प्राइवेट स्कूलों पर भारी है सराकरी स्कूल!

आमतौर पर समझा यही जाता है कि आईआईटी, मेडिकल कालेजों, इंजीनियङ्क्षरग कालेजों में पढ़ाई के दरवाजे सिर्फ प्राइवेट इंग्लिश मीडियम स्टूडेंट्स के लिए खुली हैं. दिल्ली के सरकारी स्कूलों के 2200 से ज्यादा सरकारी स्कूलों के युवाओं ने नीट, जेईई मेन व जेईई एडवांस एक्जाम क्वालीफाई करके साबित किया है कि स्कूल या मीडिया नहीं स्कूल चलाने बालों की मंशा ज्यादा बड़ा खेल खेलती है.

अरङ्क्षवद केजरीवा की आम आदमी पार्टी जो एक तरफ धर्मभीरू है, भाजपा की छवि लिए घूमती है, दूसर और भाजपा की केंद्र सरकार और उस के  दूत उपराज्यपाल के लगातार दखल से परेशान रहती है, कुछ चाहे और न करे, स्कूलों का ध्यान बहुत कर रही है. सरकारी स्कूलों के एक शहर के इतने सारे युवा इन एक्जाम में पास हो जाएं जिन के लिए अमीर घरों के मांबाप लाखों तो कोङ्क्षचग में खर्च करते हैं, बहुत बड़ी बात है.

यह पक्का साबित करता है कि गरीबी गुरबत और ज्ञान न होना जन्मजात नहीं, पिछले जन्मों के कर्मों का फल नहीं, ऊंचे समाज की साजिश है. एक बहुत बड़ी जनता को गरीबी में ही नहीं मन से भी फटेहाल रख कर ऊंचे लोगों ने अनपढ़ सेवकों की एक पूरी जमात तैयार कर रखी है जो मेहनत करते हैं, क्या करते हैं पर उस में स्विल की कमी है, लिखनेपढऩे की समझ नहीं हैै.

सरकारी स्कूल ही उन के लिए एक सहारा है पर गौ भक्त राज्यों में ऊंची जातियों के टीचर नीची जातियों के छात्रों के पहले दिन से ऊंट फटका कर निकम्मा बना देते हैं कि उन में पढऩे का सारा जोश ठंडा पड़ जाता है और वे या तो गौर रक्षक बन डंडे चलाना शुरू कर देते हैं या कांवड ढोने लगते हैं. केजरीवाल की सरकार के स्कूलों में उन्हें पढऩे की छूट दी, लगातार नतीजों पर नजर रखी. ये लोग चाहे जैसे भी घरों से लाए, पढऩे की तमन्ना थी और जरा सा हाथ पकडऩे वाले मिले नहीं कि सरकारी स्कूलों ने 2000 से ज्यादा को इंजीनियङ्क्षरग और मेडिकल कालेजों की खिड़कियां खोल दीं.्र

यह अपनेआप एक अच्छी बात है और यदि सही मामलों में देश में लोकतंत्र आना है तो जरूरी है कि स्कूली शिक्षा सब के एि एक समान हो, चाहे जिस भी भाषा में हो पर अंग्रेजी में न हो, प्राईवेट कोङ्क्षचग स्कूली शिक्षा के दौरान न हो.

सत्ता में बराबर की भागीदारी चाहिए तो वोटरों को खयाल रखना होगा कि जो पौराणिक तरीके चाहते हैं उन्हें सत्ता में रखे या जो पुराणों में बनाई गई ऊंची खाईयों को पाटने वालों को वोट दें. वोट से पढ़ाई का स्टैंडर्ड बदला जा सकता है. यूपी, मध्य प्रदेश के सरकारी स्कूलों को हाल क्या है, इस को दूसरों राज्यों के स्कूलों से मुकाबला कर के देखा जा सकता है कि जयश्रीराम का नारा काम का है. ज्ञानविज्ञान और तर्क का नारा.

मसला: जरूरी नहीं है स्कूलों में धार्मिक पढ़ाई-लिखाई

28फरवरी, 2023 को मध्य प्रदेश की राजधानी भोपाल के जहांगीराबाद  इलाके के रसीदिया सीएम राइज स्कूल में 2 टीचरों का बच्चों को क्लास से बाहर निकाल कर नमाज पढ़ने का वीडियो जैसे ही सोशल मीडिया पर वायरल हुआ, तो हमेशा हिंदूमुसलिम का राग अलापने वालों के कलेजे पर जैसे सांप लोट गया. मामला खबरों की सुर्खियां बना, तो शिक्षा विभाग के आला अफसरों के कानों तक यह बात पहुंची और आननफानन में जांच के आदेश दे दिए.

जहांगीराबाद सीएम राइज रसीदिया स्कूल के ही कुछ टीचरों ने नाम न छापने की शर्त पर बताया कि स्कूल में नमाज पढ़ने की यह कोई नई बात नहीं है. हर शुक्रवार को यहां बच्चे भी नमाज पढ़ते हैं और इस के बारे में सब जानते हैं, लेकिन कोई कुछ नहीं कहता.

इस मामले में स्कूल के प्रिंसिपल केडी श्रीवास्तव ने तो पूरी तरह से पल्ला झाड़ते हुए कहा, ‘‘मुझे इस की जानकारी ही नहीं है और न ही मेरी नजर में कभी ऐसी कोई बात सामने आई.’’

