प्रायश्चित : भाग 3

कहते समय सुधि की आंखों में आंसुओं की बाढ़ सी आ गई थी और वह सुधीर के पलंग के पास बैठ कर उन्हें निहारने लगी…फिर डाक्टर की बातें सुनने लगी.

‘‘सुधिजी, जब यह हमारे पास आए थे तब बहुत ही कमजोर थे. हमेशा थकेथके से रहते थे…बुखार भी रहता था. सांस भी मुश्किल से लेते थे. पहले हम लोगों ने इन की बौडी देखी जिस पर लाललाल चकत्ते से पडे़ थे. इन का टी.एल.सी., डी.एल.सी. करवाया, एक्सरे करवाया और बोनमैरो टेस्ट करवाया, हां, लंबर पंक्चर भी करवाया है…स्पाईनल कार्ड में से फ्ल्यूड निकाला था.’’

‘‘इतने सारे टेस्ट हुए हैं सुधीर के और इन्होंने मुझे हवा भी नहीं लगने दी?’’

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‘‘मैडम सुधि, आप के पति बडे़ साहसी हैं. जब हम ने इन्हें बताया कि आप को माईलाइट एक्यूट ब्लड कैंसर यानी कि एक्यूट ल्यूकीमिया है तब रत्ती भर भी इन के चेहरे पर शिकन नहीं पड़ी और न ही चिंतित हुए बल्कि यह कहने लगे कि अब मुझे बहुत कुछ करना है अपनी पत्नी और बेटों के लिए. कमाल का स्वभाव है आप के पति का,’’ कहते समय डा. वर्मा की निगाहें भी सुधीर के चेहरे पर टिकी हुई थीं.

सुधीर की आंखों की दोनों कोर गीली हो रही थीं और लग रहा था कि आंखें हजारहजार बातें कहना चाह  रही हों लेकिन जिंदगी हाथों की मुट्ठी से रेत की तरह खिसक रही थी. शायद जीवन काल के कुछ ही घंटे बचे थे. बीचबीच में आई.सी.यू. के दरवाजे की ओर भी देख रहे थे. सुधीर का पीला जर्द चेहरा देखने का साहस सुधि की आंखें नहीं जुटा पा रही थीं.

आंखों से बहते आंसुओं को पोंछते हुए जब सुधि ने सुधीर का हाथ पकड़ा तो उन्होंने आक्सीजन ट्यूब हटा कर धीमे से कहा, ‘‘सुधि, आई लव यू.’’

सुधि बच्चों की तरह फफक पड़ी. मुंह से निकला, ‘‘सुधीर, आई लव यू टू,’’ और सुधीर के हाथों को सहलाती रही. उसे लगा उस की भंवर में फंसी नाव जो कुछ घड़ी, कुछ लम्हे आराम से बह रही थी अब ठीक किनारे पर आ कर डूब गई है.

उस अस्पताल में जब सुधीर ने उसे कस कर पकड़ा और कहा, ‘प्लीज, मुझे छोड़ कर अभी मत जाना,’ एकाएक उसे अस्पताल की वह उमस भरी, घुटन भरी रात याद आ गई जब अगम की डिलीवरी होने वाली थी, वह दर्द से तड़प रही थी, कराह रही थी, प्रसव वेदना तीव्र थी. सुधि ने रोते हुए सुधीर से कहा था, ‘प्लीज, तुम आज रात अस्पताल में रुक जाओ, घर मत जाओ.’

लेकिन सुधीर ने स्पष्ट रूखे स्वर में कहा था, ‘मैं…मैं अस्पताल में नहीं रुक सकता. हैं तो मम्मीपापा और सर्वेंट…जब जरूरत पड़ेगी ये लोग मुझे बुला लेंगे.’

उस दिन के बाद से सुधि ने अपनी पीड़ा, अपना दर्द अपनी परछाईं तक को व्यक्त नहीं किया, सुधीर तो दूर की बात थे.

अभी 2 माह पहले तक सुधि को लगता था कि यह पति का घर, पति का आंगन उस के लिए अनजाना है, बेगाना है, इसे घर कहना बेईमानी है. लेकिन इधर 2 माह से यह आंगन, यह मकान घर का रूप ले बैठा है.

और वह भी प्यार, त्याग की सुगंध से सुवासित हो गए हैं. एक समझौते वाले जीवन को अभी उस ने आदर्श जीवन की तरह जीना शुरू ही किया है, लेकिन इस महके आंगन में वीरानियां, सन्नाटों ने बंजारों की भांति डेरा डाल लिया. हाय, क्या लाभ है मेरी इतनी योग्यताओं का, इतनी अधिक सुंदरता का, इतनी उच्च शिक्षा का जब मेरी तकदीर में ही सदाबहार वन के स्थान पर कीचड़ ही कीचड़ है.

सुधीर की दशा पलपल बिगड़ रही थी. खून की बोतलें लगातार चढ़ रही थीं. आक्सीजन भी दी जा रही थी. सब को पता था कि काले बादल अब मौत ही ले कर आएंगे फिर भी डाक्टर लोग बचाने का प्रयास कर रहे थे, दोनों बेटे पिता के बेड के पास खडे़ हुए कभी अपने पिता को, कभी अपनी मां सुधि को देख रहे थे जिस ने रोरो कर आंखें सुजा ली थीं और अस्तव्यस्त दशा में बैठी थी. बीचबीच में साहस के, हिम्मत के दो शब्द बोल भी रही थी :

‘‘न…न…सुधीर, तुम रोओ मत. तुम ठीक हो जाओगे. लेकिन सचसच बताओ, तुम ने मुझे क्यों नहीं बताया? यह पहाड़ जैसा दुख तुम अकेले ही झेलते रहे और तुम्हारे इन बेटों ने भी मुझे कानोंकान खबर नहीं लगने दी.

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‘‘यह बहुत गलत किया है तुम लोगों ने. मैं जीवन भर इस बात से तड़पती रहूंगी. सुधीर, औरत के लिए सब से बड़ा पुण्य है अपने पति की सेवा करना और आप ने मुझे उस सेवा से वंचित रखा. यह…यह अच्छा नहीं किया.’’

सुधि फिर फूटफूट कर रोने लगी. ब्लड की बोतल चढ़ रही थी. आक्सीजन दी जा रही थी लेकिन सुधीर मुंह से आक्सीजन कैप हटा कर धीरे से बोले, ‘‘मैं अपने पापों का प्रायश्चित कर रहा था क्योंकि तुम्हारे जैसी नेक पत्नी को मैं ने बहुत दुख दिए, बहुत प्रताड़ित किया,’’ और फिर कैप लगा ली. बच्चों ने पापा को खूब प्यार किया, सुधि ने सुधीर के माथे पर हाथ फेरा, फिर उन के सीने पर सिर रख कर बोली, ‘‘लेकिन सुधीर, तुम ने ऐसा प्रायश्चित किया कि मुझे 2 महीनों में इतना सुख, इतना प्यार दे दिया जो पति अपनी पत्नी को 20 सालों में भी नहीं देते हैं.’’

एकाएक सुधीर की सांसें रुक सी गईं. डाक्टर ने चेस्ट दबा कर सांस दिलवानी शुरू की, लेकिन सब बेकार.

आकाश में हजारों मौत की काली घटाएं पंख फैलाए डराने लगीं…

मरने से पहले सुधीर को एक बार फिर खून की उलटी आई, नाक से भी निरंतर खून बहने लगा…फिर सांस आनी बंद हो गई.

असहाय, बेबस, बेचारी पत्नी और दोनों बेटे सुधीर की जिंदगी नहीं बचा पाए. खैर, सुधीर की आंखों में लिखा हुआ शब्द आसानी से पढ़ा जा रहा था : प्रायश्चित…प्रायश्चित…प्रायश्चित.

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प्रायश्चित : भाग 2

जब-जब सुधीर ने उसे खाने-पीने पर, कपड़े पहनने पर, उस की पसंद पर अपमानित किया उसे यही लगा कि पंख फैलाए मौत उस के सिर पर मंडरा रही है. एक बार तो सुधीर ने क्लब जाने के लिए बच्चों और सुधि को तैयार होने के लिए कहा तो आज्ञानुसार सुधि ने बच्चे तैयार किए और स्वयं भी लालकाली चौड़ी बार्डर वाली साड़ी पहन ली लेकिन जल्दीजल्दी में वह चप्पलें बदलना भूल गई. जैसे ही वह कार में बैठने लगी सुधीर की निगाह चप्पलों पर पड़ गई. देखते ही पारा सातवें आसमान पर चढ़ गया, ‘यह…यह क्या है पांव में. अरे, इतनी भी तमीज नहीं है कि क्लब जाना है तो ढंग की चप्पलें पहन लो. मुझे शर्म आती है यह सोच कर कि मैं ने तुम से शादी  की है. बिलकुल गंवार हो, कोई भी तुम्हें पढ़ीलिखी नहीं कहेगा.’   सुधीर के शब्दों से सुधि इतनी अधिक छिल गई थी जैसे छिलछिल कर खीरा हरे से सफेद हो जाता है.

उसी समय वह ड्रेसिंग रूम में गई, आंखें पोंछी, चप्पलें बदलीं फिर कार में बैठी. उस समय दिल में आया था कि वह जाने के लिए मना कर दे, लेकिन उस के संस्कारों ने, उस के कोमल, सहनशील स्वाभिमान ने उसे ऐसा नहीं करने दिया.

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आज कह रहे हैं कि सुधि, तुम अब स्मार्ट बन कर रहने लगी हो, लेकिन मैं अब टूर में बहुत व्यस्त हूं पर तुम्हें घुमानेफिराने ले जाना चाहता हूं. सुधि ने सोचा कि सुधीर को यह क्या हो गया. अजीबअजीब सी बातें करते हैं. जितने दिन भी घर में रहते हैं कभी बाहर घुमाने, कभी बाहर खाना खिलाने ले जाते हैं. पहले तो कभी ऐसा नहीं हुआ. इस परिवर्तन से सुधि का दिमाग लट्टू की तरह घूम गया. सोने से दिन, चांदी सी रातें अब उस के नसीब में कैसे हो गईं? कहीं कुछ गड़बड़ तो नहीं है?  वही है सुधि जिस के पांव के नीचे काली सड़क, सिर के ऊपर मंडराते काले बादल और मन में घोर अंधेरा पसरा रहता था…अब हर तरफ उजाला ही उजाला है.

