किसान नेता Rakesh Tikait को खाना खिला रही पोती का वीडियो वायरल, दादू नंबर 1

किसान नेता Rakesh Tikait को खाना खिला रही पोती का वीडियो वायरल, पोतेपोती है खास प्यार
राकेश टिकैत का नाम ही किसान आंदोलन के दिनों से चर्चा में रहता आया है. कभी यह जोरदार भाषणों से रैलियों को संबोधित करते नजर आते हैं, तो कभी सरकार की किसान नीतियों पर बहस करते दिखते हैं. ऐसे कद्दावर नेता का एक वीडियो वायल हो रहा है, जिसमें वह अपने घर की एक छोटी सी बच्ची के हाथों से खाना खाते दिख रहे हैं. उनकी ऐसी सौफ्ट छवि को शायद ही किसी ने देखा होगा क्योंकि उनकी इमैज हमेशा से एक फायर ब्रांड नेता की रही है. राकेश टिकैत के इस वीडियो को देखने वाले में से एक सोशल मीडिया यूजर ने लिखा है कि यह दादापोती का प्यार है, तो किसी ने लिखा है कि चौधरी राकेश सिंह टिकैत के परिवार पर सदैव ईश्वर की कृपा बनी रहे.

 

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पोते को भी दुलारने का वीडियो वायरल

किसान नेता के रूप में मशहूर राकेश टिकैत ने एमए तक की स्टडी की है. ऐसा भी कहा जाता है कि उनके पास वकालत की भी डिग्री है. इन दिनों वे भारतीय किसान यूनियन के नेता के तौर पर भी जाने जाते हैं. राकेश टिकैत को सोशल मीडिया प्लैटफौर्म पर पोते के साथ खेलते हुए देखा जा सकता है. इस प्लेटफौर्म पर वे अकसर रैलियों और भाषणों की वीडियो डालते रहते हैं, लेकिन कुछ वीडियोज ऐसे हैं, जिसमें पोतेपोती के लिए उनका दुलार साफ नजर आता है. इससे पहले भी उनका एक वीडियो वायरल हुआ था जिस में वे अपने पोते को गन्ने का जूस पिलाते हुए दिख रहे थे. उनके पोते को यूजर्स फ्यूचर चौधरी साहब का नाम दे रहे हैं.

टिकैत कैसे बने किसान नेता

राकेश टिकैत के बारे में कहा जाता है कि साल 1985 में दिल्ली पुलिस में कौंस्टेबल के पद पर काम कर रहे थे. उसके बाद वे सब-इंसपैक्टर बने. लेकिन अपने पिता महेंद्र सिंह टिकैत को किसान आंदोलन में साथ देने के लिए उन्होंने अपनी नौकरी छोड़ दी और आंदोलन में शामिल हो गए, उसी समय से वे किसान नेता के तौर पर किसानों की आवाज को उठाते रहते हैं. साल 2017 में राकेश टिकैत ने एक बार मुजफ्फरनगर से निर्दलीय चुनाव लड़ा लेकिन वे बुरी तरह हार गए. उन्होंने राष्ट्रीय लोकदल के टिकट से साल 2014 में भी चुनाव लड़ा लेकिन इसमें भी सफलता उनके हाथ नहीं लगी. भले ही वह किसानों के बड़े नेता है लेकिन आज भी प्रत्यक्ष राजनीति से दूर हैं

Politics से जुड़े हैं ये Bhojpuri Stars, जानें कौन हैं इनकी पत्नियां

भोजपुरी फिल्म इंडस्ट्री में ऐसे कई स्टार्स हैं जो राजनीति से जुड़ हुए है. सभी स्टार्स शादीशुदा है और अपनी पत्नियों के साथ लाइमलाइट में भी रहते है और एक अच्छे मुकाम पर भी है जैसा कि कहा जाता है कि हर एक कामयाब पुरूष के पीछे एक महिला का हाथ होता है. ऐसे ही ये भोजपुरी स्टार्स है जो शादियों के बाद राजनीति से जुड़े. लेकिन कुछ ऐसे ही जिनकी पत्नियां लाइमलाइट में रहती है तो कुछ ऐसे जो मीडिया से कोसो दूर है. तो आइए जानते है ऐसे कुछ भोजपुरी के उन पॉलिटिशियन के बारें में जिनकी पत्नियां है और वे कौन है उनकी मुलाकात उनसे कैसी हुई और आज वे क्या करती हैं.

 

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इस लिस्ट में सबसे पहला नाम आता है मनोज तिवारी का, जो भोजपुरी के जाने माने स्टार है लेकिन अब ये राजनीति में नजर आते है और हाल में मनोज तिवारी लोकसभा चुनाव 2024 नॉर्थ ईस्ट दिल्ली से कनहिया कुमार को हरा कर बहुमत के साथ जीते है. बात करें मनोज की शादीशुदा लाइफ की, तो मनोज तिवारी ने साल 1999 में रानी तिवारी से की थी. जिनसे उनकी एक बेटी है. लेकिन 11 साल बाद, 2012 में उन्होंने तलाक ले लिया. जिसके बाद मनोज ने दूसरी शादी सुरभि से की. सुरभि से उनकी दो बेटियां हुई. सुरभि उम्र में मनोज तिवारी से 10 साल छोटी हैं.

पवन सिंह भोजपुरी सिनेमा के जानेमाने स्टार और सिंगर हैं जिनका राजनीति में भी दबदबा रहा है. पवन सिंह की भी दो शादियां हुई थी. साल 2014 में उन्होंने नीलम सिंह से पहली शादी रचाई थी. लेकिन साल 2015 में नीलम ने घर में सुसाइड कर लिया था. इसके बाद साल 2018 में पवन सिंह ने ज्योति सिंह से शादी रचाई. लेकिन साल 2022 में पवन सिंह ने ज्योति के साथ नहीं रहने का फैसला किया और तलाक ले लिया. लेकिन हाल ही चुनावी कैंपेन में पवन सिंह अपनी तलाकशुदा पत्नी ज्योति के साथ नजर आए, हालांकि पवन सिंह का नाम स्मृति सिन्हा के साथ भी जुड़ा था कि ये दोनों शादी करेंगे, क्योंकि ये एक दूसरे को डेट कर रहे थे.

दिनेश लाल यादव भोजपुरी के सबसे लोकप्रिय एक्टर हैं जिनके फैंस की करोड़ो में है. ये भी राजनीति से जुड़े हुए है. निरहुआ के नाम से फेमस की पत्नी का नाम मंशा देवी है. लेकिन दिनेश लाल यादव का नाम अक्सर मीडिया में एक्ट्रेस आम्रपाली के साथ जोड़ा गया है. जबकि पत्नी मंशा से इनके तीन बच्चे हैं. भोजपुरी स्टार निरहुआ मंशा को लाइमलाइट से दूर ही रखते हैं. यही वजह से है कि वह सोशल मीडिया पर भी अपनी वाइफ संग फोटोज शेयर नहीं करते हैं.

