Nitish Kumar को पटकनी देने के लिए भाजपा का चक्रव्यूह

बिहार की राजनीति में इन दिनों काफी हलचल मची हुई है. इस हलचल के कई कारण हैं. सब से बड़ा कारण यह है कि विधानसभा चुनाव समय से पहले हो सकते हैं. तय अवधि के तहत चुनाव नवंबर में होने हैं. लेकिन भाजपा को एक ‘अज्ञात डर’ है कि Nitish Kumar के स्वास्थ्य को देखते हुए तय वक्त पर चुनाव कराने से राजग की जीत में संशय हो सकता है.

भाजपा ने अपने ‘पिछड़े’ चेहरे सम्राट चौधरी को मुख्यमंत्री बनाने की तैयारियां शुरू कर दी हैं. नीतीश कुमार की पार्टी की ताकत लगातार घटी है. कभी विधानसभा में जनता दल (एकी.) सब से बड़ी पार्टी थी, फिर वह भाजपा से नीचे आ गई थी. पिछले विधानसभा चुनाव में तो जद (एकी.) तीसरे नंबर की पार्टी बन कर रह गई है. महज 43 विधायकों के बल पर नीतीश कुमार मुख्यमंत्री हैं.

भाजपा को लगता था कि नीतीश कुमार चुनाव से पहले स्वयं मुख्यमंत्री पद छोड़ देंगे पर वे कोई बड़ी डील करने से पहले मुख्यमंत्री पद छोड़ने को तैयार नहीं हैं. इधर उन के बेटे निशांत का चेहरा भी सामने लाया गया है. ऐसे में नीतीश कुमार भारतीय जनता पार्टी नेतृत्व के लिए सिरदर्द बनते जा रहे हैं, मगर भाजपा की मजबूरी है कि अगर केंद्र में सत्ता बनाए रखनी है, तो नीतीश कुमार की जीहुजूरी करनी होगी, नहीं तो फिर लालू प्रसाद यादव और तेजस्वी यादव तो नीतीश कुमार के लिए बांहें फैला कर खड़े ही हैं.

उल्लेखनीय है कि भाजपा ने अपनी सोचीसमझी रणनीति के तहत आरिफ मोहम्मद खान को बिहार का राज्यपाल बनाया है. भाजपा का जनाधार और बढ़ाने के लिए राज्यपाल तुरुप का पत्ता बन गए हैं.

बिहार की राजनीति में इन दिनों कई तरह की अटकलें लगाई जा रही हैं. सब से बड़ी अटकल यह है कि भाजपा विधानसभा चुनाव समय से पहले करा सकती है. इस के कई कारण बताए जा रहे हैं.

पहला कारण यह है कि भाजपा को डर है कि नीतीश कुमार के स्वास्थ्य को देखते हुए तय वक्त पर चुनाव कराने से राजग की जीत में संशय हो सकता है.

दूसरा कारण यह है कि भाजपा अपने ‘पिछड़े’ चेहरे सम्राट चौधरी को मुख्यमंत्री बनाने को आतुर है.

तीसरा कारण यह है कि नीतीश कुमार की पार्टी की ताकत लगातार घटी है. कभी विधानसभा में जद (एकी.) सब से बड़ी पार्टी थी, फिर वह भाजपा से नीचे आ गई. पिछले विधानसभा चुनाव में तो जद (एकी.) तीसरे नंबर की पार्टी बन कर रह गई. महज 43 विधायकों के बल पर नीतीश कुमार मुख्यमंत्री हैं.

चौथा कारण यह है कि भाजपा को भरोसा था कि नीतीश कुमार चुनाव से पहले मुख्यमंत्री पद छोड़ देंगे, पर वे इस मूड में नहीं हैं. अब तो उन के बेटे निशांत का चेहरा भी सामने है.

एक कारण यह भी है कि भाजपा ने अपनी सोचीसमझी रणनीति के तहत ही आरिफ मोहम्मद खान को बिहार का राज्यपाल बनाया है. राष्ट्रपति शासन की नौबत आई तो राज्यपाल के जरीए भाजपा चुनाव से पहले अपना एजेंडा आगे बढ़ा सकेगी.

इन सभी कारणों के चलते बिहार की राजनीति में इन दिनों काफी हलचल मची हुई है. भारतीय जनता पार्टी के साथ राष्ट्रीय जनता दल और नीतीश कुमार का घातप्रतिघात धीरेधीरे बढ़ता जा रहा है. अब यह देखना दिलचस्प होगा कि बिहार की राजनीति में आने वाले दिनों में क्या होता है.