लेकिन इस उजाले पर उस का विश्वास पारे सा चंचल हो रहा था. रात भर विचारों के जाल में फंसी सुधि ने सुबहसुबह जब सुधीर को चाय दी, तो उसे उन की देह गरम लगी. मन हवा के झोंके से हिलते पत्ते सा कांपा, क्योंकि मन तो प्रश्नों के मेले में पहले ही भटका हुआ था. सुधीर ने जब बाहर पिकनिक पर जाने के लिए कहा, तो सुधि तुरंत बोली, ‘‘आप को बुखार है. आज आप बाहर तो क्या आफिस भी नहीं जाएंगे.’’

जबरदस्ती की मुसकान होंठों पर बिखेरते हुए सुधीर बोले, ‘‘अरे, कुछ नहीं होता है इतनी हरारत से. आफिस तो मुझे जाना ही पड़ेगा.’’

‘‘कतई नहीं जाने दूंगी आफिस. चलिए, अभी अस्पताल चलिए…’’ और वह जल्दी से सुधीर के कपडे़ ले आई. सुधीर ने अलमारी खोल कर दवा खाई फिर आंखें बंद कर के लेट गए.

लेकिन सुधि के जिद करने पर वह कपड़े बदलने लगे…सुधीर की पीठ, बांहों पर लाललाल चकत्ते देख कर सुधि घबरा गई. सुधीर के चेहरे पर पलपल लहरों सी परिस्थितियां बदल रही थीं, कमजोरी के कारण धीरेधीरे काम कर रहे थे.

एकाएक सुधीर का पीला पड़ता हुआ चेहरा और नाक से बहता हुआ खून देख कर सुधि ने तुरंत डाक्टर को फोन किया, लेकिन सुधीर ने रोक कर कहा, ‘‘चलो, अस्पताल चलते हैं.’’

‘‘अरे, कुछ नाश्ता तो कर लो.’’

‘‘नहीं, मुझे भूख नहीं है,’’ फिर रुक कर बोले, ‘‘क्या बनाया है?’’

‘‘दलिया बना देती हूं. अभी तो कुछ भी नहीं बनाया है.’’

‘‘हां, बना दो. तुम बहुत टेस्टी दलिया बनाती हो.’’

धीरेधीरे तैयार हो कर सुधीर ने बनाई हुई वसीयत, जिस पर दोनों के हस्ताक्षर थे और बच्चों के फिक्स्ड डिपाजिट के पेपर्स सुधि को पकड़ा दिए.

कांपने लगे सुधि के हाथ. पेपर्स देते समय सुधीर के मसूड़ों से खून बहने लगा फिर उन्हें खून की उलटी आई, तो फौरन सुधि उन्हें अस्पताल ले गई.

अस्पताल में घुसते ही डा. वर्मा ने कहा, ‘‘सुधीरजी, हो गई न फिर गंभीर हालत. मैं ने आप को कल शाम ही घर जाने के लिए मना किया था, लेकिन आप तो 2 महीने से मेरी बात ही नहीं सुन रहे हैं. जिस दिन…’’

वाक्य बीच में सुधि ने रोक दिया, ‘‘यह आप क्या कह रहे हैं डा. वर्मा? क्या सुधीर इसी अस्पताल में 2 महीने से रह रहे थे.’’

‘‘हां…कभीकभी 1-2 दिन के लिए घर चले जाते हैं.’’

डा. वर्मा की बातें और सुधीर की गंभीर दशा पर सुधि को यकीन ही नहीं हो रहा था. उसे लगा कि वह कल्पना लोक में विचर रही है या कोई फिल्म देख रही है… क्यों रह रहे हैं सुधीर अस्पताल में? इन्हें क्या बीमारी है?

‘‘इन्हें एक्यूट माईलाइट ल्यूकीमिया हो गया है.’’

‘‘कब से?’’

‘‘बस, 2 महीने से और तभी से यह यहीं रहते हैं. साथ में एक इन का मित्र भी कभीकभी आ जाता है.’’

‘‘लेकिन यह तो टूर पर रहते हैं?’’

‘‘क्या कहा, टूर…इन की तो लास्ट स्टेज चल रही है. बोनमैरो फेल्योर हो चुका है और लंबर पंक्चर भी हो चुका है. अब तो इन के लिए आप दुआ ही करें. पता नहीं कब क्या हो जाए.’’

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‘‘क्यों?’’

‘‘क्योंकि रेड ब्लड सेल्स बनने बंद हो गए हैं. सफेद बहुत ज्यादा बढ़ गए हैं.’’

सुन कर सुधि को लगा मानो चारों ओर अंधकार ही अंधकार छा गया है. और वह घिर गई है समस्या की अभेद्य दीवारों से. महाशून्य की एक ऊंची दीवार उस के चारों ओर घिर गई है.

वह दौड़ कर डा. वर्मा के पास गई और बोली, ‘‘डा. साहब, आप को कैसे पता लगा कि इन्हें ब्लड कैंसर है…क्या किया आप ने? कहीं गलत टेस्टिंग तो नहीं हो गई है, आप झूठ बोल रहे हैं, इन्हें ब्लड कैंसर नहीं हो सकता…’’

जानें आगे क्या हुआ कहानी के अगले भाग में…

प्रायश्चित : भाग 1

यह हो क्या गया है सुधीर का जो चेहरा सुबह की ओस की तरह दमकता था अब वह सूखे नारियल सा मुरझाया रहने लगा है और फौआरों सी उछल कर आसमान छूने वाली उन की वह हंसी भी अब गायब सी हो गई है.

कहां पहले उन के मुंह से एकएक शब्द मईजून की तपती धूप की तरह निकलते थे और अब बर्फ की तरह ठंडे शब्द बोलते हैं. बस, इसी तरह सुधि सुबह से शाम तक अपने पति सुधीर के बारे में सोचती रहती.

आज ही देखो, कितने प्यार से मेरे गालों को थपथपाते हुए बोले, ‘‘सुधि, अब बच्चे बडे़ हो गए हैं, तुम्हारा घर में मन नहीं लगता होगा तो सर्विस ज्वाइन कर लो.’’

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पहले तो कभी इस तरह नहीं बोले. बड़े आश्चर्य से वह सुधीर की ओर देखती रही और चक्रवात में फंसे हुए तिनके की तरह सोचती रही.

उसे लगा कि जैसे समुद्र के किनारे पर बड़ीबड़ी चट्टानों में ठहरा हुआ पानी सूरज के प्रकाश से चमक उठता है उसी तरह से सुधीर की आंखों में भी आंसू की बूंदें चमक रही थीं.

फिर सुधि ने हलकी आवाज में कहा, ‘‘अरे, आप को आज हो क्या गया है जो सर्विस करने के लिए कह रहे हो, पहले तो आप ने क्रोध में आ कर मेरी लगी हुई नौकरी छुड़वा दी कि आप जैसे इंजीनियर की पत्नी के नौकरी करने से आप की बदनामी होती है और आज आप फिर नौकरी करने के लिए कह रहे हैं.’’

मुंह का कौर खत्म कर के सुधीर बोले, ‘‘डार्लिंग, उस समय बच्चे बहुत छोटे थे, उन को तुम्हारी बहुत जरूरत थी.  अब दोनों बच्चे बाहर हैं, इंजीनियरिंग पढ़ रहे हैं, तुम बोर होती हो, तभी मैं ने सर्विस के लिए कहा है.’’

‘‘कैसी बातें करते हैं आप. अब मुझे किसी भी अच्छे स्कूल में नौकरी नहीं मिलेगी और छोटेमोटे स्कूल में मैं कभी भी नौकरी नहीं करूंगी,’’ कहते हुए सुधि खाना खा कर हाथ धोने लगी.

‘‘ठीक है, जैसा तुम चाहो करो…मैं तो नौकरी के लिए इसलिए भी कह रहा था क्योंकि अब मैं टूर पर बहुत रहता हूं. सुनो, अगर चाहो तो साहित्य सृजन शुरू कर दो.’’

बेझिझक, बेबाक हो कर सुधि ने उत्तर दिया, ‘‘वह तो मैं कर ही रही हूं और पत्रपत्रिकाओं में छप भी रहा है,’’ कहते हुए सुधि की निगाहें झुकी हुई थीं, जैसे उस ने कोई चोरी की है.

सुधीर के प्यार भरे संबोधन को सुन कर सुधि को लगा जैसे रात की गूंगी खामोशी को सुबह की आवाज मिल गई. उस के मन के अंधेरों में हजारों दीपक जल उठे, लेकिन उस प्रकाश में भी सुधि अतीत का इतिहास पढ़ने लगी.

कैसे भूल सकती है वह जवानी की वे रातें जब वह चांदनी के हिंडोले को टकटकी लगाए देखती थी, रोती थी जारजार. एकएक शब्द सुधीर का जलते हुए अंगारे सा उसे बाहर से अंदर तक जला देता था. ‘क्या तुम्हें खाने का भी ढंग नहीं आता, जो चावल हाथ से खाती हो.’

कभी झल्ला कर कहते, ‘ओह, हद हो गई है…जब भी कहीं जाती हो गंवार औरतों की तरह चटक रंग की साड़ी पहन लेती हो. किसी दिन बाजार चलो, मैं अच्छी साडि़यां खरीदवा दूंगा.’

एक दिन तो सुधीर ने सीमा ही लांघ दी, ‘मैं जब भी किसी मित्र को घर बुलाता हूं, एक तो खाना बेढंगा बनाती हो फिर कपडे़  भी वही अपने मायके के चटकीले, भड़कीले पहन लेती हो. मिसेज मिश्रा, मिसेज वर्मा को देखो, सब कितने स्टाइलिश कपडे़ पहनती हैं…तुम्हारे ऐसे रंगढंग देख कर तो मन करता है कि किसी मित्र को कभी घर न बुलाऊं.’

उन बातों से वह आज तक जली हुई है, लेकिन अब सुधीर की आदतें कैसे बदल गई हैं…अब तो चाशनी में पगे शब्दों को इस्तेमाल करते हैं. मेरी हर बात का बहुत खयाल रखते हैं. इधर 1 महीने के अंदर अपनी पसंद के ढेरों कपड़े और जेवर दिलवाए हैं, हालांकि खुद नहीं खाते हैं, लेकिन मुझे होटलों में खिलाते हैं.

और तो और, मेरी तबीयत खराब होने पर अपने दोस्त को डिनर भी होटल में दिया  था. लगता है आर्ट आफ लिविंग की क्लासेज अटैंड कर ली हैं. ताज्जुब है कि बेटों के और मेरे बैंक में अलग खाते खुलवा कर फिक्स्ड डिपाजिट में रुपए जमा कर दिए हैं. कहीं कुछ अशुभ तो नहीं घटने वाला है…कहीं इन्हें कुछ हो तो नहीं गया है.

