मन का मीत- भाग 1: कैसे हर्ष के मोहपाश में बंधती गई तान्या

मैं अमेरिका के शहर ह्यूस्टन में एक वीकैंड में पैटिओ में बैठी कौफी पी रही थी. तभी मेरी एक फ्रैंड का फोन आया. उस ने मुझ से आज का प्रोग्राम पूछा, तो मैं ने कहा, ‘‘मैं तुम्हें ही याद कर रही थी. आज बिलकुल फ्री हूं. बोलो क्या बात है, निम्मो?’’

‘‘तान्या, आज थोड़ी अपसैट हूं, सारा दिन तेरे साथ बिताना चाहती हूं.’’

‘‘ठीक है जल्दी से आ जा और नरेश को भी लेती आना.’’

‘‘नहीं, मैं अकेली आऊंगी.’’

‘‘ओके, समीर भी यहां नहीं है, दोनों दिन भर खूब बातें करेंगी.’’

निम्मो को मैं, जब हम भारत में थे, रांची से ही जानती थी. मेरे पड़ोस में रहती थी. मुझ से 2 साल बड़ी होगी. उस ने अपनी पसंद के लड़के से मांबाप की मरजी के खिलाफ शादी कर ली थी. फिर पति नरेश के साथ मुझ से पहले ही अमेरिका आ गई थी.

निम्मो ने आते ही अपना बैग और

मोबाइल टेबल पर रखा और फिर बोली, ‘‘चल कौफी पिला.’’

मैं ने कौफी बनाई. टेबल पर कौफी का कप रखते हुए पूछा, ‘‘आज तुम अपसैट क्यों लग रही हो और वीकैंड में तो अकसर नरेश के साथ आती थी, आज क्यों नहीं आया वह?’’

‘‘कल रात नरेश ने काफी डांटा है मुझे.’’

‘‘नरेश और तुम्हें डांटे… अभी तक तो मैं ने तुम्हें ही उसे डांटते हुए सुना है. जरूर तुम ने ही कोई गड़बड़ की होगी.’’

‘‘काहे की गड़बड़, नरेश चिंटू बेटे को ले कर दिन भर के लिए चैस टूरनामैंट में गया था. उस के दोस्त सचिन ने फोन कर उस के बारे में पूछा तो मैं ने नरेश का प्रोग्राम बता दिया. फिर

मैं ने पूछा कि क्या बात है, तो वह बोला कि कुछ खास नहीं, मूवी देखने जा रहा था सोचा तुम लोग भी चलते तो अच्छा होता.’’

‘‘फिर?’’

‘‘मैं भी दिन भर बोर होती. अत: मैं भी मूवी देखने चली गई. हालांकि मैं ने सचिन को इस बारे में कुछ नहीं बताया था. वह तो इत्तफाक से सिनेमाहौल में मिल गया और संयोग से मेरे साथ वाली उस की सीट थी. मूवी खत्म होने के बाद बाहर ही दोनों ने लंच किया. मैं ने नरेश और चिंटू के लिए भी पैक करा लिया.’’

‘‘तुम ने नरेश को मूवी के बारे में पहले बताया था?’’

‘‘नहीं बताया तो क्या हुआ. आने पर बता दिया न… इस पर बिगड़ बैठा और बोला कि तुम्हें बैचलर के साथ नहीं जाना चाहिए था. इसी को ले कर बात बढ़ती गई तो उस ने पूछा कि मुझे उस के साथ रहना है या नहीं. फिर मैं ने भी गुस्से में कह डाला कि नहीं रहना है. चलो, तलाक ले लेते हैं. अमेरिका में तलाक आसानी से मिल जाएगा.’’

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मैं उस का मुंह देखने लगी. एक मैं हूं कि मम्मी ने पराए मर्द से स्पर्श होना भी गुनाह कहा था. जब हाई स्कूल में गई तभी मम्मी ने दिमाग में यह बात बैठा दी थी कि लव मैरिज बहुत बुरी चीज है और बेटी के मायके से डोली में विदा होने के बाद उस की अरथी ही ससुराल से निकलती है.

मैं ने ये बातें गांठ बांध कर रख लीं. एक निम्मो है जिस ने अपनी मरजी से शादी की और अब वह परदेश में तलाक तक की बात सोच रही है, भले तलाक ले या नहीं. इतना सोचना ही बड़ी बात है मेरे लिए. मुझे अपने पुराने दिन याद आने लगे. मैं भी थोड़ा बोल्ड होती तो अपना फैसला खुद ले सकती थी और आज समीर के साथ नहीं होती…

मेरा जन्म भारत के बिहार राज्य के एक मध्यवर्गीय परिवार में हुआ था. मेरा नाम तान्या है पर घर में मुझे प्यार से तनु कह कर बुलाते थे. प्रारंभिक शिक्षा गांव के स्कूल में हुई थी. उन दिनों मैं मम्मी के साथ गांव में थी. पापा की पोस्टिंग छोटे शहर में थी. जब पापा का प्रमोशन के साथ रांची ट्रांसफर हुआ तब हम लोग रांची चले आए.

मम्मी काफी पुराने विचारों वाली धर्मभीरु महिला थीं. उन्होंने शुरू से ही कुछ ऐसी बातें मेरे मन में भर दी थीं, जिन्हें मैं आज तक नहीं भूल पाई. लड़कों से दूर रहो, उन के स्पर्श से बचो आदिआदि. रांची आने पर मैं ने देखा कि यहां स्कूलकालेज में लड़केलड़कियां आपस में बातें करते घूमतेफिरते हैं.

मैं ने जब मम्मी से पूछा कि मुझे लड़कों के साथ बात करने की मनाही क्यों है, तो उन्होंने कहा था, ‘‘तनु बेटी, तुम नहीं समझती हो. तुम इतनी सुंदर हो कि मुझे हमेशा डर बना रहता है. शहर में तो और बच कर रहना है तुम्हें. किसी तरह बीए कर लो, इस के बाद एक अच्छा सा राजकुमार देख कर तेरी शादी कर दूं. बस मेरी जिम्मेदारी यहीं खत्म. वही तुम्हें आजीवन ढेर सारा प्यार देगा.’’

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मैं ने कहा, ‘‘मम्मी, मुझे बीए, एमए नहीं करना है. मैं इंजीनियर बन कर नौकरी करूंगी.’’

‘‘उस के लिए तुम्हें बहुत पढ़ाई करनी होगी, बहुत मेहनत करनी होगी, मेरी सुंदर बिटिया.’’

‘‘यह सब तुम मुझ पर छोड़ दो. मैं पढ़ूंगी और नौकरी भी करूंगी.’’

मैं ने उस दिन जाना कि मैं भी सुंदर हूं. मैं ने आईने में जा कर अपनी सूरत देखी. मुझे वैसा कुछ नहीं लगा जैसा मां कहती थीं. हर मां को शायद अपनी संतान सुंदर लगती होगी. खैर, देखतेदेखते मेरा मेसरा के बिरला इंस्टिट्यूट औफ टैक्नोलौजी में ऐडमिशन हो गया और फिर 4 साल बाद मुझे कंप्यूटर साइंस की डिग्री भी मिल गई. फिर मैं ने मुंबई में एक कंपनी जौइन कर ली.

बिन सजनी घर- भाग 2: मौली के जाने के बाद क्या हुआ

‘शुक्र है, मिल गई अपनी जगह,’ उस ने राहत की सांस ली, मोमबत्ती जलाई तो उस के चेहरे की मुसकराहट के साथ रोशनी चारों ओर फैल गई.

‘अब साले मेरा खून पी रहा था…’ उस ने पटाक से हाथ पर खून पीते मच्छर को मारा था. मौली 10 दिनों से सचेत कर रही थी समीर को. ‘इन्वर्टर का पानी कब से खत्म है, डाल दो वरना किसी दिन लाइट जाएगी तब पता चलेगा, मोटेमोटे मच्छर काटेंगे, पानी ला कर भी रख दिया.’ याद आया था समीर को. कैंडल एक ओर जमा कर, उस ने पानी डाल कर इन्वर्टर चालू किया, तो लाइट आ गई. कमरा प्रकाश से नहा गया.

‘जय हो मौली श्री की, यार तुम ने बौटल ला कर न रखी होती तो आज ये मच्छर मेरा कचूमर निकाल देते. डेंगू, चिकनगुनिया करवा ही डालते. उफ, नहीं … थैंक्यू मौली डियर.’

प्रकाश में कमरे में बिखरी गंदगी चमकने लगी और कारपेट पर फैला रायता भी. उस का ध्यान अपने कपड़ों की ओर गया.

पहले तो इन्हें बदलता हूं…कहां गया वो स्लीपिंग सूट, नाहक ही वह खूंटी पर ढूंढ़ रहा था. वह बैड पर तो सिकुड़ा सा एक ओर पड़ा था जहां सुबह उतार कर फेंका था. मौली थोड़े ही यहां है जो झाड़ कर टांग देती. वह मुसकराया. मौली को याद करते हुए बिस्तर पर औंधा लेट गया.

बादल जोर से कड़के और मूसलाधार बारिश शुरू हो गई.

‘उफ, भूल गया’, हड़बड़ा कर खड़ा हो गया, ‘बालकनी से कपड़े ही नहीं उतारे.’

