मेरा गांव हरियाणा के जींद जिले में है और नाम है रत्ता खेड़ा. वहां से जुड़ा बचपन का एक किस्सा आज भी मेरे जेहन में घूमता रहता है. चूंकि गांव है और वहां आज भी खेतीबारी व पशुपालन से रोजीरोटी चलती है, तो ज्यादातर किसान घर के पास ही अपनी खाली पड़ी जमीन पर पशुओं के चारे तूड़ी को सालभर जमा कर के रखने के लिए सरकंडे और दूसरी लचीली लकड़ियों से गुंबदनुमा कमरा बना लेते हैं. उस कमरे में एक सुराखनुमा छोटे दरवाजे से तूड़ी निकाली जाती है तो उसे कूप कह दिया जाता है.
उस समय हमारा कूप बन रहा था और उस के लिए बड़ी मेहनत और ताकत लगनी थी, लिहाजा दादाजी ने गांव के ही बहुत से लोगों को बुला लिया था. उन में एक गोराचिट्टा लड़का भी था. कुछ ज्यादा ही गोरा. भूरे बाल. कूप बनवाने में उस ने सब से ज्यादा मेहनत की थी.
कूप बनने के बाद वहां जमा हुए सब लोगों को मीठा खिलाया गया, उस लड़के को छोड़ कर. उसे दादाजी ने मंडी (सफीदों मंडी) चलने को कहा था. इस के बाद वह लड़का अपनी साइकिल पर, मैं और दादाजी दूसरी साइकिल पर चल दिए मंडी की तरफ.
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मंडी में हम हलवाई की एक दुकान पर गए और दादाजी ने उस लड़के के लिए मिठाई मंगवाई. उस ने मना नहीं किया, बल्कि खूब छक कर पेठे की मिठाई का लुत्फ उठाया.
बाद में मुझे पता चला कि वह गोराचिट्टा लड़का एससी तबके से था और दादाजी ने उसे पेठे की मिठाई इसलिए खिलाई थी, क्योंकि उस ने सब से ज्यादा मेहनत की थी और उसी का नतीजा यह पेठा पार्टी थी.
पर भारतीय समाज में ऐसे किस्से बहुत कम ही सुनने में आते हैं कि किसी एससी को उस की मेहनत का इतना मीठा इनाम मिला हो, वरना जातिवाद के जाल में जकड़े लोगों ने इन्हें हमेशा दोयम दर्जे का समझा है. ये लोग आज भी अपनी पहचान की लड़ाई लड़ रहे हैं. जब ये अपने हकों की बात करते हुए जरा सा गुस्सा दिखाते हैं, तो अगड़े समाज की त्योरियां ऐसे चढ़ जाती हैं कि ‘तुम्हारी इतनी मजाल जो हमारे सामने गुस्सा दिखाते हो’.
एक उदाहरण से इसे समझते हैं. आप को याद ही होगा कि कुछ समय पहले सुप्रीम कोर्ट ने 1989 के अनुसूचित जाति और जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम के गलत इस्तेमाल पर चिंता जताते हुए इस से जुड़े मामलों के आरोपियों की तुरंत गिरफ्तारी की जगह शुरुआती जांच की बात कही थी. इस टिप्पणी से एससी तबके के कई संगठनों को लगा था कि यह उन के हकों पर कुठाराघात है और वे बहुत नाराज हो गए थे. इस के विरोध में उन्होंने ‘भारत बंद’ का आह्वान किया था. तब भी ऊंची जाति वालों को यह सब नौटंकी लगा था और वे उन के गुस्से को समझ नहीं पाए थे.
2 अप्रैल, 2018 के उस महाबंद के दौरान कई राज्यों में वहां की सरकारों और एससीएसटी संगठनों में टकराव और हिंसा हुई तो ज्यादातर आंदोलनकारियों को ही यह हिंसा भड़काने का कुसूरवार माना गया था.
