क्रिकेट : विवादों की चैंपियन रही ICC Champions Trophy 2025

ICC Champions Trophy 2025 : कप्तान रोहित शर्मा की अगुआई में भारतीय क्रिकेट टीम ने रविवार, 9 मार्च, 2025 को दुबई के ‘दुबई इंटरनैशनल क्रिकेट स्टेडियम’ में खेले गए फाइनल मुकाबले में न्यूजीलैंड को 4 विकेट से शिकस्त दे कर चैंपियंस ट्रॉफी का खिताब अपने नाम कर लिया. यह तीसरी बार है जब ‘टीम इंडिया’ ने यह ट्रॉफी जीती है. अब तक कोई भी टीम इस ट्रॉफी को 3 बार नहीं जीत सकी है.

इस अच्छी खबर से अलग बात की जाए, तो इस बार की आईसीसी चैंपियंस ट्रॉफी विवादों में ज्यादा रही. सब से पहले तो इस के मेजबान देश पाकिस्तान को ले कर ही बखेड़ा खड़ा हो गया था. भारत ने सिक्योरिटी का राग अलाप कर पाकिस्तान जा कर मैच खेलने से मना कर दिया था.

आप को बता दें इस बार की चैंपियंस ट्रॉफी में भारत, बंगलादेश, न्यूजीलैंड, पाकिस्तान, आस्ट्रेलिया, इंगलैंड, दक्षिण अफ्रीका, अफगानिस्तान समेत कुल 8 क्रिकेट टीमों ने हिस्सा लिया था. ग्रुप ए में भारत, बंगलादेश, न्यूजीलैंड और पाकिस्तान थे, तो ग्रुप बी में आस्ट्रेलिया, इंगलैंड, दक्षिण अफ्रीका और अफगानिस्तान थे. भारत ने इस टूर्नामैंट में अपना एक भी मैच नहीं हारा था.

विवाद नंबर 1

खबरों की मानें तो मेजबान पाकिस्तान में इस आईसीसी ट्रॉफी में चुने गए पुलिस वालों ने चैंपियंस ट्रॉफी में ड्यूटी करने से ही इनकार कर दिया था. इस के बाद इन पुलिस वालों पर गाज गिरी थी. पंजाब पुलिस के बड़े अफसरों के मुताबिक, इन बरखास्त पुलिस वालों को बारबार ड्यूटी से गायब पाया गया था. इन पुलिस वालों को लाहौर के गद्दाफी स्टेडियम और होटल के बीच खिलाड़ियों की सिक्योरिटी के लिए लगाया गया था, लेकिन उन्होंने अपनी जिम्मेदारी का पालन नहीं किया.

बंगलादेश और न्यूजीलैंड के बीच हुए एक मैच के दौरान एक शख्स स्टेडियम में घुस आया था और उस ने न्यूजीलैंड के बल्लेबाज रचिन रविंद्र के गले लगने की कोशिश की थी.

हालांकि, मैदान पर अनजान शख्स को देख कर वहां मौजूद सिक्योरिटी गार्ड ऐक्शन में आए थे और उस शख्स को पकड़ कर मैदान से बाहर ले गए थे. पर डराने वाली बात यह रही कि उस शख्स के हाथ में आतंकवादी संगठन तहरीक ए लबैक पाकिस्तान (टीएलपी) के प्रमुख हाफिज साद हुसैन रिजवी की तसवीर थी.

विवाद नंबर 2

पाकितान ने क्रिकेट ग्राउंड को बारिश के पानी से सुखाने का जो तरीका अपनाया, वह बड़ा हो लोकल लैवल का था. इस बात से उस की देशदुनिया में बड़ी किरकिरी हुई थी.

आस्ट्रेलिया और अफगानिस्तान के बीच हुए मैच की मिसाल लेते हैं. आस्ट्रेलिया की पारी में 12.5 ओवर के बाद बारिश होने लगी थी और तकरीबन 30 मिनट तक लगातार बारिश हुई थी. इस वजह से मैदान पूरी तरह पानी से भर गया था, लेकिन मैदान को न सुखा पाने के चलते सोशल मीडिया पर पाकिस्तान क्रिकेट बोर्ड की जम कर क्लास लगाई गई थी.

हद तो यह थी कि साधारण वाइपर ले कर 3 स्टाफ दौड़ते हुए बारिश के जमा हुए पानी को सुखाने की कोशिश कर रहे थे, लेकिन इसी दौरान एक सफाई वाला फिसल कर गिर गया था.

विवाद नंबर 3

मेजबान पाकिस्तान को भारत के साथ अपना मैच खेलने के लिए दुबई आना पड़ा, जबकि वहां की आम जनता भारत को अपने देश में खेलते देखना चाहती थी. पर भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड ने साफ मना कर दिया कि जब तक भारत और पाकिस्तान के साथ दोस्ताना रिश्ते नहीं होंगे, तब तक भारत वहां नहीं जाएगा.

इस बात से दबी जबान में यह भी कहा गया कि भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड इंटरनैशनल क्रिकेट काउंसिल से बड़ा हो गया, जो अपनी मनमानी कर रहा है. चूंकि इंटरनैशनल क्रिकेट बोर्ड के चैयरमैन जय शाह हैं, तो उन्होंने अपने हिसाब से भारत के मैच दुबई की ऐसी पिच पर मैच रखे कि भारत को यह टूर्नामैंट जीतने में आसानी हुई.

पाकिस्तान, आस्ट्रेलिया और इंगलैंड के कई पुराने खिलाड़ियों ने कहा है कि भारत को सारे मैच एक ही जगह पर खेलने से दूसरी टीमों के मुकाबले हालात के मुताबिक बेहतर ढलने में मदद मिली.

दक्षिण अफ्रीका के टौप और्डर के बल्लेबाज रासी वान डेर डुसेन ने कहा है कि यह जानने के लिए ‘राकेट साइंटिस्ट’ होने की जरूरत नहीं है कि भारत को चैंपियंस ट्रॉफी में दुबई में खेलने का फायदा मिल रहा है.

विवाद नंबर 4

पाकिस्तान को हुआ पैसे का तगड़ा नुकसान. अगर भारत फाइनल मुकाबले के लिए क्वालिफाई नहीं करता तो फाइनल मुकाबला पाकिस्तान में लाहौर के गद्दाफी स्टेडियम में खेला जाता. लेकिन भारत की जीत से फाइनल मुकाबला दुबई में शिफ्ट हो गया.

दरअसल, पाकिस्तान क्रिकेट बोर्ड ने करोड़ों रुपए खर्च कर कराची के गद्दाफी स्टेडियम का रिनोवेशन कराया था, जो किसी काम का नहीं रहा.

पाकिस्तान ने इस क्रिकेट आयोजन की मेजबानी के लिए अपने 3 स्टेडियमों का रिनोवेशन करने में तकरीबन 5 अरब रुपए खर्च करने का अंदाजा जताया था. पाकिस्तान क्रिकेट बोर्ड को उम्मीद थी कि मैचों के लिए स्टेडियमों में फैंस का जनसैलाब उमड़ पड़ेगा, लेकिन हुआ उस का उलटा, क्योंकि पाकिस्तान की टीम नौकआउट से पहले ही बाहर हो गई और 2 मैच बारिश ने धो डाले.

समाचार एजेंसी पीटीआई के मुताबिक, आईसीसी ने चैंपियंस ट्रॉफी के लिए तकरीबन 586 करोड़ रुपए के बजट को मंजूर किया था. इस टूर्नामैंट में कुल 15 मुकाबले होने थे. इन में भारत के 3 ग्रुप मुकाबले और एक सैमीफाइनल मुकाबला दुबई में खेला गया. बाद में फाइनल मुकाबला भी दुबई में खेला गया.

एक मैच के लिए तकरीबन 39 करोड़ रुपए का बजट था. ऐसे में पाकिस्तान को 4 मैच का 156 करोड़ रुपए का नुकसान पहले ही हो चुका था. फिर फाइनल मुकाबला दुबई में होने से पाकिस्तान को 39 करोड़ रुपए का और नुकसान उठाया.

विवाद नंबर 5

इस टूर्नामैंट में पाकिस्तान क्रिकेट टीम का भी अंदरूनी विवाद सामने आया. पूरी टीम बिखरी हुई नजर आई. पहले 2 मुकाबले वह न्यूजीलैंड और भारत से हार गई थी और बंगलादेश के साथ उस का मुकाबला बारिश के चलते धुल गया था. इतना ही नहीं, कप्तान और कोच एकमत नहीं दिखे.

