कोने में कहीं वह अब भी मौजूद थी. मैं ने खुद अपनेआप को टटोला, अपनेआप से पूछा तो जवाब पाया कि हम 2 नदी के किनारों की तरह हैं, जिन पर कोई पुल नहीं है. अब कुछ ऐसा बाकी नहीं है जिसे जिंदा रखने की कोशिश की जाए.

अलविदा…काकुल…अलविदा…

दरवाजा खोल दो मां : क्या था चुडै़ल का सच

10 वीं क्लास तक स्मिता पढ़ने में बहुत तेज थी. सबकुछ ठीकठाक चल रहा था, पर 10वीं के बाद उस के कदम लड़खड़ाने लगे थे. उस को पता नहीं क्यों पढ़ाईलिखाई के बजाय बाहर की दुनिया अपनी ओर खींचने लगी थी. इन्हीं सब वजहों के चलते वह पास में रहने वाली अपनी सहेली सीमा के भाई सपन के चक्कर में फंस गई थी. वह अकसर सीमा से मिलने के बहाने वहां जाती और वे दोनों खूब हंसीमजाक करते थे.

एक दिन सपन ने स्मिता से पूछा, ‘‘तुम ने कभी भूतों को देखा है?’’

‘‘तुम जो हो… तुम से भी बड़ा कोई भूत हो सकता है भला?’’ स्मिता ने हंसते हुए मजाकिया लहजे में जवाब दिया.

सपन को ऐसे जवाब की उम्मीद नहीं थी, इसलिए अपनी बात को आगे रखते हुए पूछा, ‘‘चुड़ैल से तो जरूर सामना हुआ होगा?’’

‘‘नहीं, ऐसा कभी नहीं हुआ है. तुम न जाने क्या बोले जा रहे हो,’’ स्मिता ने खीजते हुए कहा.

तब सपन उसे एक कमरे में ले कर गया और कहा, ‘‘मेरी बात ध्यान से सुनो…’’ कहते हुए स्मिता को कुरसी पर बैठा कर उस का हाथ उठा कर हथेली को चेहरे के सामने रखने को कहा, फिर बोला, ‘‘बीच की उंगली को गौर से देखो…’’ आगे कहा, ‘‘अब तुम्हारी उंगलियां फैल रही हैं और आंखें भारी हो रही हैं.’’

स्मिता वैसा ही करती गई और वही महसूस करने की कोशिश भी करती गई. थोड़ी देर में उस की आंखें बंद हो गईं.

फिर स्मिता को एक जगह लेटने को बोला गया और वह उठ कर वहां लेट गई.

सपन ने कहा, ‘‘तुम अपने घर पर हो. एक चुड़ैल तुम्हारे पीछे पड़ी है. वह तुम्हारा खून पीना चाहती है. देखो… देखो… वह तुम्हारे नजदीक आ रही है. स्मिता, तुम डर रही हो.’’

स्मिता को सच में चुड़ैल दिखने लगी. वह बुरी तरह कांप रही थी. तभी सपन बोला, ‘‘तुम्हें क्या दिख रहा है?’’

स्मिता ने जोकुछ भी देखा या समझने की कोशिश की, वह डरतेडरते बता दिया. वह यकीन कर चुकी थी कि चुड़ैल जैसा डरावना कुछ होता है, जो उस को मारना चाहता है.

‘‘प्लीज, मुझे बचाओ. मैं मरना नहीं चाहती,’’ कहते हुए वह जोरजोर से रोने लगी.

सपन मन ही मन बहुत खुश था. सबकुछ उस की सोच के मुताबिक चल रहा था.

सपन ने बड़े ही प्यार से कहा, ‘‘डरो नहीं, मैं हूं न. मेरे एक जानने वाले पंडित हैं. उन से बात कर के बताता हूं. ऐसा करो कि तुम 2 घंटे में मु  झे यहीं मिलना.’’

‘‘ठीक है,’’ कहते हुए जैसे ही स्मिता मुड़ी, सपन ने उसे टोका, ‘‘और हां, तुम को किसी से कुछ भी कहने की जरूरत नहीं है. मु  झ पर यकीन रखना. सब सही होगा.’’

स्मिता घर तो आ गई, पर वे 2 घंटे बहुत ही मुश्किल से कटे. पर उसे सपन पर यकीन था कि वह कुछ न कुछ तो जरूर करेगा.

जैसे ही समय हुआ, स्मिता फौरन सपन के पास पहुंच गई. सपन तो जैसे इंतजार ही कर रहा था. उस को देखते ही बोला, ‘‘स्मिता, काम तो हो जाएगा, पर…’’

‘‘पर क्या सपन?’’ स्मिता ने डरते हुए पूछा.

‘‘यही कि इस काम के लिए कुछ रुपए और जेवर की जरूरत पड़ेगी. पंडितजी ने खर्चा बताया है. तकरीबन 5,000 रुपए मांगे हैं. पूजा करानी होगी.’’

