क्लब : भाग 3

2 सादी वरदी में पुलिस वाले एक घनी झाड़ी के पीछे से अचानक उन के सामने प्रकट हुए और शिकारी की नजरों से घूरते हुए पास आ गए.

‘‘शर्म नहीं आती तुम दोनों को सार्वजनिक स्थल पर अश्लील हरकतें करते हुए. समाज में गंदगी फैलाने के लिए तुम जैसे लोगों का मुंह काला कर के सड़कों पर घुमाना चाहिए,’’ लंबे कद का पुलिस वाला नवीन को खा जाने वाली नजरों से घूर रहा था.

‘‘बेकार में हमें तंग मत करो,’’ नवीन ने अपने डर को छिपाने का प्रयास करते हुए तेज स्वर में कहा, ‘‘हम कोई गलत हरकत नहीं कर रहे थे.’’

ये भी पढ़ें- हरिराम : शशांक को किसने सही राह दिखाई

‘‘अब थाने चल कर सफाई देना,’’ दूसरे पुलिस वाले ने उन्हें फौरन धमकी दे डाली.

‘‘मैं पुलिस स्टेशन बिलकुल नहीं जाऊंगी,’’ अर्चना एकदम से रोंआसी हो उठी.

‘‘यह इस की पत्नी नहीं हो सकती,’’ लंबे कद का पुलिस वाला अपने साथी से बोला.

‘‘ऐसा क्यों कह रहे हैं, सर?’’ उस के साथी ने उत्सुकता दर्शाई.

‘‘अरे, अपनी बीवी के साथ कौन इतने जोश से गले मिलने की कोशिश करता है?’’

‘‘इस का मतलब यह किसी और की बीवी के साथ ऐश करने यहां आया है. गुड, हमारा केस इस कारण मजबूत बनेगा, सर.’’

‘‘नवीन, कुछ करो, प्लीज,’’ अर्चना के चेहरे पर हवाइयां उड़ रही थीं.

‘‘देखिए, आप दोनों को जबरदस्त गलतफहमी हुई है. हम कोई अश्लील हरकत…’’

‘‘कर ही नहीं सकते क्योंकि इन के बीच गलत रिश्ता है ही नहीं मिस्टर पुलिसमैन,’’ अचानक झाड़ी के पीछे से निकल कर उन का एक और सहयोगी मनोज उन के सामने आ गया.

उस के साथ विकास भी था. इन्हें देख कर पुलिस वाले ज्यादा सतर्क  और गंभीर से नजर आने लगे.

‘‘आप इन दोनों को जानते हैं?’’ लंबे पुलिस वाले ने सख्त स्वर में सवाल किया.

‘‘जानते भी हैं और इन के साथ भी हैं. यह हैं हमारी अर्चना दीदी,’’ विकास ने परिचय दिया.

‘‘और यह साहब?’’ उस ने नवीन की तरफ उंगली उठाई.

‘‘यह हमारे नवीन भैया हैं, क्योंकि उम्र में सब से बड़े हैं. अब आप ही बताइए कि कहीं भाईबहन अश्लील हरकत…छी, छी, छी,’’ विकास ने बुरी सी शक्ल बना कर दोनों पुलिस वालों को शर्मिंदा करने का प्रयास किया.

‘‘अगर ये भाईबहन हैं तो यह इसे गले लगाने की क्यों कोशिश कर रहा था?’’ दूसरे  पुलिस वाले ने अपने माथे पर बल डाल कर प्रश्न किया.

‘‘जवाब दीजिए, नवीन भाई साहब,’’ मनोज ने उसे ‘हिंट’ देने की कोशिश की, ‘‘अर्चना दीदी आजकल जीजाजी की सेहत के कारण चिंतित चल रही हैं. कहीं आप उन्हें हौसला बंधाने को तो गले से नहीं लगा रहे थे?’’

‘‘बिलकुल, बिलकुल, यही बात है,’’ नवीन अपनी सफाई देते हुए उत्तेजित सा हो उठा, ‘‘मेजर साहब, यानी कि मेरे जीजा की तबीयत ठीक नहीं चल रही है. इसलिए यह दुखी थी और मैं इसे सांत्वना…’’

‘‘क्या आप के पति फौज में मेजर हैं?’’ लंबे पुलिस वाले ने नवीन को नजरअंदाज कर अर्चना से अचानक अपना लहजा बदल कर बड़े सम्मानित ढंग से पूछा.

‘‘जी, हां,’’ अर्चना ने संक्षिप्त सा जवाब दिया.

‘‘यह आप की बहन हैं?’’ दूसरे ने नवीन से पूछा.

‘‘जी, हां.’’

‘‘असली बहन हैं?’’

‘‘जी, नहीं. ये आफिस वाली बहन हैं,’’ मनोज बीच में बोल पड़ा.

‘‘क्या मतलब?’’

‘‘मतलब यह कि  हम सब एक आफिस में साथसाथ काम करते हैं और वहां सब के बीच भाईबहन का रिश्ता है.’’

‘‘आप को विश्वास नहीं हो रहा है तो नवीन भैया से पूछ लीजिए,’’ विकास बोला था.

दोनों पुलिस वालों ने नवीन को पैनी निगाहों से घूरा तो उस ने फौरन हकलाते हुए कहा, ‘‘हांहां, हम सब वहां भाईबहन की तरह प्यार से रहते हैं.’’

ये भी पढ़ें- लाइकेन : कहानी गीता की

‘‘आप को परेशान किया इसलिए माफी चाहते हैं, मैडम,’’ लंबे कद के पुलिस वाले ने अर्चना से क्षमा मांगी और अपने साथी के साथ वहां से चला गया.

जहां वे बैठे थे वहां से सड़क नजर आती थी. वहां खड़ी एक सफेद रंग की कार में बैठे ड्राइवर ने अचानक जोरजोर से हार्न बजाना शुरू कर दिया.

‘‘मुझे वह बुला रहे हैं,’’ ऐसी सूचना दे कर अर्चना अचानक उठ खड़ी हुई.

‘‘कौन बुला रहा है?’’ नवीन ने चौंकते हुए पूछा.

‘‘थैंक यू, नवीन भैया, लंच और फिल्म दिखाने के लिए बहुतबहुत धन्यवाद,’’ उस के सवाल का कोई जवाब दिए बिना अर्चना उस सफेद कार की तरफ चल पड़ी.

‘‘नवीन भैया,’’ मनोज ने ये 2 शब्द मुंह से निकाले और अचानक ठहाका मार कर हंसने लगा.

‘‘सर, वैलकम टू दी अर्चना दीदी क्लब,’’ विकास ने भी अपने सहयोगी का हंसने में साथ दिया.

‘‘देखो, ये बात किसी को आफिस में मत बताना,’’ अपने गुस्से को पी कर नवीन ने उन दोनों से प्रार्थना की.

दोनों ने मुंह पर उंगली रख कर उन्हें अपने खामोश रहने के प्रति आश्वस्त किया, पर वे दोनों अपनी हंसी रोकने में असफल रहे.

नवीन ने जब कार के ड्राइवर को बाहर निकलते देखा तो जोर से चौंका. ड्राइवर वही बड़ीबड़ी मूंछों वाला शख्स था जिसे उन्होंने सिनेमा हाल के बाहर अर्चना को घूरते हुए देखा था और जो अंदर हाल में उस की बगल में बैठा था.

‘‘यह कौन है?’’ नवीन ने उलझन भरे स्वर में पूछा.

‘‘यह मेजर साहब हैं…अर्चना के पति,’’ विकास ने जवाब दिया.

‘‘पर…पर अर्चना ने मुझे सच क्यों नहीं बताया?’’

‘‘सर, हमें भी नहीं बताया था और हम बन गए अर्चना दीदी क्लब के पहले 2 सदस्य. अपने फौजी जवानों की मदद से…होटल व सिनेमा हाल के मालिक से उन की दोस्ती है और उन दोनों की मदद से मेजर साहब अपनी छुट्टियों में अर्चना दीदी को तंग करने वाले हमारेतुम्हारे जैसे किसी रोमियो को ‘अर्चना दीदी क्लब’ का सदस्य बनवा जाते हैं.’’

‘‘और ये दोनों पुलिस वाले नकली थे?’’

‘‘नहीं, सर, ये मिलिटरी पुलिस के लोग थे.’’

‘‘किसी को यों बेवकूफ बनाने का तरीका बिलकुल गलत है,’’ नवीन अपनी कमीज के टूटे बटनों को छू कर उस घटना को याद कर रहा था जब 2 युवकों ने, जो यकीनन फौजी सिपाही थे, उस पर हाथ उठाया था.

‘‘सर, आप के साथ जो गुस्ताखी हुई है, यह उस गुस्ताखी की सजा है जो आप ने यकीनन अर्चना दीदी के साथ की होगी. वैसे मेजर साहब दिल के अच्छे इनसान हैं और उन का एक संदेशा है आप के लिए.’’

‘‘क्या संदेशा है?’’

‘‘आर्मी क्लब में आप सपरिवार उन के डिनर पर मेहमान बन सकते हैं. आज वह दोनों पारिवारिक मित्र हैं और आप  चाहें तो उसी श्रेणी में शामिल हो सकते हैं.’’