तेजस्वी यादव के वो कमेंट्स जो लोकसभा चुनाव 2024 में चर्चा में रहे

लोकसभा चुनाव 2024 का रूझान सभी के लिए चौंकाने वाला थे. इस पूरे 7 चरणों के इस चुनाव में बिहार के पूर्व डिप्टी सीएम तेजस्वी यादव ने विपक्ष पर जमकर तंज कसा. लालू के बेटे तेजस्वी यादव ने पूर्व सहयोगी बिहार के सीएम नीतीश कुमार पर चाचा चाचा कह कर खूब तंज कसा.

 

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लालू के राज में थे सब बाबू साहब

एक चुनावी सभा के दौरान तेजस्वी यादव ने कहा था कि जब लालू यादव का राज था तो गरीब सीना तान के “बाबू साहब” के सामने चलते थे. उन्होंने कहा कि, “हमारी सरकार आएगी तो हम सब लोगों को साथ लेकर चलेंगे. जो अपराध करेगा उसे सज़ा मिलेगी, जो कर्मचारी काम करेंगे उन्हें सम्मान मिलेगा.”

शरीर उधर है मन इधर है

जब से तेजस्वी यादव और नीतीश कुमार राजनीतिक तौर पर एक दूसरे से अलग हुए हैं. तभी से ऐसा देखा गया है कि तेजस्वी बीजेपी पर तो खूब हमलावर रहते हैं लेकिन नीतीश कुमार को लेकर उनका रुख नरम पड़ जाता है. ऐसे में तेजस्वी यादव ने हाल में नीतीश कुमार को लेकर एक बार फिर से बड़ा बयान दे दिया है. सीएम नीतीश कुमार को लेकर तेजस्वी यादव ने कहा – ‘चाचा जी का शरीर उधर है, मन इधर है’.

मोदी को लेकर तेजप्रताप की तरह है तेजस्वी यादव

तेजस्वी ने लोकसभा चुनावों के दौरान मंच पर राहुल गांधी के साथ एक भाषण दिया जिससे सोशल मीडिया पर मोदी और गोबर हलवा का नाम दिया. भाषण में ये जताने की कोशिश की गई कि मोदी सरकार और गोबर का हलवा बराबर है. यहां तेजस्वी ने पूरे भाषण में ऐसी बातें कही जिससे साथ में बैठे राहुल गांधी पर हंस पडे. उन्होंने कहा कि भाजपा का ‘बटन दबाओं खटाखट और बीजेपी का बटन दबाओं झटाझट, सरकार बदेलेंगी फटाफट’. इन सब कमेंट्स को लेकर तेजस्वी इन लोकसभा चुनाव में काफी चर्चा में रहे है. बता दें कि मोदी सरकार को लेकर तेजस्वी अपने बड़े भाई की तरह कभी नहीं चूकते है, वह भी विपक्ष पर खूब तंज कसते है.