रवि किशन की पत्नी प्रीती किशन एक बिजनेस वुमन है, जो मीडिया में छाई रहती है रवि किशन कई बार उनके साथ सोशल मीडिया पर फोटोज अपडेट करते है. बता दें कि लखनऊ में प्रेस कॉन्फ्रेंस कर मुंबई की रहने वाली अपर्णा सोनी उर्फ अपर्णा ठाकुर ने आरोप लगाया कि उनकी 25 साल की बेटी शिनोवा सोनी बीजेपी सांसद और एक्टर रवि किशन की बेटी है. अपर्णा का कहना है कि रवि किशन बेटी शिनोवा को उसका हक नहीं दे रहे हैं. चुनावी माहौल के बीच गोरखपुर से भाजपा प्रत्याशी रवि किशन पर लगे इस आरोप से हंगामा खड़ा हो गया.  जिसके बाद रवि किशन की वाइफ ने प्रीती शुक्ला ने सभी पर एफआईआर दर्ज करा दी थी.

भोजपुरी सुपरस्टार खेसारी लाल यादव की पत्नी का नाम चन्दा देवी है, चंदा बहुत खूबसूरत हैं. स्टार की वाइफ होने के बावजूद खेसारी की चंदा का रहनसहन बेहद सिम्पल मिडिल क्लास महिला की तरह है रिपोर्ट के अनुसार शादी के वक्त खेसारी लाल यादव बेहद गरीब थे, उस वक्त उनके ससुर ने भैंस बेचकर दोनों की शादी कराई थी. खेसारी लाल शादी के बाद दिल्ली आकर रहने लगे और पत्नी के साथ लिट्ठी-चोखा बेचकर अपना गुजारा करते थे. लेकिन आज वे उस मुकाम पर है जहां सब उनके फैन है.

काले धन का नया झांसा

भारत में लोकसभा चुनाव का प्रचार जब अपनी हद पर था तो 6 मई, 2024 को देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने हैदराबाद में कहा था, “मैं भ्रष्टाचार से लूटे गए गरीबों के धन को वापस करने के बारे में कानूनी सलाह ले रहा हूं. मेरा ध्यान मेरे लिए इस्तेमाल किए जाने वाले अपशब्दों पर नहीं, बल्कि उन गरीब लोगों पर है, जिन का धन लूटा गया है. इस के लिए कानूनी सलाह ली जा रही है कि वह धन गरीबों को वापस कैसे किया जा सकता है.”

दरअसल, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने यह कहते हुए सीधेसीधे यह बात मान ली है कि दुनिया की 5वीं बड़ी अर्थव्यवस्था बनने के बाद भी देश में इफरात से गरीब और गरीबी है. दूसरी बात यह कि 8 नवंबर, 2016 को नोटबंदी के फैसले के समय नरेंद्र मोदी की ही की गई यह घोषणा भी खोखली निकली कि इस से देश में काला धन खत्म हो जाएगा. इसी से जुड़ी तीसरी अहम बात यह कि 10 साल में काले धन को बंद करने के लिए कुछ नहीं कर पाए हैं, उलटे, यह दिनोंदिन बढ़ ही रहा है. इस के लिए उन्होंने जो कुछ कर रखा है वह अभी किसी को नजर नहीं आएगा. हां, जिस दिन जनता उखाड़ फेंकेगी, उस दिन जोजो सामने आएगा, उस की भी कल्पना हर कोई नहीं कर सकता. चौथी और असल बात यह थी कि 80 करोड़ लोगों को मुफ्त राशन और दूसरी योजनाओं के जरीए इमदाद देने के बाद भी भाजपा को उम्मीद के मुताबिक वोट और सीटें नहीं मिल रही हैं, इसलिए वोटों के लिए वही लालच दिया जा रहा है जो आज से 10 साल पहले दिया गया था कि देश में इतना काला धन है कि उसे पकड़ कर हरेक के खाते में 15-15 लाख डाल दूंगा.

नरेंद्र मोदी के इस झांसे से लोगों को कोई खास खुशी नहीं हुई, क्योंकि वे एक बार नहीं, बल्कि कई बार ऐसे धोखे पिछले 10 साल में खा चुके हैं.

इत्तिफाक से इसी दिन झारखंड के ग्रामीण विकास मंत्री आलमगीर के पीएस संजीव लाल के नौकर जहांगीर आलम के यहां से तकरीबन 35 करोड़ रुपए की नकदी बरामद हुई थी, जिसे चारा बना कर जनता के सामने उन्होंने पेश किया कि इस पैसे पर पहला हक तुम्हारा है, जो तुम्हें दिया भी जा सकता है, लेकिन इस के लिए जरूरी है कि मुझे तीसरी बार प्रधानमंत्री बनाओ.

अब इस इत्तिफाक में लोग भाजपा सरकार का यह रोल भी देख रहे हैं कि कहीं यह उस का ही कियाधरा तो नहीं. वजह, आजकल सबकुछ मुमकिन है और चुनाव जीतने के लिए नेता किसी भी हद तक जा सकते हैं. यह पैसा ईमान का था या बेईमानी का, इस बारे में भी कोई दावे से कुछ नहीं कह सकता. इस में हैरानी की एकलौती बात यह है कि इसे संभाल कर कमरे में रखा गया था यानी इसे कभी न कभी खर्च किया जाता, जिस से यह बाजार में आता.

मंदिरों में तो जाम है पैसा

जो नकदी झारखंड से बरामद हुई, वह उन पैसों के आगे कुछ नहीं है जो मंदिरों में जाम पड़ा है. तथाकथित भ्रष्टाचार का पैसा अगर गरीबों का है तो मंदिरों में सड़ रहा खरबों रुपया किस का है, प्रधानमंत्री कभी इस पर क्यों नही बोलते? क्या यह पैसा भी लूट का नहीं जो लोकपरलोक सुधारने व मोक्षमुक्ति वगैरह के नाम पर पंडेपुजारियों द्वारा झटका जाता है? यह पैसा क्यों गरीबों में नहीं बांट दिया जाता, जिस के लिए किसी कानूनी सलाह की भी जरूरत नहीं?

गरीबों के लिए दुबलाए जा रहे प्रधानमंत्री चाहें तो एक झटके में देश से गरीबी दूर हो सकती है, उन्हें बस मंदिरों का पैसा गरीबों में बांटे जाने का हुक्म देना भर है, लेकिन वे ऐसा करेंगे नहीं, क्योंकि सत्ता गरीबों के वोट से ही मिलती है. एक दफा लोकतंत्र खत्म हो जाए, संविधान मिट जाए लेकिन गरीबी पर आंच नहीं आनी चाहिए. जवाहरलाल नेहरू से ले कर इंदिरा गांधी और अटल बिहारी वाजपेयी से ले कर मनमोहन सिंह की सरकारों ने भी गरीबी दूर करने की सिर्फ बातें की थीं, गरीबी हटाओ के लुभावने नारे दिए थे, लेकिन इसे दूर करने को कुछ ठोस नहीं किया था. यही नरेंद्र मोदी कर रहे हैं. फंडा बहुत सीधा है कि जब तक धर्म और धर्मस्थल हैं तब तक गरीबी दूर नहीं हो सकती. इन के चलते गरीब निक्कमा, निठल्ला और भाग्यवादी बना रहता है. वह मेहनत भी कामचलाऊ करता है और जब पेट पीठ से चिपकने लगता है तो सरकार अपने गोदामों के शटर उठा देती है जिस से वह भूखा न मरे.

