पाखंड की गिरफ्त में समाज, वजह जानकर हो जाएंगे शर्मसार

अंधविश्वास

रामप्यारे महतो गया जिले के एक गांव अमौना के रहने वाले हैं. वे अपनी पतोहू कलावती देवी को मगध मैडिकल अस्पताल, गया में ले कर आए थे, जहां उसे बेटा पैदा हुआ. नर्स ने ज्यों ही बताया कि लड़का पैदा हुआ है, बगल में अपनी पत्नी की जचगी कराने आए एक पंडे ने बताया कि भूल कर भी अपने बेटे को नहीं देखना, क्योंकि इस का जन्म मूल नक्षत्र में हुआ है.

यह बात रामप्यारे महतो के परिवार में चिंता की वजह बन गई. इस के बाद रामप्यारे महतो ने अपने पुरोहित किशोर पंडित के घर जा कर जब सारी बातें बताईं तो उन्होंने बताया कि अगर लड़का मूल नक्षत्र में पैदा हुआ है तो ग्रह को शांत करने के लिए कुछ विधिविधान करना पड़ेगा.

यह है मूल नक्षत्र

किशोर पंडित के मुताबिक, उग्र और तीक्ष्ण नक्षत्र वाले को मूल नक्षत्र, सतईसा या गंडात कहा जाता है. जब बालक इन नक्षत्रों में जन्म लेता है तो इस का असर बालक और उस के मातापिता पर पड़ता है. मूल नक्षत्र के भी कई चरण हैं. पहले चरण में अगर बालक पैदा होता है तो उस का बुरा असर पिता के ऊपर होता है. अगर दूसरे चरण में बेटा पैदा होता है तो माता के ऊपर. अगर तीसरे चरण में पैदा होता है तो इस का बुरा असर लड़के पर पड़ता है.

किशोर पंडित अपने शास्त्र, जो खासकर नक्षत्र से ही संबंधित स्पैशल किताब है, में देख कर बताते हैं कि बालक मूल नक्षत्र के पहले चरण में पैदा हुआ है, इसलिए इस का बुरा असर बालक के पिता के ऊपर पड़ेगा. पिता को बिना मूल नक्षत्र की शांति का उपाय किए बालक का मुंह 27 दिनों तक नहीं देखना है. इस के लिए पूजापाठ कराना पड़ेगा, ब्राह्मणों, गांव वालों और रिश्तेदारों को खाना खिलाना पड़ेगा और दानदक्षिणा देनी पड़ेगी.

पंडितजी ने कहा कि आप दिल खोल कर परिवार को खिलाएं और ब्राह्मणों को बढ़चढ़ कर दान दें. इस से मूल की शांति जरूर होगी और बालक के साथसाथ उस के मातापिता को भी कोई परेशानी नहीं होगी.

रामप्यारे महतो के परिवार वालों ने इस का पूरा इंतजाम किया और पूजापाठ, हवन के साथ 11 ब्राह्मणों को खाना खिलाया और दानदक्षिणा दी.

रामप्यारे महतो ने सूद पर 50,000 रुपए ले कर खर्च किए, पर समाज के किसी भी शख्स ने सम झाने की कोशिश नहीं की कि इस से कुछ नहीं होता. उन्होंने पंडे की बातों में ही हां में हां मिलाने का काम किया.

पापपुण्य और विज्ञान

पापपुण्य और विज्ञान में फर्क यह है कि विज्ञान सभी लोगों के लिए एकसमान काम करता है. जहर खाने से हर धर्म को मानने वाला मरेगा ही. आग का काम जलाना है. कोई भी धर्म मानने वाला उसे छुएगा तो उस का हाथ जलेगा. ऐसा कभी नहीं हो सकता कि हिंदू को आग गरम लगे और ईसाई व मुसलिम को ठंडी.

