मसीहा: शांति की लगन

दोपहर का खाना खा कर लेटे ही थे कि डाकिया आ गया. कई पत्रों के बीच राजपुरा से किसी शांति नाम की महिला का एक रजिस्टर्ड पत्र 20 हजार रुपए के ड्राफ्ट के साथ था. उत्सुकतावश मैं एक ही सांस में पूरा पत्र पढ़ गई, जिस में उस महिला ने अपने कठिनाई भरे दौर में हमारे द्वारा दिए गए इन रुपयों के लिए धन्यवाद लिखा था और आज 10 सालों के बाद वे रुपए हमें लौटाए थे. वह खुद आना चाहती थी पर यह सोच कर नहीं आई कि संभवत: उस के द्वारा लौटाए जाने पर हम वह रुपए वापस न लें.

पत्र पढ़ने के बाद मैं देर तक उस महिला के बारे में सोचती रही पर ठीक से कुछ याद नहीं आ रहा था.

‘‘अरे, सुमि, शांति कहीं वही लड़की तो नहीं जो बरसों पहले कुछ समय तक मुझ से पढ़ती रही थी,’’ मेरे पति अभिनव अतीत को कुरेदते हुए बोले तो एकाएक मुझे सब याद आ गया.

उन दिनों शांति अपनी मां बंती के साथ मेरे घर का काम करने आती थी. एक दिन वह अकेली ही आई. पूछने पर पता चला कि उस की मां की तबीयत ठीक नहीं है. 2-3 दिन बाद जब बंती फिर काम पर आई तो बहुत कमजोर दिख रही थी. जैसे ही मैं ने उस का हाल पूछा वह अपना काम छोड़ मेरे सामने बैठ कर रोने लगी. मैं हतप्रभ भी और परेशान भी कि अकारण ही उस की किस दुखती रग पर मैं ने हाथ रख दिया.

बंती ने बताया कि उस ने अब तक के अपने जीवन में दुख और अभाव ही देखे हैं. 5 बेटियां होने पर ससुराल में केवल प्रताड़ना ही मिलती रही. बड़ी 4 बेटियों की तो किसी न किसी तरह शादी कर दी है. बस, अब तो शांति को ब्याहने की ही चिंता है पर वह पढ़ना चाहती है.

बंती कुछ देर को रुकी फिर आगे बोली कि अपनी मेहनत से शांति 10वीं तक पहुंच गई है पर अब ट्यूशन की जरूरत पड़ेगी जिस के लिए उस के पास पैसा नहीं है. तब मैं ने अभिनव से इस बारे में बात की जो उसे निशुल्क पढ़ाने के लिए तैयार हो गए. अपनी लगन व परिश्रम से शांति 10वीं में अच्छे नंबरों में पास हो गई. उस के बाद उस ने सिलाईकढ़ाई भी सीखी. कुछ समय बाद थोड़ा दानदहेज जोड़ कर बंती ने उस के हाथ पीले कर दिए.

अभी शांति की शादी हुए साल भर बीता था कि वह एक बेटे की मां बन गई. एक दिन जब वह अपने बच्चे सहित मुझ से मिलने आई तो उस का चेहरा देख मैं हैरान हो गई. कहां एक साल पहले का सुंदरसजीला लाल जोड़े में सिमटा खिलाखिला शांति का चेहरा और कहां यह बीमार सा दिखने वाला बुझाबुझा चेहरा.

‘क्या बात है, बंती, शांति सुखी तो है न अपने घर में?’ मैं ने सशंकित हो पूछा.

व्यथित मन से बंती बोली, ‘लड़कियों का क्या सुख और क्या दुख बीबी, जिस खूंटे से बांध दो बंधी रहती हैं बेचारी चुपचाप.’

‘फिर भी कोई बात तो होगी जो सूख कर कांटा हो गई है,’ मेरे पुन: पूछने पर बंती तो खामोश रही पर शांति ने बताया, ‘विवाह के 3-4 महीने तक तो सब ठीक रहा पर धीरेधीरे पति का पाशविक रूप सामने आता गया. वह जुआरी और शराबी था. हर रात नशे में धुत हो घर लौटने पर अकारण ही गालीगलौज करता, मारपीट करता और कई बार तो मुझे आधी रात को बच्चे सहित घर से बाहर धकेल देता. सासससुर भी मुझ में ही दोष खोजते हुए बुराभला कहते. मैं कईकई दिन भूखीप्यासी पड़ी रहती पर किसी को मेरी जरा भी परवा नहीं थी. अब तो मेरा जीवन नरक समान हो गया है.’

उस रात मैं ठीक से सो नहीं पाई. मानव मन भी अबूझ होता है. कभीकभी तो खून के रिश्तों को भी भीड़ समझ उन से दूर भागने की कोशिश करता है तो कभी अनाम रिश्तों को अकारण ही गले लगा उन के दुखों को अपने ऊपर ओढ़ लेता है. कुछ ऐसा ही रिश्ता शांति से जुड़ गया था मेरा.

अगले दिन जब बंती काम पर आई तो मैं उसे देर तक समझाती रही कि शांति पढ़ीलिखी है, सिलाईकढ़ाई जानती है, इसलिए वह उसे दोबारा उस के ससुराल न भेज कर उस की योग्यता के आधार पर उस से कपड़े सीने का काम करवाए. पति व ससुराल वालों के अत्याचारों से छुटकारा मिल सके मेरे इस सुझाव पर बंती ने कोई उत्तर नहीं दिया और चुपचाप अपना काम समाप्त कर बोझिल कदमों से घर लौट गई.

एक सप्ताह बाद पता चला कि शांति को उस की ससुराल वाले वापस ले गए हैं. मैं कर भी क्या सकती थी, ठगी सी बैठी रह गई.

देखते ही देखते 2 साल बीत गए. इस बीच मैं ने बंती से शांति के बारे में कभी कोई बात नहीं की पर एक दिन शांति के दूसरे बेटे के जन्म के बारे में जान कर मैं बंती पर बहुत बिगड़ी कि आखिर उस ने शांति को ससुराल भेजा ही क्यों? बंती अपराधबोध से पीडि़त हो बिलखती रही पर निर्धनता, एकाकीपन और अपने असुरक्षित भविष्य को ले कर वह शांति के लिए करती भी तो क्या? वह तो केवल अपनी स्थिति और सामाजिक परिवेश को ही कोस सकती थी, जहां निम्नवर्गीय परिवार की अधिकांश स्त्रियों की स्थिति पशुओं से भी गईगुजरी होती है.

पहले तो जन्म लेते ही मातापिता के घर लड़की होने के कारण दुत्कारी जाती हैं और विवाह के बाद अर्थी उठने तक ससुराल वालों के अत्याचार सहती हैं. भोग की वस्तु बनी निरंतर बच्चे जनती हैं और कीड़ेमकोड़ों की तरह हर पल रौंदी जाती हैं, फिर भी अनवरत मौन धारण किए ऐसे यातना भरे नारकीय जीवन को ही अपनी तकदीर मान जीने का नाटक करते हुए एक दिन चुपचाप मर जाती हैं.

शांति के साथ भी तो यही सब हो रहा था. ऐसी स्थिति में ही वह तीसरी बार फिर मां बनने को हुई. उसे गर्भ धारण किए अभी 7 महीने ही हुए थे कि कमजोरी और कई दूसरे कारणों के चलते उस ने एक मृत बच्चे को जन्म दिया. इत्तेफाक से उन दिनों वह बंती के पास आई हुई थी. तब मैं ने शांति से परिवार नियोजन के बारे में बात की तो बुझे स्वर में उस ने कहा कि फैसला करने वाले तो उस की ससुराल वाले हैं और उन का विचार है कि संतान तो भगवान की देन है इसलिए इस पर रोक लगाना उचित नहीं है.

मेरे बारबार समझाने पर शांति ने अपने बिगड़ते स्वास्थ्य और बच्चों के भविष्य को देखते हुए मेरी बात मान ली और आपरेशन करवा लिया. यों तो अब मैं संतुष्ट थी फिर भी शांति की हालत और बंती की आर्थिक स्थिति को देखते हुए परेशान भी थी. मेरी परेशानी को भांपते हुए मेरे पति ने सहज भाव से 20 हजार रुपए शांति को देने की बात कही ताकि पूरी तरह स्वस्थ हो जाने के बाद वह इन रुपयों से कोई छोटामोटा काम शुरू कर के अपने पैरों पर खड़ी हो सके. पति की यह बात सुन मैं कुछ पल को समस्त चिंताओं से मुक्त हो गई.

अगले ही दिन शांति को साथ ले जा कर मैं ने बैंक में उस के नाम का खाता खुलवा दिया और वह रकम उस में जमा करवा दी ताकि जरूरत पड़ने पर वह उस का लाभ उठा सके.

अभी इस बात को 2-4 दिन ही बीते थे कि हमें अपनी भतीजी की शादी में हैदराबाद जाना पड़ा. 15-20 दिन बाद जब हम वापस लौटे तो मुझे शांति का ध्यान हो आया सो बंती के घर चली गई, जहां ताला पड़ा था. उस की पड़ोसिन ने शांति के बारे में जो कुछ बताया उसे सुन मैं अवाक् रह गई.

हमारे हैदराबाद जाने के अगले दिन ही शांति का पति आया और उसे बच्चों सहित यह कह कर अपने घर ले गया कि वहां उसे पूरा आराम और अच्छी खुराक मिल पाएगी जिस की उसे जरूरत है. किंतु 2 दिन बाद ही यह खबर आग की तरह फैल गई कि शांति ने अपने दोनों बच्चों सहित भाखड़ा नहर में कूद कर जान दे दी है. तब से बंती का भी कुछ पता नहीं, कौन जाने करमजली जीवित भी है या मर गई.

कैसी निढाल हो गई थी मैं उस क्षण यह सब जान कर और कई दिनों तक बिस्तर पर पड़ी रही थी. पर आज शांति का पत्र मिलने पर एक सुखद आश्चर्य का सैलाब मेरे हर ओर उमड़ पड़ा है. साथ ही कई प्रश्न मुझे बेचैन भी करने लगे हैं जिन का शांति से मिल कर समाधान चाहती हूं.

जब मैं ने अभिनव से अपने मन की बात कही तो मेरी बेचैनी को देखते हुए वह मेरे साथ राजपुरा चलने को तैयार हो गए. 1-2 दिन बाद जब हम पत्र में लिखे पते के अनुसार शांति के घर पहुंचे तो दरवाजा एक 12-13 साल के लड़के ने खोला और यह जान कर कि हम शांति से मिलने आए हैं, वह हमें बैठक में ले गया. अभी हम बैठे ही थे कि वह आ गई. वही सादासलोना रूप, हां, शरीर पहले की अपेक्षा कुछ भर गया था. आते ही वह मेरे गले से लिपट गई. मैं कुछ देर उस की पीठ सहलाती रही, फिर भावावेश में डूब बोली, ‘‘शांति, यह कैसी बचकानी हरकत की थी तुम ने नहर में कूद कर जान देने की. अपने बच्चों के बारे में भी कुछ नहीं सोचा, कोई ऐसा भी करता है क्या? बच्चे तो ठीक हैं न, उन्हें कुछ हुआ तो नहीं?’’

बच्चों के बारे में पूछने पर वह एकाएक रोने लगी. फिर भरे गले से बोली, ‘‘छुटका नहीं रहा आंटीजी, डूब कर मर गया. मुझे और सतीश को किनारे खड़े लोगों ने किसी तरह बचा लिया. आप के आने पर जिस ने दरवाजा खोला था, वह सतीश ही है.’’

इतना कह वह चुप हो गई और कुछ देर शून्य में ताकती रही. फिर उस ने अपने अतीत के सभी पृष्ठ एकएक कर के हमारे सामने खोल कर रख दिए.

उस ने बताया, ‘‘आंटीजी, एक ही शहर में रहने के कारण मेरी ससुराल वालों को जल्दी ही पता चल गया कि मैं ने परिवार नियोजन के उद्देश्य से अपना आपरेशन करवा लिया है. इस पर अंदर ही अंदर वे गुस्से से भर उठे थे पर ऊपरी सहानुभूति दिखाते हुए दुर्बल अवस्था में ही मुझे अपने साथ वापस ले गए.

‘‘घर पहुंच कर पति ने जम कर पिटाई की और सास ने चूल्हे में से जलती लकड़ी निकाल पीठ दाग दी. मेरे चिल्लाने पर पति मेरे बाल पकड़ कर खींचते हुए कमरे में ले गया और चीखते हुए बोला, ‘तुझे बहुत पर निकल आए हैं जो तू अपनी मनमानी पर उतर आई है. ले, अब पड़ी रह दिन भर भूखीप्यासी अपने इन पिल्लों के साथ.’ इतना कह उस ने आंगन में खेल रहे दोनों बच्चों को बेरहमी से ला कर मेरे पास पटक दिया और दरवाजा बाहर से बंद कर चला गया.

‘‘तड़पती रही थी मैं दिन भर जले के दर्द से. आपरेशन के टांके कच्चे होने के कारण टूट गए थे. बच्चे भूख से बेहाल थे, पर मां हो कर भी मैं कुछ नहीं कर पा रही थी उन के लिए. इसी तरह दोपहर से शाम और शाम से रात हो गई. भविष्य अंधकारमय दिखने लगा था और जीने की कोई लालसा शेष नहीं रह गई थी.

‘‘अपने उन्हीं दुर्बल क्षणों में मैं ने आत्महत्या कर लेने का निर्णय ले लिया. अभी पौ फटी ही थी कि दोनों सोते बच्चों सहित मैं कमरे की खिड़की से, जो बहुत ऊंची नहीं थी, कूद कर सड़क पर तेजी से चलने लगी. घर से नहर ज्यादा दूर नहीं थी, सो आत्महत्या को ही अंतिम विकल्प मान आंखें बंद कर बच्चों सहित उस में कूद गई. जब होश आया तो अपनेआप को अस्पताल में पाया. सतीश को आक्सीजन लगी हुई थी और छुटका जीवनमुक्त हो कहीं दूर बह गया था.

‘‘डाक्टर इस घटना को पुलिस केस मान बारबार मेरे घर वालों के बारे में पूछताछ कर रहे थे. मैं इस बात से बहुत डर गई थी क्योंकि मेरे पति को यदि मेरे बारे में कुछ भी पता चल जाता तो मैं पुन: उसी नरक में धकेल दी जाती, जो मैं चाहती नहीं थी. तब मैं ने एक सहृदय

डा. अमर को अपनी आपबीती सुनाते हुए उन से मदद मांगी तो मेरी हालत को देखते हुए उन्होंने इस घटना को अधिक तूल न दे कर जल्दी ही मामला रफादफा करवा दिया और मैं पुलिस के चक्करों  में पड़ने से बच गई.

‘‘अब तक डा. अमर मेरे बारे में सबकुछ जान चुके थे इसलिए वह मुझे बेटे सहित अपने घर ले गए, जहां उन की मां ने मुझे बहुत सहारा दिया. सप्ताह  भर मैं उन के घर रही. इस बीच डाक्टर साहब ने आप के द्वारा दिए उन 20 हजार रुपयों की मदद से यहां राजपुरा में हमें एक कमरा किराए पर ले कर दिया. साथ ही मेरे लिए सिलाई का सारा इंतजाम भी कर दिया. पर मुझे इस बात की चिंता थी कि मेरे सिले कपड़े बिकेंगे कैसे?

‘‘इस बारे में जब मैं ने डा. अमर से बात की तो उन्होंने मुझे एक गैरसरकारी संस्था के अध्यक्ष से मिलवाया जो निर्धन व निराश्रित स्त्रियों की सहायता करते थे. उन्होंने मुझे भी सहायता देने का आश्वासन दिया और मेरे द्वारा सिले कुछ वस्त्र यहां के वस्त्र विके्रताओं को दिखाए जिन्होंने मुझे फैशन के अनुसार कपड़े सिलने के कुछ सुझाव दिए.

‘‘मैं ने उन के सुझावों के मुताबिक कपड़े सिलने शुरू कर दिए जो धीरेधीरे लोकप्रिय होते गए. नतीजतन, मेरा काम दिनोंदिन बढ़ता चला गया. आज मेरे पास सिर ढकने को अपनी छत है और दो वक्त की इज्जत की रोटी भी नसीब हो जाती है.’’

इतना कह शांति हमें अपना घर दिखाने लगी. छोटा सा, सादा सा घर, किंतु मेहनत की गमक से महकता हुआ.  सिलाई वाला कमरा तो बुटीक ही लगता था, जहां उस के द्वारा सिले सुंदर डिजाइन के कपड़े टंगे थे.

हम दोनों पतिपत्नी, शांति की हिम्मत, लगन और प्रगति देख कर बेहद खुश हुए और उस के भविष्य के प्रति आश्वस्त भी. शांति से बातें करते बहुत समय बीत चला था और अब दोपहर ढलने को थी इसलिए हम पटियाला वापस जाने के लिए उठ खड़े हुए. चलने से पहले अभिनव ने एक लिफाफा शांति को थमाते हुए कहा, ‘‘बेटी, ये वही रुपए हैं जो तुम ने हमें लौटाए थे. मैं अनुमान लगा सकता हूं कि किनकिन कठिनाइयों को झेलते हुए तुम ने ये रुपए जोड़े होंगे. भले ही आज तुम आत्मनिर्भर हो गई हो, फिर भी सतीश का जीवन संवारने का एक लंबा सफर तुम्हारे सामने है. उसे पढ़ालिखा कर स्वावलंबी बनाना है तुम्हें, और उस के लिए बहुत पैसा चाहिए. यह थोड़ा सा धन तुम अपने पास ही रखो, भविष्य में सतीश के काम आएगा. हां, एक बात और, इन पैसों को ले कर कभी भी अपने मन पर बोझ न रखना.’’

अभिनव की बात सुन कर शांति कुछ देर चुप बैठी रही, फिर धीरे से बोली, ‘‘अंकलजी, आप ने मेरे लिए जो किया वह आज के समय में दुर्लभ है. आज मुझे आभास हुआ है कि इस संसार में यदि मेरे पति जैसे राक्षसी प्रवृत्ति के लोग हैं तो

डा. अमर और आप जैसे महान लोग भी हैं जो मसीहा बन कर आते हैं और हम निर्बल और असहाय लोगों का संबल बन उन्हें जीने की सही राह दिखाते हैं.’’

इतना कह सजल नेत्रों से हमारा आभार प्रकट करते हुए वह अभिनव के चरणों में झुक गई.     द्य

इक विश्वास था : किसने भेजा 1 लाख डालर का गिफ्ट

मेरी बेटी की शादी थी और मैं कुछ दिनों की छुट्टी ले कर शादी के तमाम इंतजाम को देख रहा था. उस दिन सफर से लौट कर मैं घर आया तो पत्नी ने आ कर एक लिफाफा मुझे पकड़ा दिया. लिफाफा अनजाना था लेकिन प्रेषक का नाम देख कर मुझे एक आश्चर्यमिश्रित जिज्ञासा हुई.

‘अमर विश्वास’ एक ऐसा नाम जिसे मिले मुझे वर्षों बीत गए थे. मैं ने लिफाफा खोला तो उस में 1 लाख डालर का चेक और एक चिट्ठी थी. इतनी बड़ी राशि वह भी मेरे नाम पर. मैं ने जल्दी से चिट्ठी खोली और एक सांस में ही सारा पत्र पढ़ डाला. पत्र किसी परी कथा की तरह मुझे अचंभित कर गया. लिखा था :

आदरणीय सर, मैं एक छोटी सी भेंट आप को दे रहा हूं. मुझे नहीं लगता कि आप के एहसानों का कर्ज मैं कभी उतार पाऊंगा. ये उपहार मेरी अनदेखी बहन के लिए है. घर पर सभी को मेरा प्रणाम.

आप का, अमर. मेरी आंखों में वर्षों पुराने दिन सहसा किसी चलचित्र की तरह तैर गए.

एक दिन मैं चंडीगढ़ में टहलते हुए एक किताबों की दुकान पर अपनी मनपसंद पत्रिकाएं उलटपलट रहा था कि मेरी नजर बाहर पुस्तकों के एक छोटे से ढेर के पास खड़े एक लड़के पर पड़ी. वह पुस्तक की दुकान में घुसते हर संभ्रांत व्यक्ति से कुछ अनुनयविनय करता और कोई प्रतिक्रिया न मिलने पर वापस अपनी जगह पर जा कर खड़ा हो जाता. मैं काफी देर तक मूकदर्शक की तरह यह नजारा देखता रहा. पहली नजर में यह फुटपाथ पर दुकान लगाने वालों द्वारा की जाने वाली सामान्य सी व्यवस्था लगी, लेकिन उस लड़के के चेहरे की निराशा सामान्य नहीं थी. वह हर बार नई आशा के साथ अपनी कोशिश करता, फिर वही निराशा.

मैं काफी देर तक उसे देखने के बाद अपनी उत्सुकता दबा नहीं पाया और उस लड़के के पास जा कर खड़ा हो गया. वह लड़का कुछ सामान्य सी विज्ञान की पुस्तकें बेच रहा था. मुझे देख कर उस में फिर उम्मीद का संचार हुआ और बड़ी ऊर्जा के साथ उस ने मुझे पुस्तकें दिखानी शुरू कीं. मैं ने उस लड़के को ध्यान से देखा. साफसुथरा, चेहरे पर आत्मविश्वास लेकिन पहनावा बहुत ही साधारण. ठंड का मौसम था और वह केवल एक हलका सा स्वेटर पहने हुए था. पुस्तकें मेरे किसी काम की नहीं थीं फिर भी मैं ने जैसे किसी सम्मोहन से बंध कर उस से पूछा, ‘बच्चे, ये सारी पुस्तकें कितने की हैं?’

‘आप कितना दे सकते हैं, सर?’

