कामवालियों पर मालिक की ललचाई नजरें

आज के समय में ज्यादातर शहरी पतिपत्नी कामकाजी होते हैं. ऐसे में घरों में काम करने वाली बाई का रोल अहम हो जाता है. अगर एक दिन भी वह नहीं आती है, तो पूरा घर अस्तव्यस्त हो जाता है. एक ताजा सर्वे के मुताबिक, मुंबई शहर में कामकाजी लोगों के घर उन की कामवाली बाई के भरोसे ही चलते हैं और अगर एक दिन भी वह छुट्टी ले लेती है, तो घर में मानो तूफान आ जाता है. सवाल यह है कि जो इनसान हमारे घर के लिए इतना अहम है, क्या हमारे समाज में उसे वह इज्जत मिल पाती है, जिस का वह हकदार है?

आमतौर पर घरों में काम करने वाली बाइयों के प्रति समाज का नजरिया अच्छा नहीं रहता, क्योंकि अगर घर में से कुछ इधरउधर हो गया, तो इस का सब से पहला शक बाई पर ही जाता है. इस के अलावा घर के मर्दों की भी कामुक निगाहें उन्हें ताड़ती रहती हैं और अगर बाई कम उम्र की है, तो उस की मुसीबतें और ज्यादा बढ़ जाती हैं.

सीमा 34 साल की है. 4 साल पहले उस का पति एक हादसे में मारा गया था. उस की एक 14 साल की बेटी और 10 साल का बेटा है.

एक घर का जिक्र करते हुए सीमा बताती है, ‘‘जिस घर में मैं काम करती थी, उन की बेटी मुझ से एक साल बड़ी थी. एक दिन आंटी बाहर गई थीं. घर में सिर्फ अंकलजी, उन की बीमार मां और बेटी थी. मैं रसोइघर में जा कर बरतन धोने लगी. अंकलजी ने अपनी बेटी को किसी काम से बाहर भेज दिया.

‘‘मैं बरतन धो रही थी और वे अंकल कब मेरे पीछे आ कर खड़े हो गए, मुझे पता ही नहीं चला. जैसे ही मैं बरतन धो कर मुड़ी, तो उन का मुंह मेरे सिर से टकरा गया. मैं घबरा गई और चिल्लाते हुए घर से बाहर आ गई.

‘‘इस के बाद 2 दिन तक मैं उन के यहां काम करने नहीं गई. तीसरे दिन वे अंकल खुद मेरे घर आए और हाथ जोड़ कर बोले, ‘मुझे माफ कर दो. मुझ से गलती हो गई. मेरे घर में किसी को मत बताना और काम भी मत छोड़ना. आज के बाद मैं कभी तुम्हारे सामने नहीं आऊंगा.’

‘‘आप बताइए, उन की बेटी मुझ से बड़ी है और वे मेरे ऊपर गंदी नजर डाल रहे थे. क्या हमारी कोई इज्जत नहीं है?’’ कहते हुए वह रो पड़ी.

नीता 28 साल की है. पति ने उसे छोड़ दिया है. वह बताती है, ‘‘मैं जिस घर में काम करती थी, वहां मालकिन ज्यादातर अपने कमरे में ही रहती थीं. जब मैं काम करती थी, तो मालिक मेरे पीछेपीछे ही घूमता रहता था. मुझे गंदी निगाहों से घूरता रहता था.

‘‘फिर एक दिन हिम्मत कर के मैं ने उस से कहा, ‘बाबूजी, यह पीछेपीछे घूमने का क्या मतलब है, जो कहना है खुल कर कहो? मैडमजी को भी बुला लो. मैं गांव की रहने वाली हूं. मेरी इज्जत जाएगी तो ठीक है, पर आप की भी बचनी नहीं है.’

‘‘मेरे इतना कहते ही वह सकपका गया और उस दिन से उस ने मेरे सामने आना ही बंद कर दिया.’’

इसी तरह 35 साल की कांता बताती है, ‘‘मैं जिस घर में काम करती थी, उन साहब के घर में पत्नी, 2 बेटे और बहुएं थीं. उन के यहां सीढि़यों पर प्याज के छिलके पड़े रहते थे. हर रोज मैं जब भी झाड़ू लगाती, मालिक रोज सीढि़यों पर बैठ कर प्याज छीलना शुरू कर देता और फिर सीढि़यों से ही मुझे आवाज लगाता, ‘कांता, यहां कचरा रह गया है.’

‘‘जब मैं झाड़ती तो मेरे ऊपर के हिस्से को ऐसे देखता, मानो मुझे खा जाएगा. एक महीने तक देखने के बाद मैं ने उस घर का काम ही छोड़ दिया.’’

30 साल की शबनम बताती है, ‘‘पिछले साल मैं जिस घर में काम करती थी, वहां दोनों पतिपत्नी काम पर जाते थे. उन का एक छोटा बेटा था. मैं पूरे दिन उन के घर पर रह कर बेटे को संभालती थी.

‘‘एक दिन मैडम दफ्तर गई थीं और साहब घर पर थे. मैं काम कर रही थी, तभी साहब आए और बोले, ‘शबनम, 2 कप चाय बना लो.’

‘‘मैं जब चाय बना कर उन के पास ले गई, तो वे सोफे पर बैठने का इशारा कर के बोले, ‘आ जाओ, 2 मिनट बैठ कर चाय पी लो, फिर काम कर लेना.’

‘‘मैं उन के गंदे इरादे को भांप गई और न जाने कहां से मुझ में इतनी ताकत आ गई कि मैं ने उन के गाल पर एक चांटा जड़ दिया और अपने घर आ गई. उस दिन के बाद से मैं उन के घर काम पर नहीं गई.’’

इन उदाहरणों से कामवाली बाइयों के प्रति समाज का नजरिया दिखता है. ऐसे घरों में इन्हें एक औरत के रूप में तो इज्जत मिलती ही नहीं है, साथ ही जिस घर को संवारने में ये अपना पूरा समय देती हैं, वहीं मर्द इन्हें गंदी नजरों से देखते हैं.

क्या करें ऐसे समय में

 ऐसे हालात में आमतौर पर ज्यादातर कामवाली बाई चुप रह जाती हैं या काम छोड़ देती हैं. इस के पीछे उन की सोच यही होती है कि चाहे घर का मर्द कितना ही गलत क्यों न हो, कुसूरवार कामवाली बाई को ही ठहराया जाता है. वे अगर  मुंह खोलेंगी तो और भी लोग उन से काम कराना बंद कर देंगे, इस से उन की रोजीरोटी के लाले पड़ जाएंगे.

कई मामलों में तो कामवाली बाई को पैसे दे कर उस का मुंह भी बंद कर दिया जाता है. पर ऐसा करना मर्दों की गंदी सोच को बढ़ावा देना है, इसलिए अगर ऐसा होता है, तो चुप रहने के बजाय अपनी आवाज उठानी चाहिए.

आजकल तकनीक का जमाना है. अगर मुमकिन हो सके, तो ऐसी छिछोरी बातों को रेकौर्ड करें या वीडियो क्लिप बना लें, ताकि बात खुलने पर सुबूत के तौर पर उसे पेश किया जा सके.

क्या करें पत्नियां

 ऐसे मनचलों की पत्नियां भले ही अपने पति की हरकत को जगजाहिर न करें, पर वे खुद इस से अच्छी तरह परिचित होती हैं.

अच्छी बात यह रहेगी कि बाई के साथ अकेलेपन का माहौल न बनने दें. वे खुद बाई से काम कराएं. अगर पति मनचला है, तो ज्यादा उम्र की बाई को घर पर रखें.

कई बार कामवालियां भी मनचली होती हैं. उन्हें घर की मालकिन के बजाय घर के मालिक से ज्यादा वास्ता रहता है. ऐसे में उन्हें उन की सीमाएं पार न करने की हिदायत दें.

डिजिटलीकरण के दौर में गायब हुए नुक्कड़ नाटक

साल 1989 का पहला दिन था. तब एकदूसरे को हैप्पी न्यू ईयर के व्हाट्सऐप फौरवर्ड भेजने का रिवाज नहीं था. न ही इंस्टाग्राम पर रंगबिरंगी लाइटें लगाने व तंग कपड़े पहन कर रील बनाई जाती थीं. ट्विटर पर हैशटैग जैसी फैंसी चीज नहीं थी. इन बड़े सोशल मीडिया प्लेटफौर्मों के न होने के चलते युवाओं के पास खुद को एक्सप्रैस करने के लिए नुक्कड़ नाटक थे. यानी, स्ट्रीट प्ले सोशल इंटरैक्शन के माध्यम माने जाते थे. नाटक करने वालों के पास कला थी और देखने वालों के पास तालियां. यही उस समय का यूथ कोलैब हुआ करता था.

यही तालियों की गड़गड़ाहट साल के पहले दिन गाजियाबाद के अंबेडकर पार्क के नजदीक सड़क पर बज रही थी उस के लिए जो आने वाले सालों में इम्तिहान के पन्नों में अमर होने वाला था, जिस के जन्मदिवस, 12 अप्रैल, को ‘नुक्कड़ नाटक दिवस’ घोषित किया जाने वाला था. बात यहां मार्क्सवाद की तरफ ?ाकाव रखने वाले सफदर हाशमी की है जो महज 34 साल जी पाए और इतनी कम उम्र में वे 24 अलगअलग नाटकों का 4,000 बार मंचन कर चुके थे.

शहर में म्युनिसिपल चुनाव चल रहे थे. ‘जन नाट्य मंच’ (जनम) सीपीआईएम कैंडिडेट रामानंद ?ा के समर्थन में स्ट्रीट प्ले कर रहा था. प्ले का नाम ‘हल्ला बोल’ था. सुबह के

11 बज रहे थे. तकरीबन 13 मिनट का नाटक अपने 10वें मिनट पर था. तभी वहां भारी दलबल के साथ मुकेश शर्मा की एंट्री हो जाती है. वह मुकेश शर्मा जो कांग्रेस के समर्थन से इंडिपैंडैंट चुनाव लड़ रहे थे. मुकेश शर्मा ने प्ले रोक कर रास्ता देने को कहा. सफदर ने कहा, ‘या तो प्ले खत्म होने का इंतजार करें या किसी और रास्ते पर निकल जाएं.’

बात मुकेश शर्मा के अहं पर लग गई. उस के गुंडों की गुंडई जाग गई. उन लोगों ने नाटक मंडली पर रौड और दूसरे हथियारों से हमला कर दिया. राम बहादुर नाम के एक नेपाली मूल के मजदूर की घटनास्थल पर ही मौत हो गई. सफदर को गंभीर चोटें आईं. अस्पताल ले तो जाया गया पर दूसरे दिन सुबह, तकरीबन

10 बजे, भारत के जन-कला आंदोलन के अगुआ सफदर हाशमी ने अंतिम सांस ली. इतनी छोटी सी ही उम्र में सफदर हाशमी ने लोगों के दिलों में कैसी जगह बना ली थी, इस का सुबूत मिला उन के अंतिम संस्कार के दौरान. अगले दिन उन के अंतिम संस्कार में दिल्ली की सड़कों पर हजारों लोग मौजूद थे. कहते हैं, सड़कों पर नुक्कड़ नाटक करने वाले किसी शख्स के लिए ऐसी भीड़ ऐतिहासिक थी.

सफदर की मौत के महज 48 घंटे बाद 4 जनवरी को उसी जगह पर उन की पत्नी मौलीश्री और ‘जनम’ के अन्य सदस्यों ने जा कर ‘हल्ला बोल’ नाटक का मंचन किया. यहां तक बताया जाता है कि उसी साल सफदर की याद में लगभग 25 हजार नुक्कड़ नाटक देशभर में किए गए.

इप्टा का योगदान

नुक्कड़ नाटकों की युवाओं के बीच एक अलग ही जगह रही है. एक समय सड़कों पर दिखाए जाने वाले इन नाटकों की ऐसी आंधी थी कि माना जाता था यदि कोई उभरता कलाकार सड़क पर लोगों के बीच नाटक नहीं दिखा सकता, उन्हें मंत्रमुग्ध नहीं कर सकता, वह असल माने में जन कलाकार है ही नहीं.