वह भागा, सारे कपड़े पानी से सराबोर थे. सुबह से कई बार बूंदाबांदी पहले ही झेल चुके थे. थोड़ी गंध सी आने लगी थी कपड़ों में. उस ने नाक सिकोड़ी, ‘उंह, कैसी अजीब गंध है. क्या दिमाग पाया है बेटा समीर, उतारने से फायदा क्या. और धुलने दे इन्हें बारिश के साफ पानी में. चल, सो जा.’ वह कमरे में आ कर वाशरूम गया. वहां तो और सड़ी सी गंध व्याप्त थी.

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‘छिछि दिनभर यारों ने जाजा कर यह हाल किया है. शिट…’ फ्लश किया, तो हुआ ही नहीं, पानी ही नहीं था. सुबह 5 बजे मोटर औन करनी ही है बेटा समीर याद से, वरना तो गया काम से…’ वह अलार्म लगा बेफिक्री से सो गया.

‘‘साहब, कितनी गंदगी मचा दी एक दिन में, क्या हाल बना दिया घर का, सारे के सारे बरतन ही निकाल डाले. मुझ से तो न हो पाएगा, साहब. किसी और को बुला लो,’’ रामकली की किटकिट शुरू हो गई थी.

‘‘कोई नहीं, तू कर, हो जाएगा. आज पानी भरा हुआ है, तेजतेज आएगा. मैं सौ रुपए अलग से भी दे दूंगा.’’

रामकली एक घंटे तक काम करते हुए बड़बड़ाती ही रही. ‘जमादार को कूड़ा भी क्यों नहीं दिया, गंध मार रहा है.’

‘कैसे काम कराती है मौली ऐसी गंवारों से, उफ,’ समीर पेपर ले कर बैठ गया.

‘‘साहब, कारपेट पकड़ लो, आज तो धूप खिली है, बाहर ही साफ कर दूंगी, सूख भी जाएगी. यहां नीचे का फर्श भी साफ हो जाएगा.’’

‘‘क्या मुसीबत है, चलो जल्दी करो,’’ वह मुंह बनाते हुए उठने लगा.

‘‘साहब, कल के बरतन भी आप ने नहीं समेटे थे, आज के धुले बरतनों से तो पूरा पलेटफौर्म ही भर गया. अच्छे से सहेज लेना, साहब, बहुत संभाल कर धोए हैं, कांच ही कांच, रे बाबा.’’ दोनों कारपेट उठाए हुए धूप में आ गए थे.

‘‘ओ तेरी की, साहब, आप ने तो कपड़े भी नहीं उतारे तार पर से. क्या साहब? सब गंध मारने लगे, फिर से धोने पड़ेंगे, साहबजी.’’

‘‘6 पैंट, 6 शर्टें, स्लीपिंग सूट, चादरें, मौली को अभी ही सब धो कर जाना था, क्या करूंगा, कल तो औफिस है…शिट.’’

‘‘सब ले जा कर मशीन में ही तो घुमाना है, साहब, ये पकड़ो,’’ उस ने कपड़े उतार कर समीर को पकड़ा दिए और अंदर काम निबटाने चली गई. समीर ने वाश्ंिग मशीन का ढक्कन खोला और सारे कपड़े उस में पटक दिए. पानी व साबुन डाला और मशीन सैट कर चालू कर दी. फोन पर ब्रैड, बटर, अंडे, मैगी और्डर कर के मंगा लिए. रामकली चली गई तो उस ने चल रहा हलका म्यूजिक लाउड कर लिया और अपना नाश्ता बनाने साफ किचेन में एक शेफ के अंदाज में घुसा.

‘आज बनाऊंगा अपना पहले वाला जिंजरगार्लिक औमलेट, करारे बटर टोस्ट और बेहतरीन कौफी. यार, इतने बरतन… मौली ही आ कर रखेगी, पर मैं पैन और चाय के लिए भगौना कहां से ढूंढ़ूं, मिल गया.’ उसे हैंडल दिखा, पकड़ कर जो खींचा, कई सारे बरतन धड़धड़ा कर नीचे गिर गए, जो कांच के थे, टूट गए थे. उस की जबान दांतों के बीच आ गई थी, मौली के मायके के महंगे वाले इंपौर्टेड सैट के 3 कप 2 गिलास एक प्लेट धराशायी पड़े थे.

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‘अजब आफत है, कैसे बेतुके रख गई बेवकूफ मेड,’ उस ने पैर से टुकड़े एक ओर किए, बड़े टुकड़े डस्टबिन में डाले और मनोयोग से नाश्ता बनाने जुट गया.

‘वाह, क्या खुशबू है, क्या स्वाद.’ तभी मोबाइल बज उठा. उधर से मौली थी, बोली, ‘‘क्या चल रहा है?’’

‘‘अभी अपना बढि़या सा ब्रैकफास्ट तैयार किया है, बाद में वेज तड़का मैगी का लंच.’’

‘‘इतनी लेट ब्रैकफास्ट, क्या बनाया शेफ साहब ने, जरा मैं भी तो सुनूं,’’ वह हंसी.

प्यार न माने सरहद- भाग 3: समीर और एमी क्या कर पाए शादी?

Writer- Kahkashan Siddiqui

उस ने मीर को कुछ पढ़ रखा था और एक शेर जो उसे याद था कहा, ‘‘ ‘मत इन नमाजियों को खानसाज-ए-दीं जानो, कि एक ईंट की खातिर ये ढोते होंगे कितने मसीत’ दादी ये धर्म के चोंचले अमेरिका में आ कर तो हम छोड़ दें.’’

सब चुप रहे. जानते थे कि यह ठीक कह रहा. इंडियनपाकिस्तानी मिल कर रहते हैं पर शादीविवाह अपने धर्म में ही पसंद करते हैं.

हां, साथसाथ स्कूल, कालेज, औफिस की दोस्ती में अकसर अलगअलग जगह के लोगों में शादियां हो जाती हैं, परंतु मंदिरमसजिद

प्रोफैसर को मुसलिम समाज और सब से बढ़ कर भाईजान का डर था. अमेरिका में भी हम ने अपना पाकिस्तानहिंदुस्तान बना लिया है, अपनी मान्यताएं अपने रीतिरिवाज… यहां वैसे तो

में मिलने वाले साथी पसंद नहीं करते. प्रोफैसर को उन का तो डर नहीं था पर भाईजान…

दादी भी जानतीं थी कि पाकिस्तानियों में तलाक अधिक होते हैं और भारत वाले साथ निभाते हैं. फिर भी हिंदू से…

एमी के घर वाले समीर के बराबर आनेजाने से धीरेधीरे उस से घुलमिल गए. बात टल सी गई पर समीर बराबर जाता रहता. दादी से हिंदी मूवीज पर बातें करता, प्रोफैसर के साथ फुटबौल मैच टीवी पर देखता, उन के लैपटौप में नएनए गेम्स लोड करता, लौन की घास काटने में प्रोफैसर की मदद करता, काटना तो मशीन से होता है पर मेहनत का काम है. नरगिस की किचन में हैल्प करता. यहां सारे काम खुद ही करने होते हैं.

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प्रोफैसर कहते, ‘‘मैं तो 3 औरतों में अकेला पड़ गया था… तुम से अच्छी कंपनी मिलती है.’’

समीर एमी से कहता, ‘‘यार एमी, मैं तो तुम्हारे घर का छोटू बन गया पर दामाद बनने के चांस नहीं दिखते. तुम मुझे डिच दे कर किसी पाकी के साथ निकल गईं तो?’’

वह हंस कर कहती, ‘‘यू नैवर नो.’’

प्रोफैसर सोचते समीर अच्छा है, बोलचाल, विचार हमारे जैसे हैं. एमी के साथ जोड़ी अच्छी है, दोनों एकदूसरे के साथ खुश रहेंगे, फिर क्या हुआ अगर वह अल्लाह को ईश्वर कहता है? पूजा करना उस का मामला है… एमी को तो पूजा करने को नहीं कह रहा…

हिम्मत कर के न्यूयौर्क में भाईजान से बात की. बताया कि एमी ने लड़का पसंद कर लिया है हिंदुस्तानी है.

भाईजान बोले, ‘‘क्या पाकिस्तानी लड़कों का अकाल पड़ गया जो हिंदुस्तानी लड़का देखा?’’

‘‘एमी को पसंद है.’’

‘‘हां, अमेरिकन मां की बेटी जो है.’’

‘‘लड़का बहुत अच्छा है. बस वह हिंदू है.’’

भाईजान पर तो जैसे बम फटा, ‘‘क्या कह रहे हो? काफिर को दामाद बनाओगे?’’

प्रोफैसर मिनमिनाए, ‘‘भाईजान, आप तो जानते हैं यहां तो बच्चे भी नहीं सुनते जरा तंबीह करो तो 911 कौल कर पुलिस बुला लेते हैं और बड़े हो कर तो और भी आजाद हो जाते हैं. ये हम से इजाजत मांग रहे हैं, यह क्या कम है? हम हां कर दें तो हमारा बड़प्पन रह जाएगा.’’

भाईजान को लगा कि प्रोफैसर ठीक कह रहे हैं. अत: बोले, ‘‘ठीक है वह मुसलमान हो जाए तो हो सकता है.’’

‘‘नहीं वह इस पर राजी नहीं. वह एमी से भी धर्म परिवर्तन के लिए नहीं कह रहा.’’