क्रिकेट पाकिस्तान की एक रिपोर्ट में दावा किया गया था कि पाकिस्तान का खराब प्रदर्शन टीम के कप्तान मोहम्मद रिजवान और मुख्य कोच आकिब जावेद के बीच ‘अंदरूनी कलह’ के चलते हुआ. रिपोर्ट में सूत्रों के हवाले से कहा गया कि मोहम्मद रिजवान अहम फैसलों पर सलाह की कमी के चलते निराश दिखे. जब उन्होंने खुशदिल शाह को शामिल करने की वकालत की, तो आकिब जावेद ने आगे बढ़ कर फहीम अशरफ को खुद ही चुन लिया.

हालांकि, बोर्ड प्रमुख ने इस के खिलाफ कोई ऐक्शन नहीं करने का फैसला किया, क्योंकि वे टीम के मसलों में घुसना नहीं चाहते थे. वहीं, खराब प्रदर्शन के चलते घरेलू मैदानों पर चैंपियंस ट्रॉफी का खिताब बचाने का सपना भी पाकिस्तान का टूट गया.

इस के अलावा फाइनल मुकाबले में पाकिस्तान के नुमाइंदे पाकिस्तान क्रिकेट बोर्ड के मुख्य कार्यकारी अधिकारी, सुमेर अहमद, जो टूर्नामैंट निदेशक के रूप में भी कार्यरत थे, दुबई में मौजूद थे, लेकिन उन्हें पोडियम पर नहीं बुलाया गया.

पाकिस्तान क्रिकेट बोर्ड इस मुद्दे को इंटरनैशनल क्रिकेट काउंसिल के सामने उठाने की योजना बना रहा है, ताकि यह समझा जा सके कि उन के सीईओ को समारोह में शामिल क्यों नहीं किया गया.

अविनाश साबले की दिलचस्प कहानी

हाल ही में हुए पैरिस ओलिंपिक, 2024 खेलों में भारत ने कुल 6 मैडल जीते, पर कुछ इवैंट्स में भारतीय खिलाडि़यों ने इतिहास रच दिया. आज ऐसे ही एक होनहार खिलाड़ी की बात करते हैं, जिन का नाम अविनाश साबले है. 3000 मीटर की स्टीपलचेज यानी बाधा दौड़ में वे ऐसे पहले भारतीय खिलाड़ी बन गए हैं, जिन्होंने फाइनल मुकाबले में अपनी जगह बनाई.

स्टीपलचेज एक ऐसी प्रतियोगिता होती है, जिस में खिलाडि़यों को ट्रैक पर आने वाली बाधाओं को पार करना होता है और पानी में छलांग लगानी होती है.

13 सितंबर, 1994 को जनमे अविनाश साबले महाराष्ट्र के बीड जिले में अष्टि तालुका के एक छोटे से गांव मंडवा में पलेबढ़े हैं और पैरिस ओलिंपिक तक पहुंच कर उन्होंने अपने गांव और जिले के साथसाथ पूरे देश का नाम रोशन किया है.

अविनाश साबले ने बताया कि उन का एक सामान्य परिवार में जन्म हुआ है, लेकिन ईंटभट्ठे में मजदूरी करने वाले उन के मातापिता ने हमेशा से अपने बच्चों को बेहतर तालीम दिलाना ही अपनी जिंदगी का मकसद माना है.

3 भाईबहनों में अविनाश बचपन से ही दौड़ में नंबर वन रहे हैं. यही नहीं, 5-6 साल की उम्र में ही अपने मातापिता की मुश्किलों को देख कर उन्होंने तय कर लिया था कि वे अपने घरपरिवार का संबल बनेंगे.

अविनाश साबले की मां गांव के ईंटभट्ठे पर मजदूरी करती थीं और खाना बना कर अविनाश के पिता के साथ काम पर चली जाती थीं. एक दफा सुबह घर से निकलने के बाद वे सब लोग उन्हें सिर्फ रात में ही मिल पाते थे. उन्हें ऐसे काम करते हुए देख कर अविनाश को उन की कड़ी मेहनत का अंदाजा नहीं था. यहीं से अविनाश को यह प्रेरणा मिली कि उन्हें कुछ बहुत बड़ा काम करना है.

अविनाश साबले के घर से स्कूल की दूरी महज 6 किलोमीटर थी. ऐसे में वे दौड़ कर स्कूल पहुंच जाते थे और धीरेधीरे दौड़ना उसे अच्छा लगने लगा. अविनाश को दौड़ते हुए स्कूल जाते देख कर मास्टरों ने उन की रेस उन से बड़ी क्लास के छात्र के साथ कराई, जिस में अविनाश के जीतने के बाद मास्टरों ने उन की इस प्रतिभा पर भी ध्यान देना शुरू किया.

इस के बाद अविनाश साबले को 500 मीटर की रेस में ले जाया गया. उस समय वे प्राइमरी स्कूल के छात्र थे और उन की उम्र तब 9 साल ही थी. इस रेस को ले कर उन्होंने कोई तैयारी भी नहीं की थी. मगर अविनाश ने मास्टरों और स्कूल को निराश नहीं किया. मजेदार बात तो यह है कि उस दिन रेस के साथसाथ अविनाश ने 100 रुपए का नकद इनाम भी जीता था, जिसे याद कर के वे आज भी खुश हो जाते हैं.

इस के बाद अविनाश साबले को स्कूल के मास्टर 2 साल धनोरा मैराथन ले गए थे. इस में भी अविनाश दोनों बार रेस में जीते. इस कारण से भी अविनाश को शिक्षकों का विशेष स्नेह मिलता था. 12वीं क्लास पास करने के बाद अविनाश सेना भरती परीक्षा में सफल हुए और पैरिस ओलिंपिक के बाद तो चर्चित चेहरे बन गए हैं.

याद रहे कि कभी अविनाश साबले बीड जिले के मंडवा गांव में राजमिस्त्री का काम किया करते थे. वहां से निकल कर आज वे भारत के सब से बेहतरीन लंबी दूरी के धावक बन कर सामने आए हैं.

साल 2017 में एक दौड़ के दौरान सेना के कोच अमरीश कुमार ने अविनाश साबले की तेज रफ्तार को देखा और फिर उन्हें स्टीपलचेज वर्ग में दौड़ने की सलाह दी. बता दें कि साल 2017 के फैडरेशन कप में अविनाश साबले 5वें नंबर पर रहे  थे और फिर चेन्नई में ओपन नैशनल में स्टीपलचेज नैशनल रिकौर्ड से सिर्फ 9 सैकंड दूर रहे थे.

इस के बाद भुवनेश्वर में आयोजित साल 2018 में ओपन नैशनल में अविनाश साबले ने 3000 मीटर स्टीपलचेज में 8:29.88 का समय लेते हुए 30 साल के नैशनल रिकौर्ड को 0.12 सैकंड से तोड़ कर इतिहास रच दिया था.

गरीब किसान की बेटी प्रिति पाल ने पैरिस पैरालिंपिक में रचा इतिहास

‘प्रीति’ का शाब्दिक अर्थ है प्यार, प्रेम. पर किसी लड़की का नाम प्रीति रख देने से उसे समाज में प्यार और प्रेम मिलेगा, यह जरूरी नहीं है. और अगर उस प्रीति में कोई शारीरिक खोट है, तो आप समझ सकते हैं कि उस की मानसिक दशा क्या रही होगी.

ऐसी ही कहानी 23 साल की प्रीति पाल की है, जो आज खेल की दुनिया का चमकता सितारा बन गई हैं, पर इस रोशनी को पाने के लिए प्रीति ने कितने अंधेरों का सामना किया है, यह तो वे ही बता सकती हैं.

हम बात कर रहे हैं उत्तर प्रदेश के मुजफ्फरनगर के एक छोटे से गांव हशमपुर में रहने वाली प्रीति पाल की, जिन्होंने पैरिस पैरालिंपिक खेलों में महिलाओं की टी35 100 मीटर दौड़ और टी35 200 मीटर दौड़ में कांसे का तमगा जीत कर इतिहास रच दिया है. इतना ही नहीं, प्रीति पाल पैरालिंपिक खेलों में  एथलैटिक्स में मैडल जीतने वाली पहली भारतीय धावक बन गई हैं. टी35 में वे खिलाड़ी हिस्सा लेते हैं, जिन में हाइपरटोनिया, अटैक्सिया और एथेटोसिस जैसे विकार होते हैं.

प्रीति पाल बचपन में ही सेरेब्रल पाल्सी नामक बीमारी से पीड़ित रही हैं. यह एक तरह का मस्तिष्क पक्षाघात होता है, जिस से मांसपेशियों की गति पर असर पड़ता है. नतीजतन, पीड़ित के चलनेफिरने और संतुलन बनाने में कमी आ जाती है. प्रीति का भी इलाज चला था और 5वीं तक की पढ़ाई गांव में करने के बाद वे मेरठ आ गई थीं. फिर और अच्छा इलाज कराने के मकसद से उन्हें दिल्ली लाया गया जहां, जवाहरलाल नेहरू स्टेडियम में कोच गजेंद्र सिंह से के मार्गदर्शन में उन्होंने ट्रेनिंग लेना शुरू किया.