नुक्कड़ नाटक हमेशा से जन संवाद के माध्यम रहे हैं. ये हर समय लोगों के बीच रहे. मुंबई में इप्टा की संचालक शैली मैथ्यू ने एक चैनल को दिए इंटरव्यू में कहा, ‘‘गुलाम भारत में नुक्कड़ नाटकों का मंचन इतना आसान नहीं होता था. कई बार अभिनेताओं को गिरफ्तार कर लिया जाता था, भीड़ को तितरबितर करने के लिए लाठियां बरसाई जाती थीं. लेकिन नाटक वाले भी तैयारी से निकलते थे. उन का यही मकसद होता- लोगों में अंग्रेज हुकूमत के खिलाफ विरोध को जगाना, उन्हें तमाम सामाजिक-धार्मिक कडि़यों से आजाद कर राजनीतिक लड़ाई के लिए एकजुट करना.’’

दरअसल, भारत में अभिनय को थिएटर, थिएटर से सड़कों, सड़कों से आम जनता के बीच ले जाने में इप्टा यानी ‘इंडियन पीपल्स थिएटर एसोसिएशन’ की बड़ी भूमिका रही है. इप्टा 1943 में ब्रिटिश राज के विरोध में बना एक रंगमंच संगठन था. इस का नामकरण भारत के बड़े वैज्ञानिक होमी जहांगीर भाभा ने किया. आजाद भारत में कम्युनिस्ट विचारधारा से प्रेरित हो कर इप्टा ने भारतीय सिनेमा में अपना गहरा इंपैक्ट छोड़ा. कई नामी कलाकार इस संगठन से निकले. बलराज और भीष्म साहनी, पृथ्वीराज कपूर, उत्पल दत्त, सलिल चौधरी, फैज अहमद फैज, शैलेंद्र, साहिर लुधियानवी जैसे बड़े नाम शामिल रहे. उर्दू के मशहूर शायर कैफी आजमी के कथन में ‘इप्टा वह प्लेटफौर्म है जहां पूरा हिंदुस्तान आप को एकसाथ मिल सकता है. दूसरा ऐसा कोई तीर्थ भी नहीं, जहां सब एकसाथ मिल सकें.’

देखा जाए तो इप्टा के नाटकों के थीम में विरोध का स्वर ज्यादा मुखर होता था, बल्कि ज्यादातर नाटक तो विशुद्ध राजनीतिक थीम पर ही लिखे गए. उस के बावजूद यह धार्मिक और सामाजिक कुरीतियों पर चोट करता था. इतनी चोट कि कई बार धर्म प्रायोजित राजनीतिक पार्टियां व धार्मिक संगठनों के बीच यह संगठन अखरने लगता था.

सफदर हाशमी खुद भी इप्टा से जुड़े थे. उन्होंने रंगमंच के सारे पैतरे इप्टा से सीखे पर जब उन्हें लगा कि कला को अब और नीचे सड़कों तक पहुंचाने की जरूरत है और इस के लिए उन के पास ज्यादा फंड नहीं तो ‘जनम’ की नींव डाल कर नक्कड़ नाटक को अपना हथियार बना दिया.

नुक्कड़ नाटक आज कहां

स्ट्रीट प्ले किस तरह युवाओं के बीच एक समय पौपुलर माध्यम हुआ करता था. इस में यूनिवर्सिटी के स्टूडैंट्स की बड़ी भूमिका होती थी. खुद सफदर हाश्मी और उन के साथ के मैंबर्स विश्वविद्यालयों से जुड़े हुए थे. सफदर सेंट स्टीफन कालेज से पढ़े भी थे और बाद में अलगअलग कालेज में पढ़ाने भी लगे.

अधिकतर लोग इसे सिर्फ थिएटर या फिल्मी परदों पर ऐक्ंिटग करने वाले कलाकारों से जुड़ा हुआ सम?ाते हैं पर असल में नुक्कड़ नाटक ही एकमात्र माध्यम था जो समाज के सब से निचले युवाओं, जिन का ऐक्ंिटग से कोई लेनादेना न भी हो, से जुड़ा हुआ था. युवा इस के माध्यम से अपनी बात लोगों तक पहुंचाया करते थे. यहां तक कि सरकार की आलोचना करने, अपनी समस्याएं बताने में भी यह एक बड़ा माध्यम था. पर सवाल यह कि आज नुक्कड़ नाटक हमारे इर्दगिर्द से गायब होते क्यों दिखाई दे रहे हैं? क्यों युवा इन के बारे में बात नहीं करते? इस का जवाब देश में तेजी से बदलते पौलिटिकल और सोशल चेंज में छिपा है, जिसे सम?ाना बहुत जरूरी है.

गरीब छात्र गायब, बढ़ता सरकारी दखल

हायर एजुकेशन में सरकारी नीतियों के चलते कमजोर तबकों के छात्रों का यूनिवर्सिटीज तक पहुंचना बेहद मुश्किल हो गया है. यहां तक कि दलित और पिछड़े तबकों के क्रीमी छात्र ही यूनिवर्सिटी तक पहुंच पा रहे हैं, जिन का अपने समुदायों से खास सरोकार रहा नहीं. 4 साल की डिग्री, बढ़ती कालेज फीस और लिमिटेड सीट्स ने छात्रों के लिए मुश्किल बना दिया है.

लगभग सभी विश्वविद्यालयों में थिएटर ग्रुप जरूर होते हैं. खालसा, हिंदू, सेंट स्टीफन, रामजस, किरोड़ीमल, गार्गी, दयाल सिंह सभी कालेजों में ऐसे ग्रुप्स हैं. इन ग्रुप्स से जुड़ने वाले अधिकतर छात्र पैसे वाले घरानों से हैं, जिन का आम लोगों से कोई लेनादेना नहीं. न उन से जुड़े मुद्दे ये सम?ा पाते हैं. ऐसे कई सरकारी कालेज हैं जो अपने एलीट कल्चर के लिए जाने जाते हैं. सेंट स्टीफन में छात्र इंग्लिश में ही बात करते हैं. यहां कोई गरीब छात्र गलती से पहुंच जाए तो वह इन के बीच रह कर अवसाद से ही भर जाए. प्राइवेट यूनिवर्सिटी का हाल और भी बुरा है. गलगोटिया यूनिवर्सिटी चर्चा में है. वहां छात्रों के बीच सम?ादारी का अकाल होना चिंताजनक स्थिति दिखाता है.

एनएसडी और एफटीआईआई जैसे संस्थानों में पढ़ने वाले छात्र भी अब बड़ेबड़े घरानों से आने लगे हैं. यहां सरकार का दखल भी बढ़ गया है. एसी से लैस प्यालेलाल भवन व कमानी औडिटोरियम इन के अड्डे हैं. कभीकभार टास्क के नाते नुक्कड़ों पर निकल पड़ते हैं पर मंडी हाउस के 2 किलोमीटर के दायरे से बाहर नहीं जा पाते.

ऐसा नहीं है कि ये थिएटर ग्रुप्स बिलकुल ही अपने वजूद से अनजान हैं. मगर पिछले कुछ सालों में यूनिवर्सिटी स्पेस में सरकार का दखल हद से ज्यादा बढ़ा है. कैंपस में सेफ्टी के नाम पर पुलिस का हर समय मौजूद रहना, लगातार हर घटनाक्रम को रिकौर्ड करना व छात्रों की हर सोशल व पौलिटिकल एक्टिविटी के लिए परमिशन लेना व नजर रखना अनिवार्य हो गया है. इस से नाटकों का मंचन करने वालों को दिक्कतें आ रही हैं. पर इस के बावजूद यह तो सोचा ही जा सकता है इमरजैंसी के समय में जब सब चीजों पर सरकार ने पहरे बैठा दिए थे तब भी ‘जनम’ जैसे नुक्कड़ नाटक सड़कों पर विरोध जताने वालों के रूप में मौजूद थे तो आज क्यों नहीं?

सोशल मीडिया का पड़ता प्रभाव

इसे सम?ाने के लिए आज युवाओं के लाइफस्टाइल को सम?ाना जरूरी है. युवाओं के हाथ में  आज 5जी की स्पीड से चलने वाला इंटरनैट है. सुबह उठने के साथ वह अपने फोन को स्क्रोल कर रहा है. आतेजाते, खाना खाते वह मोबाइल से ही जुड़ा हुआ है. मैट्रो, बसों में युवा अपना सिर गड़ाए फोन में घुसे रहते हैं. एंटरटेनमैंट के नाम पर 16 सैकंड की रील्स से संतुष्ट हो रहे हैं. अधकचरी जानकारियां सोशल मीडिया में फीड की गईं मीम्स से ले रहे हैं, जो बहुत बार प्रायोजित प्रोपगंडा होती हैं.

युवा न तो सही जानकारी जुटा पा रहा है, न लंबीचौड़ी चीजें पढ़लिख पा रहा है. उस के पास किसी स्टोरी को डैवलप करने का टैलेंट तक नहीं है. आज अच्छे नाटक दिखाने वाले बहुत कम ग्रुप्स बचे हैं. और ये ग्रुप्स भी अपनी मेहनत सड़कों पर करने के बजाय एसी औडिटोरियम में कर रहे हैं. वहीं सड़क पर नाटक दिखाने को एनजीओ वाले रह गए हैं, जिन के नुक्कड़ नाटकों में न तो तीखापन है, न कोई विरोध.

सोशल मीडिया युवाओं के बीच का एंटरटेनमैंट और जागरूकता का साधन छीन रहा है. हालांकि यह नहीं कहा जा सकता कि इन की जरूरत खत्म हो गई है, जबजब सवाल पूछने का चलन समाज में बढ़ेगा, नुक्कड़ नाटक सड़कों पर फिर से जगह बनाते दिखेंगे.

अपने ही “मासूम” की बलि….

अगर आज ऐसा होता है तो इसका मतलब यह है कि आज भी हम सैकड़ो साल पीछे की जिंदगी जी रहे हैं. जहां अपने अंधविश्वास में आकर बलि चढ़ा दी जाती थी, अपने बच्चों को या किसी मासूम को. बलि चढ़ाना तो अंधविश्वास की पराकाष्ठा ही है.

छत्तीसगढ़ के बलरामपुर जिले में शख्स ने अपने चार वर्षीय बेटे की बेरहमी से गला रेंतकर हत्या कर दी. घटना की वजह अंधविश्वास बताया गया है. शख्स की मानसिक स्थिति कुछ दिनों से ठीक नहीं थी. एक रात उसने परिवारजनों से कहा – “सुनो सुनो! मै किसी की बलि दे दूंगा.”

उसकी बात पर किसी ने तवज्जो नहीं दिया लगा कि यह मानसिक सन्निपात में कुछ का कुछ बोल रहा है.
एक रात उसने चाकू से एक मुर्गे को काटा फिर अपने मासूम बेटे का गला काट दिया. यह उद्वेलित करने वाला मामला शंकरगढ़ थानाक्षेत्र का है. हमारे संवाददाता को पुलिस ने बताया -शंकरगढ़ थानाक्षेत्र अंतर्गत ग्राम महुआडीह निवासी कमलेश नगेशिया (26 वर्ष) दो दिनों से पागलों की तरह हरकत कर रहा था. उसने परिवारजनों के बीच कहा – उसके कानों में अजीब सी आवाज सुनाई दे रही है, उसे किसी की बलि चढ़ाने के लिए कोई बोल रहा है.

एक दिन वह कमलेश चाकू लेकर घूम रहा था एवं उसने परिवारजनों से कहा कि आज वह किसी की बलि लेगा. उसकी मानसिक स्थिति को देखते हुए परिवारजनों ने उसे नजरअंदाज कर दिया था . मगर रात को खाना खाने के बाद कमलेश नगेशिया की पत्नी अपने दोनों बच्चों को लेकर कमरे में सोने चली गई. कमलेश के भाईयों के परिवार बगल के घर में रहते हैं, वे भी रात को सोने चले गए.

देर रात कमलेश ने घर के आंगन में एक मुर्गे का गला काट दिया. फिर कमरे में जाकर वह अपने बड़े बेटे अविनाश (4) को उठाकर आंगन में ले आया. उसने बेरहमी से अपने बेटे अविनाश का चाकू से गला काट दिया. अविनाश की मौके पर ही मौत हो गई. सुबह करीब चार बजे जब कमलेश की पत्नी की नींद खुली तो अविनाश बगल में नहीं मिला. उसने कमलेश से बेटे अविनाश के बारे में पूछा तो उसने पत्नी को बताया कि उसने अविनाश की बलि चढ़ा दी है.