देश के लिए तो वह किसी काम का नहीं, लेकिन धर्म के लिए उसे जिंदा रखा जाता है. वैसे भी मंदिरों के पैसों पर हक भाजपा का ही है, जिसे सलामत रखने की बाबत वह पंडेपुजारियों को पगार और कमीशन देती है, एवज में भगवान के ये एजेंट भाजपा के लिए वोटों की दलाली करते हैं. इन के कोई उसूल नहीं होते. एक वक्त में यही काम ये लोग कांग्रेस के लिए भी करते थे. इन का भगवान सिर्फ बिना मेहनत से आया पैसा होता है जो इन दिनों मोदी सरकार उन्हें दरियादिली से दिला रही है.

जब पैसे वालों को तसल्ली हो जाती है कि गरीब हैं और गरीबी किसी सरकार की देन नहीं, बल्कि इन के पिछले जन्मों के पापों का फल है, तो वह दान की, पूजापाठ की तादाद बढ़ा देता है, ताकि अगले जन्म में वह गरीबी में पैदा न हो.

ऐसे में छापों के पैसों से गरीबी दूर करने का झांसा देना एक बड़ी चालाकी है. बात तो तभी बन सकती है जब मंदिरों के खजानों का मुंह गरीबों के लिए खोल दिया जाए.
देश के मंदिरों के पैसे की थाह लेना आसान नहीं है, लेकिन यह हर कोई जानता है कि उन में अथाह धन है. हाल तो यह है कि एक अकेले तिरुपति के मंदिर की जायदाद से ही गरीबी दूर हो सकती है. कुबेर के इस रईस मंदिर के ट्रस्ट के मुताबिक बैंकों में 16,000 करोड़ रुपए की एफडी हैं, जिन का ब्याज ही करोड़ों में होता है. देशभर में मंदिर ट्रस्ट की 960 प्रापर्टी हैं, जिन की कीमत भी अरबों रुपए में है. मंदिर के पास 11 टन सोना है और तकरीबन ढाई टन सोने के गहने हैं. साल 2022-23 में ही जमा पैसे पर 3,100 करोड़ रुपए ब्याज में मिले थे और रोज करोड़ों का चढ़ावा बदस्तूर आ ही रहा है.

गरीबी तो अकेले तिरुपति के पैसे से ही दूर हो सकती है लेकिन अगर इस में अयोध्या, काशी, शिर्डी, वैष्णो देवी, उज्जैन सहित चारों धामों का भी पैसा मिला दिया जाए तो देश में अमीरों की भरमार हो जाएगी. लेकिन फिर वे भाजपा को वोट नहीं देने वाले, क्योंकि फिर उन्हें धर्म की जरूरत नहीं रह जाएगी और भाजपा को इस के सिवा कुछ और आता नहीं जो पूरे चुनाव प्रचार में मुसलिमों का डर दिखाते रामश्याम और राधेराधे करती रही. उस का मकसद पंडेपुजारियों की आमदनी पक्की करना है.

पब्लिक मीटिंगों में विपक्षियों को कोसते रहना नरेंद्र मोदी की कोई सियासी मजबूरी नहीं, बल्कि चालाकी है कि ये अगर सत्ता में आए तो मुफ्त की तगड़ी कमाई वाला धर्म और मंदिर खत्म कर देंगे, फिर सब बैठ कर चिमटा हिलाते रहना. अगर इस पैसे की इस सनातनी सिस्टम की हिफाजत चाहते हो तो मुझे वोट दो, मैं गरीबी बनाए रखूंगा, यह मेरी गारंटी है.

नेताओं की नेतागीरी में मोहरा बनते ‘स्कूली बच्चे’

क्या देश अभी भी लकीर का फकीर बना हुआ है? क्या यह सोच भारत के जनमानस में अभी भी नहीं पहुंची है कि कम से कम 12 साल से छोटे बच्चों के साथ हमें कैसा कोमल बरताव करना चाहिए? क्या सिर्फ अपनी नौकरी बचाने और नेताओं के इशारे पर हर उस गलत चीज को भी हम सिर झुका कर आसानी से मान लेते हैं और कोई भी हुक्म बजा लाते हैं?

इस का सब से बड़ा उदाहरण हैं प्रधानमंत्री और राज्यों में मुख्यमंत्रियों के आने पर स्कूल के बच्चों को उन की रैलियों में, सभाओं में ले जाने का काम स्कूल मैनेजमैंट खुशी या मजबूर हो कर करने लगता है. सम?ाने वाली बात यह है कि निजी स्कूल ऐसा क्यों नहीं करते और सरकारी स्कूलों के बच्चों को आननफानन स्कूल ड्रैस में सभा में भीड़ बढ़ाने के लिए ले जाया जाता है? इसे बच्चों के साथ क्रूरता और अपराध की कैटेगिरी में रखा जाना चाहिए.

सवाल यह भी है कि अगर कहीं ऐसे हालात में कोई हादसा हो जाए, तो उस का जिम्मेदार कौन होगा? यह भी तय करने की जरूरत है.

तमिलनाडु के कोयंबटूर जिला शिक्षा अधिकारी ने कोयंबटूर में भारतीय जनता पार्टी के नेता और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के रोड शो में स्कूली बच्चों की भागीदारी पर जांच के आदेश जारी कर दिए हैं. इस से पक्ष और विपक्ष के बीच बहस की तलवारें खिंच गई हैं. मामला पुलिस तक पहुंच गया है और अब मद्रास हाईकोर्ट में चल रहा है.

सनद रहे कि नरेंद्र मोदी ने मेट्टालयम रोड पर बने गंगा अस्पताल और आरएस पुरम के मुख्य डाकघर के बीच 4 किलोमीटर तक का लंबा रोड शो किया था. सरकारी सहायता प्राप्त श्री साईं बाबा मिडिल स्कूल के 14 साल से कम उम्र के बच्चे रोड शो के दौरान अलगअलग जगहों पर पार्टी के प्रतीक चिह्नों वाली भगवा रंग की कपड़े की पट्टियां पहने हुए भाजपा कार्यकर्ताओं द्वारा आयोजित मंचों पर परफौर्म करते हुए देखे गए.

याद रहे कि कानूनन राजनीतिक रैलियों में बच्चों की भागीदारी भारतीय निर्वाचन आयोग (ईसीआई) के निर्देशों के खिलाफ है. ऐसे में जब आज लोकसभा चुनाव अपने उफान पर है, तब यह सवाल और भी ज्यादा जरूरी हो जाता है, जिस का जवाब तय किया जाना चाहिए.

अधिकारियों ने स्कूल मैनेजमैंट को प्रधानाध्यापक और कर्मचारियों के खिलाफ सख्त कार्यवाही करने और घटना की रिपोर्ट सौंपने का आदेश दिया है. सवाल और जवाब यही है कि ऐसे घटनाक्रम में सख्त कार्यवाही होनी चाहिए और आइंदा ऐसा न हो, यह संदेश चला जाना चाहिए.

कोयंबटूर जिला कलक्टर ने ‘एक्स’ पर एक पोस्ट में कहा, ‘हम ने मुद्दे का संज्ञान लिया है और एआरओ ने संबंधित विभागों से रिपोर्ट मांगी है. जांच के निष्कर्षों के आधार पर उचित कार्यवाही की जाएगी.’

श्रम विभाग के संयुक्त आयुक्त और मुख्य शिक्षा अधिकारी द्वारा भी अलगअलग जांच शुरू कर दी गई हैं.