इसी का नतीजा है कि आज प्रीति पाल ने 2 मैडल जीत कर देश का नाम रोशन किया है. पर प्रीति के लिए शारीरिक और मानसिक कष्ट के साथसाथ एक और कष्ट था, इन का भविष्य क्या होगा?

प्रीति के पिता अनिल कुमार पाल ने एक इंटरव्यू में बताया था, “प्रीति के मामले में हम ने अलग तरह की बातें सुनी हैं. अकसर लोग कहते थे कि प्रीति विकलांग है, आगे चल कर बड़ी दिक्कत हो जाएगी. लड़की है तो शादीब्याह में भी अड़चन आएगी. पर आज वही लोग कहते हैं कि लड़की ने बहुत अच्छा किया है.”

अनिल कुमार पाल एक गरीब किसान हैं, जो छोटी सी डेयरी से अपने परिवार का लालनपालन कर रहे हैं. प्रीति के 3 बहनभाई हैं और आज वे सभी प्रीति की इस कामयाबी से खुश हैं.

अविनाश साबले की दौड़ कर स्कूल जाने से ले कर पैरिस पहुंचने की दिलचस्प कहानी

हाल ही में हुए पैरिस ओलिंपिक, 2024 खेलों में भारत ने कुल 6 मैडल जीते, पर कुछ इवैंट्स में भारतीय खिलाड़ियों ने इतिहास रच दिया. आज ऐसे ही एक होनहार खिलाड़ी की बात करते हैं, जिन का नाम अविनाश साबले है. 3000 मीटर की स्टीपलचेज यानी बाधा दौड़ में वे ऐसे पहले भारतीय खिलाड़ी बन गए हैं, जिन्होंने फाइनल मुकाबले में अपनी जगह बनाई.

हालांकि, अविनाश साबले देश को कोई मैडल दिलाने में कामयाब नहीं हो सके, लेकिन उन की दौड़ की चर्चा आज पूरे देश में हो रही है. इतना ही नहीं, अविनाश साबले ने देश के नौजवानों को संदेश दिया है कि वे आने वाली पीढ़ी के लिए भी मार्गदर्शन करेंगे.

स्टीपलचेज एक ऐसी प्रतियोगिता होती है, जिस में खिलाड़ियों को ट्रैक पर आने वाली बाधाओं को पार करना होता है और पानी में छलांग लगानी होती है.

13 सितंबर, 1994 को जनमे अविनाश साबले महाराष्ट्र के बीड जिले में अष्टि तालुका के एक छोटे से गांव मंडवा में पलेबढ़े हैं और पैरिस ओलिंपिक तक पहुंच कर उन्होंने अपने गांव और जिले के साथसाथ पूरे देश का नाम रोशन किया है.

अविनाश साबले ने बताया है कि उन का एक सामान्य परिवार में जन्म हुआ है, लेकिन ईंटभट्ठे में मजदूरी करने वाले उन के मातापिता ने हमेशा से अपने बच्चों को बेहतर तालीम दिलाना ही अपनी जिंदगी का मकसद माना है. 3 भाईबहनों में अविनाश बचपन से ही दौड़ में नंबर वन रहे हैं. यही नहीं, 5 से 6 साल की उम्र में ही अपने मातापिता की मुश्किलों को देख कर उन्होंने तय कर लिया था कि वे अपने घरपरिवार का संबल बनेंगे.

अविनाश साबले की मां गांव के ईंटभट्ठे पर मजदूरी करती थीं और खाना बना कर अविनाश के पिता के साथ काम पर चली जाती थीं. एक दफा सुबह घर से निकलने के बाद वे सब लोग उन्हें सिर्फ रात में ही मिल पाते थे. उन्हें ऐसे काम करते हुए देख कर अविनाश को उन की कड़ी मेहनत का अंदाजा नहीं था. यहीं से अविनाश को यह प्रेरणा मिली कि उन्हें कुछ बहुत बड़ा काम करना है.

परिवार की कमजोर माली हालत देख कर अविनाश साबले में मन में तय कर लिया था कि वे कुछ ऐसा करेंगे कि दुनिया उन के मांबाप की तरफ गौरव के साथ देखे. लिहाजा, अविनाश ने बचपन से ही दौड़ को अपना लक्ष्य बना लिया था.

अविनाश साबले के घर से स्कूल की दूरी 6 किलोमीटर थी. ऐसे में वे दौड़ कर स्कूल पहुंच जाते थे और धीरेधीरे दौड़ना उसे अच्छा लगने लगा. अविनाश को दौड़ते हुए स्कूल जाते देख कर मास्टरों ने उन की रेस उन से बड़ी क्लास के छात्र के साथ कराई, जिस में अविनाश के जीतने के बाद मास्टरों ने उन की इस प्रतिभा पर भी ध्यान देना शुरू किया.

इस के बाद अविनाश साबले को 500 मीटर की रेस में ले जाया गया. उस समय वे प्राइमरी स्कूल के छात्र थे और उन की उम्र तब 9 साल ही थी. इस रेस को ले कर उन्होंने कोई तैयारी भी नहीं की थी. मगर अविनाश ने मास्टरों और स्कूल को निराश नहीं किया. मजेदार बात तो यह कि उस दिन रेस के साथ साथ अविनाश ने 100 रुपए का नकद इनाम भी जीता था, जिसे याद कर के वे आज भी खुश हो जाते हैं.

इस के बाद अविनाश साबले को स्कूल के मास्टर 2 साल धनोरा मैराथन ले गए थे. इस में भी अविनाश दोनों बार रेस में जीते. इस कारण से भी अविनाश को शिक्षकों का विशेष स्नेह मिलता था. 12वीं क्लास पास के बाद अविनाश सेना भरती परीक्षा में सफल हुए और पैरिस ओलिंपिक में शिरकत करने के बाद तो चर्चित चेहरे बन गए हैं.

याद रहे कि कभी अविनाश साबले बीड जिले के मंडवा गांव में राजमिस्त्री का काम किया करते थे. वहां से निकल कर आज वे भारत के सब से बेहतरीन लंबी दूरी के धावक बन कर सामने आए हैं.

साल 2017 में एक दौड़ के दौरान सेना के कोच अमरीश कुमार ने अविनाश साबले की तेज रफ्तार को देखा और फिर उन्हें स्टीपलचेज वर्ग में दौड़ने की सलाह दी. बता दें कि साल 2017 के फैडरेशन कप में अविनाश साबले 5वें नंबर पर रहे थे और फिर चेन्नई में ओपन नैशनल में स्टीपलचेज नैशनल रिकौर्ड से सिर्फ 9 सैकंड दूर रहे थे.

इस के बाद भुवनेश्वर में आयोजित साल 2018 ओपन नैशनल में अविनाश साबले ने 3000 मीटर स्टीपलचेज में 8: 29.88 का समय लेते हुए 30 साल के नैशनल रिकौर्ड को 0.12 सैकंड से तोड़ कर इतिहास रच दिया था.

ओलिंपिक में विनेश फोगाट : सरकार की चूक और देश में गुस्सा

पैरिस ओलिंपिक में सीधेसीधे पहलवान विनेश फोगाट के साथ नाइंसाफी हुई है, यह तो कोई बच्चा भी जानता है. अगर विनेश का वजन 100 ग्राम ज्यादा हो गया, तो उस की वजह क्या थी, इसे जाने बैगर ऐक्शन लेना गलत ही है न?

यह सारी दुनिया को मालूम है कि पानी की कमी की वजह से विनेश फोगाट को क्लिनिक में भरती कराया गया था. सवाल यह है कि किसी की जिंदगी बड़ी है या फिर खेल के नियम और कायदे? सचमुच, अगर वजन ज्यादा होता तो वे ओलिंपिक खेलों में क्वालिफाई ही नहीं कर पातीं. इनसानियत के नजरिए से ओलिंपिक संघ को इसे स्वयं संज्ञान में लेना चाहिए था, पर अगर नहीं लिया गया तो भारतीय ओलिंपिक संघ की अध्यक्ष पीटी उषा ने याद दिलाया, मगर इस के बावजूद अगर विनेश फोगाट के साथ नाइंसाफी हुई है और उन्हें डिसक्वालिफाई कर दिया गया है तो भारत सरकार को सख्त कदम उठाने की जरूरत है.

यह सीधेसीधे भारत की बेइज्जती है. भारत की एक बेटी अगर कुश्ती के खेल में फाइनल में पहुंची है तो पूरे देश के जनजन की भावना को इज्जत करते हुए पैरिस ओलिंपिक में फाइनल में प्रदर्शन करने की इजाजत दी जानी चाहिए थी.