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सोचते हुए सुधि सुधीर के पास जा कर उन्हें प्यार करने लगी. फिर दिमाग ने कहा कि 7 दिन बाद टूर से आए हैं, सोने दो.

हमेशा विचारों के तानेबाने में ऐसे ही उस रात घड़ी ने 3 बजा दिए और आंखें बारबार सुधीर के चेहरे को निहार रही थीं. एकाएक उसे लगा सुधीर के चेहरे की रौनक उड़नछू हो गई है, आंखों के नीचे स्याह गड्ढे भी पड़ गए हैं.

और एक ही झटके में उन के स्वभाव में कठोरता का स्थान कोमलता ने और कटुता का स्थान विनम्रता ने ले लिया है.

जो पति उसे कोयले का ढेर लगता था, अब ढेर में पड़ा हुआ हीरा लगने लगा है. शादी के बाद 20 सालों तक सुधि के दुख के अंगारों से दिल की शमा पिघल- पिघल कर आंखों से गिरती रही है, टप… टप…

एक खौफ, एक कर्कशता, एक अपमान, सुधीर के साथ से उसे एकएक बूंद कड़वे नीम के रस सा पीने को मिलता रहा है.

वह पीती भी रही है, क्योंकि वह एक अच्छी मां और आदर्श पत्नी के रूप में जीती रही है. पढ़ीलिखी है, एम.ए., बी.एड. तक. पिताजी भी प्रोफेसर थे और मां इंटरमीडिएट कालिज में टीचर थीं.

लेकिन शादी बेमेल हुई थी. सुधीर के पिताजी चीफ इंजीनियर थे और सुधीर स्वयं एक इंजीनियर. दोनों परिवारों के स्टैंडर्ड आफ लिविंग में बहुत असमानता थी. किस्मत का खेल कि अखबार के विज्ञापन से रिश्ता तय होना था, हुआ. सुधि ने तो स्वप्न में भी नहीं सोचा था कि सबकुछ होते हुए भी सुधीर के क्रूर व्यवहार और अहंकारवश उस के पांव के नीचे हमेशा तपती जमीन रहेगी और सिर पर निष्ठुर आफताब.

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जानें आगे क्या हुआ कहानी के अगले भाग में…

एक मौका और : अच्छाई की हमेशा जीत होती है

एक मौका और : भाग 4- अच्छाई की हमेशा जीत होती है

सूटकेस में 10 हजार डौलर और अहम कागजात थे. कार उस ने क्लिनिक के गेट पर ही खड़ी कर दी. वह राहिल के साथ क्लिनिक के औफिस में आया तो ठिठक गया. सामने नर्सें, कंपाउंडर और गार्ड नीचे फर्श पर पड़े थे. डाक्टर ने राहिल की तरफ मुड़ना चाहा तो उसे कमर में चुभन का अहसास हुआ. कुछ ही देर में वह बेहोश हो गया. उस के बाद राहिल बाहर आया. बाहर वाले गार्ड को भी वह बेहोश कर के अंदर ले गया.

प्लान के मुताबिक शमा भी वहां पहुंच गई. उस ने पूछा, ‘‘सब ठीक है?’’

राहिल ने जवाब दिया, ‘‘सब पूरी तरह काबू में हैं.’’

उस ने मास्क लगा कर लोगों को एक जगह जमा कर लिया. ये वे जालिम और कातिल लोग थे, जिन्होंने मजबूर और बेबस लोगों को तड़पातड़पा कर मारा था. शमा ने पूछा, ‘‘अब इन के साथ क्या करोगे?’’

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‘‘वही, जो इन्होंने दूसरों के साथ किया है,’’ राहिल आगे बोला, ‘‘चलो शमा, जल्दी आओ. हमें बाकी लोगों को यहां से आजाद करना है.’’

चाबियां राहिल के पास थीं. पहले उस ने ऊपर के कमरों के लोगों को एकएक कर आजाद किया और उन्हें धीमी आवाज में सारे हालात समझा दिए. उन्हें सलाह दी कि अपने रिश्तेदारों से बच कर किसी टीवी चैनल में चले जाओ. जब चैनल वाले तुम्हारी कहानी प्रसारित करेंगे, पुलिस खुदबखुद मदद को आ जाएगी.

सभी 17 मरीज आजाद हो गए. इन में नूर और सोहेल भी थे. सारे मरीज डरेसहमे जरूर थे लेकिन आजादी पर खुश नजर आ रहे थे. फिर राहिल औफिस में आया, जहां डा. काशान और उस के साथी बेहोश पड़े थे. उस ने सब की तलाशी ली. उन के पास हजारों रुपए मिले. वह सब उस ने अपने पास रख लिए. डा. काशान के सूटकेस से 10 हजार डौलर निकले जो उस ने सुरक्षित रख लिए. बाकी की सारी लोकल करेंसी मरीजों में बांट दी.

सभी मरीजों के क्लिनिक से निकल जाने के बाद वह औफिस के पास वाले कमरे में आया, जहां बड़ेबड़े डिब्बे रखे थे, जिन से एक सुतली निकल कर बाहर जा रही थी. सुतली को आग दिखा कर राहिल शमा का हाथ पकड़ कर फौरन इमारत से बाहर आ गया. क्योंकि इमारत को जला कर खाक करने का इंतजाम वह पहले ही कर चुका था.

बाहर डा. काशान की कार खड़ी थी. उस ने सूटकेस उठा कर आग में फेंक दिया. कार की चाबी वह पहले ही ले चुका था. जैसे ही वे दोनों कार में बैठ कर कुछ दूर पहुंचे, बड़े जोर का धमाका हुआ. पूरी इमारत आग की लपटों में घिर गई.

नूर और सोहेल साथसाथ बाहर आए और एक तरफ चल पड़े. सोहेल ने नूर से कहा, ‘‘तुम अभी मेरे साथ चलो. दोनों सोचसमझ कर कोई कदम उठाएंगे.’’

बाकी के 15 लोग बस में बैठ कर एक टीवी चैनल के स्टूडियो की तरफ रवाना हो गए. सोहेल ने एक टैक्सी रोकी. रास्ते से कुछ खानेपीने का सामान लिया और एक शानदार बिल्डिंग के सामने उतरे. इस बिल्डिंग की दूसरी मंजिल पर सोहेल का एक शानदार फ्लैट था.

दरवाजे पर सोहेल ने कुछ नंबर बोल कर अनलौक कहा. दरवाजा क्लिक की आवाज के साथ खुल गया. यह आवाज से खुलने वाला दरवाजा था. दोनों ने फ्रैश हो कर खाना खाया. वहां पहुंच सोहेल ने नूर को अपनी कहानी सुनाई. पिता की जमीन पर सोहेल ने एक हौजरी की फैक्ट्री लगाई थी. धीरेधीरे उस का बिजनैस अच्छी तरह चल निकला. उस ने अपने दोनों भाइयों को भी पढ़ालिखा कर अपने साथ लगा लिया.

सोहेल आमदनी का एक चौथाई हिस्सा गरीब और मजबूर लोगों में बांट देता था और एक चौथाई अपने भाइयों को देता था, जो एक बड़ी रकम थी. पर भाइयों की नीयत बिगड़ गई. बिजनैस पर कब्जा करने के लिए उन्होंने सोहेल को नशीली चीज पिला कर उसे डा. काशान के क्लिनिक में भरती करा दिया.

उस दिन सोहेल ने इतने सालों के बाद नूर से अपनी मोहब्बत का इजहार किया. नूर ने शरमा कर सिर झुका लिया.

सारे मरीज टीवी चैनल के स्टूडियो पहुंचे और जब उन्होंने अपनी दास्तान सुनाई तो पूरे शहर में हंगामा मच गया. आईजी पुलिस ने मीडिया में खबर आते ही उन में से कुछ मरीजों के रिश्तेदारों के भागने से पहले ही दबिश डलवा कर हिरासत में ले लिया. हजारों की संख्या में लोग टीवी चैनल के स्टूडियो के सामने जमा हो गए.

आईजी ने वहां पहुंच कर वादा किया, ‘‘इन मजबूर और बेबस लोगों को जरूर इंसाफ मिलेगा. जो बीमार हैं, उन का इलाज कराया जाएगा. आरोपियों को हिरासत में लिया जा चुका है और उन के खिलाफ सख्त काररवाई की जाएगी.’’

दूसरे दिन यह सारी कहानी आम हो गई. पुलिस डा. काशान के क्लिनिक पर भी पहुंची. वहां राख और हड्डियों के अलावा कुछ नहीं मिला. क्या हुआ? कैसे हुआ? क्यों हुआ? यह किसी भी मरीज को पता नहीं था.

नूर जब दूसरे दिन भी घर नहीं पहुंची तो सफदर, असगर और हुमा बेहद परेशान हो गए. डर से उन का बुरा हाल था. तीसरे दिन उन्हें नूर का फोन आया. उस ने उन्हें एक होटल में मिलने के लिए बुलाया.

नूर को सहीसलामत देख कर उन तीनों की हालत खराब हो गई. वे सब रोरो कर माफी मांगने लगे. नूर ने कहा, ‘‘तुम मेरी औलाद हो. मैं तुम्हें माफ करती हूं पर एक शर्त पर. कंपनी के 55 प्रतिशत शेयर मेरे पास रहेंगे और 45 प्रतिशत तुम तीनों के. अगर तुम्हें मंजूर है तो मैं घर भी तुम्हारे नाम कर देती हूं. नहीं तो अगली मुलाकात अदालत में होगी. सोचने के लिए 2 दिन का टाइम दे रही हूं.’’ यह सब सोहेल का प्लान था.

2 दिन बाद उन लोगों ने इनकार में जवाब दिया. क्योंकि 55 प्रतिशत शेयर नूर के पास होने से वह उन्हें किसी भी बात के लिए मजबूर कर सकती थी. नूर ने पूरी तैयारी की.

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नूर ने सीनियर मनोचिकित्सक से दिमागी तौर पर सही होने का सर्टिफिकेट भी ले लिया. इस के बाद उस ने अदालत में केस डाल दिया. सोहेल पूरी तरह से उस के साथ था. उस के पास पैसे की कोई कमी नहीं थी. एक अच्छा वकील भी उस ने कर लिया.

