हर साल लाखों लोगों का पलायन उत्तर प्रदेश और बिहार से दिल्ली, मुम्बई, हैदराबाद, अहमदाबाद, पानीपत जैसे शहरों के लिए होता है. अपने परिवार को गाँव में छोड़ सैकड़ों किलोमीटर दूर रोजगार की तलाश में आने वाले इन कामगारों की दुश्वारियां यहाँ भी कम नहीं होती हैं. यहाँ आने के बाद इन्हें उनकी मेहनत के लिहाज से तो मजदूरी नहीं मिल पाती है ऊपर से कमरे का किराया, खाने की चिंता और गाँव में रह रहे अपने माँ-बाप, बीबी बच्चों के लिए पैसे बचाने की चिंता अलग होती है, ऐसे में यह मजदूर पैसों की बचत नहीं कर पाते हैं. अब जब से कोरोना जैसी महामारी देश में पैर पसार रही है तब से लॉक डाउन के चलते लोग अपने घरों में कैद होकर रह गएँ है. फैक्ट्रियों में उत्पादन बंद हैं, निर्माण कार्य से जुड़े सारे काम ठप पड़े हैं, या यह कह लिया जाए की रोजगार देनें वाले सभी जरियों पर पाबन्दी लगा दी गई है.

अब जब देश में कोरोना महामारी के चलते देश में लॉक डाउन लगाया गया है तो अपने गाँव घर से दूर रह रहे कामगारों के सामने काम बंद होने के चलते जो सबसे बड़ी समस्या आनी थी वह है पेट की भूख मिटाना. ऐसे में इन कामगारों के सामनें पलायन ही एक उपाय बचा था. जब की उन्हें पता था की कोरोना एक दूसरे के संपर्क में आने से फैलता है. लेकिन उन लोगों नें अपने सामने आने वाले हालात को भांप कर पलायन करना ही उचित समझा. क्यों की यह लोग इन बड़े शहरों में बिमारी से मरें यह न मरें लेकिन भुखमरी से जरुर मर जाते.

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पलायन करने वाले कामगार जब सैकड़ों किलोमीटर पैदल, रिक्सा ट्रकों में जानवर की तरह किसी तरह से ठूंस कर अपने गाँव-घर पहुचें तो उनके चेहरे पर आया पसीना और निराशा उनके हालात को बयान कर रहें थे. उनके चेहरे से थकान साफ़ नजर आ रही थी. इसके साथ उन्हें पुलिसिया ज्यादती का शिकार भी होना पड़ा.

कोरोना के खौफ से अलग-थलग पड़ गए हैं कामगार
यह कामगार जैसे तैसे अपनें गाँवों में पहंच तो गए हैं लेकिन कोरोना के चलते अभी भी ये लोग अपने परिवारों से नहीं मिल सकतें हैं. क्यों की इन लोगों को 14 दिनों के लिए गाँव के बाहर किया गया है. वहीँ इन कामगारों के परिवारों में कोरोना का खौफ साफ़ देखा जा सकता है. क्वैरैंटीन यानी बिमारी के दौरान लोगों से अलग किये गए या एकांत में रखे गए इन कामगारों से इनके परिवार के लोग मोबाईल से हाल-चाल तो ले रहें हैं लेकिन सरकारी बंदिशों और कोरोना के खौफ के चलते यह लोग अपने परिवार के सदस्यों से भी नहीं मिल पा रहें हैं. इस दशा में यह कामगार घुटघुट जीनें को मजबूर हैं. क्वैरैंटीन में घर से दूर रह रहे इन कामगारों को अपने परिवार की चिंता भी सता रहीं हैं.

खाली जेब लौटे कामगारों के लिए नाकाफी है सरकारी सहायता-
गाँव और घर से बाहर लोगों से अलग किये गए इन कामगारों के सामने जो सबसे बड़ी चिंता है वह है पलायन के चलते उनकी खाली जेबें. क्यों की अचानक बंद हुए काम के कारण जिन फैक्ट्रियों और जगहों पर यह कामगार काम कर रहें थे वहां से उन्हें आने जाने के किराए भर के पैसे भी बड़ी मुश्किल से मिल पायें हैं. ऐसे में यह दिहाड़ी कामगार खाली जेबें लेकर ही पलायन करने को मजबूर हो गये. इस वजह गाँवों में रह रहे इनके परिवार के लोगों के सामनें भी संकट आ खड़ा हुआ है.

इस संकट से उबारने के लिए केन्द्र व विभिन्न राज्यों के सरकारों नें कई तरह की सहूलियतों को देनें का एलान किया है. लेकिन सरकारों द्वारा इन कामगारों जो सहूलियतें दिए जाने का वादा किया गया था. वह कई जगहों पर अभी तक मिल ही नहीं पाईं हैं और जहाँ मिल भी रहीं हैं वह नाकाफी हैं. क्यों की इससे बुनियादी जरूरतें भी नहीं पूरी होने वालीं हैं. परिवारों से अलग रखे गए इन कामगारों का कहना हैं की वह हर रोज 500 रूपये तक की कमाई वाली दिहाड़ी में जब परिवार का खर्चा बड़ी मुश्किल से चला पातें हैं तो सरकार के जरिये मुहैया कराये जा रहें चंद रुपयों से महीनें भर का खर्च चलना मुश्किल हैं. इसके अलावा जो अनाज भी वितरित किया जा रहा है वह भी महीनें भर के लिए नाकाफी है. लोगों का कहना सरकार को हम कामगारों पर विशेष ध्यान देनें की जरूरत हैं.

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देश के तरक्की में दिहाड़ी कामगारों का बड़ा रोल है अगर हालात के अधीन होकर यह टूट गये तो कोरोना जैसी महामारी से हम उबर भी जायेंगे लेकिन इससे अर्थव्यवस्था पर जो असर होगा उससे उबरनें में सालों लग सकतें हैं. इस लिए सरकार को दूसरी जरुरी चीजों की तरह कामगारों पर भी विशेष ध्यान देनें की जरूरत है. और जो भी सरकारी सहयोग दिया जा रहा है उसमें वाजिब बढ़ोतरी कर तेजी लाने की भी जरुरत है.

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