रेखाएं : क्या भविष्यवाणी को झुठला पाई निशा

Social Story in Hindi: ‘‘छि, मैं सोचती थी कि बड़ी कक्षा में जा कर तुम्हारी समझ भी बड़ी हो जाएगी, पर तुम ने तो मेरी तमाम आशाओं पर पानी फेर दिया. छठी कक्षा में क्या पहुंची, पढ़ाई चौपट कर के धर दी.’’ बरसतेबरसते थक गई तो रिपोर्ट उस की तरफ फेंकते हुए गरजी, ‘‘अब गूंगों की तरह गुमसुम क्यों खड़ी हो? बोलती क्यों नहीं? इतनी खराब रिपोर्ट क्यों आई तुम्हारी? पढ़ाई के समय क्या करती हो?’’ रिपोर्ट उठा कर झाड़ते हुए उस ने धीरे से आंखें ऊपर उठाईं, ‘‘अध्यापिका क्या पढ़ाती है, कुछ भी सुनाई नहीं देता, मैं सब से पीछे की लाइन में जो बैठती हूं.’’

‘‘क्यों, किस ने कहा पीछे बैठने को तुम से?’’

‘‘अध्यापिका ने. लंबी लड़कियों को  कहती हैं, पीछे बैठा करो, छोटी लड़कियों को ब्लैक बोर्ड दिखाई नहीं देता.’’

‘‘तो क्या पीछे बैठने वाली सारी लड़कियां फेल होती हैं? ऐसा कभी नहीं हो सकता. चलो, किताबें ले कर बैठो और मन लगा कर पढ़ो, समझी? कल मैं तुम्हारे स्कूल जा कर अध्यापिका से बात करूंगी?’’

झल्लाते हुए मैं कमरे से निकल गई. दिमाग की नसें झनझना कर टूटने को आतुर थीं. इतने वर्षों से अच्छीखासी पढ़ाई चल रही थी इस की. कक्षा की प्रथम 10-12 लड़कियों में आती थी. फिर अचानक नई कक्षा में आते ही इतना परिवर्तन क्यों? क्या सचमुच इस के भाग्य की रेखाएं…

नहींनहीं. ऐसा कभी नहीं हो सकेगा. रात को थकाटूटा तनमन ले कर बिस्तर पर पसरी, तो नींद जैसे आंखों से दूर जा चुकी थी. 11 वर्ष पूर्व से ले कर आज तक की एकएक घटना आंखों के सामने तैर रही थी.

‘‘बिटिया बहुत भाग्यशाली है, बहनजी.’’

‘‘जी पंडितजी. और?’’ अम्मां उत्सुकता से पंडितजी को निहार रही थीं.

‘‘और बहनजी, जहांजहां इस का पांव पड़ेगा, लक्ष्मी आगेपीछे घूमेगी. ननिहाल हो, ददिहाल हो और चाहे ससुराल.’’

2 महीने की अपनी फूल सी बिटिया को मेरी स्नेहसिक्त आंखों ने सहलाया, तो लगा, इस समय संसार की सब से बड़ी संपदा मेरे लिए वही है. मेरी पहलीपहली संतान, मेरे मातृत्व का गौरव, लक्ष्मी, धन, संपदा, सब उस के आगे महत्त्वहीन थे. पर अम्मां? वह तो पंडितजी की बातों से निहाल हुई जा रही थीं.

‘‘लेकिन…’’ पंडितजी थोड़ा सा अचकचाए.

‘‘लेकिन क्या पंडितजी?’’ अम्मां का कुतूहल सीमारेखा के समस्त संबंधों को तोड़ कर आंखों में सिमट आया था.

‘‘लेकिन विद्या की रेखा जरा कच्ची है, अर्थात पढ़ाईलिखाई में कमजोर रहेगी. पर क्या हुआ बहनजी, लड़की जात है. पढ़े न पढ़े, क्या फर्क पड़ता है. हां, भाग्य अच्छा होना चाहिए.’’

‘‘आप ठीक कहते हैं, पंडितजी, लड़की जात को तो चूल्हाचौका संभालना आना चाहिए और क्या.’’

किंतु मेरा समूचा अंतर जैसे हिल गया हो. मेरी बेटी अनपढ़ रहेगी? नहींनहीं. मैं ने इंटर पास किया है, तो मेरी बेटी को मुझ से ज्यादा पढ़ना चाहिए, बी.ए., एम.ए. तक, जमाना आगे बढ़ता है न कि पीछे.

‘‘बी.ए. पास तो कर लेगी न पंडितजी,’’ कांपते स्वर में मैं ने पंडितजी के आगे मन की शंका उड़ेल दी.

‘‘बी.ए., अरे. तोबा करो बिटिया, 10वीं पास कर ले तुम्हारी गुडि़या, तो अपना भाग्य सराहना. विद्या की रेखा तो है ही नहीं और तुम तो जानती ही हो, जहां लक्ष्मी का निवास होता है, वहां विद्या नहीं ठहरती. दोनों में बैर जो ठहरा,’’ वे दांत निपोर रहे थे और मैं सन्न सी बैठी थी.

यह कैसा भविष्य आंका है मेरी बिटिया का? क्या यह पत्थर की लकीर है, जो मिट नहीं सकती? क्या इसीलिए मैं इस नन्हीमुन्नी सी जान को संसार में लाई हूं कि यह बिना पढ़ेलिखे पशुपक्षियों की तरह जीवन काट दे.

दादी मां के 51 रुपए कुरते की जेब में ठूंस पंडितजी मेरी बिटिया का भविष्यफल एक कागज में समेट कर अम्मां के हाथ में पकड़ा गए.

पर उन के शब्दों को मैं ने ब्रह्मवाक्य मानने से इनकार कर दिया. मेरी बिटिया पढ़ेगी और मुझ से ज्यादा पढ़ेगी. बिना विद्या के कहीं सम्मान मिलता है भला? और बिना सम्मान के क्या जीवन जीने योग्य होता है कहीं? नहीं, नहीं, मैं ऐसा कभी नहीं होने दूंगी. किसी मूल्य पर भी नहीं.

3 वर्ष की होतेहोते मैं ने नन्ही निशा का विद्यारंभ कर दिया था. सरस्वती पूजा के दिन देवी के सामने उसे बैठा कर, अक्षत फूल देवी को अर्पित कर झोली पसार कर उस के वरदहस्त का वरदान मांगा था मैं ने, धीरेधीरे लगा कि देवी का आशीष फलने लगा है. अपनी मीठीमीठी तोतली बोली में जब वह वर्णमाला के अक्षर दोहराती, तो मैं निहाल हो जाती.

5 वर्ष की होतेहोते जब उस ने स्कूल जाना आरंभ किया था, तो वह अपनी आयु के सभी बच्चों से कहीं ज्यादा पढ़ चुकी थी. साथसाथ एक नन्हीमुन्नी सी बहन की दीदी भी बन चुकी थी, लेकिन नन्ही ऋचा की देखभाल के कारण निशा की पढ़ाई में मैं ने कोई विघ्न नहीं आने दिया था. उस के प्रति मैं पूरी तरह सजग थी.

स्कूल का पाठ याद कराना, लिखाना, गणित का सवाल, सब पूरी निष्ठा के साथ करवाती थी और इस परिश्रम का परिणाम भी मेरे सामने सुखद रूप ले कर आता था, जब कक्षा की प्रथम 10-12 बच्चियों में एक उस का नाम भी होता था.

5वीं कक्षा में जाने के साथसाथ नन्ही ऋचा भी निशा के साथ स्कूल जाने लगी थी. एकाएक मुझे घर बेहद सूनासूना लगने लगा था. सुबह से शाम तक ऋचा इतना समय ले लेती थी कि अब दिन काटे नहीं कटता था.

एक दिन महल्ले की समाज सेविका विभा के आमंत्रण पर मैं ने उन के साथ समाज सेवा के कामों में हाथ बंटाना स्वीकार कर लिया. सप्ताह में 3 दिन उन्हें लेने महिला संघ की गाड़ी आती थी जिस में अन्य महिलाओं के साथसाथ मैं भी बस्तियों में जा कर निर्धन और अशिक्षित महिलाओं के बच्चों के पालनपोषण, सफाई तथा अन्य दैनिक घरेलू विषयों के बारे में शिक्षित करने जाने लगी.

घर के सीमित दायरों से निकल कर मैं ने पहली बार महसूस किया था कि हमारा देश शिक्षा के क्षेत्र में कितना पिछड़ा हुआ है, महिलाओं में कितनी अज्ञानता है, कितनी अंधेरी है उन की दुनिया. काश, हमारे देश के तमाम शिक्षित लोग इस अंधेरे को दूर करने में जुट जाते, तो देश कहां से कहां पहुंच जाता. मन में एक अनोखाअनूठा उत्साह उमड़ आया था देश सेवा का, मानव प्रेम का, ज्ञान की ज्योति जलाने का.

पर आज एका- एक इस देश और मानव प्रेम की उफनतीउमड़ती नदी के तेज बहाव को एक झटका लगा. स्कूल से आ कर निशा किताबें पटक महल्ले के बच्चों के साथ खेलने भाग गई थी. उस की किताबें समेटते हुए उस की रिपोर्ट पर नजर पड़ी. 3 विषयों में फेल. एकएक कापी उठा कर खोली. सब में लाल पेंसिल के निशान, ‘बेहद लापरवाह,’ ‘ध्यान से लिखा करो,’  ‘…विषय में बहुत कमजोर’ की टिप्पणियां और कहीं कापी में पूरेपूरे पन्ने लाल स्याही से कटे हुए.

देखतेदेखते मेरी आंखों के सामने अंधेरा छाने लगा. यह क्या हो रहा है? बाहर ज्ञान का प्रकाश बिखेरने जा रही हूं और घर में दबे पांव अंधेरा घुस रहा है. यह कैसी समाज सेवा कर रही हूं मैं. यही हाल रहा तो लड़की फेल हो जाएगी. कहीं पंडितजी की भविष्यवाणी…

और निशा को अंदर खींचते हुए ला कर मैं उस पर बुरी तरह बरस पड़ी थी.

दूसरे दिन विभा बुलाने आईं, तो मैं निशा के स्कूल जाने की तैयारी में व्यस्त थी.

‘‘क्षमा कीजिए बहन, आज मैं आप के साथ नहीं जा सकूंगी. मुझे निशा के स्कूल जा कर उस की अध्यापिका से मिलना है. उस की रिपोर्ट काफी खराब आई है. अगर यही हाल रहा तो डर है, उस का साल न बरबाद हो जाए. बस, इस हफ्ते से आप के साथ नहीं जा सकूंगी. बच्चों की पढ़ाई का बड़ा नुकसान हो रहा है.’’

‘‘आप का मतलब है, आप नहीं पढ़ाएंगी, तो आप की बेटी पास ही नहीं होगी? क्या मातापिता न पढ़ाएं, तो बच्चे नहीं पढ़ते?’’

‘‘नहीं, नहीं बहन, यह बात नहीं है. मेरी छोटी बेटी ऋचा बिना पढ़ाए कक्षा में प्रथम आती है, पर निशा पढ़ाई में जरा कमजोर है. उस के साथ मुझे बैठना पड़ता है. हां, खेलकूद में कक्षा में सब से आगे है. इधर 3 वर्षों में ढेरों इनाम जीत लाई है. इसीलिए…’’

‘‘ठीक है, जैसी आप की मरजी, पर समाज सेवा बड़े पुण्य का काम होता है. अपना घर, अपने बच्चों की सेवा तो सभी करते हैं…’’

वह पलट कर तेजतेज कदमों से गाड़ी की ओर बढ़ गई थी.

घर का काम निबटा कर मैं स्कूल पहुंची. निशा की अध्यापिका से मिलने पर पता चला कि वह पीछे बैठने के कारण नहीं, वरन 2 बेहद उद्दंड किस्म की लड़कियों की सोहबत में फंस कर पढ़ाई बरबाद कर रही थी.

‘‘ये लड़कियां किन्हीं बड़े धनी परिवारों से आई हैं, जिन्हें पढ़ाई में तनिक भी रुचि नहीं है. पिछले वर्ष फेल होने के बावजूद उन्हें 5वीं कक्षा में रोका नहीं जा सका. इसीलिए वे सब अध्यापिकाओं के साथ बेहद उद््दंडता का बरताव करती हैं, जिस की वजह से उन्हें पीछे बैठाया जाता है ताकि अन्य लड़कियों की पढ़ाई सुचारु रूप से चल सके,’’ निशा की अध्यापिका ने कहा. सुन कर मैं सन्न रह गई.

‘‘यदि आप अपनी बेटी की तरफ ध्यान नहीं देंगी तो पढ़ाई के साथसाथ उस का जीवन भी बरबाद होने में देर नहीं लगेगी. यह बड़ी भावुक आयु होती है, जो बच्चे के भविष्य के साथसाथ उस का जीवन भी बनाती है. आप ही उसे इस भटकन से लौटा सकती हैं, क्योंकि आप उस की मां हैं. प्यार से थपथपा कर उसे धीरेधीरे सही राह पर लौटा लाइए. मैं आप की हर तरहसे मदद करूंगी.’’

‘‘आप से एक अनुरोध है, मिस कांता. कल से निशा को उन लड़कियों के साथ न बिठा कर कृपया आगे की सीट पर बिठाएं. बाकी मैं संभाल लूंगी.’’

घर लौट कर मैं बड़ी देर तक पंखे के नीचे आंखें बंद कर के पड़ी रही. समाज सेवा का भूत सिर पर से उतर गया था. समाज सेवा पीछे है, पहले मेरा कर्तव्य अपने बच्चों को संभालना है. ये भी तो इस समाज के अंग हैं. इन 4-5 महीने में जब से मैं ने इस की ओर ध्यान देना छोड़ा है, यह पढ़ाई में कितनी पिछड़ गई है.

अब मैं ने फिर पहले की तरह निशा के साथ नियमपूर्वक बैठना शुरू कर दिया. धीरेधीरे उस की पढ़ाई सुधरने लगी. बीचबीच में मैं कमरे में जा कर झांकती, तो वह हंस देती, ‘‘आइए मम्मी, देख लीजिए, मैं अध्यापिका के कार्टून नहीं बना रही, नोट्स लिख रही हूं.’’

उस के शब्द मुझे अंदर तक पिघला देते, ‘‘नहीं बेटा, मैं चाहती हूं, तुम इतना मन लगा कर पढ़ो कि तुम्हारी अध्यापिका की बात झूठी हो जाए. वह तुम से बहुत नाराज हैं. कह रही थीं कि निशा इस वर्ष छठी कक्षा हरगिज पास नहीं कर पाएगी. तुम पास ही नहीं, खूब अच्छे अंकों में पास हो कर दिखाओ, ताकि हमारा सिर पहले की तरह ऊंचा रहे,’’ उस का मनोबल बढ़ा कर मैं मनोवैज्ञानिक ढंग से उस का ध्यान उन लड़कियों की ओर से हटाना चाहती थी.

धीरेधीरे मैं ने निशा में परिवर्तन देखा. 8वीं कक्षा में आ कर वह बिना कहे पढ़ाई में जुट जाती. उस की मेहनत, लगन व परिश्रम उस दिन रंग लाया, जब दौड़ते हुए आ कर वह मेरे गले में बांहें डाल कर झूल गई.

‘‘मां, मैं पास हो गई. प्रथम श्रेणी में. आप के पंडितजी की भविष्यवाणी झूठी साबित कर दी मैं ने? अब तो आप खुश हैं न कि आप की बेटी ने 10वीं पास कर ली.’’

‘‘हां, निशा, आज मैं बेहद खुश हूं. जीवन की सब से बड़ी मनोकामना पूर्ण कर के आज तुम ने मेरा माथा गर्व से ऊंचा कर दिया है. आज विश्वास हो गया है कि संसार में कोई ऐसा काम नहीं है, जो मेहनत और लगन से पूरा न किया जा सके. अब आगे…’’

‘‘मां, मैं डाक्टर बनूंगी. माधवी और नीला भी मेडिकल में जा रही हैं.’’

‘‘बाप रे, मेडिकल. उस में तो बहुत मेहनत करनी पड़ती है. हो सकेगी तुम से रातदिन पढ़ाई?’’

‘‘हां, मां, कृपया मुझे जाने दीजिए. मैं खूब मेहनत करूंगी.’’

‘‘और तुम्हारे खेलकूद? बैडमिंटन, नैटबाल, दौड़ वगैरह?’’

‘‘वह सब भी चलेगा साथसाथ,’’ वह हंस दी. भोलेभाले चेहरे पर निश्छल प्यारी हंसी.

मन कैसाकैसा हो आया, ‘‘ठीक है, पापा से भी पूछ लेना.’’

‘‘पापा कुछ नहीं कहेंगे. मुझे मालूम है, उन का तो यही अरमान है कि मैं डाक्टर नहीं बन सका, तो मेरी बेटी ही बन जाए. उन से पूछ कर ही तो आप से अनुमति मांग रही हूं. अच्छा मां, आप नानीजी को लिख दीजिएगा कि उन की धेवती ने उन के बड़े भारी ज्योतिषी की भविष्यवाणी झूठी साबित कर के 10वीं पास कर ली है और डाक्टरी पढ़ कर अपने हाथ की रेखाओं को बदलने जा रही है.’’

‘‘मैं क्यों लिखूं? तुम खुद चिट्ठी लिख कर उन का आशीर्वाद लो.’’

‘‘ठीक है, मैं ही लिख दूंगी. जरा अंक तालिका आ जाने दीजिए और जब इलाहाबाद जाऊंगी तो आप के पंडितजी के दर्शन जरूर करूंगी, जिन्हें मेरे भाग्य में विद्या की रेखा ही नहीं दिखाई दी थी.’’

आज 6 वर्ष बाद मेरी निशा डाक्टर बन कर सामने खड़ी है. हर्ष से मेरी आंखें छलछलाई हुई हैं.

दुख है तो केवल इतना कि आज अम्मां नहीं हैं. होतीं तो उन्हें लिखती, ‘‘अम्मां, लड़कियां भी लड़कों की तरह इनसान होती हैं. उन्हें भी उतनी ही सुरक्षा, प्यार तथा मानसम्मान की आवश्यकता होती है, जितनी लड़कों को. लड़कियां कह कर उन्हें ढोरडंगरों की तरह उपेक्षित नहीं छोड़ देना चाहिए.

‘‘और ये पंडेपुजारी? आप के उन पंडितजी के कहने पर विश्वास कर के मैं अपनी बिटिया को उस के भाग्य के सहारे छोड़ देती, तो आज यह शुभ दिन कहां से आता? नहीं अम्मां, लड़कियों को भी ईश्वर ने शरीर के साथसाथ मन, मस्तिष्क और आत्मा सभी कुछ प्रदान किया है. उन्हें उपेक्षित छोड़ देना पाप है.’’

‘‘तुम भी तो एक लड़की हो, अम्मां, अपनी धेवती की सफलता पर गर्व से फूलीफूली नहीं समा रही हो? सचसच बताना.’’ पर कहां हैं पुरानी मान्यताओं पर विश्वास करने वाली मेरी वह अम्मां?

उलझन: रश्मि का कड़वा सच

आश्चर्य में डूबी रश्मि मुझे ढूंढ़ती हुई रसोईघर में पहुंची तो उस की नाक ने उसे एक और आश्चर्य में डुबो दिया, ‘‘अरे वाह, कचौरियां, बड़ी अच्छी खुशबू आ रही है. किस के लिए बना रही हो, मां?’’

‘‘तेरे पिताजी के दोस्त आ रहे हैं आज,’’ उड़ती हुई दृष्टि उस के थके, कुम्हलाए चेहरे पर डाल मैं फिर चकले पर झुक गई.

‘‘कौन से दोस्त?’’ हाथ की किताबें बरतनों की अलमारी पर रखते हुए उस ने पूछा.

‘‘कोई पुराने साथी हैं कालिज के. मुंबई में रहते हैं आजकल.’’

जितनी उत्सुकता से उस के प्रश्न आ रहे थे, मैं उतनी ही सहजता से और संक्षेप में उत्तर दिए जा रही थी. डर रही थी, झूठ बोलते कहीं पकड़ी न जाऊं.

गरमागरम कचौरी का टुकड़ा तोड़ कर मुंह में ठूंसते हुए उस ने एक और तीर छोड़ा, ‘‘इतनी बढि़या कचौरियां आप ने हमारे लिए तो कभी नहीं बनाईं.’’

उस का फूला हुआ मुंह और उस के साथ उलाहना. मैं हंस दी, ‘‘लगता है, तेरे कालिज की कैंटीन में आज तेरे लिए कुछ नहीं बचा. तभी कचौरियों में ज्यादा स्वाद आ रहा है. वरना वही हाथ हैं और वही कचौरियां.’’

‘‘अच्छा, तो पिताजी के यह दोस्त कितने दिन ठहरेंगे हमारे यहां?’’ उस ने दूसरी कचौरी तोड़ कर मुंह में ठूंस ली थी.

‘‘ठहरे तो वह रमाशंकरजी के यहां हैं. उन से रिश्तेदारी है कुछ. तुम्हारे पिताजी ने तो उन्हें आज चाय पर बुलाया है. तू हाथ तो धो ले, फिर आराम से प्लेट में ले कर खाना. जरा सब्जी में भी नमक चख ले.’’

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उस ने हाथ धो कर झरना मेरे हाथ से ले लिया, ‘‘वह सब चखनावखना बाद में होगा. पहले आप बेलबेल कर देती जाइए, मैं तलती जाती हूं. आशु नहीं आया अभी तक स्कूल से?’’

‘‘अभी से कैसे आ जाएगा? कोई तेरा कालिज है क्या, जो जब मन किया कक्षा छोड़ कर भाग आए? छुट्टी होगी, बस चलेगी, तभी तो आएगा.’’

‘‘तो हम क्या करें? अर्थशास्त्र के अध्यापक पढ़ाते ही नहीं कुछ. जब खुद ही पढ़ना है तो घर में बैठ कर क्यों न पढ़ें. कक्षा में क्यों मक्खियां मारें?’’ उस ने अकसर कक्षा छोड़ कर आने की सफाई पेश कर दी.

4 हाथ लगते ही मिनटों में फूलीफूली कचौरियों से परात भर गई थी. दहीबड़े पहले ही बन चुके थे. मिठाई इन से दफ्तर से आते वक्त लाने को कह दिया था.