उस दिन अदालत में बहुत हुजूम था. नूर बहुत अच्छे से तैयार हो कर आई थी. अदालत में एक घंटे बहस चलती रही. सबूतों और दलीलों पर जज ने फैसला सुनाया कि नूर पूरी तरह से सेहतमंद है और अपनी कंपनी बहुत अच्छे से चला सकती हैं. इसलिए तीनों औलादें फैक्ट्री से बेदखल की जाती हैं. एक बात और ध्यान रखी जाए कि नूर की शिकायत पर उन्हें जेल भेज दिया जाएगा.

तीनों नाकाम हो कर अदालत से बाहर निकले. पहले ही उन का इतना पैसा खर्च हो चुका था. वे पैसेपैसे को मोहताज हो गए. नूर सोहेल के साथ उस के फ्लैट में चली गई.

सोहेल ने भी अपने भाइयों को 5-5 करोड़ और घर दे कर अपने बिजनैस से अलग कर दिया. वे लोग तो इतने डरे हुए थे कि पता नहीं सोहेल उन के साथ क्या करेगा. पैसे ले कर खुशीखुशी वे अलग हो गए. दूसरे दिन शाम को चंद दोस्तों की मौजूदगी में नूर और सोहेल ने निकाह कर लिया. नूर और सोहेल की बरसों की आरजू पूरी हुई.

नूर को एक चाहने वाला जीवनसाथी मिल गया. नूर ने सोहेल से कहा, ‘‘सोहेल मेरे बच्चे अब बहुत भुगत चुके हैं. उन्हें बहुत सजा मिल चुकी है. इसलिए वह फैक्ट्री में उन के नाम कर के सुकून की जिंदगी जीना चाहती हूं.’’

फिर नूर ने उन्हें बुला कर फैक्ट्री उन के सुपुर्द कर दी. पुराने मैनेजर को बहाल कर दिया और शर्त लगा दी कि चौथाई आमदनी गरीब लोगों में बांटी जाएगी. अगर इस में जरा सी भी गलती हुई तो अंजाम के वे खुद जिम्मेदार होंगे. सारी बातें पक्के तौर पर लिखी गईं. नूर ने एक धमकी और दे दी कि कभी भी उस की और सोहेल की अननेचुरल डेथ होती है तो उस की जिम्मेदारी उन तीनों की ही होगी.

दूसरे दिन नूर और सोहेल हनीमून मनाने के लिए एक हिल स्टेशन की तरफ निकल गए. वहां पर नूर के मोबाइल में कुछ खराबी आ गई थी. माल रोड पर घूमते हुए दोनों एक मोबाइल की दुकान पर पहुंचे. दुकानदार को देख कर दोनों चौंक गए. दुकानदार का भी चेहरा उतर गया. वह जल्दी से बोला, ‘‘मैं आप की क्या खिदमत कर सकता हूं?’’

‘‘कोई अच्छा सा मोबाइल दिखाइए.’’ सोहेल ने कहा.

एक अच्छा सा मोबाइल पसंद कर के सोहेल ने पैसे देते हुए कहा, ‘‘आप हमारे एक पहचान वाले से बहुत मिल रहे हैं. क्या मैं आप नाम जान सकता हूं?’’

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‘‘मेरा नाम नजीर हसन है.’’

नूर ने सोहेल का हाथ दबाते हुए कहा, ‘‘मेरा खयाल है यह वो नहीं है. आइए चलें. शायद आप को गलतफहमी हुई है.’’

सोहेल ने बाहर निकल कर कहा, ‘‘नूर वह राहिल था.’’

‘‘आप ठीक कह रहे हैं. पर उसी ने तो हम सब को बचाया है. अब वह बहुत बदल गया है.’’ सोहेल ने सिर हिलाते हुए कहा, ‘‘सच कह रही हो. उसे भी तो एक मौका मिलना चाहिए.’’

नूर और सोहेल पुरसकून हो कर वहां से चले गए एक लंबी और खुशहाल जिंदगी गुजारने के लिए.

प्रस्तुति : शकीला एस. हुसैन  

एक मौका और : भाग 3- अच्छाई की हमेशा जीत होती है

तब एक दिन नूर ने असगर, सफदर, हुमा और अहमद चारों को बैठा कर बहुत समझाया. बिजनैस की ऊंचनीच बताईं. आमदनी के गिरते ग्राफ के बारे में उन से बात की. उन चारों ने सारा दोष नूर के सिर जड़ दिया. इतना ही नहीं उन्होंने यहां तक कह दिया, ‘‘आप का काम करने का तरीका गलत है. अभी तक आप पुरानी टेक्नोलौजी से काम कर रही हैं. एक बार नए जमाने के तकाजे के मुताबिक सब कुछ बदल दीजिए, फिर देखिए आमदनी में कैसी बढ़त होती है.’’

2-3 दिन तक इस मामले को ले कर उन के बीच खूब बहस होती रही. पुराने मैनेजर भी शामिल हुए. वे नूर का साथ दे रहे थे. चौथे दिन बड़े बेटे ने फैसला सुना दिया, ‘‘अम्मी, अब आप बिजनैस संभालने के काबिल नहीं रहीं. अब आप की उम्र हो गई है. लगता है, आप का दिमाग भी काम नहीं कर रहा. ऐसे में आप आराम कीजिए, बिजनैस हम संभाल लेंगे.’’

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इतना सुनते ही नूर गुस्से से फट पड़ी, ‘‘तुम में से कोई भी इस काबिल नहीं है कि इस बिजनैस के एक हिस्से को भी संभाल सके. मैं ने सब कुछ तुम्हारे बाप के साथ रह कर सीखा था. तब कहीं जा कर मैं परफेक्ट हुई. जब तुम लोग भी इस लायक हो जाओगे तो मैं सब कुछ तुम्हें खुद ही सौंप दूंगी.’’

बच्चे इस बात पर राजी नहीं थे. माहौल में तनातनी फैल गई. फिर योजना बना कर बच्चों ने नूर को पागलखाने भेजने की योजना बनाई. इस संबंध में उन्होंने डा. काशान से बात की. वह मोटा पैसा ले कर किसी को भी पागल बना देता था. नूर के बच्चों ने नशीला जूस पिला कर उसे डा. काशान के क्लिनिक पहुंचा दिया.

सारी कहानी सुन कर सोहेल ने कहा, ‘‘यह सब एक साजिश है. तुम्हारे बच्चों ने बिजनैस हड़पने के लिए तुम्हें पागलखाने में दाखिल करा दिया और डाक्टर ने तुम्हें ऐसी दवाएं दीं कि तुम पागलों जैसी हरकतें करने लगीं. मैं डा. काशान को अच्छी तरह समझ गया हूं. तुम घबराओ मत. मैं जरूर कुछ करूंगा. मेरी कहानी भी कुछ तुम्हारे जैसी ही है, बाद में कभी सुनाऊंगा.’’

उस क्लिनिक में शमा नाम की 24-25 साल की एक खूबसूरत लड़की भी कैद थी. सोहेल ने उस के बारे में बताया कि यह एक बहुत बड़े जमींदार की बेटी है. एक दुर्घटना में इस के मांबाप का इंतकाल हो गया. मांबाप ने शमा की शादी तय कर दी थी. इस से पहले कि वह उस की शादी करते, दोनों चल बसे. उन की मौत के बाद चाचा ने उन की प्रौपर्टी पर कब्जा करने के लिए शमा को यहां भरती करा दिया.

वह जवान और मजबूत इच्छाशक्ति वाली थी. दवाएं देने के बाद भी जब उस पर पागलपन नहीं दिखा तो डा. काशान ने राहिल से कहा कि शमा को दवाएं देने के साथ बिजली के शाक भी दें.

ये सारे काम राहिल करता था. 2-4 बार शाक देने के बाद राहिल के दिल में शमा की बेबसी और मासूमियत देख कर मोहब्बत जाग उठी. उस ने उसे शाक देने बंद कर दिए.

राहिल ने शमा को बताया कि उस का सगा चाचा ही उसे नशे की हालत में यहां छोड़ गया था और उसे पूरी तरह पागल बनाने के उस ने पूरे 20 लाख दिए थे.

सारी बातें सुन कर शमा रो पड़ी. तनहाई की मोहब्बत और हमदर्दी ने रंग दिखाया और वह राहिल से प्यार करने लगी. राहिल के लिए यह मोहब्बत किसी अनमोल खजाने की तरह थी. उसे जिंदगी में कभी किसी का प्यार नहीं मिला था. उस की आंखों में एक अच्छी जिंदगी के ख्वाब सजने लगे. पर उस के लिए इस जिंदगी को छोड़ना नामुमकिन था.

वह डा. काशान को छोड़ कर कहीं नहीं जा सकता था. अगर जाता भी तो उसे ढूंढ कर मार दिया जाता. क्योंकि काशान के गुनाह के खेल के सारे राज वह जानता था. उस की जबान खुलते ही काशान बरबाद हो जाता. उस ने सोचा कि उसे तो मरना ही है, क्यों न शमा की जिंदगी बचा ली जाए. उस ने कहा, ‘‘सुनो शमा, मैं तुम्हें यहां से निकाल दूंगा. तुम अपने चाचा के पास चली जाओ.’’

शमा लरज गई. उस ने तड़प कर राहिल का हाथ पकड़ लिया और कहा, ‘‘मैं कहीं नहीं जाऊंगी. मैं अब आप के साथ ही जिऊंगी और मरूंगी.’’

राहिल को तो जैसे नई जिंदगी मिल गई. उस ने कहा, ‘‘मैं तुम्हें एक राज की बात बता रहा हूं. डा. काशान ने इस क्लिनिक को तबाह करने का हुक्म दिया है, यहां कोई नहीं बचेगा.’’

‘‘राहिल, तुम इतने पत्थरदिल नहीं हो सकते. तुम इस जुर्म का हिस्सा नहीं बनोगे. यह 17 लोगों की जिंदगी का सवाल है. तुम्हें मेरी कसम है. तुम ऐसा हरगिज नहीं करना.’’ वह बोली.

‘‘मैं पूरी कोशिश करूंगा कि यह काम न करूं, पर उस से पहले मैं तुम्हें एक महफूज जगह पहुंचा देना चाहता हूं. वहां पहुंचा कर मैं तुम से मिलता रहूंगा. फोन पर बात भी करता रहूंगा.’’ राहिल ने कहा.

दूसरे दिन ही मौका देख कर उस ने बहुत खामोशी से शमा को लांड्री के कपड़े ले जाने वाली गाड़ी में कपड़ों के नीचे छिपा कर क्लिनिक से निकाल दिया. साथ ही एक फ्लैट का पता बता कर उसे उस की चाबी दे दी.