अग्निपथ से सिर्फ बंदूकधारी मजदूर बनेंगे

अग्निवीर के पीछे मोदी सरकार का असली मकसद यह है कि इन सिपाहियों को अपनी जनता के खिलाफ इस्तेमाल किया जाएगा. सरकार बड़े पूंजीपतियों के लिए इस दौरान आदिवासी इलाकों में जमीनों पर, खदानों पर कब्जा करेंगे। समुद्र तटों पर कब्जा करेंगे, उस के बाद यह किसानों की जमीनों पर पूंजीपतियों का कब्जा करवाएंगे.
  जाहिर है, जनता इस सब का विरोध करेगी. जनता के विरोध को दबाने के लिए सरकार को बंदूकधारी मजदूर सिपाहियों की जरूरत पड़ेगी. मोदी सरकार इस देश के नौजवान को इस देश की जनता के खिलाफ लड़ाने का प्लान बना रही है. इन सिपाहियों को इस देश के मुसलमानों, दलितों व मजदूरों के खिलाफ भी इस्तेमाल किया जाएगा.
  यह पहले सदियों से किया जा रहा है जब रजवाड़ों और जागीरदारों के यहां लठैत रखे जाते थे जो निहत्थे दलितों और कमजोर पिछड़ों को सताते थे, उनकी उपज छीन लेते थे, बेटियां उठा ले जाते थे. आजादी के बाद यह काम सिर्फ पुलिस कर सकती थी पर अब पुलिस का खर्च भारी पड़ रहा है इसलिए प्राइवेट आर्मियां बनाने के लिए ट्रेनिंग पाए जवान समाज में छुट्टे छोड़े जा रहे हैं.
भगवाइयों  की तानाशाही, क्रूरता और बर्बरता को सरकारी सपोर्ट देने के लिए यह सेना तैयार की जा रही है, वरना अंतर्राष्ट्रीय हालात तो ऐसी नहीं है कि आप को पाकिस्तान बांग्लादेश, बर्मा, भूटान, नेपाल या श्रीलंका से कोई इतना बड़ा खतरा है कि आप की वर्तमान सेना उस से निबटने में कम पड़ रही है, इसलिए आप को इस तरह के नए सिपाही चाहिए.
 नौजवानों को हथियारबंद बनाना, उन्हें राष्ट्रवाद के नाम पर कट्टर बनाना, हिंसक बनाना और अपनी जनता के खिलाफ इस्तेमाल करना, यह फासीवादियों का एक तरीका होता है.संघ प्रायोजित यह सरकार उसी योजना पर काम कर रही है. इस में पैसा जनता का लगेगा और जनता की जायज मांगों को दबाने के लिए हथियारबंद सिपाही खड़े किए जाएंगे. संविधान को रौंदा जाएगा, लोकतंत्र को कुचला जाएगा, मानव अधिकारों का हनन होगा.
 विकास के नाम पर जो पूंजीवाद और कारपोरेटीकरण का दौर नई आर्थिक नीतियां लागू होने के बाद शुरू हुआ है, यह उस का रास्ते को आसान करने की ही चाल है. बच्चों की बड़े पैमाने पर मौत हो रही है, देश के बच्चे भूखे हैं, कुपोषित हैं, माताएं बच्चा पैदा करने में मरे जा रही हैं, देश के दलितआदिवासी कुपोषित हैं, भूखे व बीमार हैं. देश का पैसा उन की हालत सुधारने में खर्च होना चाहिए, स्कूल अस्पताल पर पैसा खर्च होना चाहिए. उस की बजाय आप नये सिपाही फिर उन की खिलाफत के लिए खड़ा करेंगे.
   हमे ऐसा समाज नहीं बनाना जिस में लाखों लोग हथियारबंद हो और बाकी के लोग उन से डरने वाली जनता. हम संविधान के पहले पन्ने पर वर्णित भारत के लोग हैं। गरीब लोग भारत को ऐसे हिंसक देश बनते हुए चुपचाप  देखते रह जाएंगे क्योंकि उन्हें तो मंदिरों की दहलीज साफ करने का काम दे दिया है जहां और कहीं से कमाया पैसा भी चढ़ाना होता है

संभल कर खाओ ओ दिल्ली वालो

बचपन में जब कभी मैं अपने गांव जाता था तो वहां के मेरे दोस्त मुझे अकसर ही छेड़ते रहते थे कि ‘दिल्ली के दलाली, मुंह चिकना पेट खाली’. तब मुझे बड़ी चिढ़ मचती थी कि मैं इन से बेहतर जिंदगी जीता हूं, फिर भी ये ऐसा क्यों कहते हैं?

यह बात याद आने के पीछे आज की एक बड़ी वजह है और वह यह कि दिल्ली और केंद्र सरकार में दिल्ली की कच्ची कालोनियों को पक्का करने की होड़ सी मची है. वे उन लोगों को सब्जबाग दिखा रहे हैं, जो देश की ज्यादातर उस पिछड़ी आबादी की नुमाइंदगी करते हैं जो यहां अपनी गरीबी से जू झ रहे हैं, क्योंकि उन के गांव में तो रोटी मिले न मिले, अगड़ों की लात जरूर मिलती है.

पर, अब तो दिल्ली शहर भी सब से छल करने लगा है. यहां के लोगों को रोजीरोटी तो मिल रही है पर जानलेवा, फिर चाहे वे पैसे वाले हों या फटेहाल. बाजार में खाने का घटिया सामान बिक रहा है.

दिल्ली के खाद्य संरक्षा विभाग ने इस मिलावट के बारे में बताते हुए कहा कि साल 2019 की 15 नवंबर की तारीख तक 1,303 नमूने लिए गए थे. उन में से 8.8 फीसदी नमूने मिस ब्रांड, 5.4 फीसदी नमूने घटिया और 5.4 फीसदी ही नमूने असुरक्षित पाए गए. ये नमूने साल 2013 से अभी तक सब से ज्यादा हैं.

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यहां एक बात और गौर करने वाली है कि जिन व्यापारियों के खाद्य सामान के नमूने फेल हुए हैं, उन के खिलाफ अलगअलग अदालतों में मुकदमे दर्ज मिले हैं. पर यह तो वह लिस्ट है, जहां के नमूने लिए गए, लेकिन दिल्ली की ज्यादातर आबादी ऐसी कच्ची कालोनियों में रहती है, जहां ऐसे मानकों के बारे में कभी सोचा भी नहीं जाता होगा.