सरकारी स्कूल में नमाज पढ़ने पर इतना बवाल मच गया, लेकिन मध्य प्रदेश के गांवकसबों के बहुत सारे स्कूल तो ऐसे भी हैं, जहां पर गणेश पूजा, दुर्गा पूजा जैसे धार्मिक आयोजन के साथसाथ रामचरितमानस के पाठ किए जाते हैं और इन में टीचर और स्टूडैंट भी हिस्सा लेते हैं.

इतना ही नहीं, सैकड़ों स्कूलों में सरस्वती के मंदिर बने हुए हैं, जिन में नियमित रूप से पूजापाठ का आडंबर भी होता है. नरसिंहपुर जिले के रायपुर हायर सैकंडरी स्कूल में तो हिंदू देवीदेवताओं गणेश, शंकर, हनुमान और सरस्वती के मंदिर टीचरों और गांव वालों ने चंदा इकट्ठा कर के बनवाए हैं. इसी तरह हायर सैकंडरी स्कूल खुर्सीपार, केएनवी स्कूल गाडरवारा में भी सरस्वती देवी के मंदिर बने हुए हैं.

मध्य प्रदेश में ऐसे हालात 2-4 स्कूलों के ही नहीं हैं, बल्कि ज्यादातर स्कूलों में तो रोज स्कूल खुलने पर पहले सरस्वती पूजा की जाती है. स्कूलों में देवीदेवताओं के मंदिर और उन में होने वाले पूजापाठ और नमाज के आयोजन साबित करते हैं कि स्कूल तालीम देने के बजाय धार्मिक अखाड़े बन कर रह गए हैं.

जानकारों का कहना है कि वैसे तो ऐसी धार्मिक गतिविधियों को ले कर शासन से कोई साफ निर्देश नहीं हैं, लेकिन ड्यूटी के दौरान किसी सरकारी परिसर या क्लास में नमाज वगैरह नहीं की जा सकती.

इस मामले में राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग के अध्यक्ष प्रियंक कानूनगो का कहना है कि क्लास में धार्मिक गतिविधि करना कानूनन गलत है. इस सब के बावजूद भी स्कूलों में धार्मिक आयोजन धड़ल्ले से होते हैं.

भारत का संविधान कहता है कि हमारा देश धर्मनिरपेक्ष है, मगर धर्म के नाम पर फैली कट्टरता लोगों के बीच गहरी खाई खोदने का काम कर रही है और कुछ सरकारें इसे खादपानी दे रही हैं.

एडवोकेट जगदीश पटेल ने बताया कि कोई भी ऐसा काम सरकारी भवन या सरकारी संपत्ति पर नहीं करना चाहिए, जो किसी एक धर्म विशेष को प्रमोट करता हो. ऐसी गतिविधियों से देश की संप्रभुता, अखंडता और धर्मनिरपेक्षता पर असर पड़ता है, जो संविधान के प्रावधानों के उलट है.

सिलेबस में भरा पाखंड

कहने को तो हमारा देश धर्मनिरपेक्ष है, पर चुनी हुई सरकारों की कट्टरता की वजह से शिक्षा नीति और स्कूली सिलेबस भी धार्मिक रंग में पूरी तरह से रंगे हुए हैं. आज स्कूलों में पढ़ाए जाने वाले सिलेबस में वैज्ञानिक सोच के बजाय धर्म से जुड़ी दकियानूसी कथाकहानियों को अहमियत दी जा रही है.

हमें यह भी सोचना चाहिए कि सिलेबस में अगर किसी धर्म विशेष की बातें या उस से जुड़ी किताबें, ग्रंथ शामिल किए जाएंगे, तो इस का उलटा असर उन छात्रों पर पड़ सकता है,

जो किसी धर्म संप्रदाय को न मानने वाले हों या दूसरे धर्म, संप्रदाय से ताल्लुक रखते हों.

इस बारे में खुद नैशनल काउंसिल फौर ऐजुकेशनल रिसर्च ऐंड ट्रेनिंग (एनसीईआरटी) की स्टडी गौरतलब है, जिस के द्वारा तैयार किए गए मैन्युअल का फोकस तकरीबन इसी बात पर है कि स्कूल असैंबली में होने वाली प्रार्थनाएं और स्कूल की दीवारों पर चस्पां की गई देवीदेवताओं की तसवीरें किस तरह अल्पसंख्यक समुदाय के बच्चों में भेदभाव की भावना पैदा करते हैं.

सरकारी फंड का इस्तेमाल

जिन सरकारी स्कूल या मदरसों में धार्मिक शिक्षा दी जाती है, उन्हें सरकार लाखों रुपए फंड के रूप में देती है. संविधान का अनुच्छेद 28 कहता है कि जिस शिक्षण संस्थान को सरकार से फंडिंग मिलती है, वहां धार्मिक शिक्षा नहीं दी सकती है. लेकिन भारत में अभी ज्यादातर मदरसे संविधान के अनुच्छेद 30 के आधार पर चल रहे हैं. इस में भारत के अल्पसंख्यकों को यह अधिकार है कि वे अपने खुद के भाषाई और शैक्षिक संस्थानों की स्थापना कर सकते हैं और बिना किसी भेदभाव के सरकार से ग्रांट भी मांग सकते हैं.

भारत कहने के लिए तो एक धर्मनिरपेक्ष देश है, लेकिन यहां धार्मिक शिक्षा देने पर किसी को कोई एतराज नहीं होता है. और ऐसा नहीं है कि सिर्फ मदरसों को ही सरकार से फंडिंग मिलती है. देश में संस्कृत स्कूलों को भी सरकार से पैसे की मदद मिलती है और कई शिक्षण संस्थानों को भी अलगअलग श्रेणी में मदद दी जाती है. लेकिन इन संस्थानों और मदरसों में फर्क यह है कि मदरसों की मूल भावना में इसलाम को ही केंद्र में रखा जाता है, जबकि इन संस्थानों में धार्मिक शिक्षा पर ज्यादा जोर नहीं होता.