भारत निर्वाचन आयोग के अनुसार ऐसे कार्य आदर्श आचार संहिता (एमसीसी) का उल्लंघन करते हैं. स्कूल मैनेजमैंट पर कार्यवाही की जाती है. मगर इस सब के बावजूद देशभर में ये खबरें अकसर सुर्खियां बटोरती हैं कि प्रधानमंत्री या कोई अन्य राजनीतिक नेता के स्वागत में स्कूली बच्चों को भेड़बकरियों की तरह ठेल दिया जाता है. यह एक आपराधिक कृत्य है और इस से नेताओं को बचना ही चाहिए. स्कूल मैनेजमैंट को भी सख्ती बनाए रखनी चाहिए.

ऐसे मामलों में सब से ज्यादा जिम्मेदारी जहां एक ओर स्कूल मैनेजमैंट की है, वहीं दूसरी ओर बच्चों के मांबाप को भी इस दिशा में जागरूक होने की जरूरत है.

नेताओं की नेतागीरी में मोहरा बनते ‘स्टूडेंट’

क्या देश अभी भी लकीर का फकीर बना हुआ है? क्या यह सोच भारत के जनमानस में अभी भी नहीं पहुंची है कि कम से कम 12 साल से छोटे बच्चों के साथ हमें कैसा कोमल बरताव करना चाहिए? क्या सिर्फ अपनी नौकरी बचाने और नेताओं के इशारे पर हर उस गलत चीज को भी हम सिर झुका कर आसानी से मान लेते हैं और कोई भी हुक्म बजा लाते हैं?

इस का सब से बड़ा उदाहरण हैं प्रधानमंत्री और राज्यों में मुख्यमंत्रियों के आने पर स्कूल के बच्चों को उन की रैलिया में, सभाओं में ले जाने का काम स्कूल मैनेजमैंट खुशी या मजबूर हो कर करने लगता है और समझने वाली बात यह है कि निजी स्कूल ऐसा क्यों नहीं करते और सरकारी स्कूलों के बच्चों को आननफानन स्कूल ड्रैस में सभा में भीड़ बढ़ाने के लिए ले जाया जाता है? इसे बच्चों के साथ क्रूरता और अपराध की कैटेगिरी में रखा जाना चाहिए.

सवाल यह भी है कि अगर कहीं ऐसे हालात में कोई हादसा हो जाए, तो उस का जिम्मेदार कौन होगा, यह भी तय करने की जरूरत है.

तमिलनाडु के कोयंबटूर जिला शिक्षा अधिकारी ने कोयंबटूर में भारतीय जनता पार्टी के नेता और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के रोड शो में स्कूली बच्चों की भागीदारी पर जांच के आदेश जारी कर दिए हैं. इस से पक्ष और विपक्ष के बीच बहस की तलवार खींच गई है. मामला पुलिस तक पहुंच गया है और अब मद्रास हाईकोर्ट मे चल रहा है.

सनद रहे कि नरेंद्र मोदी ने मेट्टुपालयम रोड पर बने गंगा अस्पताल और आरएस पुरम के मुख्य डाकघर के बीच 4 किलोमीटर लंबा रोड शो किया था. सरकारी सहायता प्राप्त श्री साईं बाबा मिडिल स्कूल के 14 साल से कम उम्र के बच्चे रोड शो के दौरान अलगअलग जगहों पर पार्टी के प्रतीक चिह्नों वाली भगवा रंग की कपड़े की पट्टियां पहने हुए भाजपा कार्यकर्ताओं द्वारा आयोजित मंचों पर परफौर्म करते हुए देखे गए.

याद रहे कि कानूनन राजनीतिक रैलियों में बच्चों की भागीदारी भारतीय निर्वाचन आयोग (ईसीआई) के निर्देशों के खिलाफ है. ऐसे में जब आज लोकसभा चुनाव अपने उफान पर है यह सवाल और भी ज्यादा जरूरी हो जाता है, जिस का जवाब तय किया जाना चाहिए.

अधिकारियों ने स्कूल मैनेजमैंट को प्रधानाध्यापक और कर्मचारियों के खिलाफ सख्त कार्यवाही करने और घटना की रिपोर्ट सौंपने का आदेश दिया है. सवाल और जवाब यही है कि ऐसे घटनाक्रम में सख्त कार्यवाही होनी चाहिए और आइंदा ऐसा न हो, यह संदेश चला जाना चाहिए.

कोयंबटूर जिला कलक्टर ने एक्स पर एक पोस्ट में कहा, ‘हम ने मुद्दे का संज्ञान लिया है और एआरओ ने संबंधित विभागों से रिपोर्ट मांगी है. जांच के निष्कर्षों के आधार पर उचित कार्यवाही की जाएगी.’

श्रम विभाग के संयुक्त आयुक्त और मुख्य शिक्षा अधिकारी द्वारा भी अलगअलग जांच शुरू कर दी गई हैं.
भारत निर्वाचन आयोग के अनुसार ऐसे कार्य आदर्श आचार संहिता (एमसीसी) का उल्लंघन करते हैं. स्कूल मैनेजमैंट पर कार्यवाही की जाती है. मगर इस सब के बावजूद देशभर में ये खबरें अकसर सुर्खियां बटोरती हैं कि प्रधानमंत्री या कोई अन्य राजनीतिक नेता के स्वागत में स्कूली बच्चों को भेड़बकरियों की तरह ठेल दिया जाता है. यह एक आपराधिक कृत्य है और इस से नेताओं को बचना ही चाहिए. स्कूल मैनेजमैंट को भी सख्ती बनाए रखनी चाहिए.

ऐसे मामलों में सब से ज्यादा जिम्मेदारी जहां एक ओर स्कूल मैनेजमैंट की है वहीं दूसरी ओर बच्चों के अभिभावकों को भी इस दिशा में जागरूक होने की जरूरत है.

नरेंद्र मोदी ने दूसरे नेताओं के पर काटे, तानाशाही की निशानी

बात साल 1982 की है. केंद्र में कांग्रेस की सरकार थी. इंदिरा गांधी ने साल 1980 का लोकसभा चुनाव जीत कर प्रधानमंत्री के तौर पर वापसी की थी. उत्तर प्रदेश कांग्रेस में उठापटक और गुटबाजी चल रही थी. इंदिरा गांधी को उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री के तौर पर ऐसे चेहरे की तलाश थी, जिस को ले कर कोई विवाद और गुटबाजी न हो. तलाशने के बाद एक नाम श्रीपति मिश्र का सामने आया. 19 जुलाई, 1982 को इंदिरा गांधी ने श्रीपति मिश्र को उत्तर प्रदेश का मुख्यमंत्री बना दिया. 2 साल यानी 1984 तक वे मुख्यमंत्री रहे.

सुलतानपुर जिले के सुरापुर कसबे के रहने वाले श्रीपति मिश्र बेहद सरल, सज्जन और मृदुभाषी थे. ऐसे ही नारायण दत्त तिवारी का मामला भी था.

कुछ इसी तरह से अब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी अपने मुख्यमंत्रियों को बदलने का काम करते हैं. वे तकरीबन 13 साल तक जिस गुजरात के मुख्यमंत्री रहे, उसी गुजरात में अब मुख्यमंत्री ताश के पत्तों की तरह से फेंट कर बदल दिए जाते हैं.