यह है मामला

पैरिस ओलिंपिक में महिलाओं की 50 किलोग्राम भारवर्ग कुश्ती इवैंट के फाइनल से पहले 100 ग्राम वजन ज्यादा पाए जाने के चलते बुधवार, 7 अगस्त, 2024 को विनेश फोगाट को अयोग्य घोषित कर दिया गया. इस की वजह से जहां विनेश पदक से वंचित रह गईं, वहीं 140 करोड़ भारतवासियों की उम्मीदों के साथ खिलवाड़ किया गया.

भारतीय अधिकारियों ने सौ ग्राम वजन की छूट देने के लिए गुहार लगाई, लेकिन नियम बदला नहीं जा सकता था. इस से विनेश का ओलिंपिक में गोल्ड मैडल जीतने का सुनहरा सफर एक झटके में खत्म हो गया.

विनेश फोगाट ने ओलिंपिक फाइनल में पहुंचने वाली पहली भारतीय महिला पहलवान बन कर इतिहास रचा था. मगर 7 अगस्त को सुबह वजन ज्यादा पाया. उन के शानदार प्रदर्शन से देश को लगा था कम से कम सिल्वर मैडल पक्का है, लेकिन अब वे बिना किसी मैडल के लौटेंगी.

विनेश फोगाट जब ओलिंपिक खेलगांव के एक पाली क्लिनिक में हुई घटनाओं के भावनात्मक और शारीरिक आघात से उबर रही थीं, तब देश की राजधानी नई दिल्ली में एक विवाद शुरू हो गया, जहां नेताओं ने इस गड़बड़ी के लिए जिम्मेदार लोगों पर कटाक्ष किया. खेल और युवा मामलों के मंत्री मनसुख मांडविया ने लोकसभा में दिए बयान में विनेश फोगाट पर किए गए खर्च का जिक्र किया. इस की देशभर में निंदा हो रही है. दरअसल, कोई भी देश अपने खिलाड़ियों के प्रति इस तरह का बरताव नहीं करता कि यह बताया जाए कि हम ने फलां खिलाड़ी पर इतना इतना पैसा खर्च किया.

कुलमिला कर खेल मंत्री कहना चाहते हैं कि इतना खर्च करने के बाद भी क्या नतीजा आया? यह देश के लिए खेलने वाले खिलाड़ी के ऊपर तंज ही तो है.

देश में दुख जज्बात का सैलाब

विनेश फोगाट ने ओलिंपिक के फाइनल में पहुंचने वाली पहली भारतीय महिला पहलवान बन कर इतिहास रच दिया है, मगर जिस तरह उन्हें सिर्फ 100 ग्राम वजन, वह भी पानी की कमी होने के चलते अस्पताल में भरती होना पड़ा था, स्वाभाविक है वह सब ठीक भी हो सकता था.

दरअसल, 29 साल की विनेश फोगाट को खेलगांव में पाली क्लिनिक ले जाया गया, क्योंकि सुबह उन के शरीर में पानी की कमी हो गई थी. विनेश ने पहले ही मुकाबले में मौजूदा चैंपियन युई सुसाकी को हराया था. उन्हें फाइनल में अमेरिका की सारा एन. हिल्डब्रांट से खेलना था.

इस मामले पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा, ‘विनेश फोगाट, आप चैंपियनों में चैंपियन हैं. आप भारत का गौरव हैं और हर भारतीय के लिए प्रेरणा हैं. आज की असफलता दुख देती है. काश, मैं शब्दों में उस निराशा को व्यक्त कर पाता, जो मैं अनुभव कर रहा हूं.’

नेता प्रतिपक्ष राहुल गांधी ने कहा, ‘विश्व विजेता पहलवानों को हरा कर फाइनल में पहुंचीं भारत की शान विनेश फोगाट को तकनीकी आधार पर अयोग्य घोषित किया जाना दुर्भाग्यपूर्ण है. हमें पूरी उम्मीद है कि भारतीय ओलिंपिक संघ इस फैसले को मजबूती से चुनौती दे कर देश की बेटी को इंसाफ दिलाएगा.’

दूसरी ओर इस मामले के बाद विनेश फोगाट ने दुखी मन से कुश्ती से संन्यास लेने की घोषणा कर दी. इस बीच देश में जो गुस्सा और दिनेश फोगाट के प्रति जज्बात का उफान देखा जा रहा है, वह बेमिसाल है.

मनु भाकर की तंदरुस्ती का जानें राज, फिट रहने के लिए करती है ये

Paris olympic 2024 में एयर पिस्टल शूटर मनु भाकर ने ब्रौन्ज मेडल जीतकर भारत के लिए एक नया इतिहास रचा है. मनु ने 10 मीटर एयर पिस्टल में 222.7 का स्कोर बनाया. जिसके बाद उन्होंने तीसरा स्थान हासिल किया. मनु निशानेबाजी में भारत को मेडल दिलाने वाली पहली महिला एथलीट बन चुकी हैं. अब मनु दो ब्रौन्ज मेडल जीत चुकी है.  Games

मनु के जीतने के बाद मेडल के मामले में भारत का खाता खुला है. मनु ने मेडल जीतने पर कहा कि कई सालों की कड़ी मेहनत के बाद उनका सपना पूरा हुआ है. भारत को निशानेबाजी में 12 साल बाद कोई मेडल मिला है. 22 साल की मनु ओलंपिक खेलने वाली लड़कियों के लिए एक मिसाल बन रही हैं. लेकिन मनु अपने गेम्स के साथ साथ अपनी फिटनेस को लेकर भी काफी चर्चा में रहती है. मनु की फिटनेस वीडियो भी वायरल है. लेकिन उनके फैंस ये जरूर जानना चाहते होंगे कि आखिर मनु अपनी फिटनेस के लिए क्या क्या करती है.

 

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मनु फिट रहने के लिए रैग्युलर तौर पर एक्सरसाइज करती हैं और लंबे समय तक शारीरिक गतिविधियों में शामिल रहती हैं. वे फीजिकल हेल्थ के साथ-साथ मेंटल हेल्थ को लेकर भी काफी एक्टिव रहती हैं. जिसके लिए वे रोज योग और मेडिटेशन करती हैं. कुछ समय पहले मनु ने अपने आधिकारिक इंस्टाग्राम पर एक वीडियो शेयर की थी, जिसमें वे धूप सेंकती हुई नजर आ रही थीं. मनु शरीर में विटामिन डी को मेनटेन रखने के लिए गोलियां और सप्लीमेंट्स खाने के बजाय धूप सेंकती हैं.

मनु हफ्ते में कम से कम 5 दिन जिम जरूर जाती हैं. इसके साथ ही वे अपने इंस्टाग्राम अकाउंट पर स्ट्रेंथ ट्रेनिंग, कार्डियो और वेट ट्रेनिंग जैसी एक्सरसाइज करते हुए वीडियो शेयर करती हैं. यही नहीं, मनु अपनी कार्डियोवैस्कुलर हेल्थ को बेहतर बनाने के लिए रस्सी भी कूदती हैं.

मुन भाकर की डाइट

मीडिया रिपोर्ट्स की मानें तो मनु प्योर वेजिटेरियन हैं. वे अंडे तक खाना पसंद नहीं करती हैं. शरीर में कार्ब्स, प्रोटीन और अन्य पोषक तत्वों को बैलेंस रखने के लिए वे केवल घर का बना शुद्ध शाकाहारी खाना ही खाती हैं. जिसमें वे सब्जी, दाल, रोटी और पनीर आदि लेती हैं. वे बाहर का कुछ भी खाने के बजाय केवल मां के हाथ का बना भोजन करना ही पसंद करती हैं.

कैसा रहा मनु भाकर का स्ट्रगल

मनु भाकर हरियाणा के झज्जर की युवा निशानेबाज है, जिन्होंने अपने संघर्ष और सफलता की कहानी से आज देश को गर्वित कर दिया है. 22 साल की उम्र में उन्होंने ओलंपिक में कांस्य पदक जीतकर यह साबित कर दिया कि मेहनत और सही मार्गदर्शन से किसी भी चुनौती को पार किया जा सकता है.

मनु ने अपने कोच जसपाल राणा के साथ की कड़ी मेहनत कर ये मुकाम हासिल किया. उन्होंने राणा द्वारा तैयार की गई डेली रूटीन को फोलो किया और फिर से जुड़ने से वह एक बेहतर एथलीट बन गईं.

मनु भाकर की कहानी सिर्फ एक खिलाड़ी की नहीं है, बल्कि यह उन सभी लोगों के लिए प्रेरणा है, जो जीवन में किसी भी मुश्किल का सामना कर रहे हैं. उनकी यह कहानी हमें यह सिखाती है कि सफलता के लिए सिर्फ मेहनत और दृढ़ता की जरूरत नहीं है और मनु ने इसे साबित कर दिखाया है.