चलो, यह तो भारत बंद था और इस से देश को नुकसान हुआ था, पर उन एससी नौजवानों की क्या गलती होती है जो सिर्फ मूंछ पर ताव देते या गांव में मोटरसाइकिल चलाते पकड़े जाने पर अगड़ों द्वारा पीट दिए जाते हैं और उन्हें रोने भी नहीं दिया जाता?
देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, जो देश की 130 करोड़ जनता को एक परिवार मानने का दावा करते नहीं थकते हैं, के गृह राज्य गुजरात में अगड़े लोग एससी तबके को आज भी बेवजह अपने गुस्से और नफरत का शिकार बनाते हैं. दलित दूल्हे को घोड़ी पर चढ़ कर न जाने देने, दलित सरपंच को स्वतंत्रता दिवस व गणतंत्र दिवस पर तिरंगा झंडा न फहराने देने और मिड डे मील के दौरान एससी छात्रों को अलग बिठाए जाने जैसी घिनौनी वारदातें हो जाती हैं और किसी के कान पर जूं तक नहीं रेंगती.
रेत के गढ़ राजस्थान के नागौर में 16 फरवरी, 2020 को 2 एससी लड़कों की तथाकथित चोरी के आरोप में पिटाई का वीडियो सोशल मीडिया पर वायरल होने के बाद 7 लोगों को गिरफ्तार किया गया था. आरोप था कि पिटाई करने वालों ने उन 2 लड़कों में से एक पीड़ित को चोट पहुंचाने के इरादे से पेचकस पर पैट्रोल से भरा कपड़ा लपेट कर उस के अंग में डाला था.
दरअसल, वे दोनों पीड़ित नागौर में बाइक सर्विस कराने के लिए सर्विस सैंटर गए थे. वहीं पर एजेंसी के मुलाजिमों ने उन दोनों पर पैसे चुराने के आरोप लगाए और उन की जम कर पिटाई कर दी.
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मामला उछला तो राजनीति में उबाल सा आ गया. नागौर के सांसद हनुमान बेनीवाल ने कहा, “देश आजाद होने के इतने साल बाद भी दलितों (एससी) के साथ अत्याचार की घटनाएं बंद होने का नाम नहीं ले रही हैं. सोशल मीडिया पर वीडियो वायरल होने के बाद मामला सब के सामने आया और पुलिस को कार्यवाही करनी पड़ी…”
इतना ही नहीं, कांग्रेस के अध्यक्ष रह चुके राहुल गांधी ने अपने ट्वीट में लिखा, ‘राजस्थान के नागौर में 2 दलितों के साथ क्रूरतापूर्वक अत्याचार का वीडियो दुखद और दिल दहलाने वाला है. मैं राज्य सरकार से इस घिनौने अपराध में शामिल आरोपियों को सजा दिलाने का आग्रह करता हूं.’
एससी तबके से जुड़े जोरजुल्म की वारदातें नेताओं के कानों तक तभी पहुंचती हैं जब मामला ज्यादा तूल पकड़ लेता है, वरना तो यही भरम फैलाया जाता है कि अब इस निचले समाज को सताने के मामले देश में कम हो गए हैं, जबकि नैशनल क्राइम रिकौर्ड ब्यूरो के कहे मुताबिक साल 2017 में एससी अत्याचार के 43,200 मामले दर्ज हुए थे. साल 2016 में यही आंकड़ा 40,801 का था, जबकि साल 2015 में ऐसे 38,670 मामले दर्ज हुए थे.
इस ब्यूरो के मुताबिक, एससी तबके पर जोरजुल्म करने के मामलों में उत्तर प्रदेश नंबर वन है. साल 2017 में इस प्रदेश में सब से ज्यादा 11,000 ऐसे मामले दर्ज किए गए थे. इस के बाद बिहार है, जहां 6,700 मामले सामने आए. मध्य प्रदेश में यह आंकड़ा 5,800 मामलों का रहा.