‘अरे, कुछ तुम ने सोचा तो होगा.’

‘आप जो दे देंगे,’ लड़का थोड़ा निराश हो कर बोला.

‘तुम्हें कितना चाहिए?’ उस लड़के ने अब यह समझना शुरू कर दिया कि मैं अपना समय उस के साथ गुजार रहा हूं.

‘5 हजार रुपए,’ वह लड़का कुछ कड़वाहट में बोला.

‘इन पुस्तकों का कोई 500 भी दे दे तो बहुत है,’ मैं उसे दुखी नहीं करना चाहता था फिर भी अनायास मुंह से निकल गया.

अब उस लड़के का चेहरा देखने लायक था. जैसे ढेर सारी निराशा किसी ने उस के चेहरे पर उड़ेल दी हो. मुझे अब अपने कहे पर पछतावा हुआ. मैं ने अपना एक हाथ उस के कंधे पर रखा और उस से सांत्वना भरे शब्दों में फिर पूछा, ‘देखो बेटे, मुझे तुम पुस्तक बेचने वाले तो नहीं लगते, क्या बात है. साफसाफ बताओ कि क्या जरूरत है?’

वह लड़का तब जैसे फूट पड़ा. शायद काफी समय निराशा का उतारचढ़ाव अब उस के बरदाश्त के बाहर था.

‘सर, मैं 10+2 कर चुका हूं. मेरे पिता एक छोटे से रेस्तरां में काम करते हैं. मेरा मेडिकल में चयन हो चुका है. अब उस में प्रवेश के लिए मुझे पैसे की जरूरत है. कुछ तो मेरे पिताजी देने के लिए तैयार हैं, कुछ का इंतजाम वह अभी नहीं कर सकते,’ लड़के ने एक ही सांस में बड़ी अच्छी अंगरेजी में कहा.

‘तुम्हारा नाम क्या है?’ मैं ने मंत्रमुग्ध हो कर पूछा.

‘अमर विश्वास.’

‘तुम विश्वास हो और दिल छोटा करते हो. कितना पैसा चाहिए?’

‘5 हजार,’ अब की बार उस के स्वर में दीनता थी.

‘अगर मैं तुम्हें यह रकम दे दूं तो क्या मुझे वापस कर पाओगे? इन पुस्तकों की इतनी कीमत तो है नहीं,’ इस बार मैं ने थोड़ा हंस कर पूछा.

‘सर, आप ने ही तो कहा कि मैं विश्वास हूं. आप मुझ पर विश्वास कर सकते हैं. मैं पिछले 4 दिन से यहां आता हूं, आप पहले आदमी हैं जिस ने इतना पूछा. अगर पैसे का इंतजाम नहीं हो पाया तो मैं भी आप को किसी होटल में कपप्लेटें धोता हुआ मिलूंगा,’ उस के स्वर में अपने भविष्य के डूबने की आशंका थी.

उस के स्वर में जाने क्या बात थी जो मेरे जेहन में उस के लिए सहयोग की भावना तैरने लगी. मस्तिष्क उसे एक जालसाज से ज्यादा कुछ मानने को तैयार नहीं था, जबकि दिल में उस की बात को स्वीकार करने का स्वर उठने लगा था. आखिर में दिल जीत गया. मैं ने अपने पर्स से 5 हजार रुपए निकाले, जिन को मैं शेयर मार्किट में निवेश करने की सोच रहा था, उसे पकड़ा दिए. वैसे इतने रुपए तो मेरे लिए भी माने रखते थे, लेकिन न जाने किस मोह ने मुझ से वह पैसे निकलवा लिए.

‘देखो बेटे, मैं नहीं जानता कि तुम्हारी बातों में, तुम्हारी इच्छाशक्ति में कितना दम है, लेकिन मेरा दिल कहता है कि तुम्हारी मदद करनी चाहिए, इसीलिए कर रहा हूं. तुम से 4-5 साल छोटी मेरी बेटी भी है मिनी. सोचूंगा उस के लिए ही कोई खिलौना खरीद लिया,’ मैं ने पैसे अमर की तरफ बढ़ाते हुए कहा.

अमर हतप्रभ था. शायद उसे यकीन नहीं आ रहा था. उस की आंखों में आंसू तैर आए. उस ने मेरे पैर छुए तो आंखों से निकली दो बूंदें मेरे पैरों को चूम गईं.

‘ये पुस्तकें मैं आप की गाड़ी में रख दूं?’

‘कोई जरूरत नहीं. इन्हें तुम अपने पास रखो. यह मेरा कार्ड है, जब भी कोई जरूरत हो तो मुझे बताना.’

वह मूर्ति बन कर खड़ा रहा और मैं ने उस का कंधा थपथपाया, कार स्टार्ट कर आगे बढ़ा दी.

कार को चलाते हुए वह घटना मेरे दिमाग में घूम रही थी और मैं अपने खेले जुए के बारे में सोच रहा था, जिस में अनिश्चितता ही ज्यादा थी. कोई दूसरा सुनेगा तो मुझे एक भावुक मूर्ख से ज्यादा कुछ नहीं समझेगा. अत: मैं ने यह घटना किसी को न बताने का फैसला किया.

दिन गुजरते गए. अमर ने अपने मेडिकल में दाखिले की सूचना मुझे एक पत्र के माध्यम से दी. मुझे अपनी मूर्खता में कुछ मानवता नजर आई. एक अनजान सी शक्ति में या कहें दिल में अंदर बैठे मानव ने मुझे प्रेरित किया कि मैं हजार 2 हजार रुपए उस के पते पर फिर भेज दूं. भावनाएं जीतीं और मैं ने अपनी मूर्खता फिर दोहराई. दिन हवा होते गए. उस का संक्षिप्त सा पत्र आता जिस में 4 लाइनें होतीं. 2 मेरे लिए, एक अपनी पढ़ाई पर और एक मिनी के लिए, जिसे वह अपनी बहन बोलता था. मैं अपनी मूर्खता दोहराता और उसे भूल जाता. मैं ने कभी चेष्टा भी नहीं की कि उस के पास जा कर अपने पैसे का उपयोग देखूं, न कभी वह मेरे घर आया. कुछ साल तक यही क्रम चलता रहा. एक दिन उस का पत्र आया कि वह उच्च शिक्षा के लिए आस्ट्रेलिया जा रहा है. छात्रवृत्तियों के बारे में भी बताया था और एक लाइन मिनी के लिए लिखना वह अब भी नहीं भूला.

मुझे अपनी उस मूर्खता पर दूसरी बार फख्र हुआ, बिना उस पत्र की सचाई जाने. समय पंख लगा कर उड़ता रहा. अमर ने अपनी शादी का कार्ड भेजा. वह शायद आस्ट्रेलिया में ही बसने के विचार में था. मिनी भी अपनी पढ़ाई पूरी कर चुकी थी. एक बड़े परिवार में उस का रिश्ता तय हुआ था. अब मुझे मिनी की शादी लड़के वालों की हैसियत के हिसाब से करनी थी. एक सरकारी उपक्रम का बड़ा अफसर कागजी शेर ही होता है. शादी के प्रबंध के लिए ढेर सारे पैसे का इंतजाम…उधेड़बुन…और अब वह चेक?

मैं वापस अपनी दुनिया में लौट आया. मैं ने अमर को एक बार फिर याद किया और मिनी की शादी का एक कार्ड अमर को भी भेज दिया.

शादी की गहमागहमी चल रही थी. मैं और मेरी पत्नी व्यवस्थाओं में व्यस्त थे और मिनी अपनी सहेलियों में. एक बड़ी सी गाड़ी पोर्च में आ कर रुकी. एक संभ्रांत से शख्स के लिए ड्राइवर ने गाड़ी का गेट खोला तो उस शख्स के साथ उस की पत्नी जिस की गोद में एक बच्चा था, भी गाड़ी से बाहर निकले.

मैं अपने दरवाजे पर जा कर खड़ा हुआ तो लगा कि इस व्यक्ति को पहले भी कहीं देखा है. उस ने आ कर मेरी पत्नी और मेरे पैर छुए.

‘‘सर, मैं अमर…’’ वह बड़ी श्रद्धा से बोला.

मेरी पत्नी अचंभित सी खड़ी थी. मैं ने बड़े गर्व से उसे सीने से लगा लिया. उस का बेटा मेरी पत्नी की गोद में घर सा अनुभव कर रहा था. मिनी अब भी संशय में थी. अमर अपने साथ ढेर सारे उपहार ले कर आया था. मिनी को उस ने बड़ी आत्मीयता से गले लगाया. मिनी भाई पा कर बड़ी खुश थी.

अमर शादी में एक बड़े भाई की रस्म हर तरह से निभाने में लगा रहा. उस ने न तो कोई बड़ी जिम्मेदारी मुझ पर डाली और न ही मेरे चाहते हुए मुझे एक भी पैसा खर्च करने दिया. उस के भारत प्रवास के दिन जैसे पंख लगा कर उड़ गए.

इस बार अमर जब आस्ट्रेलिया वापस लौटा तो हवाई अड्डे पर उस को विदा करते हुए न केवल मेरी बल्कि मेरी पत्नी, मिनी सभी की आंखें नम थीं. हवाई जहाज ऊंचा और ऊंचा आकाश को छूने चल दिया और उसी के साथसाथ मेरा विश्वास भी आसमान छू रहा था.

मैं अपनी मूर्खता पर एक बार फिर गर्वित था और सोच रहा था कि इस नश्वर संसार को चलाने वाला कोई भगवान नहीं हमारा विश्वास ही है.

प्रतिदिन : नईपुरानी पीढ़ी का तालमेल

और वह दीप्ति से मिसेज शर्मा के बारे में जानने की जिज्ञासा को दबा न सकी. कहते हैं परिवर्तन ही जिंदगी है. सबकुछ वैसा ही नहीं रहता जैसाआज है या कल था. मौसम के हिसाब से दिन भी कभी लंबे और कभी छोटे होते हैं पर उन के जीवन में यह परिवर्तन क्यों नहीं आता? क्या उन की जीवन रूपी घड़ी को कोई चाबी देना भूल गया या बैटरी डालना जो उन की जीवनरूपी घड़ी की सूई एक ही जगह अटक गई है. कुछ न कुछ तो ऐसा जरूर घटा होगा उन के जीवन में जो उन्हें असामान्य किए रहता है और उन के अंदर की पीड़ा की गालियों के रूप में बौछार करता रहता है.

मैं विचारों की इन्हीं भुलभुलैयों में खोई हुई थी कि फोन की घंटी बज उठी.

‘‘हैलो,’’ मैं ने रिसीवर उठाया.

‘‘हाय प्रीत,’’ उधर से चहक भरी आवाज आई, ‘‘क्या कर रही हो…वैसे मैं जानती हूं कि तू क्या कर रही होगी. तू जरूर अपनी स्टडी मेज पर बैठी किसी कथा का अंश या कोई शब्दचित्र बना रही होगी. क्यों, ठीक  कहा न?’’

‘‘जब तू इतना जानती है तो फिर मुझे खिझाने के लिए पूछा क्यों?’’ मैं ने गुस्से में उत्तर दिया.

‘‘तुझे चिढ़ाने के लिए,’’ यह कह कर हंसती हुई वह फिर बोली, ‘‘मेरे पास बहुत ही मजेदार किस्सा है, सुनेगी?’’

मेरी कमजोरी वह जान गई थी कि मुझे किस्सेकहानियां सुनने का बहुत शौक है.

‘‘फिर सुना न,’’ मैं सुनने को ललच गई.

‘‘नहीं, पहले एक शर्त है कि तू मेरे साथ पिक्चर चलेगी.’’

‘‘बिलकुल नहीं. मुझे तेरी शर्त मंजूर नहीं. रहने दे किस्साविस्सा. मुझे नहीं सुनना कुछ और न ही कोई बकवास फिल्म देखने जाना.’’

‘‘अच्छा सुन, अब अगर कुछ देखने को मन करे तो वही देखने जाना पड़ेगा न जो बन रहा है.’’

‘‘मेरा तो कुछ भी देखने का मन नहीं है.’’

‘‘पर मेरा मन तो है न. नई फिल्म आई है ‘बेंड इट लाइक बैखम.’ सुना है स्पोर्ट वाली फिल्म है. तू भी पसंद करेगी, थोड़ा खेल, थोड़ा फन, थोड़ी बेटियों को मां की डांट. मजा आएगा यार. मैं ने टिकटें भी ले ली हैं.’’

‘‘आ कर मम्मी से पूछ ले फिर,’’ मैं ने डोर ढीली छोड़ दी.

मैं ने मन में सोचा. सहेली भी तो ऐसीवैसी नहीं कि उसे टाल दूं. फोन करने के थोड़ी देर बाद वह दनदनाती हुई पहुंच जाएगी. आते ही सीधे मेरे पास नहीं आएगी बल्कि मम्मी के पास जाएगी. उन्हें बटर लगाएगी. रसोई से आ रही खुशबू से अंदाजा लगाएगी कि आंटी ने क्या पकाया होगा. फिर मांग कर खाने बैठ जाएगी. तब आएगी असली मुद्दे पर.

‘आंटी, आज हम पिक्चर जाएंगे. मैं प्रीति को लेने आई हूं.’

‘सप्ताह में एक दिन तो घर बैठ कर आराम कर लिया करो. रोजरोज थकती नहीं बसट्रेनों के धक्के खाते,’ मम्मी टालने के लिए यही कहती हैं.

‘थकती क्यों नहीं पर एक दिन भी आउटिंग न करें तो हमारी जिंदगी बस, एक मशीन बन कर रह जाए. आज तो बस, पिक्चर जाना है और कहीं नहीं. शाम को सीधे घर. रविवार तो है ही हमारे लिए पूरा दिन रेस्ट करने का.’

‘अच्छा, बाबा जाओ. बिना गए थोड़े मानोगी,’ मम्मी भी हथियार डाल देती हैं.

फिर पिक्चर हाल में दीप्ति एकएक सीन को बड़ा आनंद लेले कर देखती और मैं बैठी बोर होती रहती. पिक्चर खत्म होने पर उसे उम्मीद होती कि मैं पिक्चर के बारे में अपनी कुछ राय दूं. पर अच्छी लगे तब तो कुछ कहूं. मुझे तो लगता कि मैं अपना टाइम वेस्ट कर रही हूं.

जब से हम इस कसबे में आए हैं पड़ोसियों के नाम पर अजीब से लोगों का साथ मिला है. हर रोज उन की आपसी लड़ाई को हमें बरदाश्त करना पड़ता है. कब्र में पैर लटकाए बैठे ये वृद्ध दंपती पता नहीं किस बात की खींचातानी में जुटे रहते हैं. बैक गार्डेन से देखें तो अकसर ये बड़े प्यार से बातें करते हुए एकदूसरे की मदद करते नजर आते हैं. यही नहीं ये एकदूसरे को बड़े प्यार से बुलाते भी हैं और पूछ कर नाश्ता तैयार करते हैं. तब इन के चेहरे पर रात की लड़ाई का कोई नामोनिशान देखने को नहीं मिलता है.

हर रोज दिन की शुरुआत के साथ वृद्धा बाहर जाने के लिए तैयार होने लगतीं. माथे पर बड़ी गोल सी बिंदी, बालों में लाल रिबन, चमचमाता सूट, जैकट और एक हाथ में कबूतरों को डालने के लिए दाने वाला बैग तथा दूसरे हाथ में छड़़ी. धीरेधीरे कदम रखते हुए बाहर निकलती हैं.

2-3 घंटे बाद जब वृद्धा की वापसी होती तो एक बैग की जगह उन के हाथों में 3-4 बैग होते. बस स्टाप से उन का घर ज्यादा दूर नहीं है. अत: वह किसी न किसी को सामान घर तक छोड़ने के लिए मना लेतीं. शायद उन का यही काम उन के पति के क्रोध में घी का काम करता और शाम ढलतेढलते उन पर शुरू होती पति की गालियों की बौछार. गालियां भी इतनी अश्लील कि आजकल अनपढ़ भी उस तरह की गाली देने से परहेज करते हैं. यह नित्य का नियम था उन का, हमारी आंखों देखा, कानों सुना.

हम जब भी शाम को खाना खाने बैठते तो उधर से भी शुरू हो जाता उन का कार्यक्रम. दीवार की दूसरी ओर से पुरुष वजनदार अश्लील गालियों का विशेषण जोड़ कर पत्नी को कुछ कहता, जिस का दूसरी ओर से कोई उत्तर न आता.

मम्मी बहुत दुखी स्वर में कहतीं, ‘‘छीछी, ये कितने असभ्य लोग हैं. इतना भी नहीं जानते कि दीवारों के भी कान होते हैं. दूसरी तरफ कोई सुनेगा तो क्या सोचेगा.’’

मम्मी चाहती थीं कि हम भाईबहनों के कानों में उन के अश्लील शब्द न पड़ें. इसलिए वह टेलीविजन की आवाज ऊंची कर देतीं.

खाने के बाद जब मम्मी रसोई साफ करतीं और मैं कपड़ा ले कर बरतन सुखा कर अलमारी में सजाने लगती तो मेरे लिए यही समय होता था उन से बात करने का. मैं पूछती, ‘‘मम्मी, आप तो दिन भर घर में ही रहती हैं. कभी पड़ोस वाली आंटी से मुलाकात नहीं हुई?’’

‘‘तुम्हें तो पता ही है, इस देश में हम भारतीय भी गोरों की तरह कितने रिजर्व हो गए हैं,’’ मम्मी उत्तर देतीं, ‘‘मुझे तो ऐसा लगता है कि दोनों डिप्रेशन के शिकार हैं. बोलते समय वे अपना होश गंवा बैठते हैं.’’

‘‘कहते हैं न मम्मी, कहनेसुनने से मन का बोझ हलका होता है,’’ मैं अपना ज्ञान बघारती.

कुछ दिन बाद दीप्ति के यहां प्रीति- भोज का आयोजन था और वह मुझे व मम्मी को बुलाने आई पर मम्मी को कहीं जाना था इसीलिए वह नहीं जा सकीं.

यह पहला मौका था कि मैं दीप्ति के घर गई थी. उस का बड़ा सा घर देख कर मन खुश हो गया. मेरे अढ़ाई कमरे के घर की तुलना में उस का 4 डबल बेडरूम का घर मुझे बहुत बड़ा लगा. मैं इस आश्चर्य से अभी उभर भी नहीं पाई थी कि एक और आश्चर्य मेरी प्रतीक्षा कर रहा था.

अचानक मेरी नजर ड्राइंगरूम में कोने में बैठी अपनी पड़ोसिन पर चली गई. मैं अपनी जिज्ञासा रोक न पाई और दीप्ति के पास जा कर पूछ बैठी, ‘‘वह वृद्ध महिला जो उधर कोने में बैठी हैं, तुम्हारी कोई रिश्तेदार हैं?’’

‘‘नहीं, पापा के किसी दोस्त की पत्नी हैं. इन की बेटी ने जिस लड़के से शादी की है वह हमारी जाति का है. इन का दिमाग कुछ ठीक नहीं रहता. इस कारण बेचारे अंकलजी बड़े परेशान रहते हैं. पर तू क्यों जानना चाहती है?’’

‘‘मेरी पड़ोसिन जो हैं,’’ इन का दिमाग ठीक क्यों नहीं रहता? इसी गुत्थी को तो मैं इतने दिनों से सुलझाने की कोशिश कर रही थी, अत: दोबारा पूछा, ‘‘बता न, क्या परेशानी है इन्हें?’’

अपनी बड़ीबड़ी आंखों को और बड़ा कर के दीप्ति बोली, ‘‘अभी…पागल है क्या? पहले मेहमानों को तो निबटा लें फिर आराम से बैठ कर बातें करेंगे.’’

2-3 घंटे बाद दीप्ति को फुरसत मिली. मौका देख कर मैं ने अधूरी बात का सूत्र पकड़ते हुए फिर पूछा, ‘‘तो क्या परेशानी है उन दंपती को?’’

‘‘अरे, वही जो घरघर की कहानी है,’’ दीप्ति ने बताना शुरू किया, ‘‘हमारे भारतीय समाज को पहले जो बातें मरने या मार डालने को मजबूर करती थीं और जिन बातों के चलते वे बिरादरी में मुंह दिखाने लायक नहीं रहते थे, उन्हीं बातों को ये अभी तक सीने से लगाए घूम रहे हैं.’’

‘‘आजकल तो समय बहुत बदल गया है. लोग ऐसी बातों को नजरअंदाज करने लगे हैं,’’ मैं ने अपना ज्ञान बघारा.

‘‘तू ठीक कहती है. नईपुरानी पीढ़ी का आपस में तालमेल हमेशा से कोई उत्साहजनक नहीं रहा. फिर भी हमें जमाने के साथ कुछ तो चलना पड़ेगा वरना तो हम हीनभावना से पीडि़त हो जाएंगे,’’ कह कर दीप्ति सांस लेने के लिए रुकी.

मैं ने बात जारी रखते हुए कहा, ‘‘जब हम भारतीय विदेश में आए तो बस, धन कमाने के सपने देखने में लग गए. बच्चे पढ़लिख कर अच्छी डिगरियां लेंगे. अच्छी नौकरियां हासिल करेंगे. अच्छे घरों से उन के रिश्ते आएंगे. हम यह भूल ही गए कि यहां का माहौल हमारे बच्चों पर कितना असर डालेगा.’’

‘‘इसी की तो सजा भुगत रहा है हमारा समाज,’’ दीप्ति बोली, ‘‘इन के 2 बेटे 1 बेटी है. तीनों ऊंचे ओहदों पर लगे हुए हैं. और अपनेअपने परिवार के साथ  आनंद से रह रहे हैं पर उन का इन से कोई संबंध नहीं है. हुआ यों कि इन्होंने अपने बड़े बेटे के लिए अपनी बिरादरी की एक सुशील लड़की देखी थी. बड़ी धूमधाम से रिंग सेरेमनी हुई. मूवी बनी. लड़की वालों ने 200 व्यक्तियों के खानेपीने पर दिल खोल कर खर्च किया. लड़के ने इस शादी के लिए बहुत मना किया था पर मां ने एक न सुनी और धमकी देने लगीं कि अगर मेरी बात न मानी तो मैं अपनी जान दे दूंगी. बेटे को मानना पड़ा.