साल 2001 से ले कर साल 2014 तक 13 साल अकेले नरेंद्र मोदी गुजरात के मुख्यमंत्री रहे. इस के बाद साल 2014 से ले कर साल 2022 के 8 साल में आनंदी पटेल, विजय रूपाणी और भूपेंद्र पटेल 3 मुख्यमंत्री बदले गए. 13 साल एक मुख्यमंत्री और 8 साल में 3 मुख्यमंत्री बनाए गए.

उत्तराखंड का उदाहरण भी काफी मजेदार है. साल 2017 के विधानसभा चुनाव के बाद उत्तराखंड में भाजपा ने अपने बड़े नेताओं को दरकिनार कर त्रिवेंद्र सिंह रावत को मुख्यमंत्री बनाया. साल 2021 में त्रिवेंद्र सिंह रावत को हटा कर तीरथ सिंह रावत को मुख्यमंत्री बनाया और साल 2022 में पुष्कर सिंह धामी को मुख्यमंत्री बनाया. ऐसे नए नेताओं को मुख्यमंत्री बनाया, जिन को कोई अनुभव नहीं था.

यही बात मध्य प्रदेश विधानसभा चुनाव के बाद देखने को मिली, जब विधानसभा चुनाव जिताने वाले शिवराज सिंह चौहान की जगह पर मोहन यादव को मुख्यमंत्री बनाया.

अनुभवी नेताओं को दरकिनार कर के छत्तीसगढ़ में विष्णुदेव साय और राजस्थान में भजन लाल शर्मा को इसी तरह से मुख्यमंत्री बनाया गया. असल में अब मुख्यमंत्री बनाने में काबिलीयत नहीं देखी जाती है.

पहले कांग्रेस इसी तरह से मुख्यमंत्री बदलती थी, अब भाजपा उसी राह पर है. विधायक अब पार्टी के गुलाम बन गए हैं. उन से जिन के नाम का प्रस्ताव कराना हो, कर देते हैं.

पार्टी अध्यक्ष से ले कर जिला अध्यक्षों तक के सारे फैसले हाईकमान करता है. हर दल में आंतरिक लोकतंत्र खत्म हो गया है. संगठन में चुनाव नहीं, नियुक्तियां होने लगी हैं.

जनता के नहीं, पार्टी के प्रतिनिधि

चुनाव सुधारों के लिए काम करने वाले ऐक्टिविस्ट प्रताप चंद्रा कहते हैं, ‘‘असल में जब संविधान ने चुनाव की व्यवस्था बनाई, तो लोकसभा सदस्य और विधानसभा सदस्य चुने जाने का विधान था. ये सदन में अपना नेता चुनते थे. साल 1967 में जब कांग्रेस का विभाजन हुआ, तो इंदिरा गांधी ने कांग्रेस (आई) बनाई, जिस का निशान हाथ का पंजा था.

‘‘इंदिरा गांधी ने चुनाव आयोग से इसी निशान को अपने लिए रिजर्व करने के लिए कहा. इस के बाद पार्टी तंत्र विकसित होने लगा.

‘‘साल 1985 में राजीव गांधी ने जब दलबदल कानून बनाया, तब से विधायक और सांसद पार्टी व्हिप के दबाव में आने लगे. साल 1989 के बाद राजनीतिक दलों का रजिस्ट्रेशन शुरू हुआ. धारा

29 ए में पार्टी रजिस्टर्ड होने लगी. 29बी चुनाव चिह्न और 29सी दलों की आय के बारे में नियम बन गया.

‘‘इस के बाद विधायक और सांसद जनता के नहीं, बल्कि राजनीतिक दलों के प्रतिनिधि बन गए. वे जनता के हित के बजाय पार्टी के हित में काम करने लगे. पार्टी व्हिप को न मानने से सदस्यता जाने का खतरा बढ़ गया था.’’

पौराणिक कथाओं का असर

हमारे समाज की मूल भावना में काबिलीयत की जगह परिपाटी को अहमियत दी जाती है. इस के तमाम उदाहरण हैं. संयुक्त हिंदू परिवारों में यह चलन था कि घर का बड़ा बेटा ही घर चलाएगा. वह काबिल न हो तो भी घर चलाने का हक उस का होता था. छोटा भाई असहमति भी जाहिर नहीं कर सकता था. हमारे समाज में असहमति को विरोध सम?ा लिया जाता है.

‘महाभारत’ को भी देखिए. धृतराष्ट्र बड़े थे, लेकिन अंधे होने की वजह से उन को राजा नहीं बनाया गया. इस के बाद भी वे खुद को राजा मानते रहे. उन के छोटे भाई पांडु की मौत के बाद जब धृतराष्ट्र ने राजपाट संभाला, तब उन्होंने तय कर लिया कि भले ही युधिष्ठिर बड़े हों, पर राजा उन का बेटा दुर्योधन ही बनेगा.

पांडवों में भी यही भावना थी. पांचों भाइयों में युधिष्ठिर सब से बड़े थे. इस वजह से उन के ही आदेशों को माना जाता था. दुर्योधन के साथ जुआ खेलने के लिए युधिष्ठिर ही आगे आए. जब महाभारत का युद्ध हुआ तो काबिलीयत के हिसाब से सब से बड़ी जिम्मेदारी अर्जुन के कंधों पर आई, क्योंकि वे

सब से काबिल थे. उन को ही कृष्ण ने गीता सुनाई. अगर परिवार में बड़े होने के चलते युधिष्ठिर ही युद्ध का संचालन करते, तो महाभारत के युद्ध का नतीजा अलग हो जाता. काबिलीयत के मुताबिक अगर जिम्मेदारी न दी जाए, तो हार तय होती है.

इतिहास में बहुत से ऐसे उदाहरण हैं, जहां बड़े बेटे को नाकाबिल होने के बाद भी राजा बना दिया गया, पर बाद में वह राज्य बरबाद हो गया.

इस को आज के दौर में घरपरिवार के उदाहरण से समझे तो कई कारोबारी घराने, सामान्य परिवार इसी वजह से खत्म हो गए, क्योंकि उन्होंने बड़े बेटे को जिम्मेदारी सौंप दी. पुरानी लीक और रूढि़वादी सोच के चलते अगर नाकाबिल होने के बाद भी बड़े बेटे को ही हक सौंप दिए जाएंगे, तो परिवार का बरबाद होना तय है.

राजनीति से ले कर घरपरिवार तक में यही कहा जाता है कि जो बड़ा है, उसे ही असल हक है. राजनीतिक दलों में इसी बड़े को हाईकमान कहा जाता है. जब हाईकमान काबिलीयत के आधार पर फैसले नहीं करता है, तो वह पार्टी डूब जाती है. कांग्रेस इस का उदाहरण है.

एक ही रंग में रंगे

कांग्रेस की तरह से भाजपा में भी हाईकमान कल्चर बढ़ गया है. हिंदुत्व के पुट को अगर किनारे कर दिया जाए, तो इंदिरा गांधी और नरेंद्र मोदी का काम करने का तरीका एकजैसा है. प्रधानमंत्री रहते दोनों ही पार्टी और देश दोनों चला रहे हैं.