‘‘सर, आप को क्लब जरूर आना चाहिए. अपनी भूल को सुधारने व क्षमा मांगने का यह अच्छा मौका साबित होगा,’’ बहुत देर से खामोश मनोज ने नवीन को सलाह दी.

ये भी पढ़ें- राज को राज रहने दो : लालच बुरी बला है

कुछ पलों तक नवीन खामोश रह कर सोचविचार में डूबे रहे. फिर अचानक उन्होंने अपने कंधे उचकाए और मुसकरा पडे़.

‘‘दोस्तो, हम ‘अर्चना दीदी क्लब’ के सदस्यों को मिलजुल कर रहना ही चाहिए. मैं सपरिवार क्लब में पहुंचूंगा.’’

नवीन की इस घोषणा को सुन कर विकास और मनोज कुछ हैरान हुए और फिर उन तीनों के सम्मिलित ठहाके से पार्क का वह कोना गूंज उठा.

क्लब : भाग 1

नए सहायक प्रबंधक नवीन कौशिक को उस शाम विश्वास हो गया कि अर्चना नाम की सुंदर चिडि़या जल्दी ही पूरी तरह उस के जाल में फंस जाएगी.

सिर्फ महीने भर पहले ही नवीन ने इस आफिस में अपना कार्यभार संभाला था. खूबसूरत, स्मार्ट और सब से खुल कर बातें करने वाली अर्चना ने पहली मुलाकात में ही उस के दिल की धड़कनें बढ़ा दी थीं.

जरा सी कोशिश कर के नवीन ने अर्चना के बारे में अच्छीखासी जानकारी हासिल कर ली.

बड़े बाबू रामसहायजी ने उसे बताया, ‘‘सर, अर्चना के पति मेजर खन्ना आजकल जम्मूकश्मीर में पोस्टेड हैं. अपने 5 वर्ष के बेटे को ले कर वह यहां अपने सासससुर के साथ रहती हैं. सास के पैरों को लकवा मारा हुआ है. पूरे तनमन से सेवा करती हैं अर्चना अपने सासससुर की.’’

ये भी पढ़ें- अपनी खूबी ले डूबी : संतोष के साथ क्या हुआ

बड़े बाबू के कक्ष से बाहर जाने के बाद नवीन ने मन ही मन अर्चना से सहानुभूति जाहिर की कि मन की खुशी और सुखशांति के लिए जवान औरत की असली जरूरत एक पुरुष से मिलने वाला प्यार है. मेजर साहब से दूर रह कर तुम सासससुर की सेवा में सारी ऊर्जा नहीं लगाओ तो पागल नहीं हो जाओगी, अर्चना डार्लिंग.

करीब 30 साल की उम्र वाली अर्चना को मनोज और विकास के अलावा सभी सहयोगी नाम से पुकारते थे. वे दोनों उन्हें ‘अर्चना दीदी’ क्यों कहते हैं, इस सवाल को उन से नवीन ने एक दिन भोजनावकाश में पूछ ही लिया.

‘‘सर, वह हमारी कोई रिश्तेदार नहीं है. बस, मजबूरी में उसे बहन बनाना पड़ा,’’ विकास ने सड़ा सा मुंह बना कर जवाब दिया.

‘‘कैसी मजबूरी पैदा हो गई थी?’’ नवीन की उत्सुकता फौरन जागी.

विकास के जवाब देने से पहले ही मनोज बोला, ‘‘सर, इनसानियत के नाते मजबूर हो कर उसे बहन कहा. उस का कोई असली भाई नहीं है. उस का दिल रखने को काफी लोगों की भीड़ के सामने हम ने उसे बहन बना लिया एक दिन.’’

‘‘आप उस के चक्कर में मत पडि़एगा, सर,’’ विकास ने अचानक उसे बिन मांगी सलाह दी, ‘‘किसी सुंदर औरत का अनिच्छा से भाई बनना मुंह का स्वाद खराब कर देता है.’’

‘‘वैसे मेरा कोई खास इंटरेस्ट नहीं है अर्चना में, पर पति से दूर रह रही इस तितली का किसी से तो चक्कर चल ही रहा होगा?’’ नवीन ने अपने मन को बेचैन करने वाला सब से महत्त्वपूर्ण सवाल विकास से पूछ लिया.

‘‘फिलहाल तो किसी चक्कर की खबर नहीं उड़ रही है, सर.’’

‘‘फिलहाल से क्या मतलब है तुम्हारा?’’

‘‘सर, अर्चना पर दोचार महीने के बाद कोई न कोई फिदा होता ही रहता है, पर यह चक्कर ज्यादा दिन चलता नहीं.’’

‘‘क्यों? मुझे तो अर्चना अच्छी- खासी ‘फ्लर्ट’ नजर आती है.’’

‘‘सर, जैसे हर चमकने वाली चीज सोना नहीं होती वैसे ही शायद यह ‘फ्लर्ट’ चरित्र की कमजोरी न हो.’’

‘‘छोड़ो, हम क्यों उस के चरित्र पर चर्चा कर के अपना समय खराब करें,’’ और इसी के साथ नवीन ने वार्त्तालाप का विषय बदल दिया था.

अर्चना का कोई प्रेमी नहीं है, इस जानकारी ने नवीन के अंदर नया उत्साह भर दिया और वह डबल जोश के साथ उस पर लाइन मारने लगा.

‘‘सर, हम सब यहां आफिस में काम करने के लिए आते हैं और इसी की हमें तनख्वाह मिलती है. हंसीमजाक भी आपस में चलता रहना चाहिए, पर शालीनता की सीमाओं के भीतर,’’ अर्चना ने गंभीरता से नवीन को कई बार इस तरह से समझाने का प्रयास किया, पर कोई फायदा नहीं हुआ.

‘‘अपने दिल को काबू में रखना अब मेरे लिए आसान नहीं है,’’ ऐसे संवाद बोल कर नवीन ने उस को अपने जाल में फंसाने की कोशिश लगातार जारी रखी.

फिर उस शाम नवीन ने जोखिम उठा कर अपने आफिस के कमरे के एकांत में अचानक पीछे से अर्चना को अपनी बांहों में भर लिया.

नवीन की इस आकस्मिक हरक त से एक बार को तो अर्चना का पूरा शरीर अकड़ सा गया. उस ने अपनी गरदन घुमा कर नवीन के चेहरे को घूरा.

‘‘मैं तुम से दूर नहीं रह सकता हूं…तुम बहुत प्यारी, बहुत सुंदर हो,’’ अपने मन की घबराहट को नियंत्रित रखने के लिए नवीन ने रोमांटिक लहजे में कहा.

‘‘सर, प्लीज रिलेक्स,’’ अर्चना अचानक मुसकरा उठी, ‘‘आप इतने समझदार हैं, पर यह नहीं समझते कि फूलों का आनंद जोरजबरदस्ती से लेना सही नहीं.’’

‘‘मैं क्या करूं, डियर? यह दिल है कि मानता नहीं,’’ नवीन का दिल बल्लियों उछल रहा था.

‘‘अपने दिल को समझाइए, सर,’’ नवीन से अलग हो कर अर्चना ने उस का हाथ पकड़ा और उसे छेड़ती हुई बोली, ‘‘बिना अच्छा दोस्त बने प्रेमी बनने के सपने देखना सही नहीं है, सर.’’

ये भी पढ़ें- समर्पण : बेमेल प्रेम संबंधों पर एक बेहतरीन कहानी

‘‘अगर ऐसी बात है, तो हम अच्छे दोस्त बन जाते हैं.’’

‘‘तो बनिए न,’’ अर्चना इतरा उठी.

‘‘कैसे?’’

‘‘यह भी मैं ही बताऊं?’’

‘‘हां, तुम्हारी शागिर्दी करूंगा तो फायदे में रहूंगा.’’

‘‘कुछ उपहार दीजिए, कहीं घुमाने ले चलिए, कोई फिल्म, कहीं लंच या डिनर हो…चांदनी रात हो, हाथ में हाथ हो, फूलों भरा पार्क हो…सर, पे्रमी हृदय को प्यार की अभिव्यक्ति के लिए कोई मौकों की कमी है?’’

‘‘बिलकुल नहीं है. अभी तैयार करते हैं, कल इतवार को बिलकुल मौजमस्ती से गुजारने का कार्यक्रम.’’

‘‘ओके,’’ अर्चना ने नवीन को उस की कुरसी पर बिठाया और फिर मेज के दूसरी तरफ पड़ी कुरसी पर बैठ कर बड़ी उत्सुकता दर्शाते हुए उस के बोलने का इंतजार आंखें फैला कर करने लगी.

रविवार साथसाथ घूम कर बिताने के उन के कार्यक्रम की शुरुआत फिल्म देखने से हुई. सिनेमाघर के सामने दोनों 11 बजे मिले.

नवीन अच्छी तरह तैयार हो कर आया था. महंगे परफ्यूम की सुगंध से उस का पूरा बदन महक रहा था.