एथलीट राम बाबू : मनरेगा मजदूर से मैडल तक का सफर

4 राज्यों झारखंड, बिहार, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ की सरहदों से लगे हुए उत्तर प्रदेश के आखिरी छोर पर बसा सोनभद्र का बहुअरा गांव इन दिनों सुर्खियों में है. वाराणसीशक्तिनगर हाईवे से लगा हुआ यह गांव सोनभद्रचंदौली का सरहदी गांव भी है.

कभी नक्सलियों की धमक से दहलने वाले चंदौली के नौगढ़ से लगा हुआ यह गांव नक्सलियों की आहट से सहमा हुआ करता था, लेकिन अब यह गांव दूसरी वजह से सुर्खियों में बना हुआ है.

सिर्फ एक ही नाम के चर्चे इन दिनों हरेक की जबान पर हैं. वह नाम कोई और नहीं, बल्कि एक साधारण से गरीब आदिवासी परिवार के नौजवान रामबाबू का है. इस साधारण से लड़के ने गरीबी और बेरोजगारी को पीछे छोड़ते हुए इन्हें ढाल न बना कर, बल्कि चुनौती के रूप में स्वीकार करते हुए इंटरनैशनल लैवल पर अपने कामयाबी के झंडे गाड़ते हुए उन लोगों  के लिए एक मिसाल पेश की है, जो चुनौतियों से घबरा कर हाथ पर हाथ धर कर बैठ जाते हैं.

चीन के हांग शहर में हुए 19वें 35 किलोमीटर पैदल चाल इवैंट में कांसे का तमगा हासिल करने वाले 24 साल के रामबाबू ने गांव के प्राइमरी स्कूल में पढ़ाई शुरू कर नवोदय विद्यालय में इंटर तक की तालीम हासिल करने के बाद इंटरनैशनल लैवल पर छाने के लिए हर उस चुनौती का सामना किया है, जो उन राह में रोड़ा बनी हुई थी.

रामबाबू के परिवार में पिता छोटेलाल उर्फ छोटू और माता मीना देवी हैं. 2 बड़ी बहनों किरन और पूजा की शादी हो चुकी है, जबकि छोटी बहन सुमन प्रयागराज में रह कर इंजीनियरिंग की पढ़ाई कर रही है.

रोजाना दौड़ने की आदत को अपनी दिनचर्या में शामिल करने के बाद रामबाबू का धावक बनने

का सफर शुरू हुआ था. सुबहशाम गांव की पगडंडियों, खाली पड़े खेतखलिहानों में दौड़ लगाने के साथसाथ वे मेहनत के कामों से जी नहीं चुराया करते थे. अपने मकसद को हासिल करने के लिए मेहनतमजदूरी से भी पैर पीछे नहीं हटाया.

इस तरह अति पिछड़े गांव से बाहर निकल कर नैशनल लैवल पर छा गए रामबाबू साल 2022 में गुजरात में हुए राष्ट्रीय पैदल चाल इवैंट में एक नए रिकौर्ड के साथसाथ गोल्ड मैडल हासिल करने में कामयाब हुए थे.

इस 35 किलोमीटर की दूरी की प्रतियोगिता को उन्होंने महज 2 घंटे, 36 मिनट और 34 सैकंड में पूरा कर अपने कामयाबी के झंडे गाड़ दिए थे.

बताते चलें कि इस के पहले यह रिकौर्ड हरियाणा के मोहम्मद जुनैद के नाम था. रामबाबू ने मोहम्मद जुनैद को हरा कर ही गोल्ड मैडल जीता था.

इस के बाद 15 फरवरी, 2023 को रामबाबू ने झारखंड राज्य की राजधानी रांची में आयोजित राष्ट्रीय पैदल चाल गेम्स में अपना ही रिकौर्ड तोड़ते हुए

2 घंटे, 30 मिनट और 36 सैकंड का एक नया रिकौर्ड कायम किया था. इस के बाद 25 मार्च, 2023 को स्लोवाकिया में 2 घंटे, 29 मिनट और 56 सैकंड में यही दूरी तय करते हुए रामबाबू ने अपने नाम एक और रिकौर्ड किया था.

गुरबत में गुजरबसर कुछ समय पहले तक रामबाबू का घरपरिवार उन सभी बुनियादी सुविधाओं से महरूम था, जिन की उसे रोजाना जरूरत होती है. पीने का पानी लाने के लिए एक किलोमीटर दूर जाना पड़ता था. आवास के नाम पर खपरैल और झोंपड़ी वाला मकान लाचार नजर आता है.

वह तो भला हो सोनभद्र के कलक्टर चंद्र विजय सिंह का, जिन्होंने राष्ट्रीय खेलों में गोल्ड मैडल हासिल करने वाले रामबाबू की कामयाबी के बाद उन के घर पहुंच कर पानी की समस्या को हल करने के लिए तत्काल हैंडपंप लगवाए जाने का निर्देश दिया था.

कलक्टर के निर्देश का असर ही कहा जाएगा कि रामबाबू के परिवार को पानी की समस्या से नजात मिल गई है. उन्होंने 10 बिस्वा जमीन भी पट्टा करने के साथसाथ आवास के लिए अलग से एक बिस्वा जमीन मुहैया कराई.

पर अफसोस यह है कि रामबाबू के परिवार को भले ही कहने के लिए कलक्टर ने आवास, खेतीकिसानी के लिए जमीन आवंटित कर दी है, लेकिन देखा जाए तो यह रामबाबू के परिवार के लिए बेकार है. वजह, जो जमीन मिली है, वह भी डूब क्षेत्र में 10 बिस्वा मिली है.

बहुअरा बंगाल में एक बिस्वा जमीन आवास के लिए मिली है. यह जमीन मार्च, 2023 में मिली थी. लेकिन लेखपाल और प्रधान ने मनमानी करते हुए बाद में दूसरी जगह नाप दी है, जहां से 11,000 पावर की टावर लाइन गुजरती है, जबकि बगल में ही ग्राम समाज की जमीन खाली पड़ी हुई है. वहां जमीन न दे कर कलक्टर के आदेश को भी एक तरह से दरकिनार करते हुए मनमानी की गई है.

दबंगों का खौफ रामबाबू का जो घर है, वह अब जर्जर हो चुका है. उन के परिवार वाले बताते हैं कि वे लोग 35 सालों से गांव में रहते आ रहे हैं. गांव के ही एक आदमी को 10 बिस्वा का पैसा आज से 25 साल पहले दिया था, इस के बावजूद वह न जमीन दे रहा है, न ही पैसा वापस कर रहा है, बल्कि दबंग लोग कच्चे घर के खपरैल को भी तोड़ देते हैं.

कई बार शिकायत करने के बाद भी अभी तक कोई सुनवाई नहीं हो पाई है, जिस से सर्दी, बरसात के थपेड़ों को सहते हुए जंगली जीवजंतुओं के डर के बीच रहने को मजबूर होना पड़ रहा है.

रामबाबू के घर तक सड़क, खड़ंजा नाली की कमी बनी हुई है. हलकी बारिश में भी पानी भरने के साथ कीचड़ में चलना दूभर हो जाता है, जबकि लिंक मार्ग से रामबाबू का घर लगा हुआ है. अगर 50 मीटर तक खड़ंजा बिछा दिया जाए, तो कीचड़ से राहत मिल जाए, लेकिन इस के लिए न तो प्रधान ने पहल की और न ही किसी और जनप्रतिनिधि ने.

वेटर और मनरेगा मजदूर

भारत में लौकडाउन के दौरान जब समूचा मजदूर तबका हलकान और परेशान हो उठा था, उस दौर में भी रामबाबू ने हिम्मत नहीं हारी थी. साल 2020 में जब वे भोपाल में प्रैक्टिस कर रहे थे, तब लौकडाउन  के दौरान वे गांव लौट आए थे. वहां मातापिता के साथ मिल कर मनरेगा के तहत मजदूरी किया करते थे. इस के पहले वे वाराणसी में एक होटल में वेटर का भी काम कर चुके हैं.

रामबाबू भारतीय सेना में हवलदार हैं. उन का अगला टारगेट पैरिस ओलिंपिक, 2024 में तमगा हासिल करना है.

फल बेचने वाले की बेटी चमकी

सोनभद्र के रामबाबू के साथ ही जौनपुर जिले के रामपुर विकास खंड क्षेत्र के अंतर्गत सुलतानपुर गांव की रहने वाली ऐश्वर्या ने भी गोल्ड मैडल हासिल कर अपने जिले का मान बढ़ाया है.

हालांकि ऐश्वर्या और उन के मातापिता मुंबई में रहते हैं, फिर भी उन के गांव में उन की कामयाबी के चर्चे हर जबान पर होते रहे हैं.