‘‘5,000 रुपए? अरे, मेरे पास तो 500 रुपए भी नहीं हैं और मैं जेवर कहां से लाऊंगी?’’ स्मिता ने अपनी बात रखी.

‘‘मैं नहीं जानता. मेरे पास तुम्हें चुड़ैल से बचाने का कोई दूसरा रास्ता नहीं है,’’ थोड़ी देर कुछ सोचने का दिखावा करते हुए सपन बोला, ‘‘तुम्हारी मां के जेवर होंगे न? वे ले आओ.’’

‘‘पर… कैसे? वे तो मां के पास हैं,’’ स्मिता ने कहा.

‘‘तुम्हें अपनी मां के सब जेवर मुझे ला कर देने होंगे…’’ सपन ने जोर देते हुए कहा, ‘‘अरे, डरती क्यों हो? काम होने पर वापस ले लेना.’’

स्मिता बोली, ‘‘वे मैं कैसे ला सकती हूं? उन्हें तो मां हर वक्त अपनी तिजोरी में रखती हैं.’’

‘‘मैं नहीं जानता कि तुम यह सब कैसे करोगी. लेकिन तुम को करना ही पड़ेगा. मुझे उस चुड़ैल से बचाने की पूजा करनी है, नहीं तो वह तुम्हें जान से मार देगी.

‘‘अगर तुम जेवर नहीं लाई तो बस समझ लो कि तब मैं तुम्हें जान से मार दूंगा, क्योंकि पंडित ने कहा है कि तुम्हारी जान के बदले वह चुड़ैल मेरी जान ले लेगी और मु  झे अपनी जान थोड़े ही देनी है.’’

उसी शाम स्मिता ने अपनी मां से कहा, ‘‘मां, आज मैं आप का हार पहन कर देखूंगी.’’

स्मिता की मां बोलीं, ‘‘चल हट पगली कहीं की. हार पहनेगी. बड़ी तो हो जा. तेरी शादी में तुझे दे दूंगी.’’

स्मिता को रातभर नींद नहीं आई. थोड़ा सोती भी तो अजीबअजीब से सपने दिखाई देते.

अगले दिन सीमा स्मिता के पास आ कर बोली, ‘‘भैया ने जो चीज तुझ से मंगवाई थी, अब उस की जरूरत नहीं रह गई है. वे सिर्फ तुम्हें बुला रहे हैं.’’

जब स्मिता ने यह सुना तो उसे बहुत खुशी हुई. वह भागती हुई गई तो सपन उसे एक छोटी सी कोठरी में ले गया और बोला, ‘‘अब जेवर की जरूरत नहीं रही. चुड़ैल को तो मैं ने काबू में कर लिया है. चल, तुझे दिखाऊं.’’

स्मिता ने कहा, ‘‘मैं नहीं देखना चाहती.’’

सपन बोला, ‘‘तू डरती क्यों है?’’

यह कह कर उस ने स्मिता का चुंबन ले लिया. स्मिता को उस का चुंबन लेना अच्छा लगा.

थोड़ी देर बाद सपन बोला, ‘‘आज रात को जब सब सो जाएं तो बाहर के दरवाजे की कुंडी चुपचाप से खोल देना. समझ तो गई न कि मैं क्या कहना चाहता हूं? लेकिन किसी को पता न चले, नहीं तो तेरे पिताजी तेरी खाल उतार देंगे.’’

स्मिता ने एकदम से पूछा, ‘‘इस से क्या होगा?’’

सपन ने कहा, ‘‘जिस बात की तुम्हें समझ नहीं, उसे जानने से क्या होगा?’’

स्मिता ने सोचा, ‘जेवर लाने का काम बड़ा मुश्किल था. लेकिन यह काम तो फिर भी आसान है.’

‘‘अगर तू ने यह काम नहीं किया तो चुड़ैल तेरा खून पी जाएगी,’’ सपन ने एक बार फिर डराया.

तब स्मिता ने कहा, ‘‘यह तो बताओ कि दरवाजा खोलने से होगा क्या?’’

‘‘अभी नहीं कल बताऊंगा. बस तुम कुंडी खोल देना,’’ सपन ने अपनी बात पर जोर देते हुए कहा.

‘‘खोल दूंगी,’’ स्मिता ने चलते हुए कहा.

‘‘ठाकुरजी को हाथ में ले कर बोलो कि जैसा मैं बोल रहा हूं, तुम वही करोगी?’’ सपन ने जोर दे कर कहा.

स्मिता ने ठाकुर की मूर्ति को हाथ में ले कर कहा, ‘‘मैं दरवाजा खोल दूंगी.’’