‘‘अच्छा, ऐसा कर रश्मि, 2-4 और बची हैं न, मैं उतार देती हूं. तू हाथमुंह धो कर जरा आराम कर ले. फिर तैयार हो कर जरा बैठक ठीक कर ले. मुझे वे फूलवूल सजाने नहीं आते तेरी तरह. समझी? तब तक तेरे पिताजी और आशु भी आ जाएंगे.’’

‘‘अरे, सब ठीक है मां. मैं पहले ही देख आई हूं. एकदम ठीक है आप की सजावट. और फिर पिताजी के दोस्त ही तो आ रहे हैं, कोई समधी थोड़े ही हैं जो इतनी परेशान हो रही हो,’’ लापरवाही से मुझे आश्वस्त कर वह अपनी किताबें उठा कर रसोई से निकल गई. दूर से गुनगुनाने की आवाज आ रही थी, ‘रजनीगंधा फूल तुम्हारे, महके यों ही जीवन में…’

मैं अवाक् रह गई. अनजाने में वह कितना बड़ा सत्य कह गई थी, वह नहीं जानती थी. सचमुच इन के कोई दोस्त नहीं वरन दफ्तर के साथी रमाशंकर की बहन और बहनोई आ रहे थे रश्मि को देखने.

लेकिन बेटे वालों के जितने नाजनखरे होते हैं, उस के हिसाब से कितनी बार यह नाटक दोहराना पड़ेगा, कौन जानता है. और लाड़दुलार में पली, पढ़ीलिखी लड़कियों का मन हर इनकार के साथ विद्रोह की जिस आग से भड़क उठता है, मैं नहीं चाहती थी, मेरी सीधीसादी सांवली सी बिटिया उस आग में झुलस कर अभी से किसी हीनभावना से ग्रस्त हो जाए.

इसी वजह से वह जितनी सहज थी, मैं उतनी ही घबरा रही थी. कहीं उसे संदेह हो गया तो…

भारतीय परंपरा के अनुरूप हमारे माननीय अतिथि पूरे डेढ़ घंटे देर से आए. प्रतीक्षा से ऊबे रश्मि और आशु अपने पिता पर अपनी खीज निकाल रहे थे, ‘‘रमाशंकर चाचाजी ने जरूर आप का अप्रैल फूल बनाया है. आप हैं भी तो भोले बाबा, कोई भी आप को आसानी से बुद्धू बना लेता है.’’

‘‘नहीं, बेटा, रमाशंकरजी अकेले होते तो ऐसा संभव था, क्योंकि वह अकसर ऐसी हरकतें किया करते हैं. पर उन के साथ जो मेहमान आ रहे हैं न, वे ऐसा नहीं करेंगे. नए शहर में पहली बार आए हैं इसलिए घूमनेघामने में देर हो गई होगी. पर वे आएंगे जरूर…’’

‘‘मान लीजिए, पिताजी, वे लोग न आए तो इतनी सारी खानेपीने की चीजों का क्या होगा?’’ रश्मि को मिठाई और मेहनत से बनाई कचौरियों की चिंता सता रही थी.

‘‘अरे बेटा, होना क्या है. इसी बहाने हमतुम बैठ कर खाएंगे और रमाशंकरजी और अपने दोस्त को दुआ देंगे.’’

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बच्चों को आश्वस्त कर इन्होंने खिड़की का परदा सरका कर बाहर झांका तो एकदम हड़बड़ा गए.

‘‘अरे, रमाशंकरजी की गाड़ी तो खड़ी है बाहर. लगता है, आ गए हैं वे लोग.’’

‘‘माफ कीजिए, राजकिशोरजी, आप लोगों को इतनी देर प्रतीक्षा करनी पड़ी, जिस के लिए हम बेहद शर्मिंदा हैं,’’ क्षमायाचना के साथसाथ रमाशंकरजी ने घर में प्रवेश किया, ‘‘पर यह औरतों का मामला जहां होता है, आप तो जानते ही हैं, हमें इंडियन स्टैंडर्ड टाइम पर उतरना पड़ता है.’’

वह अपनी बहन की ओर कनखियों से देख मुसकरा रहे थे, ‘‘हां, तो मिलिए मेरी बहन नलिनीजी और इन के पति नरेशजी से, और यह इन के सुपुत्र अनुपम तथा अनुराग. और नलिनी बहन, यह हैं राजकिशोरजी और इन का हम 2, हमारे 2 वाला छोटा सा परिवार, रश्मि बिटिया और इन के युवराज आशीष.’’

‘‘रमाशंकरजी, हमारे बच्चों को यह गलतफहमी होने लगी थी कि कहीं आप भूल तो नहीं गए आज का कार्यक्रम,’’ सब को बिठा कर यह बैठते हुए बोले.

रमाशंकरजी ने गोलगोल आंख मटकाते हुए आशु की तरफ देखा, ‘‘वाह, मेरे प्यारे बच्चो, ऐसी शानदार पार्टी भी कोई भूलने की चीज होती है भला? अरे, आशु बेटा, दरवाजा बंद कर लो. कहीं ऐसा न हो कि इतनी अच्छी महक से बहक कर कोई राह चलता अपना घर भूल इधर ही घुस आए,’’ अपने चिरपरिचित हास्यमिश्रित अभिनय के साथ जिस नाटकीय अदा से रमाशंकरजी ने ये शब्द कहे उस से पूरा कमरा ठहाकों से गूंज गया.

प्रतीक्षा से बोझिल वातावरण एकाएक हलका हो गया था. बातचीत आरंभ हुई तो इतनी सहज और अनौपचारिक ढंग से कि देखतेदेखते अपरिचय और दूरियों की दीवारें ढह गईं. रमाशंकरजी का परिवार जितना सभ्य और सुशिक्षित था, उन के बहनबहनोई का परिवार उतना ही सुसंस्कृत और शालीन लगा.

चाय पी कर नलिनीजी ने पास रखी अटैची खोल कर सामान मेज पर सजा दिया. मिठाई के डब्बे, साड़ी का पैकेट, सिंदूर रखने की छोटी सी चांदी की डिबिया. फिर रश्मि को बुला कर अपने पास बिठा कर उस के हाथों में चमचमाती लाल चूडि़यां पहनाते हुए बोलीं, ‘‘यही सब खरीदने में देर हो गई. हमारे नरेशजी का क्या है, यह तो सिर्फ बातें बनाना जानते हैं. पर हम लोगों को तो सब सोचसमझ कर चलना पड़ता है न? पहलीपहली बार अपनी बहू को देखने आ रही थी तो क्या खाली हाथ झुलाती हुई चली आती?’’

‘‘बहू,’’ मैं ने सहसा चौंक कर खाने के कमरे से झांका तो देखती ही रह गई. रश्मि के गले में सोने की चेन पहनाते हुए वह कह रही थीं, ‘‘लो, बेटी, यह साड़ी पहन कर आओ तो देखें, तुम पर कैसी लगती है. तुम्हारे ससुरजी की पसंद है.’’

रश्मि के हाथों में झिलमिलाती हुई चूडि़यां, माथे पर लाल बिंदी, गले में सोने की चेन…यह सब क्या हो रहा है? हम स्वप्न देख रहे हैं अथवा सिनेमा का कोई अवास्तविक दृश्य. घोर अचरज में डूबी रश्मि भी अलग परेशान लग रही थी. उसे तो यह भी नहीं मालूम था कि उसे कोई देखने आ रहा है.

हाथ की प्लेटें जहां की तहां धर मैं सामने आ कर खड़ी हो गई, ‘‘क्षमा कीजिए, नलिनीजी, हमें भाईसाहब ने इतना ही कहा था कि आप लोग रश्मि को देखने आएंगे, पर आप का निर्णय क्या होगा, उस का तो जरा सा भी आभास नहीं था, सो हम ने कोई तैयारी भी नहीं की.’’

‘‘तो इस में इतना परेशान होने की क्या बात है, सरला बहन? बेटी तो आप की है ही, अब हम ने बेटा भी आप को दे दिया. जी भर के खातिर कर लीजिएगा शादी के मौके पर,’’ उन का चेहरा खुशी के मारे दमक रहा था, ‘‘अरे, आ गई रश्मि बिटिया. लो, रमाशंकर, देख लो साड़ी पहन कर कैसी लगती है तुम्हारी बहूरानी.’’

‘‘हम क्या बताएंगे, दीदी, आप और जीजाजी बताइए, हमारी पसंद कैसी लगी आप को? हम ने हीरा छांट कर रख दिया है आप के सामने. अरे भई, अनुपम, ऐसे गुमसुम से क्यों बैठे हो तुम? वह जेब में अंगूठी क्या वापस ले जाने के इरादे से लाए हो?’’ रमाशंकरजी चहके तो अनुपम झेंप गया.

‘‘हमारी अंगूठी के अनुपात से काफी दुबलीपतली है यह. खैर, कोई बात नहीं. अपने घर आएगी तो अपने जैसा बना लेंगे हम इसे भी,’’ नलिनीजी हंस दीं.

पर मैं अपना आश्चर्य और अविश्वास अब भी नियंत्रित नहीं कर पा रही थी, ‘‘वो…वो…नलिनीजी, ऐसा है कि आजकल लड़के वाले बीसियों लड़कियां देखते हैं…और इनकार कर देते हैं…और आप…?

‘‘हां, सरला बहन, बड़े दुख की बात है कि संसार में सब से महान संस्कृति और सभ्यता का दंभ भरने वाला हमारा देश आज बहुत नीचे गिर गया है. लोग बातें बहुत बड़ीबड़ी करते हैं, आदर्श ऊंचेऊंचे बघारते हैं, पर आचरण ठीक उस के विपरीत करते हैं.

‘‘लेकिन हमारे घर में यह सब किसी को पसंद नहीं. लड़का हो या लड़की, अपने बच्चे सब को एक समान प्यारे होते हैं. किसी का अपमान अथवा तिरस्कार करने का किसी को भी अधिकार नहीं है. हमारे अनुपम ने पहले ही कह दिया था, ‘मां, जो कुछ मालूम करना हो पहले ही कर लेना. लड़की के घर जा कर मैं उसे अस्वीकार नहीं कर सकूंगा.’

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‘‘इसलिए हम रमाशंकर और भाभी से सब पूछताछ कर के ही मुंबई से आए थे कि एक बार में ही सब औपचारिकताएं पूरी कर जाएंगे और हमारी भाभी ने रश्मि बिटिया की इतनी तारीफ की थी कि हम ने और लड़की वालों के समस्त आग्रह और निमंत्रण अस्वीकार कर दिए. घरघर जा कर लड़कियों की नुमाइश करना कितना अपमानजनक लगता है, छि:.’’

उन्होंने रश्मि को स्नेह से निहार कर हौले से उस की पीठ थपथपाई, ‘‘बेटी का बहुत चाव था हमें, सो मिल गई. अब तुम्हें 2-2 मांओं को संभालना पड़ेगा एकसाथ. समझी बिटिया रानी?’’ हर्षातिरेक से वह खिलीखिली जा रही थीं.

‘‘अच्छा, बहनजी, अब आप का उठने का विचार है या अपनी लाड़ली बहूरानी को साथ ले कर जाने का ही प्रण कर के आई  हैं?’’ रमाशंकरजी अपनी चुटकियां लेने की आदत छोड़ने वाले नहीं थे, ‘‘बहुत निहार लिया अपनी बहूरानी को, अब उस बेचारी को आराम करने दीजिए. क्यों, रश्मि बिटिया, आज तुम्हारी जबान को क्या हो गया है? जब से आए हैं, तुम गूंगी बनी बैठी हो. तुम भी तो कुछ बोलो, हमारे अनुपम बाबू कैसे लगे तुम्हें? कौन से हीरो की झलक पड़ती है इन में?’’

रश्मि की आंखें उन के चेहरे तक जा कर नीचे झुक गईं तो वह हंस पड़े, ‘‘भई, आज तो तुम बिलकुल लाजवंती बन गई हो. चलो, फिर किसी दिन आ कर पूछ लेंगे.’’

तभी इन्होंने एक लिफाफा नरेशजी के हाथों में थमा दिया, ‘‘इस समय तो बस, यही सेवा कर सकते हैं आप की. पहले से मालूम होता तो कम से कम अनुपमजी के लिए एक अंगूठी और सूट का प्रबंध तो कर ही लेते. जरा सा शगुन है बस, ना मत कीजिएगा.’’

हम लोग बेहद संकोच में घिर आए थे. अतिथियों को विदा कर के आए तो लग रहा था जैसे कोई सुंदर सा सपना देख कर जागे हैं. चारों तरफ रंगबिरंगे फूलों की वादियां हैं, ठंडे पानी के झरझर झरते झरने हैं और बीच में बैठे हैं हम और हमारी रश्मि. सचमुच कितना सुखी जीवन है हमारा, जो घरबैठे लड़का आ गया था. वह भी इंजीनियर. भलाभला सा, प्यारा सा परिवार. कहते हैं, लड़की वालों को लड़का ढूंढ़ने में वर्षों लग जाते हैं. तरहतरह के अपमान के घूंट गले के भीतर उड़ेलने पड़ते हैं, तब कहीं वे कन्यादान कर पाते हैं.

क्या ऐसे भले और नेक लोग भी हैं आज के युग में?

नलिनीजी के परिवार ने लड़के वालों के प्रति हमारी तमाम मान्यताओं को उखाड़ कर उस की जगह एक नन्हा सा, प्यारा सा पौधा रोप दिया था, मानवता में विश्वास और आस्था का. और उस नन्हे से झूमतेलहराते पौधे को देखते हुए हम अभिभूत से बैठे थे.

‘‘अच्छा, जीजी, चुपकेचुपके रश्मि बिटिया की सगाई कर डाली और शहर के शहर में रहते भी हमें हवा तक नहीं लगने दी?’’ देवरानी ने घुसते ही बधाई की जगह बड़ीबड़ी आंखें मटकाते हुए तीर छोड़ा.

‘‘अरे मंजु, क्या बताएं, खुद हमें ही विश्वास नहीं हो रहा है कि कैसे रश्मि की सगाई हो गई. लग रहा है, जैसे सपना देख कर जागे हैं. उन लोगों ने देखने आने की खबर दी थी, पर आए तो पूरी सगाई की तैयारी के साथ. और हम लोग तो समझो, पानीपानी हो गए एकदम. लड़के के लिए न अंगूठी, न सूट, न शगुन का मिठाईमेवा. यह देखो, तुम्हारी बिटिया के लिए कितना सुंदर सेट और साड़ी दे गए हैं.’’

मंजु ने सामान देखा, परखा और लापरवाही से एक तरफ धर कर, फिर जैसे मैदान में उतर आई, ‘‘अरे, अब हमें मत बनाइए, जीजी. इतनी उमर हो गई शादीब्याह देखतेदेखते, आज तक ऐसा न देखा न सुना. परिवार में इतना बड़ा कारज हो जाए और सगे चाचाचाची के कान में भनक भी न पड़े.’’

‘‘मंजु, इस में बुरा मानने की क्या बात है. ये लोग बड़े हैं. जैसा ठीक समझा, किया. उन की बेटी है. हो सकता है, भैयाभाभी को डर हो, कहीं हम लोग आ कर रंग में भंग न डाल दें. इसलिए…’’

‘‘मुकुल भैया, आप भी…हम पर इतना अविश्वास? भला शुभ कार्य में अपनों से दुरावछिपाव क्यों करते?’’ छोटे भाई जैसे देवर मुकुल से मुझे ऐसी आशा नहीं थी.

‘‘अच्छा, रानीजी, जो हो गया सो तो हो गया. अब ब्याह भी चुपके से न कर डालना. पहलीपहली भतीजी का ब्याह है. सगी बूआ को न भुला देना,’’ शीला जीजी दरवाजे की चौखट पर खड़ेखड़े तानों की बौछार कर रही थीं.

‘‘हद करती हैं आप, जीजी. क्या मैं अकेले हाथों लड़की को विदा कर सकती हूं? क्या ऐसा संभव है?’’

‘‘संभवअसंभव तो मैं जानती नहीं, बीबी रानी, पर इतना जरूर जानती हूं कि जब आधा कार्य चुपचाप कर डाला तो लड़की विदा करने में क्या धरा है. अरे, मैं पूछती हूं, रज्जू से तुम ने आज फोन करवाया. कल ही करवा देतीं तो क्या घिस जाता? पर तुम्हारे मन में तो खोट था न. दुरावछिपाव अपनों से.’’

शीला जीजी हाथ का झोला सोफे पर पटक कर स्वयं भी पसर गईं, ‘‘उफ, इन बसों का सफर तो जान सोख लेता है. पर क्या किया जाए, सुन कर बैठा भी तो नहीं गया. जैसे ही यह दफ्तर से आए, सीधे बस पकड़ कर चले आए. अपनों की मायाममता होती ही ऐसी है. भाई का जरा सा सुखदुख सुनते ही छटपटाहट सी होने लगती है. पर तुम पराए घर की लड़की, क्या जानो, हमारा भाईबहन का संबंध कितना अटूट है.’’

शीला जीजी के शब्द कांटों की तरह कलेजे को आरपार चीरे डाल रहे थे.

‘‘ला तो रश्मि, जरा दिखा तो तेरे ससुराल वालों ने क्या पहनाया तुझे? सुना है बड़े अच्छे लोग हैं…बड़े भले हैं…रज्जू ने फोन पर बताया. दूर के ढोल ऐसे ही सुहावने लगते हैं. अपने सगे तो तुम्हारे दुश्मन हैं.’’

‘‘अच्छा, मामीजी, जल्दी से पैसे निकालिए, बहन की सगाई हुई है. कम से कम मुंह तो मीठा करवा दीजिए सब का,’’ शीला जीजी के बेटे ने जैसे मुसीबतों के पहाड़ तले से खींच कर उबार लिया मुझे.

‘‘हां…हां, अरुण, एक मिनट ठहरो, मैं रुपए लाती हूं,’’ कहती हुई मैं वहां से उठ गई.

देखतेदेखते अरुण रुपयों के साथ इन का स्कूटर भी ले कर उड़ गया. लौटा तो मिठाई, नमकीन मेज पर रखते हुए बोला, ‘‘मामीजी, मिठाई वाले का उधार कर आया हूं. पैसे कम पड़ गए. आप बाद में आशु से भिजवा दीजिएगा 30 रुपए. पता लिखवा आया हूं यहां का.’’

मैं सकते में खड़ी थी. 50 का नोट भी कम पड़ गया था. कैसे? पर जब मेज पर नजर पड़ी तो कारण समझ में आ गया. एक से एक बढि़या मिठाइयां मेज पर बिखरी पड़ी थीं और शीला जीजी और मुकुल भैया अपने बच्चों सहित बड़े प्रेम से मुंह मीठा कर रहे थे. लड़की की सगाई जो हुई थी हमारी.

‘‘अच्छा, तो अकेलेअकेले बिटिया रानी की सगाई की मिठाई उड़ाई जा रही है,’’ दरवाजे पर मेरे मझले मामामामी अपने बेटेबहुओं के साथ खड़े थे, ‘‘क्यों, सरला, तेरा नाम जरूर सरला है, पर निकली तू विरला. क्यों री, तेरे एक ही तो मामा बचे हैं लेदे के और उन्हें भी तू ने समधियों से मिलवाना जरूरी नहीं समझा? अरे बेटा, हम लोग बुजुर्ग हैं, तजरबेकार हैं, शुभ काम में अच्छी ही सलाह देते. याद है, तेरे ब्याह पर मैं ने ही तुझे गोद में उठा कर मंडप में बिठाया था?’’

उफ्, किस मुसीबत में फंस गए थे हम लोग. छोटाबड़ा कोई भी हम पर विश्वास करने को तैयार नहीं था. नाहक ही सब को फोन कर के दफ्तर से खबर करवाई. कल की खुशी की मिठाई मुंह में कड़वी सी हो गई थी.

‘‘मामाजी, बात यह हुई कि हमें खुद ही पता नहीं था. वे लोग रश्मि को देखने आए थे…’’ खीजा, झुंझलाया स्वर स्वयं मुझे अपने ही कानों में अटपटा लग रहा था.

पर मामाजी ने मेरी बात बीच में ही काट दी, ‘‘अरे, हां…हां, ये सब बहाने तो हम लोग काफी देर से सुन रहे हैं. पर बेटा, बड़ों की सलाह लिए बिना तुम्हें ‘हां’ नहीं कहनी चाहिए थी. खैर, अब जो हो गया सो हो गया. अच्छाबुरा जैसा भी होगा, सब की जिम्मेदारी तुम्हीं पर होगी.

‘‘पर आश्चर्य तो इस बात का है कि राजकिशोरजी ने भी हम से दुराव रखा. आज की जगह कल फोन कर लेते तो हम समधियों से बातचीत कर लेते, उन्हें जांचपरख लेते. खैर, तुम लोग जानो, तुम्हारा काम. हम तो सिर्फ अपना फर्ज निभाते आए हैं.

‘‘पुराने लोग हैं, उसूलों पर चलने वाले. तुम लोग ठहरे नए जमाने के आधुनिक विचारों वाले. चाहो तो शादी की सूचना का कार्ड भिजवा देना, चले आएंगे. न चाहो तो कोई बात नहीं. कोई गिला- शिकवा करने नहीं आएंगे उस के लिए.’’

समझ में नहीं आ रहा था, यह क्या हो रहा है. सिर भन्ना गया था. बेटी की शादी की बधाई तथा उस के सुखमय भविष्य के लिए आशीषों की वर्षा की जगह हम पर झूठ, धोखेबाजी, दुरावछिपाव और न जाने किनकिन मिथ्या आरोपों की बौछार हो रही थी और हम इन आरोपों की बौछार तले सिर झुकाए बैठे थे…आहत, मर्माहत, निपट अकेले, निरुपाय.

सब को विदा करतेकराते रात के साढ़े 9 बज गए थे. मन के साथ तन भी एक अव्यक्त सी थकान से टूटाटूटा सा हो आया था. घर में मनहूस सी शांति पसरी पड़ी थी. मौन इन्होंने ही तोड़ा, ‘‘लगता है, रश्मि की सगाई की खबर सुन कर कोई खुश नहीं हुआ. अपनी सगी बहन…अपना भाई…’’ धीरगंभीर व्यथित स्वर.