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शमा सब की नजरों से बच कर उस फ्लैट तक पहुंच गई. यह फ्लैट राहिल का ही था पर इस के बारे में किसी को कुछ पता नहीं था. वहां खानेपीने का सब सामान था.

राहिल की दी हुई दवाओं से अब शमा की तबीयत भी ठीक हो रही थी. राहिल ने उसे बताया कि वह डा. काशान का क्लिनिक तबाह कर के बाहर जाने की फिराक में है. डा. काशान ने मरीजों के रिश्तेदारों को सब बता कर उन से काफी पैसे ऐंठ लिए हैं. किसी को भी उन की मौत से कोई ऐतराज नहीं है.

क्लिनिक से शमा के गायब हो जाने के बाद उस की गुमशुदगी की 1-2 दिन चर्चा रही. डा. काशान वैसे ही परेशान चल रहा था. पता चला कि शमा अपने घर नहीं पहुंची है. पर उस के चाचा के पास से कोई खबर न आने पर काशान निश्चित हो कर बैठ गया.

शमा की मोहब्बत ने राहिल को पूरी तरह बदल दिया था. बचपन से वह डा. काशान के साथ था. इस बीच उस के सामने 30 मरीज दुनिया से रुखसत हो चुके थे. जिस किसी को मारना होता था, उसे एक इंजेक्शन दे दिया जाता था, वह पागलों जैसी हरकतें करने लगता था. उस के 12 घंटे बाद डा. काशान मरीज को एक और इंजेक्शन लगाता. उस इंजेक्शन के लगाने के कुछ मिनट बाद ही मरीज ऐंठ कर खत्म हो जाता.

मौत इतनी भयानक होती थी कि राहिल खुद कांप जाता था. डा. काशान मरीज की लाश डेथ सर्टिफिकेट के साथ उस के रिश्तेदारों को सौंप देता था. जिस की एवज में वह उन से एक मोटी रकम वसूल करता था.

शमा की मोहब्बत ने राहिल के अंदर के इंसान को जगा दिया था. 17 लोगों को एक साथ मारना उस के वश की बात नहीं थी. उस ने सोचा कि अगर वह पुलिस को खबर करता है तो वह खुद भी पकड़ा जाएगा. यह दरिंदा तो पैसे दे कर छूट जाएगा.

डा. काशान ने क्लिनिक खत्म करने की सारी जिम्मेदारी राहिल को सौंप दी थी. राहिल और क्लिनिक में काम करने वालों को काशान ने अच्छीखासी रकम दे दी थी. उसी रात क्लिनिक उड़ाना था. डा. काशान ने अपनी पूरी तैयारी कर ली.

रकम वह पहले ही बाहर के बैंकों में भेज चुका था. 10 हजार डौलर वह अपने साथ ले जा रहा था. रात 2 बजे उस की फ्लाइट थी. वह बैठा हुआ बड़ी बेचैनी से तबाही की खबर मिलने का इंतजार कर रहा था. तभी 8 बजे उस के मोबाइल पर राहिल का फोन आया, ‘‘बौस, यहां एक बड़ा मसला हो गया है.’’

‘‘कैसा मसला? जो भी है तुम उसे खुद सौल्व करो.’’ डा. काशान ने उस से कहा.

‘‘मैं नहीं कर सकता. आप का यहां आना जरूरी है, नहीं तो आज रात के प्लान पर अमल नहीं किया जा सकेगा. मैं आप को फोन पर कुछ नहीं बता सकता.’’ राहिल ने बताया.

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डा. काशान ने सोचा आज की रात क्लिनिक बरबाद होना जरूरी है, क्योंकि कुछ लोगों को इस की भनक मिल चुकी थी. कहीं कोई मसला न खड़ा हो जाए, सोचते हुए उस ने अपना एक सूटकेस कार में रखा और क्लिनिक की तरफ रवाना हो गया.

जानें आगे क्या हुआ कहानी के अगले भाग में…

एक मौका और : भाग 2- अच्छाई की हमेशा जीत होती है

जब नूर की आंखें खुलीं तो उसे सामने वाले कमरे में एक आदमी दिखा, जिस की उम्र करीब 45 साल थी पर उस के बाल सफेद थे. बाद में पता लगा कि उस का नाम सोहेल है. उस ने सफेद कुरतापायजामा पहन रखा था. वह बेहद खूबसूरत और स्मार्ट था. सामने खड़ा फोटोग्राफर उस के फोटो खींच रहा था.

पता चला कि सोहेल को भी किसी ने इस पागलों वाले अस्पताल में भरती करा दिया था, जबकि वह भी पूरी तरह स्वस्थ था. वह अस्पताल डा. काशान का था. कुछ देर बाद डा. काशान वहां आया तो सोहेल चीख पड़ा, ‘‘यह गलत है. आप सब धोखा कर रहे हैं. सही इंसान को यहां क्यों भरती कर रखा है?’’

डा. काशान ने इत्मीनान से कहा, ‘‘ये देखो.’’

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इस के बाद उस ने रिमोट से एक स्क्रीन औन कर दी. स्क्रीन पर एक स्लाइड चलने लगी, जिस में सोहेल पागलों की तरह चीख रहा था, चिल्ला रहा था. 2 नर्सें उसे बांध रही थीं. वह देख कर सोहेल फिर चीखा, ‘‘यह सरासर झूठ है.’’

उस के इतना कहते ही डाक्टर के इशारे पर नर्स ने फिर से सोहेल को इंजेक्शन लगा कर सुला दिया.

सोहेल को जब होश आया तो उस ने नूर को गौर से देखा. उसे याद आया कि यह लड़की तो वही है जो ईमान ट्रस्ट स्कूल में पढ़ती थी. सोहेल भी बीकौम करने के बाद स्कूल में मदद के तौर पर पढ़ाने जाता था. वैसे सोहेल भी एक अच्छे परिवार से ताल्लुक रखता था.

उस के पिता की एक फैक्ट्री थी. फैक्ट्री में अचानक लगने वाली आग ने सब कुछ बरबाद कर दिया था. उस में उस के पिता की भी मौत हो गई थी. उस समय सोहेल 19 साल का था. उन दिनों वह ईमान ट्रस्ट के स्कूल में पढ़ा रहा था.

सोहेल के लिए पिता की मौत बहुत बड़ा सदमा थी. उस ने अपने कुछ हमदर्दों की मदद से इंश्योरेंस का क्लेम हासिल किया. फिर से फैक्ट्री शुरू करने के बजाय उस ने वे पैसे बैंक में जमा कर दिए. फैक्ट्री की जमीन भी किराए पर दे दी, जिस से परिवार की गुजरबसर ठीक से होती रहे. उस के 2 और भाई थे जो उस से छोटे थे. एक था कामिल जिस की उम्र 15 साल थी, उस से छोटा था 12 साल का जमील.

भाइयों और मां की जिम्मेदारी सोहेल पर ही थी. यह जिम्मेदारी वह बहुत अच्छे से निभा रहा था. एमबीए के एडमिशन में अभी टाइम था, इसलिए वह ट्रस्ट के स्कूल में पढ़ाता रहा. इस स्कूल में ज्यादातर गरीब घरों के बच्चे पढ़ते थे. नूर को उस ने उसी स्कूल में देखा था. वह बेहद खूबसूरत थी. उस नूर को आज वह एक मेच्योर औरत के रूप में देख रहा था. वही बाल, वही आंखें, वही नैननक्श.

यह क्लिनिक शहर से बाहर सुनसान सी जगह पर था. चारदीवारी बहुत ऊंची थी. ऊपरी मंजिल की सब खिड़कियों में मोटीमोटी ग्रिल लगी हुई थीं. इंतजाम ऐसा था कि कोई भी अपनी मरजी से बाहर नहीं निकल सकता था.

पहले डा. काशान एक मामूली मनोचिकित्सक था. वह प्रोफेसर मुनीर के साथ काम करता था. फिर उस ने अपना खुद का क्लिनिक खोल लिया. लोगों को ब्लैकमेल करकर के वह कुछ ही दिनों में अमीर हो गया. इस के बाद उस ने शहर के बाहर यह क्लिनिक बनवा लिया.

इस इमारत में आनेजाने के खास नियम थे. एक अलग अंदाज में दस्तक देने से ही दरवाजे खुलते थे. काशान ने यहां 5 लोग रखे हुए थे. 2 नर्सें, 2 कंपाउंडर, एक मैनेजर कम फोटोग्राफर जिस का नाम राहिल था. सही मायनों में राहिल ही उस क्लिनिक का कर्ताधर्ता था.

डा. काशान उसे उस समय यतीमखाने से ले कर आया था, जब वह बहुत छोटा था. अपने यहां ला कर उस ने उस की परवरिश की. धीरेधीरे उसे क्लिनिक के सारे कामों में टे्रंड कर दिया. अब वह इतना सक्षम हो गया था कि काशान की गैरमौजूदगी में अकेला ही सारे मरीजों को संभाल लेता था. एक तरह से वह डा. काशान का दाहिना हाथ था.

एक दिन डा. काशान कुछ परेशान सा था. उस ने राहिल की तरफ देखते हुए कहा, ‘‘राहिल, मुझे कुछ खतरा महसूस हो रहा है. शायद किसी को हमारे गोरखधंधे की खबर लग गई है. इसलिए मैं सोच रहा हूं कि सब कुछ खत्म कर दिया जाए.’’

राहिल घबरा कर बोला, ‘‘डाक्टर साहब, ऐसा कैसे हो सकता है? यह तो बहुत बड़ा जुल्म होगा.’’

‘‘तुम मेरे टुकड़ों पर पल कर यहां तक पहुंचे हो. तुम्हें सहीगलत की पहचान कब से हो गई. मैं जो कह रहा हूं, वही होगा. अगले हफ्ते यह काम हर हाल में करना है.’’ डाक्टर ने दहाड़ कर कहा.

नूर को ऐसा लगा जैसे कोई उस का नाम पुकार रहा है. उस ने दरवाजे की जाली की तरफ देखा तो वहां सोहेल के सफेद बाल दिखाई दे रहे थे. यह पहला मौका था जब किसी ने उसे पुकारा था. वरना वहां इतना सख्त पहरा था कि कोई किसी से बात तक नहीं कर सकता था. चोरीछिपे बात कर ले तो अलग बात है.

नूर को यहां आए दूसरा महीना चल रहा था. उसे अब लगने लगा था कि वह सचमुच ही पागल है. सोहेल ने फिर कहा, ‘‘नूर, मैं सोहेल हूं. याद है, जब मैं तुम्हें स्कूल में पढ़ाने आता था…’’

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नूर ने कुछ याद करते हुए कहा, ‘‘हां, मुझे याद आ रहा है. आप हमारे स्कूल में पढ़ाते थे. मगर आप यहां कैसे?’’