‘‘बेटे ने कनाडा में नौकरी के लिए आवेदन किया था. नौकरी मिल गई तो वह चुपचाप घर से खिसक गया. वहां जा कर फोन कर दिया, ‘मम्मी, मैं ने कनाडा में ही रहने का निर्णय लिया है और यहीं अपनी पसंद की लड़की से शादी कर के घर बसाऊंगा. आप लड़की वालों को मना कर दें.’

‘‘मांबाप के दिल को तोड़ने वाली यह पहली चोट थी. लड़की वालों को पता चला तो आ कर उन्हें काफी कुछ सुना गए. बिरादरी में तो जैसे इन की नाक ही कट गई. अंकल ने तो बाहर निकलना ही छोड़ दिया लेकिन आंटी उसी ठाटबाट से निकलतीं. आखिर लड़के की मां होने का कुछ तो गरूर उन में होना ही था.

‘‘इधर छोटे बेटे ने भी किसी ईसाई लड़की से शादी कर ली. अब रह गई बेटी. अंकल ने उस से पूछा, ‘बेटी, तुम भी अपनी पसंद बता दो. हम तुम्हारे लिए लड़का देखें या तुम्हें भी अपनी इच्छा से शादी करनी है.’ इस पर वह बोली कि पापा, अभी तो मैं पढ़ रही हूं. पढ़ाई करने के बाद इस बारे में सोचूंगी.

‘‘‘फिर क्या सोचेगी.’ इस के पापा ने कहा, ‘फिर तो नौकरी खोजेगी और अपने पैरों पर खड़ी होने के बारे में सोचेगी. तब तक तुझे भी कोई मनपसंद साथी मिल जाएगा और कहेगी कि उसी से शादी करनी है. आजकल की पीढ़ी देशदेशांतर और जातिपाति को तो कुछ समझती नहीं बल्कि बिरादरी के बाहर शादी करने को एक उपलब्धि समझती है.’ ’’

इसी बीच दीप्ति की मम्मी कब हमारे लिए चाय रख गईं पता ही नहीं चला. मैं ने घड़ी देखी, 5 बज चुके थे.

‘‘अरे, मैं तो मम्मी को 4 बजे आने को कह कर आई हूं…अब खूब डांट पड़ेगी,’’ कहानी अधूरी छोड़ उस से विदा ले कर मैं घर चली आई. कहानी के बाकी हिस्से के लिए मन में उत्सुकता तो थी पर घड़ी की सूई की सी रफ्तार से चलने वाली यहां की जिंदगी का मैं भी एक हिस्सा थी. अगले दिन काम पर ही कहानी के बाकी हिस्से के लिए मैं ने दीप्ति को लंच टाइम में पकड़ा. उस ने वृद्ध दंपती की कहानी का अगला हिस्सा जो सुनाया वह इस प्रकार है:

‘‘मिसेज शर्मा यानी मेरी पड़ोसिन वृद्धा कहीं भी विवाहशादी का धूमधड़ाका या रौनक सुनदेख लें तो बरदाश्त नहीं कर पातीं और पागलों की तरह व्यवहार करने लगती हैं. आसपड़ोस को बीच सड़क पर खड़ी हो कर गालियां देने लगती हैं. यह भी कारण है अंकल का हरदम घर में ही बैठे रहने का,’’ दीप्ति ने बताया, ‘‘एक बार पापा ने अंकल को सुझाया था कि आप रिटायर तो हो ही चुके हैं, क्यों नहीं कुछ दिनों के लिए इंडिया घूम आते या भाभी को ही कुछ दिनों के लिए भेज देते. कुछ हवापानी बदलेगा, अपनों से मिलेंगी तो इन का मन खुश होगा.

‘‘‘यह भी कर के देख लिया है,’ बडे़ मायूस हो कर शर्मा अंकल बोले थे, ‘चाहता तो था कि इंडिया जा कर बसेरा बनाऊं मगर वहां अब है क्या हमारा. भाईभतीजों ने पिता से यह कह कर सब हड़प लिया कि छोटे भैया को तो आप बाहर भेज कर पहले ही बहुत कुछ दे चुके हैं…वहां हमारा अब जो छोटा सा घर बचा है वह भी रहने लायक नहीं है.

‘‘‘4 साल पहले जब मेरी पत्नी सुमित्रा वहां गई थी तो घर की खस्ता हालत देख कर रो पड़ी थी. उसी घर में विवाह कर आई थी. भरापूरा घर, सासससुर, देवरजेठ, ननदों की गहमागहमी. अब क्या था, सिर्फ खंडहर, कबूतरों का बसेरा.

‘‘‘बड़ी भाभी ने सुमित्रा का खूब स्वागत किया. सुमित्रा को शक तो हुआ था कि यह अकारण ही मुझ पर इतनी मेहरबान क्यों हो रही हैं. पर सुमित्रा यह जांचने के लिए कि देखती हूं वह कौन सा नया नाटक करने जा रही है, खामोश बनी रही. फिर एक दिन कहा कि दीदी, किसी सफाई वाली को बुला दो. अब आई हूं तो घर की थोड़ी साफसफाई ही करवा जाऊं.’

‘‘‘सफाई भी हो जाएगी पर मैं तो सोचती हूं कि तुम किसी को घर की चाबी दे जाओ तो तुम्हारे पीछे घर को हवाधूप लगती रहेगी,’ भाभी ने अपना विचार रखा था.

‘‘‘सुमित्रा मेरी सलाह लिए बिना भाभी को चाबी दे आई. आ कर भाभी की बड़ी तारीफ करने लगी. चूंकि इस का अभी तक चालाक लोगों से वास्ता नहीं पड़ा था इसलिए भाभी इसे बहुत अच्छी लगी थीं. पर भाभी क्या बला है यह तो मैं ही जानता हूं. वैसे मैं ने इसे पिछली बार जब इंडिया भेजा था तो वहां जा कर इस का पागलपन का दौरा ठीक हो गया था. लेकिन इस बार रिश्तेदारों से मिल कर 1 महीने में ही वापस आ गई. पूछा तो बोली, ‘रहती कहां? बड़ी भाभी ने किसी को घर की चाबी दे रखी थी. कोई बैंक का कर्मचारी वहां रहने लगा था.’

‘‘सुमित्रा आगे बताने लगी कि भाभी यह जान कर कि हम अब यहीं आ कर रहेंगे, खुश नहीं हुईं बल्कि कहने लगीं, ‘जानती हो कितनी महंगाई हो गई है. एक मेहमान के चायपानी पर ही 100 रुपए खर्च हो जाते हैं.’ फिर वह उठीं और अंदर से कुछ कागज ले आईं. सुमित्रा के हाथ में पकड़ाते हुए कहने लगीं कि यह तुम्हारे मकान की रिपेयरिंग का बिल है जो किराएदार दे गया है. मैं ने उस से कहा था कि जब मकानमालिक आएंगे तो सारा हिसाब करवा दूंगी. 14-15 हजार का खर्चा था जो मैं ने भर दिया.

‘‘‘रात खानेपीने के बाद देवरानी व जेठानी एकसाथ बैठीं तो यहांवहां की बातें छिड़ गईं. सुमित्रा कहने लगी कि दीदी, यहां भी तो लोग अच्छा कमातेखाते हैं, नौकरचाकर रखते हैं और बडे़ मजे से जिंदगी जीते हैं. वहां तो सब काम हमें अपने हाथ से करना पड़ता है. दुख- तकलीफ में भी कोई मदद करने वाला नहीं मिलता. किसी के पास इतना समय ही नहीं होता कि किसी बीमार की जा कर खबर ले आए.’

‘‘भाभी का जला दिल और जल उठा. वह बोलीं कि सुमित्रा, हमें भरमाने की बातें तो मत करो. एक तुम्हीं तो विलायत हो कर नहीं आई हो…और भी बहुत लोग आते हैं. और वहां का जो यशोगान करते हैं उसे सुन कर दिल में टीस सी उठती है कि आप ने विलायत रह कर भी अपने भाई के लिए कुछ नहीं किया.

‘‘सुमित्रा ने बात बदलते हुए पूछा कि दीदी, उस सुनंदा का क्या हाल है जो यहां स्कूल में प्रिंसिपल थी. इस पर बड़ी भाभी बोलीं, ‘अरे, मजे में है. बच्चों की शादी बडे़ अमीर घरों में कर दी है. खुद रिटायर हो चुकी है. धन कमाने का उस का नशा अभी भी नहीं गया है. घर में बच्चों को पढ़ा कर दौलत कमा रही है. पूछती तो रहती है तेरे बारे में. कल मिल आना.’

‘‘अगले दिन सुमित्रा से सुनंदा बड़ी खुश हो कर मिली. उलाहना भी दिया कि इतने दिनों बाद गांव आई हो पर आज मिलने का मौका मिला है. आज भी मत आतीं.

‘‘सुनंदा के उलाहने के जवाब में सुमित्रा ने कहा, ‘लो चली जाती हूं. यह तो समझती नहीं कि बाहर वालों के पास समय की कितनी कमी होती है. रिश्तेदारों से मिलने जाना, उन के संदेश पहुंचाना. घर में कोई मिलने आ जाए तो उस के पास बैठना. वह उठ कर जाए तो व्यक्ति कोई दूसरा काम सोचे.’

‘‘‘बसबस, रहने दे अपनी सफाई,’ सुनंदा बोली, ‘इतने दिनों बाद आई है, कुछ मेरी सुन कुछ अपनी कह.’

‘‘आवभगत के बाद सुनंदा ने सुमित्रा को बताया तुम्हारी जेठानी ने तुम्हारा घर अपना कह कर किराए पर चढ़ाया है. 1,200 रुपए महीना किराया लेती है और गांवमहल्ले में सब से कहती फिरती है कि सुमित्रा और देवरजी तो इधर आने से रहे. अब मुझे ही उन के घर की देखभाल करनी पड़ रही है. सुमित्रा पिछली बार खुद ही मुझे चाबी दे गई थी,’ फिर आगे बोली, ‘मुझे लगता है कि उस की निगाह तुम्हारे घर पर है.’

‘‘‘तभी भाभी मुझ से कह रही थीं कि जिस विलायत में जाने को हम यहां गलतसही तरीके अपनाते हैं, उसी को तुम ठुकरा कर आना चाहती हो. तेरे भले की कहती हूं ऐसी गलती मत करना, सुमित्रा.’

‘‘सुनंदा बोली, ‘मैं ने अपनी बहन समझ कर जो हकीकत है, बता दी. जो भी निर्णय लेना, ठंडे दिमाग से सोच कर लेना. मुझे तो खुशी होगी अगर तुम लोग यहां आ कर रहो. बीते दिनों को याद कर के खूब आनंद लेंगे.’

‘‘सुनंदा से मिल कर सुमित्रा आई तो घर में उस का दम घुटने लगा. वह 2 महीने की जगह 1 महीने में ही वापस लंदन चली आई.

‘‘‘विनोद भाई, तुम्हीं कोई रास्ता सुझाओ कि क्या करूं. इधर से सब बेच कर इंडिया रहने की सोचूं तो पहले तो घर से किराएदार नहीं उठेंगे. दूसरे, कोई जगह ले कर घर बनाना चाहूं तो वहां कितने दिन रह पाएंगे. बच्चों ने तो उधर जाना नहीं. यहां अपने घर में तो बैठे हैं. किसी से कुछ लेनादेना नहीं. वहां तो किसी काम से भी बाहर निकलो तो जासूस पीछे लग लेंगे. तुम जान ही नहीं पाओगे कि कब मौका मिलते ही तुम पर कोई अटैक कर दे. यहां का कानून तो सुनता है. कमी तो बस, इतनी ही है कि अपनों का प्यार, उन के दो मीठे बोल सुनने को नहीं मिलते.’’

‘‘‘बात तो तुम्हारी सही है. थोडे़ सुख के लिए ज्यादा दुख उठाना तो समझदारी नहीं. यहीं अपने को व्यस्त रखने की कोशिश करो,’’ विनोद ने उन्हें सुझाया था.

‘‘अब जब सारी उम्र खूनपसीना बहा कर यहीं गुजार दी, टैक्स दे कर रानी का घर भर दिया. अब पेंशन का सुख भी इधर ही रह कर भोगेंगे. जिस देश की मिट्टीपानी ने आधी सदी तक हमारे शरीर का पोषण किया उसी मिट्टी को हक है हमारे मरने के बाद इस शरीर की मिट्टी को अपने में समेटने का. और फिर अब तो यहां की सरकार ने भारतीयों के लिए अस्थिविसर्जन की सुविधा भी शुरू कर दी है.

‘‘विनोद, मैं तो सुमित्रा को समझासमझा कर हार गया पर उस के दिमाग में कुछ घुसता ही नहीं. एक बार बडे़ बेटे ने फोन क्या कर दिया कि मम्मी, आप दादी बन गई हैं और एक बार अपने पोते को देखने आओ न. बस, कनाडा जाने की रट लगा बैठी है. वह नहीं समझती कि बेटा ऐसा कर के अपने किए का प्रायश्चित करना चाहता है. मैं कहता हूं कि उसे पोते को तुम से मिलाने को इतना ही शौक है तो खुद क्यों नहीं यहां आ जाता.

‘‘तुम्हीं बताओ दोस्त, जिस ने हमारी इज्जत की तनिक परवा नहीं की, अच्छेभले रिश्ते को ठुकरा कर गोरी चमड़ी वाली से शादी कर ली, वह क्या जीवन के अनोखे सुख दे देगी इसे जो अपनी बिरादरी वाली लड़की न दे पाती. देखना, एक दिन ऐसा धत्ता बता कर जाएगी कि दिन में तारे नजर आएंगे.’’

‘‘यार मैं ने सुना है कि तुम भाभी को बुराभला भी कहते रहते हो. क्या इस उम्र में यह सब तुम्हें शोभा देता है?’’ एक दिन विनोद ने शर्माजी से पूछा था.

‘‘क्या करूं, जब वह सुनती ही नहीं, घर में सब सामान होते हुए भी फिर वही उठा लाती है. शाम होते ही खाना खा ऊपर जा कर जो एक बार बैठ गई तो फिर कुछ नहीं सुनेगी. कितना पुकारूं, सिर खपाऊं पर जवाब नहीं देती, जैसे बहरी हो गई हो. फिर एक पैग पीने के बाद मुझे भी होश नहीं रहता कि मैं क्या बोल रहा हूं.’’

पूरी कहानी सुनातेसुनाते दीप्ति को लंच की छुट्टी का भी ध्यान न रहा. घड़ी देखी तो 5 मिनट ऊपर हो गए थे. दोनों ने भागते हुए जा कर बस पकड़ी.

घर पहुंचतेपहुंचते मेरे मन में पड़ोसिन आंटी के प्रति जो क्रोध और घृणा के भाव थे सब गायब हो चुके थे. धीरेधीरे हम भी उन के नित्य का ‘शबद कीर्तन’ सुनने के आदी होने लगे.

यह मेरी मंजिल नहीं: अंजली की बचपन की सहेली के साथ क्या हुआ

‘अंजली, तुम से आखिरी बार पूछ रही हूं, तुम मेरे साथ साइबर कैफे चल रही हो या नहीं?’ लहर ने जोर दे कर पूछा.

अंजली झुंझला उठी, ‘नहीं चलूंगी, नहीं चलूंगी, और तुम भी मत जाओ. दिन में 4 घंटे बैठी थीं न वहां, वे क्या कम थे. महीना भर भी नहीं बचा है परीक्षा के लिए और तुम…’

‘रहने दो अपनी नसीहतें. मैं अकेली ही जा रही हूं,’ अंजली आगे कुछ कहती, इस से पहले लहर चली गई.

‘शायद इसीलिए प्यार को पागलपन कहते हैं. वाकई अंधे हो जाते हैं लोग प्यार में,’ अंजली ने मन ही मन सोचा. फिर वह नोट्स बनाने में जुट गई, पर मन था कि आज किसी विषय पर केंद्रित ही नहीं हो रहा था. उस ने घड़ी पर नजर डाली. शाम के 6 बजने को थे. आज लहर की मम्मी से फिर झूठ बोलना पडे़गा. 4 दिन से लगातार लहर के घर से फोन आ रहा था, शाम 6 से 8 बजे तक का समय तय था, जब होस्टल में लड़कियों के घर वाले फोन कर सकते थे. लहर की गैरमौजूदगी में रूममेट के नाते अंजली को ही लहर की मम्मी को जवाब देना पड़ता था. कैसे कहती वह उन से कि लहर किसी कोचिंग क्लास में नहीं बल्कि साइबर कैफे में बैठी अपने किसी बौयफे्रंड से इंटरनेट पर चैट कर रही है, समय व पैसे के साथसाथ वह खुद को भी इस आग में होम करने पर तुली है.

आग ही तो है जो एक चैट की चिंगारी से सुलगतेसुलगते आज लपट का रूप ले बैठी है, जिस में लहर का झुलसना लगभग तय है.

क्या अपनी प्रिय सखी को यों ही जल कर खाक होने दे? समझाने की सारी कोशिशें तो अंजली कर चुकी थी. पर अगर कोई डूबने पर आमादा हो जाए तो उसे किनारे कैसे लाया जाए. क्या वह लहर की मम्मी को सारी सचाई बयान कर दे? पर सचाई जानने के बाद लहर का क्या होगा. यह तो तय था कि सचाई पता चलते ही लहर के मम्मीपापा उस की पढ़ाई व होस्टल छुड़वा कर उसे वापस गांव ले जाएंगे. गांव में कैद होने का मतलब था लहर के लिए भविष्य के सारे रास्ते बंद. अंजली सोच में पड़ गई.

अपनी बचपन की सहेली के साथ ऐसा हो, यह तो अंजली कतई नहीं चाहती थी. पर दोनों के स्वभाव में शुरू से ही विरोधाभास था. लहर चुलबुली, अल्हड़ सी लड़की थी तो अंजली गंभीर और व्यावहारिक. इसलिए अकसर दोनों में बहस भी हो जाया करती. पर अगले ही पल वे दोनों एक हो जातीं.

इंटर पास कर के अंजली का शहर जा कर पढ़ना तय था. गांव में कालिज नहीं था और पढ़नेलिखने में तेज अंजली की महत्त्वाकांक्षा आसमान छू लेने की थी. मांबाप भी यही चाहते थे.

इस से उलट लहर के परिवार वाले उसे शहर में अकेले होस्टल में रखने के हक में कतई न थे. पर रोधो कर लहर ने घर वालों को मना ही लिया था, शहर भेजने के लिए. लहर हमेशा से औसत दरजे की छात्रा थी. भविष्य संवारने से बढ़ कर उसे आकर्षित कर रही थी शहरी चमकदमक, आजादी व मनमौजी जीवनशैली, जो गांव में मांबाप की छत्रछाया में संभव नहीं थी.

शहर आ कर दोनों ने बी.आई.टी. में प्रवेश ले लिया. दोनों ही लगन से कंप्यूटर की बारीकियां सीखने में लग गईं. कालिज में फ्री इंटरनेट सुविधा थी. लड़कियां कई बार समय काटने के लिए नेट चैट करती रहतीं. अंजली व लहर भी कभीकभार इस तरह समय काटा करती थीं.

पर कुछ समय बाद अंजली ने महसूस किया कि लहर किसी नेटफे्रंड को ले कर कुछ सीरियस हो रही है. उठतेबैठते, सोते- जागते, उसी की चर्चा. उसी के खयाल, हर वक्त, चैट करने का उतावलापन. अंजली उसे कई बार समझा चुकी थी कि किसी अनजान से इतना लगाव ठीक नहीं. माना कि तुम्हारी दोस्ती है पर इतना अधिक पजेसिव होने की जरूरत नहीं. ये नेट चैट तो आजकल लोगों के लिए टाइमपास है. आधी से ज्यादा बातें तो इस पर लोग झूठी ही करते हैं.

अंजली के समझाने पर लहर जाने कहांकहां की प्रेम कहानियां सुनाने लगती. ढेरों उदाहरण पेश कर देती, जिस में प्रेमी भारत का तो प्रेमिका न्यूजीलैंड की, कभी प्रेमी आस्ट्रेलिया का तो प्रेमिका भारत की होती. फिर लहर का तर्क होता, ‘इन की शादियां क्या यों ही हो गईं? रिश्ते तो विश्वास पर ही बनते हैं.’

‘वह तो ठीक है लहर, फिर भी सिर्फ बातों से किसी की सचाई का पता नहीं चल जाता,’ अंजली उसे समझाती, पर लहर ने तो जैसे ठान ही लिया था कि वह जो कर रही है वही ठीक है.

कालिज के बाद का फ्री टाइम लहर साइबर कैफे में बैठ कर गुजारने लगी, जहां प्रति घंटे की दर से कुछ पैसे ले कर इंटरनेट सुविधा उपलब्ध कराई जाती है. अंजली की बातों पर जब लहर ने ध्यान नहीं दिया तो उस ने भी कुछ कहना छोड़ दिया. वह जानती थी कि नेटचैट का भूत किसी नशे से कम नहीं होता. जिस दिन नशा उतर जाएगा, उस दिन लहर खुद राह पर आ जाएगी.