घंटों से उमड़ताघुमड़ता अपमान और दुख आंखों की राह बह निकला.

‘‘ओफ्फोह, मां, आप भी बस, रोने से क्या वे खुश हो जाएंगे? सब के सब कुढ़ रहे थे कि दीदी का ब्याह इतनी आसानी से और इतने अच्छे घर में क्यों तय हो गया. बस, यही कुढ़न हमारे ऊपर उलटेसीधे तानों के रूप में उड़ेल गए. उंह, यह भी कोई बात हुई,’’ कुछ ही घंटों में आशु भावनाओं की काफी झलक पा गया था.

‘‘छि: बेटा, ऐसे नहीं कहते. वे हमारे बड़े हैं…अपने हैं…उन के लिए ऐसे शब्द नहीं कहने चाहिए.’’

‘‘उंह, बड़े आए अपने. 80 रुपए की मिठाइयां खा गए, ऊपर से न जाने क्या- क्या कह गए. ऐसे ही नाराज थे तो मिठाई क्यों खाई? क्यों मुंह मीठा किया? प्लेटों पर तो ऐसे टूट रहे थे जैसे मिठाई कभी देखी ही न हो. इतना गुस्सा आ रहा था कि बस, पर आप के डर से चुप रह गया कि बोलते ही सब के सामने मुझे डांट देंगी.’’

16 वर्षीय आशु भी अपना आक्रोश मुझ पर निकाल रहा था, ‘‘सब से अच्छा यही है कि दीदी की शादी में किसी को न बुलाया जाए. चुपचाप कोर्ट में जा कर शादी कर ली जाए.’’

मैं गुमसुम सी खड़ी थी. समझ नहीं आ रहा था कि क्या खून के रिश्ते इतनी आसानी से झुठलाए जा सकते हैं?

शायद नहीं…तो फिर?

आशु के तमतमाए चेहरे पर एक दृष्टि डाल, मैं मेज पर फैली बिखरी प्लेटें समेटने लगी. कैसे हैं ये मन के बंधन, जो नितांत अनजान और अपरिचितों को एक प्यार भरी सतरंगी डोर से बांध देते हैं तो अपने ही आत्मीयों को पल भर में छिटका कर परे कर देते हैं.

कैसी विडंबना है यह? जो आज की टूटतीबिखरती आस्थाओं और आशाओं को बड़े यत्न से सहेज कर मन में प्रेम और विश्वास का एक नन्हा सा पौधा रोप गए थे. वे कल तक नितांत पराए थे और आज उस नवजात पौधे को जड़मूल से उखाड़ कर अपने पैरोंतले पूरी तरह कुचल कर रौंदने वाले हमारे अपने थे. सभी आत्मीय…

इन में से किसे अपना मानें, किसे पराया, कुछ भी तो समझ में नहीं आ रहा है.

शिकार: काव्या पर टूटा दुख का पहाड़

वहीं दूसरी ओर काव्या गोरीचिट्टी, छरहरे बदन की गुडि़या सी दिखने वाली एक भोलीभाली, मासूम सी लड़की थी. मुश्किल से अभी उस ने 20वां वसंत पार किया होगा. कुछ महीने पहले दुख क्या होता है, तकलीफ कैसी होती है, वह जानती तक न थी.

मांबाप के प्यार और स्नेह की शीतल छाया में काव्या बढि़या जिंदगी गुजार रही थी, पर दुख की एक तेज आंधी आई और उस के परिवार के सिर से प्यार, स्नेह और सुरक्षा की वह पिता रूपी शीतल छाया छिन गई.

अभी काव्या दुखों की इस आंधी से अपने और अपने परिवार को निकालने के लिए जद्दोजेहद कर ही रही थी कि एक नई समस्या उस के सामने आ खड़ी हुई.

उस दिन काव्या अपनी नईनई लगी नौकरी पर पहुंचने के लिए घर से थोड़ी दूर ही आई थी कि उस आदमी ने उस का रास्ता रोक लिया था.

एकबारगी तो काव्या घबरा उठी थी, फिर संभलते हुए बोली थी, ‘‘क्या है?’’

वह उसे भूखी नजरों से घूर रहा था, फिर बोला था, ‘‘तू बहुत ही खूबसूरत है.’’

‘‘क्या मतलब…?’’ उस की आंखों से झांकती भूख से डरी काव्या कांपती आवाज में बोली.

‘‘रंजन नाम है मेरा और खूबसूरत चीजें मेरी कमजोरी हैं…’’ उस की हवस भरी नजरें काव्या के खूबसूरत चेहरे और भरे जिस्म पर फिसल रही थीं, ‘‘खासकर खूबसूरत लड़कियां… मैं जब भी उन्हें देखता हूं, मेरा दिल उन्हें पाने को मचल उठता है.’’

‘‘क्या बकवास कर रहे हो…’’ अपने अंदर के डर से लड़ती काव्या कठोर आवाज में बोली, ‘‘मेरे सामने से हटो. मुझे अपने काम पर जाना है.’’

‘‘चली जाना, पर मेरे दिल की प्यास तो बुझा दो.’’

काव्या ने अपने चारों ओर निगाह डाली. इक्कादुक्का लोग आजा रहे थे. लोगों को देख कर उस के डरे हुए दिल को थोड़ी राहत मिली. उस ने हिम्मत कर के अपना रास्ता बदला और रंजन से बच कर आगे निकल गई.

आगे बढ़ते हुए भी उस का दिल बुरी तरह धड़क रहा था. ऐसा लगता था जैसे रंजन आगे बढ़ कर उसे पकड़ लेगा.

पर ऐसा कुछ नहीं हुआ. उस ने कुछ दूरी तय करने के बाद पीछे मुड़ कर देखा. रंजन को अपने पीछे न पा कर उस ने राहत की सांस ली.

काव्या लोकल ट्रेन पकड़ कर अपने काम पर पहुंची, पर उस दिन उस का मन पूरे दिन अपने काम में नहीं लगा. वह दिनभर रंजन के बारे में ही सोचती रही. जिस अंदाज से उस ने उस का रास्ता रोका था, उस से बातें की थीं, उस से इस बात का आसानी से अंदाजा लगाया जा सकता था कि रंजन की नीयत ठीक नहीं थी.

शाम को घर पहुंचने के बाद भी काव्या थोड़ी डरी हुई थी, लेकिन फिर उस ने यह सोच कर अपने दिल को हिम्मत बंधाई कि रंजन कोई सड़कछाप बदमाश था और वक्ती तौर पर उस ने उस का रास्ता रोक लिया था.

आगे से ऐसा कुछ नहीं होने वाला. लेकिन काव्या की यह सोच गलत साबित हुई. रंजन ने आगे भी उस का रास्ता बारबार रोका. कई बार उस की इस हरकत से काव्या इतनी परेशान हुई कि उस का जी चाहा कि वह सबकुछ अपनी मां को बता दे, लेकिन यह सोच कर खामोश रही कि इस से पहले से ही दुखी उस की मां और ज्यादा परेशान हो जाएंगी. काश, आज उस के पापा जिंदा होते तो उसे इतना न सोचना पड़ता.

पापा की याद आते ही काव्या की आंखें नम हो उठीं. उन के रहते उस का परिवार कितना खुश था. मम्मीपापा और उस का एक छोटा भाई. कुल 4 सदस्यों का परिवार था उस का.

उस के पापा एक ट्रांसपोर्ट कंपनी में काम करते थे और उन्हें जो पैसे मिलते थे, उस से उन का परिवार मजे में चल रहा था. जहां काव्या अपने पापा की दुलारी थी, वहीं उस की मां उस से बेहद प्यार करती थीं.

उस दिन काव्या के पापा अपनी कंपनी के काम के चलते मोटरसाइकिल से कहीं जा रहे थे कि पीछे से एक कार वाले ने उन की मोटरसाइकिल को तेज टक्कर मार दी.

वे मोटरसाइकिल से उछले, फिर सिर के बल सड़क पर जा गिरे. उस से उन के सिर के पिछले हिस्से में बेहद गंभीर चोट लगी थी.

टक्कर लगने के बाद लोगों की भीड़ जमा हो गई. भीड़ के दबाव के चलते कार वाले ने उस के घायल पापा को उठा कर नजदीक के एक निजी अस्पताल में भरती कराया, फिर फरार हो गया.

पापा की जेब से मिले आईकार्ड पर लिखे मोबाइल से अस्पताल वालों ने जब उन्हें फोन किया तो वे बदहवास अस्पताल पहुंचे, पर वहां पहुंच कर उन्होंने जिस हालत में उन्हें पाया, उसे देख कर उन का कलेजा मुंह को आ गया.

उस के पापा कोमा में जा चुके थे. उन की आंखें तो खुली थीं, पर वे किसी को पहचान नहीं पा रहे थे.

फिर शुरू हुआ मुश्किलों का न थमने वाला एक सिलसिला. डाक्टरों ने बताया कि पापा के सिर का आपरेशन करना होगा. इस का खर्च उन्होंने ढाई लाख रुपए बताया.

किसी तरह रुपयों का इंतजाम किया गया. पापा का आपरेशन हुआ, पर इस से कोई खास फायदा न हुआ. उन्हें विभिन्न यंत्रों के सहारे एसी वार्ड में रखा गया था, जिस की एक दिन की फीस 10,000 रुपए थी.

धीरेधीरे घर का सारा पैसा खत्म होने लगा. काव्या की मां के गहने तक बिक गए, फिर नौबत यहां तक आई कि उन के पास के सारे पैसे खत्म हो गए.

बुरी तरह टूट चुकी काव्या की मां जब अपने बच्चों को यों बिलखते देखतीं तो उन का कलेजा मुंह को आ जाता, पर अपने बच्चों के लिए वे अपनेआप को किसी तरह संभाले हुए थीं. कभीकभी उन्हें लगता कि पापा की हालत में सुधार हो रहा है तो उन के दिल में उम्मीद की किरण जागती, पर अगले ही दिन उन की हालत बिगड़ने लगती तो यह आस टूट जाती.

डेढ़ महीना बीत गया और अब ऐसी हालत हो गई कि वे अस्पताल के एकएक दिन की फीस चुकाने में नाकाम होने लगे. आपस में रायमशवरा कर उन्होंने पापा को सरकारी अस्पताल में भरती कराने का फैसला किया.

पापा को ले कर सरकारी अस्पताल गए, पर वहां बैड न होने के चलते उन्हें एक रात बरामदे में गुजारनी पड़ी. वही रात पापा के लिए कयामत की रात साबित हुई. काव्या के पापा की सांसों की डोर टूट गई और उस के साथ ही उम्मीद की किरण हमेशा के लिए बुझ गई.

फिर तो उन की जिंदगी दुख, पीड़ा और निराशा के अंधकार में डूबती चली गई. तब तक काव्या एमबीए का फाइनल इम्तिहान दे चुकी थी.

बुरे हालात को देखते हुए और अपने परिवार को दुख के इस भंवर से निकालने के लिए काव्या नौकरी की तलाश में निकल पड़ी. उसे एक प्राइवेट बैंक में 20,000 रुपए की नौकरी मिल गई और उस के परिवार की गाड़ी खिसकने लगी. तब उस के छोटे भाई की पढ़ाई का आखिरी साल था. उस ने कहा कि वह भी कोई छोटीमोटी नौकरी पकड़ लेगा, पर काव्या ने उसे सख्ती से मना कर दिया और उस से अपनी पढ़ाई पूरी करने को कहा.

20 साल की उम्र में काव्या ने अपने नाजुक कंधों पर परिवार की सारी जिम्मेदारी ले ली थी, पर इसे संभालते हुए कभीकभी वह बुरी तरह परेशान हो उठती और तब वह रोते हुए अपनी मां से कहती, ‘‘मम्मी, आखिर पापा हमें छोड़ कर इतनी दूर क्यों चले गए जहां से कोई वापस नहीं लौटता,’’ और तब उस की मां उसे बांहों में समेटते हुए खुद रो पड़तीं.

धीरेधीरे दुख का आवेग कम हुआ और फिर काव्या का परिवार जिंदगी की जद्दोजेहद में जुट गया.

समय बीतने लगा और बीतते समय के साथ सबकुछ एक ढर्रे पर चलने लगा तभी यह एक नई समस्या काव्या के सामने आ खड़ी हुई.

काव्या जानती थी कि बड़ी मुश्किल से उस की मां और छोटे भाई ने उस के पापा की मौत का गम सहा है. अगर उस के साथ कुछ हो गया तो वे यह सदमा सहन नहीं कर पाएंगे और उस का परिवार, जिसे संभालने की वह भरपूर कोशिश कर रही है, टूट कर बिखर जाएगा.

काव्या ने इस बारे में काफी सोचा, फिर इस निश्चय पर पहुंची कि उसे एक बार रंजन से गंभीरता से बात करनी होगी. उसे अपनी जिंदगी की परेशानियां बता कर उस से गुजारिश करनी होगी

कि वह उसे बख्श दे. उम्मीद तो कम थी कि वह उस की बात समझेगा, पर फिर भी उस ने एक कोशिश करने का मन बना लिया.

अगली बार जब रंजन ने काव्या का रास्ता रोका तो वह बोली, ‘‘आखिर तुम मुझ से चाहते क्या हो? क्यों बारबार मेरा रास्ता रोकते हो?’’

‘‘मैं तुम्हें चाहता हूं,’’ रंजन उस के खूबसूरत चेहरे को देखता हुआ बोला, ‘‘मेरा यकीन करो. मैं ने जब से तुम्हें देखा है, मेरी रातों की नींद उड़ गई है. आंखें बंद करता हूं तो तुम्हारा खूबसूरत चेहरा सामने आ जाता है.’’

‘‘सड़क पर बात करने से क्या यह बेहतर नहीं होगा कि हम किसी रैस्टोरैंट में चल कर बात करें.’’

काव्या के इस प्रस्ताव पर पहले तो रंजन चौंका, फिर उस की आंखों में एक अनोखी चमक जाग उठी. वह जल्दी से बोला, ‘‘हांहां, क्यों नहीं.’’

रंजन काव्या को ले कर सड़क के किनारे बने एक रैस्टोरैंट में पहुंचा, फिर बोला, ‘‘क्या लोगी?’’

‘‘कुछ नहीं.’’

‘‘कुछ तो लेना होगा.’’

‘‘तुम्हारी जो मरजी मंगवा लो.’’

रंजन ने काव्या और अपने लिए कौफी मंगवाईं और जब वे कौफी पी चुके तो वह बोला, ‘‘हां, अब कहो, तुम क्या कहना चाहती हो?’’

‘‘देखो, मैं उस तरह की लड़की नहीं हूं जैसा तुम समझते हो,’’ काव्या ने गंभीर लहजे में कहना शुरू किया, ‘‘मैं एक मध्यम और इज्जतदार परिवार से हूं, जहां लड़की की इज्जत को काफी अहमियत दी जाती है. अगर उस की इज्जत पर कोई आंच आई तो उस का और उस के परिवार का जीना मुश्किल हो जाता है.

‘‘वैसे भी आजकल मेरा परिवार जिस मुश्किल दौर से गुजर रहा है, उस में ऐसी कोई बात मेरे परिवार की बरबादी का कारण बन सकती है.’’

‘‘कैसी मुश्किलों का दौर?’’ रंजन ने जोर दे कर पूछा.

काव्या ने उसे सबकुछ बताया, फिर अपनी बात खत्म करते हुए बोली, ‘‘मेरी मां और भाई बड़ी मुश्किल से पापा की मौत के गम को बरदाश्त कर पाए हैं, ऐसे में अगर मेरे साथ कुछ हुआ तो मेरा परिवार टूट कर बिखर जाएगा…’’ कहतेकहते काव्या की आंखों में आंसू आ गए और उस ने उस के आगे हाथ जोड़ दिए, ‘‘इसलिए मेरी तुम से विनती है कि तुम मेरा पीछा करना छोड़ दो.’’

पलभर के लिए रंजन की आंखों में दया और हमदर्दी के भाव उभरे, फिर उस के होंठों पर एक मक्कारी भरी मुसकान फैल गई.

रंजन काव्या के जुड़े हाथ थामता हुआ बोला, ‘‘मेरी बात मान लो, तुम्हारी सारी परेशानियों का खात्मा हो जाएगा. मैं तुम्हें पैसे भी दूंगा और प्यार भी. तू रानी बन कर राज करेगी.’’

काव्या को समझते देर न लगी कि उस के सामने बैठा आदमी इनसान नहीं, बल्कि भेडि़या है. उस के सामने रोने, गिड़गिड़ाने और दया की भीख मांगने का कोई फायदा नहीं. उसे तो उसी की भाषा में समझाना होगा. वह मजबूरी भरी भाषा में बोली, ‘‘अगर मैं ने तुम्हारी बात मान ली तो क्या तुम मुझे बख्श दोगे?’’

‘‘बिलकुल,’’ रंजन की आंखों में तेज चमक जागी, ‘‘बस, एक बार मुझे अपने हुस्न के दरिया में उतरने का मौका दे दो.’’

‘‘बस, एक बार?’’

‘‘हां.’’

‘‘ठीक है,’’ काव्या ने धीरे से अपना हाथ उस के हाथ से छुड़ाया, ‘‘मैं तुम्हें यह मौका दूंगी.’’

‘‘कब?’’

‘‘बहुत जल्द…’’ काव्या बोली, ‘‘पर, याद रखो सिर्फ एक बार,’’ कहने के बाद काव्या उठी, फिर रैस्टोरैंट के दरवाजे की ओर चल पड़ी.

‘तुम एक बार मेरे जाल में फंसो तो सही, फिर तुम्हारे पंख ऐसे काटूंगा कि तुम उड़ने लायक ही न रहोगी,’ रंजन बुदबुदाया.

रात के 12 बजे थे. काव्या महानगर से तकरीबन 3 किलोमीटर दूर एक सुनसान जगह पर एक नई बन रही इमारत की 10वीं मंजिल की छत पर खड़ी थी. छत के चारों तरफ अभी रेलिंग नहीं बनी थी और थोड़ी सी लापरवाही बरतने के चलते छत पर खड़ा कोई शख्स छत से नीचे गिर सकता था.

काव्या ने इस समय बहुत ही भड़कीले कपड़े पहन रखे थे जिस से उस की जवानी छलक रही थी. इस समय उस की आंखों में एक हिंसक चमक उभरी हुई थी और वह जंगल में शिकार के लिए निकले किसी चीते की तरह चौकन्नी थी.

अचानक काव्या को किसी के सीढि़यों पर चढ़ने की आवाज सुनाई पड़ी. उस की आंखें सीढि़यों की ओर लग गईं.

आने वाला रंजन ही था. उस की नजर जब कयामत बनी काव्या पर पड़ी, तो उस की आंखों में हवस की तेज चमक उभरी. वह तेजी से काव्या की ओर लपका. पर उस के पहले कि वह काव्या के करीब पहुंचे, काव्या के होंठों पर एक कातिलाना मुसकान उभरी और वह उस से दूर भागी.

‘‘काव्या, मेरी बांहों में आओ,’’ रंजन उस के पीछे भागता हुआ बोला.

‘‘दम है तो पकड़ लो,’’ काव्या हंसते हुए बोली.

काव्या की इस कातिल हंसी ने रंजन की पहले से ही भड़की हुई हवस को और भड़का दिया. उस ने अपनी रफ्तार तेज की, पर काव्या की रफ्तार उस से कहीं तेज थी.

थोड़ी देर बाद हालात ये थे कि काव्या छत के किनारेकिनारे तेजी से भाग रही थी और रंजन उस का पीछा कर रहा था. पर हिरनी की तरह चंचल काव्या को रंजन पकड़ नहीं पा रहा था.

रंजन की सांसें उखड़ने लगी थीं और फिर वह एक जगह रुक कर हांफने लगा.

इस समय रंजन छत के बिलकुल किनारे खड़ा था, जबकि काव्या ठीक उस के सामने खड़ी हिंसक नजरों से उसे घूर रही थी.

अचानक काव्या तेजी से रंजन की ओर दौड़ी. इस से पहले कि रंजन कुछ समझ सके, उछल कर अपने दोनों पैरों की ठोकर रंजन की छाती पर मारी.

ठोकर लगते ही रंजन के पैर उखड़े और वह छत से नीचे जा गिरा. उस की लहराती हुई चीख उस सुनसान इलाके में गूंजी, फिर ‘धड़ाम’ की एक तेज आवाज हुई. दूसरी ओर काव्या विपरीत दिशा में छत पर गिरी थी.

काव्या कई पलों तक यों ही पड़ी रही, फिर उठ कर सीढि़यों की ओर दौड़ी. जब वह नीचे पहुंची तो रंजन को अपने ही खून में नहाया जमीन पर पड़ा पाया. उस की आंखें खुली हुई थीं और उस में खौफ और हैरानी के भाव ठहर कर रह गए थे. शायद उस ने सपने में भी नहीं सोचा था कि उस की मौत इतनी भयानक होगी.

काव्या ने नफरत भरी एक नजर रंजन की लाश पर डाली, फिर अंधेरे में गुम होती चली गई.

बदला : डाक्टर मीता की कशमकश

आपरेशन थियेटर से निकल कर डा. मीता अपने केबिन में आईं. एप्रिन उतारने के बाद उन्होंने इंटरकाम का बटन दबाते हुए पूछा, ‘‘रीना, क्या डा. दीपक का कोई फोन आया था?’’

‘‘जी, मैम, वह 2 बजे तक कानपुर से लौट आएंगे और लंच घर पर ही करेंगे,’’ इंटरकाम पर रिसेप्शनिस्ट रीना की आवाज सुनाई पड़ी.

‘‘ठीक है,’’ कह कर डा. मीता ने फोन रख दिया और घड़ी पर नजर डाली. साढ़े 12 बजे थे. वह सोचने लगीं कि

डा. दीपक के लौटने में अभी डेढ़ घंटे का समय है और इतनी देर में अस्पताल का एक राउंड लिया जा सकता है.

डा. मीता ने आज अकेले ही 3 आपरेशन किए थे, इसलिए कुछ थकावट महसूस कर रही थीं. तभी अटेंडेंट कौफी दे गया. वह कुरसी की पुश्त से टेक लगा कर कौफी की चुस्कियां लेने लगीं.