‘‘मुझे एक साजिश के तहत यहां डाला गया है. मुझे लगता है कि तुम भी किसी साजिश का शिकार हो कर यहां पहुंची हो. इस बारे में मैं तुम से बाद में बात करूंगा.’’

नूर सोच में पड़ गई. उस के दिमाग में परिवार और कारोबार की पुरानी बातें घूमने लगीं. उस के दोनों बेटे सफदर और असगर के कालेज के जमाने से ही पर निकालने शुरू हो गए थे. दौलत के साथ सारी बुराइयां भी उन दोनों में आती गईं.

नूर उन्हें समझाने की बहुत कोशिश करती लेकिन उन पर कुछ असर नहीं हुआ. दूसरी तरफ उस का टेक्सटाइल मिल का बिजनैस भी आसान नहीं था. उस में भी उसे सिर खपाना पड़ता था. हालात बुरे से बुरे होते गए. अब दोनों बेटों ने घर पर शराब भी पीनी शुरू कर दी थी. रोज नईनई लड़कियां घर पर दिखाई देतीं.

नूर अगर ज्यादा जिरह करती या उन्हें कम पैसे देती तो घर की कीमती चीजें गायब होने लगतीं. अगर वह मेनगेट बंद करती तो पीछे के दरवाजे से निकल जाते. यहां तक कि उस के जेवर भी गायब होने लगे थे. जैसेतैसे उन दोनों ने ग्रैजुएशन किया और मां के सामने तन कर खड़े हो गए, ‘‘अम्मी, अब हम पढ़लिख कर इस काबिल हो गए हैं कि अपना बिजनैस संभाल सकें.’’

‘‘अच्छा, ठीक है. कल से तुम औफिस आओ. मैं देखती हूं कि तुम दोनों को क्या काम दिया जा सकता है.’’ नूर ने कहा.

बेटी हुमा भी भाइयों से किसी तरह पीछे न थी. उस ने भी भाइयों की देखादेखी मौडर्न कल्चर सीख लिया था. रोज उस के बौयफ्रैंड बदलते थे. नूर पति के बिना अपने को बेहद अकेला और कमजोर समझने लगी थी. अब हालात उस के काबू से बाहर होते दिख रहे थे. मजबूर हो कर वह बेटी से बोली, ‘‘बेटा, जिसे तुम पसंद करती हो, उसे मुझ से मिलवाओ. अगर वह ठीक होगा तो उसी से तुम्हारी शादी कर दूंगी.’’

हुमा दूसरे दिन ही एक लड़के को ले आई, जिस का नाम अहमद था. वह शक्ल से ही मक्कार नजर आ रहा था. उस के मांबाप नहीं थे, चचा के पास रहता था. बीकौम कर के नौकरी की तलाश में था. हुमा के दोनों भाई इस लड़के से शादी के खिलाफ थे. नूर कोई नया तमाशा नहीं करना चाहती थी. उस ने बेटों को समझाया. 4 लोगों को जमा कर के बेटी का निकाह अहमद से कर दिया.

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बेटी ने गरीब ससुराल जाने से साफ मना कर दिया. इसलिए अहमद भी घरजंवाई बन कर रहने लगा. असगर और सफदर तो बराबर औफिस जा रहे थे. काम भी सीख रहे थे पर पैसे मारने में कोई मौका नहीं छोड़ते थे. धीरेधीरे असगर मैनेजर की पोस्ट पर पहुंच गया. इस के बाद तो वह बड़ीबड़ी रकमों के घपले करने लगा, जिस में सफदर उस का साथ देता था. हुमा के कहने पर अहमद को भी नौकरी देनी पड़ी. हालात दिनबदिन खराब हो रहे थे. कंपनी लगातार घाटे में चलने लगी.

जानें आगे क्या हुआ कहानी के अगले भाग में…

एक मौका और : भाग 1- अच्छाई की हमेशा जीत होती है

कमाल खान के पिता स्क्रैप कारोबारी थे. कमाल अपने मांबाप की एकलौती संतान था इसलिए लाड़प्यार में वह पढ़ नहीं सका तो पिता ने उसे अपने धंधे में ही लगा लिया. कमाल ने जल्द ही अपने पिता के धंधे को संभाल लिया.

अपनी मेहनत और होशियारी से उस ने अपने पिता से ज्यादा तरक्की की. जल्दी ही वह लाखोंकरोड़ों में खेलने लगा. उस ने अपनी काफी बड़ी फैक्ट्री भी खड़ी कर ली. यह देख पिता ने उस की जल्द ही शादी भी कर दी. कमाल जिस तरह पैसा कमाता था, उसी तरह अय्याशी और अपने दूसरे शौकों पर लुटाता भी था. पिता ने उसे बहुत समझाया पर उस ने उन की बातों पर ध्यान नहीं दिया. इसी वजह से पत्नी से भी उस की नहीं बनती थी, जिस से वह बहुत तनाव में रहने लगी थी.

इस का नतीजा यह हुआ कि 10-12 साल बाद ही बीवी दुनिया ही छोड़ गई. कमाल के पिता दिल के मरीज थे, पर कमाल ने साधनसंपन्न होने के बावजूद न तो उन का किसी अच्छे अस्पताल में इलाज कराया और न ही उन की देखभाल की, जिस से उन की भी मौत हो गई.

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पिता की मृत्यु के बाद कमाल पूरी तरह से आजाद हो गया था. अब वह अपनी जिंदगी मनमाने तरीके से गुजारने लगा. एक बार उसे ईमान ट्रस्ट के स्कूल में चीफ गेस्ट के तौर पर बुलाया गया था. वहां उस की नजर नूर नाम की छात्रा पर पड़ी जो सिर्फ 15 साल की थी और वहां 11वीं कक्षा में पढ़ती थी.

कमाल खान उस पर जीजान से फिदा हो गया. उस ने फैसला कर लिया कि वह नूर से शादी करेगा. जल्द ही उस ने पता लगाया तो जानकारी मिली कि वह रहमत की बेटी है. रहमत चाटपकौड़ी का ठेला लगाता था. इस काम से उस के परिवार का गुजारा बड़ी मुश्किल से होता था.

इसी बीच अचानक एक दिन रात को उस के ठेले को किसी ने आग लगा दी. वही ठेला उस की रोजीरोटी का सहारा था. रहमत बहुत परेशान हुआ. उस के परिवार की भूखों मरने की नौबत आ गई. ऐसे वक्त पर कमाल खान एक फरिश्ते की तरह उस के पास पहुंचा. उस ने रहमत की खूब आर्थिक मदद की. इतना ही नहीं, उस ने उसे एक पक्की दुकान दिला कर उस का कारोबार भी जमवा दिया.

रहमत हैरान था कि इतना बड़ा सेठ उस पर इतना मेहरबान क्यों है. लेकिन रहमत की अनपढ़ बीवी समझ गई थी कि कमाल खान की नजर उस की बेटी नूर पर है.

जल्दी ही कमाल खान ने नूर का रिश्ता मांग लिया. रहमत इतनी बड़ी उम्र के व्यक्ति के साथ बेटी की शादी नहीं करना चाहता था, पर उस की बीवी ने कहा, ‘‘मर्द की उम्र नहीं, उस की हैसियत और दौलत देखी जाती है. हमारी बेटी वहां ऐश करेगी. फौरन हां कर दो.’’

रहमत ने पत्नी की बात मान कर हां कर के शादी की तारीख भी तय कर दी. नूर तो वेसे ही खूबसूरत थी, पर उस दिन लाल जोड़े में उस की खूबसूरती और ज्यादा बढ़ गई थी. मांबाप ने ढेरों आशीर्वाद दे कर नूर को घर से विदा किया.

कमाल खान उसे पा कर खुश था. अब नूर की किस्मत भी एकदम पलट गई थी. अभावों भरी जिंदगी से निकल कर वह ऐसी जगह आ गई थी, जहां रुपएपैसे की कोई कमी नहीं थी. नूर से निकाह करने के बाद कमाल खान में भी सुधार आ गया था.

उस ने अब बाहरी औरतों से मिलना बंद कर दिया. वह नूर को दिलोजान से प्यार करने लगा. उस के अंदर यह बदलाव नूर की मोहब्बत और खिदमत से आया था. कमाल ने सारी बुरी आदतें छोड़ दीं.

जिंदगी खुशी से बसर होने लगी. देखतेदेखते 5 साल कब गुजर गए, उन्हें पता ही नहीं चला. उन के यहां 2 बेटे और एक बेटी पैदा हो गई. कमाल खान ने अपने बच्चों की अच्छी परवरिश की. इसी दौरान कमाल अपने आप को कमजोर सा महसूस करने लगा. पता नहीं उसे क्यों लग रहा था कि वह अब ज्यादा नहीं जिएगा. एक दिन उस ने नूर से कहा, ‘‘नूर, तुम अपनी पढ़ाई फिर से शुरू कर दो.’’

पति की यह बात सुन कर नूर चौंकते हुए बोली, ‘‘यह आप क्या कह रहे हैं. मैं अब इस उम्र में पढ़ाई करूंगी? यह तो बेटे के स्कूल जाने का वक्त है.’’

‘‘देखो नूर, मेरे बाद तुम्हें ही अपना सारा बिजनैस संभालना है. तुम बच्चों पर कभी भरोसा मत करना. मुझे उम्मीद है कि मेरे बच्चे भी मेरी तरह ही खुदगर्ज निकलेंगे.’’ कमाल खान ने पत्नी को समझाया.

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नूर को शौहर की बात माननी पड़ी और उस ने पढ़ाई शुरू कर दी. 4 साल में उस ने ग्रैजुएशन पूरा कर लिया. अब उस की बेटी भी स्कूल जाने लगी थी. नूर अपने बच्चों से बहुत प्यार करती थी. कालेज के बाद वह अपना सारा वक्त उन्हीं के साथ गुजारती थी. बच्चों की पढ़ाई भी महंगे स्कूलों में हो रही थी.

कमाल खान ने नूर के मायके वालों को भी इतना कुछ दे दिया था कि वे सभी ऐश की जिंदगी गुजार रहे थे. नूर के सभी भाईबहनों की शादियां हो गई थीं. नूर के ग्रैजुएशन के बाद कमाल खान ने उस का एडमिशन एमबीए की ईवनिंग क्लास में करा दिया था.