‘‘सर, मुझे यह सोचसोच कर डर लग रहा है कि कहीं कोई आप के साथ घूमने की खबर मेरे सासससुर तक न पहुंचा दे,’’ अर्चना ने घबराए अंदाज में बात की शुरुआत की, ‘‘कल को कुछ गड़बड़ हुई तो आप ही संभालना.’’

‘‘कैसी गड़बड़ होने से डर रही हो तुम?’’

‘‘क ल को भेद खुला और मेरे पति ने मुझे घर से बाहर कर दिया तो मैं आप के घर आ जाऊंगी और आप की श्रीमती जी घर से बाहर होंगी.’’

ये भी पढ़ें- राज को राज रहने दो : लालच बुरी बला है

‘‘मुझे मंजूर है, डार्लिंग.’’

‘‘इतनी हिम्मत है जनाब में?’’

‘‘बिलकुल है.’’

‘‘तब उस मूंछों वाले को हड़का कर आओ जो मुझे इतनी देर से घूरे जा रहा है.’’

जानें आगे क्या हुआ कहानी के अगले भाग में…

क्लब : भाग 2

नवीन ने दाईं तरफ घूम कर मूंछों वाले लंबेचौड़े पुरुष की तरफ देखा. वह वास्तव में अर्चना को घूर रहा था. नवीन ने माथे पर बल डाल कर उस की तरफ गुस्से से देखा, तो उस व्यक्ति ने अपनी नजरें घुमा लीं.

‘‘लो, डरा दिया उसे,’’ नवीन ने नाटकीय अंदाज में अपनी छाती फुलाई.

‘‘थैंक यू. चलो, अंदर चलें.’’

अर्चना ने हाल में प्रवेश करने के लिए कदम बढ़ाए ही थे कि एक युवक से टकरा गई.

उस युवक के साथी ने अर्चना का मजाक उड़ाते हुए कहा, ‘‘जमाना बदल गया है, दोस्त. आज की लड़कियां खुलेआम लड़कों को टक्कर मारने लगी हैं.’’

ये भी पढ़ें- राज को राज रहने दो : लालच बुरी बला है

‘‘शटअप,’’ अर्चना ने नाराज हो कर उसे डांट दिया.

‘‘इतनी खूबसूरत आंखों के होते हुए देख कर क्यों नहीं चल रही हो तुम?’’ पहले वाले युवक ने अर्चना का मजाक उड़ाते हुए सवाल किया.

‘‘शटअप, यू बास्टर्ड, लेडीज से बात करने की तमीज…’’

नवीन अपना वाक्य पूरा भी नहीं कर पाया था कि युवक ने फौरन उस का कालर पकड़ कर झकझोरते हुए पूछा, ‘‘क्या है, मुझे गाली क्यों दी तू ने?’’

‘‘मेरा कालर छोड़ो,’’ नवीन को गुस्सा आ गया.

‘‘नहीं छोडं़ूगा. पहले बता कि गाली क्यों दी?’’

नवीन ने झटके से उस युवक से अपना कालर छुड़ाया तो उस की शर्ट के बटन टूट गए. उस का उस युवक पर गुस्सा बढ़ा तो हाथ छोड़ने की गलती कर बैठा.

इस से पहले कि भीड़ व अर्चना उन में बीचबचाव कर पाते, उन दोनों युवकों ने नवीन पर 8-10 हाथ जड़ दिए.

खिसियाया नवीन पुलिस बुलाना चाहता था पर अर्चना उसे खींच कर हाल के अंदर ले गई.

कोने वाली सीट पर अर्चना के साथ बैठ कर नवीन का मूड जल्दी ही ठीक हो गया. उस ने दोचार रोमांटिक संवाद बोले, फिर उस के कंधे से सटा और झटके से अर्चना का हाथ पकड़ कर उसे चूम लिया.

‘‘भाइयो, आज तो डबल मजा आएगा. एक टिकट में 2-2 फिल्में देखेंगे. एक दूर स्क्रीन पर और दूसरी बिलकुल सामने. पहली एक्शन और दूसरी सेक्स और रोमांस से भरपूर होगी,’’ बिलकुल पीछे वाली सीट से एक युवक की आवाज उभरी और उस के 3 दोस्त ठहाका मार कर हंसे.

अर्चना झटके से नवीन की दूसरी दिशा में झुक कर बैठ गई. नवीन ने पीछे घूम कर देखा तो चारों युवक एकदूसरे की तरफ देख कर हंस रहे थे. उन में 2 युवक वही थे जिन के साथ उस का बाहर झगड़ा हुआ था.

नवीन की बगल में 1 मिनट पहले आ कर बैठे आदमी ने उसे बिन मांगी सलाह दी, ‘‘जनाब, आजकल का यूथ बदतमीज हो गया है. उन से उलझना मत. अपनी पत्नी के साथ घर जा कर प्यार मोहब्बत की बातें कर लेना.’’

नवीन ने गरदन मोड़ कर देखा तो पाया कि बाहर अर्चना को घूरने वाला बड़ीबड़ी मूंछों वाला व्यक्ति ही उस की बगल में बैठा था.

नवीन कोई प्रतिक्रिया दर्शाता, उस से पहले ही अर्चना फुसफुसा कर बोली, ‘‘सर, इस हाल का मैनेजर मेरे पति का परिचित है. मैं उस के सामने नहीं जाना चाहती हूं. आप समझदारी दिखाते हुए शांत हो कर बैठें.’’

नवीन मन मसोस कर सीधा बना बैठा रहा. वह जरा भी हिलताडुलता तो पीछे से फौरन आवाज आती, ‘‘अब चालू होगी दूसरी फिल्म.’’

पिक्चर हाल के अंधकार का तनिक भी फायदा न उठा सकने और 4-5 सौ रुपए यों ही बेकार में खर्च करने का अफसोस मन में लिए नवीन 3 घंटे बाद अर्चना के साथ पिक्चर हाल से बाहर आ गया.

अर्चना ने कुछ खाने की फरमाइश की तो फिर से उत्साह दर्शाते हुए नवीन उसे उस के मनपसंद होटल में ले आया.

दुर्भाग्य ने यहां भी नवीन का साथ नहीं छोड़ा और अर्चना के साथ जी भर कर दिल की बातें करने का मौका उसे नहीं मिला.

हुआ यों कि वेटर उन के लिए जो डोसासांभर ले कर आया उस में अर्चना की सांभर वाली कटोरी में लंबा सा बाल निकल आया.

‘‘आज इस होटल के मालिक की खटिया खड़ी कर दूंगी मैं,’’ नवीन को बाल दिखाते हुए अर्चना की आंखों से गुस्से की चिंगारियां उठ रही थीं.

ये भी पढ़ें- लाइकेन : कहानी गीता की

‘‘तुम जा कहां रही हो?’’ उसे कुरसी छोड़ कर उठते देख नवीन परेशान हो उठा.

‘‘मालिक से शिकायत करने…और कहां?’’ अर्चना झटके से उठी तो एक और लफड़ा हो गया.

मेज को धक्का लगा और उस पर रखा खाने का सामान व प्लेटेंगिलास फर्श पर गिर कर टूट गए.

3 वेटर उन की मेज की तरफ बढ़े और अर्चना मालिक के कक्ष की तरफ. हाल में बैठे दूसरे लोगों के ध्यान का केंद्र वही बनी हुई थी.

अर्चना ने होटल के मालिक को खूब खरीखोटी सुनाई. उसे बोलने का मौका ही नहीं दिया उस ने. वह बेचारा मिमियाता सा ‘मैडम, मैडम’ से आगे कोई सफाई नहीं दे पाया.

अर्चना के चीखनेचिल्लाने व धमकियां देने से परेशान होटल मालिक ने अपने सामने दोबारा उन की मेज लगवाई. डोसासांभर इस बार ‘आन दी हाउस’ उन के सामने पेश किया गया, पर अर्चना का मूड ज्यादा नहीं सुधरा. वह वेटरों को लगातार गुस्से से घूरती रही. नवीन ने उसे समझाने की कोशिश की, तो वह भी अर्चना के गुस्से का शिकार हो गया.

जब वे दोनों होटल के बाहर आए तो नवीन ने दबी जबान में कुछ देर बाजार में घूमने की बात कही. अर्चना ने साफ मना कर दिया.

‘‘कुछ देर सामने सुंदर पार्क में चल कर बैठते हैं. मेरा दिमाग शायद वहीं बैठ कर ठंडा होगा,’’ अर्चना के इस प्रस्ताव का नवीन ने मुसकरा कर स्वागत किया.

‘‘आज न जाने किस मनहूस का मैं ने सुबह मुंह देखा, जो इतना अच्छा दिन खराब गुजर रहा है? तुम जैसी सुंदरी के साथ पार्क में घूमना मेरे लिए तो गर्व की बात है.’’

नवीन की बात सुन कर अर्चना मुसकराई, तो उस की खुशी का ठिकाना नहीं रहा.

पार्क काफी बड़ा था. अर्चना की मांग पर वे दोनों बातें करते हुए उस का चक्कर लगाने लगे.