राजनीतिक फायदा

देश में विभिन्न दलों के लोग अपने राजनीतिक हित साधने के लिए बारबार धर्म और राजनीति का तालमेल कराने की वकालत करते हैं. इस का नतीजा यह है कि इस समय देश का सामाजिक तानाबाना किस दौर से गुजर रहा है, यह आज सब के सामने है. टैलीविजन का कोई भी चैनल लगा कर देखिए, आप को सहिष्णुता, असहिष्णुता, धर्म आधारित जनसंख्या, धर्मग्रंथ, धर्म स्थान, सांप्रदायिकता, धर्म परिवर्तन, बीफ, गौवंश, लव जिहाद, धर्मांतरण, मंदिरमसजिद जैसे विषयों पर गरमागरम बहस होती सुनाई देगी.

इन बहसों को देख कर ऐसा लगता है कि देश के सामने इस समय सब से बड़ी समस्याएं यही हैं. देश को विकास, महंगाई नियंत्रण, सामाजिक उत्थान, रोजगार, शिक्षा, स्वास्थ्य, औद्योगीकरण, पर्यावरण संरक्षण, प्रदूषण नियंत्रण, सड़क, बिजली, पानी आदि की न तो जरूरत है, न ही राजनीतिक दल व मीडिया इन बातों पर बहस करनेकराने की कोई जरूरत समझते हैं.

दुनिया के सभी देशों में विद्यालय इसलिए खोले जाते हैं, ताकि बच्चों को सामान्य ज्ञान, विज्ञान, व्यावसायिक ज्ञान और उन के अपने जीवन चरित्र और राष्ट्र के विकास में काम आने वाली शिक्षाएं दी जा सकें.

जहां तक धार्मिक शिक्षा दिए जाने का सवाल है, तो इस के लिए तकरीबन सभी धर्मों में अलग धार्मिक शिक्षण संस्थाएं मौजूद हैं, जो अपनेअपने धर्म प्रचार के लिए अपने ही धर्म के बच्चों को अपनेअपने धर्मग्रंथों व अपने धर्म के महापुरुषों के जीवन परिचय और आचरण संबंधी शिक्षा देती हैं.

राजनीतिक दल धर्म और राजनीति का घालमेल करने की गरज से और समुदाय विशेष को अपनी ओर लुभाने के मकसद से अपने राजनीतिक हित साधने के लिए ये सरकारी व गैरसरकारी स्कूलों के सिलेबस में धर्मग्रंथ विशेष को शामिल कराए जाने की वकालत करते देखे जा रहे हैं. कई राज्यों में तो इस प्रकार की पढ़ाई शुरू भी कर दी गई है.

कई राज्य ऐसे भी हैं, जहां किसी एक धर्म के धर्मग्रंथ को स्कूल के सिलेबस में शामिल किए जाने का दूसरे धर्मों के लोग विरोध कर रहे हैं. उन के द्वारा यह मांग की जा रही है कि या तो अमुक धर्मग्रंथ की शिक्षाओं को सिलेबस से हटाया जाए या फिर दूसरे धर्मों के धर्मग्रंथों की शिक्षाओं को भी शामिल किया जाए.

शायद राजनीतिक लोग भी यही चाहते हैं कि इस तरह के विरोधाभासी स्वर उठें और ऐसी आवाजें बुलंद होने के चलते ही समाज धर्म के नाम पर बंटे. फिर देश के लोग रोटी, कपड़ा, मकान, विकास, बेरोजगार, महंगाई, शिक्षा, स्वास्थ्य, सड़क, बिजली और पानी जैसे बुनियादी मसलों से दूर हो कर धर्म के नाम पर बंट जाएं और उसी आधार पर वोट डालें.

धार्मिक शिक्षा की वकालत

मध्य प्रदेश भी देश के ऐसे ही कुछ राज्यों में एक है, जहां हिंदू धर्म के प्रमुख धर्मग्रंथ के रूप में स्वीकार्य भगवत गीता और रामचरितमानस को स्कूली सिलेबस में शामिल करने का फैसला लिया गया है. स्कूलों में गीता के पाठ पढ़ाए जाने के बाद दूसरे धर्मों के लोगों ने इस मांग को ले कर विरोध प्रदर्शन किया है कि स्कूली सिलेबस में कुरान, बाइबिल और गुरुग्रंथ साहिब जैसे धर्मग्रथों के सार भी उन पुस्तकों में शामिल किए जाएं.

इस विरोध के बाद बाइबिल व गुरुग्रंथ जैसे दूसरे धर्मग्रथों की प्रमुख शिक्षाओं को भी राज्य के प्राथमिक और उच्च प्राथमिक सिलेबस में शामिल किए जाने का मसौदा सरकार ने सिलेबस तय करने वाली समिति को भेजा है.

राज्य सरकार द्वारा सिलेबस में विभिन्न धर्मों के प्रमुख धार्मिक ग्रंथों की शिक्षाओं को और इन के सार को शामिल किए जाने के पक्ष में यह तर्क दिया जा रहा है कि स्कूल के बच्चे इन की स्टडी कर के बचपन में ही नैतिक शिक्षा हासिल कर सकेंगे और अपने धर्म के साथसाथ दूसरे धर्मों की शिक्षाओं की जानकारी भी हासिल कर सकेंगे.