चुनाव में टिकट बंटवारे का मसला हो या मुख्यमंत्री बदलने का मसला हो, प्रधानमंत्री का ही आदेश चलता है. दूसरे प्रधानमंत्रियों के जमाने में मंत्रिमंडल का फैसला होता था. अब मसला वित्त का हो तो फैसला प्रधानमंत्री लेते हैं, विदेश का हो, तो फैसला प्रधानमंत्री लेते हैं, रक्षा का हो तो फैसला प्रधानमंत्री लेते हैं. ऐसे में वित्त, विदेश और रक्षा मंत्री को रखा ही क्यों गया है?

देश के सारे फैसले पीएमओ लेने लगा है. ऐसे में जनता के प्रतिनिधि होने का मतलब ही क्या रह गया है? जब वित्त, विदेश और रक्षा मंत्री जैसे दूसरे विभागों के फैसले पीएमओ को ही करने हैं, तो इतने मंत्री रखने की जरूरत क्या है?

प्रदेश को चलाने के लिए मुख्यमंत्री की काबिलीयत को देखने की जरूरत नहीं है, तो मुख्यमंत्री के ताम?ाम पर पैसा खर्च करने की जरूरत क्या है? पीएमओ और अफसर प्रदेश भी चला सकते हैं. राम की खड़ाऊं रख कर राज चलाया जा सकता है, तो पीएमओ देश को क्यों नहीं चला सकता?

राजा में दिखते हैं भगवान

संविधान ने एमपी, एमएलए को जनता का प्रतिनिधि माना है. वे जनता के वोट से चुन कर जाते हैं. सदन में वे वही बात करेंगे, जो उन की पार्टी यानी मुखिया का आदेश होगा. उन की असहमति को विरोध सम?ा जाएगा. इस के चलते उन की सदस्यता जा सकती है. एमपी, एमएलए जनता के प्रतिनिधि नहीं, पार्टी के प्रतिनिधि हो गए हैं. पार्टी के मुखिया यानी हाईकमान का आदेश ही राजा का आदेश हो गया है.

जैसे घरपरिवार में पिता का राज होता है, बेटे का हक नहीं होता कि वह अपनी मरजी से शादी कर सके. बात न मानने पर पिता अपनी जायदाद से बेटे को बेदखल कर सकता है. परिवार और राजनीति दोनों ही एकदूसरे के उदाहरण दे कर अपनी बात को सही साबित करते रहते हैं.

पिता भी राजा की तरह होता है. राजा को भी पिता कहा जाता है. दोनों ही भगवान जैसे होते हैं. भगवान का आदेश कौन टाल सकता है?

मनोहर लाल कितने भी काबिल क्यों न हों, राजा के आदेश की अनदेखी नहीं कर सकते. हाईकमान के रूप में नरेंद्र मोदी को लोग भगवान का अवतार बताते हैं. चुनावी टिकट से ले कर मुख्यमंत्री बदलने तक के उन के सारे फैसले कबूल कर लिए जाते हैं.

लोकतंत्र में बढ़ती तानाशाही

लोकतंत्र का मतलब यह माना जाता है कि जो भी काम होंगे, वे जनता के हित में उन के चुने हुए प्रतिनिधि करेंगे. जिस देश में जितने ज्यादा नागरिकों को वोट देने का हक रहता है, उस देश को उतना ही ज्यादा लोकतांत्रिक समझ जाता है. इस तरह भारत दुनिया के लोकतांत्रिक देशों में सब से बड़ा है. यहां वोट देने वाले नागरिकों की तादाद दुनियाभर में सब से बड़ी है.

भारतीय संविधान ने अनुच्छेद 326 के तहत बालिगों को वोट डालने का हक दिया है. वोटर के लिए जरूरी है कि वह 18 साल या उस से ज्यादा उम्र का हो, साथ ही भारत का निवासी भी हो.

भारत में 1935 के ‘गवर्नमैंट औफ इंडिया ऐक्ट’ के मुताबिक, तब केवल 13 फीसदी जनता को वोट का हक हासिल था. वोटर का हक हासिल करने की बड़ीबड़ी शर्तें थीं. केवल अच्छी सामाजिक और माली हालत वाले नागरिकों को यह हक दिया जाता था. इस में खासतौर पर वे लोग ही थे, जिन के कंधों पर विदेशी शासन टिका हुआ था. पर आजाद भारत में वोट का हक सभी को दिया गया.

लोकतंत्र के बाद भी हमारे देश में लोक यानी जनता की जगह पर तंत्र यानी अफसर और नेताओं का राज चलता है. इस में जनता घरेलू मामलों से ले कर अदालतों तक के बीच चक्की में गेहूं की तरह पिसती है. आखिर में उस का आटा ही बन जाता है. अब शायद कोई ही ऐसा हो, जो इस चक्की में पिस न रहा हो. घर के अंदर तक कानून घुस गया है. पतिपत्नी के बीच से ले कर घर के बाहर सीढ़ी और छत आप की अपनी नहीं है. जो जमीन आप अपनी समझ कर रखते हैं, असल में वह आप की नहीं होती है.

लोकतंत्र में जो तंत्र का हिस्सा है, वह लोक को अपनी जायदाद समझाता है. कानून लोक के लिए तंत्र के हिसाब से चलता है. अगर हम इस को घर के अंदर से देखें तो आप अपनी सुविधा के मुताबिक न तो छत पर कोई कमरा बनवा सकते हैं और न ही घर से बाहर निकलने के लिए सीढ़ियां. तंत्र को देख रहे अफसर अपने हिसाब से नियम बनाते हैं. हाउस टैक्स, प्रौपर्टी टैक्स जैसे नियम अफसर बनाते हैं. जनता से कभी पूछा नहीं जाता है. यही अफसर जनता के हित में अलग तरह से काम करते हैं, जबकि अफसरों, नेताओं के हित में अलग तरह से काम होता है.

लोकतंत्र में तानाशाही बढ़ती जा रही है. वोट पाने के लिए वोटर को लुभाया जा रहा है और विपक्ष को डराया जा रहा है. यह उसी तरह से है, जैसे घर के मालिक को तमाम तरह के टैक्स से परेशान किया जा रहा है. रोजगार पाने के लिए भटक रहे छात्रों को परेशान किया जा रहा है.

नौकरी के लिए इम्तिहान होता है, तो पेपर आउट करा दिया जाता है. बेरोजगारी का आलम यह है कि चपरासी की नौकरी के लिए पीएचडी वाले छात्र लाइन लगा कर खड़े होते हैं. नेताओं के पास इतना पैसा है कि वे वोट को मैनेज करते हैं.

सत्ता को बनाए रखने के लिए यह कोशिश होती है कि विपक्षी को चुनाव न लड़ने दिया जाए. बाहुबली नेता धनंजय सिंह के मसले में उन का कहना है कि ‘चुनाव लड़ने से रोकने के लिए यह किया जा रहा है’. ऐसे उदाहरण कई हैं, जहां लोकतंत्र में तानाशाही दिखती है.

आम आदमी पार्टी का मसला हो, सांसद महुआ मोइत्रा का मामला हो, तमाम उदाहरण सामने हैं. कांग्रेस नेता राहुल गांधी को ले कर भी उन की ऐसी ही घेराबंदी की गई थी.

असल में लोकतंत्र की बात करने वाला या लोकतंत्र के जरीए ही सत्ता संभालने वाला कब तानाशाह बन जाता है, इस का पता नहीं चलता.