घटना की जानकारी मिलने पर घर में कोहराम मच गया. सूचना पर शंकरगढ़ थाना प्रभारी जितेंद्र सोनी के नेतृत्व में पुलिस टीम मौके पर पहुंची. पुलिस ने आरोपी को हिरासत में ले लिया . बच्चे के शव को पंचनामा पश्चात् पोस्टमार्टम के लिए भेज दिया गया . थाना प्रभारी जितेंद्र सोनी ने बताया – परिजनों से पूछताछ कर उनका बयान दर्ज किया गया है. आरोपी दो दिनों से ही अजीब हरकत कर रहा था. पहले वह ठीक था. एक शाम परिवारजनों के सामने उसने किसी की बलि चढ़ाने की बात कही थी, लेकिन परिवारजनों ने उसे गंभीरता से नहीं लिया. मामले में पुलिस ने धारा 302, 201 का अपराध दर्ज किया है. मामले की जांच की जा रही है.

इस घटनाक्रम में परिजनों ने समझदारी से काम लिया होता और इसकी शिकायत पहले ही पुलिस में की होती या फिर उस व्यक्ति को मानसिक चिकित्सालय भेज दिया गया होता तो मासूम बच्चे की जिंदगी बच सकती थी. मासूम की बाली के इस मामले में सबसे अधिक दोषी मां का वह चेहरा भी है जो दोनों बच्चों को लेकर कमरे में सो रही होती है और पति एक बच्चे को उठाकर ले जाता है.

एक पुलिस अधिकारी के मुताबिक गांव देहात में इस तरह की घटनाएं घटित हो जाती है, इसका दोषी जहां परिवार होता है वही आसपास के रहवासी भी दोषी हैं मगर पुलिस सिर्फ एक हत्यारे पर कार्रवाई करके मामले को बंद कर देती है.

कुल मिलाकर के ऐसे घटनाक्रम सिर्फ एक खबर के रूप में समाज के सामने आते है और फिर समाज सुधारक भूल जाते है कुल मिला करके आगे पाठ पीछे सपाट की स्थिति .यह एक बड़ी ही सोचनीय स्थिति है. इस दिशा में अब सरकार के पीछे-पीछे दौड़ने या यह सोचने से की सरकार कुछ करेगी यह अपेक्षा छोड़ कर हमें स्वयं आगे आना होगा ताकि फिर आगे कोई ऐसी घटना घटित ना हो.

बलि का अपराध और जेल, हैवानियत का गंदा खेल

हमारे देश में सैकड़ों सालों से अंधविश्वास चला आ रहा है. दिमाग में कहीं न कहीं यह झूठ घर करा दिया गया है कि अगर अगर गड़ा हुआ धन हासिल करना है, तो किसी मासूम की बलि देनी होगी, जबकि हकीकत यह है कि यह एक ऐसा झूठा है, जो न जाने कितने किताबों में लिखा गया है और अब सोशल मीडिया में भी फैलता चला जा रहा है. ऐसे में कमअक्ल लोग किसी की जान ले कर रातोंरात अमीर बनना चाहते हैं. मगर पुलिस की पकड़ में आ कर जेल की चक्की पीसते हैं और ऐसा अपराध कर बैठते हैं, जिस की सजा तो मिलनी ही है.

सचाई यह है कि आज विज्ञान का युग है. अंधविश्वास की छाई धुंध को विज्ञान के सहारे साफ किया जा सकता है, मगर फिर अंधविश्वास के चलते एक मासूम बच्चे की जान ले ली गई.

देश के सब से बड़े धार्मिक प्रदेश कहलाने वाले उत्तर प्रदेश के इटावा जिले में एक तथाकथित तांत्रिक ने 2 नौजवानों के साथ मिल कर एक 8 साल के मासूम बच्चे की गला रेत कर हत्या कर दी गई थी और तंत्रमंत्र का कर्मकांड किया गया था. उस बच्चे की लाश को गड्डा खोद कर छिपा दिया गया था.

ऐसे लोगों को यह लगता है कि अंधविश्वास के चलते किसी की जान ले कर के वे बच जाएंगे और कोई उन्हें पकड़ नहीं सकता, मगर ऐसे लोग पकड़ ही लिए जाते हैं. इस मामले में भी ऐसा ही हुआ.

अंधविश्वास के मारे इन बेवकूफों को लगता है कि ऐसा करने से जंगल में कहीं गड़ा ‘खजाना’ मिल जाएगा, मगर आज भी ऐसे अनपढ़ लोग हैं, जिन्हें लगता है कि जादूटोना, तंत्रमंत्र या कर्मकांड के सहारे गड़ा धन मिल सकता है.

समाज विज्ञानी डाक्टर संजय गुप्ता के मुताबिक, आज तकनीक दूरदराज के इलाकों तक पहुंच चुकी है और इस के जरीए ज्यादातर लोगों तक कई भ्रामक जानकारियां पहुंच पाती हैं. मगर जिस विज्ञान और तकनीक के सहारे अज्ञानता पर पड़े परदे को हटाने में मदद मिल सकती है, उसी के सहारे कुछ लोग अंधविश्वास और लालच में बलि प्रथा जैसे भयावाह कांड कर जाते हैं जो कमअक्ल और पढ़ाईलिखाई की कमी का नतीजा है.

डाक्टर जीआर पंजवानी के मुताबिक, कोई भी इनसान इंटरनैट पर अपनी दिलचस्पी से जो सामग्री देखतापढ़ता है, उसे उसी से संबंधित चीजें दिखाई देने लगती हैं फिर पढ़ाईलिखाई की कमी और अंधश्रद्धा के चलते, जिस का मूल है लालच के चलते अंधविश्वास के जाल में लोग उलझ जाते हैं और अपराध कर बैठते हैं.

सामाजिक कार्यकर्ता सनद दास दीवान के मुताबिक, अपराध होने पर कानूनी कार्यवाही होगी, मगर इस से पहले हमारा समाज और कानून सोया रहता है, जबकि आदिवासी अंचल में इस तरह की घटनाएं होती रहती हैं, लिहाजा इस के लिए सरकार को सजक हो कर जागरूकता अभियान चलाना चाहिए.

हाईकोर्ट के एडवोकेट बीके शुक्ला ने बताया कि एक मामला उन की निगाह में ऐसा आया था, जिस में एक मासूम की बलि दी गई थी. कोर्ट ने अपराधियों को सजा दी थी.

दरअसल, इस की मूल वजह पैसा हासिल करना होता है. सच तो यह है कि लालच में आ कर पढ़ाईलिखाई की कमी के चलते यह अपराथ हो जाता है. लोगों को यह समझना चाहिए कि किसी भी अपराध की सजा से वे किसी भी हालत में बच नहीं सकते और सब से बड़ी बात यह है कि ऐसे अपराध करने वालों को समाज को भी बताना चाहिए कि उन के हाथों से ऐसा कांड हो गया और उन्हें कुछ भी नहीं मिला, उन के हाथ खाली के खाली रह गए.

यंग सक्सेस एंटरप्रेन्योर, ऐसे हो रहे मालामाल

पिछले कुछ सालों में यंग एंटरप्रेन्योर की एक लहर सी दौड़ पड़ी है, जिसे देखो वह इस दौड़ में गोते लगा रहा है. यंग जनरेशन अपनी जौब छोड़ कर एंटरप्रेन्योर बन रही है. वहीं कुछ स्कूलकालेज में पढ़ने वाले स्टूडैंट ऐसेऐसे ऐप्स और बिजनैस क्रिएट कर रहे हैं जो न सिर्फ फ्यूचर में उन्हें एक अच्छी मार्केट देंगे बल्कि लोगों के लिए भी काफी यूजफुल होंगे. ऐसे ही कुछ यंग एंटरप्रेन्योर के बारे में यहां चर्चा करते हैं.

श्रेयान डागा

श्रेयान डागा एक स्किल डैवलपमैंट कंपनी के फाउंडर हैं. वे स्टूडैंट्स को टीचर्स की हैल्प से कुछ वैरिफाइड कोर्स करवाते हैं. इन कोर्सेज को एक्सट्रा करिकुलम एक्टिविटीज की तरह बच्चों को पढ़ाया जाता है. ये क्लासेस औनलाइन प्रोवाइड की जाती हैं. श्रेयान का दावा है कि एक्स्ट्रा करिकुलम होने के साथसाथ ये कोर्सेज फ्यूचर में एक जरूरी स्किल के रूप में बच्चों के काम आएंगे.

श्रेयान की एक्स्ट्रा करिकुलम क्लासेस के हर बैच में 5 से 15 स्टूडैंट्स के साथ लाइव क्लासेस होती हैं. इस में एक घंटे की क्लास की फीस सिर्फ 133 रुपए ली जाती है. इस के अलावा, हर स्टूडैंट को यूनेस्को और एसटीईएम का सर्टिफिकेट भी दिया जाता है. आज डागा का औनलाइन लाइव लर्निंग (ओएलएल) वाराणसी, वाकड, ओडिशा, पुणे, लखनऊ, ठाणे और मुंबई के साथसाथ इंडिया के 20+ शहरों में है.

शैली बुलचंदानी

शैली बुलचंदानी राजस्थान के अजमेर की रहने वाली हैं. उन्होंने अगस्त 2020 में हेयर स्टार्टअप ‘द शैल हेयर’ कंपनी की शुरुआत महज 20 साल की उम्र में की. ‘द शैल हेयर’ की खास बात यह है कि इस के प्रोडक्ट में भारतीय रेमी हेयर (सिंगल डोनर के बाल) से बने होते हैं.

वहीं बाकी कंपनियों की तुलना में इन के प्रोडक्ट्स की कीमत भी 30-40 परसैंट कम है. इस कंपनी की एक और खास बात है कि यह कंपनी महिलाओं द्वारा ही चलाई जाती है. इस से कई महिलाओं को रोजगार मिला हुआ है.

साल 2021-22 में शैली बुलचंदानी की कंपनी ने लगभग 36 लाख रुपए की बिक्री दर्ज की थी. शैली खुद को हेयर इंडस्ट्री में एक विश्वसनीय ब्रैंड के रूप में स्थापित करने की दौड़ में आ चुकी हैं.

हिमांशु अग्रवाल

24 साल के हिमांशु अग्रवाल की आज 3 कंपनियां हैं. इन में इंटरनैट कोचिंग एम्पायर, बैकएंड क्लोजर्स और मेलजर शामिल हैं.

हिमांशु की कंपनी इंटरनैट कोचिंग एम्पायर अलगअलग तरह की सेवाएं देती है. इन में वर्कशौप, कंसल्टिंग सर्विस, एजुटैक नौलेज शामिल हैं. यह कस्टमर बेस कंपनी है. हिमांशु की इन 3 कंपनियों में कई यंग काम करते हैं. बैकएंड क्लोजर्स एक सेल्स एजेंसी है और मेलजर एक सौफ्टवेयर कंपनी है. हिमांशु यंग एंटरप्रेन्योर के लिए प्रेरणा बन चुके हैं.

तिलक मेहता

कहते हैं सफलता किसी उम्र की मुहताज नहीं होती है. तिलक मेहता जब 13 साल के थे तब उन्होंने पेपर-एन-पार्सल नाम की अपनी कंपनी की जो शिपिंग और लौजिस्किल से जुड़ी सेवाएं देती है. शुरुआत की. तिलक ने जब अपना बिजनैस आइडिया अपने पिता के साथ शेयर किया तो उन्होंने तिलक को शुरुआती फंड दिया. फिर तिलक को बैंक अधिकारी घनश्याम पारेख से मिलवाया, जिन्होंने तिलक के बिजनैस में इन्वैस्ट किया.