चाल को समझें

इन पंडों के मूल ढकोसले को समझने की कोशिश करें. इतना सभी को जान लेना चाहिए कि मूल नक्षत्र केवल हिंदुओं के यहां होते हैं.

अगर मूल नक्षत्र में जन्म लेने से इस तरह की अनहोनी होती है तो मुसलिम और ईसाई धर्म वालों के यहां भी बच्चा पैदा होने पर इस तरह की घटनाएं घट सकती हैं, लेकिन मुसलिम और ईसाई धर्म समेत दूसरे धर्मों को मानने वाले लोग जानते भी नहीं हैं कि मूल नक्षत्र क्या होता है?

पाखंड का जाल

पंडों ने समाज में अपने फायदे के लिए इस तरह से शास्त्रों को बनाया है कि कमेरा तबका डर से उन की बातों को मानता रहे. ये परजीवी लोगों को बेवकूफ और अंधविश्वासी बना कर लूटते आ रहे हैं. कमेरे तबके में भी पढ़ेलिखे और नौकरी कर रहे लोग इन धार्मिक पाखंडों को हवापानी देने का काम कर रहे हैं.

सवर्णों के साथसाथ अन्य पिछड़ा वर्ग और कारोबारी तबके के लोग भी इन बातों का पालन करते हैं. इन दकियानूसी बातों को मानते हैं, लेकिन इस का चलन दलित समुदाय में नहीं के बराबर है. इस की अहम वजह यह भी हो सकती है कि दलित समुदाय को लोग अछूत मानते आ रहे हैं.

गौहत्या का मसला

इसी तरह पदार्थ यादव जहानाबाद जिले के गांव ओरा का रहने वाला है. उस की गाय रात में अचानक मर गई. सुबह जब परिवार और गांवभर के लोगों ने देखा तो वे आपस में बातें करने लगे कि पगहा यानी रस्सी बंधी हुई गाय की मौत हो जाती है तो गौहत्या का पाप लग जाता है.

बिहार के गांवों में रहने वाले लोग इस बात को जानते हैं, इसलिए जब भी किसी किसान या मजदूर के यहां जानवर गंभीर रूप से बीमार होता है तो लोग रस्सी को सब से पहले खोल देते हैं.

पदार्थ यादव के पुरोहित यानी उन के गांव के ही पंडित रामाशंकर ने बताया कि इस गौहत्या से बचने के लिए जिस ने गाय को बांधा था, उसे पंचगव्य (दूध, दही, घी, गौमूत्र और गोबर से मिला कर बनाया जाता है) थोड़ा सा खा कर और पूरे शरीर पर लगा कर गंगा स्नान करना पड़ेगा और गंगाजल ला कर पूरे घर में छिड़क कर पहले घर को शुद्ध करना होगा.

इतना ही नहीं, उस के बाद सत्यनारायण की कथा के साथसाथ 5 ब्राह्मण परिवारों को खाना खिलाना पड़ेगा, पूजापाठ, हवन वगैरह तो होगा ही.

एक तो गाय मरने का दुख, ऊपर से इन कामों में 50,000 रुपए अलग से खर्च. पदार्थ यादव के मैट्रिक पास लड़के अजय ने कहा कि हमें यह सब नहीं करना है तो गांव वाले इस का विरोध करने लगे और बोलने लगे कि यह तो करना ही पड़ेगा. अगर नहीं करोगे तो तुम्हारे यहां कोई परिवार कभी नहीं खाएगा. अगर तुम्हारे पास पैसे नहीं हैं तो भीख भी मांग कर तुम्हें यह करना पड़ेगा.

पदार्थ यादव का परिवार मजबूर हो गया और अपनी भैंस 40,000 रुपए में बेच कर ब्राह्मण भोज खिलाया, पूजापाठ किया और दानदक्षिणा दी.