पार्क के पीछे का हिस्सा सुनसान व ज्यादा घने पेड़पौधों वाला था. यहीं एकांत में पड़ी बैंच पर अर्चना बैठ गई तो नवीन भी उस की बगल में बैठ गया.

बातें करते करते अचानक नवीन ने अर्चना को कंधे से पकड़ा और अपने नजदीक कर अपनी बांहों में भरने की कोशिश की.

ये भी पढ़ें- हरिराम : शशांक को किसने सही राह दिखाई

अर्चना ने अपने को छुड़ाने की कोई खास कोशिश नहीं की, पर नवीन को फौरन ही अपनी बांहों के घेरे से उसे मुक्त करने को मजबूर होना पड़ा.

जानें आगे क्या हुआ कहानी के अगले भाग में…

क्लब : मजनू बने बौस को सिखाया सबक

लाइकेन : कहानी गीता की

लाइकेन : भाग 3

2 दिनों तक मैं दौड़ती रही. पुलिस कुछ नहीं सुन रही थी. अंत में मालिक ही छुड़वा कर लाए. उसे भी बगीचे की सफाई, घर की रखवाली के लिए रख लिया. जो मनुष्य अपनी बीवीबच्चों का, खुद अपना भी ध्यान नहीं रख सकता तो घर की क्या रखवाली करता. आंगन की तरफ पिछवाड़े में एक कमरा था, वहीं पड़ा रहता. बाद में हम लोग भी थोड़ीबहुत गृहस्थी के सामान के साथ वहीं रहने लगे.

‘‘दोपहर में बच्चे स्कूल गए हुए थे. सब काम निबटा कर सोचा कि थोड़ा सुस्ता लूं. कमरे में घुसी तो देखती हूं कि मेरा आदमी मेरी एकमात्र अमानत मेरे बक्से का ताला तोड़ कर सारा सामान इधरउधर कर के कुछ ढूंढ़ रहा है. बेटी कितने दिनों से पायल के लिए जिद कर रही थी, मैं ने जोड़जाड़ कर 1 हजार रुपए जमा किए थे, उसे रूमाल में बांध कर बक्से में रखते हुए उस ने शायद देख लिया था.

ये भी पढ़ें- स्वयंसिद्धा : दादी ने कैसे चुनी नई राह

‘‘बेटी के शौक पर पानी फिरते देख मैं जोर से चिल्लाई, क्या खोज रहे हो? वह बोला, ‘तुम से मतलब?’

‘‘‘मेरा बक्सा है, सामान मेरा है, तब मतलब किस को होगा,’ मैं ने कहा.

‘‘‘ठहर, अभी बतलाता हूं किस का सामान है, हक जताती है,’ एक भद्दी गाली देते हुए वह मुझ पर झपटा.

‘‘मैं पलट कर भागने के लिए मुड़ी ही थी कि मेरे कान की बाली उस की उंगलियों में फंस गई. उस ने जोर से खींचा. बाली उस के हाथों में चली गई और मेरे कान से खून बहने लगा.

‘‘शोर सुन कर मालिक आ गए थे. उन्होंने उसे धक्का दे कर अलग किया. मेरी हालत देख कर उन्होंने कहा, ‘इस आदमी के साथ कैसे रह लेती हो.’ बक्से से रुपए और मेरी सोने की एक बाली ले कर वह भाग गया.

‘‘20 दिनों के बाद वह लौटा. कुछ दिनों तक तो गेट पर बैठा रहता था, बाद में मालिक के पैर पकड़ कर गिड़गिड़ाने लगा. रहने की अनुमति तो उन्होंने दे दी लेकिन एक शर्त रखी कि मेरे ऊपर कभी हाथ उस ने उठाया तो वे उसे पुलिस को सौंप देंगे. वह तैयार हो गया लेकिन उस दिन के बाद से मैं ने अपने कमरे में जाना छोड़ दिया. फिर कब और कैसे मालिक के कमरे में मैं रहने लगी, पता ही नहीं चला.

‘‘दोनों को सहारे की जरूरत थी. पति से मैं ऊब चुकी थी. उस ने मार, तिरस्कार, दुख के सिवा मुझे दिया ही क्या था. आंटी, पतिपत्नी का संबंध तो समाज बनाता है. यह कोई खून का संबंध तो होता नहीं. अगर पति सातों वचनों में से एक भी नहीं निभाए तो क्या केवल पत्नी की ही जिम्मेदारी है कि उस के दिए सिंदूर को लगाए जीवनभर मरती रहे. पत्नी अगर कुल्टा होती है, बांझ होती है, लंगड़ी या लूली हो जाए, तो पति उसे तुरंत छोड़ देता है. फिर क्यों एक पत्नी उस की सारी यातनाओं को सहतेसहते मर जाए. औरत को भी तो जीने का हक है.

‘‘मालिक तो सच में बहुत अच्छे इंसान हैं. बच्चों के कारण ही उन्होंने शादी नहीं की. जिस ने मुझे जीवन दिया, मेरे बच्चों के मुंह में निवाला दिया, मेरे भविष्य की चिंता की, उस के प्रति मैं पूरी वफादार हूं. अब मेरा अपने आदमी के साथ कोई संबंध नहीं है.’’

‘‘आदमी कुछ नहीं कहता है?’’ मैं ने आश्चर्य से जानना चाहा.

‘‘शुरूशुरू में उस ने होहल्ला किया. अड़ोसपड़ोस वालों को जुटा लाया. लेकिन मैं शेरनी जैसी तन कर खड़ी हो गई, ‘खबरदार, मालिक को कोई कुछ बोला तो. यह मेरा पति जब पूरी रात मुझे मारता था, घर से निकाल देता था तब तुम लोग कहां थे? मेरे बच्चे भूख से छटपटाते थे, तब किसी ने उन का पेट क्यों नहीं भरा? जब मेरे साथ दुनिया वाले बदसुलूकी करते क्यों नहीं कोई मेरी रक्षा करने को आगे आया? उस वक्त तो मेरी मजबूरी का सब मजा लेते थे, खुद भी मुझे गिराने और नोचने की ताक में रहते थे. अब मुझे किसी की चिंता नहीं है. न अपने पति की, न समाज की. जिस को जो करना है, मैं निबट लूंगी सब से. मगर मालिक को बीच में मत घसीटना.’ पता नहीं कहां से मुझ में इतनी हिम्मत आ गई थी.

‘‘असल में अब मुझे मालिक का सहारा था, लगता था कुछ होगा तो वे संभाल लेंगे. पहले किस के भरोसे पर हिम्मत करती. आदमी ने भी बाद में समझौता कर लिया. कपड़ा वगैरह उसे मालिक दे देते हैं. कोई जिम्मेदारी नहीं, बैठेबिठाए खानाकपड़ा मिल रहा है स्वार्थी को. उसे यह सौदा अच्छा ही लगा.’’

बहुत ही सहजता से गीता ने अपनेआप को एक पत्नी, एक मां और रक्षिता में बांट लिया था. उस की बातें प्र्रवाहित थीं, ‘‘आंटी, औरत शादी ही इसलिए करती है कि उसे एक सुरक्षित छत, मजबूत सहारा और निश्चित भविष्य मिले. मुझे भी यही चाहिए था और कोई लालच मुझे नहीं था.

ये भी पढ़ें- अब जाने दो उसे : रिश्तों की कशमकश

‘‘एक दिन तो मालिक ने अपनी पत्नी की सारी साडि़यां, गहने वगैरह भी मुझे थमा दिए थे. उन की साडि़यां तो मैं पहनती हूं, लेकिन गहने मैं ने जिद कर के बैंक के लौकर में रखवा दिए. इन पर उन की बेटी और बहू का ही हक है. उन्होंने मुझे सहारा दिया. मुझे और कुछ नहीं चाहिए.

‘‘औरत भले ही अपनी आजादी के लिए आंदोलन करती हो, आदमी पर आरोप लगाती हो कि उस को घर में बांध कर कैद कर के रखा है लेकिन आंटी, अगर हमें एकदम खुला भी छोड़ दिया जाए तो कुछ दिन तो यह आजादी हमें अच्छी लगेगी, आकाश में उड़ने का गुमान भी होगा लेकिन बाद में थक कर हमारे पंख टूट जाएंगे, बिखर जाएंगे. औरत को एक आधार, एक सहारा चाहिए ही. उसे बंधन पसंद है, उस की आदत है, उस का स्वभाव है यह.’’

मैं अवाक नारी सशक्तीकरण की धज्जियां उड़ाती उस की बातें सुन रही थी. अगर ईमानदारी से हर स्त्री अपने मन को टटोले तो क्या गीता गलत कह रही थी? यह एक महिला के सहज उदगार की व्याख्या थी. शायद हर स्त्री के भीतर दिल एकसा ही धड़कता है, उस की भावनाएं एकजैसी होती हैं. शिक्षा से भले ही उन के विचार बदल जाएं, भावनाएं नहीं बदलतीं. समाज के खोखले मापदंड के हिसाब से गीता की सोच, उस का चरित्र भले ही गलत हो, लेकिन मुझे तो वह किसी दृष्टिकोण से गलत नहीं लगी.