यह तर्क भी दिया जा रहा है कि इस कदम से बच्चों में अपने धर्म के साथ ही दूसरे धर्म के प्रति सम्मान की भावना पैदा होगी और बच्चों में सर्वधर्म समभाव का बोध विकसित होगा, लेकिन राजनीतिक दलों के नेता आएदिन धर्म के नाम पर लोगों को लड़ाने का काम करते हैं.

दूसरी तरफ सच यह भी है कि विभिन्न धर्मों के धर्मग्रंथों में कई ऐसी दकियानूसी बातें भी हैं, जो आज के वैज्ञानिक युग में गले नहीं उतरती हैं. धार्मिक कथाकहानियों में तो यही बताया गया है कि सूरज पूर्व दिशा से उग कर पश्चिम दिशा में डूबता है. पढ़ने वाले बच्चे भी सहजता से यही मान कर चलते हैं कि सूरज पृथ्वी के चारों ओर घूमता है, जबकि विज्ञान ने साबित कर दिया है कि सूरज एक तारा है और पृथ्वी उस के चारों ओर घूमती है.

इसी तरह धर्मग्रंथों में सौरमंडल के 9 ग्रहों को देवताओं की तरह पूजनीय बता कर उन की पूजापाठ का विधान बताया गया है, जबकि सचाई यह है कि हमारे सौरमंडल में 8 ग्रह बुध, शुक्र, पृथ्वी, मंगल, बृहस्पति, शनि, यूरेनस और नैप्च्यून हैं, जो सूरज के चारों ओर चक्कर काटते हैं.

दूसरी बात यह है कि धर्मग्रंथों की शिक्षा देने के लिए पहले से ही विभिन्न धर्मों के लोग अपनेअपने मदरसे, गुरुकुल, संस्कृत पाठशालाएं और गिरजाघर आदि संचालित कर रहे हैं, जिन में वे अपनेअपने धर्म के बच्चों को अपने धर्मग्रंथ व अपने धर्मगुरुओं से संबंधित शिक्षाएं देते आ रहे हैं. फिर आखिर स्कूली शिक्षा के सिलेबस में किसी भी धर्म के किसी भी धर्मग्रंथ की शिक्षा या उस के सार को शामिल करने की जरूरत ही क्या है?

धार्मिक नाम वाले स्कूल

देश में चलने वाले ज्यादातर प्राइवेट स्कूलों के नाम भी धार्मिक आधार पर रखे गए हैं. मध्य प्रदेश में सरस्वती शिक्षा परिषद हर गांवकसबे में सरस्वती शिशु मंदिर के नाम से स्कूल संचालित कर रही है और बाकायदा इन स्कूलों को सरकारी अनुदान के साथ सांसद, विधायक अपनी निधि में से लाखों रुपए की मदद देते हैं.

नरसिंहपुर जिले में ही सरस्वती शिशु मंदिर, शारदा विद्या निकेतन और श्रीकृष्णा विद्या मंदिर, लवकुश विद्यापीठ, रेवाश्री पब्लिक स्कूल, मां नर्मदा संस्कृत पाठशाला, श्री नरसिंह पब्लिक स्कूल जैसे दर्जनों स्कूल चल रहे हैं.

इसी तरह से पूरे प्रदेश में सैंट मैरी, सैंटट जोसेफ, सैंट जेवियर्स, सैंट थौमस, खालसा कालेज, राधारमण कालेज, श्रीराम इंजीनियरिंग कालेज, लक्ष्मीनारायण इंजीनियरिंग ऐंड मैडिकल कालेज, अंजुमन इसलामिया कालेज जैसे शिक्षण संस्थान धड़ल्ले से चल रहे हैं.

देश में सभी धर्मों के स्कूल चल रहे हैं, जिन में अपनेअपने धर्म की शिक्षा दी जा रही है. आज देश के नौनिहालों को वैज्ञानिक सोच विकसित करने वाली शिक्षा की जरूरत है, मगर धार्मिक कट्टरता की वजह से हम बच्चों को धार्मिक शिक्षा देने पर आमादा हैं.

धर्म से बढ़ रहा भेदभाव

धार्मिक शिक्षा हमें तार्किक बनाने के बजाय अंधविश्वासी बनाती है. ज्यादातर समस्याओं की जड़ धार्मिक शिक्षा ही है. धार्मिक शिक्षा के चलते सामाजिक व राजनीतिक कट्टरता बढ़ रही है. यह शिक्षा हमें एकदूसरे से भेदभाव करना सिखाती है.

यही वजह है कि देश के कई राज्य घरेलू हिंसा की चपेट में हैं, वहां अंदरूनी धार्मिक, पंथिक, वर्गीय संघर्ष होते रहते हैं. इस से उन्हें आर्थिक व सामाजिक नुकसान झेलना पड़ रहा है.

धार्मिक शिक्षा से समाज में प्रेम, शांति, अहिंसा, इनसानियत की गारंटी नहीं है तो फिर क्यों न ऐसी शिक्षा से दूर रहा जाए? धार्मिक शिक्षा समाज को अंधविश्वासी बनाती है.

धर्म की शिक्षा से सब से ज्यादा फायदा पंडेपुरोहित, मुल्लामौलवियों पादरी का है. यही वे लोग हैं, जो धार्मिक शिक्षा को बनाए रखने में जीजान से लगे हैं.

हर धर्मगुरु अपने धर्म को सब से बेहतर मानता है. सब का अपना अहं है, सब की एकदूसरे के साथ प्रतियोगिता है और वे सब दूसरे धर्म वालों से नफरत करते हैं. धर्म हमें बारबार हिंसा की ओर ले जाते हैं.