पारेख को तिलक का आइडिया इतना पसंद आया कि उन्होंने अपनी बैंक की नौकरी छोड़ दी और तिलक का बिजनैस जौइन  कर लिया. तिलक ने घनश्याम पारेख को कंपनी का सीईओ बना दिया. मेहता ने अपनी पढ़ाई के साथसाथ बिजनैस को जारी रखा और

2 सालों में एक सक्सैस स्टोरी लिख डाली. 13 साल की उम्र में मेहता 100 करोड़ रुपए की कंपनी के मालिक बन गए थे. आज इतनी कम उम्र में तिलक 200 से ज्यादा लोगों को रोजगार दे रहे हैं. वर्तमान समय में तिलक की उम्र महज 17 साल है.

रितेश अग्रवाल

शार्क टैंक-3 में जज की कुरसी संभाल रहे रितेश अग्रवाल को आज कौन नहीं जानता. हर महीने 22 करोड़ रुपए का टर्नओवर करने वाले रितेश आज एक यंग सक्सैसफुल एंटरप्रेन्योर हैं. रितेश होटल्स की चेन ओयो के मालिक हैं. इन का नैटवर्क देश के 100 शहरों से भी ज्यादा में फैला हुआ है. इन की कंपनी 2,200 होटल्स के साथ काम करती है. रितेश फोर्ब्स की 30 ‘अंडर 30’ अचीवर्स की लिस्ट में शामिल एक इंडियन सीईओ हैं.

रितेश ने यह मुकाम महज 29 साल में पाया है. रितेश की ओयो रूम्स देश की कामयाब इंटरनैट कंपनियों की लिस्ट में तीसरी कंपनी बन गई है. साथ ही, यह देश की सब से बड़ी होटल चेन भी है.

अद्वैत ठाकुर

अद्वैत एक टैक्नोलौजी एंटरप्रेन्योर हैं. उन्होंने 12 साल की उम्र में अपनी टैक कंपनी एपेक्स इंफोसिस की शुरुआत की थी. यह एक ग्लोबल टैक्नोलौजी और इनोवेशन कंपनी है जो इंटरनैट औफ थिंग्स संबंधित सेवाओं और उत्पादों, एआई और हैल्थटैक सैक्टर में अपनी सेवाएं देती है.

अद्वैत सब से यंग गूगल, हब स्पौट और बिंग सर्टिफाइड प्रोफैशनल भी हैं. 2017 में जब अद्वैत 14 साल के थे तो उन्होंने ‘टैक्नोलौजी क्विज’ का निर्माण किया. यह ऐप बच्चों को साइंस और टैक्नोलौजी के बारे में जानने में हैल्प करता है. अद्वैत द स्टार्टअप इंडिया के ‘टौप 10 यंग एंटरप्रेन्योर इन इंडिया 2018’ की लिस्ट में शामिल थे.

अंगद दरयानी

मुंबई के अंगद दरयानी ने 8 साल की उम्र में अपना पहला रोबोट बनाया. इस के बाद ब्लाइंड लोगों के लिए एक ईरीडर (वर्चुअल बे्रलर) बनाया. फिर सोलर एनर्जी से चलने वाली नाव, इस के बाद गार्डुइनो नाम का एक औटोमैटिक बागबानी सिस्टम बनाया.

इस के अलावा अंगद ने शार्कबोट नाम का इंडिया का सब से सस्ता 3डी प्रिंटर बनाने के लिए ओपन सोर्स सौफ्टवेयर तैयार किया. अंगद बच्चों के लिए सस्ती डीआईवाई किट की कंपनी चला रहे हैं. जिस उम्र में बच्चे पढ़ाई करते है उस उम्र में अंगद ने दुनिया को अपना हुनर दिखाया. आज अंगद को लोग भारत के एलन मस्क के नाम से जानते हैं.

श्रीलक्ष्मी सुरेश

3 साल की उम्र में बच्चे मां का आंचल नहीं छोड़ते पर इस उम्र में श्रीलक्ष्मी ने कंप्यूटर का इस्तेमाल करना शुरू कर दिया था.

4 साल की उम्र में उन्होंने डिजाइन करना शुरू कर दिया और 6 साल की उम्र में उन्होंने अपनी पहली वैबसाइट डिजाइन कर दी. इस के बाद 11 साल की उम्र में अपना एक स्टार्टअप शुरू कर दिया.

आज श्रीलक्ष्मी सुरेश को सब से युवा सीईओ और सब से कम उम्र के वैब डिजाइनरों में से एक माना जाता है. अपने स्टार्टअप ईडिजाइन के अलावा श्रीलक्ष्मी एक अन्य कंपनी ‘टिनीलोगो’ जोकि एक लोगो आधारित सर्च इंजन है, की ओनर हैं. श्रीलक्ष्मी सुरेश ने अब तक 100 से ज्यादा वैबसाइटें बनाई हैं. श्रीलक्ष्मी को कई राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार मिल चुके हैं. श्रीलक्ष्मी सुरेश को एसोसिएशन औफ अमेरिकन वैबमास्टर्स की सदस्यता से भी सम्मानित किया गया. वे इन्फो ग्रुप की ब्रैंड एंबेसेडर भी हैं. श्रीलक्ष्मी अब 26 साल की हो गई हैं.

मंहगी होती ‘लोकतंत्र’ की राह

चुनावी खर्च जिस तरह बेलगाम होते जा रहे हैं उस पर यह एक टिप्पणी बहुत महत्वपूर्ण है –
” बेहतर होगा की चुनाव आयोग इन मामलों की स्वयं जांच करे. पता लगाए कि अवैध बरामदगी के पीछे कौन-सा प्रत्याशी या दल है और फिर उसके खिलाफ सख्त कार्रवाई हो.इस तरह की सख्ती के बिना चुनावों में धनबल का दखल नहीं रूकेगा.

यह सही है कि चुनाव में धनबल का प्रयोग रोकने के लिए चुनाव आयोग की सतर्कता बढ़ी है, लेकिन यह सिर्फ धर-पकड़ तक सीमित है.ऐसे मामलों में सजा की दर बहुत कम है, क्योंकि चुनाव के बाद स्थानीय प्रशासन और पुलिस मामले को गंभीरता से नहीं लेते। अक्सर असली सरगना छुट भैय्यों को फंसा कर बच जाते हैं.

-बृजेश माथुर
सोशल मीडिया पर दरअसल , लोकतंत्र महा कुंभ कहलाने वाला लोकसभा चुनाव में आज जिस तरह चुनाव में करोड़ों रुपए प्रत्येक लोकसभा संसदीय क्षेत्र में खर्च हो रहे हैं उससे साफ हो जाता है कि आम आदमी या कोई सामान्य योग्य व्यक्ति संसद में पहुंचने के लिए सात जन्म लेगा तो भी नहीं पहुंच पाएगा.
लोकसभा चुनाव 2024 में माना जा रहा है कि खर्च के मामले में पिछले सारे रेकार्ड ध्वस्त हो जाएंगे और दुनिया का सबसे बड़ा लोकतांत्रिक देश कहलाने वाले भारत राष्ट्र में चुनाव खर्च अपनी पर पराकाष्ठा में होंगे अर्थात भारत दुनिया की सबसे खर्चीली चुनावी व्यवस्था होगी.

चुनाव पर गंभीरता से नजर रखने वाले जानकारों के अनुसार इस बार लोकसभा चुनाव 2024 में अनुमानित खर्च के 1.35 लाख करोड़ रुपए तक पहुंचने की संभावना है.अगर बात की जाए लोकसभा चुनाव 2019 में खर्च की तो 60,000 करोड़ रुपये से दोगुने से भी अधिक है.

दरअसल, चुनाव को विहंगम दृष्टि से देखा जाए तो राजनीतिक दलों और संगठनों, उम्मीदवारों, सरकार और निर्वाचन आयोग सहित चुनावों से संबंधित प्रत्यक्ष या परोक्ष सभी खर्च शामिल हैं. चुनाव संबंधी खर्चों पर बीते चार दशक से नजर रख रहे गैर-लाभकारी संगठन के अध्यक्ष एन भास्कर राव के दावे के अनुसार लोकसभा चुनाव में अनुमानित खर्च के 1.35 लाख करोड़ रुपए तक पहुंचने की उम्मीद है. विशेषज्ञों का मानना है कि भारत में राजनीतिक वित्तपोषण में पारदर्शिता की अत्यंत कमी का खुलासा हुआ है.चुनावी बांड के खुलासे से साफ हो गया है कि पार्टियों के पास खुलकर खर्च करने के लिए धन है. राजनीतिक दलों ने उस धन को खर्च करने के रास्ते तैयार कर लिए है.

जैसा कि हम जानते हैं देश में काले धन की बात की जाती है, भ्रष्टाचार की बात की जाती है. यह सब कुछ चुनाव के दरमियान देखा जा सकता है और चौक चौराहे पर इस पर चर्चा होने लगी है कि आखिर प्रमुख राष्ट्रीय दलों के प्रत्याशी करोड़ों रुपए जो खर्च कर रहे हैं वह आता कहां से है मगर इस दिशा में न तो सरकार ध्यान दे रही है और न ही चुनाव आयोग या फिर उच्चतम न्यायालय या सरकार की कोई जांच एजेंसी.

जहां तक बात है भारतीय जनता पार्टी की इस चुनाव में सत्ता प्राप्त करने के लिए नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भारतीय जनता पार्टी वह सब कुछ कर रही है जो कोई कल्पना भी नहीं कर सकता. इसका आज की तारीख में आकलन नहीं लगाया जा सकता. हो सकता है आने वाले समय में इसका खुलासा हो पाए की भाजपा ने लोकसभा 2024 में कितना खर्च किया. माना जा रहा है चुनाव प्रचार में हो रहे खर्च के मामले में यह पार्टी देश के विपक्षी पार्टियों को बहुत पीछे छोड़ देगी.

एनजीओ के माध्यम से इस पर निगाह रखने वाले संगठन के पदाधिकारी के मुताबिक, उन्होंने प्रारंभिक व्यय अनुमान को 1.2 लाख करोड़ रुपए से संशोधित कर 1.35 लाख करोड़ रुपए कर दिया, जिसमें चुनावी बांड के खुलासे के बाद के आंकड़े और सभी चुनाव-संबंधित खचों का – हिसाब शामिल है. ‘एक अन्य संगठन ने हाल में भारत में राजनीतिक वित्तपोषण में पारदर्शिता की अत्यंत कमी की ओर इशारा किया था. उन्होंने दावा किया – 2004-05 से 2022-23 तक, देश के छह प्रमुख राजनीतिक दलों को कुल 19,083 करोड़ रुपए का लगभग 60 फीसद योगदान अज्ञात स्रोतों से मिला, जिसमें चुनावी बाण्ड से प्राप्त धन भी शामिल था.

एक अन्य महत्वपूर्ण संगठन ने- ‘चुनाव पूर्व गतिविधियां पार्टियों और उम्मीदवारों के प्रचार खर्च
का अभिन्न अंग हैं, जिनमें राजनीतिक रैलियां, परिवहन, कार्यकर्ताओं की नियुक्ति और यहां तक कि नेताओं की विवादास्पद खरीद-फरोख्त भी शामिल है.’ उन्होंने कहा – चुनावों के प्रबंधन के लिए निर्वाचन आयोग का बजट कुल व्यय अनुमान का 10-15 फीसद होने की उम्मीद है.

इसी तरह विदेश में बैठे एक चुनाव पर निगाह रखने वाले सम्मानित संगठन के अनुसार-” भारत में 96.6 करोड़ मतदाताओं के साथ प्रति मतदाता खर्च लगभग 1,400 रुपए होने का अनुमान है. उसने कहा कि यह खर्च 2020 के अमेरिकी चुनाव के खर्च से ज्यादा है, जो 14.4 अरब डालर या लगभग 1.2 लाख करोड़ रुपए था. एक विज्ञापन एजंसी के मुख्य कार्यकारी अधिकारी अमित वाधवा के मुताबिक -लोकसभा 2024 के इस चुनाव में डिजिटल प्रचार बहुत बहुत ज्यादा हो रहा है. उन्होंने कहा – राजनीतिक दल कारपोरेट ब्रांड की तरह काम कर रहे हैं और पेशेवर एजेंसियों की सेवाएं ले रहे हैं.”