मीता और दीपक लखनऊ मेडिकल कालिज में सहपाठी थे. एम.एस. करने के बाद दोनों ने शादी कर ली थी. पहले उन्होंने अपना नर्सिंग होम लखनऊ में खोला था किंतु अचानक घटी एक दुर्घटना के कारण उन्हें लखनऊ छोड़ना पड़ गया था.

उस के बाद वे इलाहाबाद चले आए. उन की दिनरात की मेहनत के कारण 3 वर्षों में ही उन के नए नर्सिंग होम की शोहरत काफी बढ़ गई थी. डा. दीपक आज सुबह किसी जरूरी काम से कानपुर गए थे. आज के आपरेशन पूरा करने के बाद डा. मीता उन की प्रतीक्षा कर रही थीं.

अचानक बाहर कुछ शोर सुनाई पड़ा. उन्होंने अटेंडेंट को बुला कर पूछा, ‘‘यह शोर कैसा है?’’

‘‘जी…एक्सीडेंट का एक केस आया है और स्टाफ उन्हें भगा रहा है लेकिन वे लोग भाग नहीं रहे हैं,’’ अटेंडेंट ने हिचकते हुए बताया.

‘‘क्यों भगा रहे हैं? क्या तुम लोगों को पता नहीं कि हमारे नर्सिंग होम में छोटेबड़े सभी का इलाज बिना किसी भेदभाव के किया जाता है,’’ मीता का चेहरा तमतमा उठा. वह जानती थीं कि शहर के कई नर्सिंग होम तो ऐसे हैं जिन में गरीबों को घुसने भी नहीं दिया जाता है.

‘‘जी…वो…’’ अटेंडेंट हकला कर रह गया. ऐसा लग रहा था कि वह कुछ कहना चाह रहा है किंतु साहस नहीं जुटा पा रहा है.

‘‘यह क्या वो…वो…लगा रखी है,’’ डा. मीता ने अटेंडेंट को डांटा फिर पूछा, ‘‘घायल की हालत कैसी है?’’

‘‘खून काफी बह गया है और वह बेहोश है.’’

‘‘तो फौरन उसे आपरेशन थियेटर में ले चलो. मैं भी पहुंच रही हूं,’’

डा. मीता ने खड़े होते हुए आदेश दिया.

अटेंडेंट हक्काबक्का सा चंद पलों तक उन के चेहरे को देखता रहा फिर आंखें झुकाते हुए बोला, ‘‘जी, मैडम, वह विधायक उपदेश सिंह राणा हैं. नर्सिंग होम के पास ही उन की गाड़ी को एक ट्रक ने टक्कर मार दी है.’’

इतना सुनने के बाद डा. मीता को लगा जैसे कोई ज्वालामुखी फट पड़ा हो और पूरी सृष्टि हिल गई हो. वह धम्म से कुरसी पर गिर पड़ीं. अगर उन्होंने कुरसी के दोनों हत्थों को मजबूती से थाम न लिया होता तो शायद चकरा कर नीचे गिर पड़ती होतीं. उन के दिमाग पर हथौड़े बरसने लगे और सांस धौंकनी की तरह चलने लगी थी. अटेंडेंट उन की मनोदशा को समझ गया था अत: चुपचाप वहां से खिसक गया.

लगभग साढ़े 3 वर्ष पहले की बात है. उस दिन भी डा. मीता अपने पुराने नर्सिंग होम में अकेली थीं. तभी कुछ लोग गोली से बुरी तरह घायल एक व्यक्ति को ले कर आए. उस की गोली निकालने के लिए वह आपरेशन थियेटर में अभी जा ही रही थीं कि फोन की घंटी बज उठी :

‘डा. साहिबा, मैं उपदेश सिंह राणा बोल रहा हूं,’ फोन पर आवाज आई.

‘जी, कहिए,’ डा. मीता अचकचा उठीं.

उपदेश सिंह राणा शहर का आतंक था. छोटेबड़े सभी उस के नाम से थर्राते थे. उस का भला उन से क्या काम?

‘डा. साहिबा, वह मेरी गोली से तो बच गया है लेकिन आप के आपरेशन थियेटर से जिंदा वापस नहीं आना चाहिए,’ उपदेश सिंह राणा ने आदेशात्मक स्वर में कहा.

‘मैं एक डाक्टर हूं और डाक्टर के हाथ लोगों की जान बचाने के लिए उठते हैं, लेने के लिए नहीं,’ डा. मीता ने स्पष्ट इनकार कर दिया.

‘मैं आप के हाथों को बहकने की कीमत देने के लिए तैयार हूं. आप मुंह खोलिए,’ राणा ने हलका सा कहकहा लगाया.

‘आप अपना और मेरा समय बरबाद कर रहे हैं,’ राणा का प्रस्ताव सुन

डा. मीता का मन कसैला हो उठा.

‘डा. साहिबा, कुछ करने से पहले सोच लीजिएगा कि मैं महिलाओं को सिर्फ उपदेश ही नहीं देता बल्कि…’ इतना कहतेकहते राणा क्षण भर के लिए रुका फिर खतरनाक अंदाज में बोला, ‘अगर आप ने मेरे शिकार को बचाने की कोशिश की तो फिर आप का कुछ भी नहीं बच पाएगा.’

डा. मीता ने बिना कुछ कहे फोन रख दिया और आपरेशन थियेटर में घुस गईं. उस व्यक्ति की हालत बहुत खराब थी. 3 गोलियां उस की पसलियों में घुस गई थीं. 2 घंटे की कड़ी मेहनत के बाद वह गोलियां निकाल पाई थीं. अब उस की जान को कोई खतरा नहीं था.

किंतु राणा ने अपनी धमकी को सच कर दिखाया. 2 दिन बाद ही उस ने

डा. मीता का अपहरण कर उन की इज्जत लूट ली. दीपक ने बहुत भागदौड़ की लेकिन कोई नतीजा नहीं निकला. राणा गिरफ्तार हुआ किंतु 3 दिन बाद ही जमानत पर छूट गया. उस के आतंक के कारण कोई भी उस के खिलाफ गवाही देने के लिए तैयार नहीं हुआ था.

इस घटना ने डा. मीता को तोड़ कर रख दिया था. वह एक जिंदा लाश बन कर रह गई थीं. हमेशा बुत सी खामोश रहतीं. जागतीं तो भयानक साए उन्हें अपने आसपास मंडराते नजर आते. सोतीं तो स्वप्न में हजारों गिद्ध उन के शरीर को नोंचने लगते. उन की मानसिक हालत बिगड़ती जा रही थी.

मनोचिकित्सकों की सलाह पर दीपक ने वह शहर छोड़ दिया था. नए शहर के नए माहौल ने मरहम का काम किया. अतीत की यादों को करीब आने का मौका न मिल सके, इसलिए डा. दीपक अपने साथ

डा. मीता को भी मरीजों की सेवा में व्यस्त रखते. धीरेधीरे जीवन की गाड़ी एक बार फिर पटरी पर दौड़ने लगी थी. दोनों की मेहनत और लगन से इन चंद वर्षों में ही उन के नर्सिंग होम का काफी नाम हो गया था.

इन चंद वर्षों में और भी बहुत कुछ बदल चुका था. अपने आतंक और बूथ कैप्चरिंग के दम पर शहर का दुर्दांत गुंडा उपदेश सिंह राणा दबंग विधायक बन चुका था. अब इसे समय का क्रूर मजाक ही कहा जाए कि डा. मीता की जिंदगी बरबाद करने वाले दरिंदे उपदेश सिंह राणा की जिंदगी बचाने के लिए लोग आज उसे उन की ही शरण में ले आए थे.

डा. मीता की आंखों के सामने उस दिन के दृश्य कौंध गए जब वह गिड़गिड़ाते हुए उस शैतान से दया की भीख मांग रही थी और वह हैवानियत का नंगा नाच नाच रहा था. वह अपने डाक्टरी पेशे की मर्यादा और कर्तव्यनिष्ठा की दुहाई दे रही थीं और वह उन की इज्जत की चादर को तारतार किए दे रहा था. वह रोती रहीं, बिलखती रहीं, तड़पती रहीं पर उस नरपिशाच ने उन की अंतर आत्मा तक को अंगारों से दाग दिया था.

सोचतेसोचते डा. मीता के जबड़े भिंच गए और आंखों से चिंगारियां फूटने लगीं. बाहर बढ़ रहे शोर के कारण उन की उत्तेजना बढ़ती जा रही थी. क्रोध की अधिकता के चलते वह हांफने सी लगीं. व्याकुलता जब बरदाश्त से बाहर हो गई तो उन्होंने सामने रखा पेपरवेट उठा कर दीवार पर दे मारा. पर न तो पेपरवेट टूटा और न ही दीवार टस से मस हुई.

पेपरवेट फर्श पर गिर कर गोलगोल घूमने लगा. डा. मीता की दृष्टि उस पर ठहर सी गई. पेपरवेट के स्थिर होने पर उन्होंने अपनी दृष्टि ऊपर उठाई. उन में दृढ़ता के चिह्न छाए हुए थे. ऐसा लग रहा था कि वह कुछ कर गुजरने का फैसला कर चुकी हैं.

इंटरकाम का बटन दबाते हुए डा. मीता ने पूछा, ‘‘रीना, घायल को आपरेशन थियेटर में पहुंचा दिया गया है या नहीं?’’

‘‘नहीं.’’

‘‘क्यों?’’

‘‘जी…वो…दरअसल…स्टाफ कह… रहा है…कि…’’ रिसेप्शनिस्ट झिझक के कारण अपनी बात कह नहीं पा रही थी.

‘‘तुम लोग सिर्फ वह करो जो कहा जा रहा है. बाकी क्या करना है, मैं जानती हूं,’’ डा. मीता ने सर्द स्वर में आदेश दिया और आपरेशन थियेटर की ओर चल दीं.

अचानक उन्हें कुछ याद आया. वापस लौट कर उन्होंने इंटरकाम का बटन दबाते हुए कहा, ‘‘रीना, मैं उस आदमी का चेहरा नहीं देख सकती. नर्स से कहो कि आपरेशन टेबल पर पहुंचाने से पहले उस का मुंह किसी कपड़े से बांध दे या ठीक से ढंक दे.’’

इतना कह कर बिना उत्तर की प्रतीक्षा किए डा. मीता तेजी से आपरेशन थियेटर की ओर चली गईं. घायल के भीतर जाते ही आपरेशन थियेटर का दरवाजा बंद हो गया और उस पर लगा लाल बल्ब जल उठा.

टिक…टिक…टिक…की ध्वनि के साथ घड़ी की सूइयां आगे बढ़ती जा रही थीं. इसी के साथ आपरेशन कक्ष के बाहर खड़े स्टाफ के दिल की धड़कनें बढ़ती जा रही थीं. आपरेशन कक्ष के दरवाजे को बंद हुए 2 घंटे से अधिक समय बीत चुका था. भीतर डा. मीता क्या कर रही होंगी इस का अंदाजा होते हुए भी कोई सचाई को अपने होंठों तक नहीं लाना चाहता था.

डा. दीपक 3 बजे लौट आए. भीतर घुसते ही उन्होंने एक वार्ड बौय से पूछा, ‘‘डा. मीता कहां हैं?’’

‘‘थोड़ी देर पहले उन्होंने एक घायल का आपरेशन किया था. उस के बाद…’’ वार्ड बौय कुछ कहतेकहते रुक गया.

‘‘उस के बाद क्या?’’

‘‘उस के बाद वह उसे अपना खून दे रही हैं, क्योंकि उस का ब्लड गु्रप ‘ओ निगेटिव’ है और वह कहीं मिल नहीं सका,’’ वार्ड बौय ने हिचकिचाते हुए बताया.

‘‘ऐसा कौन सा खास मरीज आ गया है जिसे डा. मीता को खुद अपना खून देने की जरूरत आ पड़ी?’’

डा. दीपक ने उत्सुकता से पूछा.

‘‘जी…विधायक उपदेश सिंह राणा हैं.’’

‘‘तुझे होश भी है कि तू क्या कह रहा है?’’ वार्ड बौय का गिरेबान पकड़ डा. दीपक चीख पड़े.

‘‘सर, हम लोग उसे नर्सिंग होम से भगा रहे थे लेकिन मैडम ने जबरन बुला कर उस का आपरेशन किया और अब उसे अपना खून भी दे रही हैं,’’ तब तक  वहां जमा हो चुके कर्मचारियों में से एक ने हिम्मत कर के बताया.

डा. दीपक ने उसे घूर कर देखा फिर बिना कुछ कहे अपने केबिन की ओर चले गए. उन की समझ में नहीं आ रहा था कि आखिर मीता ने ऐसा क्यों किया. क्या किसी ने मीता को इस के लिए मजबूर किया था या कोई और कारण था? सोचतेसोचते डा. दीपक के दिमाग की नसें फटने लगीं लेकिन वह अपने प्रश्नों के उत्तर नहीं खोज सके.

थोड़ी देर बाद डा. मीता ने वहां प्रवेश किया. उन का चेहरा पत्थर की भांति भावनाशून्य था. डा. दीपक ने आगे बढ़ उन की बांह थाम कांपते स्वर में पूछा, ‘‘मीता…तुम ने… उस की जान क्यों बचाई?’’

‘‘हम लोग डाक्टर हैं. हमारा काम ही लोगों की जान बचाना है,’’ डा. मीता के होंठों ने स्पंदन किया.

डा. दीपक ने पत्नी की बांहों को छोड़ चंद पलों तक उस के चेहरे की ओर देखा फिर मुट्ठियां भींचते हुए बोले, ‘‘लेकिन क्या उस का आपरेशन करते समय तुम्हारे हाथ नहीं कांपे थे?’’

‘‘अगर हाथ कांप जाते तो हम में और सामान्य लोगों में क्या फर्क रह जाता,’’ डा. मीता ने धीमे स्वर में कहा. उन का चेहरा पूर्ववत भावनाशून्य था.

‘‘हम इनसान हैं मीता, इनसान,’’ डा. दीपक तड़प उठे.

‘‘मैं ने इनसानियत का ही फर्ज निभाया है,’’ डा. मीता के होंठ यंत्रवत हिले.

‘‘फर्ज निभाने का शौक था तो निभा लेतीं, महानता की चादर ओढ़ने का शौक था तो ओढ़ लेतीं, लेकिन अपना खून चूसने वाले को अपना खून तो न देतीं,’’

डा. दीपक मेज पर घूंसा मारते हुए चीख पड़े.

डा. मीता ने कोई उत्तर नहीं दिया.

दीपक ने आगे बढ़ कर उन के चेहरे को अपने दोनों हाथों में भर लिया और उन की आंखों में झांकते हुए बोले, ‘‘मीता, प्लीज, मुझे बताओ ऐसी क्या मजबूरी थी जो तुम ने उस दरिंदे की जान बचाई? क्या किसी ने तुम्हें फिर धमकी दी थी?’’

डा. मीता ने अपनी आंखें बंद कर लीं पर उन्हें देख कर ऐसा लग रहा था  मानो वह सप्रयास अपने को कुछ कहने से रोक रही हैं.

‘‘मैडम, उस मरीज को होश आ गया,’’ तभी एक नर्स ने वहां आ कर बताया.

डा. मीता के भीतर जैसे कोई शक्ति समा गई हो. दीपक को परे धकेल वह आंधीतूफान की तरह भागते हुए वार्ड की ओर दौड़ पड़ीं. भौचक्के से डा. दीपक अपने को संभालते हुए पीछेपीछे दौड़े.

उपदेश सिंह राणा को अब तक उन के पास खड़े पुलिस वालों ने बता दिया था कि जिस लेडी डाक्टर ने उन का आपरेशन किया था उसी ने उन्हें अपना खून भी दिया है क्योंकि उन के गु्रप का खून किसी ब्लड बैंक में उपलब्ध न था.

‘‘वह महान डाक्टर कौन हैं. मैं उन के दर्शन करना चाहता हूं,’’ राणा ने कराहते हुए कहा.

‘‘लो, वह आ गईं,’’ एक पुलिस वाले ने वार्ड के भीतर आ रही डा. मीता की ओर इशारा किया.

उन पर दृष्टि पड़ते ही राणा को ऐसा झटका लगा जैसे किसी को करंट लग गया हो. घबरा कर उस ने उठना चाहा लेकिन कमजोरी के कारण हिल भी न सका.

‘‘इन्होंने ही आप की जान बचाई है. जीवन भर इन के चरण धो कर पीजिएगा तब भी आप इस ऋण से उऋण नहीं हो सकेंगे,’’ दूसरे पुलिस वाले ने बताया.

पल भर के लिए राणा को अपने कानों पर विश्वास नहीं हुआ किंतु सत्य अपने पूरे वजूद के साथ सामने उपस्थित था. राणा की आंखों के सामने उस दिन के दृश्य कौंधने लगे जब रोती हुई

डा. मीता हाथ जोड़जोड़ कर विनती कर रही थीं कि उन्होंने सिर्फ एक डाक्टर के फर्ज का पालन किया है किंतु वह उन की एक नहीं सुन रहा था.

आज एक बार फिर उन्होंने सबकुछ भुला कर एक डाक्टर के फर्ज को पूरा किया है. तभी उस की सासें शेष बच पाई हैं.  राणा के भीतर उन से आंख मिलाने का साहस नहीं बचा था. उन के विराट व्यक्तित्व के आगे वह अपने को बहुत छोटा महसूस कर रहा था.

बहुत मुश्किल से अपनी पूरी शक्ति को बटोर कर राणा, ने अपने हाथों को जोड़ा और कांपते स्वर में बोला, ‘‘डाक्टर साहिबा, मुझे माफ कर दीजिए.’’

‘‘माफ और तुम्हें,’’ डा. मीता दांत भींचते हुए चीख पड़ीं, ‘‘राणा, तुम ने मेरे साथ जो किया था उस के बाद मैं तो क्या दुनिया की कोई भी औरत मरते दम तक तुम्हें माफ नहीं कर सकती.’’

चीख सुन कर पूरे वार्ड में सन्नाटा छा गया. किसी में भी उसे भंग करने का साहस न था. अपनी ओर डा. मीता को आता देख कर राणा ने एक बार फिर अपनी बिखरती हुई सांसों को बटोरा और लड़खड़ाते स्वर में बोला, ‘‘आप ने जो एहसान किया है मैं उसे कभी…’’

‘‘मैं ने कोई एहसान नहीं किया है तुम पर,’’ डा. मीता राणा की बात को बीच में काट कर फिर चीख पड़ीं, ‘‘तुम क्या समझते हो अपनेआप को? सर्वशक्तिमान? जो जिस की जिंदगी से जब चाहे खेल लेगा? तुम ने मेरी जिंदगी से खेला था, आज मैं ने तुम्हारी जिंदगी से खेला है. मेरे जिस खून को तुम ने अपवित्र किया था आज वही खून तुम्हारी रगों में दौड़ रहा है. तुम चाह कर भी उसे अपने शरीर से अलग नहीं कर सकते. जब तक जीवित रहोगे यह एहसास तुम्हें कचोटता रहेगा कि तुम्हारी जिंदगी मेरी दी हुई भीख है.

‘‘कमजोर समझ कर जिस नारी के चंद पलों को तुम ने रौंदा था उस के रक्त के चंद कतरे अब हर पल तुम्हारे स्वाभिमान को रौंदते रहेंगे. तुम्हारा रोमरोम तुम्हारे गुनाहों के लिए तुम्हें धिक्कारेगा लेकिन तुम्हें दया की भीख नहीं मिलेगी. जब तक जीवित रहोगे, राणा, तुम प्रायश्चित की आग में जलते रहोगे लेकिन तुम्हें शांति नहीं मिलेगी. यही मेरा प्रतिशोध है.’’

डा. मीता के मुंह से निकला एकएक शब्द गोली की तरह राणा के दिल और दिमाग को छेदे जा रहा था. गुनाहों के बोझ तले दबी उस की अंतर आत्मा में कुछ कहने की शक्ति नहीं बची थी. उस की कायरता बेबसी बन उस की आंखों से छलक पड़ी.

राणा के आंसुओं ने अग्निकुंड में घी का काम किया. डा. मीता गरजते हुए बोलीं, ‘‘इस से पहले कि मेरे अंदर की नारी, डाक्टर को पीछे ढकेल कर सामने आ जाए और मैं तुम्हारा खून कर दूं, दूर हो जाओ मेरी नजरों से. चले जाओ यहां से.’’

हतप्रभ डा. दीपक अब तक चुपचाप खड़े थे. उन्होंने पुलिस वालों को इशारा किया तो वे राणा के बेड को धकेलते हुए बाहर ले जाने लगे.

डा. मीता हिचकियां भरती हुई पूरी शक्ति से डा. दीपक के चौड़े सीने से लिपट गईं. उन्होंने उन्हें अपनी बांहों में यों संभाल लिया जैसे किसी वृक्ष की शाखाएं नन्हे घोंसले को संभाल लेती हैं.

मसीहा: शांति की लगन

दोपहर का खाना खा कर लेटे ही थे कि डाकिया आ गया. कई पत्रों के बीच राजपुरा से किसी शांति नाम की महिला का एक रजिस्टर्ड पत्र 20 हजार रुपए के ड्राफ्ट के साथ था. उत्सुकतावश मैं एक ही सांस में पूरा पत्र पढ़ गई, जिस में उस महिला ने अपने कठिनाई भरे दौर में हमारे द्वारा दिए गए इन रुपयों के लिए धन्यवाद लिखा था और आज 10 सालों के बाद वे रुपए हमें लौटाए थे. वह खुद आना चाहती थी पर यह सोच कर नहीं आई कि संभवत: उस के द्वारा लौटाए जाने पर हम वह रुपए वापस न लें.

पत्र पढ़ने के बाद मैं देर तक उस महिला के बारे में सोचती रही पर ठीक से कुछ याद नहीं आ रहा था.

‘‘अरे, सुमि, शांति कहीं वही लड़की तो नहीं जो बरसों पहले कुछ समय तक मुझ से पढ़ती रही थी,’’ मेरे पति अभिनव अतीत को कुरेदते हुए बोले तो एकाएक मुझे सब याद आ गया.