भाईजान चिल्लाए, ‘‘काफिर से निकाह नहीं हो सकता. अगर तुम ने शादी की तो मुझ से कोई रिश्ता न रखना… मुल्लाजी को भी तो अपने समाज में सिर उठा कर चलना है वरना उन की कौन सुनेगा.’’

प्रोफैसर को भाई की बातों से बहुत दुख हुआ. हार्ट के मरीज तो थे ही सो हार्ट अटैक आ गया. नरगिस और दादी थीं घर पर. नरगिस ने ऐंबुलैंस कौल की. ऐंबुलैंस डाक्टर व नर्स के साथ आ गई. अस्पताल में भरती किया गया. एमी, नरगिस, दादी और समीर रोज देखने जाते. यहां अस्पताल में भरती करने के बाद डाक्टर व नर्स पूरी देखभाल करते हैं. अस्पताल का रूम फाइवस्टार सुविधा वाला होता है. प्रोफैसर को यहां का खाना पसंद नहीं, तो नरगिस उन का खाना घर से लाती थीं. यहां मरीज की देखभाल अच्छी की जाती है. बिल इंश्योरैंस से जाता है. कुछ 10-15% देना पड़ता है.

कुछ दिन बाद प्रोफै सर घर आ गए. अभी भी देखभाल की आवश्यकता थी. परहेजी खाना ही चल रहा था. इस दौरान समीर उन की देखभाल बराबर करता एक बेटे की तरह और औफिस में भी एमी के काम में मदद करता ताकि एमी प्रोफैसर साहब को अधिक समय दे सके.

प्रोफैसर के दोस्त, मिलने वाले मसजिद के साथी सब दोएक बार आए. भाईजान ने केवल फोन पर खैरियत ली.

बीमारी में कोई देखने आए तो अच्छा लगता है. अमेरिका में किसी के पास समय नहीं है. समीर प्रतिदिन आता. प्रोफैसर को भी अच्छा लगता. प्रोफैसर को लगता अगर उन का अपना बेटा भी होता तो शायद वह भी इतना ध्यान नहीं रखता.

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आखिर प्रोफैसर ठीक हो गए. उन्होंने पूछा, ‘‘क्या तुम ने घर वालों से शादी की बात की?’’

समीर ने बताया, ‘‘हां मैं ने घर वालों को मना लिया है… पहले तो सब नाराज थे पर एमी से बात कर के सब खुश हो गए. मेरे मातापिता धर्मजाति नहीं मानते पर एमी पाकिस्तानी मूल की होने पर चौंके थे. मगर मेरी पसंद के आगे उन्हें सब छोटा लगने लगा. अत: सब राजी हो गए.’’

प्रोफैसर ने अपने ठीक होने की पार्टी में अपने सभी मिलने वालों, दोस्तों को बुलाया और फिर समीर और एमी की मंगनी की घोषणा कर दी. वे जानते थे शादी में बहुत लोग नहीं आएंगे. दोनों परिवारों की मौजूदगी में शादी सादगी से कोर्ट में हो गई और फिर रिसैप्शन पार्टी होटल में की, जिस में दोनों के औफिस के साथी, नरगिस और प्रोफैसर के दोस्त, पड़ोसी, मिलने वाले शामिल हुए. भाईजान और उन की जैसी सोच वाले नहीं आए. 2 प्रेमी पतिपत्नी बन गए. सच ही तो है, प्रेम नहीं मानता कोई सरहद, भाषा या धर्म.

नई रोशनी की एक किरण- भाग 1: सबा की जिंदगी क्यों गुनाह बनकर रह गई थी

बेटियां जिस घर में जाती हैं खुशी और सुकून की रोशनी फैला देती हैं. पर पता नहीं, बेटी के पैदा होने पर लोग गम क्यों मनाते हैं. सबा थकीहारी शाम को घर पहुंची. अम्मी नमाज पढ़ रही थीं. नमाज खत्म कर उन्होंने प्यार से बेटी के सलाम का जवाब दिया. उस ने थकान एक मुसकान में लपेट मां की खैरियत पूछी. फिर वह उठ कर किचन में गई जहां उस की भाभी रीमा खाना बना रही थीं. सबा अपने लिए चाय बनाने लगी. सुबह का पूरा काम कर के वह स्कूल जाती थी. बस, शाम के खाने की जिम्मेदारी भाभी की थी, वह भी उन्हें भारी पड़ती थी. जब सबा ने चाय का पहला घूंट लिया तो उसे सुकून सा महसूस हुआ.

‘‘सबा आपी, गुलशन खाला आई थीं, आप के लिए एक रिश्ता बताया है. अम्मी ने ‘हां’ कही है, परसों वे लोग आएंगे,’’ भाभी ने खनकते हुए लहजे में उसे बताया. सबा का गला अंदर तक कड़वा हो गया. आंखों में नमकीन पानी उतर आया. भाभी अपने अंदाज में बोले जा रही थीं, ‘‘लड़के का खुद का जनरल स्टोर है, देखने में ठीकठाक है पर ज्यादा पढ़ालिखा नहीं है. स्टोर से काफी अच्छी कमाई हो जाती है, आप के लिए बहुत अच्छा है.’’

सबा को लगा वह तनहा तपते रेगिस्तान में खड़ी है. दिल ने चाहा, अपनी डिगरी को पुरजेपुरजे कर के जला दे. भाभी ने मुड़ कर उस के धुआं हुए चेहरे को देखा और समझाने लगीं, ‘‘सबा आपी, देखें, आदमी का पढ़ालिखा होना ज्यादा जरूरी नहीं है. बस, कमाऊ और दुनियादारी को समझने वाला होना चाहिए.’’

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सबा ने दुख से रीमा को देखा. रीमा एक कम पढ़ी, नासमझ लड़की थी. वह आटेसाटे की शादी (लड़की दे कर लड़की ब्याहना) में सबा की भाभी बन कर आ गई थी. सबा की छोटी बहन लुबना की शादी रीमा के भाई आजाद से हुई थी. आज वही रीमा कितनी आसानी से सबा की शादी के बारे में सबकुछ कह रही हैं.

अब्बा ने एक के बाद एक लड़कियां होने का इलजाम भी अम्मी पर लगाया, हफ्तों बेटियों की सूरत नहीं देखी. वह तो अच्छा हुआ तीसरी बार बेटा हो गया, तो अम्मी की हैसियत का ग्राफ कुछ ऊंचा हो गया और अब्बा भी कुछ नरम पड़े. बेटियों का भार कम करने की खातिर बचपन में ही भाई की शादी मामू की बेटी रीमा से और छोटी बहन लुबना की शादी रीमा के भाई आजाद से तय कर दी. आजाद सबा से उम्र में छोटा था इसलिए लुबना की बात तय कर दी. आज पहली बार उसे लड़की होने की बेबसी का एहसास हुआ.

‘‘रीमा, तुम क्या जानो इल्म कैसी दौलत है? कैसी रोशनी है, जो इंसान को जीने का सलीका सिखाती है? वहीं यह डिगरी मर्दऔरत के बीच ऐसे फासले भी पैदा कर देती है कि औरत की सारी उम्र इन फासलों को पाटने में कट जाती है.’’

सबा का कतई दिल न चाह रहा था कि एक बार फिर उसे शोपीस की तरह लड़के वालों को दिखाया जाए पर अम्मी की मिन्नत और बेबसी के आगे वह मजबूर हो गई. वे कहने लगीं, ‘‘सबा, मेरी खातिर मान जाओ. मुझे पूरी उम्मीद है कि वे लोग तुम्हें जरूर पसंद करेंगे.’’

उस ने दुखी हो सोचा, ‘उस की ख्वाहिश व पसंद का किसी को एहसास नहीं. वह एमएससी पास है और एक अच्छे प्राइवेट स्कूल में नौकरी करती है फिर भी पसंद लड़का ही करेगा,’ उस ने उलझ कर कहा, ‘‘अम्मी, कितने लोग तो आ कर रिजैक्ट कर गए हैं, किसी को सांवले रंग पर एतराज, किसी को उम्र ज्यादा लगी, किसी को पढ़ालिखा होना और किसी को नौकरी करना नागवार गुजरा. अब फिर वही नाटक.’’

अम्मी रो पड़ीं, ‘‘बेटी, मैं बहुत शर्मिंदा हूं. तुम्हारी शादी मुझे सब से पहले करनी थी पर तुम हमारी मजबूरी और हालात की भेंट चढ़ गईं.’’

सबा यह नौकरी करीब 8 साल से कर रही थी, जब वह बीएससी फाइनल में थी तो अब्बा की एक ऐक्सिडैंट में टांग टूट गई, नौकरी प्राइवेट कंपनी में थी. बहुत दिनों के इलाज के बाद लकड़ी के सहारे चलने लगे. इस अरसे में नौकरी खत्म हो गई.

कंपनी से मिला पैसा कुछ इलाज में खर्च हुआ, कुछ घर में. अब आमदनी का कोई जरिया न था. लुबना और छोटा भाई जोहेब अभी पढ़ रहे थे. उस ने बीएससी पास करते ही नौकरी की तलाश शुरू कर दी. अच्छी डिवीजन होने के कारण उसे इसी स्कूल में प्राइमरी सैक्शन में नौकरी मिल गई. उस ने नाइट क्लासेस से एमएससी और बीएड पूरा किया और फिर सेकेंडरी सैक्शन में प्रमोट हो गई. अब अब्बा उसे बेहद प्यार करते. वही तो घर की गाड़ी खींच रही थी.