दुनियाभर में इस के तमाम उदाहरण भरे पड़े हैं. नैपोलियन, हिटलर और पुतिन जैसे शासकों ने अपनी शुरुआत लोकतंत्र से की, बाद में तानाशाह बन गए. भारत में जिस तरह से विरोधी नेताओें को चुनाव लड़ने से रोका जा रहा है, उस से तानाशाही बढ़ने का खतरा साफतौर पर दिख रहा है.

हर मुद्दे पर खुल कर बोल रहे हैं राहुल गांधी

उत्तर प्रदेश में अपनी ‘भारत जोड़ो न्याय यात्रा’ के दौरान कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने सेना में अग्निवीर योजना, बेरोजगारी, अडानी, राम मंदिर और जातीय गणना पर खुल कर बोला. प्रदेश में इस यात्रा में पार्टी नेता प्रियंका गांधी को भी शामिल होना था, लेकिन तबीयत ठीक न होने के चलते वे शामिल नहीं हो सकी थीं.

16 फरवरी, 2024 को ‘भारत जोड़ो न्याय यात्रा’ ने देश के सब से ज्यादा लोकसभा सीटों वाले राज्य उत्तर प्रदेश में प्रवेश किया था. यह यात्रा बिहार से चंदौली के रास्ते उत्तर प्रदेश पहुंची थी, जहां यात्रा का तय कार्यक्रम ‘तिरंगा सैरेमनी’ हुआ, जिस में बिहार कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष अखिलेश प्रसाद सिंह ने उत्तर प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष अजय राय को तिरंगा सौंपा था.

इस मौके पर राष्ट्रीय महासचिव व प्रदेश प्रभारी अविनाश पांडे, कांग्रेस विधानमंडल दल की नेता आराधना मिश्रा मोना और दूसरे कई नेता हाजिर रहे थे.

चंदौली पहुंच कर राहुल गांधी ने सैयद राजा शहीद स्मारक पर शहीदों को नमन किया. राहुल गांधी ने कहा, ‘‘एक विचारधारा भाई को भाई से लड़ाती है और आप की जेब से पैसा निकाल कर चुनिंदा अरबपतियों को दे देती है, वहीं दूसरी विचारधारा नफरत के बाजार में मुहब्बत की दुकान खोलती है और आप का हक आप को वापस लौटाती है.’’

‘भारत जोड़ो न्याय यात्रा’ के दौरान राहुल गांधी ने लोगों से पूछा कि देश में फैली नफरत की क्या वजह है? इस पर जवाब मिला कि देश में फैल रही नफरत की वजह डर है और इस डर की वजह नाइंसाफी है.

आज देश के हर हिस्से में सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक लैवल पर नाइंसाफी हो रही है. देश में किसानों और गरीबों की जमीनें छीन कर अरबपतियों को दी जा रही हैं. महंगाई और बेरोजगारी बढ़ती जा रही है.

मोदी सरकार की अग्निपथ योजना को नौजवानों के साथ धोखा बताते हुए राहुल गांधी ने कहा कि अग्निवीर को न कैंटीन सुविधा मिलेगी, न पैंशन मिलेगी और न शहीद का दर्जा मिलेगा. यह नौजवानों के साथ धोखा है.

मोदी सरकार अग्निपथ योजना इसलिए लाई, ताकि देश के रक्षा बजट से पैसा हमारे जवानों की रक्षा, उन की ट्रेनिंग और पैंशन में न जाए. रक्षा के सभी कौंट्रैक्ट अडानी की कंपनी के पास हैं. मोदी सरकार हिंदुस्तान के बजट का पूरा पैसा अडानी को देना चाहती है, इसलिए अग्निवीर योजना लाई गई.

राहुल गांधी ने आगे कहा कि मोदी सरकार चाहती है कि सब लोग ठेके के मजदूर बनें. नौजवानों को सेना, रेलवे और पब्लिक सैक्टर में नौकरी नहीं मिल रही, क्योंकि मोदी सरकार चाहती है कि नौजवान ठेके पर ही काम करें.

आज हिंदुस्तान में 2-3 अरबपतियों को पूरा फायदा मिल रहा है और नौजवानों का ध्यान भटका कर उन का भविष्य छीना जा रहा है. केंद्र में ‘इंडिया’ की सरकार आने पर पूरे हिंदुस्तान में खाली पड़े सरकारी पदों पर भरती की जाएगी.

राहुल गांधी ने आगे यह भी कहा, ‘‘कुछ ही दिनों पहले हम ने किसानों के लिए एमएसपी की लीगल गारंटी दी है. हम कानूनी गारंटी देंगे कि हिंदुस्तान के किसानों को सही एमएसपी दी जाए.

‘‘मैं आप से यह कहना चाहता हूं कि सामाजिक अन्याय हो रहा है, आर्थिक अन्याय हो रहा है, किसानों के खिलाफ अन्याय हो रहा है.’’

राहुल गांधी ने जनता से सवाल किया कि नरेंद्र मोदी ने किसानों का कितना कर्जा माफ किया?

जनता की भीड़ ने कहा, ‘जीरो. एक रुपया नहीं किया.’

राहुल गांधी ने दूसरा सवाल किया, ‘हिंदुस्तान के 20-25 अरबपतियों का कितना कर्जा माफ किया?’

भीड़ से जवाब आया, ‘16 लाख करोड़ रुपए.’

मीडिया पर तंज कसते हुए राहुल गांधी बोले, ‘‘हम ने किसानों का कर्जा माफ किया, 72,000 करोड़ रुपए हम ने माफ किए और उस टाइम सारे मीडिया ने कहा कि देखो, यूपीए की सरकार पैसा जाया कर रही है, किसानों को आलसी बना रही है. तो जब किसानों का कर्जा माफ होता है तो मीडिया कहती है कि किसानों को आलसी बनाया जा रहा है और जब नरेंद्र मोदी 15-20 लोगों का 16 लाख करोड़ रुपए का कर्जा माफ करते हैं, तो फिर ये एक शब्द नहीं कहते.’’

जनता की भीड़ ने कहा, ‘मोदी मीडिया, गोदी मीडिया एक शब्द नहीं कहता.’

जनता के यह कहने पर राहुल गांधी बोले, ‘‘तो इसी अन्याय के खिलाफ हम ने यह यात्रा निकाली है.’’

कांग्रेस के अध्यक्ष रह चुके राहुल गांधी ने आगे कहा कि मीडिया में कभी किसान या मजदूर का चेहरा नहीं दिखाई देगा. राम मंदिर की प्राण प्रतिष्ठा कार्यक्रम में अडानी, अंबानी, अरबपति, फिल्मी सितारे दिखे, लेकिन कोई गरीब, किसान, बेरोजगार, दुकानदार या मजदूर नहीं दिखा.

भागीदारी न्याय का मुद्दा उठाते हुए कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने कहा कि देश में पिछड़ों, दलितों और आदिवासियों की आबादी 73 फीसदी है. मगर इन वर्गों की कहीं भी भागीदारी नहीं है.

इन वर्गों को कुछ नहीं मिल रहा है. यह नाइंसाफी है. जाति जनगणना से पता चलेगा कि देश में कितने पिछड़े, दलित और आदिवासी हैं. किस वर्ग के पास कितना पैसा है.

जाति जनगणना देश का ऐक्सरे है. इस से पता लग जाएगा कि सोने की चिडि़या का पैसा किस के हाथ में है. यह क्रांतिकारी कदम है. केंद्र में ‘इंडिया’ की सरकार आने पर पूरे देश में जाति जनगणना कराई जाएगी.