पर धीरेधीरे लहर का नशा उतरने के बजाय चढ़ता ही जा रहा था. दिन में 4-4 घंटे तो कभी 6-6 घंटे साइबर कैफे में बैठ कर चैट करने की लत लहर का पर्स 15 दिन में खाली कर देती. महीने के बाकी बचे 15 दिनों के लिए वह अंजली से उधार मांगती व कहती कि पहली तारीख को घर से मनीआर्डर आने पर पैसे लौटा देगी. 1-2 बार अंजली ने दोस्ती की खातिर रुपए उधार दे दिए. पहली तारीख को लहर ने लौटा भी दिए. पर फिर अगले माह उसे पैसे की तंगी हो जाती. अंजली के मना करने पर वह किसी दूसरी लड़की से पैसे उधार ले लेती. धीरेधीरे होस्टल की सभी लड़कियां उस की उधारी वाली आदत से परेशान हो गईं. सभी कोई न कोई बहाना बना कर उसे टाल देतीं.

अब लहर ने घर फोन कर और पैसे मांगने शुरू कर दिए, कभी यह कह कर कि मेरे पैसे रास्ते में कहीं गिर गए, तो कभी नया बहाना होता कि मुझे किसी विषय की ट्यूशन लगवानी है.

लहर अपनी लत में लगी रही. नतीजा तय था. परीक्षा में जहां अंजली अच्छे नंबरों से पास हो गई वहीं लहर सभी विषयों में फेल थी.

रोधो कर लहर ने अंजली को मजबूर कर दिया, एक और झूठ बोलने के लिए, ‘अंजली प्लीज, मेरे घर पर यही कहना कि परीक्षा के दिनों में मुझे तेज बुखार था. इसी वजह से रिजल्ट खराब रहा.’

फेल होने के बावजूद लहर को कोई अफसोस नहीं था बल्कि वह तो फिर यह सोच कर चैन की सांस लेने लगी थी कि चलो, मम्मीपापा को उस की असफलता को ले कर कोई शंका नहीं है. पर अंजली परेशान थी. उस ने लहर की खातिर सिर्फ यह सोच कर झूठ बोला था कि ठोकर खा कर वह अब सही राह पर चलेगी.

अंजली लहर से एक क्लास आगे हो गई थी. अब उन का साथसाथ आना कम हो गया था. अंजली होस्टल से सुबह निकलती तो लहर उस के 2 घंटे बाद. दोनों ही अपनीअपनी तरह जी रही थीं. अंजली का पढ़ाई में लगाव बढ़ता जा रहा था. लेकिन लहर का मन पढ़ाई से पूरी तरह उचट चुका था.

अंजली ने भी उसे समझाने की कोशिशें छोड़ दीं, पर एक दिन अचानक अंजली पर जैसे गाज गिरी. अटैची में रखे 1 हजार रुपए गायब देख कर उस के होश उड़ गए. ‘तो अब लहर इस हद तक गिर गई है,’ अंजली को यकीन नहीं हो रहा था. होस्टल के कमरे में उन दोनों के अलावा कोई तीसरा आता नहीं था. ‘लहर को पैसे की तंगी तो हमेशा ही रहती थी. पैसों के लिए जब वह अपने मांबाप से झूठ बोल सकती है तो चोरी भी कर सकती थी,’ अंजली ने सोचा, पर सीधा इलजाम लगाने से बात बिगड़ सकती है. कोई ठोस सुबूत भी तो नहीं, जो साबित कर सके कि पैसे लहर ने ही निकाले हैं.

अंजली मन ही मन बहुत दुखी थी. अचानक उसे ध्यान आया कि लहर का पासवर्ड वह जानती है. क्यों न उस के पासवर्ड को कंप्यूटर में डाल कर लहर का ईमेल अकाउंट जांचा जाए. आखिर 6-6 घंटे साइबर कैफे में बैठ कर चैट करने के पीछे कारण क्या हैं.

अंजली ने साइबर कैफे में जा कर लहर के पासवर्ड से उस का ईमेल अकाउंट खोला. लहर के नाम आए मेल पढ़ कर उस के पैरों तले जमीन खिसक गई. ये सारे मेल लहर के उसी दोस्त के थे जिस के पीछे वह दीवानी हो गई थी. नाम था साहिल खान. वह सऊदी अरब में काम करने वाला भारतीय था. साहिल खान के भावुकता के रस में डूबे प्रेम से सराबोर पत्रों से पता चला कि लहर तो उस के साथ भाग कर शादी करने का वादा भी कर चुकी है, वह शादी के बाद उस के साथ सऊदी अरब में रहने के सपने देख रही है. 3 माह बाद साहिल ने उस से भारत आने का वादा किया है.

अंजली ने अपनी एक नई आई.डी. बनाई फिर साहिल खान से दोस्ती गांठने के लिए ‘जिया’ नाम से उस से संपर्क किया. अंजली को ज्यादा प्रतीक्षा नहीं करनी पड़ी. साहिल उस वक्त आनलाइन ही था. वह ‘जिया’ बनाम अंजली से चैट करने लगा. अंजली ने भी बातों में उलझा कर उस से दोस्ती बढ़ाने की कोशिश की. साहिल ने अंजली को अपनी उम्र लगभग वही बताई जो लहर को बताई थी, पर लहर के लिए वह कंप्यूटर इंजीनियर था तो ‘जिया’ बनाम अंजली को उस ने बताया कि वह पिछले ही साल भारत से सऊदी अरब में 2 वर्ष के कांट्रैक्ट पर एक अस्पताल में चीफ मेडिकल आफिसर बन कर आया है. अंजली ने जिया के नाम से महीने भर लगातार साहिल से चैट किया. उस ने 2-4 भावुक प्रेमपत्र ईमेल से भेजे. जवाब में आए प्रेम से सराबोर लंबेचौडे़ वादे. भावभीने प्रेमरस में डूबे प्रेमपत्रों में साहिल ने कांटै्रक्ट खत्म होते ही अगले वर्ष भारत पहुंच कर जिया से शादी करने का वादा किया.

अंजली अपनी योजना के मुकाम पर पहुंच चुकी थी. लहर ने अपने नेटफें्रड के किस्से अंजली को सुनाने लगभग बंद कर दिए थे, क्योंकि उस की बातों पर अंजली बिफर पड़ती थी. इसी वजह से दोनों के बीच तनातनी सी हो जाती थी.

गांव से शहर में आ कर होस्टल में रह कर पढ़ाई करने के बीते हुए दिनों को याद कर अंजली अतीत में खो गई थी. तंद्रा भंग हुई तो उसे याद आया कि अब क्या करना है, अपनी प्रिय सहेली लहर को भटकने से कैसे बचाना है. आज अंजली ने लहर से कहा, ‘‘लहर, आज समय हो तो प्लीज मेरे साथ साइबर कैफे चलो न, बहुत जरूरी काम है.’’

‘‘तुम्हें, साइबर कैफे में काम है?’’ लहर हैरान हो गई.

‘‘हां, पर तुम्हारे जैसा नहीं. कुछ इनफार्मेशन कलेक्ट करनी है, टर्म पेपर के लिए,’’ अंजली ने कहा.

‘‘वह तो मैं जानती हूं. तुम जैसी नीरस लड़की को भला और कोई काम हो भी नहीं सकता. अच्छा चलती हूं.’’

‘‘तुम्हारे नेटफ्रेंड का क्या हालचाल है? बहुत दिनों से तुम ने कुछ सुनाया नहीं उस के बारे में,’’ अंजली ने बात छेड़ी, ‘‘गाड़ी कहां तक आ गई है?’’

‘‘बस, समझो स्टेशन आने वाला है. 3 माह बाद ही साहिल भारत आ रहा है. कह रहा था कि मम्मीपापा से बात कर के पहले उन्हें मनाने की कोशिश करेगा. नहीं तो शादी तो हर हाल में करनी ही है. उस के बाद वह मुझे सीधे सऊदी अरब ले जाएगा. तुम तो मेरी पक्की सहेली हो. तुम तो साथ दोगी न मेरा?’’ लहर ने पूछा.

‘‘क्यों नहीं. तुम्हारी पक्की सहेली हूं. तुम्हारी खुशी के लिए कुछ भी कर सकती हूं,’’ अंजली ने कहा.

बात करतेकरते दोनों साइबर कैफे पहुंच गईं. अगले ही पल सऊदी अरब में बसे लहर के तथाकथित प्रेमी साहिल खान बनाम कंप्यूटर इंजीनियर का कच्चा चिट्ठा अंजली ने लहर के सामने खोल कर रख दिया.

वही साहिल जो लहर के लिए कंप्यूटर इंजीनियर था, वही ‘जिया’ बनाम अंजली के लिए डाक्टर था, जो 3 माह बाद लहर को ब्याहने आने वाला था. वही साल भर बाद भारत आ कर जिया से भी शादी करने के वादे कर रहा था. अब समझनेसमझाने के लिए कुछ भी बाकी नहीं था.

लहर के जीवन का लक्ष्य अचानक धराशायी हो गया. उसे एहसास हो गया कि यह मंजिल नहीं है. कटी डाल की तरह टूट कर लहर, अंजली की गोद में सिर रख कर बिलख पड़ी, ‘‘अंजली, मैं तो भूल गई थी कि लहर की मंजिल कभी साहिल तो हो ही नहीं सकता. साहिल से टकरा कर लहर को वापस लौटना पड़ता है.’’

‘‘रो ले, जी भर कर रो ले, मन का सारा दुख आज बह जाने दे, ताकि आने वाले दिनों में बीती बातों की कोई कसक बाकी न रहे,’’ अंजली ने लहर के सिर पर प्यार से हाथ फेरा.

आज अंजली भी खुद को हलका महसूस कर रही थी. उसे याद आया कि शहर आने से पहले लहर की मम्मी ने कितने विश्वास के साथ उस से कहा था, ‘बेटी, लहर का ध्यान रखना. तुम तो जानती हो न इस का स्वभाव. मन की भोली है. बड़ी जल्दी किसी की भी बातों में आ जाती है. तुम साथ हो इसलिए हम ब्रेफिक्र हो कर इसे शहर भेज रहे हैं.’

आज लहर को गुमराह होने से बचा कर अंजली ने उस के मांबाप का विश्वास भी सहेज लिया था.

एक बार तो पूछा होता: मजाक हो तो ऐसा

‘‘पता नहीं क्यों किसीकिसी के साथ दम घुटता सा लगता है. जैसे आप की हर सांस पर किसी का पहरा हो या कोई हर पल आप पर नजर रख रहा हो. क्या ऐसे में दम घुटता सा नहीं लगता?’’ सीमा ने प्रश्नवाचक दृष्टि से मेरी ओर देखा.

‘‘कहीं तुम्हें दमा का रोग तो नहीं हो गया?’’ मैं ने भी प्रत्युत्तर में प्रश्न दाग दिया.

मेरा मजाक उस के गले में फांस जैसा अटक जाएगा, मुझे नहीं पता था.

‘‘तुम्हें लग रहा है कि मैं तमाशा कर रही हूं, मैं अपने मन की बात समझाना चाह रही हूं और तुम समझ रहे हो…’’

सीमा का स्वर रुंध जाएगा मुझे पता नहीं था. सहसा मुझे रुकना पड़ा. हंसतीखेलती सीमा इतनी परेशान भी हो सकती है मैं ने कभी सोचा भी नहीं था.

सीमा मेरे पापा के दोस्त की बेटी है और मेरे बचपन की साथी है. हम ने साथसाथ अपनी पढ़ाई पूरी की और जीवन के कई उतारचढ़ाव भी साथसाथ पार किए हैं. ऐसा क्या हो गया उस के साथ. हो सकता है उस के पापा ने कुछ कहा हो, लेकिन पापा के साथ पूरी उम्र दम नहीं घुटा तो अब क्यों दम घुटने लगा.

2 दिन बाद मैं फिर सीमा से मिला तो क्षमायाचना कर कुछ जानने का प्रयास किया.

‘‘ऐसा क्या है, सीमा…मैं तुम्हारे आगे हाथ जोड़ता हूं. अब क्या मुझे भी रुलाओगी तुम?’’

‘‘मेरी वजह से तुम क्यों रोओगे?’’

तनिक रुकना पड़ा मुझे. सवाल गंभीर और जायज भी था. भला मैं क्यों रोऊंगा? मेरा क्या रिश्ता है सीमा से? सीमा की मां का एक्सीडेंट, उन का देर तक अस्पताल में इलाज और फिर उन की मौत, सीमा का अकेलापन, सीमा के पापा का पुनर्विवाह और फिर उन का भी अलगाव. कोई नाता नहीं है मेरा सीमा से, फिर भी कुछ तो है जो मुझे सीमा से बांधता है.

‘‘तुम मेरे कौन हो, राघव?’’

‘‘पता नहीं, तुम्हारे सवाल से तो मुझे दुविधा होने लगी है और विचार करना पड़ेगा कि मैं कौन हूं तुम्हारा.’’

तनिक क्रोध आ गया मुझे. यह सोच कर कि कौन है जो हमारे रिश्ते पर प्रश्नचिह्न लगा रहा है?

‘‘तुम्हारा दिमाग तो नहीं घूम गया. अच्छी बात है, नहीं मिलूंगा मैं तुम से. पता नहीं कैसे लोगों में उठतीबैठती हो आजकल, लगता है किसी मानसिक रोगी की संगत में हो जो खुद तो बीमार होगा ही तुम्हारा भी दिमाग खराब कर रहा है,’’ और इतना कह कर मैं ने हाथ में पकड़ी किताब पटक दी.

‘‘यह लाया था तुम्हारे लिए. पढ़ लो और अपनी सोच को जरा स्वस्थ बनाओ.’’

मैं तैश में उठ कर चला तो आया पर पूरी रात सो नहीं सका. भैयाभाभी और पिताजी पर भी मेरी बेचैनी खुल गई. बातोंबातों में उन के होंठों से निकल गया, ‘‘सीमा के रिश्ते की बात चल रही थी, क्या हुआ उस का? उस दिन भाई साहब बात कर रहे थे कि जन्मपत्री मिल गई है. लड़के को लड़की भी पसंद है. दोनों अच्छी कंपनी में काम करते हैं, क्या हुआ बात आगे बढ़ी कि नहीं…’’

‘‘मुझे तो पता नहीं कि सीमा के रिश्ते की बात चल रही है?’’

‘‘क्या सीमा ने भी नहीं बताया? भाई साहब तो बहुत उतावले हैं इस रिश्ते को ले कर कि लड़का उसी के साथ काम करता है. मनीष नाम है उस का, जाति भी एक है.’’

‘‘अरे, भाभी, आप को इतना सब पता है और मुझे इस का क ख ग भी पता नहीं,’’ इतना कह कर मैं भाभी का चेहरा देखने लगा और भौचक्का सा अपने कमरे में चला आया. पता नहीं चला कब भाभी भी मेरे पीछे कमरे में चली आईं.

‘‘राघव, क्या सचमुच तुम कुछ नहीं जानते?’’

‘‘हां, भाभी, बिलकुल सच कह रहा हूं कि मैं कुछ भी नहीं जानता.’’

‘‘क्यों, सीमा ने नहीं बताया. तुम से तो उस की अच्छी दोस्ती है. जराजरा सी बात भी एकदूसरे के साथ तुम बांटते हो.’’

‘‘भाभी, यही तो मैं भी सोच रहा हूं मगर यह सच है. आजकल सीमा परेशान बहुत है. पिछले 3-4 दिनों में हम जब भी मिले हैं बस, हम में झगड़ा ही हुआ है. मैं पूछता हूं तो कुछ बताती भी नहीं है. हो सकता है वह लड़का मनीष ही उसे परेशान कर रहा हो…उस ने कहा भी था कुछ…’’

सहसा याद आया मुझे. दम घुटने जैसा कुछ कहा था. उसी बात पर तो झगड़ा हुआ था. सब समझ आने लगा मुझे. हो सकता है वह लड़का सीमा को पसंद न हो. वह सीमा की हर सांस पर पहरा लगा रहा हो. बचपन से जानता हूं न सीमा को, जरा सा भी तनाव हो तो उस की सांस ही रुकने लगती है.

‘‘तुम से कुछ पूछना चाहती हूं, राघव,’’ भाभी बड़ी बहन का रूप ले कर बोलीं, ‘‘सीमा तुम्हारी अच्छी दोस्त है या उस से ज्यादा भी है कुछ?’’

‘‘अच्छी मित्र है, यह कैसी बातें कर रही हैं आप? कल सीमा भी पूछ रही थी कि मैं उस का क्या लगता हूं… जैसे वह जानती नहीं कि मैं उस का क्या हूं.’’

‘‘तुम तो पढ़ेलिखे हो न,’’ भाभी बोलीं, ‘‘एमबीए हो, बहुत बड़ी कंपनी में काम करते हो. सब को समझा कर चलते हो, क्या मुझे समझा सकते हो कि तुम सीमा के क्या हो?’’

‘‘हम दोनों बचपन के साथी हैं. बहुत कुछ साथसाथ सहा भी है…’’

भाभी बात को बीच में काट कर बोलीं, ‘‘अच्छा बताओ, क्या 2 पल भी बिना सीमा को सोचे कभी रहे हो?’’

‘‘न, नहीं रहा.’’

‘‘तो क्या उस के बिना पूरा जीवन जी लोगे? उस की शादी कहीं और हो गई तो…’’

‘‘भाभी, मैं सीमा को किसी धर्मसंकट में नहीं डालना चाहता था इसीलिए ऐसा सपना ही नहीं देखा. उस का सुख ही मेंरे लिए सबकुछ है. वह जहां रहे सुखी रहे, बस.’’

‘‘तुम ने उस से पूछा, वह मनीष को पसंद करती है? नहीं न, तुम्हें कुछ पता ही नहीं है. जिस के साथ उस के पिता ने जन्मकुंडली मिलाई है क्या उस के साथ उस के विचार भी मिलते हैं. नहीं जानते न तुम…तुम उस का सुखदुख जानते ही नहीं तो उसे सुखी रखने की कल्पना भी कैसे कर सकते हो. एक बार तो उस से खुल कर बात कर लो. बहुत देर न हो जाए, मुन्ना.’’

भाभी का हाथ मेरे सिर पर आया तो लगा एक ममतामई सुरक्षा कवच उभर आया मन के आसपास. क्या भाभी मेरा मन पहचानती हैं. लगा चेतना पर से कुछ हट सा रहा है.

‘‘ज्यादा से ज्यादा सीमा ना कर देगी,’’ भाभी बोलीं, ‘‘कोई बात नहीं, हम बुरा नहीं मानेंगे. कम से कम दिल की बात कहो तो सही. तुम डरते हो तो मैं अपनी तरफ से बात छेड़ं ू.’’

‘‘मुझे डर है राघव कहीं ऐसा न हो कि वह इतनी दूर चली जाए कि तुम उसे देख भी न पाओ. सवाल अनपढ़ या पढ़ेलिखे होने का नहीं है, कुछ सवाल इतने भी आसान नहीं होते जितना तुम सोचते हो. क्योंकि बड़ेबड़े पढ़ेलिखे भी अकसर कुछ प्रश्नों का उत्तर नहीं दे पाते. सीमा को तो अनपढ़ कह दिया, तुम्हीं कौन से पढ़ेलिखे हो, जरा समझाओ मुझे.’’

किंकर्तव्यविमूढ़ मैं भाभी को देखता रहा. मेरा मन भर आया. अपने भाव छिपाने चाहे लेकिन प्रयास असफल रहा. भाभी से क्या छिपाऊं. शायद भाभी मुझ से ज्यादा मुझे जानती हैं और सीमा को भी.

‘‘मुन्ना, तुम आज ही सीमा से बात करो. मैं शाम तक का समय तुम्हें देती हूं, वरना कल सुबह मैं सीमा से बात करने चली जाऊंगी. अरे, जाति नहीं मिलती न सही, दिल तो मिलता है. वह ब्राह्मण है हम ठाकुर हैं, इस से क्या फर्क पड़ता है? जब उसे साथ ही लेना है तो उस के  लायक बनने की जरूरत ही क्या है?

‘‘जिंदगी इतनी सस्ती नहीं होती बच्चे कि तुम इसे यों ही गंवा दो और इतनी छोटी भी नहीं कि सोचो बस, खत्म हुई ही समझो. पलपल भारी पड़ता है जब कुछ हाथ से निकल जाए. मुन्ना, तुम मेरी बात सुन रहे हो न.’’

मैं भाभी की गोद में समा कर रो पड़ा. पिछले 10 सालों में मां बन कर भाभी ने कई बार दुलारा है. जब भाभी इस घर में आई थीं तब मैं 16-17 साल का था. डरता भी था, पता नहीं कैसी लड़की घर में आएगी, घर को घर ही रहने देगी या श्मशान बना देगी. और अब सोचता हूं कि मेरी यह नन्ही सी मां न होती तो मैं क्या करता.

‘‘तुम बडे़ कब होगे, राघव?’’ चीखी थीं भाभी.

‘‘मुझे बड़े होने की जरूरत ही नहीं है, आप हैं न. अगर आप को लगता है बात करनी चाहिए तो आप बात कर लीजिए, मुझ में हिम्मत नहीं है. उन की ‘न’ उन की ‘हां’ आप ही पूछ कर बता दें. डरता हूं, कहीं दोस्ती का यह रिश्ता हाथ से ही न फिसल जाए.’’

‘‘इस रिश्ते को तो यों भी तुम्हारे हाथ से फिसलना ही है. जितनी पीड़ा तुम्हें सीमा की वजह से होती है वह तब तक कोई अर्थ रखती है जब तक उस की शादी नहीं हो जाती. उस के बाद यह पीड़ा तुम्हारे लिए अभिशाप बन जाएगी और सीमा के लिए भी. राघव, तुम एक बार तो सीमा से खुद बात कर लो. अपने मन की कहो तो सही.’’

‘‘भाभी, आप सोचिए तो, उस के पापा नहीं मानेंगे तो क्या सीमा उन के खिलाफ जाएगी? नहीं जाएगी. इसलिए कि अपने पापा का कहना वह मर कर भी निभाएगी. मेरे प्रति अगर उस के मन में कुछ है भी तो उसे हवा देने की क्या जरूरत?’’