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शाम को गहरे रंगों के रेशमी कपड़ों में लड़के की अम्मी और 2 बहनें आईं. उन लोगों ने बताया कि लड़के, नईम की ख्वाहिश है कि लड़की पढ़ीलिखी हो, इसलिए वे लोग सबा को देखने आए हैं.

लड़के की अम्मी ने हाथों में ढेर सी चमकती चूडि़यां पहन रखी थीं. खनखनाते हुए वे बोलीं, ‘‘हमारे बेटे की डिमांड पढ़ीलिखी लड़की है, इसलिए हमें तो आप की बेटी पसंद है.’’

अम्मी ने शादी में देर न की क्योंकि जोहेब की बहुत अच्छी नौकरी लगे 2 साल हो चुके थे. काफी कुछ तो उन्होंने दहेज में देने को बना रखा था. कुछ और तैयारी हुई और सबा दुलहन बन कर नईम के घर पहुंच गई.

पापाज बौय- भाग 2: ऐसे व्यक्ति पर क्या कोई युवती अपना प्यार लुटाएगी?

Writer- सतीश सक्सेना 

मैं ने हरसंभव प्रयास किया है कि हमारे प्यार को किसी की नजर न लगे. रोमांस बरकरार रहे. मेरा प्रेम मेरे लिए सब से महत्त्वपूर्ण है. मैं रोमानी रिश्तों में बोल्डनैस की पक्षधर हमेशा रही हूं. रिश्तों में दावंपेंच मुझे कतई पसंद नहीं रहे. शतांश का मुझ से कतराना मुझे आहत करने लगा है. यदि अब वह किन्हीं कारणों से मुझ से सामंजस्य नहीं बना पा रहा है, तो मैं चाहती हूं कि वह मेरे समक्ष आए और मेरे सामने अपना दोटूक पक्ष रखे. यदि हमारे संबंधों में एकदूसरे का सम्मान लगभग समाप्त होने लगा है, तो कम से कम हम बिछुड़ें तो मन में खटास ले कर दूर न हों.

एक लंबे अंतराल के बाद शतांश ने शायनी को फोन किया. शायनी उस समय कालेज में थी. शतांश ने उसे बताया कि वह आज रेस्तरां में उस से मिलना चाहता है. शायनी उस समय अपने कई मित्रों से घिरी हुई थी. वह शतांश को अधिक समय नहीं दे पाई. उस से शाम को मिलने का वादा कर के वह अपनी क्लास में चली गई. शाम को जब शायनी रेस्तरां पहुंची तो वहां शतांश पहले से ही उस का इंतजार कर रहा था. शायनी को देखते ही उस ने वेटर को 2 कप कौफी लाने का और्डर दिया और शायनी के बैठते ही उस से पूछा, ‘‘कैसी हो?’’

‘‘पहले जैसी नहीं,’’ शायनी ने संक्षिप्त सा उत्तर दिया. ‘‘मैं तुम्हारी नाराजगी समझ सकता हूं,’’ वह बड़ी गंभीरता से बोला, ‘‘सौरी लव, व्यस्तता इतनी अधिक थी कि तुम से मिलने का समय नहीं निकाल पाया,’’ शतांश ने कहा.

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शायनी चुप रही. वह शतांश के चेहरे को पढ़ने का प्रयास करने लगी. उस की चुप्पी ने शतांश को असहज कर दिया. कुछ समय पश्चात चुप्पी शतांश ने ही तोड़ी, ‘‘डियर, जो सच मैं इन दिनों तुम से छिपाता रहा हूं, वह यह है कि मैं पापा के मित्र की लड़की खनक से विवाह करने जा रहा हूं. मैं समझता हूं कि तुम मेरा यह फैसला सुन कर आहत जरूर होगी, लेकिन सच यह भी है कि हम में से यह कोई नहीं जानता कि अगला पल हमारे लिए क्या लिए हुए खड़ा है. ‘‘यह पापा का फैसला है. वे हृदयरोगी हैं. उन के अंतिम समय में मैं उन्हें कोई आघात नहीं पहुंचाना चाहता.’’

शायनी ने शतांश को सुना पर वह उस के निर्णय से चकित नहीं हुई. वह पल उस के लिए बड़ा ही पीड़ादायक था. मन दरकदरक बिखरने लगा था. अपनेआप को संयत करते हुए वह बोली, ‘‘तुम पुरुष हो शतांश. कुछ भी कह सकते हो. मैं नारी हूं. मुझे तो सिर्फ सुनना है. गलत मैं ही थी जो तुम्हें समझ नहीं पाई. मैं तो यही समझती रही थी कि तुम भी मेरी तरह हमारे प्यार के लिए पजैसिव और प्रोटैक्टिव हो.’’ ठंडी सांस लेते हुए उस ने फिर कहा, ‘‘शतांश, मैं तुम से कुछ जवाब चाहती हूं. स्कूल में मुझे रिझाते समय, अपनी वैलेंटाइन बनाते समय, होटलों में मेरा शरीर भोगते समय और मुझ से विवाह करने का निर्णय लेते समय क्या तुम्हें यह पता नहीं था कि तुम पापाज बौय हो? उन की इच्छा के विरुद्ध कहीं नहीं जा पाओगे? यदि पता था तो मेरी जिंदगी से खिलवाड़ करने का अर्थ क्या था?

‘‘सच क्यों नहीं कहते कि तुम्हारे पापा को मेरे पापा से बड़े दहेज की उम्मीद नहीं है. यह क्यों नहीं कहते कि वे नहीं चाहते कि कोई मध्यवर्गीय युवती उन के खानदान की बहू बने. इस में तुम्हारी भी सहमति है. तुम्हारा मुझ से प्यार तो केवल एक नाटक था,’’ कहते हुए एक दर्द उभर आया था शायनी की आवाज में. उस की आंखें डबडबा उठी थीं. शतांश ने सिर्फ उस के दर्द भरे शब्द सुने. कहा कुछ नहीं. केवल शायनी की आंखों से निकल कर चेहरे पर फिसलते एकएक मोती को गौर से देखता रहा.

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‘‘गो,’’ शतांश की चुप्पी पर शायनी लगभग चीख उठी. वह इन बोझिल पलों से शीघ्र ही उबर आना चाहती थी, ‘‘जाओ, शतांश जाओ. आई हेट यू,’’ वह फिर चीखी. पर जब शतांश कुरसी से नहीं उठा तो वह खुद उठ कर रेस्तरां से बाहर चली आई. शायनी शतांश के निर्णय से हताश हो कर घर तो चली आई पर रातभर सो न सकी. मन में तूफान उठ रहा था, जो उसे विचलित किए जा रहा था. वह सोचे जा रही थी कि प्यार तो जिंदगी का संगीत होता है. उस के बिना जीवन सूना हो जाता है इसीलिए उस ने अंत समय तक यह भरसक प्रयास किया था कि उस के प्यार की खुशबू शतांश में बनी रहे.

शतांश उस से कहीं दूर न हो जाए. इसी संशय में मैडिकल की कठिन पढ़ाई के उपरांत उस के लिए लगातार समय निकाला था. सदैव उस की शारीरिक इच्छाएं पूरी की थीं. अपनी तरफ से प्रेम के प्रति ईमानदार बनी रही थी. कभी उसे शिकायत का कोई मौका ही नहीं दिया था. इस से ज्यादा और वह क्या कर सकती थी. अचानक शतांश की बेवफाई को वह क्या समझे? उस के साथ नियति का कू्रर मजाक या फिर शतांश द्वारा दिया गया धोखा. सोचतेसोचते न जाने कब आंख लग गई. सवेरे शायनी को उस के पापा रविराय ने जगाया, ‘‘शायनी, आज कालेज नहीं जाएगी बेटा? देख सूरज सिर पर चढ़ आया है.’’

आखिरी मुलाकात- भाग 1: क्यों सुमेधा ने समीर से शादी नहीं की?

Writer- Shivi Goswami

समीर ने अपनी घड़ी की तरफ देखा और उठ गया. आज रविवार था तो समय की कोई पाबंदी नहीं थी. आज न तो कोई मीटिंग थी, न ही औफिस जाने की जल्दी, न ही आज उस को सुबहसुबह अपने पूरे दिन का टाइमटेबल देखना था.

समीर की नौकरानी की आज छुट्टी थी या फिर यह कहा जा सकता है कि समीर नहीं चाहता था कि आज कोई भी उस को डिस्टर्ब करे. समीर ने खुद अपने लिए कौफी बनाई और बालकनी में आ कर बैठ गया. कौफी पीतेपीते वह अपने बीते दिनों की याद में डूबता गया.

अपना शहर और घर छोड़े उसे 2 साल हो चुके थे. यह नौकरी काफी अच्छी थी, इसलिए उस ने घर छोड़ कर दिल्ली आ कर रहना ही बेहतर समझा था, वैसे यह एक बहाना था. सचाई तो यह थी कि वह अपनी पुरानी यादों को छोड़ कर दिल्ली आ गया था.

उस की पहली नौकरी अपने ही शहर लुधियाना में थी. वहां औफिस में पहली बार वह सुमेधा से मिला था. औफिस में वह उस का पहला दिन था. वहां लंच से पहले का समय सब लोगों के साथ परिचय में ही बीता था. सब एकएक कर के अपना नाम और पद बता रहे थे…

एक बहुत प्यारी सी आवाज मेरे कानों में पड़ी. एक लड़की ने अपना हाथ मेरी तरफ बढ़ाते हुए कहा, ‘हैलो, आई एम सुमेधा.’