इस तरह लोकसभा चुनाव जो आज हमारे देश में लड़ा जा रहा है उसमें राजनीतिक पार्टियों सत्ता प्राप्त करने के लिए सीमा से अधिक खर्च कर रही हैं यह सभी मान रहे हैं ऐसे में अगर हम नैतिकता की बात करें तो जब कोई पार्टी या प्रत्याशी करोड़ों रुपए खर्च करके चुनाव जीतते है तो स्पष्ट है कि वह आम जनता के लिए उत्तरदाई नहीं हो सकते जिन लोगों ने उन्हें रुपए पैसे की मदद की है या गलत तरीकों से रुपया कमाया गया है तो फिर चुने हुए प्रतिनिधि निश्चित रूप से अपने आकाओं के लिए काम करेंगे या फिर अपना स्वास्थ्य साधन करेंगे.

फूटती जवानी के डर और खुदकुशी की कसमसाहट

इसे जागरूकता की कमी कहें या फिर अनपढ़ता, लड़के हों या लड़कियां एक उम्र आने पर उन के शरीर में कुछ बदलाव होते हैं और अगर ऐसे समय में समझदारी और सब्र का परिचय नहीं दिया जाए, तो जिंदगी में कुछ अनहोनी भी हो सकती है. ऐसे ही एक वाकिए में एक लड़की जब अपनी माहवारी के दर्द को सहन नहीं कर पाई और न ही अपनी मां को कुछ बता पाई, तो उस ने खुदकुशी का रास्ता चुन कर लिया.

यह घटना बताती है कि जवानी के आगाज का समय कितना ध्यान बरतने वाला होता है. ऐसे समय में कोई भी नौजवान भटक सकता है और मौत को गले लगा सकता है या फिर कोई ऐसी अनहोनी भी कर सकता है, जिस का खमियाजा उसे जिंदगीभर भुगतना पड़ सकता है. सब से बड़ी बात यह है कि उस के बाद परिवार वाले अपनेआप को कभी माफ नहीं कर पाएंगे.

आज हम इस रिपोर्ट में ऐसे ही कुछ मामलों के साथ आप को और समाज को अलर्ट मोड पर लाने की कोशिश कर रहे हैं. एक बानगी :

-14 साल की उम्र आतेआते जब सुधीर की मूंछ निकलने लगी, तो वह चिंतित हो गया. उसे यह अच्छा नहीं लग रहा था कि उस के चेहरे पर ठीक नाक के नीचे मूंछ उगे और वह परेशान हो गया.

-12 साल की उम्र में जब सोनाली को पहली दफा माहवारी हुई, तो वह घबरा गई. वह बड़ी परेशान हो रही थी. ऐसे में एक सहेली ने जब उसे इस के बारे में अच्छी तरह से बताया, तो उस के ही बाद वह सामान्य हो पाई.

-राजेश की जिंदगी में जैसे ही जवानी ने दस्तक दी, तो उसे ऐसेवैसे सपने आने लगे. वह सोच में पड़ गया कि यह क्या हो रहा है. बाद में एक वीडियो देख कर उसे सबकुछ समझ में आता चला गया.

दरअसल, जिंदगी का यही सच है और सभी के साथ ऐसा समय या पल आते ही हैं. ऐसे में अगर कोई सब्र और समझदारी से काम न ले, तो वह मुसीबत में भी पड़ सकता है. लिहाजा, ऐसे समय में आप को कतई शर्म नहीं करनी चाहिए और घबराना नहीं चाहिए, बल्कि इस दिशा में जागरूक होने की कोशिश करनी चाहिए.

आज सोशल मीडिया का जमाना है. आप दुनिया की हर एक बात को समझ सकते हैं और अपनी जिंदगी को सुंदर और सुखद बना सकते हैं. बस, आप को कोई भी ऐसा कदम नहीं उठाना चाहिए, जो आप को नुकसान पहुंचा सकता हो.

डरी हुई लड़की की कहानी

दरअसल, मुंबई से एक दिल दहला देने वाला मामला सामने आया है. मुंबई के मालवणी इलाके में रहने वाली 14 साल की लड़की रजनी (बदला हुआ नाम) ने अपनी पहली माहवारी के दौरान दर्दनाक अनुभव के बाद कथिततौर पर खुदकुशी कर ली थी. जब तक परिवार वालों ने यह देखा और समझा, तब तक बड़ी देर हो चुकी थी. उस की लाश घर में लटकी हुई मिली थी.

यह हैरानपरेशान करने वाला मामला मलाड (पश्चिम) के मालवणी इलाके में हुआ था, जहां रहने वाली 14 साल की एक लड़की रजनी की लाश रात में अपने घर के अंदर लोहे के एक एंगल से लटकी हुई पाई गई थी.

पुलिस के मुताबिक, वह नाबालिग लड़की अपने परिवार के साथ गावदेवी मंदिर के पास लक्ष्मी चाल में रहती थी. कथिततौर पर वह किशोरी माहवारी के बारे में गलत जानकारी होने के चलते तनाव में रहती थी. ऐसा लगता है कि उसे सही समय पर सटीक जानकारी नहीं मिल पाई होगी, तभी तो माना जा रहा है कि उस ने यह कठोर कदम उठा लिया होगा.

पुलिस के मुताबिक, देर शाम में जब घर में कोई नहीं था, तो उस लड़की ने खुदकुशी कर ली. जब परिवार वालों और पड़ोसियों को इस कांड के बारे में पता चला, तो वे उसे कांदिवली के सरकारी अस्पताल में ले गए, जहां डाक्टरों ने लड़की को मरा हुआ बता दिया.

मामले की जांच कर रहे एक पुलिस अफसर ने कहा, “शुरुआती पूछताछ के दौरान लड़की के रिश्तेदारों ने बताया कि लड़की को हाल ही में पहली बार माहवारी आने के बाद दर्दनाक अनुभव हुआ था. इसे ले कर वह काफी परेशान थी और मानसिक तनाव में थी, इसलिए हो सकता है कि उस ने इस वजह से अपनी जान दे दी हो.”

कुलमिला कह सकते हैं कि अगर उस लड़की को सही समय पर सही सलाह मिल जाती, तो पक्का है कि वह खुदकुशी करने जैसा कड़ा कदम कभी नहीं उठाती. मांबाप को भी चाहिए कि ऐसे समय में वे बच्चों को सही सलाह दें या फिर उन्हें किसी माहिर डाक्टर के पास ले जाएं.

करोड़ों की सैलरी के सपने

यह आर्टिफिशियल इंटैलिजैंस की वजह से है या कंपनियों के मुनाफों की लिमिट के आने या सब से बड़ी बात, दुनियाभर में अमीरों व गरीबों के बीच बढ़ती खाई बढ़ने पर शोर की वजह से, इस साल भारत में स्टार्टअप्स करोड़ प्लस नौकरियां देने में हिचकिचाने लगे हैं. पहले हर साल 100-200 युवाओं को कैंपस रिक्रूटमैंट में ही बहुत मोटी सैलरी दे दी जाती थी और यही मेधावी युवा आगे चल कर एमएनसी कंपनियों के सीईओ बन जाते थे.

अब कंपनियों के मोटे मुनाफे कम होने लगे हैं. जो स्टार्टअप चमचमा रहे थे, अब अपने ही बो  झ से चरमरा रहे हैं. हर कोई वैल्यूएशन बढ़ाचढ़ा कर, बेच कर कुछ सौ करोड़ रुपए जेब में डाल कर चलने की फिराक में है और इस दौरान भारी नुकसान को कम करने के लिए तेजी से छंटनी की जा रही है. स्टार्टअप ही नहीं, इन्फोसिस जैसी कंपनियों को भी अपनी एंपलौई स्ट्रैंग्थ कम करनी पड़ रही है.

यह कोई बड़े राज की बात नहीं है कि ऐसा क्यों हो रहा है. असल में पिछले 5-7 सालों में स्टार्टअप्स ने जो हल्ला मचा कर जीवन को सुगम बनाने के ऐप्स बनाए थे और छोटछोटे धंधों को टैक्नोलौजी के सहारे एक छत के नीचे लाने की कोशिश की थी, उस के साइड इफैक्ट्स दिखने लगे हैं.

लोग अब सिर्फ कंप्यूटर से बात करने के लिए कतराने की सोच पर पहुंच रहे हैं. एक के बाद दूसरा बटन दबाते रहिए. यह जेल की तरह लगने लगा था जिस में कंप्यूटर- चाहे मोबाइल हो, लैपटौप हो या डैस्कटौप, एक जेल सा बन गया था जिस में दुनिया से कट कर रहना पड़ रहा था. आर्टिफिशियल इंटैलिजैंस इस रूखेपन को कम कर रहा है और ग्राहक की आवाज की टोन को पहचान कर उसी लहजे में जटिल समस्याओं को सुल  झाने के प्रोग्राम बनाए जा रहे हैं ताकि ग्राहक बिदकें न. पर यह न भूलें कि असल जिंदगी तो ब्रिक, मोर्टार और हाड़मांस से चलती है. ऐप ने दफ्तरों से भिड़ने के कंपल्शन को कम किया है लेकिन इस के बदले उस ने ह्यूमन टच छीन लिया है.

एआई की आवाज कितनी ही मधुर क्यों न हो, कितनी ही ह्यूमन लगे, पता चल ही जाता है कि यह मशीनी है. ऐसे में ग्राहक उचट जाता है कि वह अपनी खास समस्या को हल करने के लिए कहे या न कहे.

जो मोटी सैलरीज मिल रही थीं वे उन स्टार्टअप्स से मिल रही थीं जो सिर्फ हवाहवाई बातें करने में आगे आ रहे थे. ब्रिक और मोर्टार सेवाएं तो आदमियों की सहायता से ही मिल रही थीं. उबर और ओला चलाने वाले तो ड्राइवर ही हैं जो कंप्यूटर एलगोरिदम की तोड़ निकालने में लगे थे या जिन की कमर कंप्यूटर एलगोरिदम तोड़ रहा था.

आज छोटा सा स्टार्टअप भी अरबों की वैल्यूएशन का काम कर रहा था इसलिए कि वह ह्यूमन एफर्ट को किसी बेचारे से छीन रहा था. अमेजन, फ्लिपकार्ट, स्विगी, बिग बास्केट ने लाखों छोटे व्यापार बंद करा दिए और अपने कंप्यूटर कंट्रोल्ड वर्कर्स को लूट कर ग्राहकों को सेवाएं देनी शुरू कीं. अब ग्राहक उकताने लगे हैं. दुनियाभर में कंजम्पशन बढ़ने लगा मगर उत्पादन नहीं. अमीरों के सुख की चीजें भरभर कर बनने लगीं क्योंकि स्टार्टअप चलाने वाले उस कैटेगरी में आते हैं जो ऊपरी एक फीसदी हैं. वे आम आदमी की तकलीफें नहीं सम  झते- जो यूक्रेन में लड़ रहा है, सऊदी डैजर्ट में पसीना बहा कर शहर बसा रहा है, घरों तक पानी, बिजली, सीवर पहुंचा रहा है, पक्के मकान बना रहा है. कोई स्टार्टअप या कंस्ट्रक्शन कंपनी बिना ह्यूमन टच के ये सब नहीं कर सकती, न शायद कभी कर पाएगी. कंप्यूटर स्लेव कभी नहीं बनेगा, यह एहसास होने लगा है और शायद स्टार्टअप और टैक्नो इंडस्ट्रीज अब ठंडी पड़ने लगी हैं.

करोड़ों की सैलरी के सपने टूट रहे हैं. उत्तर प्रदेश में 6,000 कौंस्टेबलों की भरती के लिए 50,00,000 उम्मीदवारों का जमा हो जाना साबित करता है कि सैलरी लैवल तो अब भी 20-30 हजार रुपए ही है, वह भी सरकारी नौकरी में, और उसी के लिए मारामारी हो रही है. पेपर लीक भी एक धंधा बना हुआ है, सरकारें परेशान हैं. कुछ को करोड़ों के पैकेज बेरोजगारों के मुंह से निवाले छीन कर दिए जा रहे थे पर अब इन में कुछ कमी होने लगी है.