वनस्पति विज्ञान में एक पौधा होता है लाइकेन. कवक और शैवाल का मिला सत्य. उस पौधे में मौजूद कवक बाहरी आघातों से पौधे की रक्षा करता है जबकि शैवाल अपने हरे रंग के कारण प्रकाश संश्लेषण कर के पौधे को भोजन प्रदान करता है. दोनों एकदूसरे पर आश्रित, एकदूसरे से लाभान्वित. इस संबंध को सिम बायोसिस कहते हैं.

ये भी पढ़ें- संकरा : जब सूरज के सामने आया सच

गीता और मालिक का संबंध भी तो सिम बायोसिस ही है लाइकेन की तरह.

लाइकेन : भाग 2

गीता को काम करते हुए 2 महीने ही हुए थे. देवरदेवरानी बच्चों के साथ आए. सुबहसुबह हौल में पूरा परिवार इकट्ठा धमाचौकड़ी मचा रहा था, तभी गीता दाखिल हुई. देवर सोफे पर लेटे थे, हड़बड़ा कर उठ बैठे. मैं आंखों से उन्हें मना कर रही थी तब तक उन्होंने हाथ जोड़ कर उसे नमस्ते कर दिया. सब अपनी हंसी दबाए बैठे रहे. बाद में तो बच्चों ने जम कर उन की खिंचाई की.

ऐसे तो गीता पर दोनों वक्त खाना बनाने के साथसाथ सुबह नाश्ते की भी जिम्मेदारी थी, लेकिन इन्हें साढ़े 8 बजे निकलना होता और दीपू की स्कूल बस तो 8 बजे ही आ जाती थी. इसी कारण सुबह मुझे रसोई में घुसना पड़ता. गीता ने सब्जी काट कर मुझे पकड़ाई और आटा निकालने गई तब तक मैं ने एकतरफ सब्जी छौंकी, दूसरी तरफ चाय चढ़ा दी.

ये भी पढ़ें- अपने जैसे लोग : नीरज के मन में कैसी थी शंका

‘‘आज फिर उस ने मारपीट की,’’ गीता बोली.

‘‘बच्चों ने?’’ मैं ने सहजता से पूछा.

‘‘नहीं, मेरे आदमी ने, पुलिस पकड़ कर ले गई.’’

‘‘क्या, अब क्या होगा?’’ मेरे स्वर में चिेंता थी.

‘‘होगा क्या, मालिक जाएंगे छुड़ाने. साल में 3 बार का यही धंधा है.’’ गूंधे आटे को मुट्ठी से और चोट दे कर मुलायम करती हुई उस ने बेफिक्री से कहा.

‘‘मालिक कौन?’’

‘‘वही, जिन के यहां रहती हूं.’’

‘‘किराए में रहती हो?’’

‘‘हां, यही समझ लीजिए. उन के दोनों बच्चों की देखभाल, घर का काम, खानाकपड़ा सब करती हूं.’’

‘‘तब उन की बीवी क्या करती है?’’ मैं ने चिढ़ते हुए पूछा.

‘‘नहीं है. 5 साल पहले मर गई. शुरूशुरू में गांव से बूढ़ी मां आई थी, मन नहीं लगा. तब से मैं ही संभाल रही हूं.’’

हमें दिल्ली आए 2 साल हो गए थे. बेटे का नामांकन एनआईटी वारंगल में हो गया था. बेटी यहीं एमकौम कर रही थी. हम लोगों को गीता की आदत सी हो गई थी, धीरेधीरे उस ने घर की पूरी जिम्मेदारी जो संभाल ली थी. उस की बेटी बड़ी हो गई थी, वह अपने घर का काम कर लेती थी.

जीवन में पहली बार कामवाली का ऐसा सुख मिला था. मैं अपने एनजीओ को पूरा समय दे पा रही थी.

रात का खाना निबटा कर किचन समेटा और सोने ही जा रही थी कि फोन आया, ‘‘आंटी, 20-30 हजार रुपए चाहिए.’’

‘‘30 हजार रुपए?’’ मैं ने चौंकते हुए पूछा. कम से कम 20 हजार रुपए तो देना ही होगा. प्लीज आंटी, बहुत जरूरी हैं. मालिक को दिल का दौरा पड़ा है. उन को अस्पताल में भरती करवा कर आ रही हूं. एक सप्ताह के  अंदर औपरेशन होगा.

‘‘ठीक है, देखती हूं,’’ कह कर मैं ने फोन काटा. राकेश से बिना पूछे मैं उसे आश्वस्त नहीं कर सकती थी. हालांकि 5 हजार के हिसाब से 3-4 महीने में ही पैसा चुकता कर देगी. पहले भी एकदो बार वह 4-5 हजार रुपए ले गई थी. कभी बच्चे के ऐडमिशन के लिए या किसी शादीब्याह में जाने के लिए. लेकिन 4-5 दिनों के अंदर ही लौटा जाती थी. राकेश पहले तो 20 हजार रुपए पर थोड़ा झिझके, मेरे समझाने पर 10 हजार रुपए देने को तैयार हुए. अपने पैसों में से छिपा कर 10 हजार रुपए मिला कर मैं ने दूसरे दिन उसे बुलवा कर पूरे 20 हजार रुपए दे दिए.

गीता तो आज पहचान में ही नहीं आ रही थी. शृंगारविहीन, कुम्हलाया चेहरा, पपड़ी पड़े होंठ, बिना कंघी किए बाल, सूजी आंखें. लगता था रातभर सोई नहीं थी. उस का ऐसा रूप पहली बार देख रही थी मैं. थोड़ा आश्चर्य भी हुआ, माना कि मकानमालिक अच्छा है, इन लोगों का खयाल भी रखता है, फिर भी है तो पराया ही. उस के लिए इतनी चिंता. उस दिन जब पति जेल गया तो यह बिलकुल सामान्य थी मानो कुछ हुआ ही न हो.

बहरहाल, 15 दिनों के लिए उस ने ही एक बाई ढूंढ़ कर लगा दी थी. मैं ने गीता को एक महीने की छुट्टी दे दी. महीनेभर बाद पुरानी गीता लौट आई. वही मुसकराता चेहरा, वही साजशृंगार.

‘‘कैसे हैं तुम्हारे मकानमालिक?’’

‘‘हां आंटी, अब ठीक हैं. कल से काम पर जाने लगे हैं. शुक्र है, सबकुछ समय रहते हो गया. मालिक के दोस्त का मैडिकल कालेज में कोई रिश्तेदार है, उस ने बहुत सहायता की वरना इतनी जल्दी औपरेशन कहां हो पाता.’’

‘‘तुम ने तो बहुत किया उस के लिए. पैसे से ले कर देखभाल, सेवासुश्रूषा तक. इतना तो अपने भी नहीं करते. उस के घर से कोई आया था?’’ न चाहते हुए भी मेरे स्वर में थोड़ा व्यंग्य आ गया था.

अचानक उस का हंसता चेहरा मुरझा गया. वह चुपचाप उठ कर अपने काम में लग गई. पोंछा लगातेलगाते मेरे पास आ कर बैठ गई, ‘‘आंटी, अब आप से क्या छिपाऊं. मैं मालिक के ही साथ रहती हूं.’’ इस बात को कहने के लिए इतनी देर में उस ने अपने को मानसिकरूप से तैयार किया था.

इन 3 सालों में इस सच का अंदाजा कुछकुछ मुझे हो ही गया था.

‘‘शादी कर ली है?’’

‘‘नहीं.’’

‘‘फिर तुम्हारा पति?’’

‘‘वो भी वहीं रहता है. मालिक की मां जब गांव चली गई, मैं ने उन का काम करना शुरू किया. पहले चौकाबरतन, फिर खाना बनाना. मैं बहुत कष्ट में थी. अच्छे खातेपीते घर की लड़की हूं. मायके में जमीनजायदाद है. पिताजी की गांव में किराने की दुकान है.

ये भी पढ़ें- मां का बटुआ : मां का फलसफा अब समझ आया

‘‘लड़का दिल्ली में नौकरी करता है. इसी बात पर शादी हो गई. 3 बच्चे हो गए. यहां आने पर असलियत पता चली. तीन कमाता तेरह पी जाता है. घर में एक पैसा भी नहीं देता. ऊपर से रात में पिटाई करता. बच्चे भूख से बिलबिलाते थे. अंत में घर के पास में ही बन रही सोसायटी में ठेकेदारी में काम करने लगी. वहां भी स्थिति अच्छी नहीं थी. पूरे 8 घंटे काम, ठेकेदार की गंदी हरकतें, भद्दी गालियां. मिस्त्री का घिनौना स्पर्श, फिर भी पैसे मिल रहे थे, बच्चे पल रहे थे.

‘‘एक दिन मेरी बेटी किसी काम से हमारे पास आई. एक मजदूर उस का हाथ पकड़ने लगा. मैं ने गुस्से में पास रखे डंडे से उस के हाथ पर जोर से मारा. हंगामा हो गया. उसी वक्त मालिक वहां से गुजर रहे थे. उन्होंने सब को डांटडपट कर भगाया. मैं लगातार रोए जा रही थी.

‘‘यहां क्यों काम करती हो?’’