सीधीसादी सी दिखने वाली सुमेधा में कोई खास बात तो थी जिस की वजह से मैं पहली ही मुलाकात में उस की तरफ आकर्षित होता चला गया था और मैं ने उस से हाथ मिलाते हुए कहा, ‘हैलो, आई एम समीर.’

हमारी बात इस से आगे बढ़ी नहीं थी. दूसरे दिन औफिस के कैफेटेरिया में मैं अपने औफिस में बने नए दोस्त नीलेश के साथ गया तो सुमेधा से मेरी दूसरी मुलाकात हुई. सुमेधा वहां खड़ी थी. नीलेश ने उस की तरफ देखते हुए कहा, ‘सुमेधा, तुम भी हमारे साथ बैठ कर लंच कर लो.’

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सुमेधा हम लोगों के साथ बैठ गई. मैं चोरीचोरी सुमेधा को देख रहा था. मैं ने पहले कभी किसी लड़की को इस तरह देखने की कोशिश नहीं की थी.

मेरे और सुमेधा के घर का रास्ता एक ही था. हम दोनों एकसाथ ही औफिस से घर के लिए निकलते थे. उस समय मेरे पास अपनी बाइक तक नहीं थी, तो बस में सुमेधा के साथ सफर करने का मौका मिल जाता था. रास्ते में हम बहुत सारी बातें करते हुए

जाते थे, जिस से हमें एकदूसरे के बारे में काफी कुछ जानने को मिला. वह अपने जीवन में कुछ करना चाहती थी, सफलता पाना चाहती थी. उस के सपने काफी बड़े थे. मुझे अच्छा लगता था उस की बातों को सुनना.

धीरेधीरे मैं और सुमेधा एकदूसरे के साथ ज्यादा वक्त बिताने लगे. शायद सुमेधा भी मुझे पसंद करने लगी थी, ऐसा मुझे लगता था.

‘कल रविवार को तुम लोगों का क्या प्लान है?’ एक दिन मैं और नीलेश जब औफिस की कैंटीन में बैठे थे, तो सुमेधा ने बड़ी बेबाकी से आ कर पूछा.

‘कुछ खास नहीं,’ नीलेश ने जवाब दिया.

‘और तुम्हारा कोई प्लान हो तो बता दो समीर,’ सुमेधा ने मेरी तरफ देखते हुए कहा.

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‘नहीं…कुछ खास नहीं. तुम बताओ?’ मैं ने कहा.

‘कल मूवी देखने चलें?’ सुमेधा ने कहा.

‘आइडिया अच्छा है,’ नीलेश एकदम से बोला.

‘तो ठीक है तय हुआ. कल हम तीनों मूवी देखने चलेंगे,’ कह कर सुमेधा चली गई.

‘देखो समीर, कल तुम अपने दिल की बात साफसाफ सुमेधा से बोल देना. मुझे लगता है कि सुमेधा भी तुम्हें पसंद करती है,’ नीलेश ने एक सांस में यह बात बोल दी.

पांच साल बाद- भाग 3: क्या निशांत को स्निग्धा भूल पाई?

कहतेकहते उस ने निसंकोच निशांत का दाहिना हाथ पकड़ लिया और प्यार से उसे सहलाते हुए बोली, ‘मुझे खेद है कि मैं ने तुम्हारे जैसा हीरा खो दिया, परंतु अफसोस तो मुझे इस बात का अधिक है कि आजादी और समाज से विद्रोह के नाम पर परंपराओं को तोड़ने का जो नासमझी भरा कदम मैं ने इलाहाबाद जैसे पारंपरिक, सांस्कृतिक और साहित्यिक शहर में किया था, वह मेरे जीवन की सब से बड़ी भूल थी. उस भूल का परिणाम तुम देख ही रहे हो कि आज मैं कैसी हूं और कितनी तन्हा. इतनी तन्हा, जितना किसी गुफा का सन्नाटा हो सकता है.’

स्निग्धा की आंखों में आंसू छलक आए. निशांत ने उस की आंखों को देखा, परंतु उस ने उस के आंसू पोंछने का कोई प्रयास नहीं किया. बस, अपने हाथों को धीरे से उस के हाथों से अलग कर के कहा, ‘हर आदमी जीवन में कोई न कोई भूल करता है, परंतु उस के लिए अफसोस करने से दुख कम नहीं होता, बल्कि बढ़ता ही है,’ उस के स्वर में दृढ़ता थी.

‘सच कहते हो तुम,’ उस ने झटके से अपने आंसू पोंछ डाले और मुसकराने का प्रयास करती हुई बोली, ‘मैं अपना अतीत याद नहीं करना चाहती, परंतु उसे बताए बिना तुम मेरी बात नहीं समझ पाओगे. विगत की हर एक बात मैं तुम्हें नहीं बताऊंगी. बस, उतना ही जितने से तुम मेरे मन को समझ सको और यह समझ सको कि मैं ने अपने विद्रोही स्वभाव के कारण क्या पाया और क्या खोया.’

‘इतना भी आवश्यक नहीं है,’ वह गंभीरता से बोला, ‘तुम सामान्य बातें करोगी तो मुझे अच्छा लगेगा.’

‘मैं तुम्हारे मन की दशा समझ सकती हूं. तुम मेरे दुख से दुखी नहीं होना चाहते हो.’

‘मैं तुम्हारे सुख से सुखी होना चाहता हूं,’ उस ने स्पष्ट किया.

स्निग्धा को उस की बात से घोर आश्चर्य हुआ. वह हकबका कर बोली, ‘मैं कुछ समझी नहीं?’

‘जिस जगह तुम मुझे छोड़ कर गई थीं, उसी जगह पर मैं अभी तक खड़ा हो कर तुम्हारी प्रतीक्षा कर रहा हूं,’ उस ने निसंकोच कहा.

स्निग्धा के हृदय में मधुर वीणा के तारों सी झंकार हुई, ‘लेकिन तुम अच्छी तरह जानते हो कि मैं बिना शादी के राघवेंद्र के साथ रह रही थी. तुम्हें पता नहीं है कि पिछले 5 सालों में मेरे साथ क्याक्या गुजरा है?’

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निशांत ने प्रश्नवाचक भाव से उस की तरफ देखा और अपने दोनों हाथों को मेज पर रख कर उस की तरफ झुकता हुआ बोला, ‘तुम चाहो तो बता सकती हो.’

स्निग्धा ने एक राहत भरी सांस ली और बोली, ‘मैं बहुत लंबा व्याख्यान नहीं दूंगी. मेरी बातों से ऊबने लगो तो बता देना.’

उस ने सहमति में सिर हिलाया और तब स्निग्धा ने धीरेधीरे उसे बताया, ‘मैं ने परंपराओं, सामाजिक मर्यादा और वर्जनाओं का विरोध किया. बिना शादी के एक युवक के साथ रहने लगी. परंतु जिसे मैं ने आजादी समझा था वह तो सब से बड़ा बंधन था. सामाजिक बंधन में तो फिर भी प्रतिबद्धता होती है, एकदूसरे के प्रति लगाव और कुछ करने की चाहत होती है परंतु बिना बंधन के संबंधों का आधार बहुत सतही होता है. वह केवल एक विशेष जरूरत के लिए पैदा होता है और जरूरत पूरी होते ही मर जाता है.

‘मैं राघवेंद्र के साथ रहते हुए बहुत खुश थी. हम दोनों साथसाथ घूमते, राजनीतिक पार्टियों में शामिल होते. मेरी अपनी महत्त्वाकांक्षा भी थी कि राघवेंद्र के सहारे मैं राजनीति की सीढि़यां चढ़ कर किसी मुकाम तक पहुंच जाऊंगी, परंतु यह मेरी भूल थी. 3 साल बाद ही मुझे महसूस होने लगा कि राघवेंद्र मुझे बोझ समझने लगा था. अब वह मुझे अपने साथ बाहर ले जाने से भी कतराने लगा था. बातबात पर खीझ कर मुझे डांट देता था.

मैं समझ गई, वह केवल अपनी शारीरिक भूख मिटाने के लिए मुझे अपने साथ रखे हुए था. मेरा रस चूस लेने के बाद अब वह मुझे बासी समझने लगा था. वह मुरझाए फूल की तरह मुझे फेंक देना चाहता था. उस की बेरुखी से मैं ने महसूस किया कि हम जिस शादी के बंधन को बोझ समझते हैं, वह वाकई वैसा नहीं है. बिना शादी के भी तो 2 व्यक्ति वही सबकुछ करते हैं, परंतु बिना किसी जिम्मेदारी के और जब एकदूसरे से ऊब जाते हैं तो बड़ी आसानी से जूठी पत्तल की तरह फेंक देते हैं. लेकिन मान्यताप्राप्त बंधन में ऐसा नहीं होता.

‘मैं ने भी अगले 2 साल तक और बरदाश्त किया, परंतु एक दिन राघवेंद्र ने मुझ से साफसाफ कह दिया कि मुझे अपना राजनीतिक कैरियर बनाना है. तुम अपने लिए कोई दूसरा रास्ता चुन लो. तुम्हारे साथ रहने से मेरी बदनामी हो रही है. अगला आम चुनाव आने वाला है. अगर तुम मेरे साथ रहीं तो मेरी छवि धूमिल हो जाएगी और मुझे टिकट नहीं मिलेगा.’