सुबह वह उसे अपने साथ नई फैक्ट्री ले जाता, जहां वह उसे कारोबार की बारीकियां बताता. नूर काफी जहीन थी. जल्दी ही वह कारोबार की सारी बारीकियां समझ गई.

उस का एमबीए पूरा होते ही कमाल ने उसे बोर्ड औफ डायरेक्टर्स का मेंबर बना दिया और कंपनी के एकतिहाई शेयर उस के नाम कर दिए. नूर समझ नहीं पा रही थी कि पति उसे फैक्ट्री के कामों में इतनी जल्दी एक्सपर्ट क्यों बनाना चाहते हैं.

इस के पीछे कमाल खान का अपना डर और अंदेशा था कि जिस तरह वह स्वार्थ और खुदगर्जी की वजह से अपने पिता की देखभाल नहीं कर पाया तो उस के बच्चे उस की सेवा नहीं करेंगे, क्योंकि स्वार्थ व लालच के कीटाणु उस के बच्चों के अंदर भी आ गए होंगे. इसलिए वह नूर को पूरी तरह से परफेक्ट बनाना चाहता था.

नूर ने फैक्ट्री का सारा काम बखूबी संभाल लिया था. एक दिन अचानक ही उस के शौहर की तबीयत खराब हो गई. उसे बड़े से बड़े डाक्टरों को दिखाया गया. पता चला कि उसे फेफड़ों का कैंसर है. पत्नी इलाज के लिए उसे सिंगापुर ले गई. वहां उस का औपरेशन हुआ. उसे सांस की नकली नली लगा दी गई.

औपरेशन कामयाब रहा. ठीक हो कर वह घर लौट आया. वह फिर से तंदुरुस्त हो कर अपना कामकाज देखने लगा. हालांकि वह पूरी तरह स्वस्थ था, इस के बावजूद भी उसे चैन नहीं था. उस ने धीरेधीरे कंपनी के सारे अधिकार और शेयर्स पत्नी नूर के नाम कर दिए. अपनी सारी प्रौपर्टी और बंगला भी नूर के नाम कर दिया.

इस के 2 साल बाद कैंसर उस के पूरे जिस्म में फैल गया. लाख इलाज के बावजूद भी वह बच नहीं सका. उस के मरते ही उस के रिश्तेदारों ने नूर के आसपास चक्कर काटने शुरू कर दिए. पर नूर ने किसी को भी भाव नहीं दिया, क्योंकि पति के जीते जी उन में से कोई भी रिश्तेदार उन के यहां नहीं आता था.

वैसे भी कमाल खान जीते जी पहले ही प्रौपर्टी का सारा काम इतना पक्का कर के गया था कि किसी बाहरी व्यक्ति के दखलंदाजी करने की कोई गुंजाइश नहीं थी. उस का मैनेजर भी मेहनती और वफादार था. इसलिए बिना किसी परेशानी के नूर ने सारा कारोबार खुद संभाल लिया.

नूर के बच्चे भी अब बड़े हो चुके थे. एक बार की बात है. कारोबार की बातों को ले कर नूर की अपने तीनों बच्चों से तीखी नोंकझोंक हो गई. उसी दौरान नूर की बेटी हुमा एक गिलास में जूस ले आई.

नूर ने जैसे ही जूस पिया तो उस का सिर चकराने लगा और आंखों के सामने अंधेरा छा गया. वह बिस्तर पर ही लुढ़क गई. जब होश आया तो उस ने खुद को एक अस्पताल में पाया.

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नूर ने पास खड़ी नर्स से पूछा कि उसे यहां क्यों लाया गया है तो उस ने बताया कि आप पागलों की तरह हरकतें कर रही थीं, इसलिए आप का यहां इलाज किया जाएगा.

नूर आश्चर्यचकित रह गई क्योंकि वह पूरे होशोहवास में थी. तभी अचानक उसे लगा कि यह सब उस के बच्चों ने किया होगा. नूर ने नर्स को काफी समझाने की कोशिश की कि वह स्वस्थ है, लेकिन नर्स ने उस की एक नहीं सुनी. वह उसे एक इंजेक्शन लगा कर चली गई. इस के बाद नूर फिर से सो गई.

जानें आगे क्या हुआ कहानी के अगले भाग में…

क्यों, आखिर क्यों : भाग 3- मां की ममता सिर्फ बच्चे को देखती है

हमारे पड़ोस में ही निर्मल परिवार रहता है जिन की बड़ी बेटी प्रियंका  करिश्मा की खास सहेली है. दोनों एकसाथ 7वीं कक्षा में पढ़ती हैं.

पता चला कि प्रियंका ने मिट्टी का तेल छिड़क कर खुद को जलाने की कोशिश की थी जिस में उस का 80 प्रतिशत बदन आग की लपेट में आ गया था. मेरा दिमाग सुन्न हो गया. मेरी नजरों के सामने प्रियंका का चेहरा उभर आया. इतनी कम उम्र और इतना भयानक कदम…? इतना सारा साहस उस फू ल सी बच्ची ने कहां से पाया होगा? न जाने किस पीड़ादायी अनुभव से वह गुजर रही होगी जिस से छुटकारा पाने के लिए उस ने यह अंतिम कदम उठाया होगा? लगातार रोए जा रही करिश्मा को बड़ी मुश्किल से चुप करा कर उसे स्कूल के गेट तक छोड़ दिया. फिर मैं प्रियंका को देखने अस्पताल के लिए चल पड़ी.

अस्पताल के गेट पर ही मुझे मेरी एक अन्य पड़ोसिन ईराजी मिल गईं. उन से जो हकीकत पता चली उसे जान कर तो मेरे रोंगटे खड़े हो गए, कल्पना से परे एक हकीकत जिसे सुन कर पत्थर दिल इनसान का भी कलेजा फट जाएगा.

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प्रियंका की मम्मी को एक के बाद एक कर के 4 बेटियां हुईं. जाहिर है, इस के पीछे बेटा पाने की भारतीय मानसिकता काम कर रही होगी. धिक्कार है ऐसी घटिया सोच के साथ जीने वाले लोगों को…मेरे समग्र बदन में नफरत की तेज लहर दौड़ गई.

उन की आर्थिक स्थिति कुछ ठीक नहीं चल रही थी. इस महंगाई के दौर में 4 बेटियां और आने वाली 5वीं संतान की, सही ढंग से परवरिश कर पाना उन के लिए मुश्किल था. ऐसे में राजनजी के किसी मित्र ने उन की चौथी बेटी सोनिया को गोद लेने का प्रस्ताव रखा, जिसे उन्होंने मान लिया. क्या सोच कर उन्होंने ऐसा निर्णय किया यह तो वही जानें लेकिन प्रियंका इस बात के लिए हरगिज तैयार नहीं थी. उस ने साफ शब्दों में मम्मीपापा से कह दिया था कि यदि उन्होंने सोनिया को किसी और को सौंपने की बात सोची भी  तो वह उन्हें माफ नहीं करेगी.

प्रियंका बेहद समझदार और संवेदनशील बच्ची थी. वह उम्र से कुछ पहले ही पुख्ता हो चुकी थी. घर के उदासीन माहौल ने उसे कुछ अधिक ही संजीदा बना दिया था. बचपन की अल्हड़ता और मासूमियत, जो इस उम्र में आमतौर पर पाई जाती है, उस के वजूद से कब की गायब हो चुकी थी.

अपने को आग की लपटों के हवाले करने से पहले उस ने अपने हृदय की सारी पीड़ा शब्दों के माध्यम से बेजान कागज के पन्ने पर उड़ेल दी थी, अपने खून से लिखी उस चिट्ठी ने सब का दिल दहला दिया :

‘‘श्रद्धेय मम्मीपापा,

अब मुझे माफ कर दीजिए, मैं आप सब को छोड़ कर जा रही हूं. वैसे मैं आप के कंधों से अपनी जिम्मेदारी का कुछ बोझ हलका किए जा रही हूं ताकि आप के कमजोर कंधे सोनिया का बोझ उठाने में सक्षम बन सकें. अपनी तीनों बहनों को मैं अपनी जान से भी ज्यादा चाहती हूं. किसी को भी परिवार से अलग होते हुए मैं नहीं देख पाऊंगी. सोनिया न रहे उस से अच्छा है कि मैं ही न रहूं…अलविदा.’’

आप की लाड़ली बेटी,
प्रियंका.’’

4 दिन तक जिंदगी और मौत के बीच संघर्ष करती हुई प्रियंका आखिर हार गई और जिंदगी का दामन छोड़ कर वह मौत के आगोश में हमेशा के लिए समा गई पर वह मर कर भी एक मिसाल बन गई. उस की कुरबानी ने हमारे परंपरागत, दकियानूसी समाज पर हमेशा के लिए कलंक का टीका लगा दिया, जिसे अपने खून से भी हम कभी न मिटा पाएंगे.

प्रियंका की मौत के ठीक एक हफ्ते बाद मेरे भतीजे तेजस ने भी बेहोशी की हालत में ही दम तोड़ दिया. तेजस हमारे परिवार का एकमात्र जीवन ज्योति था, जो अपनी उज्ज्वल कीर्ति द्वारा हमारे परिवार को समृद्धि के उच्च शिखर पर पहुंचाता. हमारे समाज के फलक पर रोशन होने वाला सूर्य अचानक ही अस्त हो गया फिर कभी उदित न होने के लिए.

दिनरात मेरी नजर के सामने उन दोनों के हंसते हुए मासूम चेहरे छाए रहते. हर पल अपनेआप से मैं एक ही सवाल करती, क्यों? आखिर क्यों ऐसा होता है जिसे हम चाह कर भी स्वीकार नहीं कर पाते? उन की मौत क्या हमारे समाज के लिए संशोधन का विषय नहीं?

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दादीमां की पीढ़ी से ले कर प्रियंका के बीच कितने सालों का अंतराल है? दादीमां 85 वर्ष की हो चली हैं. तेजस सिर्फ 20 वसंत ही देख पाया और प्रियंका सिर्फ 12. इस लंबे अंतराल में क्या परिवर्तन की कोई गुंजाइश नहीं थी?

दादीमां औरत थीं फिर भी मानती थीं कि संसार पुरुष से ही चलता है. हर नीतिनियम, रीतिरिवाज सिर्फ पुरुष के दम से है फिर मालती का पति तो पुरुष है. उस का यह मानना लाजमी ही था कि जो पुरुष बेटा न पैदा कर पाए वह नामर्द होता है. प्रियंका के मातापिता भी तो इसी मानसिकता का शिकार हैं कि वंश की शान और नाम आगे बढ़ाने के लिए बेटा जरूरी है. क्या सोनिया की जगह अगर उन्होंने बेटा पैदा किया होता तो उसे किसी और की गोद में डालने की बात सोच सकते थे? या उस के बाद और बच्चा पैदा करने की जरूरत को स्वीकार कर पाते? नहीं, कभी नहीं….