‘‘क्या सीमा यह सबकुछ सह लेगी? इतना आसान होगा नहीं, जितना तुम मान बैठे हो.’’

भाभी गुस्से से मेरे हाथ झटक कर चली गईं और सामने चुपचाप कुरसी पर बैठे अपने भाई पर मेरी नजर पड़ी, जो न जाने कब से हमारी बातें सुन रहे थे.

‘‘क्या लड़के हो तुम? भाभी का पल्ला पकड़ कर रो तो सकते हो पर सीमा का हाथ पकड़ एक जरा सा सवाल नहीं पूछ सकते. आदमी बनो राघव, हिम्मत करो बच्चे, चलो, उठो, नहाधो कर नाश्ता करो और निकलो घर से. आज इतवार है और सीमा भी घर पर ही होगी. हाथ पकड़ कर सीमा को घर ले आओगे तो भी हमें मंजूर है.’’

भैयाभाभी के शब्दों का आधार मेरे लिए एक बड़ा प्रोत्साहन था, लेकिन एक पतली सी रेखा संकोच और डर की मैं पार नहीं कर पा रहा था. किसी तरह सीमा के घर पहुंचा. बाहर ही उस के पापा मिल गए. पता चला सीमा की तबीयत अच्छी नहीं है.

‘‘कभी ऐसा नहीं हुआ उसे. कहती है सांस ही नहीं आती. रात भर फैमिली डाक्टर पास बैठे रहे. क्या करूं मैं, अच्छीभली थी, पता नहीं क्या होता जा रहा है इसे.’’

‘‘अंकल, आप को पता तो है कि घबराहट में सीमा को दम घुटने जैसा अनुभव होता है. उस दिन मुझ से बात करनी भी चाही थी पर मैं ने ही मजाक में टाल दिया था.’’

‘‘तो तुम उस से पूछो, बात करो.’’

मैं सीमा के पास चला आया और उस की हालत देख घबरा गया. 3-3 तकिए पीठ के पीछे रखे वह किसी तरह शरीर को सीधा रख सांस खींचने का प्रयास कर रही थी. एकएक सांस को तरसता इनसान कैसा दयनीय लगता है, मैं ने पहली बार जाना था. आंखें बाहर को फट रही थीं मानो अभी पथरा जाएंगी.

उस की यह हालत देख कर मैं रो पड़ा था. सच ही कहा था भाभी ने कि मेरा सीमा के प्रति स्नेह और ममता इतनी भी सतही नहीं जिसे नकारा जा सके. दोनों हाथ बढ़ा कर किसी तरह हांफते शरीर को सहारा देना चाहा. क्या करूं मैं जो सीमा को जरा सा आराम दे पाऊं. माथा सहला कर पसीना पोंछा. ऐसा लग रहा था मानो अभी सीमा के प्राणपखेरू उड़ जाएंगे. दम घुट जो रहा था.

‘‘सीमा, सीमा क्या हो रहा है तुम्हें, बात करो न मुझ से.’’

दोनों हाथों में उस का चेहरा ले कर सामने किया. आत्मग्लानि से मेरा ही दम घुटने लगा था. उस दिन सीमा कुछ बताना चाह रही थी तो क्यों नहीं सुना मैं ने. अचानक ही भीतर आते पापा की आवाज सुनाई दी.

‘‘सीमा, देखो, तुम से मिलने मनीष आया है.’’

पापा के स्वर में उत्साह था. शायद भावी पति को देख सीमा को चैन आएगा.

एक नौजवान पास चला आया और उस का अधिकारपूर्ण व्यवहार ऐसा मानो बरसों पुराना नाता हो. मेरे मन में एक विचित्र भाव जाग उठा, जैसे मैं सीमा के आसपास कोई अवांछित प्राणी था.

‘‘क्या बात है, सीमा?’’ कल अच्छीभली तो थीं तुम. अचानक ऐसा कैसे हो गया?’’

सवाल पर सवाल, उत्तर न मिलने पर भी एक और सवाल.

‘‘कल शाम तुम्हारा इंतजार करता रहा. नहीं आना था तो एक फोन तो कर देतीं. दीदी और जीजाजी तुम्हारी वजह से नाराज हो गए हैं. उन्हें फोन कर के ‘सौरी’ बोल देना. जीजाजी को कह कर न आने वालों से बहुत चिढ़ है.’’

मुझे मनीष एक संवेदनहीन इनसान लगा. सीमा पर पड़ती उस की नजरों में अधिकार- भावना अधिक थी और चिंता कम. यह इनसान सीमा से प्यार ही कहां कर पाएगा जिसे उस की तकलीफ पर जरा भी चिंता नहीं हो रही. सीमा रो पड़ी थी और अगले पल उस का समूचा अस्तित्व मेरी बांहों में आ समाया और मेरी छाती में चेहरा छिपा कर वह चीखचीख कर रोने लगी.

सीमा के पापा अवाक्थे. मनीष की पीड़ा को मैं नकार नहीं सकता…जिस की होने वाली बीवी उसी की ही नजरों के सामने किसी और की बांहों में समा जाए.

कुछ प्रश्न और कुछ उत्तर शायद इसी एक पल का इंतजार कर रहे थे. सीमा ने पीड़ा की स्थिति में अपना समूल मुझे सौंप दिया था और मेरे शरीर पर उस के हाथों की पकड़ इतनी मजबूत थी कि मेरे लिए विश्वास करना मुश्किल था. स्पर्श की भाषा कभीकभी इतनी प्रभावी होती है कि शब्दों का अर्थ ही गौण हो जाता है.

मेरे हाथों में क्या था, मैं नहीं जानता. लेकिन कुछ ऐसा अवश्य था जिस ने सीमा की उखड़ी सांसों को आसान बना दिया था. मेरे दोनों हाथों को कस कर पकड़ना उस का एक उत्तर था जिस की मुझे भी उम्मीद थी.

मुझे पता ही नहीं चला कब मनीष और पापा कमरे से बाहर चले गए. गले में ढेर सारा आवेग पीते हुए मैं ने सीमा के बालों में उंगलियां डाल सहला दिया. देर तक सीमा मेरी छाती में समाई रही. सांस पूरी तरह सामान्य हो गई थी, जिस पर मैं भी हैरान था और सीमा के पापा भी.

‘‘तुम ने पूछा था न, मैं तुम्हारा कौन हूं? कल तक पता नहीं था. आज बता सकता हूं.’’

चुप थी सीमा, और उस के पापा भी चुप थे. मुझे वे प्रकृति के आगे नतमस्तक से लगे. सीमा की सांसें अगर मेरी नजदीकियों की मोहताज थीं तो इस सच से वे आंखें कैसे मोड़ लेते.

‘‘मुझे बताया क्यों नहीं तुम दोनों ने? बचपन से साथसाथ हो और एकदूसरे पर इतना अधिकार है तो…’’

‘‘अंकल, मुझे भी पता नहीं था. आज ही जान पाया,’’ और इसी के साथ मेरा गला रुंध गया था.

मुझे अच्छी तरह याद है जब सीमा की मां की मौत के कुछ साल बाद उस के पापा ने अपनी बहन के दबाव में आ कर पुनर्विवाह कर लिया था तब वह कितने परेशान थे. सीमा और उस की नई मां के बीच तालमेल नहीं बैठा पा रहे थे. तब अकसर मेरे सामने रो दिया करते थे.

‘‘अपनी जाति अपनी ही जाति होती है. यह औरत हमारी जाति की नहीं है, इसीलिए हम में घुलमिल नहीं पाती.’’

‘‘अंकल, आप अपनी जाति से बाहर भी तो जाना नहीं चाहते थे न. और मैं भी नहीं चाहता था मेरी वजह से सीमा आप से दूर हो जाए. क्योंकि आप ने सीमा के लिए अपने सारे सुख भुला दिए थे.’’

‘‘तो क्या उस का बदला मैं सीमा के जीवन में जहर घोल कर  लूंगा. मैं उस का बाप हूं. जो मैं ने किया वह कोई एहसान नहीं था. कैसे नादान हो, तुम दोनों.’’

सीमा को गले लगा कर अंकल रो पड़े थे. हम तीनों ही अंधेरे में थे. कहीं कोई परदा नहीं था फिर भी एक काल्पनिक आवरण खुद पर डाले बस, जिए जा रहे थे हम.

डरने लगा हूं अब वह पल सोच कर, जब सीमा सदासदा के लिए जीवन से चली जाती. तब शायद यही सोचसोच कर जीवन नरक बन जाता कि एक बार मैं ने बात तो की होती, एक बार तो पूछा होता, एक बार तो पूछा होता.

बदला : डाक्टर मीता की कशमकश

आपरेशन थियेटर से निकल कर डा. मीता अपने केबिन में आईं. एप्रिन उतारने के बाद उन्होंने इंटरकाम का बटन दबाते हुए पूछा, ‘‘रीना, क्या डा. दीपक का कोई फोन आया था?’’

‘‘जी, मैम, वह 2 बजे तक कानपुर से लौट आएंगे और लंच घर पर ही करेंगे,’’ इंटरकाम पर रिसेप्शनिस्ट रीना की आवाज सुनाई पड़ी.

‘‘ठीक है,’’ कह कर डा. मीता ने फोन रख दिया और घड़ी पर नजर डाली. साढ़े 12 बजे थे. वह सोचने लगीं कि

डा. दीपक के लौटने में अभी डेढ़ घंटे का समय है और इतनी देर में अस्पताल का एक राउंड लिया जा सकता है.

डा. मीता ने आज अकेले ही 3 आपरेशन किए थे, इसलिए कुछ थकावट महसूस कर रही थीं. तभी अटेंडेंट कौफी दे गया. वह कुरसी की पुश्त से टेक लगा कर कौफी की चुस्कियां लेने लगीं.

मीता और दीपक लखनऊ मेडिकल कालिज में सहपाठी थे. एम.एस. करने के बाद दोनों ने शादी कर ली थी. पहले उन्होंने अपना नर्सिंग होम लखनऊ में खोला था किंतु अचानक घटी एक दुर्घटना के कारण उन्हें लखनऊ छोड़ना पड़ गया था.

उस के बाद वे इलाहाबाद चले आए. उन की दिनरात की मेहनत के कारण 3 वर्षों में ही उन के नए नर्सिंग होम की शोहरत काफी बढ़ गई थी. डा. दीपक आज सुबह किसी जरूरी काम से कानपुर गए थे. आज के आपरेशन पूरा करने के बाद डा. मीता उन की प्रतीक्षा कर रही थीं.

अचानक बाहर कुछ शोर सुनाई पड़ा. उन्होंने अटेंडेंट को बुला कर पूछा, ‘‘यह शोर कैसा है?’’

‘‘जी…एक्सीडेंट का एक केस आया है और स्टाफ उन्हें भगा रहा है लेकिन वे लोग भाग नहीं रहे हैं,’’ अटेंडेंट ने हिचकते हुए बताया.

‘‘क्यों भगा रहे हैं? क्या तुम लोगों को पता नहीं कि हमारे नर्सिंग होम में छोटेबड़े सभी का इलाज बिना किसी भेदभाव के किया जाता है,’’ मीता का चेहरा तमतमा उठा. वह जानती थीं कि शहर के कई नर्सिंग होम तो ऐसे हैं जिन में गरीबों को घुसने भी नहीं दिया जाता है.

‘‘जी…वो…’’ अटेंडेंट हकला कर रह गया. ऐसा लग रहा था कि वह कुछ कहना चाह रहा है किंतु साहस नहीं जुटा पा रहा है.

‘‘यह क्या वो…वो…लगा रखी है,’’ डा. मीता ने अटेंडेंट को डांटा फिर पूछा, ‘‘घायल की हालत कैसी है?’’

‘‘खून काफी बह गया है और वह बेहोश है.’’

‘‘तो फौरन उसे आपरेशन थियेटर में ले चलो. मैं भी पहुंच रही हूं,’’

डा. मीता ने खड़े होते हुए आदेश दिया.

अटेंडेंट हक्काबक्का सा चंद पलों तक उन के चेहरे को देखता रहा फिर आंखें झुकाते हुए बोला, ‘‘जी, मैडम, वह विधायक उपदेश सिंह राणा हैं. नर्सिंग होम के पास ही उन की गाड़ी को एक ट्रक ने टक्कर मार दी है.’’

इतना सुनने के बाद डा. मीता को लगा जैसे कोई ज्वालामुखी फट पड़ा हो और पूरी सृष्टि हिल गई हो. वह धम्म से कुरसी पर गिर पड़ीं. अगर उन्होंने कुरसी के दोनों हत्थों को मजबूती से थाम न लिया होता तो शायद चकरा कर नीचे गिर पड़ती होतीं. उन के दिमाग पर हथौड़े बरसने लगे और सांस धौंकनी की तरह चलने लगी थी. अटेंडेंट उन की मनोदशा को समझ गया था अत: चुपचाप वहां से खिसक गया.

लगभग साढ़े 3 वर्ष पहले की बात है. उस दिन भी डा. मीता अपने पुराने नर्सिंग होम में अकेली थीं. तभी कुछ लोग गोली से बुरी तरह घायल एक व्यक्ति को ले कर आए. उस की गोली निकालने के लिए वह आपरेशन थियेटर में अभी जा ही रही थीं कि फोन की घंटी बज उठी :

‘डा. साहिबा, मैं उपदेश सिंह राणा बोल रहा हूं,’ फोन पर आवाज आई.

‘जी, कहिए,’ डा. मीता अचकचा उठीं.

उपदेश सिंह राणा शहर का आतंक था. छोटेबड़े सभी उस के नाम से थर्राते थे. उस का भला उन से क्या काम?

‘डा. साहिबा, वह मेरी गोली से तो बच गया है लेकिन आप के आपरेशन थियेटर से जिंदा वापस नहीं आना चाहिए,’ उपदेश सिंह राणा ने आदेशात्मक स्वर में कहा.

‘मैं एक डाक्टर हूं और डाक्टर के हाथ लोगों की जान बचाने के लिए उठते हैं, लेने के लिए नहीं,’ डा. मीता ने स्पष्ट इनकार कर दिया.

‘मैं आप के हाथों को बहकने की कीमत देने के लिए तैयार हूं. आप मुंह खोलिए,’ राणा ने हलका सा कहकहा लगाया.

‘आप अपना और मेरा समय बरबाद कर रहे हैं,’ राणा का प्रस्ताव सुन

डा. मीता का मन कसैला हो उठा.

‘डा. साहिबा, कुछ करने से पहले सोच लीजिएगा कि मैं महिलाओं को सिर्फ उपदेश ही नहीं देता बल्कि…’ इतना कहतेकहते राणा क्षण भर के लिए रुका फिर खतरनाक अंदाज में बोला, ‘अगर आप ने मेरे शिकार को बचाने की कोशिश की तो फिर आप का कुछ भी नहीं बच पाएगा.’

डा. मीता ने बिना कुछ कहे फोन रख दिया और आपरेशन थियेटर में घुस गईं. उस व्यक्ति की हालत बहुत खराब थी. 3 गोलियां उस की पसलियों में घुस गई थीं. 2 घंटे की कड़ी मेहनत के बाद वह गोलियां निकाल पाई थीं. अब उस की जान को कोई खतरा नहीं था.

किंतु राणा ने अपनी धमकी को सच कर दिखाया. 2 दिन बाद ही उस ने

डा. मीता का अपहरण कर उन की इज्जत लूट ली. दीपक ने बहुत भागदौड़ की लेकिन कोई नतीजा नहीं निकला. राणा गिरफ्तार हुआ किंतु 3 दिन बाद ही जमानत पर छूट गया. उस के आतंक के कारण कोई भी उस के खिलाफ गवाही देने के लिए तैयार नहीं हुआ था.

इस घटना ने डा. मीता को तोड़ कर रख दिया था. वह एक जिंदा लाश बन कर रह गई थीं. हमेशा बुत सी खामोश रहतीं. जागतीं तो भयानक साए उन्हें अपने आसपास मंडराते नजर आते. सोतीं तो स्वप्न में हजारों गिद्ध उन के शरीर को नोंचने लगते. उन की मानसिक हालत बिगड़ती जा रही थी.

मनोचिकित्सकों की सलाह पर दीपक ने वह शहर छोड़ दिया था. नए शहर के नए माहौल ने मरहम का काम किया. अतीत की यादों को करीब आने का मौका न मिल सके, इसलिए डा. दीपक अपने साथ

डा. मीता को भी मरीजों की सेवा में व्यस्त रखते. धीरेधीरे जीवन की गाड़ी एक बार फिर पटरी पर दौड़ने लगी थी. दोनों की मेहनत और लगन से इन चंद वर्षों में ही उन के नर्सिंग होम का काफी नाम हो गया था.

इन चंद वर्षों में और भी बहुत कुछ बदल चुका था. अपने आतंक और बूथ कैप्चरिंग के दम पर शहर का दुर्दांत गुंडा उपदेश सिंह राणा दबंग विधायक बन चुका था. अब इसे समय का क्रूर मजाक ही कहा जाए कि डा. मीता की जिंदगी बरबाद करने वाले दरिंदे उपदेश सिंह राणा की जिंदगी बचाने के लिए लोग आज उसे उन की ही शरण में ले आए थे.

डा. मीता की आंखों के सामने उस दिन के दृश्य कौंध गए जब वह गिड़गिड़ाते हुए उस शैतान से दया की भीख मांग रही थी और वह हैवानियत का नंगा नाच नाच रहा था. वह अपने डाक्टरी पेशे की मर्यादा और कर्तव्यनिष्ठा की दुहाई दे रही थीं और वह उन की इज्जत की चादर को तारतार किए दे रहा था. वह रोती रहीं, बिलखती रहीं, तड़पती रहीं पर उस नरपिशाच ने उन की अंतर आत्मा तक को अंगारों से दाग दिया था.

सोचतेसोचते डा. मीता के जबड़े भिंच गए और आंखों से चिंगारियां फूटने लगीं. बाहर बढ़ रहे शोर के कारण उन की उत्तेजना बढ़ती जा रही थी. क्रोध की अधिकता के चलते वह हांफने सी लगीं. व्याकुलता जब बरदाश्त से बाहर हो गई तो उन्होंने सामने रखा पेपरवेट उठा कर दीवार पर दे मारा. पर न तो पेपरवेट टूटा और न ही दीवार टस से मस हुई.

पेपरवेट फर्श पर गिर कर गोलगोल घूमने लगा. डा. मीता की दृष्टि उस पर ठहर सी गई. पेपरवेट के स्थिर होने पर उन्होंने अपनी दृष्टि ऊपर उठाई. उन में दृढ़ता के चिह्न छाए हुए थे. ऐसा लग रहा था कि वह कुछ कर गुजरने का फैसला कर चुकी हैं.

इंटरकाम का बटन दबाते हुए डा. मीता ने पूछा, ‘‘रीना, घायल को आपरेशन थियेटर में पहुंचा दिया गया है या नहीं?’’

‘‘नहीं.’’

‘‘क्यों?’’

‘‘जी…वो…दरअसल…स्टाफ कह… रहा है…कि…’’ रिसेप्शनिस्ट झिझक के कारण अपनी बात कह नहीं पा रही थी.

‘‘तुम लोग सिर्फ वह करो जो कहा जा रहा है. बाकी क्या करना है, मैं जानती हूं,’’ डा. मीता ने सर्द स्वर में आदेश दिया और आपरेशन थियेटर की ओर चल दीं.

अचानक उन्हें कुछ याद आया. वापस लौट कर उन्होंने इंटरकाम का बटन दबाते हुए कहा, ‘‘रीना, मैं उस आदमी का चेहरा नहीं देख सकती. नर्स से कहो कि आपरेशन टेबल पर पहुंचाने से पहले उस का मुंह किसी कपड़े से बांध दे या ठीक से ढंक दे.’’

इतना कह कर बिना उत्तर की प्रतीक्षा किए डा. मीता तेजी से आपरेशन थियेटर की ओर चली गईं. घायल के भीतर जाते ही आपरेशन थियेटर का दरवाजा बंद हो गया और उस पर लगा लाल बल्ब जल उठा.

टिक…टिक…टिक…की ध्वनि के साथ घड़ी की सूइयां आगे बढ़ती जा रही थीं. इसी के साथ आपरेशन कक्ष के बाहर खड़े स्टाफ के दिल की धड़कनें बढ़ती जा रही थीं. आपरेशन कक्ष के दरवाजे को बंद हुए 2 घंटे से अधिक समय बीत चुका था. भीतर डा. मीता क्या कर रही होंगी इस का अंदाजा होते हुए भी कोई सचाई को अपने होंठों तक नहीं लाना चाहता था.

डा. दीपक 3 बजे लौट आए. भीतर घुसते ही उन्होंने एक वार्ड बौय से पूछा, ‘‘डा. मीता कहां हैं?’’

‘‘थोड़ी देर पहले उन्होंने एक घायल का आपरेशन किया था. उस के बाद…’’ वार्ड बौय कुछ कहतेकहते रुक गया.

‘‘उस के बाद क्या?’’

‘‘उस के बाद वह उसे अपना खून दे रही हैं, क्योंकि उस का ब्लड गु्रप ‘ओ निगेटिव’ है और वह कहीं मिल नहीं सका,’’ वार्ड बौय ने हिचकिचाते हुए बताया.

‘‘ऐसा कौन सा खास मरीज आ गया है जिसे डा. मीता को खुद अपना खून देने की जरूरत आ पड़ी?’’

डा. दीपक ने उत्सुकता से पूछा.

‘‘जी…विधायक उपदेश सिंह राणा हैं.’’

‘‘तुझे होश भी है कि तू क्या कह रहा है?’’ वार्ड बौय का गिरेबान पकड़ डा. दीपक चीख पड़े.