‘मेरे पैरों तले की जमीन खिसक गई. मेरी सारी शक्ति, समाज से बगावत करने का जोश जैसे खत्म हो गया. मैं समझ गई, नारी चाहे जितना समाज से विद्रोह करे, पुरुष के हाथों की कठपुतली न बनने का मुगालता पाल ले, परंतु आखिरकार वह वही करती है जो पुरुष चाहते हैं. वह पुरुष की भोग्या है. जानेअनजाने वह उस के हाथों से खेलती रहती है और सदा भ्रम में जीती है कि उस ने पुरुष को ठोकर मार कर आजादी हासिल कर ली है.

‘जिस समाज से मैं विद्रोह करना चाहती थी, जिस की मान्यताएं, परंपराओं और वर्जनाओं को तोड़ कर मैं आगे बढ़ना चाहती थी, उसी समाज के एक कुलीन और सभ्य व्यक्ति ने मेरा सतीत्व लूट लिया था या यों कहिए कि मैं ने ही उस के ऊपर लुटा दिया था. बताओ, एक शादीशुदा औरत और मुझ में क्या फर्क रहा? शादीशुदा औरत को भी पुरुष भोगता है और बिना शादी किए मुझे भी एक पुरुष ने भोगा. उस ने अपनी भूख मिटा ली. परंतु नहीं, हमारी जैसी औरतों और शादीशुदा औरतों में एक बुनियादी फर्क है. जहां शादीशुदा औरत यह सब कुछ एक मर्यादा के अंतर्गत करती है, हम निरंकुश हो कर वही काम करती हैं. एक पत्नी को शादी कर के परिवार और समाज की सुरक्षा मिलती है, परंतु हमारी जैसी औरतों को कोई सुरक्षा नहीं मिलती. पत्नी के प्रति पति जिम्मेदार होता है, उस के सुखदुख में भागीदार होता है, जीवनभर उस का भरणपोषण करता है, परंतु हमें भोगने वाला व्यक्ति हर प्रकार की जिम्मेदारी से मुक्त होता है. वह हमें रखैल बना कर जब तक मन होता है, भोगता है और जब मन भर जाता है, ठोकर मार कर गलियों में भटकने के लिए छोड़ देता है.’

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वह बड़ी धीरता और गंभीरता से अपनी बात कह रही थी. निशांत पूर्ण खामोशी से उस की बातें सुन रहा था. बीच में उस ने कोई प्रतिक्रिया नहीं व्यक्त की, न कुछ बोला. अपनी बात खत्म करतेकरते स्निग्धा भावों के अतिरेक से विह्वल हो कर रोने लगी. परंतु निशांत ने उसे चुप नहीं कराया.

कुछ देर बाद वह स्वयं शांत हो गई.

पता नहीं, निशांत क्या सोच रहा था. उस का सिर झुका हुआ था और लग रहा था जैसे वह स्निग्धा की सारी बातों को मन ही मन गुन रहा था, उन पर मनन कर रहा था. फिर और कई पल गुजर गए. इस बीच वेटर आ कर कई बार पूछ गया कि कुछ और चाहिए या बिल लाऊं. उस ने इशारे से उसे 2 और कोल्ड कौफी लाने को आदेश दे दिया था.

– क्रमश: 

बस एक सनम चाहिए- भाग 2: शादी के बाद भी तनु ने गैर मर्द से क्यों रखा रिश्ता

साल भर तक तो उन का यह आंखों वाला प्यार चला और फिर धीरेधीरे दोनों में प्रेम पत्रों का आदानप्रदान होने लगा. 1-2 बार छोटेमोटे गिफ्ट भी दिए थे दोनों ने एकदूसरे को. कई बार स्कूल के बाद कुछ देर रुक कर दोनों बातें भी कर लेते थे. तनु पहले की तरह ही मुझे अपने सारे राज बताती थी. अब तक हम दोनों 12वीं क्लास में आ गए थे. मैं ने एक दिन तनु से चुटकी ली, ‘‘कब तक चलेगा तुम्हारा यह प्यार?’’

तनु मुसकरा कर बोली, ‘‘जब तक प्यार सिर्फ प्यार रहेगा. जिस दिन इस की निगाहें मेरे शरीर को टटोलने लगेंगी, वही हमारे रिश्ते का आखिरी दिन होगा.’’ ‘‘अरे यार, आशिकों का क्या है? रिकशों की तरह होते हैं. एक बुलाओ तो कई आ जाते हैं,’’ तनु ने बेहद लापरवाही से कहा.

मैं उस की बोल्डनैस देख कर हैरान थी. मैं ने पूछा, ‘‘तनु, तुम्हें ये सब करते हुए डर नहीं लगता?’’ ‘‘इस में डरने की क्या बात है? अगर ऐसा कर के मेरा मन खुश रहता है तो मुझे खुश होने का पूरा हक है. और हां, ये लड़के लोग भी कहां डरते हैं? फिर मैं क्यों डरूं? क्या लड़की हूं सिर्फ इसलिए?’’ तनु थोड़ा सा गरमा गई. मेरे पास उस के तर्कों के जवाब नहीं थे.

उस दिन हमारी स्कूल की फेयरवैल पार्टी थी. हम सब को स्कूल के नियमानुसार साड़ी पहन कर आना था. तनु लाल बौर्डर की औफ व्हाइट साड़ी में बहुत ही खूबसूरत लग रही थी. हम लोग हमेशा की तरह साइकिलों पर नहीं, बल्कि टैक्सी से स्कूल गए थे. शाम को घर लौटते समय तनु ने मेरे कान में कहा, ‘‘मैं ने आज अपना रिश्ता खत्म कर लिया.’’ ‘‘मगर तुम तो हर वक्त मेरे साथ ही थी. फिर कब, कहां और कैसे उस से मिली? कब तुम ने ये सब किया?’’ मैं ने आश्चर्य के साथ प्रश्नों की झड़ी लगा दी.

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‘‘शांतशांतशांत…जरा धीरे बोलो.’’ तनु ने मुझे चुप रहने का इशारा किया और फिर बताने लगी, ‘‘टैक्सी से उतर के जब तुम सब स्कूल के अंदर जाने लगी थीं उसी वक्त मेरी साड़ी चप्पल में अटक गई थी, याद करो…’’ ‘‘हांहां… तुम पीछे रह गई थी,’’ मैं ने याद करते हुए कहा.

‘‘जनाब वहीं खड़े थे. टैक्सी की आड़ में, पहले तो मुझे जी भर के निहारा, फिर हाथ थामा और बिना मेरी इजाजत की परवाह किए मुझे बांहों में भर लिया. किस करने ही वाला था कि मैं ने कस कर एक लगा दिया. पांचों उंगलियां छप गई होंगी गाल पर…’’ तनु ने फुफकारते हुए कहा. ‘‘अब तुम ओवर रिएक्ट कर रही हो.. अरे, इतना तो हक बनता है उस का…’’ मैं ने उसे समझाने की कोशिश की.

‘‘नहीं, बिलकुल नहीं. मेरे शरीर पर सिर्फ मेरा अधिकार है,’’ तनु अब भी गुस्से में थी. उस के बाद परीक्षा. फिर छुट्टियां और रिजल्ट के बाद नया कालेज. वह स्कूल वाला लड़का कुछ दिन तो कालेज के रास्ते में दिखाई दिया मगर तनु ने कोई रिस्पौंस नहीं दिया तो उस ने भी अपना रास्ता बदल लिया.

पता नहीं कैसी जनूनी थी तनु. उसे प्यार तो चाहिए मगर उस में वासना का तनिक भी समावेश नहीं होना चाहिए. कालेज के 3 साल के सफर में उस ने 3 दोस्त बनाए. हर साल एक नया दोस्त. मैं कई बार उसे समझाया करती थी कि किसी एक को ले कर सीरियस क्यों नहीं हो जाती? क्यों फूलों पर तितली की तरह मंडराती हो? ‘‘फूलों पर मंडराना क्या सिर्फ भौंरो का ही अधिकार है? तितलियों को भी उतना ही हक है अपनी पसंद के फूल का रस पीने का…’’ तनु ताव में आ जाती.

तनु में एक खास बात थी कि वह किसी रिश्ते में तब तक ही रहती थी जब तक सामने वाला अपनी मर्यादा में रहता. जहां उस ने अपनी सीमा लांघी, वहीं वह तनु की नजरों से उतर जाता. तनु उस से किनारा करने में जरा भी वक्त नहीं लगाती. वह अकसर मुझ से कहती थी, ‘‘अपनी मरजी से चाहे मैं अपना सब कुछ किसी को सौंप दूं, मगर मैं अपनी मरजी के खिलाफ किसी को अपना हाथ भी नहीं पकड़ने दूंगी.’’ ‘‘कालेज के बाद जौब भी लग गई. तनु अब तो अपनेआप को ले कर सीरियस हो जाओ. कोई अच्छा सा लड़का देखो और सैटल हो जाओ,’’ मैं ने एक दिन उस से कहा जब उस ने मुझे बताया कि आजकल उस का अपने बौस के साथ सीन चल रहा है.