‘‘क्या करूं? बच्चे खाएंगे क्या?’’

‘‘खाना बनाना आता है?’’

‘‘बचपन से तो वही करती आई हूं. करम फूट गए थे जो यहां आई.’’

‘‘कल सुबह स्कूल के बगल वाले मकान में आना, चावला मैनेजर का नाम पूछोगी, कोई भी बता देगा.’’

‘‘दूसरे दिन सुबह जो गई, तो वहीं की रह गई. पूरे दिन काम कर के रात का खाना बना कर लौट आती थी. बच्चे बगल वाले सरकारी स्कूल में जाते थे. उन्हें दिन का खाना वहां मिल जाता था. शाम को मालिक कहते कि बच्चों को यहीं बुला कर खिला दिया करो.

ये भी पढ़ें- स्वयंसिद्धा : दादी ने कैसे चुनी नई राह

‘‘उस रोज खाना बना कर मैं बरतन मांज रही थी कि बेटी दौड़ती हुई आई, ‘अम्मा, बाबू को पुलिस पकड़ कर ले गई. बिलावल के साथ मारपीट कर रहा था.’

जानें आगे क्या हुआ कहानी के अगले भाग में…

लाइकेन : भाग 1

पटना से दिल्ली की द्वारका कालोनी के इस घर में शिफ्ट हुए 8 दिन हो गए थे. घर पूरी तरह सैट हो कर चमक रहा था. लेकिन मैं अस्तव्यस्त, बेरौनक हुई जा रही थी. वजह वही जो हर तबादले के बाद झेलती आई हूं. अच्छी कामवाली मिल नहीं पा रही थी. कुछ मुझे पसंद नहीं आ रही थीं, कुछ को मेरा ‘एक घर एक बाई’ वाला फार्मूला रास नहीं आ रहा था.

‘‘नहीं जी, एक घर से कैसे पेट भरेगा? 5 जगह काम करती हूं तो 5 जगह चायनाश्ता, तीजत्योहार में कपड़े, गिफ्ट वगैरह मिलते हैं.’’

ये भी पढ़ें- हरिराम : शशांक को किसने सही राह दिखाई

‘हुंह, एक घर के काम का समय तो इन्हें एक घर से दूसरे घर जाने में ही निकल जाता है, यह उन्हें नहीं दिखता. ऊपर से 5 जगह दौड़ने में पैर घिसते हैं, थकान होती है, 5 जगह बातें सुननी पड़ती हैं, वह नहीं,’ कुढ़ती हुई मैं बुदबुदाई.

शादी के बाद जब मैं आई थी तो इन बाइयों ने उस वक्त भी मेरी नाक में दम कर रखा था. एक तो उम्र कम, फिर साफसफाई की बीमारी. वे हम से हैंडल ही नहीं हो पातीं.

‘‘आज वहां जल्दी जाना है. कल आप के यहां देर से आऊंगी. उन के यहां सामान ज्यादा है. बस, सामनेसामने पोंछा लगाना पड़ता है. आप के खाली घर में तो सफाई करने में ही थक जाती हूं. आप बरतन देखदेख कर जमवाती हैं. अरोड़ा मैम तो सोई रहती हैं, मैं सारा काम निबटा आती हूं.’’

सुनसुन कर मैं परेशान हो जाती. मैं तो अरोड़ा मैडम नहीं बन सकती. उस दिन उन के यहां गई थी. किचन का सिंक सड़ांध मार रहा था. जिस कप में चाय लाई, वह भी चिपचिपा था. मुझ से तो चाय पी ही नहीं गई.

फिर उन का भेदिये जैसा सवाल, ‘जमुना आप के यहां बरतन जमाती है? कपड़े मशीन में डालती है? शाम को किचन व हौल में पोंछा लगाती है?’ ‘हां’ बोलने पर जमुना शाम को मुंह फुलाए घुसती, ‘आप ने अरोड़ा मैडम को क्या बतलाया, अब वे भी सब काम करवाएंगी. अगर गलती से ना बोलो तब वे मैडम नाराज, ‘आप पैसा ज्यादा दे कर यहां का रेट बिगाड़ रही हैं.’

थक कर मैं ने एक अलग कामवाली रखने का निर्णय लिया. इस के लिए भले ही मुझे दोगुना या तीनगुना पैसे देने पड़े. अपने दूसरे खर्चों में मैं कटौती कर लूंगी.

इतवार की सुबह थी. सब अलसाए से सो रहे थे. मैं झाड़ू लगा रही थी कि तभी दरवाजे की घंटी बजी.

‘‘बिट्टू, दरवाजा खोलो, दूध वाला होगा.’’

साहबजादे कुनमुनाते हुए उठे और दिन होता तो मजाल था वह उठ जाए. वह तो अभी काम के ओवरलोड की वजह से मैं फुलचार्ज रहती थी. कभी भी किसी पर फट सकती थी, इसी कारण सब डरे रहते.

‘‘मम्मा, अनूप अंकल आए हैं.’’

अनूप, इन का ड्राइवर. आज इस वक्त, कहीं इन्हें आज भी तो नहीं जाना है. मेरा नाश्ता भी नहीं बना. इसी उधेड़बुन में बाहर आई.

‘‘नमस्ते मैडम, यह गीता है. काम ढूंढ़ रही है. बिहार की ही है, पास की ही बस्ती में रहती है.’’

अनूप ने ‘बिहार की ही है’ पर जोर देते हुए कहा. जैसे बिहार का नाम सुनते ही मैं किसी को भी सिरआंखों पर बैठा लूंगी.

‘‘नमस्ते आंटी,’’ आवाज सुन कर मैं ने उस की तरफ देखा, लंबी, छरहरी, सांवली सी, बड़ीबड़ी आंखों में हलका काजल, संवरी भौंहें, करीने से कढ़े बाल, सुंदर व कीमती सूट पहने 25-26 साल की लड़की मुसकराती हुई खड़ी थी.

‘यह कामवाली है,’ मैं ने मन ही मन सोचा और तब मुझे ध्यान आया कि मैं एक फटीचर नाइटी में अब तक हाथ में झाड़ू लिए खड़ी थी.

हड़बड़ा कर मैं ने झाड़ू नीचे पटकी. शुक्र है कि अनूप ने मुझ से पहले बात कर ली, नहीं तो ये तो मुझे बाई ही समझ बैठती.

अनूप को विदा कर गीता को भीतर बुलाया. रसोई में चाय उबल रही थी. उस के लिए भी थोड़ा पानी डाला. एक कप इन्हें कमरे में दे आई, 2 कप चाय उसे लाने को कह मैं सोफे पर बैठ गई.

‘‘एक ही घर में काम करना होगा,’’ मैं ने अपनी शर्त सुनाई.

‘‘हां जी, मैं तो एक घर से ज्यादा कर भी नहीं सकती. अपने घर का भी तो काम रहता है. वो तो क्या है कि  बाहर निकलने से थोड़ा मन भी बदल जाता है और थोड़ी कमाई भी हो जाती है,’’ बिलकुल दिल्ली वाले अंदाज में उस ने जवाब दिया.

ये भी पढ़ें- संकरा : जब सूरज के सामने आया सच

‘‘शादी हो गई?’’

‘‘और क्या, 3 बच्चे हैं.’’

‘‘क्या, 3 बच्चे! कब हुई शादी, कितनी उम्र है तुम्हारी?’’

‘‘आंटी, हमारे यहां बेटी को 16 साल से ज्यादा कोई नहीं रखता. बहुत शिकायत होती है. मेरी शादी 15 वर्ष में हुई. 17 में गौना. 18 में बेटी. 2-2 साल के अंदर

2 और बेटे. 10 साल की बेटी है मेरी. यहां शहरों में 30-30 साल तक सब लड़की को घर में बैठाए रखते हैं,’’ कहती हुई उस ने ऐसा मुंह बनाया जैसे किसी ने उस के मुंह में पूरा नीबू निचोड़ दिया हो.

संयोग से उसी वक्त मेरी 17 वर्षीय बेटी धीगड़ी सी कानों में ईयर फोन लगाए गुनगुनाती हुई बाथरूम से बाहर निकली. उसे अभी इस वक्त गीता के सामने हाफपैंट और टौप में देख कर मैं ही बुरी तरह सकपका गई. शीघ्रता से बात खत्म कर के मैं ने उसे काम समझाया और बाथरूम में जा घुसी. इस लड़की की सजधज ने तो हमारे अंदर भी एक हीनभावना भर दी. पता नहीं काम कैसे करवाऊंगी.

जितनी उत्कृष्ट थी उस की साजसज्जा उतना ही उत्कृष्ट था उस का पहनावा. गजब की पसंद थी उस की. साड़ी हो या सलवारकमीज, एक बार नजर ठहर ही जाती थी. घर का पूरा काम करने के बाद भी मजाल है कि उस की साड़ी की एक भी मांग इधरउधर हो जाए. उस के कारण मुझे अपनेआप को बहुत बदलना पड़ा.