आज धर्म मानव कल्याण के नाम पर प्रतियोगिता मात्र बन कर रह गया है और जहां प्रतियोगिता होगी, वहां ईर्ष्या होगी. जहां ईर्ष्या होगी, वहां अशांति होगी.

इस शिक्षा की जरूरतस्कूली सिलेबस में धार्मिक शिक्षा शामिल करने से बच्चों के समय की बरबादी होगी और सांसारिक, उन के भविष्य संबंधी और व्यावसायिक शिक्षा ग्रहण करने में भी बाधा पैदा होगी.

यह जरूरी नहीं कि भविष्य में देश के दूसरे राज्य भी सभी धर्मों के धर्मग्रंथों को स्कूलों में पढ़ाए जाने की इजाजत दें और ऐसा भी मुमकिन है कि धर्म विशेष के लोगों को खुश करने के लिए विभिन्न राज्यों की सरकारों द्वारा ऐसा किया भी जाए, मगर इस में कोई दोराय नहीं कि राजनीतिबाजों द्वारा इस विषय पर जो भी फैसला लिया जाएगा, उस के पीछे बच्चों के उज्ज्वल भविष्य की चिंता तो कम, वोट बैंक साधने की फिक्र ज्यादा होगी.

वैसे भी हमारे देश में इस समय धर्मगुरुओं, प्रवचनकर्ताओं, मौलवियों, पादरियों और ज्ञानियों की एक बाढ़ सी आ गई है और यह बताने की भी जरूरत नहीं है कि ऐसे ‘महान लोग’ व धर्म के ठेकेदार हमें अपने ‘आचरण’ से क्या शिक्षा दे रहे हैं और उन में से कइयों को जेल की हवा खानी पड़ी है.

आज का स्कूली सिलेबस इस तरह का है कि वह शिक्षा आम जिंदगी में किसी काम नहीं आती. हायर सैकंडरी स्कूलों और कालेजों में इलैक्ट्रिक करंट पढ़ने के बाद भी बिजली के घरेलू उपकरणों की सामान्य मरम्मत के लिए भी बिजली मिस्त्री की मदद लेनी पड़ती है.

इसी तरह स्कूल में पढ़ाए जाने वाले संस्कृत विषय की जिंदगी में कोई उपयोगिता समझ नहीं आती. ब्राह्मण परिवार में पैदा हुए बच्चों के लिए यह भाषा कथापुराण और पूजाहवन करने में काम आती है और इस की बदौलत दानदक्षिणा भी खूब मिल जाती है, मगर पिछड़े दलितों के लिए यह भाषा जबरन थोपी हुई लगती है.

आज स्कूलों में तो बच्चों को केवल विज्ञान, सामान्य ज्ञान, समाजशास्त्र, भूगोल, गणित की तालीम देने के साथसाथ व्यावसायिक शिक्षा की जरूरत ज्यादा है. आज भी देश के गांवकसबों में तकनीकी संस्थानों की कमी है.

यही वजह है कि नौजवान पीढ़ी पढ़लिख कर भी नकारा घूम रही है. धार्मिक शिक्षा की घुट्टी उसे इस तरह पिला दी गई है कि बेरोजगार नौजवान कांवड़ यात्रा, दुर्गा पूजा, गणेश पूजा और धार्मिक यात्रा, भंडारे में अपना कीमती समय गंवा रहे हैं. मौजूदा दौर में ऐसी व्यावसायिक शिक्षा की जरूरत है, जिस के बलबूते नौजवान अपनी रोजीरोटी का जुगाड़ आसानी से कर सकें.

कैसे हो कॉलेज में पर्सनालिटी डेवलपमेंट

स्कूल की दहलीज पार कर जब लड़केलड़की कालेज में प्रवेश करते हैं तो उन के पर निकल आते हैं. वे हवा में उड़ने लगते हैं. स्कूल जैसा अनुशासन कालेजों में नहीं होता. छात्र कक्षाओं में बैठते हैं या नहीं, खाली समय में क्या करते हैं, इस से न तो प्रोफैसरों को कोई वास्ता होता है और न ही प्रिंसिपल को. इसलिए अधिकांश लड़केलड़कियां कालेज को मौजमस्ती का केंद्र मानते हैं.

कालेज में पढ़ने का औचित्य तभी है जब शिक्षा के साथसाथ छात्र अपने व्यक्तित्व का विकास भी करें. नियमित अध्ययन के साथसाथ खाली या अतिरिक्त समय का सार्थक उपयोग कर के आप व्यक्तित्व और जीवन को संवार सकते हैं.

व्यक्तित्व विकास शब्दों का व्यापक अर्थ में इस्तेमाल किया जाता है. इस में व्यक्तित्व के सभी पहलुओं पर ध्यान दिया जाता है ताकि जब युवा कालेज छोड़ कर निकले तो उस का व्यक्तित्व संपूर्ण रूप से निखर चुका हो.

व्यक्तित्व विकास के विभिन्न तत्त्व हैं. इन में प्रमुख हैं- व्यवहार, कुशलता, उत्साह, आत्मविश्वास, सकारात्मकता, संप्रेषण कला, वाकपटुता, मिलनसारिता, कर्मठता, अच्छी आदतों का समावेश तथा मुसकान. इस के अलावा, चालढाल, भावभंगिमा को भी इस में शामिल किया जाता है. अध्ययनकाल में इन सब पहलुओं पर विशेष ध्यान देना चाहिए. आज विद्यार्थियों को न केवल अपना पाठ्यक्रम पढ़ने की जरूरत है बल्कि विभिन्न क्षेत्रों में ज्ञान की जरूरत है. इसलिए उन्हें अपने व्यक्तित्व के विभिन्न पहलुओं पर ध्यान देना चाहिए.