उन दिनों शांति अपनी मां बंती के साथ मेरे घर का काम करने आती थी. एक दिन वह अकेली ही आई. पूछने पर पता चला कि उस की मां की तबीयत ठीक नहीं है. 2-3 दिन बाद जब बंती फिर काम पर आई तो बहुत कमजोर दिख रही थी. जैसे ही मैं ने उस का हाल पूछा वह अपना काम छोड़ मेरे सामने बैठ कर रोने लगी. मैं हतप्रभ भी और परेशान भी कि अकारण ही उस की किस दुखती रग पर मैं ने हाथ रख दिया.

बंती ने बताया कि उस ने अब तक के अपने जीवन में दुख और अभाव ही देखे हैं. 5 बेटियां होने पर ससुराल में केवल प्रताड़ना ही मिलती रही. बड़ी 4 बेटियों की तो किसी न किसी तरह शादी कर दी है. बस, अब तो शांति को ब्याहने की ही चिंता है पर वह पढ़ना चाहती है.

बंती कुछ देर को रुकी फिर आगे बोली कि अपनी मेहनत से शांति 10वीं तक पहुंच गई है पर अब ट्यूशन की जरूरत पड़ेगी जिस के लिए उस के पास पैसा नहीं है. तब मैं ने अभिनव से इस बारे में बात की जो उसे निशुल्क पढ़ाने के लिए तैयार हो गए. अपनी लगन व परिश्रम से शांति 10वीं में अच्छे नंबरों में पास हो गई. उस के बाद उस ने सिलाईकढ़ाई भी सीखी. कुछ समय बाद थोड़ा दानदहेज जोड़ कर बंती ने उस के हाथ पीले कर दिए.

अभी शांति की शादी हुए साल भर बीता था कि वह एक बेटे की मां बन गई. एक दिन जब वह अपने बच्चे सहित मुझ से मिलने आई तो उस का चेहरा देख मैं हैरान हो गई. कहां एक साल पहले का सुंदरसजीला लाल जोड़े में सिमटा खिलाखिला शांति का चेहरा और कहां यह बीमार सा दिखने वाला बुझाबुझा चेहरा.

‘क्या बात है, बंती, शांति सुखी तो है न अपने घर में?’ मैं ने सशंकित हो पूछा.

व्यथित मन से बंती बोली, ‘लड़कियों का क्या सुख और क्या दुख बीबी, जिस खूंटे से बांध दो बंधी रहती हैं बेचारी चुपचाप.’

‘फिर भी कोई बात तो होगी जो सूख कर कांटा हो गई है,’ मेरे पुन: पूछने पर बंती तो खामोश रही पर शांति ने बताया, ‘विवाह के 3-4 महीने तक तो सब ठीक रहा पर धीरेधीरे पति का पाशविक रूप सामने आता गया. वह जुआरी और शराबी था. हर रात नशे में धुत हो घर लौटने पर अकारण ही गालीगलौज करता, मारपीट करता और कई बार तो मुझे आधी रात को बच्चे सहित घर से बाहर धकेल देता. सासससुर भी मुझ में ही दोष खोजते हुए बुराभला कहते. मैं कईकई दिन भूखीप्यासी पड़ी रहती पर किसी को मेरी जरा भी परवा नहीं थी. अब तो मेरा जीवन नरक समान हो गया है.’

उस रात मैं ठीक से सो नहीं पाई. मानव मन भी अबूझ होता है. कभीकभी तो खून के रिश्तों को भी भीड़ समझ उन से दूर भागने की कोशिश करता है तो कभी अनाम रिश्तों को अकारण ही गले लगा उन के दुखों को अपने ऊपर ओढ़ लेता है. कुछ ऐसा ही रिश्ता शांति से जुड़ गया था मेरा.

अगले दिन जब बंती काम पर आई तो मैं उसे देर तक समझाती रही कि शांति पढ़ीलिखी है, सिलाईकढ़ाई जानती है, इसलिए वह उसे दोबारा उस के ससुराल न भेज कर उस की योग्यता के आधार पर उस से कपड़े सीने का काम करवाए. पति व ससुराल वालों के अत्याचारों से छुटकारा मिल सके मेरे इस सुझाव पर बंती ने कोई उत्तर नहीं दिया और चुपचाप अपना काम समाप्त कर बोझिल कदमों से घर लौट गई.

एक सप्ताह बाद पता चला कि शांति को उस की ससुराल वाले वापस ले गए हैं. मैं कर भी क्या सकती थी, ठगी सी बैठी रह गई.

देखते ही देखते 2 साल बीत गए. इस बीच मैं ने बंती से शांति के बारे में कभी कोई बात नहीं की पर एक दिन शांति के दूसरे बेटे के जन्म के बारे में जान कर मैं बंती पर बहुत बिगड़ी कि आखिर उस ने शांति को ससुराल भेजा ही क्यों? बंती अपराधबोध से पीडि़त हो बिलखती रही पर निर्धनता, एकाकीपन और अपने असुरक्षित भविष्य को ले कर वह शांति के लिए करती भी तो क्या? वह तो केवल अपनी स्थिति और सामाजिक परिवेश को ही कोस सकती थी, जहां निम्नवर्गीय परिवार की अधिकांश स्त्रियों की स्थिति पशुओं से भी गईगुजरी होती है.

पहले तो जन्म लेते ही मातापिता के घर लड़की होने के कारण दुत्कारी जाती हैं और विवाह के बाद अर्थी उठने तक ससुराल वालों के अत्याचार सहती हैं. भोग की वस्तु बनी निरंतर बच्चे जनती हैं और कीड़ेमकोड़ों की तरह हर पल रौंदी जाती हैं, फिर भी अनवरत मौन धारण किए ऐसे यातना भरे नारकीय जीवन को ही अपनी तकदीर मान जीने का नाटक करते हुए एक दिन चुपचाप मर जाती हैं.

शांति के साथ भी तो यही सब हो रहा था. ऐसी स्थिति में ही वह तीसरी बार फिर मां बनने को हुई. उसे गर्भ धारण किए अभी 7 महीने ही हुए थे कि कमजोरी और कई दूसरे कारणों के चलते उस ने एक मृत बच्चे को जन्म दिया. इत्तेफाक से उन दिनों वह बंती के पास आई हुई थी. तब मैं ने शांति से परिवार नियोजन के बारे में बात की तो बुझे स्वर में उस ने कहा कि फैसला करने वाले तो उस की ससुराल वाले हैं और उन का विचार है कि संतान तो भगवान की देन है इसलिए इस पर रोक लगाना उचित नहीं है.

मेरे बारबार समझाने पर शांति ने अपने बिगड़ते स्वास्थ्य और बच्चों के भविष्य को देखते हुए मेरी बात मान ली और आपरेशन करवा लिया. यों तो अब मैं संतुष्ट थी फिर भी शांति की हालत और बंती की आर्थिक स्थिति को देखते हुए परेशान भी थी. मेरी परेशानी को भांपते हुए मेरे पति ने सहज भाव से 20 हजार रुपए शांति को देने की बात कही ताकि पूरी तरह स्वस्थ हो जाने के बाद वह इन रुपयों से कोई छोटामोटा काम शुरू कर के अपने पैरों पर खड़ी हो सके. पति की यह बात सुन मैं कुछ पल को समस्त चिंताओं से मुक्त हो गई.

अगले ही दिन शांति को साथ ले जा कर मैं ने बैंक में उस के नाम का खाता खुलवा दिया और वह रकम उस में जमा करवा दी ताकि जरूरत पड़ने पर वह उस का लाभ उठा सके.

अभी इस बात को 2-4 दिन ही बीते थे कि हमें अपनी भतीजी की शादी में हैदराबाद जाना पड़ा. 15-20 दिन बाद जब हम वापस लौटे तो मुझे शांति का ध्यान हो आया सो बंती के घर चली गई, जहां ताला पड़ा था. उस की पड़ोसिन ने शांति के बारे में जो कुछ बताया उसे सुन मैं अवाक् रह गई.

हमारे हैदराबाद जाने के अगले दिन ही शांति का पति आया और उसे बच्चों सहित यह कह कर अपने घर ले गया कि वहां उसे पूरा आराम और अच्छी खुराक मिल पाएगी जिस की उसे जरूरत है. किंतु 2 दिन बाद ही यह खबर आग की तरह फैल गई कि शांति ने अपने दोनों बच्चों सहित भाखड़ा नहर में कूद कर जान दे दी है. तब से बंती का भी कुछ पता नहीं, कौन जाने करमजली जीवित भी है या मर गई.

कैसी निढाल हो गई थी मैं उस क्षण यह सब जान कर और कई दिनों तक बिस्तर पर पड़ी रही थी. पर आज शांति का पत्र मिलने पर एक सुखद आश्चर्य का सैलाब मेरे हर ओर उमड़ पड़ा है. साथ ही कई प्रश्न मुझे बेचैन भी करने लगे हैं जिन का शांति से मिल कर समाधान चाहती हूं.

जब मैं ने अभिनव से अपने मन की बात कही तो मेरी बेचैनी को देखते हुए वह मेरे साथ राजपुरा चलने को तैयार हो गए. 1-2 दिन बाद जब हम पत्र में लिखे पते के अनुसार शांति के घर पहुंचे तो दरवाजा एक 12-13 साल के लड़के ने खोला और यह जान कर कि हम शांति से मिलने आए हैं, वह हमें बैठक में ले गया. अभी हम बैठे ही थे कि वह आ गई. वही सादासलोना रूप, हां, शरीर पहले की अपेक्षा कुछ भर गया था. आते ही वह मेरे गले से लिपट गई. मैं कुछ देर उस की पीठ सहलाती रही, फिर भावावेश में डूब बोली, ‘‘शांति, यह कैसी बचकानी हरकत की थी तुम ने नहर में कूद कर जान देने की. अपने बच्चों के बारे में भी कुछ नहीं सोचा, कोई ऐसा भी करता है क्या? बच्चे तो ठीक हैं न, उन्हें कुछ हुआ तो नहीं?’’

बच्चों के बारे में पूछने पर वह एकाएक रोने लगी. फिर भरे गले से बोली, ‘‘छुटका नहीं रहा आंटीजी, डूब कर मर गया. मुझे और सतीश को किनारे खड़े लोगों ने किसी तरह बचा लिया. आप के आने पर जिस ने दरवाजा खोला था, वह सतीश ही है.’’

इतना कह वह चुप हो गई और कुछ देर शून्य में ताकती रही. फिर उस ने अपने अतीत के सभी पृष्ठ एकएक कर के हमारे सामने खोल कर रख दिए.

उस ने बताया, ‘‘आंटीजी, एक ही शहर में रहने के कारण मेरी ससुराल वालों को जल्दी ही पता चल गया कि मैं ने परिवार नियोजन के उद्देश्य से अपना आपरेशन करवा लिया है. इस पर अंदर ही अंदर वे गुस्से से भर उठे थे पर ऊपरी सहानुभूति दिखाते हुए दुर्बल अवस्था में ही मुझे अपने साथ वापस ले गए.

‘‘घर पहुंच कर पति ने जम कर पिटाई की और सास ने चूल्हे में से जलती लकड़ी निकाल पीठ दाग दी. मेरे चिल्लाने पर पति मेरे बाल पकड़ कर खींचते हुए कमरे में ले गया और चीखते हुए बोला, ‘तुझे बहुत पर निकल आए हैं जो तू अपनी मनमानी पर उतर आई है. ले, अब पड़ी रह दिन भर भूखीप्यासी अपने इन पिल्लों के साथ.’ इतना कह उस ने आंगन में खेल रहे दोनों बच्चों को बेरहमी से ला कर मेरे पास पटक दिया और दरवाजा बाहर से बंद कर चला गया.

‘‘तड़पती रही थी मैं दिन भर जले के दर्द से. आपरेशन के टांके कच्चे होने के कारण टूट गए थे. बच्चे भूख से बेहाल थे, पर मां हो कर भी मैं कुछ नहीं कर पा रही थी उन के लिए. इसी तरह दोपहर से शाम और शाम से रात हो गई. भविष्य अंधकारमय दिखने लगा था और जीने की कोई लालसा शेष नहीं रह गई थी.

‘‘अपने उन्हीं दुर्बल क्षणों में मैं ने आत्महत्या कर लेने का निर्णय ले लिया. अभी पौ फटी ही थी कि दोनों सोते बच्चों सहित मैं कमरे की खिड़की से, जो बहुत ऊंची नहीं थी, कूद कर सड़क पर तेजी से चलने लगी. घर से नहर ज्यादा दूर नहीं थी, सो आत्महत्या को ही अंतिम विकल्प मान आंखें बंद कर बच्चों सहित उस में कूद गई. जब होश आया तो अपनेआप को अस्पताल में पाया. सतीश को आक्सीजन लगी हुई थी और छुटका जीवनमुक्त हो कहीं दूर बह गया था.

‘‘डाक्टर इस घटना को पुलिस केस मान बारबार मेरे घर वालों के बारे में पूछताछ कर रहे थे. मैं इस बात से बहुत डर गई थी क्योंकि मेरे पति को यदि मेरे बारे में कुछ भी पता चल जाता तो मैं पुन: उसी नरक में धकेल दी जाती, जो मैं चाहती नहीं थी. तब मैं ने एक सहृदय

डा. अमर को अपनी आपबीती सुनाते हुए उन से मदद मांगी तो मेरी हालत को देखते हुए उन्होंने इस घटना को अधिक तूल न दे कर जल्दी ही मामला रफादफा करवा दिया और मैं पुलिस के चक्करों  में पड़ने से बच गई.

‘‘अब तक डा. अमर मेरे बारे में सबकुछ जान चुके थे इसलिए वह मुझे बेटे सहित अपने घर ले गए, जहां उन की मां ने मुझे बहुत सहारा दिया. सप्ताह  भर मैं उन के घर रही. इस बीच डाक्टर साहब ने आप के द्वारा दिए उन 20 हजार रुपयों की मदद से यहां राजपुरा में हमें एक कमरा किराए पर ले कर दिया. साथ ही मेरे लिए सिलाई का सारा इंतजाम भी कर दिया. पर मुझे इस बात की चिंता थी कि मेरे सिले कपड़े बिकेंगे कैसे?

‘‘इस बारे में जब मैं ने डा. अमर से बात की तो उन्होंने मुझे एक गैरसरकारी संस्था के अध्यक्ष से मिलवाया जो निर्धन व निराश्रित स्त्रियों की सहायता करते थे. उन्होंने मुझे भी सहायता देने का आश्वासन दिया और मेरे द्वारा सिले कुछ वस्त्र यहां के वस्त्र विके्रताओं को दिखाए जिन्होंने मुझे फैशन के अनुसार कपड़े सिलने के कुछ सुझाव दिए.

‘‘मैं ने उन के सुझावों के मुताबिक कपड़े सिलने शुरू कर दिए जो धीरेधीरे लोकप्रिय होते गए. नतीजतन, मेरा काम दिनोंदिन बढ़ता चला गया. आज मेरे पास सिर ढकने को अपनी छत है और दो वक्त की इज्जत की रोटी भी नसीब हो जाती है.’’

इतना कह शांति हमें अपना घर दिखाने लगी. छोटा सा, सादा सा घर, किंतु मेहनत की गमक से महकता हुआ.  सिलाई वाला कमरा तो बुटीक ही लगता था, जहां उस के द्वारा सिले सुंदर डिजाइन के कपड़े टंगे थे.

हम दोनों पतिपत्नी, शांति की हिम्मत, लगन और प्रगति देख कर बेहद खुश हुए और उस के भविष्य के प्रति आश्वस्त भी. शांति से बातें करते बहुत समय बीत चला था और अब दोपहर ढलने को थी इसलिए हम पटियाला वापस जाने के लिए उठ खड़े हुए. चलने से पहले अभिनव ने एक लिफाफा शांति को थमाते हुए कहा, ‘‘बेटी, ये वही रुपए हैं जो तुम ने हमें लौटाए थे. मैं अनुमान लगा सकता हूं कि किनकिन कठिनाइयों को झेलते हुए तुम ने ये रुपए जोड़े होंगे. भले ही आज तुम आत्मनिर्भर हो गई हो, फिर भी सतीश का जीवन संवारने का एक लंबा सफर तुम्हारे सामने है. उसे पढ़ालिखा कर स्वावलंबी बनाना है तुम्हें, और उस के लिए बहुत पैसा चाहिए. यह थोड़ा सा धन तुम अपने पास ही रखो, भविष्य में सतीश के काम आएगा. हां, एक बात और, इन पैसों को ले कर कभी भी अपने मन पर बोझ न रखना.’’

अभिनव की बात सुन कर शांति कुछ देर चुप बैठी रही, फिर धीरे से बोली, ‘‘अंकलजी, आप ने मेरे लिए जो किया वह आज के समय में दुर्लभ है. आज मुझे आभास हुआ है कि इस संसार में यदि मेरे पति जैसे राक्षसी प्रवृत्ति के लोग हैं तो

डा. अमर और आप जैसे महान लोग भी हैं जो मसीहा बन कर आते हैं और हम निर्बल और असहाय लोगों का संबल बन उन्हें जीने की सही राह दिखाते हैं.’’

इतना कह सजल नेत्रों से हमारा आभार प्रकट करते हुए वह अभिनव के चरणों में झुक गई.     द्य

अपना बेटा -भाग 1 : मामाजी को देख क्यों परेशान हो उठे अंजलि और मुकेश

लेखक-  गुरप्रीत कौर

अंजलि ने सुबह उठते ही मुकेश को बताया कि रात जब वह सो चुके थे तो मामाजी का फोन आया था कि वह कल घर आ रहे हैं.

मुकेश यह जान कर हैरान हो गया. सालों पहले जिस मामाजी ने उस से रिश्ता तोड़ लिया था वे अचानक यहां क्यों आ रहे हैं. क्या उन्हें हम से कोई काम है या उन के दिमाग में फिर से टूटे हुए रिश्तों को जोड़ने की बात आ गई है. इसी उधेड़बुन में पड़ा वह अतीत की यादों में खो गया.

मुकेश को याद आया कि जब इंजीनियरिंग का कोर्स करने के लिए उसे दिल्ली जाना पड़ा था तो मम्मीपापा ने होस्टल में रखने के बदले उसे मामा के यहां रखना ज्यादा बेहतर समझा था. उस समय मामाजी की शादी को 2 साल ही बीते थे. उन का एक ही बच्चा था.

मुकेश ने इंजीनियरिंग पास कर ली थी. उस की भी शादी हो गई. अब तक मामाजी के 3 बच्चे हो चुके थे जबकि मुकेश के शादी के 5 साल बाद तक भी कोई बच्चा नहीं हुआ और मामी अगले बच्चे की तैयारी में थीं.

मुकेश एक बच्चे को गोद लेना चाहता था और मामाजी चाहते थे कि उन के आने वाले बच्चे को वह गोद ले ले. मामा के इस प्रस्ताव में मुकेश के मातापिता की भी सहमति थी लेकिन मुकेश व अंजलि इस पक्ष में नहीं थे कि मामा के बच्चों को गोद लिया जाए. इस बात को ले कर मामा और भांजे के बीच का रिश्ता जो टूटा तो आज तक मामा ने अपनी शक्ल उन को नहीं दिखाई.

मुकेश अपने एहसान का बदला चुकाने के लिए या समझो रिश्ता बनाए रखने के बहाने से मामा के बच्चों को उपहार भेजता रहता था. मामा ने उस के भेजे महंगे उपहारों को कभी लौटाया नहीं पर बदले में कभी धन्यवाद भी लिख कर नहीं भेजा.

अतीत की यादों से निकल कर मुकेश तैयार हो कर अपने दफ्तर चला गया. शाम को लौटा तो देखा अंजलि परेशान थी. उस के चेहरे पर अजीब सी मायूसी छाई थी. दोनों बेटों, गगन और रजत को वहां न पा कर वह और भी घबरा सा गया. हालांकि मुकेश समझ रहा था, पर क्या पूछता? जवाब तो वह भी जानता ही था.

अंजलि चाह रही थी कि वह दोनों बेटों को कहीं भेज दे ताकि मामाजी की नीयत का पता चल जाए. उस के बाद बेटों को बुलाए.

मुकेश इस के लिए तैयार नहीं था. उस का मानना था कि बच्चे जवान हो रहे हैं. उन से किसी बात को छिपाया नहीं जाना चाहिए. इसीलिए अंजलि के लाख मना करने के बाद भी मुकेश ने गगन- रजत को बता दिया कि कल यहां मेरे मामाजी आ रहे हैं. दोनों बच्चे पहले तो यह सुन कर हैरान रह गए कि पापा के कोई मामाजी भी हैं क्योंकि उन्होंने तो केवल दादाजी को ही देखा है पर दादी के भाई का तो घर में कभी जिक्र भी नहीं हुआ.

इस के बाद तो गगन और रजत ने अपने पापा के सामने प्रश्नों की झड़ी लगा दी कि मामाजी का घर कहां है, उन के कितने बच्चे हैं, क्याक्या करते हैं, क्या मामाजी के बच्चे भी आ रहे हैं आदिआदि.

मुकेश बेहद संभल कर बच्चों के हर सवाल का जवाब देता रहा. अंजलि परेशान हो बेडरूम में चली गई.

अंजलि और मुकेश दोनों ही रात भर यह सोच कर परेशान रहे कि पता नहीं मामाजी क्या करने आ रहे हैं और कैसा व्यवहार करेंगे.

सुबह अंजलि ने गगन और रजत को यह कह कर स्कूल भेज दिया कि तुम दोनों की परीक्षा नजदीक है, स्कूल जाओ.

इधर मुकेश मामाजी को लेने स्टेशन गया उधर अंजलि दोपहर का खाना बनाने के लिए रसोई में चली गई. अंजलि ने सारा खाना बना लिया लेकिन मामाजी को ले कर वह अभी तक लौटा नहीं. वह अभी यही सोच रही थी कि दरवाजे की घंटी घनघना उठी और इसी के साथ उस का दिल धक से कर गया.

मुकेश ही था, पीछेपीछे मामाजी अकेले आ रहे थे. अंजलि ने उन के पांव छुए. मामाजी ने हालचाल पूछा फिर आराम से बैठ गए और सामान्य बातें करते रहे. उन्होंने चाय पी. खाना खाया. कोई लड़ाई वाली बात ही नहीं, कोई शक की बात नहीं लग रही थी. ऐसा लगा मानो उन के बीच कभी कोई लड़ाई थी ही नहीं. अंजलि जितना पहले डर रही थी उतना ही वह अब निश्चिंत हो रही थी.