साफ पानी के हालात तो और भी बुरे हैं. साफ पानी की लाइन में सीवर के गंदे पानी की लाइन मिलने की खबरें आती रहती हैं.

ऐसी बस्तियों में ब्रांड नाम की कोई चीज नहीं होती है. हां, किसी बड़े ब्रांड के नकली नाम से बने सामान यहां धड़ल्ले से बिकते हैं. पंसारी की खुली बोरियों में क्याक्या भरा है, किसे पता?

पिछले साल के आखिर में दिल्ली की बवाना पुलिस ने जीरा बनाने की एक ऐसी फैक्टरी पकड़ी थी, जहां फूल  झाड़ू बनाने वाली जंगली घास, गुड़ का शीरा और स्टोन पाउडर से जीरा बनाया जा रहा था. इस जीरे को दिल्ली के अलावा गुजरात, राजस्थान, उत्तर प्रदेश व दूसरी कई जगह बड़ी मात्रा में सप्लाई किया जाता था. इस नकली जीरे को असली जीरे में 80:20 के अनुपात में मिला कर लाखों रुपए में बेच दिया जाता था.

यह तो वह मिलावट है जो पकड़ी गई है, बाकी का तो कोई हिसाबकिताब ही नहीं है. दिल्ली के असली दलाल तो ये मिलावटखोर हैं, जो एक बड़ी आबादी को शरीर और मन से इस कदर बीमार कर रहे हैं कि उस का मुंह भी चिकना नहीं रहा है. कच्ची कालोनियों को पक्का करने से पहले ऐसे मिलावटखोरों का पक्का इंतजाम करना जरूरी है.

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फेल हुए मोदी

मोदी सरकार के फैसले धीरेधीरे घुन की तरह समाज, अर्थव्यवस्था, कानून, संविधान में सभी को खोखला करते नजर आ रहे हैं. जिन उम्मीदों के साथ 2014 में नए बदलावों और भ्रष्टाचार मुक्त सरकार की आशा जगी थी, अब धूमिल ही नहीं हो गई, जो पिछले 6 सालों में हुआ है, वह दशकों तक तंग करता रहेगा.

नोटबंदी का फैसला तो बेमतलब का साबित हो चुका है. बजाय धन्ना सेठों के घरों से कमरों के कमरे वाले धन के मिलने के महज 50 दिन में जो नोट बदलने की बंदिश लगाई गई थी उस से आज भी महिलाएं तब दर्द की टीस सहती हैं जब उन के कपड़ों, किताबों, अलमारियों के नीचे से, गद्दों के बीच से 500 या 1000 के पुराने नोट निकलते हैं. यह रकम सरकार के लिए बड़ी नहीं क्योंकि 15.41 लाख करोड़ नोटों में से 99.3 फीसदी वापस आ ही गए हैं पर जिस घर में पूंजी हजारों की हो, वहां 2000-4000 की भी बहुत कीमत होती है.

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अब दूसरी आजादी, जीएसटी, की मार सरकार और जनता को सहनी पड़ रही है. अरुण जेटली ने अपने कागज के पैड पर अंदाजा लगा लिया था कि कर संग्रह 14 फीसदी बढ़ेगा हर साल, क्योंकि कर चोरी बंद हो जाएगी. पर जीएसटी कर तो बचा ले गई, लेकिन धंधे चौपट कर गई. न धंधे बढ़े, न कर संग्रह. केंद्र सरकार ने राज्यों को जो एक कर का खमियाजा देने का वादा किया था, उस में 1,56,000 करोड़ से ज्यादा की भरपाई का पैसा ही नहीं है.

लोगों को आज रिटर्न भरने में ज्यादा समय लगाना पड़ता है, व्यापार करने में कम. सरकार पंडों की तरह हर समस्या का उपाय एक और हवन, एक और तीर्थयात्रा, एक और धागे बांधने की तरह एक और रिटर्न का सुझाव दे डालती है. इस सरकार के दिमाग में भरा है कि ज्यादा प्रपंच, ज्यादा लाभ. मेहनत तो सरकार के मंत्रियों और संतरियों ने कभी न खुद की, न करने वालों की उन्होंने कदर की.