‘‘सर, हम लोग उसे नर्सिंग होम से भगा रहे थे लेकिन मैडम ने जबरन बुला कर उस का आपरेशन किया और अब उसे अपना खून भी दे रही हैं,’’ तब तक  वहां जमा हो चुके कर्मचारियों में से एक ने हिम्मत कर के बताया.

डा. दीपक ने उसे घूर कर देखा फिर बिना कुछ कहे अपने केबिन की ओर चले गए. उन की समझ में नहीं आ रहा था कि आखिर मीता ने ऐसा क्यों किया. क्या किसी ने मीता को इस के लिए मजबूर किया था या कोई और कारण था? सोचतेसोचते डा. दीपक के दिमाग की नसें फटने लगीं लेकिन वह अपने प्रश्नों के उत्तर नहीं खोज सके.

थोड़ी देर बाद डा. मीता ने वहां प्रवेश किया. उन का चेहरा पत्थर की भांति भावनाशून्य था. डा. दीपक ने आगे बढ़ उन की बांह थाम कांपते स्वर में पूछा, ‘‘मीता…तुम ने… उस की जान क्यों बचाई?’’

‘‘हम लोग डाक्टर हैं. हमारा काम ही लोगों की जान बचाना है,’’ डा. मीता के होंठों ने स्पंदन किया.

डा. दीपक ने पत्नी की बांहों को छोड़ चंद पलों तक उस के चेहरे की ओर देखा फिर मुट्ठियां भींचते हुए बोले, ‘‘लेकिन क्या उस का आपरेशन करते समय तुम्हारे हाथ नहीं कांपे थे?’’

‘‘अगर हाथ कांप जाते तो हम में और सामान्य लोगों में क्या फर्क रह जाता,’’ डा. मीता ने धीमे स्वर में कहा. उन का चेहरा पूर्ववत भावनाशून्य था.

‘‘हम इनसान हैं मीता, इनसान,’’ डा. दीपक तड़प उठे.

‘‘मैं ने इनसानियत का ही फर्ज निभाया है,’’ डा. मीता के होंठ यंत्रवत हिले.

‘‘फर्ज निभाने का शौक था तो निभा लेतीं, महानता की चादर ओढ़ने का शौक था तो ओढ़ लेतीं, लेकिन अपना खून चूसने वाले को अपना खून तो न देतीं,’’

डा. दीपक मेज पर घूंसा मारते हुए चीख पड़े.

डा. मीता ने कोई उत्तर नहीं दिया.

दीपक ने आगे बढ़ कर उन के चेहरे को अपने दोनों हाथों में भर लिया और उन की आंखों में झांकते हुए बोले, ‘‘मीता, प्लीज, मुझे बताओ ऐसी क्या मजबूरी थी जो तुम ने उस दरिंदे की जान बचाई? क्या किसी ने तुम्हें फिर धमकी दी थी?’’

डा. मीता ने अपनी आंखें बंद कर लीं पर उन्हें देख कर ऐसा लग रहा था  मानो वह सप्रयास अपने को कुछ कहने से रोक रही हैं.

‘‘मैडम, उस मरीज को होश आ गया,’’ तभी एक नर्स ने वहां आ कर बताया.

डा. मीता के भीतर जैसे कोई शक्ति समा गई हो. दीपक को परे धकेल वह आंधीतूफान की तरह भागते हुए वार्ड की ओर दौड़ पड़ीं. भौचक्के से डा. दीपक अपने को संभालते हुए पीछेपीछे दौड़े.

उपदेश सिंह राणा को अब तक उन के पास खड़े पुलिस वालों ने बता दिया था कि जिस लेडी डाक्टर ने उन का आपरेशन किया था उसी ने उन्हें अपना खून भी दिया है क्योंकि उन के गु्रप का खून किसी ब्लड बैंक में उपलब्ध न था.

‘‘वह महान डाक्टर कौन हैं. मैं उन के दर्शन करना चाहता हूं,’’ राणा ने कराहते हुए कहा.

‘‘लो, वह आ गईं,’’ एक पुलिस वाले ने वार्ड के भीतर आ रही डा. मीता की ओर इशारा किया.

उन पर दृष्टि पड़ते ही राणा को ऐसा झटका लगा जैसे किसी को करंट लग गया हो. घबरा कर उस ने उठना चाहा लेकिन कमजोरी के कारण हिल भी न सका.

‘‘इन्होंने ही आप की जान बचाई है. जीवन भर इन के चरण धो कर पीजिएगा तब भी आप इस ऋण से उऋण नहीं हो सकेंगे,’’ दूसरे पुलिस वाले ने बताया.

पल भर के लिए राणा को अपने कानों पर विश्वास नहीं हुआ किंतु सत्य अपने पूरे वजूद के साथ सामने उपस्थित था. राणा की आंखों के सामने उस दिन के दृश्य कौंधने लगे जब रोती हुई

डा. मीता हाथ जोड़जोड़ कर विनती कर रही थीं कि उन्होंने सिर्फ एक डाक्टर के फर्ज का पालन किया है किंतु वह उन की एक नहीं सुन रहा था.

आज एक बार फिर उन्होंने सबकुछ भुला कर एक डाक्टर के फर्ज को पूरा किया है. तभी उस की सासें शेष बच पाई हैं.  राणा के भीतर उन से आंख मिलाने का साहस नहीं बचा था. उन के विराट व्यक्तित्व के आगे वह अपने को बहुत छोटा महसूस कर रहा था.

बहुत मुश्किल से अपनी पूरी शक्ति को बटोर कर राणा, ने अपने हाथों को जोड़ा और कांपते स्वर में बोला, ‘‘डाक्टर साहिबा, मुझे माफ कर दीजिए.’’

‘‘माफ और तुम्हें,’’ डा. मीता दांत भींचते हुए चीख पड़ीं, ‘‘राणा, तुम ने मेरे साथ जो किया था उस के बाद मैं तो क्या दुनिया की कोई भी औरत मरते दम तक तुम्हें माफ नहीं कर सकती.’’

चीख सुन कर पूरे वार्ड में सन्नाटा छा गया. किसी में भी उसे भंग करने का साहस न था. अपनी ओर डा. मीता को आता देख कर राणा ने एक बार फिर अपनी बिखरती हुई सांसों को बटोरा और लड़खड़ाते स्वर में बोला, ‘‘आप ने जो एहसान किया है मैं उसे कभी…’’

‘‘मैं ने कोई एहसान नहीं किया है तुम पर,’’ डा. मीता राणा की बात को बीच में काट कर फिर चीख पड़ीं, ‘‘तुम क्या समझते हो अपनेआप को? सर्वशक्तिमान? जो जिस की जिंदगी से जब चाहे खेल लेगा? तुम ने मेरी जिंदगी से खेला था, आज मैं ने तुम्हारी जिंदगी से खेला है. मेरे जिस खून को तुम ने अपवित्र किया था आज वही खून तुम्हारी रगों में दौड़ रहा है. तुम चाह कर भी उसे अपने शरीर से अलग नहीं कर सकते. जब तक जीवित रहोगे यह एहसास तुम्हें कचोटता रहेगा कि तुम्हारी जिंदगी मेरी दी हुई भीख है.

‘‘कमजोर समझ कर जिस नारी के चंद पलों को तुम ने रौंदा था उस के रक्त के चंद कतरे अब हर पल तुम्हारे स्वाभिमान को रौंदते रहेंगे. तुम्हारा रोमरोम तुम्हारे गुनाहों के लिए तुम्हें धिक्कारेगा लेकिन तुम्हें दया की भीख नहीं मिलेगी. जब तक जीवित रहोगे, राणा, तुम प्रायश्चित की आग में जलते रहोगे लेकिन तुम्हें शांति नहीं मिलेगी. यही मेरा प्रतिशोध है.’’

डा. मीता के मुंह से निकला एकएक शब्द गोली की तरह राणा के दिल और दिमाग को छेदे जा रहा था. गुनाहों के बोझ तले दबी उस की अंतर आत्मा में कुछ कहने की शक्ति नहीं बची थी. उस की कायरता बेबसी बन उस की आंखों से छलक पड़ी.

राणा के आंसुओं ने अग्निकुंड में घी का काम किया. डा. मीता गरजते हुए बोलीं, ‘‘इस से पहले कि मेरे अंदर की नारी, डाक्टर को पीछे ढकेल कर सामने आ जाए और मैं तुम्हारा खून कर दूं, दूर हो जाओ मेरी नजरों से. चले जाओ यहां से.’’

हतप्रभ डा. दीपक अब तक चुपचाप खड़े थे. उन्होंने पुलिस वालों को इशारा किया तो वे राणा के बेड को धकेलते हुए बाहर ले जाने लगे.

डा. मीता हिचकियां भरती हुई पूरी शक्ति से डा. दीपक के चौड़े सीने से लिपट गईं. उन्होंने उन्हें अपनी बांहों में यों संभाल लिया जैसे किसी वृक्ष की शाखाएं नन्हे घोंसले को संभाल लेती हैं.

शिकार: काव्या पर क्यों टूटा दुख का पहाड़

वहीं दूसरी ओर काव्या गोरीचिट्टी, छरहरे बदन की गुडि़या सी दिखने वाली एक भोलीभाली, मासूम सी लड़की थी. मुश्किल से अभी उस ने 20वां वसंत पार किया होगा. कुछ महीने पहले दुख क्या होता है, तकलीफ कैसी होती है, वह जानती तक न थी.

मांबाप के प्यार और स्नेह की शीतल छाया में काव्या बढि़या जिंदगी गुजार रही थी, पर दुख की एक तेज आंधी आई और उस के परिवार के सिर से प्यार, स्नेह और सुरक्षा की वह पिता रूपी शीतल छाया छिन गई.

अभी काव्या दुखों की इस आंधी से अपने और अपने परिवार को निकालने के लिए जद्दोजेहद कर ही रही थी कि एक नई समस्या उस के सामने आ खड़ी हुई.

उस दिन काव्या अपनी नईनई लगी नौकरी पर पहुंचने के लिए घर से थोड़ी दूर ही आई थी कि उस आदमी ने उस का रास्ता रोक लिया था.

एकबारगी तो काव्या घबरा उठी थी, फिर संभलते हुए बोली थी, ‘‘क्या है?’’

वह उसे भूखी नजरों से घूर रहा था, फिर बोला था, ‘‘तू बहुत ही खूबसूरत है.’’

‘‘क्या मतलब…?’’ उस की आंखों से झांकती भूख से डरी काव्या कांपती आवाज में बोली.

‘‘रंजन नाम है मेरा और खूबसूरत चीजें मेरी कमजोरी हैं…’’ उस की हवस भरी नजरें काव्या के खूबसूरत चेहरे और भरे जिस्म पर फिसल रही थीं, ‘‘खासकर खूबसूरत लड़कियां… मैं जब भी उन्हें देखता हूं, मेरा दिल उन्हें पाने को मचल उठता है.’’

‘‘क्या बकवास कर रहे हो…’’ अपने अंदर के डर से लड़ती काव्या कठोर आवाज में बोली, ‘‘मेरे सामने से हटो. मुझे अपने काम पर जाना है.’’

‘‘चली जाना, पर मेरे दिल की प्यास तो बुझा दो.’’

काव्या ने अपने चारों ओर निगाह डाली. इक्कादुक्का लोग आजा रहे थे. लोगों को देख कर उस के डरे हुए दिल को थोड़ी राहत मिली. उस ने हिम्मत कर के अपना रास्ता बदला और रंजन से बच कर आगे निकल गई.

आगे बढ़ते हुए भी उस का दिल बुरी तरह धड़क रहा था. ऐसा लगता था जैसे रंजन आगे बढ़ कर उसे पकड़ लेगा.

पर ऐसा कुछ नहीं हुआ. उस ने कुछ दूरी तय करने के बाद पीछे मुड़ कर देखा. रंजन को अपने पीछे न पा कर उस ने राहत की सांस ली.

काव्या लोकल ट्रेन पकड़ कर अपने काम पर पहुंची, पर उस दिन उस का मन पूरे दिन अपने काम में नहीं लगा. वह दिनभर रंजन के बारे में ही सोचती रही. जिस अंदाज से उस ने उस का रास्ता रोका था, उस से बातें की थीं, उस से इस बात का आसानी से अंदाजा लगाया जा सकता था कि रंजन की नीयत ठीक नहीं थी.

शाम को घर पहुंचने के बाद भी काव्या थोड़ी डरी हुई थी, लेकिन फिर उस ने यह सोच कर अपने दिल को हिम्मत बंधाई कि रंजन कोई सड़कछाप बदमाश था और वक्ती तौर पर उस ने उस का रास्ता रोक लिया था.

आगे से ऐसा कुछ नहीं होने वाला. लेकिन काव्या की यह सोच गलत साबित हुई. रंजन ने आगे भी उस का रास्ता बारबार रोका. कई बार उस की इस हरकत से काव्या इतनी परेशान हुई कि उस का जी चाहा कि वह सबकुछ अपनी मां को बता दे, लेकिन यह सोच कर खामोश रही कि इस से पहले से ही दुखी उस की मां और ज्यादा परेशान हो जाएंगी. काश, आज उस के पापा जिंदा होते तो उसे इतना न सोचना पड़ता.

पापा की याद आते ही काव्या की आंखें नम हो उठीं. उन के रहते उस का परिवार कितना खुश था. मम्मीपापा और उस का एक छोटा भाई. कुल 4 सदस्यों का परिवार था उस का.

उस के पापा एक ट्रांसपोर्ट कंपनी में काम करते थे और उन्हें जो पैसे मिलते थे, उस से उन का परिवार मजे में चल रहा था. जहां काव्या अपने पापा की दुलारी थी, वहीं उस की मां उस से बेहद प्यार करती थीं.

उस दिन काव्या के पापा अपनी कंपनी के काम के चलते मोटरसाइकिल से कहीं जा रहे थे कि पीछे से एक कार वाले ने उन की मोटरसाइकिल को तेज टक्कर मार दी.

वे मोटरसाइकिल से उछले, फिर सिर के बल सड़क पर जा गिरे. उस से उन के सिर के पिछले हिस्से में बेहद गंभीर चोट लगी थी.

टक्कर लगने के बाद लोगों की भीड़ जमा हो गई. भीड़ के दबाव के चलते कार वाले ने उस के घायल पापा को उठा कर नजदीक के एक निजी अस्पताल में भरती कराया, फिर फरार हो गया.

पापा की जेब से मिले आईकार्ड पर लिखे मोबाइल से अस्पताल वालों ने जब उन्हें फोन किया तो वे बदहवास अस्पताल पहुंचे, पर वहां पहुंच कर उन्होंने जिस हालत में उन्हें पाया, उसे देख कर उन का कलेजा मुंह को आ गया.

उस के पापा कोमा में जा चुके थे. उन की आंखें तो खुली थीं, पर वे किसी को पहचान नहीं पा रहे थे.

फिर शुरू हुआ मुश्किलों का न थमने वाला एक सिलसिला. डाक्टरों ने बताया कि पापा के सिर का आपरेशन करना होगा. इस का खर्च उन्होंने ढाई लाख रुपए बताया.

किसी तरह रुपयों का इंतजाम किया गया. पापा का आपरेशन हुआ, पर इस से कोई खास फायदा न हुआ. उन्हें विभिन्न यंत्रों के सहारे एसी वार्ड में रखा गया था, जिस की एक दिन की फीस 10,000 रुपए थी.

धीरेधीरे घर का सारा पैसा खत्म होने लगा. काव्या की मां के गहने तक बिक गए, फिर नौबत यहां तक आई कि उन के पास के सारे पैसे खत्म हो गए.

बुरी तरह टूट चुकी काव्या की मां जब अपने बच्चों को यों बिलखते देखतीं तो उन का कलेजा मुंह को आ जाता, पर अपने बच्चों के लिए वे अपनेआप को किसी तरह संभाले हुए थीं. कभीकभी उन्हें लगता कि पापा की हालत में सुधार हो रहा है तो उन के दिल में उम्मीद की किरण जागती, पर अगले ही दिन उन की हालत बिगड़ने लगती तो यह आस टूट जाती.

डेढ़ महीना बीत गया और अब ऐसी हालत हो गई कि वे अस्पताल के एकएक दिन की फीस चुकाने में नाकाम होने लगे. आपस में रायमशवरा कर उन्होंने पापा को सरकारी अस्पताल में भरती कराने का फैसला किया.

पापा को ले कर सरकारी अस्पताल गए, पर वहां बैड न होने के चलते उन्हें एक रात बरामदे में गुजारनी पड़ी. वही रात पापा के लिए कयामत की रात साबित हुई. काव्या के पापा की सांसों की डोर टूट गई और उस के साथ ही उम्मीद की किरण हमेशा के लिए बुझ गई.

फिर तो उन की जिंदगी दुख, पीड़ा और निराशा के अंधकार में डूबती चली गई. तब तक काव्या एमबीए का फाइनल इम्तिहान दे चुकी थी.

बुरे हालात को देखते हुए और अपने परिवार को दुख के इस भंवर से निकालने के लिए काव्या नौकरी की तलाश में निकल पड़ी. उसे एक प्राइवेट बैंक में 20,000 रुपए की नौकरी मिल गई और उस के परिवार की गाड़ी खिसकने लगी. तब उस के छोटे भाई की पढ़ाई का आखिरी साल था. उस ने कहा कि वह भी कोई छोटीमोटी नौकरी पकड़ लेगा, पर काव्या ने उसे सख्ती से मना कर दिया और उस से अपनी पढ़ाई पूरी करने को कहा.

20 साल की उम्र में काव्या ने अपने नाजुक कंधों पर परिवार की सारी जिम्मेदारी ले ली थी, पर इसे संभालते हुए कभीकभी वह बुरी तरह परेशान हो उठती और तब वह रोते हुए अपनी मां से कहती, ‘‘मम्मी, आखिर पापा हमें छोड़ कर इतनी दूर क्यों चले गए जहां से कोई वापस नहीं लौटता,’’ और तब उस की मां उसे बांहों में समेटते हुए खुद रो पड़तीं.

धीरेधीरे दुख का आवेग कम हुआ और फिर काव्या का परिवार जिंदगी की जद्दोजेहद में जुट गया.

समय बीतने लगा और बीतते समय के साथ सबकुछ एक ढर्रे पर चलने लगा तभी यह एक नई समस्या काव्या के सामने आ खड़ी हुई.

काव्या जानती थी कि बड़ी मुश्किल से उस की मां और छोटे भाई ने उस के पापा की मौत का गम सहा है. अगर उस के साथ कुछ हो गया तो वे यह सदमा सहन नहीं कर पाएंगे और उस का परिवार, जिसे संभालने की वह भरपूर कोशिश कर रही है, टूट कर बिखर जाएगा.

काव्या ने इस बारे में काफी सोचा, फिर इस निश्चय पर पहुंची कि उसे एक बार रंजन से गंभीरता से बात करनी होगी. उसे अपनी जिंदगी की परेशानियां बता कर उस से गुजारिश करनी होगी

कि वह उसे बख्श दे. उम्मीद तो कम थी कि वह उस की बात समझेगा, पर फिर भी उस ने एक कोशिश करने का मन बना लिया.

अगली बार जब रंजन ने काव्या का रास्ता रोका तो वह बोली, ‘‘आखिर तुम मुझ से चाहते क्या हो? क्यों बारबार मेरा रास्ता रोकते हो?’’

‘‘मैं तुम्हें चाहता हूं,’’ रंजन उस के खूबसूरत चेहरे को देखता हुआ बोला, ‘‘मेरा यकीन करो. मैं ने जब से तुम्हें देखा है, मेरी रातों की नींद उड़ गई है. आंखें बंद करता हूं तो तुम्हारा खूबसूरत चेहरा सामने आ जाता है.’’

‘‘सड़क पर बात करने से क्या यह बेहतर नहीं होगा कि हम किसी रैस्टोरैंट में चल कर बात करें.’’

काव्या के इस प्रस्ताव पर पहले तो रंजन चौंका, फिर उस की आंखों में एक अनोखी चमक जाग उठी. वह जल्दी से बोला, ‘‘हांहां, क्यों नहीं.’’

रंजन काव्या को ले कर सड़क के किनारे बने एक रैस्टोरैंट में पहुंचा, फिर बोला, ‘‘क्या लोगी?’’

‘‘कुछ नहीं.’’

‘‘कुछ तो लेना होगा.’’

‘‘तुम्हारी जो मरजी मंगवा लो.’’

रंजन ने काव्या और अपने लिए कौफी मंगवाईं और जब वे कौफी पी चुके तो वह बोला, ‘‘हां, अब कहो, तुम क्या कहना चाहती हो?’’

‘‘देखो, मैं उस तरह की लड़की नहीं हूं जैसा तुम समझते हो,’’ काव्या ने गंभीर लहजे में कहना शुरू किया, ‘‘मैं एक मध्यम और इज्जतदार परिवार से हूं, जहां लड़की की इज्जत को काफी अहमियत दी जाती है. अगर उस की इज्जत पर कोई आंच आई तो उस का और उस के परिवार का जीना मुश्किल हो जाता है.

‘‘वैसे भी आजकल मेरा परिवार जिस मुश्किल दौर से गुजर रहा है, उस में ऐसी कोई बात मेरे परिवार की बरबादी का कारण बन सकती है.’’

‘‘कैसी मुश्किलों का दौर?’’ रंजन ने जोर दे कर पूछा.

काव्या ने उसे सबकुछ बताया, फिर अपनी बात खत्म करते हुए बोली, ‘‘मेरी मां और भाई बड़ी मुश्किल से पापा की मौत के गम को बरदाश्त कर पाए हैं, ऐसे में अगर मेरे साथ कुछ हुआ तो मेरा परिवार टूट कर बिखर जाएगा…’’ कहतेकहते काव्या की आंखों में आंसू आ गए और उस ने उस के आगे हाथ जोड़ दिए, ‘‘इसलिए मेरी तुम से विनती है कि तुम मेरा पीछा करना छोड़ दो.’’