गुणों को पहचानें, पर्सनैलिटी निखारें

अपनी पर्सनैलिटी पर भरोसा करें. अपने रंगरूप, कद, पढ़ाई, बैकग्राउंड को भूल कर हमेशा यह सोचिए कि आप में कुछ ऐसे गुण हैं जो आप की लाइफ को लिवएबल, हैप्पी, प्रौसपरस बना सकते हैं. अपनी कमियों को छिपाइए नहीं पर उन से घबरा कर कछुए की तरह खोल में न छिपिए. हर युवा कुछ गुण रखता है. हरेक में कुछ करने की, कुछ बनने की तमन्ना होती है. सोशल नौर्म्स कुछ ऐसे हैं जो कुछ यंग को एहसास दिलाते हैं कि उन की कोई कीमत नहीं है. इस गलतफहमी को खुद दूर करें. आप को लूटने वाले इस गलतफहमी का सहारा ले कर ही जेब पर डाका डालते हैं. वे सपने दिखाते हैं, ठोस प्लान या प्रोग्राम नहीं बनाते.

यह सोच कर चलें कि रास्ते पर पड़े पत्थरों को लांघ कर या रास्ता बना कर चलना संभव है. हम में से हरेक ऐसा करता है. हम पानी के गड्ढों से भरी सड़क पर सूखी जगह देख कर चलते हैं पर बाढ़ आ जाने के बाद जूते, पैर या पैंट के गीली हो जाने के बावजूद रास्ता पार करना नहीं छोड़ते क्योंकि इस पानी के दूसरी तरफ कोई है जो बचा कर रखेगा, कुछ राहत मिलेगी, कुछ सुकून मिलेगा.

पढ़ाई हो, हौबी हो, खेल का मैदान हो, रंगमंच हो, पहले ही न घबराइए. उतरिए तो सही. हो सकता है सोने का अंडा हाथ लग जाए, वरना अनुभव तो मिलेगा ही न, जो आगे काम आएगा. लेकिन इस के लिए भीड़ की मानसिकता का शिकार न बनें.

शातिर, बेईमान लोग भीड़ का इस्तेमाल करते हैं. कमजोरों को बहकाने के लिए जब इतने सारे लोग एक तरफ जा रहे हैं तो कुछ अच्छा होगा वहां, इस को जम कर भुनाया जाता है. आप ने जो भी सीखा, जो भी जाना, उस का इस्तेमाल कर के अपना फैसला लें कि आप भीड़ का हिस्सा बन कर अपनी सफलता की चाबी भीड़ के सब से आगे वाले के हाथ में देना चाहते हैं या अपने हाथ में रखना चाहते हैं.

हर व्यक्ति सफल हो सकता है. आप कितने सफल हो सकते हैं, इस का आकलन पहले न करें. पहले तो यही उम्मीद करें कि हर सपना, प्लान सक्सैसफुल ही कंप्लीट होगा. उस पर आप के ऐक्टिव होने की देर है बस, हाथ में कुछ लगेगा ही, कम या ज्यादा. हां, इस के लिए तैयारी करनी पड़ती है. नदी पार करने के लिए नाव बनानी पड़ती है. जब दूसरे पार कर सकते हैं तो आप भी बच सकते हैं, दूसरों से बेहतर भी हो सकते हैं.

तैयारी करने में जरूरी है कि अपने सपनों पर फोकस करें. उन को साकार करने के तरीके ढूंढ़ें. लोगों से पूछें पर फैसला हमेशा अपनी जानकारी के सहारे लें. आप के पास जानकारी जुटाने के हजारों तरीके हैं. आज इंटरनैट तो है ही, साथ ही, विस्तृत जानकारी वाली किताबों की दुकानें व लाब्रेरियां भी हैं. इंटरनैट तो आप को हताश भी कर सकता है पर किताबें, आमतौर पर एक नए निर्माण का मैसेज देती हैं. आगे चलिए तो सही, कुछ मिलेगा. हर वक्त बैठे रह कर मोबाइल से खेलना आप का ऐम (लक्ष्य) न हो, यह खयाल रखें. बल्कि, एक तमन्ना हो कुछ करने की और उसे पूरा करें.

छप्परफाड़ कमाई करने वाली सीए रचना रानाडे

सीए रचना रानाडे ने कभी नहीं सोचा था कि वे फाइनैंस जगत में इतनी फेमस हो  जाएंगी. फाइनैंस सीखने  वाली नई पीढ़ी इन दिनों  रचना से हो कर ही  गुजर रही है. 26 जून, 1986 को पुणे, महाराष्ट्र, भारत में जन्म लेने वाली 37 साल की रचना रानाडे आज फाइनैंस इंफ्लुएंसर की दुनिया में जानामाना नाम हैं. यूट्यूब क्रिएटर के तौर पर शेयर बाजार, वित्त, व्यवसाय और मार्केटिंग पर शिक्षा देने वाली रचना को फाइनैंस मैनेजमैंट में इंट्रैस्ट रखने वाले अच्छे से जानते हैं और उन्हें फौलो भी करते हैं. रचना रानाडे चार्टर्ड अकाउंटैंट हैं जो अपने दर्शकों के लिए मुश्किल समझे जाने वाली फाइनैंशियल लिट्रैसी को आसान बनाती हैं. उन्होंने अपने पहले अटेम्पट में सीए का एग्जाम पास किया और टीचिंग को अपना कैरियर बनाया.

उस के बाद रचना ने पुणे में लाइव बैच में 10,000 से अधिक और औनलाइन 100,000 से अधिक छात्रों को पढ़ाया और  फेमस हुईं.  यूट्यूब से कमाई 2019 में उन्होंने अपना यूट्यूब चैनल ‘सीए रचना फड़के रानाडे’ के नाम से लौंच किया और स्टौक मार्केट टौपिक्स पर ध्यान केंद्रित किया. उन्होंने 3 साल से भी कम समय में अपने यूट्यूब चैनल पर 4.78 मिलियन यानी 47 लाख से अधिक सब्सक्राइबर्स हासिल कर लिए हैं. वहीं इंस्टाग्राम पर उन के 11 लाख से अधिक फौलोअर्स हैं. वे अपनी वीडियोज में मराठी, हिंदी और इंग्लिश भाषा का इस्तेमाल करती हैं.

उन की पौपुलैरिटी देशविदेश में फैली हुई है. उन्होंने दुबई में एक बिलियन शिखर सम्मेलन और अबूधाबी व मस्कट में आईसीएआई सहित प्रतिष्ठित कार्यक्रमों में भी शिरकत की और अपनी बात रखी. उन के पाठ्यक्रम स्टौक मार्केट बेसिक्स, मनी मैनेजमैंट, फंडामैंटल एंड टैक्निकल एनालिसिस और फ्यूचर्स एंड औप्शंस के लगभग सारे कोर्सों को कवर करते हैं.

35 साल की रानाडे का कहना है, ‘‘सीए के स्टूडैंट्स को 10 साल तक पढ़ाने के बाद मैं कुछ नया करना चाहती थी. फिर मु  झे स्टौक मार्केट का खयाल आया, जो मेरा दूसरा प्यार है.’’ इसी सोच के साथ उन्होंने यूट्यूब पर वीडियो डालना शुरू किया, जिस से वे आज लाखों रुपए कमा रही हैं. पिछले साल उन्होंने पेडअप मैंबरशिप के विकल्प की भी शुरुआत की है.

उन का माध्यम मुख्य रूप से इंग्लिश है लेकिन बीचबीच में वे हिंदी और मराठी का भी इस्तेमाल करती हैं और खूब पैसा कमा रही हैं. भरोसा अपने रिस्क पर मध्यवर्गीय परिवार से आने वाली रानाडे ने कभी नहीं सोचा था कि पढ़ाने का उन का पेशा एक दिन उन्हें बुलंदी पर पहुंचा देगा. यूट्यूब यूजर के स्टैटिस्टिक्स और एनालिटिक्स पर नजर रखने वाले सोशल ब्लैंड के मुताबिक, रानाडे की सालाना कमाई पिछले साल 3.3 करोड़ रुपए थी.

यूट्यूब के सीईओ सुसान वोजसिकी ने 26 जनवरी को अपने ब्लौग में लिखा था, ‘‘भारतीय क्रिएटर रचना रानाडे अपने चैनल का इस्तेमाल लोगों की वित्तीय साक्षरता में मदद के लिए करती हैं. उन्होंने पिछले साल मैंबरशिप की शुरुआत की. यूट्यूब उन की कमाई का मुख्य स्रोत बन गया है. वे 1,00,000 डौलर से ज्यादा कमा रही हैं.’’ रानाडे ने ‘बेसिक्स औफ स्टौक मार्केट’ पर अपना वीडियो यूट्यूब पर 2019 में अपलोड किया था. यह वीडियो वायरल हो गया जिसे अब तक 27 मिलियन व्यूज मिल चुके हैं.

इस लैक्चर में 3 वीडियोज हैं जो स्टौक मार्केट में इंट्रेस्ट रखने वालों के लिए बनाई गई हैं. रचना इन में बहुत ही सिंपल तरीके से स्टौक मार्केट के बेसिक्स समझाती हैं जो काफी इंट्रैसटिंग लगते हैं.  फाइनैंस लिटरैसी की वकालत हालांकि रचना सेबी (एसईबीआई) रजिस्टर फाइनैंस इन्फ्लुएंसर नहीं हैं, फिर भी उन के फौलोअर्स की संख्या बताती है कि आम लोगों द्वारा उन पर कितना विश्वास किया जा रहा है. उन के कोर्सेज के पैकेज 3 हजार से ले कर 50 हजार रुपए तक में उन की वैबसाइट पर मौजूद हैं.

प्रांजल कामरा के बाद फाइनैंस एक्सपर्ट के तौर पर रचना को ही फौलो किया जाता है. ‘अर्न 1 करोड़ इन 1 ईयर’, ‘हाउ टू पिक स्टौक इन 1 मिनट’ और ‘हाऊ टू प्लान योर ड्रीम हाउस’ जैसे वीडियोज लोगों को अट्रैक्ट करने के लिए काफी हैं. आप को जान कर हैरानी होगी कि रचना एक पेशेवर गायिका भी हैं और उन के पास संगीत विशारद की डिग्री भी है, जो संगीत में स्नातक की डिग्री के बराबर है. उन्होंने अपने

यूट्यूब चैनल पर कई सिंगिंग कवर भी अपलोड किए हैं. रचना महिलाओं की फाइनैंस लिट्रैसी के बारे में भी बात करती हैं. एक रैपिड फायर इंटरव्यू में वे एक सवाल, ‘एक आदत जो महिलाओं के पैसे बचा सकती हैं और उन्हें अमीर बना सकती हैं?’ के जवाब में कहती हैं. ‘‘कुछ भी खरीदने से पहले अपनेआप से पूछें कि क्या आप को इस की जरूरत है.’ वे आगे कहती हैं, ‘आप को उस प्रोडक्ट की कीमत और उस के इस्तेमाल के बारे में सोचना चाहिए. मान लीजिए, आप कोई हैडफोन खरीदती हैं महंगा सा और उस का इस्तेमाल दिन में 2 बार ही करती हैं तो वह आप के लिए फुजूलखर्ची है.’

रचना ट्रेडिंग के तरीके बताती हैं और इन्वैस्टमैंट के भी. किसी भी और फाइनैंस इंफ्लुएंसर की तरह लोग इन्हें भी फौलो करते हैं. अकसर आंख बंद कर के और बिना कुछ सीखेसम  झे लोग इन की सलाह पर अपना हार्ड अर्न पैसा लगा देते हैं और लालच के चलते उसे गंवा भी बैठते हैं, सो, सावधान रहने की भी जरूरत है.

 

सरकारी अस्पतालों की बदहाली, मध्य प्रदेश में तो बुरा हाल

फरवरी महीने के ठंड और गरमी से मिलेजुले दिनों में मध्य प्रदेश के नरसिंहपुर जिले के एक गांव के सरकारी अस्पताल में सुबह 8 बजे से ही मरीजों की काफी भीड़ जमा हो गई थी. भीड़ में मर्दऔरतों का जमावड़ा तो था ही, अपने छोटेछोटे बच्चों को गोद में लिए कुछ नौजवान औरतें भी अपनी बारी के आने का इंतजार कर रही थीं.