आज भी यह सिलसिला रुका नहीं है. एक तरफ सत्ता पक्ष के नेता अपना वोट बैंक साधने के लिए एससी तबके के गरीबगुरबों के पैर धोते हैं, तो दूसरी तरफ ऊंची जाति वाले अपनी नाक ऊंची रखने के लिए किसी एससी पर इस बात पर हाथ साफ कर देते हैं कि उस ने हमारे सामने घोड़ी पर बैठ कर अपनी बरात कैसे निकाली.
ये खबरें हमें हैरानपरेशान नहीं करती हैं. पर क्यों हम इतने पत्थरदिल हो गए हैं? क्यों किसी हाड़मांस के जीतेजागते इनसान पर इसलिए लातघूंसे चला देते हैं कि वह एससी है और जवाब में कुछ नहीं कहेगा? क्या आजादी के इतने साल बाद हम ने विकास के नाम पर यही नफरत हासिल की है? हम ने यह कैसा समाज रच डाला है?
ऊपर से हिंदुत्व की डुगडुगी ने तो मामला और भी गंभीर कर दिया है. जातिवाद की खाई और बढ़ गई है. राजनीतिक विश्लेषक आनंद तेलतुंबड़े के मुताबिक देश के कुल दलितों (तकरीबन 20 करोड़) में 2 करोड़ दलित ईसाइयों और 10 करोड़ दलित मुसलमानों को भी जोड़ लें, तो देश में दलितों की आबादी 32 करोड़ हो जाती है, जो कुल आबादी की एकचौथाई है.
यह कोई छोटी आबादी नहीं है, पर आज भी इसे हर तरह के भेदभाव और बेइज्जती का दंश सहना पड़ता है, जबकि इस से ज्यादा कमेरी और मेहनती जाति कोई दूसरी नहीं है. ये लोग खेतों में, कारखानों में, सड़कों पर मजदूर बन कर देश की तरक्की की इमारत की बुनियाद में अपना खूनपसीना झोंक रहे हैं.
इस समाज के सब से बड़े सुधारक बाबा साहब भीमराव अंबेडकर ने संविधान में इन के लिए पढ़ाईलिखाई और सरकारी नौकरी में रिजर्वेशन का कानून इसलिए बनाया था, ताकि ये समाज में बराबरी का दर्जा पा जाएं, पर इस समाज के जिन लोगों ने इन सुविधाओं का फायदा उठाया वे खुद को दूसरे गरीब एससी से ऊंचे दर्जे का समझने लगे और उन से दूर होते गए. उन में अपना ही ब्राह्मणवाद पनपने लगा था.
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यही वजह है कि गांवों में अनपढ़ या अधपढ़े एससी आज भी दूसरों के खेतों में मजदूर बन कर रोजीरोटी कमाने पर मजबूर हैं. अगर किसी के पास थोड़ीबहुत जमीन है, वह भी छिनती जा रही है.
इस बिरादरी के नेता सिर्फ वोट बैंक की खातिर इन का इस्तेमाल कर रहे हैं. मायावती हों या चंद्रशेखर, रामविलास पासवान हों या रामदास अठावले या फिर कोई तीसरा ही सही, सभी ने एससी तबके के लिए कोई भी ऐसा ऐतिहासिक काम नहीं किया है, जिस ने उन के घरों में घी के दीए जलाए हों.
ऐसे में यह उम्मीद करना कि कल अचानक एससी तबके का कायाकल्प हो जाएगा, फुजूल है. वे लोग अभी तक पहचान की लड़ाई लड़ रहे हैं. रोटी, कपड़ा और मकान जैसी बुनियादी जरूरतों को तरस रहे हैं.
ऐसा नहीं है कि गांवदेहात में अब तूड़ी रखने के कूप नहीं बनते हैं या उन को पूरा करने में एससी तबके के देह से तगड़े लड़कों की मदद नहीं ली जाती है, पर इनाम में उन्हें पेठे की मिठाई की दावत देने वाले लोग न के बराबर बचे हैं. शायद इसीलिए उस गोरेचिट्टे लड़के की खाई गई पेठे की मिठाई का स्वाद आज भी मेरी जबान पर भी बरकरार है.