‘‘मेरी भोली दोस्त तुम नहीं जानती इन लड़कों को. उंगली पकड़ाओ तो कलाई पकड़ने लगते हैं. जरा सा गले लगाओ तो सीधे बिस्तर तक घुसने की कोशिश करते हैं. जिस दिन मुझे ऐसा लड़का मिलेगा जो मेरी हां के बावजूद खुद पर कंट्रोल रखेगा, उसी दिन मैं शादी के बारे में सोचूंगी,’’ तनु ने कहा. ‘‘तो फिर रहना जिंदगी भर कुंआरी ही. ऐसा लड़का इस दुनिया में तो मिलने से रहा.’’

इस के बाद कुछ ही महीनों में मेरी शादी हो गई. तनु ने भी जयपुर की अपनी पुरानी जौब छोड़ कर मुंबई की कंपनी जौइन कर ली. कुछ समय तो हम एकदूसरे के संपर्क में रहे फिर धीरेधीरे मैं अपनी गृहस्थी और बच्चे में बिजी होती चली गई और तनु दिल के किसी कोने में एक याद सी बन कर रह गई. आज इस गाने ने बरबस ही तनु की याद दिला दी. उस से बात करने को मन तड़पने लगा. ‘पता नहीं उसे सनम मिला या नहीं…’ सोचते.

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हुए मैं ने पुरानी फोन डायरी से उस का नंबर देख कर डायल किया, लेकिन फोन स्विच औफ आ रहा था. ‘क्या करूं? कहां ढूंढ़ूं तनु को इतनी बड़ी दुनिया में,’ सोचतेसोचते अचानक मेरे दिमाग की बत्ती जल गई और मैं ने तुरंत लैपटौप पर फेस बुक लौग इन किया. सर्च में ‘तनु’ लिखते ही अनगिनत तनु नाम की आईडी नजर आने लगीं. उन्हीं में एक जानीपहचानी शक्ल नजर आई. आईडी खंगाली तो मेरी ही तनु निकली. मैं ने उसे फ्रैंड रिक्वैस्ट भेज दी.

जरूरी हैं दूरियां पास आने के लिए- भाग 1: क्यों मिशिका को भूलना चाहता था विहान

लेखिका- डा. मंजरी अमित चतुर्वेदी

फ्लाइट बेंगलुरु पहुंचने ही वाली थी. विहान पूरे रास्ते किसी कठिन फैसले में उलझ था. इसी बीच  मोबाइल पर आते उस कौल को भी वह लगातार इग्नोर करता रहा. अब नहीं सींच सकता था वह प्यार के उस पौधे को, उस का मुरझ जाना ही बेहतर है. इसलिए उस ने मिशिका को अपनी फोन मैमोरी से रिमूव कर दिया. मुमकिन नहीं था यादों को मिटाना, नहीं तो आज वह उसे दिल की मैमोरी से भी डिलीट कर देता सदा के लिए.

‘सदा के लिए… नहींनहीं, हमेशा के लिए नहीं, मैं मिशी को एक मौका और दूंगा,’ विहान मिशी के दूर होने के खयाल से ही डर गया.

‘शायद ये दूरियां ही हमें पास ले आएं,’ यही सोच कर उस ने मिशी की लास्ट फोटो भी डिलीट कर दी.

इधर  मिशिका परेशान हो गई थी, 5 दिनों से विहान से कोई कौंटैक्ट नहीं हुआ था.

‘‘हैलो दी, विहान से बात हुई क्या? उस का न कौल लग रहा है न कोई मैसेज पहुंच रहा है, औफिस में एक प्रौब्लम आ गई है, जरूरी बात करनी है,’’ मिशी बिना रुके बोलती गई.

‘‘नहीं, मेरी कोई बात नहीं हुई. और प्रौब्लम को खुद सौल्व करना सीखो,’’ पूजा ने इतना कह कर फोन काट दिया.

मिशी को दी का यह रवैया अच्छा नहीं लगा, पर वह बेपरवाह सी तो हमेशा से ही थी, सो उस ने दी की बात पर ज्यादा ध्यान नहीं दिया.

मिशिका उर्फ मिशी मुंबई में एक कंपनी में जौब करती है. उस की बड़ी बहन है पूजा, जो अपने मौमडैड के साथ रहते हुए कालेज में पढ़ाती है. विहान ने अभी बेंगलुरु में नई मल्टीनैशनल कंपनी जौइन की है. उस की बहन संजना अभी पढ़ाई कर रही है. मिशी और विहान के परिवारों में बड़ा प्रेम है. वे पड़ोसी थे. विहान का घर मिशी के घर से कुछ ही दूरी पर था. 2 परिवार होते हुए भी वे एक परिवार जैसे ही थे. चारों बच्चे साथसाथ बढ़े हुए.

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गुजरते दिनों के साथ मिशी की बेपरवाही कम होने लगी थी. विहान  से बात न हुए आज पूरे 3 महीने बीत गए थे. मिशी को खालीपन लगने लगा था. बचपन से अब तक ऐसा कभी नहीं हुआ था. जब पास थे तो वे दिन में कितनी ही बार मिलते थे, और जब जौब के कारण दूर हुए तो कौल और चैट का हिसाब लगाना भी आसान काम नहीं था. 2-3 महीने गुजरने के बाद मिशी को विहान की बहुत याद सताने लगी थी. वह जब भी घर पर फोन करती तो मम्मीपापा, दीदी सभी से विहान के बारे में पूछती. आंटीअंकल से बात होती तब भी जवाब एक ही मिलता, ‘वह तो ठीक है, पर तुम दोनों की बात नहीं हुई, यह कैसे पौसिबल है?’ अकसर जब मिशी कहती कि महीनों से बात नहीं हुई तो सब झठ ही समझते थे.

दशहरा आ रहा था, मिशी जितनी खुश घर जाने को थी उस से कहीं ज्यादा खुश यह सोच कर थी कि अब विहान से मुलाकात होगी. इन छुट्टियों में वह भी तो आएगा.

‘बहुत झगड़ा करूंगी, पूछूंगी उस से  यह क्या बचपना है, अच्छी खबर लूंगी. क्या समझता है अपनेआप को… ऐसे कोई करता है क्या,’ ऐसी ही अनगिनत बातों को दिल में समेटे वह घर पहुंची. त्योहार की रौनक मिशी की उदासी कम न कर सकी. छुट्टियां खत्म हो गईं, वापसी का समय आ गया पर वह नहीं आया जिस का मिशी बेसब्री से इंतजार कर रही थी. दोनों घरों की दूरियां नापते मिशी को दिल की दूरियों का एहसास होने लगा था. अब इंतजार के अलावा उस के पास कोई रास्ता नहीं था.

मिशी दीवाली की शाम ही घर पहुंच पाई थी. डिनर की  तैयारियां चल रही थीं. त्योहारों पर दोनों फैमिली साथ ही समय बितातीं, गपशप, मस्ती, खाना, सब खूब एंजौय करते थे. आज विहान की फैमिली आने वाली थी. मिशी खुशी से झम उठी थी, आज तो विहान से बात हो ही जाएगी. पर उस रात जो हुआ उस का मिशी को अंदाजा भी नहीं था. दोनों परिवारों ने सहमति से पूजा और विहान का रिश्ता तय कर दिया. मिशी को छोड़ सभी बहुत खुश थे.

‘पर मैं खुश क्यों नहीं हूं? क्या मैं विहान से प्यार… नहींनहीं, हम तो, बस, बचपन के साथी हैं. इस से ज्यादा तो कुछ नहीं है. फिर मैं आजकल विहान को ले कर इतना क्यों परेशान रहती हूं? उस से  बात न होने से मुझे यह क्या हो रहा है. क्या मैं अपनी ही फीलिंग्स समझ नहीं पा रही हूं?’ इसी उधेड़बुन में रात आंखों में  बीत गई थी. किसी से कुछ शेयर किए बिना ही वह  वापस मुंबई  लौट  गई. दिन यों ही बीत रहे थे. पूजा की शादी के बारे में न घर वालों ने आगे कुछ बताया न ही  मिशी ने पूछा.

एक दिन दोपहर को मिशी के फोन पर विहान की कौल आई, ‘‘घर की लोकेशन सैंड करो, डिनर साथ ही करेंगे.’’

मिशी ‘‘करती हूं’’ के अलावा कुछ न बोल सकी. उस के चेहरे पर मुसकान बिखर गई थी. उस दिन वह औफिस से जल्दी घर पहुंची, खाना बना कर घर संवारा और खुद को संवारने में जुट गई.

‘मैं विहान के लिए ऐसे क्यों संवर रही हूं? इस से पहले तो कभी मैं ने इस तरह नहीं सोचा,’ वह सोचने लगी. उस को खुद पर हंसी आ गई. अपने ही सिर पर धीरे से चपत लगा कर वह विहान के इंतजार में भीतरबाहर होने लगी. उसे लग रहा था जैसे वक्त थम गया हो. वक्त काटना मुश्किल हो रहा था.

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लगभग 8 बजे डोरबेल बजी. मिशी की सांसें ऊपरनीचे हो गईं, शरीर ठंडा सा लगने लगा, होंठों पर मुसकराहट तैर गई. दरवाजा खोला, पूरे 10 महीने बाद विहान उस के सामने था. एक पल को वह उसे देखती ही रही, दिल की बेचैनी आंखों से निकलने को उतावली हो उठी.