लूट है जारी

इस तरह हमारे समाज में जन्म से ले कर मरने तक पंडों द्वारा कमेरा तबके को बेवकूफ और अंधविश्वासी बना कर लूटने की परंपरा 21वीं सदी में भी जारी है. झूठ की संस्कृति को हवापानी देने का काम कमेरे तबके के लोगों में पढ़ेलिखे ही कर रहे हैं. अपनी मेहनत से जो लोग पढ़लिख गए हैं, नौकरी या कारोबर कर रहे हैं, उन्हें पंडों की इस साजिश को समझना चाहिए, लेकिन वे और ही ज्यादा धर्म से डरने वाले और अंधविश्वासी हैं.

एक आम आदमी, जिस की मासिक आय 10,000 रुपए है, वह भी इन धार्मिक संस्कारों, पूजापाठ पर औसतन साल में 10-20 हजार रुपए खर्च कर देता है. जन्म से ले कर मरने तक सभी संस्कारों में पूजापाठ और पंडों को दानदक्षिणा देने की परंपरा आज भी है. बच्चा के जन्म लेने पर जन्मोत्सव, जनेऊ संस्कार, बच्चे के नामकरण और जन्म होने पर उस की शादी में तरहतरह के कर्मकांड कराए जाते हैं, जिन में इन पंडों का ही अहम रोल होता है.

मरने पर ब्रह्मभोज किया जाता है जिंदा रहने पर अपने पुरखों को कभी अच्छा खाना दिया हो या नहीं, पर मरने पर उन के मुंह में पंचमेवा ठूंसा जाता है. मृत शरीर को घी लगाया जाता है. जिंदा रहते जिन्हें खाने के लिए कभी घी दिया नहीं, उन्हें जलाने के लिए घी, चंदन और धूपअगरबत्ती का इस्तेमाल किया जाता है.

आज भी लोगों के मरने पर बाल मुंड़ाए जाते हैं. जमीन बेच कर, गिरवी रख कर, सूद पर पैसा ले कर भी ब्रह्मभोज कराना पड़ता है. जो लोग अगर इसका बहिष्कार करने की हिम्मत जुटाते हैं, उन्हें समाज से ही बाहर होना पड़ता है.

पंडों ने एक साजिश के तहत ऐसे धर्मग्रंथों की रचना की, जिस से मेहनत करने वाला कमेरा तबका अपनी मेहनत का एक हिस्सा इन काहिलों के ऊपर खर्च करता रहे और इन का परिवार बिना मेहनत किए लोगों को बेवकूफ बना कर लूटता रहे.

भारत में हर साल बर्बाद किया जाता है इतना भोजन, वहीं 82 करोड़ लोग सोते हैं भूखे

कुछ दिनों पहले ही एक ऐसी सूची जारी की गई जिसने भारत को शर्मिंदा कर दिया. भारत एशिया की तीसरी बड़ी अर्थव्यवस्था है और दक्षिण एशिया की सबसे बड़ी लेकिन ग्लोबल हंगर इंडेक्स में भारत दक्षिण एशिया में भी सबसे नीचे है. वैश्विक भुखमरी सूचकांक यानी ग्लोबल हंगर इंडेक्स (जीएचआई) में दुनिया के 117 देशों में भारत 102वें स्थान पर रहा है.

यह जानकारी साल 2019 के इंडेक्स में सामने आई है. वेल्थहंगरहिल्फे एंड कन्सर्न वल्डवाइड द्वारा तैयार की गई इस रिपोर्ट के मुताबिक भारत दुनिया के उन 45 देशों में शामिल है जहां ‘भुखमरी काफी गंभीर स्तर पर है.’ साल 2015 में भूखे भारतीयों की संख्या 78 करोड़ थी और अब 82 करोड़. यानी जिस आंकड़े को घटना चाहिए वो बढ़ रहे हैं.