परिणीति-राघव की प्री-वेडिंग पार्टी की तैयारियां शुरु, दिल्ली में होगा फंक्शन

इन दिनों पॉलिटिशियन राघव चढ्डा और परिणीति चोपड़ा की शादी की खबरें सुर्खियों में बनीं हुई है. इसी बीच अब प्री-वेडिंग पार्टी की खबरें चर्चा में बनीं हुई है. और ये तैयारिया दिल्ली में हो रही है. राघव चढ़्डा के घर पर की जा रही है. हालांकि शादी उदयपुर में की जाएंगी. लेकिन उससे पहले फंक्शन दिल्ली से शुरु किए जाएंगे. जिनकी हाल ही में तैयारी की वीडियो सामने आई है जो कि सोशल मीडिया पर वायरल हो रही है.

 

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वायरल वीडियो में दिखाया जा रहा है कि राघव चढ़्डा के घर पर समान लोड किया जा रहा है. बता दें, कि इसी साल राघव और परिणीति दिल्ली में सगाई कर चुके है. वही राजस्थान में होने जा रही शादी काफी गैंड होगी. इस फंक्शन में गिने चुने महमान होंगे और सिक्योरिटी काफी टाइट होगी. जानकारी के मुताबिक प्री-वेडिंग की शुरुआत क्रिकेट मैच से होगी. ये मैच दिल्ली में आयोजित किया जाएगा. जिसमें दोनों परिवार एक-दूसरे से मुकाबला करेंगे. जहां तक प्री-वेंडिग फेस्टिविटीज वेन्यू की बात है. तो इसे कुछ शहरों में डिवाइट किया गया है. शुरुआत दिल्ली से होगी और मुख्य फंक्शन उदयपुर में होगा. इसके बाद रिसेप्शन पार्टी दिल्ली और चडीगढ़ में आयोजित की जाएगी.

 

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बताते चले कि रविवार को परिणीति चोपड़ा को दिल्ली एयरपोर्ट पर स्पॉट किया गया था. उनके मगेंतर राघव चढ्ड़ा उन्हे रीसिव करने आए थे. यह वीडियो भी सोशल मीडिया पर खूब वायरल हुआ था. बता दें, कि प्री-वेडिंग फंक्शन एक हफ्ते तक चलेंगे. जिसके बाद कपल 24 सितंबर को शादी करेंगे.

रिजर्वेशन की मांग कर रहे है लोग

एक सर्वे में यह पाया गया है कि राजस्थान में 93′ लोग अपनी जाति के हिसाब सरकारी नौकरियों, स्कूलोंकालेजों में सीटों के हिसाब से रिजर्वेशन मांग रहे है और अगर यही रहा तो जिन्हें मेरिट वाली सीट कहां जाता है वे बस 7′ बचेंगी यानी 100 में से 7.

शड्यूल कास्ट जो पहले अछूत कहे जाते थे और आज भी समाज में अछूत ही हैं और हिंदू वर्ण व्यवस्था के हिस्सा भी नहीं थे राजस्थान की आबादी में 1.28 करोड़ हैं. इन्हें 16′ आरक्षण मिलता है और इसी के बल पर रिजर्व सीटों की वजह से 34 विधायक और 4 सांसद हैं.

आदिवासी आबादी का 12′ यानी 71 लाख हैं. इन के 33 विधायक और 3 सांसद हैं. ये लोग गांवों में रहने लगे है पर पहले जंगलों या रेगिस्तान में रहते थे. 75 सालों में कुछ कपड़ों और बरतनों के अलावा इन्हें कुछ ज्यादा मिला हो, ऐसा नहीं लगता. अदर बैकवर्ड कास्ट में ऊपरी जातियों की गिनती 3.5 करोड़ यानी 21′ है और ये आबादी के हिसाब से 27′ आरक्षण चाहते हैं. इन्हीं में से कट कर बनाई गई मोस्ट वैकवर्ड कास्ट को 56′ रिजर्वेशन मिला है पर इन की गिनती नहीं हुई है क्योंकि जाति जनगणना में जाति पूछी जाती है पर जनता को बताई नहीं जाती.

ईडब्लूएस को 10′ का आरक्षण मिला है जो ऊंची जातियों के लिए जिन में ज्यादातर ब्राह्मïण ही आते हैं जो पूजापाठ से दान बसूल नहीं पाते. ये लोग आबादी का शायद 3-4′ है पर 14′ रिजर्वेशन मनवां रहे हैं. लड़ाई मोटे तौर पर उन 36′ सीटों के लिए हो जो ऊंची जातियों के लिए उलटे रिजर्वेशन की शक्ल ले चुकी है और आबादी का 8-9′ होने पर भी मलाईदार पोस्टें इन्हीं के हाथों में आती हैं. ये लोग पहले 100′ पोस्टों पर होते को पर अब धीरेधीरे इन की गिनती घट रही है पर ताकत नहीं क्योंकि इन में भयंकर एकजुटता है और अपने मनमुटाव से बाहर नहीं आने देते.

3′ ब्राह्मïणों ने, 3-4′ राजपूतों ने सारी मोटी पोस्टों पर कब्जा कर रखा है क्योंकि ये कई पीढिय़ों से पढ़ेलिखे हुए है और इन के घरों में पढ़ाई पर बहुत जोर दिया जाता है. राजस्थान के बनिए आरक्षण के चक्कर में नहीं पड़ते और वे दुकानदारी में सफल हो जाते हैं और देशभर में फैले हुए हैं जहां बनिए की अकल, बचत, सूझबूझ से ये एक तरह से सब से अमीर वर्ग है बिना रिजर्वेशन के. रिजर्वेशन सिर्फ सरकारी नौकरियों के लिए मांगा जाता है क्योंकि इन में पक्की नौकरी के साथसाथ हर जगह ऊपरी रिश्वत की कमाई का मौका है. शायद ही कोई सरकारी दफ्तर होगा जहां से ऊपरी कमाई की जा सकती. बच्चों के बाल गृहों तक में खाने के टैंडर से ले कर बच्चों को सेक्स के लिए भेज कर कमाई की जाती है.

दिक्कत यह है कि सरकारी पैसे का लालच स्वर्ग पाने के लालच की तरह है. अगर मंदिरों, मसजिदों, चर्चों की स्वर्ग मिलने की कहानियां सही हैं और अगर पूजापाठियों की गिनती देखी जाए तो तर्कों में तो सन्नाटा छाया हुआ होगा क्योंकि हर कोई स्वर्ग में पूजापाठ के बल पर पहुंच रहा है. जैसे इस झूठ, फरेब से सदियों से धर्म का धंधा का चल रहा है, नेताओं का धंधा रिजर्वेशन के नाम पर चल रहा है. मुट्ठी भर सरकारी नौकरियों के लालच में पूरी जनता से वोट बसूले जाते हैं और इसीलिए राजस्थान में 93′ सीटों पर दावेदारी है. ऐसा हर राज्य में है जबकि रिजर्वेशन के बल पर फायदा थोड़ों को ही हो पाता है.

नेताओं के पास पंडेपादरियों की तरह इस से अच्छी आसान बात कहने के अलावा वैसे ही कुछ नहीं होता.

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