अब शिक्षा का स्वरूप परंपरागत नहीं रहा है. डिग्री के अलावा आवश्यक कौशल अर्जित करना भी जरूरी हो गया है. तभी शिक्षा की कोई उपयोगिता है. पढ़ाई करने के तत्काल बाद अगर विद्यार्थियों ने पाठ्यक्रम के अतिरिक्त कुछ और नहीं पढ़ासीखा तो उन्हें लगता है कि वे बहुत पिछड़े हुए हैं. सो, शिक्षा के दौरान ही उन्हें अपने भविष्य की योजनाओं और रुचियों के अनुरूप अतिरिक्त योग्यता हासिल करनी चाहिए.

आमतौर पर स्कूलकालेज 5 से 6 घंटे तक लगते हैं. जबकि वास्तविक पढ़ाई या कक्षाएं 3 से 4 घंटे तक ही होती हैं. यानी

2 घंटे छात्र खाली रहते हैं. इस खाली समय का सार्थक प्रयोग करना चाहिए, न कि व्यर्थ में नष्ट करना चाहिए.

क्लासरूम पढ़ाई के अलावा बहुतकुछ है जिसे आप खाली समय में संपन्न कर सकते हैं. इस से न केवल आप का ज्ञान बढ़ेगा बल्कि व्यक्तित्व विकास भी होगा.

आप को महज किताबी कीड़ा ही बन कर नहीं रहना है बल्कि अपना सर्वांगीण विकास करना है. इसलिए पढ़ाई के साथसाथ अन्य यह पाठ्यक्रम गतिविधियों में भी भाग लेना चाहिए. इस से आप का बहुमुखी विकास होगा.

कालेजों में व्यक्तित्व विकास के अनेक अवसर विद्यमान होते हैं. यह आप पर निर्भर करता है कि आप उन्हें लपक पाते हैं या नहीं? अवसर निकल जाने के बाद हाथ मलते रह जाने से कुछ हासिल नहीं होगा.

जब कभी आप की क्लास न हो, आप को उस का सदुपयोग करना चाहिए. सब से अच्छा तो यही होगा कि यह समय आप ग्रंथालय या लाइब्रेरी में बिताएं. वहां जा कर गपें लड़ाने के बजाय पुस्तकों का अवलोकन करें. जरूरी नहीं कि वे पाठ्य पुस्तकें ही हों, इस से इतर पुस्तकों, पत्रिकाओं को पढ़ने से भी ज्ञानवर्धन होता है.

पुस्तकालय में तरहतरह के समाचारपत्र, पत्रिकाएं भी उपलब्ध रहते हैं. आप आदत बना लें कि खाली समय में वहां जा कर उन्हें पढ़ेंगे. अखबार पढ़ने से देशविदेश की ताजा घटनाओं से अद्यतन रहेंगे. पत्रिकाओं में अनेक रोचक, ज्ञानवर्धक और मनोरंजक लेख, कहानी, कविता और अन्य साहित्यिक, सांस्कृतिक, ऐतिहासिक, साहसी व प्रेरणादायी सामग्री छपी होती है. निश्चित ही ये सब आप की प्रतिभा को निखारेंगी ही.

खेलकूद में रुचि

यदि आप की खेलकूद में रुचि है तो इस से जुड़ सकते हैं. जहां तक संभव हो, मैदानी खेलों को प्राथमिकता दें, जैसे क्रिकेट, हौकी, खोखो, कबड्डी, फुटबौल आदि. इस से आप शारीरिक रूप से भी चुस्तदुरूस्त रहेंगे और आप को अपनी खेल प्रतिभा विकसित करने का मौका भी मिलेगा.

आप को अपने कैंपस की स्वच्छता को भी बनाए रखने में मददगार होना चाहिए. खाली समय में उस की सफाई करें. इसे करने में हीनता का अनुभव न करें. जब आप अपने घर को साफसुथरा रख सकते हैं, तो कैंपस को क्यों नहीं? इस में शर्म न करें.

आप को यह पता होना चाहिए कि आप के स्कूलकालेज में कब और कौन सी गतिविधियां संचालित होने वाली हैं. उन में भाग लेना चाहिए. भाग न भी लें, तो श्रोता या दर्शक के रूप में तो शामिल हो ही सकते हैं.

हो सकता है कि आप में भाषागत कमजोरी हो. हिंदी या इंग्लिश किसी भी भाषा में कमजोर हों तो खाली समय में अपने दोस्तों के समक्ष उच्चारण करें. उन से कहें कि वे उसे दुरुस्त करें. परस्पर भाषा सुधारने का यह एक अच्छा मौका है.

आप की संस्था में अनेक साहित्यिक गतिविधियां भी होती हैं, जैसे रचनात्मक लेख, वादविवाद प्रतियोगिता, भाषण प्रतियोगिता, कविता पाठ आदि. इन में अपनी प्रतिभा दिखाएं.

विद्यार्थी आपस में मुहावरे, विशिष्ट शब्द प्रयोग, सूक्ति वाक्य, पुस्तकों के नाम, लेखकों के नाम आदि के बारे में परस्पर संवाद कर सकते हैं. इस सब से मनोरंजन के साथसाथ ज्ञानार्जन भी होता है.