पर सपन को तो अभी भी यकीन नहीं था. पता नहीं क्यों वह फिर से बोला, ‘‘मां की कसम है तुम्हें. कसम खा?’’

आज न जाने क्यों स्मिता बहुत मजबूर महसूस कर रही थी. वह धीरे से बोली, ‘‘मां की कसम.’’ जब स्मिता घर गई तो उस की मां ने पूछा, ‘‘तेरा मुंह इतना लाल क्यों हो रहा है?’’

जब मां ने स्मिता को छू कर देखा तो उसे तेज बुखार था. उन्होंने स्मिता को बिस्तर पर लिटा दिया. शाम के शायद 7 बजे थे. स्मिता के पिता पलंग पर बैठे हुए खाना खा रहे थे. स्मिता पलंग पर पड़ीपड़ी बड़बड़ाए जा रही थी.

जब स्मिता को थर्मामीटर लगाया गया, उस को 102 डिगरी बुखार था. रात के 9 बजतेबजते स्मिता की हालत बहुत खराब हो गई. फौरन डाक्टर को बुलाया गया. स्मिता को दवा दी गई.

स्मिता के पिताजी के दोस्त भी आ गए थे. स्मिता फिर भी बड़बड़ाए जा रही थी, पर उस पर किसी परिवार वाले का ध्यान नहीं जा रहा था.

स्मिता को बिस्तर पर लेटेलेटे, सिर्फ दरवाजा और उस की कुंडी ही दिखाई दे रही थी या उसे चुड़ैल का डर दिखाई दे रहा था. कभीकभी उसे सपन का भी चेहरा दिखाई पड़ता था. उसे लग रहा था, जैसे चारों लोग उसी के आसपास घूम रहे हैं और तभी वह जोर से चीखी, ‘‘मां, मुझे बचाओ.’’

‘‘क्या बात है बेटी?’’ मां ने घबरा कर पूछा.

‘‘दरवाजे की कुंडी खोल दो मां. मां, तुम्हें मेरी कसम. दरवाजे की कुंडी खोल दो, नहीं तो चुड़ैल मुझे मार देगी.

‘‘मां, तुम दरवाजे को खोल दो. मां, मैं अच्छी तो हो जाऊंगी न? मां तुम्हें मेरी कसम,’’ स्मिता बड़बड़ाए जा रही थी.

स्मिता के पिताजी ने कहा, ‘‘लगता है, लड़की बहुत डरी हुई है.’’

स्मिता की बत्तीसी भिंच गई थी. शरीर अकड़ने लगा था. यह सब स्मिता को नहीं पता चला. वह बारबार उठ कर भाग रही थी, जोरजोर से चीख रही थी, ‘‘मां, दरवाजा खोल दो. खोल दो, मां. दरवाजा खोल दो,’’ और उस के बाद वह जोरजोर से रोने लगी.

मां ने कहा, ‘‘बेटी, बात क्या है? बता तो सही? क्या सपन ने कहा है ऐसा करने को?’’

‘‘हां मां, खोल दो नहीं तो एक चुड़ैल आ कर मेरा खून पी जाएगी,’’ स्मिता ने डरी हुई आवाज में कहा.

अब उस के पिताजी के कान खड़े हो गए. उन्होंने फिर से पूछा, ‘‘साफसाफ बताओ, बात क्या है?’’

‘‘पिताजी, मुझे अपनी गोद में लिटा लीजिए, नहीं तो मैं…

‘‘पिताजी, सपन ने कहा है कि जब सब सो जाएं तो चुपके से दरवाजा खोल देना. अगर दरवाजा नहीं खोला तो चुड़ैल मेरा खून पी जाएगी.’’

वहीं ड्राइंगरूम में बैठेबैठे ही स्मिता के पिताजी ने किसी को फोन किया था. शायद पुलिस को. थोड़ी देर में कुछ पुलिस वाले सादा वरदी में एकएक कर के चुपचाप उस के मकान में आ कर दुबक गए और दरवाजे की कुंडी खोल दी गई.

रात के तकरीबन 2 बजे जब स्मिता तकरीबन बेहोशी में थी तो उसे कुछ शोर सुनाई दे रहा था. पर तभी वह बेहोश हो गई. आगे क्या हुआ ठीक से उस को मालूम नहीं. पर जब उसे होश आया तो घर वालों ने बताया कि 5 लोग पकड़े गए हैं.

सब से ज्यादा चौंकाने वाली बात यह कि इन पकड़े गए लोगों में से एक सपन और एक चोरों के गैंग का आदमी भी था जिस के ऊपर सरकारी इनाम था.

बाद में वह इनाम स्मिता को मिला. स्मिता 10 दिनों के बाद अच्छी हो गई. अब स्मिता के अंदर इतना आत्मविश्वास पैदा हो गया था कि एक क्या वह तो कई चुड़ैलों की गरदन पकड़ कर तोड़ सकती थी.

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