ऐश्वर्या के पिता कैलाश मिश्रा मुंबई में रह कर फल बेचने का कारोबार करते हैं. उन की बेटी ऐश्वर्या ने चीन में एशियन गेम्स में गोल्ड मैडल जीता है. ऐश्वर्या का जन्म व पढ़ाईलिखाई मुंबई में ही हुई है. उन के परिवार वाले बताते हैं कि इस की तैयारी ऐश्वर्या पिछले 11 साल से कर रही थीं.

देश के लिए ऐश्वर्या ने यह चौथा मैडल जीता है. सब से पहले वे थाईलैंड में पहला मैडल जीती थीं. ऐश्वर्या की जीत पर प्रधानमंत्री ने भी ट्वीट कर के बधाई दी थी.

दलबदल का खेल

दलबदल और क्रौस वोटिंग भी उसी तरह से गलत है, जिस तरह ‘महाभारत’ में शकुनि और समुद्र मंथन में देवताओं ने गलत किया था. इस के लिए बेईमानी सिखाने वाला जिम्मेदार होता है. दलबदल करने के लिए उकसाने वाला दलबदल करने वालों से ज्यादा कुसूरवार होता है.

जब भगवा चोले वाले दक्षिणापंथी इस काम को करते हैं, तो वे भेड़ के भेष में भेडि़ए लगते हैं. राज्यसभा चुनाव में उत्तर प्रदेश से ले कर हिमाचल प्रदेश तक जो हुआ, वह दलबदल की परिभाषा में भले ही पूरी तरह से फिट न हो, पर यह भ्रष्ट आचरण का उदाहरण है.

भारतीय राजनीति में दलबदल करने वालों को ‘आया राम गया राम’ के नाम से भी जाना जाता है. पहले यह कहावत ‘आया लाल गया लाल’ के नाम से मशहूर थी, फिर यह ‘आया राम गया राम’ में बदल गई. इस का मतलब राजनीतिक दलों में आने और जाने से होता है.

मजेदार बात यह है कि गया लाल नाम का एक विधायक था, जिस के नाम पर यह कहावत पड़ी थी. 55 साल के बाद आज भी यह कहावत पूरी तरह से हकीकत को दिखाती है.

बात साल 1967 की है. उस समय हरियाणा के हसनपुर निर्वाचन क्षेत्र, जिसे अब होडल के नाम से जाना जाता है, विधानसभा के सदस्य गया लाल ने एक आजाद उम्मीदवार के रूप में चुनाव जीता था. इस के बाद वे भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस में शामिल हो गए थे.

इस के बाद गया लाल ने एक पखवारे में 3 बार पार्टियां बदली थीं. पहले राजनीतिक रूप से भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस से संयुक्त मोरचे में दलबदल कर के, फिर वहां से वे वापस कांग्रेस में शामिल हो गए और फिर 9 घंटे के भीतर संयुक्त मोरचे में शामिल हो गए.

जब गया लाल ने संयुक्त मोरचा छोड़ दिया और कांग्रेस में शामिल हो गए, तो कांग्रेस नेता राव बीरेंद्र सिंह, जिन्होंने गया लाल के कांग्रेस में दलबदल की योजना बनाई थी, चंडीगढ़ में एक  सम्मेलन में गया लाल को लाए और घोषणा की थी कि ‘गया लाल अब आया लाल’ हो गए हैं. इस से राजनीतिक दलबदल का खेल शुरू हो गया था. उस के बाद हरियाणा विधानसभा भंग हो गई और राष्ट्रपति शासन लगाया गया.

साल 1967 के बाद भी गया लाल लगातार राजनीतिक दल बदलते रहे. साल 1972 में वे अखिल भारतीय आर्य सभा के साथ हरियाणा में विधानसभा चुनाव लड़े. साल 1974 में चौधरी चरण सिंह के नेतृत्व में भारतीय लोक दल में शामिल हुए. साल 1977 में लोकदल के जनता पार्टी में विलय के बाद जनता पार्टी के उम्मीदवार के रूप में सीट जीती.

गया लाल के बेटे उदय भान भी दलबदल करते रहे. साल 1987 में आजाद उम्मीदवार के रूप में विधानसभा चुनाव जीता. साल 1991 में जनता पार्टी के उम्मीदवार के रूप में चुनाव हार गए. साल 1996 में आजाद उम्मीदवार के रूप में हार गए. साल 2000 में चुनाव जीतने के बाद इंडियन नैशनल लोकदल में शामिल हो गए. साल 2004 में दलबदल विरोधी कानून के तहत आरोपों का सामना करना पड़ा. इस के बाद वे कांग्रेस में शामिल हुए. साल 2005 में कांग्रेस के उम्मीदवार के रूप में जीत हासिल की.

हरियाणा रहा दलबदल का जनक

राजनीति का असर समाज और घरपरिवार पर भी पड़ता है. बाद में यह कहावत बहुत मशहूर हो गई. अपने वादों और दावों से बदलने वालों को ‘आया राम, गया राम’ के नाम से पहचाना जा सका. राजनीति की नजर से देखें, तो हरियाणा इस का केंद्र रहा है.

साल 1980 में भजनलाल जनता पार्टी छोड़ कर 37 विधायकों के साथ कांग्रेस में शामिल हो गए थे और बाद में राज्य के मुख्यमंत्री बने. साल 1990 में उस समय भजनलाल की ही हरियाणा में सरकार थी.

भाजपा के केएल शर्मा कांग्रेस में शामिल हो गए थे. उस के बाद हरियाणा विकास पार्टी के 4 विधायक धर्मपाल सांगवान, लहरी सिंह, पीर चंद और अमर सिंह धानक भी कांग्रेस में शामिल हो गए.

साल 1996 में हरियाणा विकास पार्टी और बीजेपी गठबंधन ने सरकार बनाई. बाद में हरियाणा विकास पार्टी के 22 विधायकों के पार्टी छोड़ने की वजह से बंसीलाल को इस्तीफा देना पड़ा. हरियाणा विकास पार्टी के 22 विधायक इनेलो में शामिल हो गए थे. उस के बाद भाजपा की मदद से ओम प्रकाश चौटाला ने राज्य में सरकार बनाई थी.

साल 2009 के चुनाव में किसी पार्टी को स्पष्ट बहुमत नहीं मिला था. कांग्रेस और इंडियन नैशनल लोक दल दोनों सरकार बनाने की कोशिश कर रही थीं. उस समय हरियाणा जनहित कांग्रेस के

5 विधायक सतपाल सांगवान, विनोद भयाना, राव नरेंद्र सिंह, जिले राम शर्मा और धर्म सिंह कांग्रेस में शामिल हो गए थे.

दूसरे प्रदेश भी चले दलबदल की राह

‘आया राम गया राम’ की शुरुआत भले ही हरियाणा से हुई हो, पर दलबदल की जलेबी हर दल को पसंद आने लगी. इस की मिठास में सभी सराबोर हो गए. साल 1995 के बाद से उत्तर प्रदेश में यह दौर तेज हुआ. पहली बार बहुजन समाज पार्टी की नेता मायावती भारतीय जनता पार्टी के सहयोग से मुख्यमंत्री बनीं.

साल 1996 में उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनावों में किसी एक दल को बहुमत नहीं मिला. पहले 6 महीने राज्य में राष्ट्रपति शासन लगा रहा. इस के बाद भाजपा और बसपा ने 6-6 महीने का फार्मूला तय किया, जिस के तहत पहले 6 महीने बसपा की मायावती को मुख्यमंत्री बनना था, उस के बाद भाजपा का नंबर आता.

दूसरी बार प्रदेश की मुख्यमंत्री बनने के बाद मायावती ने अपनी 6 महीने सरकार चलाई. जब सत्ता भाजपा को सौंपने का नंबर आया, तो मायावती ने राज्यपाल से विधानसभा भंग करने की सिफारिश कर दी. राज्यपाल रोमेश भंडारी कोई फैसला लें, इस के पहले भाजपा ने अपना समर्थन वापस ले कर सरकार गिरा दी.

अब सरकार बनाने का दावा पेश कर दिया कांग्रेस के नेता जगदंबिका पाल ने. राज्यपाल ने जगदंबिका पाल को मुख्यमंत्री बना दिया. इस के खिलाफ भाजपा हाईकोर्ट गई. तब कल्याण सिंह को मुख्यमंत्री बना कर बहुमत साबित करने का आदेश दिया गया. कोर्ट ने जगदंबिका पाल के मुख्यमंत्री बनाने के फैसले को रद्द कर दिया.

कल्याण सिंह और भाजपा ने बहुमत साबित करने के लिए बहुजन समाज पार्टी और कांग्रेस को तोड़ दिया. दलबदल कानून से बचने के लिए पार्टी टूट कर नई पार्टी बनी. विधासभा अध्यक्ष ने नई पार्टी को मंजूरी दी. बसपा से टूटी बहुजन समाज दल और कांग्रेस से अलग हुई लोकतांत्रिक कांग्रेस ने भाजपा को समर्थन दिया और कल्याण सिंह मुख्यमंत्री बने. 4 साल के कार्यकाल में भाजपा ने पहले कल्याण सिंह, इस के बाद राम प्रकाश गुप्ता और आखिर में राजनाथ सिंह मुख्यमंत्री बने.