यदि सांस्कृतिक गतिविधियां हो रही हों और उस दौरान आप की कक्षा न हो तो उस का आनंद लेना चाहिए. नाटक, एकांकी, संगीत, नृत्य आदि कार्यक्रमों में अवश्य ही शामिल होना चाहिए.

कालेजों में एनसीसी और एनएसएस होती है, इन से जुड़ें. इन की गतिविधियों में भाग लें. ये न केवल आप को शारीरिक रूप से सक्रिय रखेंगी बल्कि बौद्धिक विकास भी करेंगी. इन से आप के भीतर, समाज और देश के प्रति लगाव होगा. ये आप को एक आदर्श नागरिक बनाएंगी.

कालेजों में युवा उत्सव का भी आयोजन होता है. उस में विभिन्न गतिविधियां होती हैं. आप को उन में भी अवश्य भाग लेना चाहिए.

परस्पर संवाद और अभ्यास करने से संप्रेषण की बाधाएं दूर हो सकती हैं. धारा प्रवाह बोलने के गुण में वृद्धि होती है. मौखिक प्रस्तुतीकरण में कौशल हासिल होता है.

अपने भीतर डायरी लेखन की रुचि पैदा करें. हर दिन की समस्त घटनाओं को लिखें. जब आप की पढ़ाई पूरी हो जाएगी और आप अपनी संस्था छोड़ देंगे, तब भविष्य में जबजब यह डायरी आप पढ़ेंगे, रोमांचित होंगे. डायरी लेखन आप की रचनात्मकता को बढ़ाती है.

व्यक्तित्व को ऐसे निखारें

कुछ छात्रछात्राएं शर्मीली प्रकृति के होते हैं. वे बहुत कम बात करते हैं, जल्दी से किसी से घुलमिल नहीं पाते. वे समूह से अलग अकेले ही रहते हैं. इस की कई वजहें हो सकती हैं, जैसे बचपन से मातापिता द्वारा अत्यधिक रोकटोक, कम बोलने देना, बातबात पर डांटना, मारना आदि. इसी प्रकार, दोस्तों या साथियों द्वारा मजाक उड़ाना भी एक कारण है. इन सब से वे खुद को कमजोर सम झते हैं तथा कुछ भी करने से डरते हैं. उन्हें लगता है कि उन की बात सुन कर सब हंसेंगे. इस से वे अपने मन की बात खुल कर नहीं कह पाते और कालेज की तमाम गतिविधियों के प्रति उदासीन रहते हैं. इस से उन का व्यक्तित्व निखर नहीं पाता, बल्कि दब कर रह जाता है. उन्हें व्यक्तित्व विकास के अवसर तो मिलते हैं लेकिन वे पीछे हट जाते हैं.

हीनभावना से ग्रस्त या शर्मीली प्रकृति के युवकयुवतियों को चाहिए कि वे अपना आत्मविश्वास बढ़ाएं. अपने मन की बात दोस्तों अथवा प्रोफैसरों से बे िझ झक कहें और व्यर्थ में न डरें. अपने सहपाठियों के साथ  बात करें. खेलकूद या अन्य गतिविधियों में भाग लें. अपने दोस्तों के समूह में रहें. प्रोफैसरों से अपनी समस्या सा झा करें. उन्हें अपना आदर्श मानें. वे आप के सच्चे शुभचिंतक और आप के व्यक्तित्व विकास में सहायक होते हैं.

दुविधा: जब बेईमानों का साथ देना पड़े!

लेखक- धीरज कुमार

बिहार में डेहरी औन सोन के रहने वाले मदन कुमार एक राष्ट्रीय अखबार के लिए ब्लौक लैवल के प्रैस रिपोर्टर का काम करते हैं. वे पत्रकारिता को समाजसेवा ही मानते हैं.

बेखौफ हो कर वे अपने लेखन से समाज को बदलना चाहते हैं, लेकिन उन के स्थानीय प्रभारी से यह दबाव रहता है कि खबर उन्हीं लोगों की दी जाए, जिन से उन्हें इश्तिहार मिलते हैं. जो इश्तिहार नहीं दे पाते हैं, उन की खबर बिलकुल नहीं दी जाए, भले ही खबर कितनी भी खास क्यों न हो.

मदन कुमार के प्रभारी उन लोगों के बारे में अकसर लिखते रहते हैं, जिन से उन्हें दान के तौर पर कुछ मिलता रहता है. भले ही वे लोग दलाली और भ्रष्टाचार कर के पैसा कमा रहे हैं. अपने ब्लौक के भ्रष्टाचारियों और दलालों की खबरों को ज्यादा अहमियत दी जाती है. उन के बारे में गुणगान पढ़ कर मन दुखी हो जाता है. कभीकभी तो उन के प्रभारी कुछ लोगों से मुंह खोल कर पैट्रोल खर्च, आनेजाने के खर्चे के नाम पर पैसे लेते रहते हैं.

वहीं मदन कुमार द्वारा काफी मेहनत और खोजबीन कर के लाई गई खबरों को नजरअंदाज कर दिया जाता है, न ही छापा जाता है या बहुत छोटा कर दिया जाता है, क्योंकि उन संस्थाओं से प्रभारी महोदय को नाराजगी पहले से रहती है या कोई ‘दान’ नहीं मिला होता है, इसलिए वे कुछ दिनों से अपने प्रभारी से बहुत नाराज हैं.

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वे अकसर कहते हैं कि अब पत्रकारिता छोड़ कर दूसरा काम करना ठीक रहेगा और इस के लिए वे कोशिश भी कर रहे हैं. उन्हें इस प्रकार की दलाली पत्रकारिता से नफरत होती जा रही है.