पलभर के लिए रंजन की आंखों में दया और हमदर्दी के भाव उभरे, फिर उस के होंठों पर एक मक्कारी भरी मुसकान फैल गई.

रंजन काव्या के जुड़े हाथ थामता हुआ बोला, ‘‘मेरी बात मान लो, तुम्हारी सारी परेशानियों का खात्मा हो जाएगा. मैं तुम्हें पैसे भी दूंगा और प्यार भी. तू रानी बन कर राज करेगी.’’

काव्या को समझते देर न लगी कि उस के सामने बैठा आदमी इनसान नहीं, बल्कि भेडि़या है. उस के सामने रोने, गिड़गिड़ाने और दया की भीख मांगने का कोई फायदा नहीं. उसे तो उसी की भाषा में समझाना होगा. वह मजबूरी भरी भाषा में बोली, ‘‘अगर मैं ने तुम्हारी बात मान ली तो क्या तुम मुझे बख्श दोगे?’’

‘‘बिलकुल,’’ रंजन की आंखों में तेज चमक जागी, ‘‘बस, एक बार मुझे अपने हुस्न के दरिया में उतरने का मौका दे दो.’’

‘‘बस, एक बार?’’

‘‘हां.’’

‘‘ठीक है,’’ काव्या ने धीरे से अपना हाथ उस के हाथ से छुड़ाया, ‘‘मैं तुम्हें यह मौका दूंगी.’’

‘‘कब?’’

‘‘बहुत जल्द…’’ काव्या बोली, ‘‘पर, याद रखो सिर्फ एक बार,’’ कहने के बाद काव्या उठी, फिर रैस्टोरैंट के दरवाजे की ओर चल पड़ी.

‘तुम एक बार मेरे जाल में फंसो तो सही, फिर तुम्हारे पंख ऐसे काटूंगा कि तुम उड़ने लायक ही न रहोगी,’ रंजन बुदबुदाया.

रात के 12 बजे थे. काव्या महानगर से तकरीबन 3 किलोमीटर दूर एक सुनसान जगह पर एक नई बन रही इमारत की 10वीं मंजिल की छत पर खड़ी थी. छत के चारों तरफ अभी रेलिंग नहीं बनी थी और थोड़ी सी लापरवाही बरतने के चलते छत पर खड़ा कोई शख्स छत से नीचे गिर सकता था.

काव्या ने इस समय बहुत ही भड़कीले कपड़े पहन रखे थे जिस से उस की जवानी छलक रही थी. इस समय उस की आंखों में एक हिंसक चमक उभरी हुई थी और वह जंगल में शिकार के लिए निकले किसी चीते की तरह चौकन्नी थी.

अचानक काव्या को किसी के सीढि़यों पर चढ़ने की आवाज सुनाई पड़ी. उस की आंखें सीढि़यों की ओर लग गईं.

आने वाला रंजन ही था. उस की नजर जब कयामत बनी काव्या पर पड़ी, तो उस की आंखों में हवस की तेज चमक उभरी. वह तेजी से काव्या की ओर लपका. पर उस के पहले कि वह काव्या के करीब पहुंचे, काव्या के होंठों पर एक कातिलाना मुसकान उभरी और वह उस से दूर भागी.

‘‘काव्या, मेरी बांहों में आओ,’’ रंजन उस के पीछे भागता हुआ बोला.

‘‘दम है तो पकड़ लो,’’ काव्या हंसते हुए बोली.

काव्या की इस कातिल हंसी ने रंजन की पहले से ही भड़की हुई हवस को और भड़का दिया. उस ने अपनी रफ्तार तेज की, पर काव्या की रफ्तार उस से कहीं तेज थी.

थोड़ी देर बाद हालात ये थे कि काव्या छत के किनारेकिनारे तेजी से भाग रही थी और रंजन उस का पीछा कर रहा था. पर हिरनी की तरह चंचल काव्या को रंजन पकड़ नहीं पा रहा था.

रंजन की सांसें उखड़ने लगी थीं और फिर वह एक जगह रुक कर हांफने लगा.

इस समय रंजन छत के बिलकुल किनारे खड़ा था, जबकि काव्या ठीक उस के सामने खड़ी हिंसक नजरों से उसे घूर रही थी.

अचानक काव्या तेजी से रंजन की ओर दौड़ी. इस से पहले कि रंजन कुछ समझ सके, उछल कर अपने दोनों पैरों की ठोकर रंजन की छाती पर मारी.

ठोकर लगते ही रंजन के पैर उखड़े और वह छत से नीचे जा गिरा. उस की लहराती हुई चीख उस सुनसान इलाके में गूंजी, फिर ‘धड़ाम’ की एक तेज आवाज हुई. दूसरी ओर काव्या विपरीत दिशा में छत पर गिरी थी.

काव्या कई पलों तक यों ही पड़ी रही, फिर उठ कर सीढि़यों की ओर दौड़ी. जब वह नीचे पहुंची तो रंजन को अपने ही खून में नहाया जमीन पर पड़ा पाया. उस की आंखें खुली हुई थीं और उस में खौफ और हैरानी के भाव ठहर कर रह गए थे. शायद उस ने सपने में भी नहीं सोचा था कि उस की मौत इतनी भयानक होगी.

काव्या ने नफरत भरी एक नजर रंजन की लाश पर डाली, फिर अंधेरे में गुम होती चली गई.

रेखाएं : क्या भविष्यवाणी को झुठला पाई निशा

Social Story in Hindi: ‘‘छि, मैं सोचती थी कि बड़ी कक्षा में जा कर तुम्हारी समझ भी बड़ी हो जाएगी, पर तुम ने तो मेरी तमाम आशाओं पर पानी फेर दिया. छठी कक्षा में क्या पहुंची, पढ़ाई चौपट कर के धर दी.’’ बरसतेबरसते थक गई तो रिपोर्ट उस की तरफ फेंकते हुए गरजी, ‘‘अब गूंगों की तरह गुमसुम क्यों खड़ी हो? बोलती क्यों नहीं? इतनी खराब रिपोर्ट क्यों आई तुम्हारी? पढ़ाई के समय क्या करती हो?’’ रिपोर्ट उठा कर झाड़ते हुए उस ने धीरे से आंखें ऊपर उठाईं, ‘‘अध्यापिका क्या पढ़ाती है, कुछ भी सुनाई नहीं देता, मैं सब से पीछे की लाइन में जो बैठती हूं.’’

‘‘क्यों, किस ने कहा पीछे बैठने को तुम से?’’

‘‘अध्यापिका ने. लंबी लड़कियों को  कहती हैं, पीछे बैठा करो, छोटी लड़कियों को ब्लैक बोर्ड दिखाई नहीं देता.’’

‘‘तो क्या पीछे बैठने वाली सारी लड़कियां फेल होती हैं? ऐसा कभी नहीं हो सकता. चलो, किताबें ले कर बैठो और मन लगा कर पढ़ो, समझी? कल मैं तुम्हारे स्कूल जा कर अध्यापिका से बात करूंगी?’’

झल्लाते हुए मैं कमरे से निकल गई. दिमाग की नसें झनझना कर टूटने को आतुर थीं. इतने वर्षों से अच्छीखासी पढ़ाई चल रही थी इस की. कक्षा की प्रथम 10-12 लड़कियों में आती थी. फिर अचानक नई कक्षा में आते ही इतना परिवर्तन क्यों? क्या सचमुच इस के भाग्य की रेखाएं…

नहींनहीं. ऐसा कभी नहीं हो सकेगा. रात को थकाटूटा तनमन ले कर बिस्तर पर पसरी, तो नींद जैसे आंखों से दूर जा चुकी थी. 11 वर्ष पूर्व से ले कर आज तक की एकएक घटना आंखों के सामने तैर रही थी.

‘‘बिटिया बहुत भाग्यशाली है, बहनजी.’’

‘‘जी पंडितजी. और?’’ अम्मां उत्सुकता से पंडितजी को निहार रही थीं.

‘‘और बहनजी, जहांजहां इस का पांव पड़ेगा, लक्ष्मी आगेपीछे घूमेगी. ननिहाल हो, ददिहाल हो और चाहे ससुराल.’’

2 महीने की अपनी फूल सी बिटिया को मेरी स्नेहसिक्त आंखों ने सहलाया, तो लगा, इस समय संसार की सब से बड़ी संपदा मेरे लिए वही है. मेरी पहलीपहली संतान, मेरे मातृत्व का गौरव, लक्ष्मी, धन, संपदा, सब उस के आगे महत्त्वहीन थे. पर अम्मां? वह तो पंडितजी की बातों से निहाल हुई जा रही थीं.

‘‘लेकिन…’’ पंडितजी थोड़ा सा अचकचाए.

‘‘लेकिन क्या पंडितजी?’’ अम्मां का कुतूहल सीमारेखा के समस्त संबंधों को तोड़ कर आंखों में सिमट आया था.

‘‘लेकिन विद्या की रेखा जरा कच्ची है, अर्थात पढ़ाईलिखाई में कमजोर रहेगी. पर क्या हुआ बहनजी, लड़की जात है. पढ़े न पढ़े, क्या फर्क पड़ता है. हां, भाग्य अच्छा होना चाहिए.’’

‘‘आप ठीक कहते हैं, पंडितजी, लड़की जात को तो चूल्हाचौका संभालना आना चाहिए और क्या.’’

किंतु मेरा समूचा अंतर जैसे हिल गया हो. मेरी बेटी अनपढ़ रहेगी? नहींनहीं. मैं ने इंटर पास किया है, तो मेरी बेटी को मुझ से ज्यादा पढ़ना चाहिए, बी.ए., एम.ए. तक, जमाना आगे बढ़ता है न कि पीछे.

‘‘बी.ए. पास तो कर लेगी न पंडितजी,’’ कांपते स्वर में मैं ने पंडितजी के आगे मन की शंका उड़ेल दी.

‘‘बी.ए., अरे. तोबा करो बिटिया, 10वीं पास कर ले तुम्हारी गुडि़या, तो अपना भाग्य सराहना. विद्या की रेखा तो है ही नहीं और तुम तो जानती ही हो, जहां लक्ष्मी का निवास होता है, वहां विद्या नहीं ठहरती. दोनों में बैर जो ठहरा,’’ वे दांत निपोर रहे थे और मैं सन्न सी बैठी थी.

यह कैसा भविष्य आंका है मेरी बिटिया का? क्या यह पत्थर की लकीर है, जो मिट नहीं सकती? क्या इसीलिए मैं इस नन्हीमुन्नी सी जान को संसार में लाई हूं कि यह बिना पढ़ेलिखे पशुपक्षियों की तरह जीवन काट दे.

दादी मां के 51 रुपए कुरते की जेब में ठूंस पंडितजी मेरी बिटिया का भविष्यफल एक कागज में समेट कर अम्मां के हाथ में पकड़ा गए.

पर उन के शब्दों को मैं ने ब्रह्मवाक्य मानने से इनकार कर दिया. मेरी बिटिया पढ़ेगी और मुझ से ज्यादा पढ़ेगी. बिना विद्या के कहीं सम्मान मिलता है भला? और बिना सम्मान के क्या जीवन जीने योग्य होता है कहीं? नहीं, नहीं, मैं ऐसा कभी नहीं होने दूंगी. किसी मूल्य पर भी नहीं.

3 वर्ष की होतेहोते मैं ने नन्ही निशा का विद्यारंभ कर दिया था. सरस्वती पूजा के दिन देवी के सामने उसे बैठा कर, अक्षत फूल देवी को अर्पित कर झोली पसार कर उस के वरदहस्त का वरदान मांगा था मैं ने, धीरेधीरे लगा कि देवी का आशीष फलने लगा है. अपनी मीठीमीठी तोतली बोली में जब वह वर्णमाला के अक्षर दोहराती, तो मैं निहाल हो जाती.

5 वर्ष की होतेहोते जब उस ने स्कूल जाना आरंभ किया था, तो वह अपनी आयु के सभी बच्चों से कहीं ज्यादा पढ़ चुकी थी. साथसाथ एक नन्हीमुन्नी सी बहन की दीदी भी बन चुकी थी, लेकिन नन्ही ऋचा की देखभाल के कारण निशा की पढ़ाई में मैं ने कोई विघ्न नहीं आने दिया था. उस के प्रति मैं पूरी तरह सजग थी.

स्कूल का पाठ याद कराना, लिखाना, गणित का सवाल, सब पूरी निष्ठा के साथ करवाती थी और इस परिश्रम का परिणाम भी मेरे सामने सुखद रूप ले कर आता था, जब कक्षा की प्रथम 10-12 बच्चियों में एक उस का नाम भी होता था.

5वीं कक्षा में जाने के साथसाथ नन्ही ऋचा भी निशा के साथ स्कूल जाने लगी थी. एकाएक मुझे घर बेहद सूनासूना लगने लगा था. सुबह से शाम तक ऋचा इतना समय ले लेती थी कि अब दिन काटे नहीं कटता था.

एक दिन महल्ले की समाज सेविका विभा के आमंत्रण पर मैं ने उन के साथ समाज सेवा के कामों में हाथ बंटाना स्वीकार कर लिया. सप्ताह में 3 दिन उन्हें लेने महिला संघ की गाड़ी आती थी जिस में अन्य महिलाओं के साथसाथ मैं भी बस्तियों में जा कर निर्धन और अशिक्षित महिलाओं के बच्चों के पालनपोषण, सफाई तथा अन्य दैनिक घरेलू विषयों के बारे में शिक्षित करने जाने लगी.

घर के सीमित दायरों से निकल कर मैं ने पहली बार महसूस किया था कि हमारा देश शिक्षा के क्षेत्र में कितना पिछड़ा हुआ है, महिलाओं में कितनी अज्ञानता है, कितनी अंधेरी है उन की दुनिया. काश, हमारे देश के तमाम शिक्षित लोग इस अंधेरे को दूर करने में जुट जाते, तो देश कहां से कहां पहुंच जाता. मन में एक अनोखाअनूठा उत्साह उमड़ आया था देश सेवा का, मानव प्रेम का, ज्ञान की ज्योति जलाने का.

पर आज एका- एक इस देश और मानव प्रेम की उफनतीउमड़ती नदी के तेज बहाव को एक झटका लगा. स्कूल से आ कर निशा किताबें पटक महल्ले के बच्चों के साथ खेलने भाग गई थी. उस की किताबें समेटते हुए उस की रिपोर्ट पर नजर पड़ी. 3 विषयों में फेल. एकएक कापी उठा कर खोली. सब में लाल पेंसिल के निशान, ‘बेहद लापरवाह,’ ‘ध्यान से लिखा करो,’  ‘…विषय में बहुत कमजोर’ की टिप्पणियां और कहीं कापी में पूरेपूरे पन्ने लाल स्याही से कटे हुए.

देखतेदेखते मेरी आंखों के सामने अंधेरा छाने लगा. यह क्या हो रहा है? बाहर ज्ञान का प्रकाश बिखेरने जा रही हूं और घर में दबे पांव अंधेरा घुस रहा है. यह कैसी समाज सेवा कर रही हूं मैं. यही हाल रहा तो लड़की फेल हो जाएगी. कहीं पंडितजी की भविष्यवाणी…

और निशा को अंदर खींचते हुए ला कर मैं उस पर बुरी तरह बरस पड़ी थी.

दूसरे दिन विभा बुलाने आईं, तो मैं निशा के स्कूल जाने की तैयारी में व्यस्त थी.

‘‘क्षमा कीजिए बहन, आज मैं आप के साथ नहीं जा सकूंगी. मुझे निशा के स्कूल जा कर उस की अध्यापिका से मिलना है. उस की रिपोर्ट काफी खराब आई है. अगर यही हाल रहा तो डर है, उस का साल न बरबाद हो जाए. बस, इस हफ्ते से आप के साथ नहीं जा सकूंगी. बच्चों की पढ़ाई का बड़ा नुकसान हो रहा है.’’

‘‘आप का मतलब है, आप नहीं पढ़ाएंगी, तो आप की बेटी पास ही नहीं होगी? क्या मातापिता न पढ़ाएं, तो बच्चे नहीं पढ़ते?’’

‘‘नहीं, नहीं बहन, यह बात नहीं है. मेरी छोटी बेटी ऋचा बिना पढ़ाए कक्षा में प्रथम आती है, पर निशा पढ़ाई में जरा कमजोर है. उस के साथ मुझे बैठना पड़ता है. हां, खेलकूद में कक्षा में सब से आगे है. इधर 3 वर्षों में ढेरों इनाम जीत लाई है. इसीलिए…’’

‘‘ठीक है, जैसी आप की मरजी, पर समाज सेवा बड़े पुण्य का काम होता है. अपना घर, अपने बच्चों की सेवा तो सभी करते हैं…’’

वह पलट कर तेजतेज कदमों से गाड़ी की ओर बढ़ गई थी.

घर का काम निबटा कर मैं स्कूल पहुंची. निशा की अध्यापिका से मिलने पर पता चला कि वह पीछे बैठने के कारण नहीं, वरन 2 बेहद उद्दंड किस्म की लड़कियों की सोहबत में फंस कर पढ़ाई बरबाद कर रही थी.

‘‘ये लड़कियां किन्हीं बड़े धनी परिवारों से आई हैं, जिन्हें पढ़ाई में तनिक भी रुचि नहीं है. पिछले वर्ष फेल होने के बावजूद उन्हें 5वीं कक्षा में रोका नहीं जा सका. इसीलिए वे सब अध्यापिकाओं के साथ बेहद उद््दंडता का बरताव करती हैं, जिस की वजह से उन्हें पीछे बैठाया जाता है ताकि अन्य लड़कियों की पढ़ाई सुचारु रूप से चल सके,’’ निशा की अध्यापिका ने कहा. सुन कर मैं सन्न रह गई.

‘‘यदि आप अपनी बेटी की तरफ ध्यान नहीं देंगी तो पढ़ाई के साथसाथ उस का जीवन भी बरबाद होने में देर नहीं लगेगी. यह बड़ी भावुक आयु होती है, जो बच्चे के भविष्य के साथसाथ उस का जीवन भी बनाती है. आप ही उसे इस भटकन से लौटा सकती हैं, क्योंकि आप उस की मां हैं. प्यार से थपथपा कर उसे धीरेधीरे सही राह पर लौटा लाइए. मैं आप की हर तरहसे मदद करूंगी.’’

‘‘आप से एक अनुरोध है, मिस कांता. कल से निशा को उन लड़कियों के साथ न बिठा कर कृपया आगे की सीट पर बिठाएं. बाकी मैं संभाल लूंगी.’’

घर लौट कर मैं बड़ी देर तक पंखे के नीचे आंखें बंद कर के पड़ी रही. समाज सेवा का भूत सिर पर से उतर गया था. समाज सेवा पीछे है, पहले मेरा कर्तव्य अपने बच्चों को संभालना है. ये भी तो इस समाज के अंग हैं. इन 4-5 महीने में जब से मैं ने इस की ओर ध्यान देना छोड़ा है, यह पढ़ाई में कितनी पिछड़ गई है.

अब मैं ने फिर पहले की तरह निशा के साथ नियमपूर्वक बैठना शुरू कर दिया. धीरेधीरे उस की पढ़ाई सुधरने लगी. बीचबीच में मैं कमरे में जा कर झांकती, तो वह हंस देती, ‘‘आइए मम्मी, देख लीजिए, मैं अध्यापिका के कार्टून नहीं बना रही, नोट्स लिख रही हूं.’’

उस के शब्द मुझे अंदर तक पिघला देते, ‘‘नहीं बेटा, मैं चाहती हूं, तुम इतना मन लगा कर पढ़ो कि तुम्हारी अध्यापिका की बात झूठी हो जाए. वह तुम से बहुत नाराज हैं. कह रही थीं कि निशा इस वर्ष छठी कक्षा हरगिज पास नहीं कर पाएगी. तुम पास ही नहीं, खूब अच्छे अंकों में पास हो कर दिखाओ, ताकि हमारा सिर पहले की तरह ऊंचा रहे,’’ उस का मनोबल बढ़ा कर मैं मनोवैज्ञानिक ढंग से उस का ध्यान उन लड़कियों की ओर से हटाना चाहती थी.

धीरेधीरे मैं ने निशा में परिवर्तन देखा. 8वीं कक्षा में आ कर वह बिना कहे पढ़ाई में जुट जाती. उस की मेहनत, लगन व परिश्रम उस दिन रंग लाया, जब दौड़ते हुए आ कर वह मेरे गले में बांहें डाल कर झूल गई.

‘‘मां, मैं पास हो गई. प्रथम श्रेणी में. आप के पंडितजी की भविष्यवाणी झूठी साबित कर दी मैं ने? अब तो आप खुश हैं न कि आप की बेटी ने 10वीं पास कर ली.’’

‘‘हां, निशा, आज मैं बेहद खुश हूं. जीवन की सब से बड़ी मनोकामना पूर्ण कर के आज तुम ने मेरा माथा गर्व से ऊंचा कर दिया है. आज विश्वास हो गया है कि संसार में कोई ऐसा काम नहीं है, जो मेहनत और लगन से पूरा न किया जा सके. अब आगे…’’

‘‘मां, मैं डाक्टर बनूंगी. माधवी और नीला भी मेडिकल में जा रही हैं.’’

‘‘बाप रे, मेडिकल. उस में तो बहुत मेहनत करनी पड़ती है. हो सकेगी तुम से रातदिन पढ़ाई?’’

‘‘हां, मां, कृपया मुझे जाने दीजिए. मैं खूब मेहनत करूंगी.’’

‘‘और तुम्हारे खेलकूद? बैडमिंटन, नैटबाल, दौड़ वगैरह?’’