विहान भी लंबे समय बाद अपनी मिशी से मिल उसे देखता ही रह गया. फिर मिशी ने ही किसी तरह संभलते हुए विहान को अंदर आने को कहा. मिशी की आवाज सुन  विहान  अपनी सुध में वापस आया. दोनों देर तक चुप बैठे, छिपछिप कर एकदूसरे को देख लेते, नजरें मिल जाने पर यहांवहां देखने लगते. दोनों ही कोशिश में थे कि उन की चोरी पकड़ी न जाए.

प्रेम गली अति सांकरी: भाग 3

Writer- जसविंदर शर्मा 

अगले दिन स्कूल से आ कर देखा कि घर में पापा की मिस्ट्रैस आई हुई थी. साथ में, उस की छोटी सी गुडि़या और हमारा छोटा भाई. ‘उस ने’ घर का काम संभाल लिया.

‘वह’ उस बैडरूम में सोने लगी थी जहां मां सोती थीं. पापा भी उस के साथ ही सोते. पापा के हौसले बुलंद थे. घर में हुए इस बदलाव से हम दोनों बहनें बहुत त्रस्त थीं.

हमें मां की याद सता रही थी और हमें कुछ भी पता नहीं था कि मां कहां हैं. कहीं वे मर तो नहीं गईं. हम यह बात पड़ोसियों से भी पूछ नहीं सकते थे.

पड़ोसियों की आंखों में कुछ दूसरे हैरानजदा सवाल थे कि हमारे घर में आ कर रहने वाली यह स्त्री कौन है और पापा की क्या लगती है. पापा ने उस के बारे में एकदो पड़ोसियों को यह बताया था कि ‘वह’ उन की चचेरी बहन है जिसे उस के पति ने छोड़ दिया है.

सप्ताह बाद मां लौटीं तो हमारी सांस में सांस आई. हमारा रुटीन सामान्य हो गया. सुबह स्कूल, दोपहर को होमवर्क और शाम को खेल. बड़े लोगों को घर में क्या परेशानियां हैं, हम उन्हें क्या समाधान दे सकते थे. पापा ने घर में क्या गड़बड़झाला रचा रखा है, हमारी समझ में कुछ नहीं आता था. अब घर में कई लोग थे : एक पति और उन की 2 पत्नियां व 4 बच्चे.

मां के लौट आने पर अब घर में पापा की मिस्ट्रैस का रुतबा घट गया था. ‘वह’ चुपचाप रहती, गेट के ठीक सामने बाहर वाले कमरे में अपनी गुडि़या को संभालने में ही मस्त और व्यस्त रहती. घर के किसी मामले में उस की कोई राय नहीं ली जाती थी. मां ने अपना पुराना बड़ा वाला बैडरूम संभाल लिया था.

घर में पापा का दरजा अब वह नहीं रह गया था. हर तीसरेचौथे दिन ये बड़े लोग घर में तूफान मचाते, गालियां देते और एकदूसरे को कोसते. पापा सोते तो मां के कमरे में ही मगर दोनों के बीच कोई बातचीत नहीं होती थी.

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पापा की जरूरतें पूरी करने के लिए दोदो औरतें थीं. घर में हर समय तनाव रहता. मां उन से बचने की कोशिश न करती या यों कहें कि वे जानबूझ कर पापा को और दुखी करतीं. पापा उन की ये बातें समझ न पाते या समझ कर अनजान बने रहते.

उन के लिए घर में रखैल रखना खांडे की धार पर चलने जैसा था. वे एक समय में दोदो नावों पर सवार होना चाहते थे. वे दोनों औरतों के बीच बुरी तरह फंस गए थे. एक को खुश करते तो दूसरी नाराज हो जाती.

हर रात हम खाने के टेबल पर डिनर के लिए बैठते. एक कष्टभरी खामोशी हमारे बीच तनी रहती. हम ऐसा बरताव करते, मानो एकदूसरे के लिए एलियंस हों. सुबह मां हमें तैयार कर के स्कूल भेजतीं. फिर किचन में पापा व उन की मिस्ट्रैस घुसते. मां की गालियों और तानों की बौछारों को सहन करते हुए ‘वह’ रह रही थी. उस का यह साहस वर्णन से बाहर था.

‘उस की’ बेटी से हम बात नहीं करते थे. हमारे लिए ‘उस से’ बोलना भी मना था. पापा के खिलाफ मां की उस जंग में हम बच्चे पूरी तरह मां के साथ थे. ‘उस ने’ मुझे अपनी तरफ झुकाने की बहुत कोशिश की.

उस ने मुझे ‘एलिस इन वंडरलैंड’ नामक किताब मेरे 12वें जन्मदिन पर उपहार में दी. मुझे वह पुस्तक बहुत अच्छी लगी. मैं जानती थी कि वह मेरे प्रति दयालु है मगर मैं अपनी मां के प्रति वफादार रहना चाहती थी. हां, मेरे मन का एक हिस्सा ‘उसे’ चाहता जरूर था. मुझे तब पता नहीं था कि मेरे पापा से प्यार कर के उस ने कितना बड़ा गुनाह किया है.

‘उस का’ इस तरह हमारे साथ रहने का यह अनोखा अरेंजमैंट ज्यादा दिनों तक चल नहीं पाया. पापा को तो कोई आपत्ति नहीं थी मगर जब भी मां मेरे छोटे भाई को ले कर बाहर निकलतीं, उन्हें खुद पर शर्म आती कि वे अपनी सौत के साथ रह रही हैं. हमें भी यही बताया गया था कि अगर पड़ोसी ‘उस के’ बारे में पूछताछ करें तो कहो कि वह हमारी किराएदार है.

मां ने सभी टोनेटोटके कर के देख लिए, नानी और मामा की राय ली, कई वकीलों से सलाह की मगर ‘उसे’ अपने घर से नहीं निकाल पाईं. ‘वह’ इतने अपमान और बेइज्जती के बावजूद हमारे घर में रह रही थी, उस की एक ही मुख्य वजह थी. वह वजह थी कि ‘वह’ पापा से बेइंतहा प्यार करती थी. जो ज्ञान पुरुष स्त्रियों से उन के बारे में हासिल करते हैं भले ही वह उन की संचित संभावनाओं के बारे में न हो कर सिर्फ उन के भूत और वर्तमान के बारे में ही क्यों न हो, वह तब तक अधूरा और उथला रहेगा जब तक कि स्त्रियां स्वयं वह सबकुछ नहीं बता देतीं.

कई महीनों बाद जब मां से यह सब सहन नहीं हुआ तो उन्होंने अदालत का दरवाजा खटखटाया और पापा पर दोष लगाते हुए ‘उसे’ घर से निकालने के लिए पुलिस कार्यवाही की मांग की. पापा के औफिस में भी लिख कर शिकायत दे दी कि ‘उस के’ हमारे घर में यों रहने से हम पर व हमारे बच्चों पर बुरा असर पड़ रहा है.

एक रात उस का सामान चला गया और साथ ही वह भी. पापा 2 परिवारों के मुखिया बन गए. पापा ने हमारे घर आना बिलकुल ही कम कर दिया. बस, हर महीने की पहली तारीख को आते और घर में अपनी तनख्वाह छोड़ जाते. किसी बच्चे के बारे में न पूछते.

मां ने तलाक की अर्जी लगा दी तो पापा हम से बिलकुल ही दूर हो गए. हम बच्चों की हालत बहुत खराब हो गई थी. मां हमेशा गुमसुम रहने लगी थीं. अपनी सेहत का खयाल न रखतीं. ढंग के कपड़े न पहनतीं. न कहीं जातीं और न ही हमें ले कर निकलतीं.

हमारी पढ़ाईलिखाई के खर्च बढ़ते जा रहे थे. पापा खर्च उठा रहे थे मगर मां बहुत बार हमें बिना कारण डांटतीं, हम पर पाबंदियां लगातीं.

मां अपने आत्मत्याग से हमें ब्लैकमेल करतीं. हमें वही पता होता जो वे हमें बतातीं. वे हमें हर वक्त बतातीं कि कैसे अपना पेट काटकाट कर उन्होंने हमें शिक्षा दी. कभीकभी वही बातें बारबार सुनसुन कर हमें चिढ़ आ जाती. हमें पैदा करने या महंगे स्कूलों में भेजने का आग्रह हम बच्चों ने तो नहीं किया था.

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हम नहीं जानते थे कि जो कुछ वे कर रही थीं या पति के साथ जैसे उन का समीकरण बिगड़ रहा था उस में हम लोगों की कोई भूमिका थी भी या नहीं. हां, इस का असर हम पर पड़ रहा था. वे हमारे लिए जो कर रही थीं उस के पीछे उन का अपना निजी उद्देश्य भी तो था. पापा ने तो आसानी से पैसे के दम पर हम से पल्ला झाड़ लिया था मगर मां कई बार गुस्से में बिफर कर कहतीं, ‘तुम न होते तो मैं फिर शादी कर लेती या फिर अपने मायके में जा कर शान से रहती. हमारी खातिर मां के आत्महत्या और बलि का बकरा बनने का विचार हमें उन के प्रति कृतज्ञता नहीं बल्कि भ्रम और अपराधबोध से भर देता था.

हम मां की आधीअधूरी रह गई आकांक्षाओं की पूर्ति के साधनमात्र रह गए थे. हम चाहते थे कि मां हर हालत में खुश रहें मगर वे उदास थीं, वंचिता थीं. और हमारे खयाल में यह सब हमारी गलती के कारण ही था.

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