मदन कुमार का कहना है, ‘‘अगर बेईमानी से ही कमाना है तो फिर पत्रकारिता में आने की क्या जरूरत है? बेईमानी के लिए बहुत सारे रास्ते खुले हुए हैं. और फिर मुंह खोल कर किसी से पैट्रोल और आनेजाने के खर्चे के नाम  पर पैसे मांग कर अपना ही कद छोटा करते हैं.

‘‘आम लोग इस तरह के बरताव से सभी रिपोर्टरों को एक ही तराजू पर तौलते हैं, इसीलिए आज स्थानीय पत्रकारों को कोई तवज्जुह नहीं देता है. लोग उन्हें बिकाऊ और दो टके का सम झते हैं, जबकि पत्रकारिता देश का चौथा स्तंभ माना जाता है.

‘‘इस तरह के बेईमानों के साथ काम करने पर मन को ठेस पहुंचती है. ईमानदारी से काम करने वाले के दिल को यह सब कचोटता है, खासकर तब जब आप का बड़ा अधिकारी ही बेईमान हो. आप उस का खुल कर विरोध भी नहीं कर सकते हैं. विरोध करने का मतलब है, अपनी नौकरी को जोखिम में डालना.’’

औरंगाबाद के रहने वाले नीरज कुमार सरकारी प्राथमिक विद्यालय में शिक्षक हैं. सरकारी विद्यालय में बच्चों को मिड डे मील के लिए सरकार द्वारा चावल और पैसे दिए जाते हैं. उन के विद्यालय के प्रधानाध्यापक मिड डे मील के चावल और पैसे की हेराफेरी करते रहते हैं.

जब कभी बच्चों की लिस्ट बनानी हो, तो उसे नीरज कुमार ही तैयार करते हैं. वे जानते हैं कि गलत रिपोर्ट बना रहे हैं, फिर भी वे उस गलत रिपोर्ट का विरोध नहीं कर पाते हैं, क्योंकि उन्हें हर हाल में प्रधानाध्यापक की बात माननी पड़ती है.

एक बार प्रखंड शिक्षा पदाधिकारी को इस बारे में शिकायत की थी. तब प्रखंड शिक्षा पदाधिकारी का कहना था, ‘आप अपने काम से मतलब रखिए. दूसरों के काम में अड़ंगा मत डालिए. आप सिर्फ अपने फर्ज को पूरा कीजिए.’

बाद में नीरज कुमार को पता चला कि इस हेराफेरी में प्रखंड शिक्षा पदाधिकारी को भी कमीशन के रूप में पैसा मिलता है. उन का कमीशन फिक्स है, इसलिए वे ऐसे शिक्षकों को हेराफेरी करने से रोकते नहीं हैं, बल्कि सपोर्ट करते हैं. इस सब में नाजायज कमाई करने का एक नैटवर्क बना हुआ है.

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तब से नीरज कुमार अपने विद्यालय के गरीब बच्चों के निवाला की हेराफेरी करने वाले अपने प्रधानाचार्य का विरोध नहीं करते हैं. उन का कहना है, ‘‘मैं सिर्फ अपने फर्ज को पूरा करता हूं. यह हमारे अधिकार क्षेत्र में नहीं आता है, इसलिए मैं इस के बारे में चुप रहता हूं.

‘‘मैं सिर्फ पढ़ानेलिखाने पर ध्यान देता हूं. मैं आर्थिक मामलों में कुछ भी दखलअंदाजी नहीं करता हूं, क्योंकि मैं जानता हूं कि ऐसा करने का मतलब है अपने पैर पर कुल्हाड़ी मारना यानी अपना ही नुकसान करना.

‘‘वैसे भी आप शिकायत करने किस के पास जाएंगे? जिन के पास भी जाएंगे यानी आप ऊपर के अधिकारी के पास जाएंगे तो उस की कमाई भी उस हेराफेरी से होती है, इसलिए वैसे लोग उस हेराफेरी को रोकने से तो रहे. बदले में आप का नुकसान भी कर सकते हैं. आप का ट्रांसफर करा देंगे.

‘‘आप को दूसरे मामले में फंसा कर नुकसान पहुंचाना चाहेंगे. अगर आप को शांति से नौकरी करनी है, तो अपना मुंह बंद रखना ही होगा.’’

इस तरह की बातों से यह साफ है कि जब बेईमानों के साथ काम करना पड़े या साथ देना पड़े, तो यह जरूरी है कि हम उन से अपनेआप को अलगथलग रखें. हमें जो काम और जिम्मेदारी दी गई है, उस को बखूबी निभाएं.

बेईमान सहकर्मी के बारे में जहांतहां शिकायत करना भी ठीक नहीं है. इस  से आप की उस से दुश्मनी बढ़ने लगती है. शिकायत से कोई फायदा नहीं  होता है. आप के बनेबनाए काम भी बिगड़ जाते हैं, इस से खुद का ही नुकसान होता है. आप दूसरों को सुधारने के फेर में खुद का ही नुकसान कर लेते हैं.

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अगर आप अपनी भलाई चाहते हैं, तो ज्यादा रोकटोक न करें. उन की बेईमानी की कमाई में किसी तरह का अड़ंगा न डालें.

मुमकिन हो, तो उन्हें किसी दूसरे तरीके से बताने की कोशिश करें. अगर वे आप के इशारे को सम झ जाते हैं, तो उचित है वरना अपने काम से मतलब रखें, क्योंकि उन का सीधा विरोध करने पर दुश्मनी महंगी पड़ सकती है.

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