खाना खा कर बिस्तर पर लेटते हुए मामाजी बोले, ‘‘पता नहीं क्यों कुछ दिनों से तुम लोगों की बहुत याद आ रही थी. जब रहा नहीं गया तो बच्चों से मिलने चला आया. सोचा, इसी बहाने यहां अपने राहुल के लिए लड़की देखनी है, वह भी देख आऊंगा,’’ फिर हंसते हुए बोले, ‘‘आधा दर्जन बच्चे हैं, अभी से शादी करना शुरू करूंगा तभी तो रिटायर होने तक सब को निबटा पाऊंगा.’’

अंजलि ने देखा कि मामाजी की बातों में कोई वैरभाव नहीं था. मुकेश भी अंजलि को देख रहा था, मानो कह रहा हो, देखो, हम बेकार ही डर रहे थे.

‘‘अरे, तुम्हारे दोनों बच्चे कहां हैं? क्या नाम हैं उन के?’’

‘‘गगन और रजत,’’ मुकेश बोला, ‘‘स्कूल गए हैं. वे तो जाना ही नहीं चाह रहे थे. कह रहे थे मामाजी से मिलना है. इसीलिए कार से गए हैं ताकि समय से घर आ जाएं.’’

‘‘अच्छा? तुम ने अपने बच्चों को गाड़ी भी सिखा दी. वेरी गुड. मेरे पास तो गाड़ी ही नहीं है, बच्चे सीखेंगे क्या… शादियां कर लूं यही गनीमत है. मैं तो कानवेंट स्कूल में भी बच्चों को नहीं पढ़ा सका. अगर तुम मेरे एक को भी…पढ़ा…’’ मामाजी इतना कह कर रुक गए पर अंजलि और मुकेश का हंसता चेहरा बुझ सा गया.

अंजलि वहां से उठ कर बेडरूम में चली गई.

‘‘कब आ रहे हैं बच्चे?’’ मामाजी ने बात पलट दी.

‘‘आने वाले होंगे,’’ मुकेश इतना ही बोले थे कि घंटी बज उठी. अंजलि दरवाजे की तरफ लपकी. गगनरजत थे.

प्रश्न – भाग 2

लेखक-उषा किरण सोनी

लेकिन क्या पति की मौत के बाद भी दोनों का जिंदगी जीने का नजरिया एक रहा या अलगअलग? स्टेशन से ट्रेन के चलते ही लड़कियां अपने दुपट्टे को संभालती दोनों ओर की सीटों पर आमनेसामने बैठ कर अपनी चुहलबाजी में व्यस्त हो गईं. मैं देख रही थी कि उन के चेहरे प्रसन्नता से दमक रहे थे. सभी हमउम्र थीं और अपने ऊपर कोई बंधन नहीं महसूस कर रही थीं. मेरी अपनी बेटी कीर्ति भी उन के बीच में खिलीखिली लग रही थी. बंधन के नाम पर मैं थी और मुझे वे अपनी मार्गदर्शिका कम सहेली की मां के रूप में अधिक ले रही थीं.

गजाला ने किसी से कुछ सुनाने को कहा तो बड़ीबड़ी आंखों वाली चंचल कणिका बोल पड़ी, ‘‘अच्छा सुनो, मैं तुम सब को एक चुटकुला सुनाती हूं.’’

मैं भी हाथ में पकड़ी पत्रिका रख चुटकुले का आनंद लेने को उन्मुख हो गई.

‘‘एक बार 3 औरतें मृत्यु के बाद यमलोक पहुंचीं. उन के कर्म के अनुसार फैसले के लिए यमराज ने चित्रगुप्त की ओर प्रश्नवाचक दृष्टि डाली. वह अपनी बही संभालते हुए बोले, ‘देवाधिदेव, इन्हें कहें कि ये खुद अपने कर्मों का बखान करें. मैं बही में दर्ज कर्मों से मिलान करूंगा.’

‘‘यह सुन कर पहली महिला बोली, ‘मैं ने सारा जीवन धर्मकर्म करते, सास- ससुर व पति की सेवा में बिताया. बच्चों को पालापोसा और उन्हें उचित शिक्षा दी. मेरी क्या गति होगी, महाराज बताइए?’

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यमराज ने सिर हिलाते हुए कहा, ‘हूं,’ और दृष्टि दूसरी महिला पर टिका दी.

‘‘वह थोड़ा मुसकराई फिर बोली, ‘मैं ने सासससुर को तो कुछ नहीं समझा और न ही उन की सेवा की, पर पति की खूब सेवा की. मरते दम तक उन की सेवा को अपना धर्म समझा. अब आप के हाथ में है कि मुझे स्वर्ग दें या नरक.’

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‘‘यमराज ने फिर कहा, ‘हूं,’ और दृष्टि तीसरी महिला की ओर घुमा दी.’’

मैं देख रही थी कि कई जोड़ी निगाहें बिना हिले इस चुटकुले के अंतिम भाग को सुनने के लिए उत्सुक थीं. कणिका ने कहना जारी रखा :

‘‘तीसरी महिला ने लटें संवारीं, थोड़ा इठलाई, कमर को झटका दिया फिर यमराज पर बंकिम कटाक्ष किया और लिपस्टिक लगे अधर संपुट खोल अदा से बोली, ‘देखोजी, यमराजजी, मैं ने न तो सासससुर को कुछ समझा न पति को. मैं ने तो जी खूब मौजमस्ती की, क्लब गई, नाचीगाई, मैं तो जी दोस्तों की जान बनी रही.’

‘‘‘बसबस,’ उसे बीच में ही टोक कर यमराज बोले, ‘योर केस इज इंट्रेस्टिंग. चित्रगुप्त, पहली दोनों औरतों को स्वर्ग में भेज दो और (तीसरी औरत की ओर इशारा कर) तुम मेरे कक्ष में आओ.’’’

चुटकुला समाप्त होने से पहले ही डब्बे में हंसी का तूफान आ गया था. खिलखिलाहटें ही खिलखिलाहटें. लड़कियां पेट पकड़पकड़ कर हंस रही थीं. मैं भी अपनी हंसी न रोक सकी.

मुझे अपनी किशोरावस्था याद आ गई. सचमुच वे भी क्या दिन थे? जिंदगी और रंग दोनों एकदूसरे के पर्याय थे उन दिनों. वह प्यारी खूबसूरत आंखों वाली राजकंवर, लगता था नारीत्व और सौंदर्य का अनुपम उदाहरण बना कर ही कुदरत ने उसे धरती पर उतारा था. और मैं, हिरनी सी कुलांचें भरती राजकंवर की अंतरंग सखी.

मुझ में तो मानो स्वयं चपलता ही मूर्तिमान हो उठी थी. क्या एक क्षण भी मैं स्थिर रह पाती थी. सारे खेलकूद, नृत्यनाटक, शायद ही किसी प्रतियोगिता में द्वितीय स्थान प्राप्त किया हो. उधर राजकंवर के कोकिल कंठ की गूंज के बिना कालिज का कोई समारोह पूरा ही नहीं होता था. वह गाती तो लगता मानो साक्षात सरस्वती ही कंठ में आ बैठी हो.

हर शरारत की योजना बनाना और फिर उसे अंजाम देना हम दोनों का काम था. याद आ गई प्रिंसिपल मैडम की सूरत, जब हम ने होली खेलते समय साइंस ब्लाक का शीशा तोड़ा था. मैडम लाख कोशिशों के बाद भी यह पता नहीं लगा सकी थीं. सारी की सारी 13 लड़कियां सिर झुकाए एक कतार में खड़ी डांट खाने के साथसाथ एकदूसरे को कनखियों से देख खुकखुक हंसती रही थीं. हार कर बिना दंड दिए उन्होंने हमें भगा दिया था और हम पूरे एक सप्ताह तक अपनी जीत का मजा लेते रहे थे.

आज इन गिलहरियों की तरह फुदकती लड़कियों को संभालते समय लगा कि सचमुच इन्हें संभालना हवा के झोंके को आंचल में बांध लेने से भी मुश्किल है, अगर किसी तरह हवा को बांध भी लो तो आंचल के झीने आवरण से वह रिस के निकल जाती है न.

गाड़ी की रफ्तार के बीच लड़कियों की ओर नजर घूमी तो पाया कि वे मूंगफलियां खाती पटरपटर बतिया रही थीं और मुद्दा था कि शाहरुख खान ज्यादा स्मार्ट है या आमिर खान. मैं ने हंसते हुए पत्रिका फिर हाथ में उठा ली. आंखें पत्रिका के एक पन्ने पर टिकी थीं पर देख तो शायद पीछे अतीत को रही थी.

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मैं और राज अब बी.ए. फाइनल में आ गए थे और हमारी बातों का विषय भी धर्मेंद्र, जितेंद्र से शुरू हो कर अपने जीवन के हीरो की ओर मुड़ जाता कि कैसा होगा?

मैं कहती, ‘राज, क्यों न हम एक ही घर में शादी करें? मैं तुम्हारे बिना जीने की कल्पना भी नहीं कर सकती.’

राज ने लंबी आह भर कर कहा, ‘काश, ऐसा हो सकता. मैं राजपूत और तुम ब्राह्मण. एक घर में हम दोनों की शादी हो ही नहीं सकती. ऐसी बेसिरपैर की बातें करते कब साल बीता और परीक्षाएं भी हो गईं, पता ही नहीं चला.’

घड़ी आ गई बिछड़ने की. पूरे 3 साल हम साथ रहे थे. अब बिछड़ने की कल्पना से ही हम कांप उठे, पर जाना तो था. मेरे पिता ट्रांसफर हो कर उत्तरकाशी चले गए और परीक्षा समाप्त होते ही मुझे तुरंत बुलाया था.

‘‘आप का टिकट?’’ कानों से आवाज टकराई तो सोच की दुनिया से मैं बाहर निकल आई.  सभी के  टिकट चेकर को दे कर अपने चेहरे पर आए बालों को समेट कर पीछे किया तो चेहरे और बालों का रूखापन उंगलियों से टकराया. विचार उठा, कहां खो गई वह लुनाई. शायद बीता समय चुरा ले गया, साथ ही ले गया राज को जिसे मैं चाह कर भी नहीं पा सकती.

मैं फिर अतीत के पन्ने पलटने लगी.

उत्तरकाशी अपने घर पहुंची तो पापामम्मी और भैया ने प्यार से मुझे नहला दिया. उत्तरकाशी के पहाड़ी सौंदर्य ने मुझे अभिभूत कर दिया पर राज को हर रोज पत्र लिखने का क्रम मैं ने टूटने नहीं दिया. वह भी नियमित उत्तर देती. हम दोनों के पत्रों में जिंदगी के हीरो का ही जिक्र होता.

राज ने एक पत्र में लिखा था कि उस के पिता ने उस के लिए एक डाक्टर वर चुना है, जो किसी रियासत का अकेला चिराग है. भरापूरा गबरू जवान और एक बड़ी जागीर का अकेला वारिस, शिक्षित और संस्कारी पूर्ण पुरुष.

राजकंवर के फोटो को देखते ही वह लट्टू हो गया था… उसे साक्षात देखा तो अपनी सुधबुध ही खो बैठा. और राजकंवर? अनंग सा रूप ले कर घर आए डा. राजेंद्र सिंह को देखते ही दिल दे बैठी थी. उसे लगा जैसे छाती से कुछ निकल गया हो. अपने पत्र में उस ने अपनी बेचैनी निकाल कर रख दी थी.

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घर में मेरी शादी की चर्चा भी होने लगी थी. राज के पत्रों को पढ़ मैं भी उस की भांति किसी अनिरुद्ध की कल्पना से अपना मन रंगने लगी थी. राज के पत्रों से पता लगा कि उस का विवाह नवंबर में होगा. मजे की बात कि उस के विवाह के दिन ही मेरा अनिरुद्ध मुझे देखने आने वाला था.

राज की शादी के बाद उस के पत्रों की संख्या घटने लगी. उसे अपने मन की बातें बांटने को एक नया साथी जो मिल गया था.

अब मेरे मन पर भी लेफ्टिनेंट मदन शर्मा छाने लगे थे. जब वे अपने मातापिता के साथ मुझे देखने आए थे तो मैं खिड़की की झिरी से उन के पुरुषोचित सौंदर्य को देख अवाक् रह गई थी, दिल धड़क उठा और याद आ गई पत्र में लिखी राज की पंक्ति, ‘क्या सचमुच कामदेव ही धरा पर उतर आए हैं या मेरा यह दृष्टि दोष है?

मां जब मुझे उन लोगों के सामने लाईं तो मेरी आंखें ऊपर उठ ही नहीं रही थीं. कब उन्होंने अंगूठी पहनाई याद नहीं पर वह स्पर्श मेरे रोमरोम में बिजली दौड़ाता चला गया था. मुझ पर एक नशा सा छा गया था और उसी में उन के मातापिता के पैर छू कर मैं भीतर चली गई थी.

मैं ने तुरंत अपनी इस अवस्था का विस्तृत वर्णन राज को लिख डाला, पर उत्तर नहीं आया. सोचा मगन होगी. अब मेरी कल्पना के साथी थे मदन. मिलन और सान्निध्य की कल्पना से मैं सिहर उठती.

फरवरी की गुलाबी सर्दी में मेरा जीवनसाथी मुझे पल्लू से गांठ बांध कर अपने घर ले आया और मुझे अपने प्रेम सागर में आकंठ डुबो दिया. अनुशासन भरा सैनिक जीवन जीतेजीते मदन ने अब तक अपने मन को भी चाबुक मारमार कर साध रखा था. इसीलिए मेरा प्रवेश होने पर मुझे संपूर्ण पे्रम से नहला दिया उन्होंने.

मदन अपनी ओर से ढेरों उपहार ला कर देते और उन की मां और बाबूजी ने तो अपनी इकलौती बहू की प्यार और उपहारों से झोली ही भर दी थी. मदन इकलौती संतान जो थे.

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Short Story – दो पहलू : आखिर नीरा अपनी सास से क्यों चिढ़ती थी

लेखक- कमला चमोला

सास की कर्कश आवाज कानों में पड़ी तो नीरा ने कसमसा कर अंगड़ाई ली. अधखुली आंखों से देखा, आसमान पर अभी लाली छाई हुई है. सूरज अभी निकला नहीं है, पर मांजी का सूरज अभी से सिर पर चढ़ आया है. न उन्हें खुद नींद आती है और न  किसी और को सोने देती हैं. एक गहरी खीज सी उभर आई उस के चेहरे पर.

परसों उस की नींद जल्दी टूट गई थी. लेटेलेटे कमर दर्द कर रही थी. वह उठ गई और अपने लिए चाय बनाने लगी. खटरपटर सुन कर मांजी की नींद टूट गई. बोल पड़ीं, ‘‘इतनी जल्दी क्यों उठ गई, बहू. कौन सा लंबाचौड़ा परिवार है जिस के लिए तुम्हें खटना पड़ेगा.’’

गुस्से से नीरा का तनबदन सुलग उठा था. आखिर यह चाहती क्या हैं? जल्दी उठो तो मुश्किल, देर से उठो तो मुश्किल. बोलने का बहाना भर चाहिए इन्हें.

अभी तो उसे यहां आए मुश्किल से 2 माह हुए  हैं, पर लगता है कि मानो दो युग ही गुजर गए हैं. अभी दीपक को वापस आने में पूरे 4 माह और हैं. कैसे कटेगा इतना लंबा समय? शुरू से ही संयुक्त परिवार के प्रति एक खास तरह की अरुचि सी थी उस के अंदर.

मातापिता ने भी उस के लिए वर देखते समय इस बात का खास खयाल रखा था कि लड़का चाहे उन्नीस हो, पर वह मांबाप से दूर नौकरी करता हो. उसे सास, ननदों के संग न रहना पड़े. आखिर काफी खोजबीन के बाद उन्हें इच्छानुसार दीपक का घर मिल गया था.

दीपक का परिवार भी छोटा सा था. मां, बाप और छोटी बहन. वह घर से अलग, दूसरे शहर में एक कालिज में अध्यापक था. सौम्य और सुदर्शन व्यक्तित्व वाले दीपक को सब ने पहली नजर में ही पसंद कर लिया था. शादी के बाद नीरा 8-10 दिन ससुराल रही थी.

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इन चंद दिनों में ही सब का थोड़ाबहुत  स्वभाव उस के आगे उजागर हो गया था. बाबूजी गंभीर स्वभाव के अंतर्मुखी व्यक्ति थे. ज्यादा बोलते या बतियाते नहीं थे, पर उन की कसर मांजी पूरी कर देती थीं. मांजी जरा तेजतर्रार थीं. सारा दिन बकझक करना उन की आदत थी. ननद सिम्मी एक प्यारी सी हंसमुख लड़की थी. उस की हमउम्र थी.

मांजी हर बात में नुक्ताचीनी कर के बोलने का कोई न कोई बहाना ढूंढ़ लेती थीं. पर उन की इस आदत पर न कोई ध्यान देता था और न उन की बातों को गंभीरता से लेता था. बाबूजी निरपेक्ष से बस हां, हूं करते रहते थे. 10 दिन बाद ही दीपक नौकरी पर वापस गया, तो वह भी साथ चली गई थी.

दीपक को कालिज के पास ही मकान मिला हुआ था. नीरा ने सुघड़ हाथों से जल्दी ही अपनी गृहस्थी जमा ली. दीपक भी अपने पिता की ही तरह धीर, गंभीर था. नीरा कई बार सोचती कि एक ही परिवार में कैसा विरोधाभास है? कोई इतना बोलने वाला है और कोई इस कदर अंतर्मुखी. अभी उस की शादी को 3 माह ही हुए थे कि दीपक को विश्वविद्यालय की ओर से 6 माह के प्रशिक्षण के लिए जरमनी भेजने का प्रस्ताव हुआ. नीरा भी बहुत खुश थी.

दीपक उसे बांहों में समेट कर बोला था, ‘‘नीरू, तुम्हारे कदम बड़े अच्छे पड़े. बड़े दिनों का अटका काम हो गया. 6 माह तुम मां और बाबूजी के पास रह लेना. उन का भी बहू का चाव पूरा हो जाएगा.’’

नीरा जैसे आसमान से गिरी. इस ओर तो उस ने ध्यान ही नहीं दिया था. अचानक उस की आंखें भर आईं और वह बोली, ‘‘नहीं, मैं तुम्हारे बिना वहां अकेली नहीं रह सकती. मुझे भी अपने साथ ले चलो.’’

‘‘नहीं, नहीं, नीरू, यह संभव नहीं है. मैं फैलोशिप पर जा रहा हूं. वहां होस्टल में रह कर कुछ शोधकार्य करना है. तुम वहां कहां रहोगी? 6 माह का समय होता ही कितना है? पलक झपकते समय निकल जाएगा.’’

फिर तो सब कुछ आननफानन में हो गया. एक माह के अंदर ही दीपक जरमनी चला गया. उसे मांजी और बाबूजी के पास छोड़ते समय वह बोला था, ‘‘नीरू, मां की जरा ज्यादा बोलने की आदत है. वैसे दिल की वह साफ हैं. उन की बातों को दिल पर न लाना. तुम्हें पता तो है कि वह सारा दिन बोलती रहती हैं. तुम बस हां, हूं ही करती रहना.’’

दीपक की बात उस ने गांठ बांध ली थी. मांजी कुछ भी कहतीं, वह अपना मुंह बंद ही रखती. मांजी की बातों को कड़वे घूंट की तरह गटक जाती. पर उन का छोटीछोटी बातों पर हिदायतें देना और टोकना उसे सख्त नागवार गुजरता. सिम्मी न होती तो उस का समय बीतना और मुश्किल हो जाता. वही तो थी जिस के साथ हंस कर वह बोलबतिया लेती थी. वही उसे खींच कर कभी फिल्म दिखाने ले जाती तो कभी खरीदारी के लिए.

दीवार घड़ी ने टनटन कर के 6 बजाए तो वह चौंक पड़ी. अभी मांजी को बोलने का एक और विषय मिल जाएगा. वह न जाने किन सोचों में डूब गई. जल्दी से उठी और दैनिक कृत्यों से निवृत्त हो कर रसोई में जा कर आटा गूंधने लगी. बाबूजी और सिम्मी, दोनों 8 बजे घर से निकल जाते थे.

तभी सिम्मी आ कर जल्दी मचाने लगी, ‘‘भाभी, जल्दी नाश्ता दो, आज मेरा पहला घंटा है.’’

नीरा के कुछ बोलने से पहले ही मांजी बोल पड़ीं, ‘‘जरा जल्दी उठ जाया करो, बहू, मैं तो गठिया के मारे उठ नहीं पाती हूं. अब सब को देर हो जाएगी. हम तो सास के उठने से पहले ही मुंहअंधेरे सारा काम कर लेते थे. क्या मजाल जो सास को किसी बात पर बोलने का मौका मिले.’’

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‘‘हो गया तुम्हारा भाषण शुरू?’’ बाबूजी गुस्से से बोले, ‘‘अभी सिर्फ 7 बजे हैं और सिम्मी को जाने में पूरा एक घंटा बाकी है.’’

‘‘तुम चुप रहो जी,’’ मांजी बोलीं, ‘‘पहले बेटी को सिर चढ़ाया, अब बहू को माथे पर बिठा लो.’’

नीरा चुपचाप परांठे सेकती रही. सिम्मी बोली, ‘‘कभी मां मौनव्रत रखें तो मजा ही आ जाए.’’

नीरा के होंठों पर मुसकान आ गई. सिम्मी पर भी मांजी सारा दिन बरसती ही रहती थीं. कालिज से आने में जरा देर हो जाए तो मांजी आसमान सिर पर उठा लेती थीं. प्रश्नों की बौछार सी कर देतीं, ‘‘देर क्यों हुई? घर पर पहले बताया क्यों नहीं था?’’ आदि.

सिम्मी झल्ला कर कहती, ‘‘बस भी करो मां, जरा सी देर क्या हो गई, तूफान मचा दिया. मैं कोई बच्ची नहीं हूं जो खो जाऊंगी. आजकल अतिरिक्त कक्षाएं लग रही हैं, इस से  देर हो जाती है. तुम्हें तो बोलने का बहाना भर चाहिए.’’