भला हो मालती का जिस ने मेरी आंखें खोल दीं वरना जानेअनजाने मैं भी इन तमाम लोगों की तरह ही सोचती रह जाती. अपनी कुंठित मान्यताओं के भंवर से बाहर निकालने वाली मालती का मैं जितना शुक्रिया अदा करूं कम ही है.

तेजस की अकाल मौत ने दादी मां को यह सोचने पर मजबूर किया कि जिस कुलदीपक की चाह में उन्होंने अतीत में एक मासूम बच्ची के साथ अन्याय किया था उस कुलदीपक की जीवन ज्योति को अकाल ही बुझा कर नियति ने उन की करनी की सजा दी थी.

प्रियंका भी पुकारपुकार कर पूछ रही है, हर नारी और हर पुरुष यही सोचे और चाहे कि उन के घर बेटा ही पैदा हो तो भविष्य में कहां से लाएंगे हम वह कोख जो बेटे को पैदा करती है?

क्यों, आखिर क्यों : भाग 2- मां की ममता सिर्फ बच्चे को देखती है

डोरबेल बजने पर जब मैं ने दरवाजा खोला तो दरवाजे के बाहर मालती को खड़ा पाया. उसे सामने देख कर मेरा सारा गुस्सा हवा हो गया क्योंकि उस की सूजी हुई आंखें और चेहरे पर उंगलियों के निशान देख कर मैं समझ गई कि वह फिर अपने पति के जुल्म का शिकार हुई होगी.

‘‘क्या हुआ, मालती? तुम्हारे चेहरे पर हवाइयां क्यों उड़ रही हैं?’’ लगातार रो रही मालती उत्तर देने की स्थिति में कहां थी. मैं ने भी उसे रोने दिया.

मालती ने रोना बंद कर बताना शुरू किया, ‘‘भाभी, मैं तुम से माफी मांगती हूं. बंसी ने मुझे इतना पीटा कि मैं 3 दिन तक बिस्तर से उठ नहीं पाई.’’

‘‘लेकिन क्यों?’’ मुझे रहरह कर उस के पति पर गुस्सा आ रहा था. मन कर रहा था कि उसे पुलिस के हवाले कर दूं. पर अभी तो अस्पताल जाना ज्यादा जरूरी है.

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‘‘मालती, मेरे खयाल से तुम काफी थकी हुई लग रही हो. थोड़ी देर आराम कर लो. मुझे अभी अस्पताल जाना है,’’ मैं ने उसे संक्षेप में सब बता दिया और बोली, ‘‘मेरे लौटने तक तुम्हें यहीं रुकना पड़ेगा. हम बाद में बात करेंगे…करिश्मा स्कूल से आए तो उस के लिए नाश्ता बना देना.’’

मैं अस्पताल पहुंची. मुझे देखते ही अंजलि मेरे कंधे से लग कर बेतहाशा रोने लगी. मेरी भी आंखें छलछला आईं. मेडिकल कालिज का मेधावी छात्र, लेकिन पिछले 6 महीनों से दूरदर्शन के एक मशहूर धारावाहिक में प्रमुख किरदार निभा रहा था. अभी तो उस के कैरियर की शुरुआत हुई थी, लोग उसे जानने, पहचानने और सराहने लगे थे कि शूटिंग से लौटते वक्त लोकल टे्रन से गिर कर ब्रेन हैमरेज का शिकार हो गया. मां, पिताजी और मैं भाभी को संभालतेसंभालते खुद भी हिम्मत हारने लगे थे. सभी एकदूसरे को ढाढ़स बंधाने का असफल प्रयास कर रहे थे.

काफी रात हो चुकी थी. बच्चोें के कारण मुझे बेमन से घर जाना पड़ा. मालती की गोद में ऋचा तथा होम वर्क के दिए गए गणित के समीकरण को सुलझाने का प्रयास करती हुई करिश्मा को देख मेरी आंखें भर आईं.

मैं निढाल सी सोफे पर लेट गई. मेरे दिल और दिमाग पर तेजस की घटना की गहरी छाप पड़ी थी. थोड़े समय बाद जब कुछ सामान्य हुई तो यह सोच कर कि आज जितने हादसों से साक्षात्कार हो जाए अच्छा होगा, कम से कम, कल का सूरज आशाओं की कुछ किरणें हमारे उदास आंचल में डालने को आ जाए. यही सोच कर मैं ने मालती से उस की दर्दनाक व्यथा सुनी.

‘‘भाभी, मैं चौथी बार पेट से हूं. बंसी मेरे पीछे पड़ गया है कि मैं जांच करवा लूं और लड़की हो तो गर्भपात करा दूं. मैं इस के लिए तैयार नहीं हूं, इस बात पर वह मुझे मारतापीटता और धमकाता है कि अगर इस बार लड़की हुई तो मुझे घर से निकाल देगा, वह जबरदस्ती मुझे सरकारी अस्पताल भी ले गया था लेकिन डाक्टर ने उसे खूब डांटा, धमकाया कि औरत पर जुल्म करेगा, जांच के लिए जबरदस्ती करेगा तो पुलिस में सौंप दूंगी क्योंकि गर्भपरीक्षण कानूनी अपराध होता है. मैं ने तो उसे साफ बोल दिया कि वह मुझे मार भी डालेगा तो भी मैं गर्भपात नहीं कराऊंगी.’’

‘‘तो क्या तुम यों ही मार खाती रहोगी? इस तरह तो तुम मर जाओगी.’’

‘‘नहीं, भाभी, मैं ने उस को बोल दिया कि बेटा हुआ तो तुम्हारा नसीब वरना मैं अपनी चारों बच्चियों को ले कर कहीं चली जाऊंगी. हाथपैर सलामत रहे तो काम कहीं भी मिलेगा, वैसे भी बंसी तो सिर्फ नाम का पति है, वह कहां बाप होने का धर्म निभाता है? उस को भी तो मैं ही पालती हूं. मैं मां हूं और मां की नजर सिर्फ अपने बच्चे को देखती है, बेटी, बेटे का भेद नहीं. फिर लड़का या लड़की पैदा करना क्या मेरे हाथ में है?’’

कितनी कड़वी मगर सच्ची बात कह दी इस अनपढ़ औरत ने. एक मां अपने बच्चे के लिए बड़ी से बड़ी कुरबानी दे सकती है पर शायद यह पुरुष प्रधान भारतीय समाज की मानसिकता है कि वंश को आगे बढ़ाने के लिए और अर्थी को कांधा देने के लिए बेटे की जरूरत होती है…अत: अगर परिवार में बेटा न हो तो परिवार को अधूरा माना जाता है.

मेरी दादी मां क्यों औरत की कदर करना नहीं जानतीं? वह क्यों भूल गईं कि वह खुद भी एक औरत ही हैं? दादी की याद आते ही मेरा हृदय कड़वाहट से भर उठा. लेकिन अगले ही पल मेरे मन ने मुझे टोका कि तू खुद भी संकुचित मानसिकता में दादी मां से कम है क्या? अगर मालती चौथी बार मां बनने वाली है तो तेरे उदर में भी तो तीसरा बच्चा पल रहा है. तीसरी बार गर्भधारण के पीछे तेरा कौन सा गणित काम कर रहा है…? 2 बेटियों की मां बन कर तू खुश नहीं? क्या जानेअनजाने तेरे मन में भी बेटा पाने की लालसा नहीं पनप रही?

मैं सिर से पैर तक कांप उठी. यह मैं क्या करने जा रही हूं? दादी को कोसने से मेरा यह अपराधबोध क्या कम हो जाएगा? नहीं, कदापि नहीं. उसी वक्त मैं ने फैसला ले लिया कि तीसरे बच्चे के बाद मैं आपरेशन करवा लूंगी. यह फैसला करते ही मेरे दिमाग की तंग नसें धीरेधीरे सामान्य होती चली गईं.

चैन से सो रही मालती के चेहरे पर निर्दोष मुसकान खेल रही थी. जल्द ही मैं भी नींद के आगोश में समा गई. सुबह जब आंख खुली तब मैं अपने को हलका महसूस कर रही थी.

मालती पहले ही उठ कर घर के कामों को पूरा कर रही थी. उस ने करिश्मा को नाश्ता बना कर दे दिया था और वह स्कूल जाने को तैयार थी.

मैं ने करिश्मा के कपोल चूमते हुए उसे विश किया तो लगा कि वह कुछ बुझीबुझी सी थी.

‘‘क्यों बेटी, क्या आप की तबीयत ठीक नहीं?’’

‘‘नहीं मम्मी, ऐसी कोई बात नहीं.’’

‘‘मम्मी आप के चेहरे की हर रेखा पढ़ सकती है, बेटा, जरूर कोई बात है… मुझ से नहीं कहोगी?’’ सोफे पर बैठ कर मैं ने उसे अपनी गोद में खींच लिया.

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ममता भरा स्पर्श पा कर उस की आंखें भर आईं. मैं ने सोचा शायद पढ़ाई में कोई मुश्किल सवाल रहा होगा, जिस का हल वह नहीं ढूंढ़ पा रही होगी.

‘‘बेटा, क्या मैं आप की कोई मदद कर सकती हूं?’’

‘‘नो, थैंक्स मम्मा,’’ उस के शब्द गले में ही अटक गए.

‘‘चलो, मैं प्रियंका को फोन कर देती हूं. वह आप की समस्या का कोई हल ढूंढ़ पाएगी, क्या उस से झगड़ा हुआ है?’’ मैं फोन की ओर बढ़ी, ‘‘उसे मैं कह देती हूं कि वह जल्दी आ जाए ताकि मैं आप दोनों को स्कूल में ड्राप कर दूं.’’

‘‘मम्मा,’’ वह चीख उठी, ‘‘प्रियंका अभी नहीं आ सकेगी.’’

‘‘क्यों…?’’ मुझे धक्का लगा.

‘‘सौरी, मम्मा,’’ वह धीरे से बोली, ‘‘प्रियंका लाइफ लाइन अस्पताल में है.’’

आश्चर्य का इतना तेज झटका मैं ने महसूस किया कि मैं संभल नहीं पाई, ‘‘क्या हुआ है उसे?’’

जानें आगे क्या हुआ कहानी के अगले भाग में…

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