‘‘वह सब भी चलेगा साथसाथ,’’ वह हंस दी. भोलेभाले चेहरे पर निश्छल प्यारी हंसी.

मन कैसाकैसा हो आया, ‘‘ठीक है, पापा से भी पूछ लेना.’’

‘‘पापा कुछ नहीं कहेंगे. मुझे मालूम है, उन का तो यही अरमान है कि मैं डाक्टर नहीं बन सका, तो मेरी बेटी ही बन जाए. उन से पूछ कर ही तो आप से अनुमति मांग रही हूं. अच्छा मां, आप नानीजी को लिख दीजिएगा कि उन की धेवती ने उन के बड़े भारी ज्योतिषी की भविष्यवाणी झूठी साबित कर के 10वीं पास कर ली है और डाक्टरी पढ़ कर अपने हाथ की रेखाओं को बदलने जा रही है.’’

‘‘मैं क्यों लिखूं? तुम खुद चिट्ठी लिख कर उन का आशीर्वाद लो.’’

‘‘ठीक है, मैं ही लिख दूंगी. जरा अंक तालिका आ जाने दीजिए और जब इलाहाबाद जाऊंगी तो आप के पंडितजी के दर्शन जरूर करूंगी, जिन्हें मेरे भाग्य में विद्या की रेखा ही नहीं दिखाई दी थी.’’

आज 6 वर्ष बाद मेरी निशा डाक्टर बन कर सामने खड़ी है. हर्ष से मेरी आंखें छलछलाई हुई हैं.

दुख है तो केवल इतना कि आज अम्मां नहीं हैं. होतीं तो उन्हें लिखती, ‘‘अम्मां, लड़कियां भी लड़कों की तरह इनसान होती हैं. उन्हें भी उतनी ही सुरक्षा, प्यार तथा मानसम्मान की आवश्यकता होती है, जितनी लड़कों को. लड़कियां कह कर उन्हें ढोरडंगरों की तरह उपेक्षित नहीं छोड़ देना चाहिए.

‘‘और ये पंडेपुजारी? आप के उन पंडितजी के कहने पर विश्वास कर के मैं अपनी बिटिया को उस के भाग्य के सहारे छोड़ देती, तो आज यह शुभ दिन कहां से आता? नहीं अम्मां, लड़कियों को भी ईश्वर ने शरीर के साथसाथ मन, मस्तिष्क और आत्मा सभी कुछ प्रदान किया है. उन्हें उपेक्षित छोड़ देना पाप है.’’

‘‘तुम भी तो एक लड़की हो, अम्मां, अपनी धेवती की सफलता पर गर्व से फूलीफूली नहीं समा रही हो? सचसच बताना.’’ पर कहां हैं पुरानी मान्यताओं पर विश्वास करने वाली मेरी वह अम्मां?

अपना बेटा -भाग 1 : मामाजी को देख क्यों परेशान हो उठे अंजलि और मुकेश

लेखक-  गुरप्रीत कौर

अंजलि ने सुबह उठते ही मुकेश को बताया कि रात जब वह सो चुके थे तो मामाजी का फोन आया था कि वह कल घर आ रहे हैं.

मुकेश यह जान कर हैरान हो गया. सालों पहले जिस मामाजी ने उस से रिश्ता तोड़ लिया था वे अचानक यहां क्यों आ रहे हैं. क्या उन्हें हम से कोई काम है या उन के दिमाग में फिर से टूटे हुए रिश्तों को जोड़ने की बात आ गई है. इसी उधेड़बुन में पड़ा वह अतीत की यादों में खो गया.

मुकेश को याद आया कि जब इंजीनियरिंग का कोर्स करने के लिए उसे दिल्ली जाना पड़ा था तो मम्मीपापा ने होस्टल में रखने के बदले उसे मामा के यहां रखना ज्यादा बेहतर समझा था. उस समय मामाजी की शादी को 2 साल ही बीते थे. उन का एक ही बच्चा था.

मुकेश ने इंजीनियरिंग पास कर ली थी. उस की भी शादी हो गई. अब तक मामाजी के 3 बच्चे हो चुके थे जबकि मुकेश के शादी के 5 साल बाद तक भी कोई बच्चा नहीं हुआ और मामी अगले बच्चे की तैयारी में थीं.

मुकेश एक बच्चे को गोद लेना चाहता था और मामाजी चाहते थे कि उन के आने वाले बच्चे को वह गोद ले ले. मामा के इस प्रस्ताव में मुकेश के मातापिता की भी सहमति थी लेकिन मुकेश व अंजलि इस पक्ष में नहीं थे कि मामा के बच्चों को गोद लिया जाए. इस बात को ले कर मामा और भांजे के बीच का रिश्ता जो टूटा तो आज तक मामा ने अपनी शक्ल उन को नहीं दिखाई.

मुकेश अपने एहसान का बदला चुकाने के लिए या समझो रिश्ता बनाए रखने के बहाने से मामा के बच्चों को उपहार भेजता रहता था. मामा ने उस के भेजे महंगे उपहारों को कभी लौटाया नहीं पर बदले में कभी धन्यवाद भी लिख कर नहीं भेजा.

अतीत की यादों से निकल कर मुकेश तैयार हो कर अपने दफ्तर चला गया. शाम को लौटा तो देखा अंजलि परेशान थी. उस के चेहरे पर अजीब सी मायूसी छाई थी. दोनों बेटों, गगन और रजत को वहां न पा कर वह और भी घबरा सा गया. हालांकि मुकेश समझ रहा था, पर क्या पूछता? जवाब तो वह भी जानता ही था.

अंजलि चाह रही थी कि वह दोनों बेटों को कहीं भेज दे ताकि मामाजी की नीयत का पता चल जाए. उस के बाद बेटों को बुलाए.

मुकेश इस के लिए तैयार नहीं था. उस का मानना था कि बच्चे जवान हो रहे हैं. उन से किसी बात को छिपाया नहीं जाना चाहिए. इसीलिए अंजलि के लाख मना करने के बाद भी मुकेश ने गगन- रजत को बता दिया कि कल यहां मेरे मामाजी आ रहे हैं. दोनों बच्चे पहले तो यह सुन कर हैरान रह गए कि पापा के कोई मामाजी भी हैं क्योंकि उन्होंने तो केवल दादाजी को ही देखा है पर दादी के भाई का तो घर में कभी जिक्र भी नहीं हुआ.

इस के बाद तो गगन और रजत ने अपने पापा के सामने प्रश्नों की झड़ी लगा दी कि मामाजी का घर कहां है, उन के कितने बच्चे हैं, क्याक्या करते हैं, क्या मामाजी के बच्चे भी आ रहे हैं आदिआदि.

मुकेश बेहद संभल कर बच्चों के हर सवाल का जवाब देता रहा. अंजलि परेशान हो बेडरूम में चली गई.

अंजलि और मुकेश दोनों ही रात भर यह सोच कर परेशान रहे कि पता नहीं मामाजी क्या करने आ रहे हैं और कैसा व्यवहार करेंगे.

सुबह अंजलि ने गगन और रजत को यह कह कर स्कूल भेज दिया कि तुम दोनों की परीक्षा नजदीक है, स्कूल जाओ.

इधर मुकेश मामाजी को लेने स्टेशन गया उधर अंजलि दोपहर का खाना बनाने के लिए रसोई में चली गई. अंजलि ने सारा खाना बना लिया लेकिन मामाजी को ले कर वह अभी तक लौटा नहीं. वह अभी यही सोच रही थी कि दरवाजे की घंटी घनघना उठी और इसी के साथ उस का दिल धक से कर गया.

मुकेश ही था, पीछेपीछे मामाजी अकेले आ रहे थे. अंजलि ने उन के पांव छुए. मामाजी ने हालचाल पूछा फिर आराम से बैठ गए और सामान्य बातें करते रहे. उन्होंने चाय पी. खाना खाया. कोई लड़ाई वाली बात ही नहीं, कोई शक की बात नहीं लग रही थी. ऐसा लगा मानो उन के बीच कभी कोई लड़ाई थी ही नहीं. अंजलि जितना पहले डर रही थी उतना ही वह अब निश्चिंत हो रही थी.

खाना खा कर बिस्तर पर लेटते हुए मामाजी बोले, ‘‘पता नहीं क्यों कुछ दिनों से तुम लोगों की बहुत याद आ रही थी. जब रहा नहीं गया तो बच्चों से मिलने चला आया. सोचा, इसी बहाने यहां अपने राहुल के लिए लड़की देखनी है, वह भी देख आऊंगा,’’ फिर हंसते हुए बोले, ‘‘आधा दर्जन बच्चे हैं, अभी से शादी करना शुरू करूंगा तभी तो रिटायर होने तक सब को निबटा पाऊंगा.’’

अंजलि ने देखा कि मामाजी की बातों में कोई वैरभाव नहीं था. मुकेश भी अंजलि को देख रहा था, मानो कह रहा हो, देखो, हम बेकार ही डर रहे थे.

‘‘अरे, तुम्हारे दोनों बच्चे कहां हैं? क्या नाम हैं उन के?’’

‘‘गगन और रजत,’’ मुकेश बोला, ‘‘स्कूल गए हैं. वे तो जाना ही नहीं चाह रहे थे. कह रहे थे मामाजी से मिलना है. इसीलिए कार से गए हैं ताकि समय से घर आ जाएं.’’

‘‘अच्छा? तुम ने अपने बच्चों को गाड़ी भी सिखा दी. वेरी गुड. मेरे पास तो गाड़ी ही नहीं है, बच्चे सीखेंगे क्या… शादियां कर लूं यही गनीमत है. मैं तो कानवेंट स्कूल में भी बच्चों को नहीं पढ़ा सका. अगर तुम मेरे एक को भी…पढ़ा…’’ मामाजी इतना कह कर रुक गए पर अंजलि और मुकेश का हंसता चेहरा बुझ सा गया.

अंजलि वहां से उठ कर बेडरूम में चली गई.

‘‘कब आ रहे हैं बच्चे?’’ मामाजी ने बात पलट दी.

‘‘आने वाले होंगे,’’ मुकेश इतना ही बोले थे कि घंटी बज उठी. अंजलि दरवाजे की तरफ लपकी. गगनरजत थे.

प्रश्न – भाग 2

लेखक-उषा किरण सोनी

लेकिन क्या पति की मौत के बाद भी दोनों का जिंदगी जीने का नजरिया एक रहा या अलगअलग? स्टेशन से ट्रेन के चलते ही लड़कियां अपने दुपट्टे को संभालती दोनों ओर की सीटों पर आमनेसामने बैठ कर अपनी चुहलबाजी में व्यस्त हो गईं. मैं देख रही थी कि उन के चेहरे प्रसन्नता से दमक रहे थे. सभी हमउम्र थीं और अपने ऊपर कोई बंधन नहीं महसूस कर रही थीं. मेरी अपनी बेटी कीर्ति भी उन के बीच में खिलीखिली लग रही थी. बंधन के नाम पर मैं थी और मुझे वे अपनी मार्गदर्शिका कम सहेली की मां के रूप में अधिक ले रही थीं.

गजाला ने किसी से कुछ सुनाने को कहा तो बड़ीबड़ी आंखों वाली चंचल कणिका बोल पड़ी, ‘‘अच्छा सुनो, मैं तुम सब को एक चुटकुला सुनाती हूं.’’

मैं भी हाथ में पकड़ी पत्रिका रख चुटकुले का आनंद लेने को उन्मुख हो गई.

‘‘एक बार 3 औरतें मृत्यु के बाद यमलोक पहुंचीं. उन के कर्म के अनुसार फैसले के लिए यमराज ने चित्रगुप्त की ओर प्रश्नवाचक दृष्टि डाली. वह अपनी बही संभालते हुए बोले, ‘देवाधिदेव, इन्हें कहें कि ये खुद अपने कर्मों का बखान करें. मैं बही में दर्ज कर्मों से मिलान करूंगा.’

‘‘यह सुन कर पहली महिला बोली, ‘मैं ने सारा जीवन धर्मकर्म करते, सास- ससुर व पति की सेवा में बिताया. बच्चों को पालापोसा और उन्हें उचित शिक्षा दी. मेरी क्या गति होगी, महाराज बताइए?’

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यमराज ने सिर हिलाते हुए कहा, ‘हूं,’ और दृष्टि दूसरी महिला पर टिका दी.

‘‘वह थोड़ा मुसकराई फिर बोली, ‘मैं ने सासससुर को तो कुछ नहीं समझा और न ही उन की सेवा की, पर पति की खूब सेवा की. मरते दम तक उन की सेवा को अपना धर्म समझा. अब आप के हाथ में है कि मुझे स्वर्ग दें या नरक.’

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‘‘यमराज ने फिर कहा, ‘हूं,’ और दृष्टि तीसरी महिला की ओर घुमा दी.’’

मैं देख रही थी कि कई जोड़ी निगाहें बिना हिले इस चुटकुले के अंतिम भाग को सुनने के लिए उत्सुक थीं. कणिका ने कहना जारी रखा :

‘‘तीसरी महिला ने लटें संवारीं, थोड़ा इठलाई, कमर को झटका दिया फिर यमराज पर बंकिम कटाक्ष किया और लिपस्टिक लगे अधर संपुट खोल अदा से बोली, ‘देखोजी, यमराजजी, मैं ने न तो सासससुर को कुछ समझा न पति को. मैं ने तो जी खूब मौजमस्ती की, क्लब गई, नाचीगाई, मैं तो जी दोस्तों की जान बनी रही.’

‘‘‘बसबस,’ उसे बीच में ही टोक कर यमराज बोले, ‘योर केस इज इंट्रेस्टिंग. चित्रगुप्त, पहली दोनों औरतों को स्वर्ग में भेज दो और (तीसरी औरत की ओर इशारा कर) तुम मेरे कक्ष में आओ.’’’

चुटकुला समाप्त होने से पहले ही डब्बे में हंसी का तूफान आ गया था. खिलखिलाहटें ही खिलखिलाहटें. लड़कियां पेट पकड़पकड़ कर हंस रही थीं. मैं भी अपनी हंसी न रोक सकी.

मुझे अपनी किशोरावस्था याद आ गई. सचमुच वे भी क्या दिन थे? जिंदगी और रंग दोनों एकदूसरे के पर्याय थे उन दिनों. वह प्यारी खूबसूरत आंखों वाली राजकंवर, लगता था नारीत्व और सौंदर्य का अनुपम उदाहरण बना कर ही कुदरत ने उसे धरती पर उतारा था. और मैं, हिरनी सी कुलांचें भरती राजकंवर की अंतरंग सखी.

मुझ में तो मानो स्वयं चपलता ही मूर्तिमान हो उठी थी. क्या एक क्षण भी मैं स्थिर रह पाती थी. सारे खेलकूद, नृत्यनाटक, शायद ही किसी प्रतियोगिता में द्वितीय स्थान प्राप्त किया हो. उधर राजकंवर के कोकिल कंठ की गूंज के बिना कालिज का कोई समारोह पूरा ही नहीं होता था. वह गाती तो लगता मानो साक्षात सरस्वती ही कंठ में आ बैठी हो.

हर शरारत की योजना बनाना और फिर उसे अंजाम देना हम दोनों का काम था. याद आ गई प्रिंसिपल मैडम की सूरत, जब हम ने होली खेलते समय साइंस ब्लाक का शीशा तोड़ा था. मैडम लाख कोशिशों के बाद भी यह पता नहीं लगा सकी थीं. सारी की सारी 13 लड़कियां सिर झुकाए एक कतार में खड़ी डांट खाने के साथसाथ एकदूसरे को कनखियों से देख खुकखुक हंसती रही थीं. हार कर बिना दंड दिए उन्होंने हमें भगा दिया था और हम पूरे एक सप्ताह तक अपनी जीत का मजा लेते रहे थे.

आज इन गिलहरियों की तरह फुदकती लड़कियों को संभालते समय लगा कि सचमुच इन्हें संभालना हवा के झोंके को आंचल में बांध लेने से भी मुश्किल है, अगर किसी तरह हवा को बांध भी लो तो आंचल के झीने आवरण से वह रिस के निकल जाती है न.

गाड़ी की रफ्तार के बीच लड़कियों की ओर नजर घूमी तो पाया कि वे मूंगफलियां खाती पटरपटर बतिया रही थीं और मुद्दा था कि शाहरुख खान ज्यादा स्मार्ट है या आमिर खान. मैं ने हंसते हुए पत्रिका फिर हाथ में उठा ली. आंखें पत्रिका के एक पन्ने पर टिकी थीं पर देख तो शायद पीछे अतीत को रही थी.

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मैं और राज अब बी.ए. फाइनल में आ गए थे और हमारी बातों का विषय भी धर्मेंद्र, जितेंद्र से शुरू हो कर अपने जीवन के हीरो की ओर मुड़ जाता कि कैसा होगा?

मैं कहती, ‘राज, क्यों न हम एक ही घर में शादी करें? मैं तुम्हारे बिना जीने की कल्पना भी नहीं कर सकती.’

राज ने लंबी आह भर कर कहा, ‘काश, ऐसा हो सकता. मैं राजपूत और तुम ब्राह्मण. एक घर में हम दोनों की शादी हो ही नहीं सकती. ऐसी बेसिरपैर की बातें करते कब साल बीता और परीक्षाएं भी हो गईं, पता ही नहीं चला.’

घड़ी आ गई बिछड़ने की. पूरे 3 साल हम साथ रहे थे. अब बिछड़ने की कल्पना से ही हम कांप उठे, पर जाना तो था. मेरे पिता ट्रांसफर हो कर उत्तरकाशी चले गए और परीक्षा समाप्त होते ही मुझे तुरंत बुलाया था.

‘‘आप का टिकट?’’ कानों से आवाज टकराई तो सोच की दुनिया से मैं बाहर निकल आई.  सभी के  टिकट चेकर को दे कर अपने चेहरे पर आए बालों को समेट कर पीछे किया तो चेहरे और बालों का रूखापन उंगलियों से टकराया. विचार उठा, कहां खो गई वह लुनाई. शायद बीता समय चुरा ले गया, साथ ही ले गया राज को जिसे मैं चाह कर भी नहीं पा सकती.

मैं फिर अतीत के पन्ने पलटने लगी.

उत्तरकाशी अपने घर पहुंची तो पापामम्मी और भैया ने प्यार से मुझे नहला दिया. उत्तरकाशी के पहाड़ी सौंदर्य ने मुझे अभिभूत कर दिया पर राज को हर रोज पत्र लिखने का क्रम मैं ने टूटने नहीं दिया. वह भी नियमित उत्तर देती. हम दोनों के पत्रों में जिंदगी के हीरो का ही जिक्र होता.

राज ने एक पत्र में लिखा था कि उस के पिता ने उस के लिए एक डाक्टर वर चुना है, जो किसी रियासत का अकेला चिराग है. भरापूरा गबरू जवान और एक बड़ी जागीर का अकेला वारिस, शिक्षित और संस्कारी पूर्ण पुरुष.

राजकंवर के फोटो को देखते ही वह लट्टू हो गया था… उसे साक्षात देखा तो अपनी सुधबुध ही खो बैठा. और राजकंवर? अनंग सा रूप ले कर घर आए डा. राजेंद्र सिंह को देखते ही दिल दे बैठी थी. उसे लगा जैसे छाती से कुछ निकल गया हो. अपने पत्र में उस ने अपनी बेचैनी निकाल कर रख दी थी.

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घर में मेरी शादी की चर्चा भी होने लगी थी. राज के पत्रों को पढ़ मैं भी उस की भांति किसी अनिरुद्ध की कल्पना से अपना मन रंगने लगी थी. राज के पत्रों से पता लगा कि उस का विवाह नवंबर में होगा. मजे की बात कि उस के विवाह के दिन ही मेरा अनिरुद्ध मुझे देखने आने वाला था.

राज की शादी के बाद उस के पत्रों की संख्या घटने लगी. उसे अपने मन की बातें बांटने को एक नया साथी जो मिल गया था.

अब मेरे मन पर भी लेफ्टिनेंट मदन शर्मा छाने लगे थे. जब वे अपने मातापिता के साथ मुझे देखने आए थे तो मैं खिड़की की झिरी से उन के पुरुषोचित सौंदर्य को देख अवाक् रह गई थी, दिल धड़क उठा और याद आ गई पत्र में लिखी राज की पंक्ति, ‘क्या सचमुच कामदेव ही धरा पर उतर आए हैं या मेरा यह दृष्टि दोष है?

मां जब मुझे उन लोगों के सामने लाईं तो मेरी आंखें ऊपर उठ ही नहीं रही थीं. कब उन्होंने अंगूठी पहनाई याद नहीं पर वह स्पर्श मेरे रोमरोम में बिजली दौड़ाता चला गया था. मुझ पर एक नशा सा छा गया था और उसी में उन के मातापिता के पैर छू कर मैं भीतर चली गई थी.

मैं ने तुरंत अपनी इस अवस्था का विस्तृत वर्णन राज को लिख डाला, पर उत्तर नहीं आया. सोचा मगन होगी. अब मेरी कल्पना के साथी थे मदन. मिलन और सान्निध्य की कल्पना से मैं सिहर उठती.

फरवरी की गुलाबी सर्दी में मेरा जीवनसाथी मुझे पल्लू से गांठ बांध कर अपने घर ले आया और मुझे अपने प्रेम सागर में आकंठ डुबो दिया. अनुशासन भरा सैनिक जीवन जीतेजीते मदन ने अब तक अपने मन को भी चाबुक मारमार कर साध रखा था. इसीलिए मेरा प्रवेश होने पर मुझे संपूर्ण पे्रम से नहला दिया उन्होंने.

मदन अपनी ओर से ढेरों उपहार ला कर देते और उन की मां और बाबूजी ने तो अपनी इकलौती बहू की प्यार और उपहारों से झोली ही भर दी थी. मदन इकलौती संतान जो थे.

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