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जीएचआई में भारत का खराब प्रदर्शन लगातार जारी है. साल 2018 के इंडेक्स में भारत 119 देशों की सूची में 103वें स्थान पर था. इस साल की रिपोर्ट में कहा गया है कि 2017 में इस सूचकांक में भारत का स्थान 100वां था लेकिन इस साल की रैंक तुलनायोग्य नहीं है.

वैश्विक भुखमरी सूचकांक लगातार 13वें साल तय किया गया है. इसमें देशों को चार प्रमुख संकेतकों के आधार पर रैंकिग दी जाती है – अल्पपोषण, बाल मृत्यु, पांच साल तक के कमजोर बच्चे और बच्चों का अवरुद्ध शारीरिक विकास.

इस सूचकांक में भारत का स्थान अपने कई पड़ोसी देशों से भी नीचे है. इस साल भुखमरी सूचकांक में जहां चीन 25वें स्थान पर है, वहीं नेपाल 73वें, म्यांमार 69वें, श्रीलंका 66वें और बांग्लादेश 88वें स्थान पर रहा है. पाकिस्तान को इस सूचकांक में 94वां स्थान मिला है. जीएचआई वैश्विक, क्षेत्रीय, और राष्ट्रीय स्तर पर भुखमरी का आकलन करता है. भूख से लड़ने में हुई प्रगति और समस्याओं को लेकर हर साल इसकी गणना की जाती है.

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जीएचआई को भूख के खिलाफ संघर्ष की जागरूकता और समझ को बढ़ाने, देशों के बीच भूख के स्तर की तुलना करने के लिए एक तरीका प्रदान करने और उस जगह पर लोगों का ध्यान खींचना जहां पर भारी भुखमरी है, के लिए डिजाइन किया गया है.इंडेक्स में यह भी देखा जाता है कि देश की कितनी जनसंख्या को पर्याप्त मात्रा में भोजन नहीं मिल रहा है. यानी देश के कितने लोग कुपोषण के शिकार हैं.

ये तो रही महज आंकड़ों की बात. अब हम कुछ जमीनी स्तर पर भी इसकी पड़ताल कर लें. भारत में भले ही विकास के नए आयामों को छू रहा है लेकिन विश्व पटल में ऐसे आंकड़े हमारी सारे किए कराए पर पानी फेर देते हैं. भले ही आप अमेरिका के ह्यूस्टन की तस्वीर देखकर ये सोच रहे हों कि विदेशों में भी भारत का डंका बज रहा है. लेकिन वहीं आप का देश भुखमरी में एशिया में सबसे नीचे हैं. आप उन देशों से भी पीछे हैं तो किसी भी तरह भारत से मुकाबले करने के काबिल है ही नहीं.

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भारत 2010 में 95वें नंबर पर था और 2019 में 102वें पर आ गया. 113 देशों में साल 2000 में जीएचआई रैंकिंग में भारत का रैंक 83वां था और 117 देशों में भारत 2019 में 102वें पर आ गया.

एक तरफ तो ये आंकड़ा और दूसरी तरफ एक और आंकड़ा देखिए. संयुक्त राष्ट्र के आंकड़ों के मुताबिक भारत में 40 फ़ीसदी खाना बर्बाद हो जाता है. इन्हीं आंकड़ों में कहा गया है कि यह उतना खाना होता है जिसे पैसों में आंके तो यह 50 हज़ार करोड़ के आसपास पहुंचेगा. विश्व खाद्य संगठन की एक रिपोर्ट के अनुसार दुनिया का हर 7वां व्यक्ति भूखा सोता है.

विश्व भूख सूचकांक में भारत का 67वां स्थान है. देश में हर साल 25.1 करोड़ टन खाद्यान्न का उत्पादन होता है लेकिन हर चौथा भारतीय भूखा सोता है. इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन की एक रिपोर्ट के मुताबिक भारत में हर साल 23 करोड़ टन दाल, 12 करोड़ टन फल और 21 करोड़ टन सब्जियां वितरण प्रणाली में खामियों के कारण खराब हो जाती हैं.

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