साल 2003 में भी पहले बसपा और भाजपा का 6-6 महीने का फार्मूला बना, फिर वही कहानी दोहराई गई. इस बार भाजपा ने सरकार नहीं बनाई. लोकदल और भाजपा से अलग हुए कल्याण सिंह की पार्टी ने मुलायम सिंह की समाजवादी पार्टी को समर्थन दिया और सरकार बनाई.

कश्मीर में साल 2016 में पीपल्स डैमोक्रेटिक पार्टी के 43 में से 33 विधायक भाजपा में शामिल हो गए थे. पहले कांग्रेस विधायक पीपल्स पार्टी में चले गए थे और बाद में भाजपा में चले गए थे. साल 2018 में गोवा में कांग्रेस के 2 विधायक भाजपा में शामिल हो गए थे.

मध्य प्रदेश के दिग्गज नेता और कांग्रेस से सांसद व केंद्रीय मंत्री रहे ज्योतिरादित्य सिंधिया ने कांग्रेस से अपना 18 साल पुराना नाता तोड़ कर भाजपा का दामन थाम लिया. कांग्रेस की सरकार गिर गई. बिहार में भी ‘आया राम गया राम’ का खेल चलता रहा. नीतीश कुमार को मुख्यमंत्री बनाने के लिए दलबदल हुआ.

काम नहीं आया दलबदल विरोधी कानून

साल 1985 में केंद्र की राजीव गांधी सरकार ने दलबदल रोकने के लिए ‘दलबदल विरोधी कानून’ बनाया. राजीव गांधी सरकार द्वारा भारतीय संविधान की 10वीं अनुसूची के रूप में इस को शामिल किया गया था.

इस दलबदल विरोधी अधिनियम को संसद और राज्य विधानसभाओं दोनों पर लागू किया गया, जो सदन के किसी अन्य सदस्य की याचिका के आधार पर दलबदल के तहत विधायकों को अयोग्य घोषित करने के लिए विधायिका के पीठासीन अधिकारी (विधानसभा अध्यक्ष) को अधिकार देता है. दलबदल तभी मान्य होता है, जब पार्टी के कम से कम दोतिहाई विधायक विलय के पक्ष में हों. राज्यसभा के चुनाव में पार्टी के उम्मीदवार से अलग किसी दूसरे उम्मीदवार को वोट दिया जाए, तो विधायक की सदस्यता खुद से नहीं जाती है. यहां केवल पार्टी के चुनाव अधिकारी को वोट दिखाना होता है कि किस को वोट कर रहे हैं.

उत्तर प्रदेश में राज्यसभा चुनाव के लिए वोट करते समय पार्टी विधायकों ने सपा नेता शिवपाल यादव को अपना वोट दिखा दिया था. इस से यह साफ हो गया कि सपा के किन विधायकों ने वोट दिया. इन की सदस्यता खुद ही नहीं जाएगी. अब समाजवादी पार्टी विधानसभा अध्यक्ष से अपील करेगी. विधानसभा अध्यक्ष पूरा मामला मुकदमे की तरह से सुनेंगे. फिर जैसा वे फैसला देंगे, वह माना जाएगा.

विधानसभा के अंदर किसी भी मामले में विधानसभा अध्यक्ष की भूमिका खास होती है. उस के फैसले पर आमतौर पर कोर्ट भी कोई बचाव नहीं करता है.

अंतरात्मा नहीं, लालच है यह दलबदल आज की समस्या नहीं है. यह हमेशा से रही है. दलबदल कानून बनने के बाद भी इस को रोका नहीं जा सका है. यह अंतरात्मा की आवाज पर नहीं, लालच और बेईमानी की वजह से किया जाता है. जिस तरह से ‘महाभारत’ में शकुनि ने पांडवों के खिलाफ काम किया, लाक्षागृह, पांडवों को जुए में धोखे से हराना जैसे बहुत से काम किए. पांडवों का साथ दे रहे कृष्ण ने बात तो धर्मयुद्ध की की, पर कर्ण, अश्वत्थामा जैसों को मारने के लिए अधर्म का सहारा लिया.

पौराणिक कथाओं में ऐसे तमाम उदाहरण हैं, जहां अपनी जीत के लिए साम, दाम, दंड, भेद का सहारा लिया गया. समुद्र मंथन भी इस का एक उदाहरण है, जिस में अमृत पीने के लिए देवताओं ने दानवों को धोखा दिया.

यहां इन घटनाओं से तुलना इसलिए जरूरी है, क्योंकि दक्षिणापंथी लोग खुद को बहुत पाकसाफ कहते हैं. भारतीय जनता पार्टी खुद को ‘पार्टी विद डिफरैंस’ कहती थी. उस का दावा था कि वह ‘चाल, चरित्र और चेहरा’ सामने रख कर काम करती है.

अगर दलबदल की घटनाओं को देखेंगे, तो साफ दिखेगा कि भाजपा जीत के लिए दलबदल खूब कराती है. राज्यसभा चुनाव में हार के बाद सपा प्रमुख अखिलेश यादव ने कहा, ‘भाजपा जीत के लिए किसी भी स्तर तक जा सकती है. विधायकों को तमाम तरह के लालच दे सकती है. कुछ पाने की चाह में विधायक भटक जाते हैं.’

दरअसल, यह राजनीतिक भ्रष्टाचार का हिस्सा है. यह जनता को धोखा देने के समान है. कोई विधायक एक दल से चुनाव लड़ता है. उस दल की विचारधारा और उस के वोटर से वोट ले कर जीतता है. बाद में वह दल बदल कर दूसरे दल की खिलाफ विचारधारा से हाथ मिला लेता है. इस से उस को वोट दे कर चुनाव जिताने वाली जनता खुद को ठगा सा महसूस करती है.

यह काम भगवाधारी करते हैं, तो खड़ग सिंह और बाबा भारती की कहानी याद आती है, जिस में डाकू खड़ग सिंह ने भेष बदल कर बाबा भारती को धोखा देते हुए उन का घोड़ा छीन लिया था.

क्रिकेट : आईपीएल में भोजपुरी कमैंट्री खास या बकवास

इस बार के इंडियन प्रीमियर लीग में कुछ नए नियमों के साथ टीमें मैदान उतरी थीं और वे नियम बड़े फायदे के साबित हुए. इसी तरह इस बार कई नई भाषाओं में कमैंट्री सुनने को मिली, जिन में से भोजपुरी का अंदाज सब से ज्यादा लुभाने वाला महसूस हुआ.

ठीक उसी तरह जैसे हिंदी फिल्म ‘गुलामी’ के एक गाने के कुछ बोल भले ही समझ नहीं आए थे, पर शब्बीर कुमार और लता मंगेशकर की मीठी आवाज ने उसे यादगार बना दिया था.

अमीर खुसरो की एक कविता से प्रेरणा पा कर गीतकार गुलजार के लिखे इस गीत के बोल थे :

‘जिहाल ए मिस्कीं मकुन ब रंजिश

ब हाल ए हिज्रा बेचारा दिल है,

सुनाई देती है जिस की धड़कन

हमारा दिल या तुम्हारा दिल है…’

कुछ इसी तरह का मजा इस बार की आईपीएल भोजपुरी कमैंट्री को सुन कर तब मिला, जब सौरभ उर्फ रौबिन सिंह के साथ गोरखपुर के सांसद व भोजपुरी के सुपरस्टार रविकिशन, कैमूर के शिवम सिंह, देवरिया के गुलाम अली, झारखंड के सत्य प्रकाश कृष्णा और वाराणसी के मोहम्मद सैफ कमैंट्री करते दिखे.

याद रहे कि आईपीएल में हिंदी, इंगलिश, भोजपुरी भाषा के अलावा जिन भाषाओं में कमैंट्री हो रही है, उन में मराठी, तमिल, तेलुगु, मलयालम, कन्नड़, पंजाबी, गुजराती और बंगाली भाषाएं शामिल हैं.

देश में तकरीबन 25 करोड़ लोग भोजपुरी भाषा सुनते, बोलते और समझते हैं. जब रविकिशन ने अपने ही अंदाज में आईपीएल में कमैंट्री की, तो माहौल ही बन गया. एक बानगी देखिए:

बारबार धुआंधार प्रहार जारी बा. अद्भुत, अद्भुतम, अद्भुताय मैच बा हो. जे ऊहां पूरन बा, ऊ चूरन मार रहल बा. एकदम चौंचक बैटिंग होत बा… ई बैट नाहीं, लाठी ह. ऊ मरलें धौनी छक्का. अइसन छक्का मरलें कि गेना गोपालगंज से होत गंगा पार, गोरखपुर के गल्ली से निकल कर आरा पहुंच गईल…’

रविकिशन के बाद भोजपुरी सुपरस्टार दिनेशलाल यादव ‘निरहुआ’ और भोजपुरी हीरोइन आम्रपाली दुबे ने कमैंट्री का माइक संभाला.