अब संविधान से एक के बाद एक खिलवाड़ करे जा रहे हैं कि कट्टरपंथियों को खुश रखा जा सके. ऊंचे पौराणिकपंथी चाहे उस से खुश हो जाएं, पर मेहनतकशों को क्षणिक गुस्से या खुशी के अलावा कोई फर्क नहीं पड़ता. जिन मुसलमानों को निशाना बना कर सरकार पूरा कार्यक्रम चला रही है, वे हर तरह का जोखिम सहने के आदी हैं. वे उन पिछड़ों व दलितों से ही मुसलमान बने हैं जो सदियों से सामाजिक अत्याचार सहते रहे हैं.

हां, ये सब फैसले उन्हें सरकार से नाराज कर देंगे. अगर भाजपा नहीं भी रहती, जैसा राज्यों में हो रहा है, इन बदलावों का असर रहेगा. घुन खाई लकड़ी पर दवा छिड़क दो तो घुन चाहे मर जाए पर जो लकड़ी खोखली हो चुकी है, वह तो खोखली ही रहेगी.

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हकों को कुचला

सरकार अब हक की जगह फर्ज का पाठ पढ़ाने में लग गई है. संविधान व कानूनों में बदलाव के बाद जो गुस्सा फूटा है उस से मुकाबला करने के लिए सरकार को लग रहा है कि पाठ पढ़ाया जाए कि नागरिकों के कोई हक नहीं हैं, सिर्फ फर्ज हैं. यह शासन करने का पुराना तरीका है. हर पुलिस थाने में, हर पंचायत में, हर घर में यही होता है.

यह हमारे समाज की देन है कि हम बात ही फर्ज की करते हैं, मान जाने की करते हैं, चुप रहने की करते हैं, जिस के पास ताकत है उस की आंख मूंद कर सुनने की करते हैं. यही फर्ज है और उस के आगे सारे हक खत्म हो जाएं.

सदियों से औरतों को, पिछड़े कामगारों को, किसानों को, मजदूरों को, समाज से बाहर रह रहे अछूत दलितों को अपने फर्जों की लिस्ट पकड़ाई गई है, हकों की नहीं. आज संविधान है पर बात बारबार उस में दिए गए हकों को कुचलने की की जाती है. ऐसे कानून बनाए जाते हैं जो एक के या दूसरे के हक छीन लें, ऐसे भाषण दिए जाते हैं, जिन में इस संविधान के हकों की जगह फर्जों की बात की जाती है.

यह जानबू झ कर करा जाता है ताकि हैसियत वाले नेता, अफसर, मंत्री, सेठ, घर में आदमी अपनी मनमानी कर सके. अब जब जनता ने नोटबंदी, जीएसटी और नागरिकता कानूनों पर सवाल उठाने शुरू कर दिए हैं तो उन्हें फर्ज का पाठ पढ़ाया जा रहा है, जबकि फर्ज का पाठ तो सरकार को पढ़ना था.

सरकारों का फर्ज था कि लोग खुश रहे. 6 साल कम नहीं होते खुशी लाने में. अगर 1947 से 2014 तक कुछ भी अच्छा नहीं हुआ तो सरकार ने जनता के बारे में 2014 से कौन से फर्ज पूरे किए.

सरकार ने रेलों की भीड़ नहीं कम की, हां, एयरकंडीशंड महंगी ट्रेनें चालू रखीं. सरकार ने गंदी  झोंपड़पट्टी खत्म नहीं की, हां, ऊंचेऊंचे मौल जरूर बन गए. दिल्ली जैसे शहर में 750 बस्तियों में सीवर नहीं हैं, पर हां, सरकार ने आरओ की बोतल वाले पानी को हर अमीर घर में पहुंचा दिया. सरकार ने नदियों की सफाई नहीं की जहां से मछुआरे मछली पकड़ सकते थे, हां, नदियों के किनारे घाट पक्के बनवा दिए जहां पौराणिक पाखंडबाजी का बाजार चालू है.

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सरकार ने अपने फर्ज में पढ़ेलिखे नौजवानों को रोजगार नहीं दिया, हां, जिस ने भगवा दुपट्टा ओढ़ लिया उसे धौंस जमाने का हक दे दिया. सरकार ने कारखानों के बारे में नई तकनीक का फर्ज पूरा नहीं किया, हां, पटेल की चीन से बनवा कर ऊंची मूर्ति लगवा दी, जहां अब अमीर लोग सैरसपाटे के लिए शेरों की सफारी देखने जा रहे हैं.

सरकार किस मुंह से कहती है कि जनता को हकों की नहीं फर्जों की सोचनी चाहिए. सरकारें लोकतंत्र में जनता के हकों को बचाने के लिए बनती हैं और जनता के बारे में अपने फर्ज पूरे करने के लिए बनती हैं. अपनी जिम्मेदारी जनता के सिर मढ़ने की कोशिश गलत है.

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