ये भी पढ़ें- अपने जैसे लोग : नीरज के मन में कैसी थी शंका

बच्चे मजाक भी करते, ‘‘पापा 26 साल में मां की आदत नहीं सुधार पाए लेकिन गीता ने 36 दिनों में ही उन्हें सुधार दिया, जय हो गीता की.’’

जानें आगे क्या हुआ कहानी के अगले भाग में…

केलिकुंचिका : भाग 3

कोलकाता के जरमन कौन्सुलेट से दुर्गा और बेटे शलभ को वीजा भी मिल गया. वह जरमनी के हीडेलबर्ग यूनिवर्सिटी गई.

जरमनी पहुंच कर दुर्गा को बिलकुल अलग माहौल मिला. जरमनी के लगभग एक दर्जन से ज्यादा शीर्ष विश्वविद्यालयों हीडेलबर्ग, एलएम यूनिवर्सिटी म्यूनिक, वुर्जबर्ग यूनिवर्सिटी, टुएबिनजेन यूनिवर्सिटी आदि में संस्कृत की पढ़ाई होती है. उसे देख कर खुशी हुई कि जरमनी के अतिरिक्त अन्य यूरोपियन देश और अमेरिका के विद्यार्थी भी संस्कृत पढ़ते हैं. वे जानना चाहते हैं कि भारत के प्राचीन इतिहास व विचार किस तरह इन ग्रंथों में छिपे हैं. भारत में संस्कृत की डिगरी तो नौकरी के लिए बटोरी जाती है लेकिन जरमनी में लोग अपना ज्ञान बढ़ाने के लिए संस्कृत पढ़ने आते हैं. इन विद्यार्थियों में हर उम्र के बच्चे, किशोर, युवा और प्रौढ़ होते हैं. दुर्गा ने देखा कि इन में कुछ नौकरीपेशा यहां तक कि डाक्टर भी हैं. दुर्गा को पता चला कि अमेरिका और ब्रिटेन में जरमन टीचर संस्कृत पढ़ाते हैं. हम अपनी प्राचीन संस्कृति और भाषा की समृद्ध विरासत को सहेजने में सफल नहीं रहे हैं. यहां का माहौल देख कर ऐसा प्रतीत होता है कि जरमन लोग ही शायद भविष्य में संस्कृत के संरक्षक हों. वे दूसरी लेटिन व रोमन भाषाओं को भी संरक्षित करने की कोशिश कर रहे हैं.

ये भी पढ़ें- सावधान : क्या था पूरा माजरा

दुर्गा का बेटा शलभ भी अब बड़ा हो रहा था. वह जरमन के अतिरिक्त हिंदी, इंगलिश और संस्कृत भी सीख रहा था. दुर्गा ने कुछ प्राचीन पुस्तकों, कौटिल्य का अर्थशास्त्र, कालिदास का अभिज्ञान शाकुंतलम, गीता और वेद के जरमन अनुवाद भी देखे और कुछ पढ़े भी. जरमन विद्वानों का कहना है कि भारत के वेदों में बहुतकुछ छिपा है जिन से वे काफी सीख सकते हैं. सामान्य बातें और सामान्य ज्ञान से ले कर विज्ञान के बारे में भी वेद से सीखा जा सकता है.

जरमनी आने पर भी दुर्गा हमेशा अपनी सहेली माधुरी के संपर्क में रही थी. उस ने माधुरी को कुछ पैसे भी लौटा दिए थे जिस के चलते माधुरी थोड़ा नाराज भी हुई थी. माधुरी से ही दुर्गा को मालूम हुआ कि उस की दीदी अमोलिका और पापा दीनानाथ अब नहीं रहे. अमोलिका का बेटा बंटी कुछ साल नानी के साथ रहा था, बाद में वह अपने पापा जतिन के पास चला गया. उस की नानी भी उसी के साथ रहती थी. बंटी 16 साल का हो चुका था और कालेज में पढ़ रहा था. इधर, दुर्गा का बेटा शलभ 15 साल का हो गया था. वह भी अगले साल कालेज में चला जाएगा. दुर्गा के निमंत्रण पर माधुरी जरमनी आई थी. वह करीब एक महीने यहां रही. दुर्गा ने उसे बर्लिन, बोन, म्युनिक, फ्रैंकफर्ट, कौंलोन आदि जगहें घुमाईं. माधुरी इंडिया लौट गई.

दुर्गा से यूनिवर्सिटी की ओर से वेद पढ़ाने को कहा गया. उस से वेद के कुछ अध्यायों व श्लोकों का समुचित विश्लेषण करने को कहा गया. दुर्गा ने वेदों का अध्ययन किया था, इसलिए उसे पढ़ाने में कोई परेशानी नहीं हुई. उस के पढ़ाने के तरीके की विद्यार्थियों और शिक्षकों ने खूब प्रशंसा की. दुर्गा अब यूनिवर्सिटी में प्रतिष्ठित हो चुकी थी, बल्कि उसे अन्य पश्चिमी देशों में भी कभीकभी पढ़ाने जाना होता था.

5 वर्षों बाद शलभ फिजिक्स से ग्रेजुएशन कर चुका था. उसे न्यूक्लिअर फिजिक्स में आगे की पढ़ाई करनी थी. पीजी में ऐडमिशन से पहले उस ने मां से इंडिया जाने की पेशकश की तो दुर्गा ने उस की बात मान ली. दुर्गा ने उस के जन्म की सचाई अब उसे बता दी थी. सच जान कर उसे अपनी मां पर गर्व हुआ. अकेले ही काफी दुख झेल कर, अपने साहस के बलबूते पर मां खुद को और मुझे सम्मानजनक स्थिति में लाई थी. शलभ को अपनी मां पर गर्व हो रहा था. हालांकि वह किसी संबंधी के यहां नहीं जाना चाहता था लेकिन दुर्गा ने उसे अपने पिता जतिन और नानी से मिलने को कहा. माधुरी ने दुर्गा को जतिन का ठिकाना बता दिया था. जतिन आजकल नागपुर के पास वैस्टर्न कोलफील्ड में कार्यरत था.

इंडिया आ कर शलभ ने पहले देश के विभिन्न ऐतिहासिक व प्राचीन नगरों का भ्रमण किया. बाद में वह पिता से मिलने नागपुर गया. उस दिन रविवार था, जतिन और नानी दोनों घर पर ही थे. डोरबैल बजाने पर जतिन ने दरवाजा खोला. शलभ ने उस के पैर छुए. जतिन बोला, ‘‘मैं ने तुम को पहचाना नहीं.’’ शलभ बोला, ‘‘मैं एक जरमन नागरिक हूं. भारत घूमने आया हूं. मैं अंदर आ सकता हूं. मेरी मां ने मुझे आप से मिलने के लिए कहा है.’’

ये भी पढ़ें- तुम ही चाहिए ममू : क्या राजेश ममता से अलग रह पाया

शलभ का चेहरा एकदम अपनी मां से मिलता था. तब तक उस की नानी भी आई तो उस ने नानी के भी पैर छू कर प्रणाम किया. जतिन और नानी दोनों शलभ को बड़े गौर से देख रहे थे. शलभ ने देखा कि शोकेस पर उस की मौसी और मां दोनों की फोटो पर माला पड़ी हुई है. शलभ ने दोनों तसवीरों की ओर संकेत करते हुए पूछा, ‘‘ये महिलाएं कौन हैं?’’

जतिन ने बताया, ‘‘एक मेरी पत्नी अमोलिका, दूसरी उन की छोटी बहन दुर्गा है, अब दोनों इस दुनिया में नहीं हैं.’’

‘‘एस तुत मिर लाइट,’’ शलभ बोला. ‘‘मैं समझा नहीं,’’ जतिन ने कहा.

‘‘आई एम सौरी, यही पहले मैं ने जरमन भाषा में कहा था,’’ शलभ बोला. ‘‘अरे वाह, कितनी भाषाएं जानते हो,’’ जतिन ने हैरानी जताई.

‘‘सब मेरी मां की देन है,’’ शलभ ने कहा. फिर दुर्गा की फोटो को दिखाते हुए शलभ बोला, ‘‘तो ये आप की केलिकुंचिका हैं.’’

‘‘व्हाट?’’ ‘‘केलिकुंचिका यानी साली, सिस्टर इन लौ.’’

‘‘यह कौन सी भाषा है…जरमन?’’ ‘‘जी नहीं, संस्कृत.’’

‘‘तो तुम संस्कृत भी जानते हो?’’ ‘‘जी, आप की केलिकुंचिका संस्कृत की विदुषी हैं, उन्हीं ने मुझे संस्कृत भी सिखाई है.’’

‘‘वह तो बहुत पहले मर चुकी है.’’ ‘‘आप के लिए मृत होंगी.’’

‘‘व्हाट? हम लोगों ने उसे ढूढ़ने की बहुत कोशिश की थी, पर वह नहीं मिली. आखिर में हम ने उसे मृत मान लिया.’’ ‘‘अच्छा, तो अब चलता हूं, कल दिल्ली से मेरी फ्लाइट है.’’