इस दौरान दिनेशलाल यादव से पूछा गया कि अगर लगातार 3 विकेट गिरने पर ‘हैट्रिक’ कहते हैं, तो 4 विकेट गिरने पर क्या कहेंगे? इस पर दिनेशलाल यादव ने कहा कि अगर 3 विकेट गिरने पर ‘हैट्रिक’, तो 4 विकेट गिरने पर ‘चैट्रिक’ होगा. वहीं आम्रपाली दुबे से जब यही सवाल पूछा गया, तो उन्होंने पहले ‘चौट्रिक’ कहा, लेकिन फिर बाद में उन्होंने कहा कि ‘चैट्रिक’ ही कहेंगे.

भोजपुरी गायक व अभिनेता विवेक पांडेय ने इस नई शुरुआत पर कहा, ‘‘यह बहुत मजेदार है. भोजपुरी बड़ी मीठी और खांटी भाषा है. रविकिशन, मनोज तिवारी और दिनेशलाल यादव ‘निरहुआ’ ने अपनी सुपरहिट फिल्मों से इस भाषा को जनजन तक पहुंचाया है. अब आईपीएल में भोजपुरी की कमैंट्री से यह भाषा उन लोगों तक भी पहुंचेगी, जो अब तक इस से अनजान हैं. मैं तो इस कमैंट्री का पूरा मजा ले रहा हूं.’’

ट्रोलिंग भी हुई

अगर भोजपुरी में कमैंट्री की तारीफ हुई, तो ट्रोलिंग भी खूब हुई. ‘यूपी में का बा’ वाली गायिका नेहा सिंह राठौर भोजपुरी कमैंट्री पर भड़कती नजर आईं.

नेहा सिंह राठौर बोलीं, ‘मैं ने भी जब भोजपुरी में कमैंट्री सुनी, मेरा एक घंटे तक दिमाग खराब रहा. इन की हिम्मत कैसे हुई… ये भोजपुरी को इस तरह से कैसे पेश कर सकते हैं. गर्दा उड़ा ए भाई साहब ई कैसन बालर है हो… ई तो जडि़या में मार देहलस. बैटवा में लागता कि तेल पिला के आइल बाड़े. छुआता और गेंद आरा तक उड़ जाता. ललचावा ताड़े, फिर घोलटाव ताड़े…

‘ई तो लालीपाप खिला के विकट लेले बाड़े, ए भइया हई का, ई नइका हथियार ह हो, हवाईजहाज शाट. कुछ भइल बा, गेंदा हवा में गइल बा. केहूके मुंह फोड़वा का.’

नेहा सिंह राठौर ने आगे कहा, ‘इस तरह के अजीबअजीब शब्द सुनने को मिल रहे हैं. पहले तो आप ने भोजपुरी गानों में यह सब किया, ‘लहंगा उठा दे रिमोट से’, ‘कुरती के टूटल बा पठानिया’, फिर उसी भाषा में जा कर आप आईपीएल में कमैंट्री कर रहे हो. मुझे तो बहुत दुख हुआ.

‘मैं उन लोगों से सवाल करना चाहती हूं,  जो भोजपुरी के हितैषी बनते हैं. कहां हैं वे लोग? सत्ता की चाटुकारिता से फुरसत नहीं मिल रही है आप को?

और भी तमाम लोगों ने इसे फूहड़ बताया, तो रविकिशन ने चुप्पी तोड़ते हुए कहा, ‘लोग बहुत तारीफ कर रहे हैं. ज्यादातर सभी को बेहद पसंद आ रही है भोजपुरी कमैंट्री. मैं नैगेटिविटी को नहीं देखता. मैं ने न उन्हें कभी बढ़ावा दिया है और न ही ऐसे लोगों को पढ़ता या सुनता हूं.

‘कुछकुछ लोग तो होते ही नैगेटिव हैं. अब सूरज क्यों उगता है, उस से भी उन्हें परेशानी है. अब

ऐसे 3-4 लोगों के बारे में क्या ही

कहा जाए…’

 

क्रिकेट: वनडे को ले कर चिंता में सचिन

पाकिस्तान के दिग्गज स्पिन गेंदबाज रह चुके सकलैन मुश्ताक ने अपने एक हालिया इंटरव्यू में कहा था कि विराट कोहली किसी भी लिहाज से सचिन तेंदुलकर के बराबर नहीं हैं, क्योंकि उन्होंने वसीम अकरम और शेन वार्न जैसे चालाक गेंदबाजों का कभी सामना नहीं किया है.अब सकलैन मुश्ताक के वही चहेते बल्लेबाज ‘मास्टरब्लास्टर’ सचिन तेंदुलकर, जो क्रिकेट को अलविदा कहने के बाद इस खेल से उचित दूरी बना कर ही रखते हैं, ने वनडे क्रिकेट के भविष्य पर खुल कर अपनी राय दी.

सचिन तेंदुलकर ने वनडे मैचों के वजूद पर चिंता जताई और कहा कि 2 नई गेंदों का इस्तेमाल और फील्डिंग प्रतिबंध वनडे क्रिकेट को मुश्किल बना रहे हैं और इस तरह बल्ले और गेंद के बीच संतुलन बिगड़ रहा है. दिल्ली में ‘इंडिया टुडे कौन्क्लेव’ के एक सैशन के दौरान दिग्गज सचिन तेंदुलकर ने कहा, ‘यह (वनडे) बिना किसी शक के बोरिंग हो रहा है. इस के 2 पार्ट हैं. एक मौजूदा फौर्मेट है और दूसरा वह है, जो मुझे लगता है कि इसे अपनाना चाहिए. ‘50 ओवरों के खेल में 2 नई गेंदें होती हैं.

जब आप के पास 2 नई गेंदें होती हैं, तो यह बात रिवर्स स्विंग को खत्म कर देती है. भले ही हम खेल के 40वें ओवर में हों, लेकिन यह असल में उस गेंद से 20वां ओवर होता है.’सचिन तेंदुलकर ने फील्डिंग प्रतिबंध के सिलसिले में भी बताया, ‘मैं ने कुछ स्पिनरों से बात की है. मैं घेरे में 5 फील्डरों के रहने को ले कर उन की मानसिकता को समझने की कोशिश कर रहा था. गेंदबाज कह रहे हैं कि उन्हें अपनी लैंथ और लाइन बदलने की आजादी नहीं है. बल्लेबाज के गलती करने की उम्मीद रहती है, लेकिन वे अपनी लाइन में बदलाव करते हैं, तो भारी कीमत चुकानी पड़ सकती है.

मौजूदा फौर्मेट में उन के पास अभी सुरक्षा नहीं है. मौजूदा फौर्मेट गेंदबाजों पर भारी है. घेरे के अंदर 5 फील्डर और 2 नई गेंदों के साथ यह चुनौती से भरा है.’सचिन तेंदुलकर की यह चिंता जायज है, क्योंकि पिछले कई सालों में क्रिकेट में सिर्फ बल्लेबाज ही हावी दिखाई देते हैं. ट्वैंटी20 फौर्मेट के कामयाब हो जाने के बाद से अब वनडे भी बड़ा और उबाऊ लगने लगा है, क्योंकि वहां गेंदबाज पर सीमित दायरों में रह कर गेंदबाजी करने का प्रैशर होता है.

चूंकि दिनरात वाले मैचों में मैदान पर ओस पड़ने का भी चक्कर रहता है, तो गेंदबाजों को गेंद फेंकने, ग्रिप बनाने में दिक्कतें आती हैं और वे अपनी कला को पूरी तरह से दर्शकों को नहीं दिखा पाते हैं.इस समस्या का हल निकालने के लिए सचिन तेंदुलकर का कहना है कि आप 50 ओवर की पारी को 2 भागों में बांट दीजिए यानी जो टीम पहले बल्लेबाजी करती है, वह 25 ओवर तक बल्लेबाजी करेगी. फिर दूसरी टीम की बैटिंग आएगी और वह अपने हिस्से के 25 ओवर खेलेगी.

यहां टैस्ट क्रिकेट की तरह ही लीड लेने और पारी में पीछे रहने वाला गेम होगा. फिर पहली टीम की दूसरी पारी होगी और आखिर में टीम को लक्ष्य का पीछा करना होगा.सुनने में तो यह आइडिया रोमांचक लगता है, पर क्या क्रिकेट के नियमकानून बनाने वाले सचिन तेंदुलकर की इस सलाह पर गौर करेंगे?

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