बेटी के बरसने पर मांजी थोड़ी नरम पड़ जातीं, फिर धीमे स्वर में बड़बड़ाने लगतीं. सिम्मी तो बेटी है. मांजी से तुर्कीबतुर्की सवालजवाब कर लेती है पर वह तो बहू है. उसे अपने होंठ सी कर रखने पड़ते हैं. बिना बोले यह हाल है. जो कहीं वह भी सिम्मी की तरह मुंहतोड़ जवाब देने लगे तो शायद मांजी कयामत ही बरपा कर दें. मांजी और बाबूजी का दिल रखने के लिए ही तो वह यहां रह रही है. वरना क्या इतने दिन वह अपने मायके में नहीं रह सकती थी?

बाबूजी और सिम्मी चले गए. वह भी रसोई का काम निबटा कर नहाधो कर आराम कर रही थी. पड़ोस से कुंती की मां आई हुई थीं. वह चाय बनाने लगी. बाहर महरी ने टोकरे में बरतन धो कर रखे थे. कांच का गिलास निकालने लगी तो जाने कैसे गिलास हाथ से छूट कर टूट गया.

मांजी बोल पड़ीं, ‘‘बहू, ध्यान से बरतन उठाया करो. महंगाई का जमाना है. इतने पैसे नहीं हैं जो रोजरोज गिलास खरीद सकें. जब अपनी गृहस्थी जमाओगी तब पता चलेगा.’’

बाहर वालों के सामने भी मांजी चुप नहीं रह सकतीं. नीरा की आंखों में क्रोध और क्षोभ के आंसू आ गए. चाय दे कर वह अपने कमरे में आ कर लेट गई. उस ने कभी अपने मांबाप की नहीं सुनी और यहां दिनरात मांजी की उलटीसीधी बातें सुननी पड़ती हैं.

रात खाने के समय नीरा ने देखा कि दही अभी ठीक से जमा नहीं है. मांजी का बोलना फिर शुरू हो गया, ‘‘तुम ने बहुत ठंडे या बहुत गरम दूध में खट्टा डाल दिया होगा, तभी तो नहीं जमा दही. अगर ध्यान से जमातीं तो क्या अब तक दही जम न जाता? दीपक को तो दही बहुत पसंद है. पता नहीं तुम वहां भी दही ठीक से जमा पाती होगी या नहीं.’’

बाबूजी बोल पड़े, ‘‘ओह हो, अब चुप भी रहोगी या बोलती ही जाओगी? तरी वाली सब्जी है. दही बिना कौन सा पहाड़ टूट रहा है? तुम्हें खाना हो तो हलवाई से ले आता हूं. बहू पर बेकार में क्यों नाराज हो रही हो?’’

मांजी खिसिया कर बोलीं, ‘‘लो और सुनो. बाप और बेटी पहले ही एक ओर थे. अब बहू को और शामिल कर लो गुट में.’’

नीरा शर्म से गड़ी जा रही थी. मांजी के तो मुंह में जो आया बोलने लगती हैं. किसी का लिहाज नहीं.

खाना खा कर वह कमरे में आई तो उस के मन में क्रोध भरा था. अब वह यहां हरगिज नहीं रह सकती. 2 माह जैसेतैसे काट लिए हैं पर अब और नहीं रहा जाता. उस की सहनशक्ति अब खत्म हो गई है. हर बात में टोकाटाकी, भाषणबाजी. आखिर कहां तक सुन सकती है वह? कभी कपड़ों में नील कम है तो कभी बैगन ठीक से नहीं भुने हैं, कभी चाय में पत्ती ज्यादा है तो कभी सब्जी में नमक कम. बिना वजह छोटीछोटी बातों में लंबाचौड़ा भाषण झाड़ देती हैं. बरदाश्त की भी हद होती है. अब वह यहां और नहीं रहेगी. वह उठ कर भैया को खत लिखने लगी. मायके में जा कर दीपक को भी पत्र डाल देगी कि भैया लेने आ गए थे, सो उन के साथ जाना पड़ा उसे.

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सुबह मांजी की आवाज कानों में पड़ी, ‘‘उठो बहू, सुबह हो गई है.’’ वह उठने लगी तो उसे अचानक चक्कर सा आ गया. उस ने उठने की कोशिश की तो कमजोरी के कारण उठा न गया. हलकी झुरझुरी सी चढ़ रही थी. सारा बदन टूट रहा था.

वह फिर लेट गई और बोली, ‘‘मांजी, मेरी तबीयत ठीक नहीं है.’’

‘‘क्या हुआ तबीयत को?’’ यह कहती मांजी उस के कमरे में आ गईं. माथे पर हाथ रखा तो वह चौंक गईं. उन के मुंह से हलकी सी चीख निकल गई.

‘‘अरे, तुम्हारा माथा तो भट्ठी सा तप रहा है, बहू,’’ फिर वहीं से वह चिल्लाईं, ‘‘सुनो जी, जरा जल्दी इधर आओ.’’

‘‘अब क्या आफत है?’’ बाबूजी भुनभुनाते हुए कमरे में आ गए.

‘‘बहू को तेज बुखार है. जल्दी से जरा डाक्टर को बुला लाओ.’’

बाबूजी तुरंत कपड़े पहन कर डाक्टर को लेने चले गए.

मांजी नीरा के सिरहाने बैठ कर उस का माथा दबाने लगीं. ठंडेठंडे हाथों का हलकाहलका दबाव, नीरा को बड़ा भला लग रहा था. कुछ ही देर में बाबूजी डाक्टर को ले कर आ गए.

डाक्टर नीरा की अच्छी तरह जांच कर के बोले, ‘‘दवाएं मैं ने लिख दी हैं. इस हालत में अधिक तेज कैप्सूल तो दिए नहीं जा सकते.’’

‘‘किस हालत में?’’ मांजी पूछ बैठीं.

‘‘यह गर्भवती हैं,’’ डाक्टर बोला, ‘‘बुखार ठंड से चढ़ा है. तुलसीअदरक की चाय भी पिलाती रहें. 2-1 दिन में बुखार उतर जाएगा.’’

मांजी के आगे एक नया रहस्य खुला. नीरा ने तो इस बारे में उन्हें बताया ही नहीं था. वह बड़बड़ाने लगीं, ‘‘अजीब लड़की है, यह. अरे, मैं सास सही, पर सास भी मां होती है. मैं तो इस से सारा काम कराती रही और इस ने कभी बताया तक नहीं कि कुछ खास खाने का मन कर रहा है. ये आजकल की बहुएं भी बस घुन्नी होती हैं. एक हमारा जमाना था. हमें बाद में पता चलता था और सास को पहले से ही खबर हो जाती थी. अब बताओ, मैं ने तो कभी इस से यह भी नहीं पूछा कि क्या खाने की इच्छा है?’’

‘‘तो अब पूछ लेना. काफी वक्त पड़ा है. इस समय बहू को सोने दो,’’ बाबूजी बोले और कमरे से बाहर चले गए.

रात मांजी अपनी खाट नीरा के कमरे में ही ले आईं. रसोई का काम सिम्मी को सौंप दिया था इसलिए अब मांजी का आक्रोश  उस पर बरसता.

‘‘इतनी बड़ी हो गई है, पर खाना बनाने की अक्ल नहीं आई, गोभी में पानी तैर रहा है. और दाल इतनी गाढ़ी है कि गुठलियां बन गई हैं. दस बार कहा है कि जरा अपनी भाभी के साथ हाथ बंटाया करो. कुछ सीख जाओगी. पर…’’

‘‘ओहो मां, शुरू हो गईं तुम? एक तो खाना बनाओ, ऊपर से तुम्हारा भाषण सुनो. मुझ से खाना बनवाना है तो चुपचाप खा लिया करो, वरना खुद करो.’’

मांजी बड़बड़ाने लगीं, ‘‘इन बच्चों को तो समझाना भी मुश्किल है.’’

मांजी 2-2 घंटे बाद अदरकसौंफ वाला दूध ले कर नीरा के पास आ जातीं. खुद अपने हाथों से उसे दवा देतीं. रात भर माथा छूछू कर उस का बुखार देखतीं.

अपने प्रति मांजी को इतना चिंतित देख नीरा हैरान थी. बड़बोली मांजी के अंदर उस की इतनी फिक्र है और उस के प्रति इतना प्रेम है, आज तक कहां समझ पाई थी वह? वह तो मांजी के बोलने और टोकने पर ही सदा खीजती  रही.

नीरा 4-5 दिन बुखार की चपेट में रही. मांजी बराबर उस के सिरहाने बनी रहीं. उसे दवा, दूध, चाय, खिचड़ी आदि सब अपने हाथ से देती थीं. कई बार नीरा को लगता जैसे उस की मां ही सिरहाने बैठी हैं. उस का बुखार उतर गया था, पर मांजी उसे अभी जमीन पर पांव नहीं रखने देती थीं कि कहीं कमजोरी से दोबारा बुखार न चढ़ जाए.

दोपहर पड़ोस से रम्मो चाची उस का हाल पूछने आई थीं. उस के माथे पर हाथ रख कर बोलीं, ‘‘माथा तो ठंडा पड़ा है, बुखार तो नहीं है.’’

नीरा ने जवाब दिया, ‘‘हां, अब कल से बुखार नहीं है.’’

बाद में मांजी और रम्मो चाची बाहर आंगन में बैठ कर बातें करने लगीं.

रम्मो चाची बोलीं, ‘‘आजकल की बहुएं भी फूल सी नाजुक होती हैं.  हम भी तो इस भरी सर्दी में काम करते हैं, पर हमें तो कभी ताप नहीं चढ़ता. ये तो बस छुईमुई सी है,’’ फिर फुसफुसा कर बोलीं, ‘‘अरे, बहू को बुखार भी है या यों ही बहाना किए पड़ी है. आजकल की बहुएं तो तुम जानो, ऐसी ही होती हैं.’’

तभी मांजी का तीव्र स्वर सुनाई दिया, ‘‘बस, बस, रम्मो. तुम्हारा दिमाग भी कभी सीधी राह पर नहीं चला. तुम ने कभी अपनी बहुओं के दुखदर्द को समझा नहीं. तुम्हें तो सब कुछ बहाना लगता है. यह मत भूलो कि बहुएं भी हाड़मांस की बनी हैं. मैं ने तो नीरा और सिम्मी में कभी फर्क नहीं माना है. तुम भी अगर यह बात समझ लो तो तुम्हारे घर की रोज की चखचख खत्म हो जाए.’’

रम्मो चाची खिसियानी सी हो गईं, ‘‘मैं ने जरा सा क्या बोला, तुम ने तो पूरी रामायण बांच दी. यों ही बात से बात निकली थी तो मैं बोल पड़ी थी.’’

‘‘आज तो बोल दिया, आगे से मेरी बहू के बारे में यों न बोलना,’’ मांजी के अंदर अब भी आक्रोश था.

नीरा लेटीलेटी हैरानी से मांजी की बातें सुन रही थी. सचमुच वह मांजी को जान ही कहां पाई? दीपक ठीक ही कहते थे, ‘मुंह से मांजी चाहे बकझक कर लें पर मन तो उन का साफ पानी सा निर्मल है.’ इस बीमारी में उन्होंने उस का जितना खयाल रखा, उस की अपनी मां भी शायद इस तरह न रख पातीं.

और फिर मांजी सिर्फ उसी को तो नहीं बोलतीं. सिम्मी और बाबूजी भी मांजी की टोकाटाकी से कहां बच पाते हैं? यह तो मांजी का स्वभाव ही है. वैसे इस उम्र में आ कर औरतें अकसर इस स्वभाव की हो ही जाती हैं. उस की मां भी तो कितना बोलती हैं.

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पर फर्क सिर्फ यह है कि वह मां हैं और यह सास हैं. उन का कहा वह इस कान से सुन कर उस कान से निकाल देती थी और सासू मां का कहा गांठ बांध कर रख लेती है. अभी तक उस ने सिक्के के एक ही पहलू को देखा था, दूसरा पहलू तो अब देखने को मिला जिस में ममता और प्रेम भरा है.

नीरा उठी. मेज पर रखे भैया को लिखे खत को उठाया और उस के टुकड़ेटुकड़े कर दिए. मायके जाने का विचार उस ने छोड़ दिया. दीपक के आने तक वह मांजी के साथ ही रहेगी. मांजी का दूसरा ममतापूर्ण और करुणामय रूप देख कर अब इस घर से जाने की इच्छा ही नहीं उसे.

बताएं कि हम बताएं क्या

लेखक- लाज ठाकुर

‘उई मां, मैं लुट गई’ के आर्तनाद के साथ वह दीवार के साथ लग कर फर्श पर बैठ गई.

कई दिनों से मुझे बुखार ने अपने लपेटे में ले रखा था और लीना आज डाक्टर के पास मेरी ब्लड रिपोर्ट लेने गई थी. मैं ने सोचा रास्ते में जाने उस ने किस रिश्तेदार के बारे में कौन सी मनहूस खबर सुन ली कि घर आते ही दुख को बरदाश्त न कर पाई और बिलख पड़ी.

तभी मेरे दिमाग की घंटियां बजीं कि अपने हाथों की चूडि़यां तोड़ना तो सीधे अपने सुहाग पर अटैक है. मैं ने जल्दी से अपने दिल की धड़कन को जांचा फिर नब्ज टटोली तो मुझे अपने जीवित होने पर कोई शक न रहा.

पलंग से उतर कर मैं लीना के पास पहुंचा और शब्दों में शहद घोल कर पूछा, ‘‘क्या हुआ?’’

‘‘दूर रहिए मुझ से,’’ लीना खुद ही थोड़ी दूर सरक गई और बोली, ‘‘आप को एड्स है.’’

‘‘मुझे… और एड्स…’’ मैं ने जल्दी से दीवार का सहारा लिया और गिरतेपड़ते बड़ी मुश्किल से अपने को संभाल कर पलंग तक ले गया.

‘‘हांहां, आप को एड्स है,’’ लीना ने सहमे स्वर में कहा, ‘‘मै

डा. गुप्ता के रूम में आप की ब्लड रिपोर्ट लेने बैठी थी. उन्होंने रिपोर्ट देखी और कहा कि पोजिटिव है. तभी उन का कोई विदेशी दोस्त आ गया. मुझे बाहर भेज कर वे दोनों आप के केस के बारे में विचार विमर्श करने लगे. बाहर बैठेबैठे मैं ने सुना कि वह इस नतीजे पर पहुंचे हैं कि आप को एड्स है.’’

‘‘लीनाजी, मगर मुझे एड्स कैसे हो सकता है?’’ मैं ने थोड़ा संभल कर कहा, ‘‘मैं न तो बाहर दाढ़ी बनवाता हूं कि मुझे किसी एड्स रोगी के ब्लेड से कट लगा है. न ही आज तक किसी को अपना खून दियालिया कि किसी एड्स रोगी का खून मेरे शरीर में गया. यहां तक कि वर्षों से मुझे इंजेक्शन भी नहीं लगा है और वैसे भी आजकल डिसपोजेबल इंजेक्शन इस्तेमाल किए जाते हैं. यहां तक कि मेरे परिवार में भी किसी को यह बीमारी नहीं थी.’’

‘‘हूं,’’ हिंदी फिल्मों की खलनायिका की तरह लीना ने लंबी सांस छोड़ी, ‘‘फिर वह कौन थी?’’

‘‘वह कौन थी?’’ मैं ने दोहराया और उस की आंखों में इस सवाल का जवाब ढूंढ़ने लगा.

‘‘हां, मैं पूछती हूं, वह कौन थी?’’

‘‘वह कौन थी…ओ, वह कौन थी? तो भई ‘वह कौन थी’ एक फिल्म का नाम है, जिस में मनोज कुमार और साधना थे और कोई आत्मा…’’ मैं ने बतलाना चाहा.

मेरी इस हरकत पर आज लीना की आंखों में प्यार का सागर लहराने के बजाय लाल डोरे उभर आए और वह गुस्से में बोली, ‘‘मैं पूछती हूं कि वह कौन थी जिस से आप यह सौगात ले कर आए हैं?’’ लीना मेरे सामने आ खड़ी हुई.

‘‘लीनाजी, आप जो समझ रही हैं वैसी कोई बात नहीं है,’’ मैं ने लीना के कंधे पर हाथ रखा.

‘‘मत छुओ मुझे,’’ इतना कहते हुए लीना ने मेरा हाथ झटक दिया और फिर मोबाइल थामे वह दूसरे कमरे में चली गई.

थोड़ी देर बाद देखता क्या हूं कि 2 युवतियां कमरे के अंदर आ गईं. उन में से एक के गले में फ्लैश लगा कैमरा था. वह लड़की सुर्ख रंग की बिना बाजू की मिनी शर्ट और नीले रंग की स्लैक्स में थी. दूसरी लड़की ने सफेद सलवारकमीज पर काले रंग की जैकेट पहन रखी थी. उस के कंधे पर एक बैग लटका हुआ था.

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अपने नाम की पुकार सुन लीना कमरे में आ गई और सिसकते हुए बारीबारी से दोनों के गले लगी.

‘‘घबराओ नहीं, हम सब संभाल लेंगे,’’ कैमरे वाली लड़की ने लीना की पीठ थपकते हुए कहा, ‘‘तो यह हैं तुम्हारे एड्स पीडि़त पति,’’ और इसी के साथ लड़की ने मुझे फोकस में ले कर 3-4 बार फ्लैश चमकाए.

‘‘मेरे फोटो क्यों ले रही हो?’’ यह कहते हुए मैं ने अपने चेहरे को हाथ से छिपाने का असफल प्रयास किया.

‘‘आप के फोटो कल समाचार- पत्रों में छापे जाएंगे ताकि जनता को पता चले कि इस शहर में भी कोई एड्स का मरीज है और तुम्हें देखते ही लोग पहचान जाएं,’’ उस ने मुझे बताया और फिर लीना से बोली, ‘‘दीदी, तुम तनिक इन के साथ लग कर बैठ जाओ ताकि मैं दुनिया को बता सकूं कि किस तरह एक आदर्श पत्नी, अपने एड्स रोगी पति की सेवा, अपनी सलामती की परवा किए बिना कर रही है.’’

लीना पलंग पर मुझ से सट कर ऐसे बैठी मानो हम स्टूडियो में बैठे हों और मेरे बालों में अपनी उंगलियों से कंघी करने लगी.

कैमरे वाली लड़की ने हमें फोकस में लिया और फ्लैश का झपाका हुआ.

इस के बाद लीना पलंग से मेढक की तरह कूद कर अपनी दोनों सहेलियों के पास पहुंच गई.

अब जैकेट वाली लड़की ने अपने कंधे पर लटके बैग से एक कागज निकाला जिस पर कोर्ट का टिकट लगा था.

‘‘लो, वकालतनामे पर दस्तखत करो, तुम्हारे तलाक का मुकदमा मैं

लड़ं ूगी. एड्स के रोगी के साथ तुम्हारी शादी पहली पेशी पर ही टूट जाएगी.’’

लीना ने अपनी सहेली के हाथ से पैन ले कर वकालतनामे पर दस्तखत घसीटे.

‘‘हां जनाब, अब आप अपनी उस ‘गर्लफ्रैंड’ का नाम बताएं जिस से आप को यह तोहफा मिला ताकि उस की तसवीरें और नामपता भी अखबार में छाप कर हम दूसरे भोलेभाले मर्दों को एड्स का शिकार होने से बचा सकें,’’ कैमरे वाली लड़की ने चुभती नजरों से मुझे देखा.

‘‘मगर मैं ऐसी किसी औरत को नहीं जानता और न ही मैं किसी दूसरी औरत के पास गया हूं.’’

‘‘ए मिस्टर,’’ जैकेट वाली लड़की बोली, ‘‘सीधी तरह बताएं कि वह कौन थी?’’

‘‘फिर वही ‘वह कौन थी?’ मैं ने कहा न मैं किसी ‘वह कौन थी’ को नहीं जानता,’’ मैं ने प्रोटेस्ट किया.

बाहर किसी ट्रक की गड़गड़ाहट को अनसुना कर मैं ने कहा, ‘‘आप मेरा विश्वास कीजिए, मैं किसी ‘वह कौन थी’ को नहीं जानता हूं.’’

‘‘विश्वास और तुम्हारा?’’ लीना के ताऊजी का गुस्से से भरा स्वर कानों में गूंजा.

मैं ने दरवाजे की ओर देखा तो लीना के ताऊजी, बलदेव भैया और 4 हट्टेकट्टे मजदूर अंदर आ गए. एक मजदूर के कंधे से रस्सी का गुच्छा लटक रहा था.

लीना अपने ताऊजी के गले लग कर रोने लगी और हिचकियों के बीच बोली, ‘‘ताऊजी, मैं लुट गई. बरबाद हो गई.’’

‘‘घबरा मत मेरी बच्ची, अब हम मनोज को लूटेंगे,’’ ताऊजी ने लीना के सिर पर हाथ फेर कर उसे पुचकारा. फिर वह मजदूरों की ओर पलटे, ‘‘घर का सामान उठा कर बाहर खड़े ट्रक में भर लो.’’

2 मजदूर फ्रिज और 2 सोफे की ओर बढे़. तभी मैं चिल्लाया और पलंग से उठ कर उन के बीच जा कर खड़ा हो गया कि किसी भी सामान को हाथ मत लगाना.

‘‘सामान हमारी बेटी का है और अब वह यहां नहीं रहेगी,’’ ताऊजी ने झाग छोड़ते हुए मुझ से कहा, ‘‘एक तरफ हट जाओ.’’

‘‘बलदेव भैया,’’ मैं ने उन की दुहाई दी, तो वह हाथी की तरह चिंघाड़े, ‘‘मुझे भैया कहा तो जबान खींच लूंगा,’’ और इसी के साथ उन्होंने अपना हाथ मेरे मुंह की ओर बढ़ाया. फिर जल्दी से हाथ पीछे खींच लिया.

‘‘आप लोग ऐसा नहीं कर सकते,’’ मैं ने ताऊजी को कहा.

‘‘हम क्याक्या कर सकते हैं यह हम तुम्हें अभी बताते हैं,’’ इतना कह कर ताऊजी मजदूरों की ओर मुडे़ और बोले, ‘‘अरे, तुम लोग देखते क्या हो, इसे इस पलंग पर डाल कर बांध दो.’’

3 मजदूरों ने मुझे बकरे की तरह गिरा कर दाब लिया और रस्सी वाले मजदूर ने मुझे पलंग से बांधना शुरू किया. एक तो बुखार की कमजोरी उस

पर हट्टेकट्टे मजदूरों की ताकत… मिनटों में पलंग के साथ जकड़ा बेबस पड़ा था.