10 रुपए काउंटर पर जमा कर के सभी अपने हाथ में ओपीडी की स्लिप पकड़े हुए डाक्टर के आने की बाट जोह रहे थे. सभी आपस में अपने दुखदर्द सा?ा करते हुए अपनीअपनी बीमारी की चर्चा कर रहे थे. ज्यादातर मरीज मौसमी बुखार और सर्दीखांसी से पीडि़त नजर आ रहे थे.

तकरीबन 9 बजे ड्यूटी पर तैनात डाक्टर ओपीडी में आए, तो घंटों लाइन में लगे मरीजों और उन के साथ आए लोगों के चेहरे पर मुसकान फैल गई. डाक्टर ने बारीबारी से मरीजों को देखना शुरू किया और परचे पर दवाएं लिख दीं.

कुछ ही समय में दवा के काउंटर पर भी भीड़ बढ़ने लगी. काउंटर पर तैनात मुलाजिम कुछ दवाएं दे रहा था और कुछ दवाएं मैडिकल स्टोर से खरीदने का बोल रहा था. मरीज इस बात को ले कर परेशान थे कि उन्हें मैडिकल स्टोर से महंगी दवाएं लेनी पड़ेंगी.

अभी कुछ ही मरीजों का इलाज हुआ था कि सड़क हादसे में घायल हुए एक आदमी को कुछ लोग अस्पताल ले कर आए. उन में से एक आदमी ने डाक्टर से कहा, ‘‘डाक्टर साहब, पहले इसे देख लीजिए. इस के सिर में चोट लगी है और खून भी बह रहा है.’’

तकरीबन 5,000 की आबादी वाले इस गांव में नौकरी कर रहे उस एकलौते डाक्टर ने ओपीडी छोड़ कर घायल आदमी की तरफ रुख करते हुए उसे ले कर आए लोगों से कहा, ‘‘अस्पताल में पट्टी नहीं है. जब तक मैं घाव पर मरहम लगाता हूं, तब तक आप बाहर मैडिकल स्टोर से पट्टियां मंगवा लीजिए.’’

एक नौजवान भागते हुए बाहर से पट्टियां खरीद कर ले आया, तो डाक्टर ने प्राथमिक उपचार कर उसे डिस्ट्रिक्ट हौस्पिटल के लिए रैफर कर दिया.

गांव में मेहनतमजदूरी करने वाले लोगों का सुबह से काम पर न जाने से मजदूरी का नुकसान तो हो ही रहा था, ऊपर से उन्हें जेब से कुछ रुपए भी खर्च करने पड़ रहे थे. कुछ नौजवान सरकार को कोस भी रहे थे कि सरकारी अस्पताल में इलाज के माकूल इंतजाम नहीं हैं और सरकार स्वास्थ्य सुविधाएं मुहैया कराने का ढोल पीट रही है.

सरकारी अस्पतालों में बदइंतजामी का नजारा कोई नई बात नहीं है. गांवकसबों के बहुत से अस्पताल तो डाक्टरों के बिना भी चल रहे हैं. सरकार गरीबों के उपचार के लिए ढेर सारी योजनाएं बना रही है, मगर डाक्टर और स्टाफ की कमी से जू?ाते अस्पताल गरीब और मध्यमवर्गीय परिवारों को इलाज मुहैया कराने में नाकाम हो रहे हैं. सरकारी अस्पतालों का सच जानने के लिए देश के अलगअलग हिस्सों का रुख करते हैं.

मध्य प्रदेश में कटनी जिले की स्वास्थ्य व्यवस्था कितनी बदहाल है, इस का खुलासा नीति आयोग द्वारा जारी हुई लिस्ट से हुआ है. इस में रीठी स्वास्थ्य केंद्र के हालात काफी खराब बताए गए हैं, जिसे ले कर नीति आयोग ने कटनी सीएमएचओ राजेश आठ्या को चिट्ठी जारी करते हुए उन्हें इंतजाम दुरुस्त करने के निर्देश जारी किए हैं.

कटनी में 6 स्वास्थ्य केंद्र शामिल हैं, जिस के हर केंद्र में 4 से 5 प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र बनाए गए हैं, लेकिन तमाम प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों में न तो डाक्टर मिलते हैं, न ही बेहतर इलाज. इन सब बातों की जांच के लिए बाहर से आई टीम ने जिले के सभी ब्लौकों में स्वास्थ्य इंतजामों की जांच की, जिस में सब से खराब हालात रीठी स्वास्थ्य केंद्र में मिले थे.

रीठी ब्लौक का ज्यादातर हिस्सा पहाड़ी इलाकों में शामिल है, जहां गरीब तबके के लोग रहते हैं. हालांकि, क्षेत्र में स्वास्थ्य इंतजामों को दुरुस्त करने के लिए शासन ने लाखोंकरोड़ों रुपए खर्च किए हैं, लेकिन जमीनी लैवल पर हालात जस के तस बने हुए हैं.

मध्य प्रदेश के मुरैना जिले के गांवदेहात के इलाकों में नएनए अस्पताल भवन तो बन रहे हैं, लेकिन इन अस्पतालों में न तो डाक्टर हैं और न ही इलाज की जरूरी सुविधाएं हैं. कई अस्पताल ऐसे हैं, जो बंद ही रहते हैं, तो कई अस्पताल कभीकभार खुलते हैं.

गांवदेहात के अस्पतालों की इस बदहाली के चलते मरीज व घायलों को इलाज के लिए ?ालाछाप डाक्टरों के यहां जाना पड़ता है, जहां इलाज कराना न सिर्फ जोखिम भरा है, बल्कि जेब पर भी भारी पड़ता है.

मध्य प्रदेश में गांवकसबों के अस्पताल के अलावा कई शहरों के अस्पताल भी अच्छी हालत में नहीं हैं. शाजापुर का जिला अस्पताल खुद बीमार है. इस अस्पताल में लिफ्ट तो है, लेकिन चलती नहीं. एक्सरे मशीन लगी है, लेकिन रिपोर्ट बनाने के लिए फिल्म नहीं है. मजबूरी में लोग कागज पर एक्सरे की रिपोर्ट निकलवाते हैं और यही रिपोर्ट डाक्टर को दिखा कर अपना इलाज कराते हैं.

जब कोई मरीज काफी पूछताछ करता है, तो रेडियोलौजिस्ट एक ही जवाब देता है कि एक्सरे की फिल्म काफी महंगी आती है और कई साल से सरकार ने इस के लिए बजट ही नहीं दिया है.

सरकारी अस्पताल में सरकार ने जांच के लिए भले ही मशीन लगा दी हो, पर स्टाफ की कमी की वजह से मरीजों को सुविधा कम, परेशानी ज्यादा हो रही है.

राजस्थान के ज्यादातर सरकारी अस्पतालों में मरीजों को सोनोग्राफी कराने के लिए लंबी कतार में लगना पड़ता है. उदयपुर में सोनोग्राफी के लिए मरीजों को एक हफ्ते के बाद आने को कहा जाता है और भीलवाड़ा में 15 से 20 दिन बाद की तारीख मिलती है. अलवर के राजीव गांधी सामान्य अस्पताल में तो मरीजों को सोनोग्राफी जांच के लिए 2 महीने का इंतजार करना पड़ता है.

मजबूरन मरीजों को निजी लैब से सोनोग्राफी करानी पड़ रही है. जब तक परची नहीं कटती, तब तक मरीज को पता नहीं चलता कि उसे सोनोग्राफी की कौन सी तारीख दी जा रही है. प्राइवेट लैब से सोनोग्राफी के लिए 800 से 1,000 रुपए ढीले करने पड़ते हैं.

?ां?ानूं के राजकीय भगवानदास खेतान अस्पताल में सिर्फ एक सोनोग्राफी मशीन है, जिस में रोजाना 40 मरीजों की सोनोग्राफी हो पाती है. बाद में आने वालों को आगे की तारीख दे दी जाती है. यहां पर एक दूसरी सोनोग्राफी मशीन स्टोर में ताले में बंद पड़ी है.

जोधपुर के उम्मेद अस्पताल में इंडोर पेशेंट की इमर्जैंसी के हिसाब से उसी दिन और बाकी की 24 घंटे में सोनोग्राफी होती है और आउटडोर मरीजों को सोनोग्राफी के लिए 20 से 25 दिन का इंतजार करना पड़ता है.

भीलवाड़ा के एमजीएच में 4 सोनोग्राफी मशीन हैं, लेकिन 2 ही डाक्टर होने से 2 मशीन पर ही सोनोग्राफी की जाती है. उदयपुर के आरएनटी मैडिकल कालेज में सोनोग्राफी की तारीख 5 से 7 दिन बाद की मिलती है. गर्भवती महिलाओं और दूसरे मरीजों के लिए अलगअलग व्यवस्था रहती है. गर्भवती महिलाओं को 6 से 7 दिन बाद की तारीख दी जाती है.

शहरी बना रहे हैं नीतियां आज भी देश के ज्यादातर हिस्सों में सरकारी अस्पतालों में इलाज के नाम पर बुनियादी सुविधाएं तक नहीं हैं. एंबुलैंस, शव वाहन, जननी ऐक्सप्रैस जैसे वाहन केवल प्रचार का जरीया बने हुए हैं. ओडिशा के कालाहांडी से ले कर छत्तीसगढ़, झारखंड, बिहार और मध्य प्रदेश में अस्पताल से मृतक के शव को परिजनों द्वारा कंधे, साइकिल और आटोरिकशा पर लाद कर घर ले जाने की तसवीरें केंद्र और राज्य सरकारों की स्वास्थ्य योजनाओं की पोल खोलती नजर आती हैं.

आजादी के बाद कांग्रेस के राज को कोसने वाली इस सरकार के पास इस सवाल का कोई जवाब नहीं है कि 10 सालों में उस ने देश के अंदर स्वास्थ्य सुविधाओं के विस्तार में कौन सा बड़ा कदम उठाया है? चौराहों पर लगे बड़ेबड़़े होर्डिंग स्वास्थ्य सुविधाओं का बखान कर देखने में भले ही लोगों का ध्यान खींचते हों, पर जमीनी तौर पर पर इन योजनाओं का असरदार ढंग से पूरा न होने से देश के नागरिकों का हाल बेहाल है. भूखेनंगे गरीबों को इलाज की सुविधा मुहैया नहीं है और आप ऊंचीऊंची मूर्तियों पर पैसा लुटा रहे हैं.

देश में राम मंदिर बनाने से भले ही वोट बटोरे जा सकते हों, पर गरीब के दुखदर्द नहीं मिटाए जा सकते. शायद आप भूल जाते हैं कि देश को मंदिरों की नहीं, बल्कि अस्पतालों की जरूरत ज्यादा है.

जनता अब अच्छी तरह जान गई है कि जुमलों से इनसान के दुखदर्द को दूर करने का झांसा देने वाले धर्म के ठेकेदार कोरोना वायरस के बढ़ते संक्रमण के कारण किस तरह मंदिरों में ताले लगा कर मुंह छिपा कर घरों में कैद हो गए थे.

मगर भारत जैसे विकासशील देश में स्वास्थ्य सेवाओं का ढांचा बेहद कमजोर है. सरकारी अस्पतालों में डाक्टरों की तादाद बेहद कम है, तो निजी अस्पतालों का महंगा इलाज गरीब के बूते के बाहर है.

विश्व स्वास्थ्य संगठन के मुताबिक, तकरीबन 1,000 की आबादी पर एक डाक्टर होना चाहिए, लेकिन इस पैमाने पर देश की स्वास्थ्य व्यवस्था कहीं नहीं टिकती है. नैशनल हैल्थ प्रोफाइल की रिपोर्ट के मुताबिक, देश में 11,000 से ज्यादा की आबादी पर महज एक सरकारी डाक्टर है.

उत्तर भारत के राज्यों में हालात बद से बदतर हैं. बिहार में एक सरकारी डाक्टर के कंधों पर 28,391 लोगों के इलाज की जिम्मेदारी है. उत्तर प्रदेश में 19,962, झारखंड में 18,518, मध्य प्रदेश में 17,192, महाराष्ट्र में 16,992 और छत्तीसगढ़ में 15,916 लोगों पर महज एक डाक्टर है.

केंद्रीय स्वास्थ्य राज्य मंत्री संसद में बता चुके हैं कि देश में कुल 6 लाख डाक्टरों की कमी है. हाल इतना बुरा है कि देश के 15,700 प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र सिर्फ एकएक डाक्टर के भरोसे चल रहे हैं.