शलभ ने उठ कर दोनों के पैर छुए और बाहर निकल गया. ‘‘अरे, जरा रुको तो सही, हमारी बात तो सुनते जाओ, शलभ…’’

ये भी पढ़ें- प्रायश्चित : सुधीर के व्यवहार से हैरान थी सुधि

वे दोनों उसे पुकारते रहे, पर उस ने एक बार भी मुड़ कर उन की तरफ नहीं देखा.

केलिकुंचिका : भाग 2

अभी तक दुर्गा और जतिन दोनों अस्पताल से घर भी नहीं लौटे थे. दोनों की समझ में नहीं आ रहा था कि आने वाले भीषण तूफान से कैसे निबटा जाए. कुछ पलों का आनंद इतनी बड़ी मुसीबत बन जाएगा, उन्होंने इस की कल्पना भी नहीं की थी. दोनों सोच रहे थे कि आज नहीं तो कल अमोलिका को यह बात तो पता चलेगी ही, तब उस के सामने कैसे मुंह दिखाएंगे.

घर पहुंच कर दुर्गा बंटी के लिए दूध बना कर ले गई. उस ने दूध की बोतल अमोलिका को दी. वह बहुत गंभीर थी. दुर्गा वापस जाने को मुड़ी ही थी कि अमोलिका ने उसे हाथ पकड़ कर रोक लिया. पहले तो वह सोच रही थी कि सारा गुस्सा अभी के अभी उतार दे, पर उस ने बात बदलते हुए पूछा, ‘‘अब तो तुम्हारा एमए भी पूरा हो गया है. अगले महीने तुम्हारा कौन्वोकेशन भी है.’’ दुर्गा बोली, ‘‘हां.’’

ये भी पढ़ें- विरोधाभास : सबीर का कैसा था चरित्र

‘‘आगे के लिए क्या सोचा है? और तुम ने संस्कृत ही क्यों चुनी? इनफैक्ट संस्कृत की तो यहां कोई कद्र नहीं है.’’ ‘‘आजकल जरमनी में लोग संस्कृत में रुचि ले रहे हैं. बीए करने के बाद मैं एक साल स्कूल में पार्टटाइम संस्कृत टीचर थी. मैं ने जरमनी की एक यूनिवर्सिटी में संस्कृत ट्यूटर के लिए आवेदन दिया था. मैं ने जरमन भाषा का भी एक शौर्टटर्म कोर्स किया है. मुझे उम्मीद है कि जरमनी से जल्दी ही बुलावा आएगा.’’

‘‘कब तक जाने की संभावना है?’’ ‘‘कुछ पक्का नहीं कह सकती हूं, पर 6 महीने या सालभर लग सकता है. उन्होंने कहा है कि अभी तुरंत वैकेंसी नहीं है, होने पर सूचित करेंगे.’’

‘‘तब तक तुम्हारा ये बच्चा…’’ अमोलिका के मुंह से अचानक यह सुनना दुर्गा के लिए अनपेक्षित था. इस अप्रत्याशित प्रश्न के लिए वह तैयार नहीं थी. उसे चुप देख कर अमोलिका ने उसे डांटते हुए कहा, ‘‘तुम्हें शर्म नहीं आई दीदी के यहां आ कर यह सब गुल खिलाने में. वैसे तो मैं समझ सकती हूं तेरे पेट में किस का अंश है, फिर भी मैं तेरे मुंह से सुनना चाहती हूं.’’

दुर्गा सिर नीचे किए रो रही थी, कुछ बोल नहीं पा रही थी. अमोलिका ने ही फिर कड़क कर कहा, ‘‘यह किस का काम है? बंटी के सिर पर हाथ रख कर कसम खा तू, किस का काम है यह?’’ दुर्गा फिर चुप रही. तब अमोलिका ने ही कहा, ‘‘जतिन का ही दुष्कर्म है न यह? सच बता तुझे बंटी की कसम.’’

‘‘तुम्हारी खामोशी को मैं तुम्हारी स्वीकृति समझ रही हूं. बाकी मैं जतिन से समझ लूंगी.’’ दुर्गा वहां से चली गई. अमोलिका ने अपनी मां को फोन कर कहा, ‘‘मां, मैं कुछ दिनों के लिए वहां आ कर तुम लोगों के साथ रहना चाहती हूं.’’

मां ने कहा, ‘‘बेटा, यह तेरा घर है. जब चाहे आओ और जितने दिन चाहो आराम से रहो.’’ उस रात अमोलिका और जतिन में काफी कहासुनी हुई. उस ने जतिन से कहा, ‘‘तुम्हारे दुष्कर्म के बाद मुझे तुम से घिन हो रही है. मुझे नहीं लगता, मैं यहां और रह पाऊंगी.’’

जतिन के माफी मांगने और मना करने के बावजूद दूसरे दिन अमोलिका दुर्गा के साथ पीहर आ गई. उस ने मेघाताबुरू की कहानी मां को बताई. उस की मां भी बहुत क्रोधित हुईं और उन्होंने दुर्गा से कहा, ‘‘अरे, तू अपनी सगी बहन के घर में आग लगा बैठी.’’ दुर्गा के पास कोई जवाब न था. वह चुप रही. मां ने कहा, ‘‘मैं तेरी जैसी कुलटा को अपने घर में नहीं रख सकती. तू निकल जा मेरे घर से. हम लोग तुम्हारा मुंह नहीं देखना चाहते.’’

उस रात दुर्गा को नींद नहीं आ रही थी. वह रात में एक बैग ले कर दरवाजा खोल कर घर से निकलना ही चाहती थी कि अमोलिका जग उठी. उस ने कहा, ‘‘कहां जा रही हो?’’ दुर्गा बोली, ‘‘कुछ सोचा नहीं है, या तो आत्महत्या करूंगी या फिर सब से दूर कहीं चली जाऊंगी.’’

‘‘एक पाप तो तूने पहले ही किया, दूसरा पाप आत्महत्या करने का होगा.’’ ‘‘तो मैं क्या करूं?’’

‘‘तू एबौर्शन करा ले, उस के बाद आगे की जिंदगी का रास्ता साफ हो जाएगा.’’

‘‘एबौर्शन कराना भी तो एक पाप ही होगा.’’ ‘‘तू अभी चुपचाप घर में बैठ. कुछ दिनों में हम सब लोग मिलजुल कर बात कर कोई समाधान ढूंढ़ लेंगे.’’

दुर्गा ने महसूस किया कि उस के मातापिता दोनों ने ही उस से बोलचाल बंद कर दी है. वह तो अमोलिका की गुनाहगार थी, फिर भी दीदी कभीकभी उस से बात कर लेती थीं. उस को अंदर से ग्लानि थी कि उस की एक छोटी सी भूल की सजा दीदी और बंटी को भी मिल रही है. 2 दिनों बाद ही दुर्गा अचानक घर छोड़ कर कहीं चली गई. उस ने अपना कोई अतापता किसी को नहीं बताया. दुर्गा अपने साथ पढ़ी एक सहेली माधुरी के यहां कोलकाता आ गई. दोनों ने 12वीं तक साथ पढ़ाई की थी. उस ने उसे अपनी कहानी बताई और कहा, ‘‘प्लीज, मेरा पता किसी को मत बताना. मुझे कुछ दिनों के लिए पनाह दे, फिर मैं कहीं दूरदराज चली जाऊंगी.’’

ये भी पढ़ें- सावधान : क्या था पूरा माजरा

माधुरी अविवाहित थी और नौकरी करती थी. वह बोली, ‘‘तू कहीं नहीं जाएगी. तू जब तक चाहे यहां रह सकती है. तू तो जानती ही है कि इस दुनिया में मेरा अपना निकटसंबंधी कोई नहीं है. तू यहीं रह, तू मां बनेगी और मैं मौसी.’’

वहीं दुर्गा ने एक बालक को जन्म दिया. उस ने वहीं रह कर इग्नू से 2 साल का मास्टर इन वैदिक स्टडीज का कोर्स किया. इसी बीच, उस ने झारखंड में धनबाद के निकट काको मठ और महाराष्ट्र में नासिक के निकट वेद पाठशालाओं में वहां के संतों व गुरुजनों से भी वेद पर विशेष चर्चा कर वेद के बारे में अपना ज्ञान बढ़ाया. माधुरी ने उस से कहा, ‘‘तुम वेदों को इतना महत्त्व क्यों दे रही हो? मैं ने तो सुना है कि वेद स्त्रियों के लिए

नहीं हैं.’’ दुर्गा बोली, ‘‘तू उस की छोड़, क्लासिकल भाषाओं के अच्छे जानकारों की जरूरत हमेशा रहेगी. हर युग

में उन्हें नए ढंग से पढ़ा और समझा जाता है.’’ जब तक दुर्गा माधुरी के साथ रही, उस ने दुर्गा की आर्थिक सहायता भी की. कुछ पैसे दुर्गा ट्यूशन पढ़ा कर भी कमा लेती थी. इस बीच, दुर्गा का बेटा शलभ 2 साल का हो चुका था. तभी जरमनी से संस्कृत टीचर के लिए उस का बुलावा आ गया.

जानें आगे क्या हुआ कहानी के अगले भाग में…

अनलिमिटेड कहानियां-आर्टिकल पढ़ने के लिएसब्सक्राइब करें