चारों मजदूर जल्दीजल्दी घर का सामान बाहर ले जाने लगे.

लीना और उस की सहेलियां भी बाहर निकल गईं.

थोड़ी देर में ही खाली कमरे में वह पलंग रह गया जिस के ऊपर मैं बंधा पड़ा था.

‘‘अब इस को पलंग समेत उठाओ और बाहर ले चलो,’’  ताऊजी ने मजदूरों को आदेश सुनाया, ‘‘बलदेव बेटा, घर को ताला लगा कर चाबी साथ ले चलो.’’

मजदूरों ने मुझे पलंग समेत उठा लिया और दरवाजे की तरफ ले गए. पलंग चौड़ा होने से दरवाजे की चौखट में किसी अडि़यल नेता की तरह अड़ गया.

‘‘पलंग को थोड़ा तिरछा कर लो जी,’’ बलदेव ने मजदूरों को राय दी.

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मजदूरों ने उन के बताए अनुसार पलंग को तिरछा कर उठाएउठाए ही दरवाजा पार कर लिया. उसे ले जा कर सड़क के किनारे रख दिया.

मैं पलंग से बंधा बेबस अपने सामान को देख रहा था जो ट्रक में बेतरतीब ढंग से रखा गया था. ट्रक के पास लीना, उस की दोनों सहेलियां, बलदेव भैया, ताऊजी और मजदूर खड़े थे. आसपड़ोस के कुछ लोग भी थे मगर वे घटनास्थल से काफी दूर खड़े थे. उन के चेहरों पर डर के भाव थे और वे सहमीसहमी निगाहों से मुझे ऐसे देख रहे थे जैसे मैं किसी दूसरे ग्रह का प्राणी हूं. कुछ एक ने तो अपनी नाक पर रूमाल ही टिका रखा था.

अब ताऊजी ने फरमान जारी किया कि इसे यहां से उठा कर सामने पार्क में किसी पेड़ के नीचे डाल दो.

चारों मजदूर पलंग की ओर बढ़े तो मैं बचाव में चिल्लाया और अपने को छुड़ाने की कोशिश करने लगा.

तभी मेरे घर के सामने एक कार आ कर रुकी तो मैं ने अपनी गरदन घुमा कर देखा.

कार में से डा. गुप्ता और एक लंबा, सुर्ख सफेद आदमी बाहर निकले.

सामान से भरे ट्रक पर एक नजर डालने के बाद डा. गुप्ता बोले, ‘‘लीनाजी, क्या मकान शिफ्ट कर रही हैं? तभी जल्दी में आप मनोजजी की रिपोर्ट भी क्लिनिक में छोड़ आईं,’’ फिर मेरी ओर देख कर डाक्टर बोले. ‘‘मनोजजी को ऐसे क्यों बांध रखा है? क्या बुखार सिर को चढ़ गया है?’’

‘‘नहीं, डाक्टर साहब, मुझे पार्क में डालने की तैयारी है,’’ लीना से पहले मैं बोल पड़ा.

‘‘मगर क्यों?’’

‘‘क्योंकि मुझे  एड्स है,’’ मैं ने रुंधे गले से कहा.

‘‘किस ने बताया कि तुम्हें एड्स है?’’

‘‘आप ही ने तो लीना को बताया था कि मुझे एड्स है.’’

‘‘मैं ने…कब,’’ डा. गुप्ता लीना की ओर देखने लगे.

‘‘आज जब मैं आप के क्लिनिक में गई थी तो आप ने बताया था कि पोजिटिव रिपोर्ट आई है. तभी आप के यह दोस्त आ गए और आप ने मुझे बाहर भेज दिया और अपने कमरे में बैठ कर आप इन के साथ इस केस पर विचारविमर्श करने लगे. मैं ने बाहर बैठ कर सुना था. आप के मित्र ने कहा था कि इन को एड्स है,’’ इतना कह कर लीना सिसकने लगी.

‘‘मिस्टर लाल, हम ने कब इन के केस को ले कर डिसकस किया था?’’ डा. साहब ने अपने मित्र से पूछा.

कुछ सोचते हुए मिस्टर लाल बोले, ‘‘डा. गुप्ता, मैं ने आप के अस्पताल के लिए जो चैक विदेश से ला कर दिए और बताया कि यह ‘ऐड’ है उसे ही इन्होंने एड्स तो नहीं समझ लिया?’’ मिस्टर लाल ने डा. गुप्ता से प्रश्न किया.

‘‘तो आप लोग इन को एड्स होने की बात नहीं कह रहे थे?’’ लीना ने डरतेडरते पूछा, ‘‘और वह पोजिटिव रिपोर्ट?’’

‘‘वह तो इन के मलेरिया की रिपोर्ट थी,’’ डा. साहब ने बताया, ‘‘मैं इधर से निकल रहा था तो मैं ने सोचा कि मनोजजी की रिपोर्ट देता चलूं और दवाइयां भी लिख दूंगा.’’

डा. गुप्ता ने मेरी ओर देखने के बाद लीना की ओर मुंह फेरा और चुभते शब्दों में बोले, ‘‘किसी एड्स के मरीज को यों जकड़ कर पार्क में डालने की क्या तुक है?’’

‘‘चाहिए तो यह कि एड्स के मरीज को इस बात का एहसास न होने दिया जाए कि वह मौत की ओर खिसक रहा है,’’ मिस्टर लाल कहते गए, ‘‘उस के साथ तो ऐसा व्यवहार करना चाहिए कि वह जीवन का आखिरी रास्ता सुकून से अपने हमदर्दों के बीच तय कर पाए और आप लोग तो जानते हैं कि यह बीमारी छूत की नहीं है फिर भी आप ने ऐसा बेवकूफी का काम किया?’’

डाक्टर के तेवर को देख कर ताऊजी बोले, ‘‘अरे, तुम लोग खडे़खडे़ मुंह क्या देख रहे हो. जाओ, जल्दी से जंवाई राजा के सामान को घर के अंदर पहुंचाओ’’.

ताऊजी ने बलदेव के हाथ से मकान की चाबी छीन कर घर का दरवाजा खोल दिया.

डेढ़ घंटे बाद कमरे में सामान के ढेर के पास मैं पलंग पर अधलेटे बैठा था. ट्रक जा चुका था. ताऊजी, बलदेव और लीना की दोनों सहेलियां बाहर से ही खिसक चुके थे और लीना?

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लीना, अपनी नई कांच की चूडि़यां शृंगार बाक्स से निकाल, कलाइयों में पहने, डे्रसिंग टेबल के सामने बैठी अपनी कलाइयां घुमा कर चूडि़यां खनका रही थी.

दूर कहीं से गाने की आवाज आ रही थी :

‘‘मेरे हाथों में नौनौ चूडि़यां हैं…’’

Short Story- मान अपमान

अपने कार्यालय में आए एक विदेशी शिष्टमंडल को खरीदारी कराने के लिए श्रेया उन्हें ले कर पूरे शहर में घूम रही थी. दोपहर का भोजन कराने के लिए श्रेया उन्हें ले कर बडे़ से मौल ‘शौपर पैराडाइज’ में आई थी. भोजन के लिए वेटर को आदेश दे कर उस ने सिर घुमाया तो काउंटर पर खडे़ जिग्नेश जैसे किसी व्यक्ति को देख कर वह हैरान रह गई. वह व्यक्ति पीछे से बिलकुल जिग्नेश का प्रतिरूप दिख रहा था.

श्रेया ने अभी वहां से अपनी नजर भी नहीं घुमाई थी कि वह व्यक्ति पलटा और 2 बच्चों की उंगलियां थामे निकास- द्वार की ओर बढ़ गया.

अपने विदेशी मेहमानों से क्षमा मांग कर श्रेया मुख्यद्वार की ओर लपकी थी. क्योंकि वह इस सच को जानना चाहती थी कि क्या वह वाकई जिग्नेश है और यदि वही है तो उसे श्रेया यह जता देना चाहती थी कि उस ने उसे मौल में एक स्त्री के साथ घूमते देख लिया था.

जिग्नेश तब तक बाहर निकल गया था और उस के साथ चल रही स्त्री और बच्चों को श्रेया ने भलीभांति पहचान लिया था. लेकिन अधिक दूर तक उन का पीछा करना उस के लिए संभव नहीं था. क्योंकि भोजनकक्ष में उस के विदेशी अतिथि उस की प्रतीक्षा कर रहे थे.

अपना काम समाप्त कर वह घर पहुंची तो बेहद गुस्से में थी. उस ने कई बार मोबाइल पर जिग्नेश को फोन करने की कोशिश भी की थी पर शायद उस का मोबाइल बंद था इसलिए संपर्क नहीं हो पाया था.

वह थकान के कारण टेलीविजन के सामने आंखें बंद कर बैठी हुई थी. जब रात के लगभग 10 बजे जिग्नेश ने घर में प्रवेश किया था.

‘‘क्या बात है? आज बड़ी देर से आए हो?’’ श्रेया ने व्यंग्य किया था.

‘‘हां, आज देर तक काम चल रहा था,’’ जिग्नेश सामान्य भाव से बोला था. वह श्रेया के स्वर में छिपे व्यंग्य को नहीं भांप सका था.

‘‘ओह, तो आजकल कार्यालय का काम शौपर्स पैराडाइज में होने लगा है.’’

‘‘क्या मतलब?’’

‘‘यही कि मैं ने अपनी आंखों से तुम्हें 2 बच्चों और एक स्त्री के साथ वहां देखा था.’’

‘‘यही सवाल मैं तुम से भी पूछ सकता हूं. तुम वहां क्या कर रही थीं?’’

‘‘मैं एक विदेशी प्रतिनिधि मंडल के सदस्यों को खरीदारी कराने और खाना खिलाने ले गई थी.’’

‘‘तो मैं भी वहां उन 2 बच्चों को खरीदारी कराने ही ले गया था. नीना और नमन को नए स्कूल में दाखिला मिल गया है. उन की स्कूल की यूनिफार्म और अन्य आवश्यक वस्तुओं को खरीदना जरूरी था. 2 दिन बाद ही नया सत्र शुरू हो रहा है,’’ जिग्नेश सपाट स्वर मेें बोला था. उस के स्वर में तनिक भी ग्लानि या संकोच का भाव नहीं था.

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‘‘इस का मतलब तो यह हुआ कि मैत्रेयी और उस के बच्चे अभी तक यहीं हैं?’’ श्रेया अपना क्षोभ छिपा नहीं सकी थी.

‘‘देखो श्रेया, विवाह से पहले ही मैं ने सारी स्थिति तुम्हारे सामने स्पष्ट कर दी थी. मैं ने साफ कह दिया था कि मैं अपनी पत्नी और बच्चों को छोड़ नहीं सकता पर मैं ने तुम्हें यह आश्वासन जरूर दिया था कि मैं रहूंगा तुम्हारे साथ और मैं अपना वादा निभा रहा हूं.’’

‘‘लेकिन तुम्हारे मातापिता ने तो कहा था कि हमारी शादी के बाद तुम्हारी पहली पत्नी और दोनों बच्चे उन के साथ गांव में रहेंगे क्योंकि उन्हें बुढ़ापे में कोई देखभाल करने वाला चाहिए.’’

‘‘मेरे मातापिता को देखभाल की जरूरत हुई तो वे यहां आ कर मेरे पास रहेंगे. मैत्रेयी और बच्चों को गांव भेज कर मैं उन का भविष्य दांव पर नहीं लगा सकता,’’ जिग्नेश ने स्पष्ट किया था.

‘‘बहुत अच्छा, क्या सफाई दी है. मैं ने तो सोचा था कि चोरी करते रंगे हाथों पकडे़ जाने पर तुम शर्मिंदा हो जाओगे और भविष्य में ऐसा न करने का मुझे आश्वासन दोगे पर तुम तो बेशर्मी से अपनी करतूतों पर परदा डाल रहे हो.’’

‘‘कैसी चोरी, श्रेया? नीना, नमन और मैत्रेयी के प्रति भी मेरा कुछ कर्तव्य है,’’ जिग्नेश ने समझाने का प्रयत्न किया था.

‘‘क्यों नहीं, एक मुझे छोड़ कर अन्य सभी के प्रति तुम्हारा कर्तव्य बनता है. मूर्खता मेरी ही थी जो तुम्हारे प्यार के झांसे में आ गई. मां ठीक ही कहती थीं.’’

‘‘क्या कहती थीं तुम्हारी मां?’’

‘‘यही कि तुम मुझ से नहीं मेरे मोटे वेतन से प्यार करते हो. जरा सोचो तो, कि इस विवाह से मुझे क्या मिला? तुम अब भी अपने परिवार से जुडे़ हो और मैं ने अपना तन मन धन सब तुम्हें सौंप दिया,’’ इतना कह कर श्रेया सुबकने लगी थी.

‘‘अच्छा, अब यह रोनापीटना बंद करो,’’ जिग्नेश बोला, ‘‘चलो, खाना लगाओ. इस संबंध में हम कल बात करेंगे.’’

‘‘क्यों, मैत्रेयी ने खाना नहीं खिलाया क्या? जाओ, वहीं जा कर खाओ. मैं ने नहीं बनाया कुछ भी,’’ बिफर उठी थी श्रेया.

श्रेया और जिग्नेश का विवाह हुए अभी 6 माह ही हुए थे. दोनों का प्रेमप्रसंग कार्यालय में फाइलों के आदानप्रदान के बीच शुरू हुआ था और शीघ्र ही पागलपन की सीमा तक पहुंच गया था.

श्रेया अपने मातापिता की इकलौती संतान थी. मातापिता ने उस की हर इच्छा पूरी की थी पर जब उन्हें यह पता चला कि वह विवाहित जिग्नेश से विवाह करना चाहती है तो वे अड़ गए थे और विवाह के लिए साफ इनकार कर दिया था.

श्रेया और जिग्नेश को न मानना था न माने. दोनों परिवारों की इच्छा के विरुद्ध उन्होंने विवाह कर लिया था. श्रेया को तो यह भी ंिचंता नहीं थी कि जिग्नेश ने अपनी पहली पत्नी को तलाक देने से भी साफ मना कर दिया था. उसे तो जिग्नेश के प्यार में इतना अटूट विश्वास हो गया था कि किसी के समझाने- बुझाने का उस पर कोई प्रभाव ही नहीं होता था.

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विवाह के बाद वह प्यार और विश्वास धरा का धरा रह गया था. श्रेया को प्रतिपल जिग्नेश का पीछा करने का मन होता. अब वह जिग्नेश पर अपना एकाधि- कार चाहती थी. दिन में 4-5 बार उसे फोन करती… वह कहीं भी जाता तो किसी न किसी प्रकार उस पर नजर रखने का प्रयत्न करती.

‘आज मेरा खाने का डब्बा बंद मत करना. आज आफिस में पार्टी है,’’ उस दिन तैयार होते समय जिग्नेश ने उसे सूचित किया था.

‘सच में पार्टी है या यों ही बहाना बना रहे हो?’ श्रेया ने पूछना चाहा था पर चुप रह गई थी. वह जानती थी कि कुछ भी पूछने से जिग्नेश भड़क उठेगा.

जिग्नेश के घर से निकलते ही उस ने कार्यालय में अपने अस्वस्थ होने की सूचना दे दी और फिर उस की डायरियों के पन्ने पलट कर मैत्रेयी के घर का पता ढूंढ़ निकाला था. दोपहर के भोजन के समय उस ने मैत्रेयी के द्वार पर दस्तक दी थी.

दरवाजा मैत्रेयी ने ही खोला था और सामने श्रेया को देख कर चित्रलिखित सी खड़ी रह गई थी.

‘‘कहिए,’’ कुछ समय बाद उस के मुंह से इतना भर ही निकल सका था.

‘‘जिग्नेश को बुलाइए, मैं उस से मिलने आई हूं,’’ श्रेया ने आग्रह किया था.

‘‘यह बात तो मुझे आप के घर जा कर आप से कहनी चाहिए. अब क्या आप को यह भी याद दिलाना पडे़गा कि जिग्नेश अब यहां नहीं रहते,’’ मैत्रेयी ने अपने स्वर को नियंत्रण में रखते हुए कहा था.

‘‘यही तो मैं आप से पूछने आई हूं कि जब जिग्नेश यहां नहीं रहते तो आप क्यों यहां रह रही हैं?’’

‘‘क्यों? अब इस शहर में रहने के लिए भी आप की इजाजत लेनी पडे़गी? आइए, अंदर आइए. यह बातें शांति से घर में बैठ कर भी की जा सकती हैं. पड़ोसियों को तमाशा दिखाने से क्या लाभ,’’ मैत्रेयी सौम्य पर दृढ़ स्वर में बोली थी.

एक क्षण को संकोच किया था श्रेया ने पर दूसरे ही क्षण अंदर जा बैठी थी. न जाने क्यों जिग्नेश की गृहस्थी पास से देखने का उस का मन हो आया था.

ड्राइंगरूम में बैठ कर श्रेया हैरान रह गई. हर दीवार और कोने से जिग्नेश की उपस्थिति उसे मुंह चिढ़ा रही थी.

मैत्रेयी और बच्चों के साथ जिग्नेश के बडे़बडे़ छायाचित्र दीवार पर लगे थे. हंसते, मुसकराते, प्रगाढ़ संबंधों का परिचय देते वे चित्र एक सुखी परिवार का आभास दे रहे थे. इतने प्रगाढ़ पारिवारिक  संबंधों को छोड़ कर वह कैसे उस की ओर आकर्षित हुआ था, यह बात श्रेया के अवचेतन में अब भी प्रश्न के रूप में कौंध रही थी. अब वही विचार प्रतिपल बढ़ती तीव्रता से उसे परेशान कर रहा था कि जिग्नेश को बांध कर रखने के लिए उस के पास कोई बंधन नहीं था.

उसे तसवीरों में खोए देख कर नमन धीरे से उस के पास आ खड़ा हुआ था.

‘‘आंटी, आप क्या देख रही हैं?’’ उस ने प्रश्न किया था.

‘‘यों ही यह तसवीरें देख रही थी मैं,’’ प्रश्न सुन कर चौंक गई थी श्रेया.

‘‘वह मेरे पापा हैं, वह मेरी मम्मी और वह छोटा बच्चा है न, वह मैं हूं,’’ नमन के इस भोलेपन को देख कर श्रेया ठगी सी रह गई थी.

‘‘इधर आओ, मेरे पास…’’ श्रेया ने नमन को बुलाया तो वह आ कर उस की गोद में बैठ गया था और नीना भी उस के पास आ खड़ी हुई थी.

तभी मैत्रेयी कुछ जलपान ले कर आ गई.

‘‘नीना…, नमन…, आप ने आंटी को नमस्ते किया या नहीं?’’ मैत्रेयी ने नीना के हाथ नमस्ते की मुद्रा में जोड़ते हुए कहा था.

‘‘नमस्ते, आंटीजी,’’ दोनों बच्चों ने एकसाथ ही अभिवादन किया.

‘‘आप कुछ कह रही थीं?’’ मैत्रेयी ने श्रेया को चाय की प्याली पकड़ाते हुए पूछा था.

‘‘मैं तो केवल यह पूछ रही थी कि आप और बच्चे तो जिग्नेश के मातापिता के पास गांव जाने वाले थे. फिर वह विचार क्यों बदल दिया,’’ श्रेया ने किसी प्रकार अपनी बात पूरी की थी.

‘‘देखिए, गांव जाने की बात जिग्नेश के मातापिता ने की थी. मैं उन के प्रस्ताव का स्वागत करती हूं पर बच्चों के भविष्य के लिए मैं ने यहीं रहने का निर्णय लिया. और जिग्नेश भी यही चाहते थे.’’

‘‘पर वहां बच्चों को दादादादी का सहारा मिल जाएगा. स्कूल तो वहां भी होंगे ही.’’

‘‘स्कूल तो वहां भी है पर मेरे बच्चे उस वातावरण के अभ्यस्त नहीं हैं. इस समय मानअपमान, हानिलाभ जैसी बातें मेरे लिए बेमानी हो गई हैं. मेरे बच्चों का भविष्य ही मेरे लिए सर्वोपरि है और मेरे विचार से इन के भविष्य को संवारने का कार्य जिग्नेश का ही है.’’

‘‘मेरा तात्पर्य यह नहीं था. जिग्नेश का जो कर्तव्य है उसे उन्हें निभाना ही चाहिए,’’ श्रेया अपराध बोध से भर उठी थी.

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‘‘मैं तो स्वयं अपने पैरों पर खडे़ होने का प्रयत्न कर रही हूं. मेरे मायके में केवल एक सौतेला भाई है जिस की परिस्थिति हमें सहारा देने की नहीं है. फिर भी मेरा आप से वादा है कि हमारे कारण आप को असुविधा नहीं होगी,’’ मैत्रेयी का स्वर सपाट और चेहरा बेहद संयत था.

श्रेया का साहस नहीं हुआ कि जिग्नेश के संबंध में कुछ और पूछ पाती. उस ने नीना और नमन के सिर पर हाथ फेरा और मैत्रेयी को नमस्कार कर बाहर निकल आई थी.

उस के बाद श्रेया कई दिनों तक सो नहीं सकी थी. उठतेबैठते नीना और नमन के चेहरे उस की आंखों के सामने तैरते रहते थे.

फिर एक दिन अपना सामान बांध कर श्रेया अपने मातापिता के पास जा पहुंची थी.

‘‘मैं सबकुछ छोड़ आई हूं, मां,’’ वह उदास स्वर में बोली, ‘‘वहां मेरा दम घुटने लगा था. जिग्नेश का घर तोड़ने का दुखद आभास मेरा पीछा ही नहीं छोड़ रहा था.’’

‘‘काश, यह सब तुम्हें कुछ समय पहले समझ में आ जाता,’’ मां ने उसे गले से लगा लिया था.

‘‘ऐसा मेरे साथ ही क्यों होता है, मां. गलत निर्णय लेने के बाद ही क्यों मुझे भूल का आभास होता है?’’ वह सिसक उठी थी.

उधर जिग्नेश जब घर लौटा तो श्रेया का पत्र उस का स्वागत कर रहा था जिस में उस ने अपने लौट कर जाने का कारण स्पष्ट किया था.

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