इंडियन जर्नल औफ पब्लिक हैल्थ ने अपनी एक स्टडी में कहा है कि अगर भारत को विश्व स्वास्थ्य संगठन के तय मानक पर पहुंचना है, तो उसे साल 2030 तक 27 लाख डाक्टरों की भरती करनी होगी. हालांकि, स्वास्थ्य और शिक्षा के बजाय भगवा रंग में रंगी यह सरकार मंदिर बनाने और मूर्तियां लगाने पर पैसा पानी की तरह बहा देगी, लेकिन गरीब जनता की सेहत से उसे कोई सरोकार नहीं है.

दरअसल, एयरकंडीशनर कमरों में बैठ कर नीतियां बनाने वाले शहरी नीतिनिर्धारक अभी भी यह मानने को तैयार नहीं हैं कि गांव वालों के पास इलाज के लिए पैसे नहीं होते. सच तो यह है कि गांव के लोगों के पास इलाज के लिए पैसे होते तो वे सरकारी अस्पताल के चक्कर काटने के बजाय प्राइवेट अस्पताल में इलाज कराते.

गांवकसबों के लिए सरकारी नीतियां अब विधायक, सांसद नहीं बनाते, बल्कि शहरों के इंगलिश मीडियम स्कूलों में पढ़ने वाले अफसर बनाते हैं. ये अफसर कंप्यूटर पर 50 पेज का पावर पौइंट प्रैजेंटेशन तैयार कर मीटिंग में मंत्रियों को दिखाते हैं, मगर गांव के हालात से उन्हें कोई मतलब नहीं होता.

सरकारी योजनाओं में भ्रष्टाचार कर करोड़ों रुपए की रकम ऐंठने वाले इन अफसरों के गांवकसबों में बड़ेबड़े रिजौर्ट तो बन गए हैं, मगर गांव से इन का कोई सरोकार नहीं है. अफसर और मंत्रियों की काली कमाई से बड़े शहरों में प्राइवेट हौस्पिटल बने हुए हैं, जिन तक गांव के गरीब आदमी की पहुंच ही नहीं है.

स्वास्थ्य सेवाओं में फिसड्डी

मध्य प्रदेश के 51 जिलों में 8,764 प्राथमिक उपस्वास्थ्य केंद्र, 1,157 प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र, 334 सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र, 63 सिविल अस्पताल, 51 जिला अस्पताल हैं, पर कई जिलों में स्वास्थ्य सेवाएं मानो खुद वैंटिलेटर पर हैं. सरकार रोज नई स्वास्थ्य योजनाएं लागू कर रही है, लेकिन फील्ड पर इस के नतीजे निराशाजनक ही रहे हैं.

ज्यादातर सरकारी अस्पताल डाक्टरों की कमी से जूझ रहे हैं. सरकारी योजनाओं में फैला भ्रष्टाचार भी व्यवस्थाओं को बरबाद करने में अपना अहम रोल निभा रहा है.

भोपाल और इंदौर जैसे बड़े शहरों के बड़ेबड़े सरकारी अस्पताल बदहाल हैं. ऐसे में छोटे जिलों, तहसीलों, कसबों और गांवदेहात के इलाकों में स्वास्थ्य सेवाओं का सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है.

मध्य प्रदेश के गांवदेहात के इलाकों के हालात बद से बदतर हैं. मनकवारा गांव के सुखराम कुशवाहा कहते हैं, ‘‘गांवकसबों में संविदा पर नियुक्त स्वास्थ्य कार्यकर्ता हफ्ते में एक दिन जा कर पंचायत भवन या स्कूल में घंटे 2 घंटे बैठ कर बच्चों को टीका लगा कर मरीजों को नीलीपीली गोलियां बांट कर अपने काम से पल्ला झाड़ लेते हैं.’’

गरीब दलित और पिछड़े परिवारों का एक बड़ा तबका बीमारी में सरकारी अस्पतालों की ओर ही भागता है. रोजाना 250-300 रुपए मजदूरी से कमाने वाला गरीब प्राइवेट डाक्टरों की भारीभरकम फीस और दवाओं का खर्च नहीं उठा पाता.

सरकारी अस्पतालों की बदहाली के शिकार गरीब आदमी बीमार होने पर मन मसोस कर सरकारी अस्पतालों में जाते हैं, जहां उसे रोगी कल्याण समिति के नाम पर 10 रुपए, जांच शुल्क के नाम पर 30 रुपए और भरती होने पर 50 रुपए की रसीद कटवानी पड़ती है. एएनएम और नर्सों द्वारा उन का इलाज किया जाता है.

किसी तरह की अव्यवस्था की शिकायत गरीब डर की वजह से नहीं कर पाता है और कभी उस ने किसी विभागीय टोल फ्री नंबर पर औनलाइन शिकायत कर भी दी, तो विभागीय कर्मचारियों द्वारा शिकायत करने वाले को डरायाधमकाया जाता है. सरकारी पोर्टल पर गोलमोल जवाब डाल कर शिकायत का निबटान कर दिया जाता है.

गरीब के पास वोटरूपी हथियार होता है. कभी व्यवस्था से नाराज हो कर वह सरकार बदलने का कदम उठाता भी है तो अगली सरकार का रवैया भी ढाक के तीन पात के समान ही रहता है. ऐसे में लाचार गरीब सरकारी अस्पतालों में मिल रही आधीअधूरी सुविधाओं से काम चला लेने में ही अपनी भलाई समझाता है.

सरकारी योजनाओं की लूट

मध्य प्रदेश के ज्यादातर प्राइवेट अस्पताल राजनीतिक रसूख रखने वाले डाक्टरों के हैं, जिन में सरकारी योजनाओं के तहत मरीजों का इलाज किया जाता है और सरकार से लाखों रुपए के क्लेम की बंदरबांट की जाती है.

आयुष्मान योजना केंद्र सरकार ने गरीब मरीजों को मुफ्त स्वास्थ्य सेवाएं उपलब्ध कराने के मकसद से शुरू की थी, लेकिन निजी अस्पतालों के लिए यह योजना पैसा कमाने का जरीया बन गई.

फर्जीवाड़ा कर रहे डाक्टर सामान्य बीमारी वाले मरीजों या स्वस्थ लोगों को गंभीर रोगों से पीडि़त बता कर उन के इलाज के नाम पर सरकारी पैसा लूट रहे हैं. यह रकम थोड़ीबहुत नहीं, बल्कि लाखों रुपए में होती है.

होटल वेगा में भरती मरीजों के बारे में जान कर आप को भी पता चलेगा कि किस तरह आयुष्मान योजना में भ्रष्टाचार किया जाता है.

जबलपुर पुलिस की टीम ने स्वास्थ्य विभाग के साथ मिल कर 26 अगस्त, 2022 को सैंट्रल इंडिया किडनी अस्पताल में छापा मारा था. उस समय अस्पताल के अलावा होटल वेगा में भी छापा मारा गया था.

जांच के दौरान होटल वेगा और अस्पताल में आयुष्मान कार्डधारी मरीज भरती पाए गए थे. अस्पताल संचालक दुहिता पाठक और उन के पति डाक्टर अश्विनी कुमार पाठक ने कई लोगों को फर्जी मरीज बना कर यहां रखा था. होटल के कमरे में 3-3 लोग भरती पाए गए थे. इस के बाद पुलिस ने डाक्टर दंपती के खिलाफ विभिन्न धाराओं के तहत मामला दर्ज किया था और डाक्टर दंपती को जेल की हवा खानी पड़ी थी.

इस मामले की जांच के लिए एसआईटी का गठन किया गया था. एसआईटी की जांच में यह खुलासा हुआ था कि आयुष्मान भारत योजना के तहत सैंट्रल इंडिया किडनी हौस्पिटल में पिछले 2 से ढाई साल में तकरीबन 4,000 मरीजों का इलाज हुआ था, जिस के एवज में सरकार द्वारा तकरीबन साढ़े 12 करोड़ रुपए का भुगतान अस्पताल को किया गया था. इस के साथ ही इस बात के भी दस्तावेज मिले हैं कि

दूसरे राज्यों के मरीजों का उपचार भी सैंट्रल इंडिया किडनी अस्पताल में हुआ था, जो गैरकानूनी है.

एसआईटी ने सैंट्रल इंडिया किडनी अस्पताल में काम कर रहे मुलाजिमों से भी पूछताछ की, जिस में कई मुलाजिमों ने बताया कि वे अस्पताल में आयुष्मान हितग्राही को भरती करवाते थे, तो अस्पताल संचालक दुहिता पाठक और उन के पति डाक्टर अश्विनी पाठक बतौर कमीशन 5,000 रुपए देते थे.

कमीशन लेने के लिए मुलाजिमों ने कई बार एक ही परिवार के लोगों को अलगअलग तारीख में भरती किया था. उन के नाम पर अस्पताल द्वारा आयुष्मान योजना के फर्जी बिल लगा कर लाखों रुपए की वसूली की गई थी.

इसी तरह टीला जमालपुरा में बनी हाउसिंग बोर्ड कालोनी में रहने वाले 28 साल के खालिद अली ने नवंबर, 2021 में अपने 3 महीने के बेटे जोहान के सर्दीजुकाम के इलाज के लिए भोपाल के मैक्स केयर अस्पताल में भरती कराया था. बाद में डाक्टरों द्वारा बताया गया कि उस बच्चे को निमोनिया हो गया है.

3 महीने तक मासूम को हौस्पिटल में भरती रखा गया, जिस में कई बार में दवाओं और इलाज के नाम पर 3 लाख से ज्यादा रुपए वसूल लिए गए. खालिद अली जब भी बिल मांगता, अस्पताल मैनेजमैंट उसे टका सा जबाव दे देता कि मरीज के डिस्चार्ज होने के समय पूरे बिल दे दिए जाएंगे, आप चिंता न करें.

जनवरी, 2022 में आखिरकार मासूम जोहान की मौत हो गई और बाद में पता लगा कि अस्पताल की ओर से आयुष्मान कार्ड से भी बच्चे के इलाज के नाम पर रकम सरकारी खजाने से ली गई है, जबकि खालिद अली के परिवार को इस की जानकारी नहीं दी गई थी. सब से पहले इस फर्जीवाड़े की शिकायत पुलिस थाने में की तो सुनवाई नहीं हुई. तब जा कर कोर्ट में परिवाद दायर किया.

खालिद अली ने बताया कि मैक्स केयर हौस्पिटल का संचालक डाक्टर अल्ताफ मसूद सरकारी योजनाओं में जम कर भ्रष्टाचार कर रहे हैं और उन के खिलाफ शिकायतें भी हो रही हैं, मगर अपनी राजनीतिक पहुंच के चलते उन पर कोई कार्यवाही नहीं होती है.

अभी भी मैक्स केयर हौस्पिटल की ओपीडी में डाक्टर अल्ताफ मसूद मरीजों का इलाज कर रहे हैं और पुलिस जांच के नाम पर खानापूरी कर यह बता रही है कि वे हास्पिटल में नहीं हैं.

चिंताजनक बात यह है कि देश के दूरदराज के इलाकों में लोगों को स्वास्थ्य सुविधाएं नहीं मिल पा रही हैं. बड़ेबड़े सरकारी अस्पतालों में एंबुलैंस नहीं हैं और जो हैं उन के अस्थिपंजर ढीले पड़ गए हैं. देश के जनसेवक इन सब पर ध्यान देने के बजाय करोड़ों रुपए खर्च कर हवाईजहाज खरीद रहे हैं और जुमले उछाल कर लोगों का मन बहला रहे हैं.

आजादी के 7 दशकों के बाद भी हम गरीबों के लिए कोई खास सुविधाएं नहीं जुटा पाए हैं. जब देश के रहनुमा कोरोना की जंग लड़ने के लिए जुमलों के साथ ताली और थाली बजाने व दीया जलाने को रोग भगाने का टोटका सम?ाते हों, हौस्पिटल में स्वास्थ्य सुविधाओं को बढ़ाने के बजाय भव्य मंदिर और ऊंचीऊंची मूर्तियों के बनाने को विकास समझते हों, ऐसे शासकों से आखिर क्या उम्मीद की जा सकती है?

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