अंधेरे की छाया : किस बीमारी का शिकार हुई प्रमिला

महेंद्र सिंह ने अपनी पत्नी प्रमिला के कमरे में झांक कर देखा. अंदर पासपड़ोस की 5-6 महिलाएं बैठी थीं. वे न केवल प्रमिला का हालचाल पूछने आई थीं बल्कि उस से इसलिए भी बतिया रही थीं कि उस की दिलजोई होती रहे. जब से प्रमिला फालिज की शिकार हुई थी, महल्ले के जानपहचान वालों ने अपना यह रोज का क्रम बना लिया था कि 2-4 की टोलियों में सुबह से शाम तक उस का मन बहलाने के लिए उस के पास मौजूद रहते थे. पुरुष नीचे बैठक में महेंद्र सिंह के पास बैठ जाते थे औैर औरतें ऊपर प्रमिला के कमरे में फर्श पर बिछी दरी पर विराजमान रहती थीं.

वे लोग प्रमिला एवं महेंद्र की प्रत्येक छोटीबड़ी जरूरतों का ध्यान रखते थे. महेंद्र को पिछले 3-4 महीनों के दौरान उसे कुछ कहना या मांगना नहीं पड़ा था. आसपास मौजूद लोग मुंह से निकलने से पहले ही उस की जरूरत का एहसास कर लेते थे और तुरंत इस तरह उस की पूर्ति करते थे मानो वे उस घर के ही लोग हों. उस समय भी 2 औरतें प्रमिला की सेवाटहल में लगी थीं. एक स्टोव पर पानी गरम कर रही थी ताकि उसे रबर की थैली में भर कर प्रमिला के सुन्न अंगों का सेंक किया जा सके. दूसरी औरत प्रमिला के सुन्न हुए अंगों की मालिश कर रही थी ताकि पुट्ठों की अकड़न व पीड़ा कम हो. कमरे में झांकने से पहले महेंद्र सिंह ने सुना था कि प्रमिला वहां बैठी महिलाओं से कह रही थी, ‘‘तुम देखना, मेरा गौरव मेरी बीमारी का पत्र मिलते ही दौड़ादौड़ा चला आएगा. लाठी मारे से पानी जुदा थोड़े ही होता है. मां का दर्द उसे नहीं आएगा तो किस को आएगा? मेरी यह दशा देख कर वह मुझे पीठ पर उठाएउठाए फिरेगा. तुरंत मुझे दिल्ली ले जाएगा और बड़े से बड़े डाक्टर से मेरा इलाज कराएगा.’’ महेंद्र के कमरे में घुसते ही वहां मौन छा गया था. कोई महिला दबी जबान से बोली थी, ‘‘चलो, खिसको यहां से निठल्लियो, मुंशीजी चाची से कुछ जरूरी बातें करने आए हैं.’’ देखतेदेखते वहां बैठी स्त्रियां उठ कर कमरे के दूसरे दरवाजे से निकल गईं. महेंद्र्र ऐेनक ठीक करता हुआ प्रमिला के पलंग के समीप पहुंचा. उस ने बिस्तर पर लेटी हुई प्रमिला को ध्यान से देखा.

शरीर के पूरे बाएं भाग पर पक्षाघात का असर हुआ था. मुंह पर भी हलका सा टेढ़ापन आ गया था और बोलने में जीभ लड़खड़ाने लगी थी. महेंद्र प्रमिला से आंखें चार होते ही जबरदस्ती मुसकराया था और पूछा था, ‘‘नए इंजेक्शनों से कोई फर्क पड़ा?’’ ‘‘हां जी, दर्द बहुत कम हो गया है,’’ प्रमिला ने लड़खड़ाती आवाज में जवाब दिया था और बाएं हाथ को थोड़ा उठा कर बताया था, ‘‘यह देखो, अब तो मैं हाथ को थोड़ा हरकत दे सकती हूं. पहले तो दर्द के मारे जोर ही नहीं दे पाती थी.’’ ‘‘और टांग?’’ ‘‘यह तो बिलकुल पथरा गई है. जाने कब तक मैं यों ही अपंगों की तरह पलंग पर पड़ी रहूंगी.’’ ‘‘बीमारी आती हाथी की चाल से है औैर जाती चींटी की चाल से है. देखो, 3 महीने के इलाज से कितना मामूली अंतर आया है, लेकिन अब मैं तुम्हारा और इलाज नहीं करा सकता. सारा पैसा खत्म हो चुका है. तमाम जेवर भी ठिकाने लग गए हैं. बस, 50 रुपए और तुम्हारे 6 तोले के कंगन और चूडि़यां बची हैं.’’ ‘‘हां,’’ प्रमिला ने लंबी सांस ली, ‘‘तुम तो पहले ही बहुत सारा रुपया गौरव और उस के बच्चों के लिए यह घर बनाने में लगा चुके थे. पर वे नहीं आए. अब मेरी बीमारी की सुन कर तो आएंगे. फिर मेरा गौरव रुपयों का ढेर…’’ ‘‘नहीं, मैं और इंतजार नहीं कर सकता,’’ महेंद्र बाहर जाते हुए बोला, ‘‘तुम इंतजार कर लो अपने बेटे का. मैं डा. बिहारी के पास जा रहा हूं, कंपाउंडर की नौकरी के लिए…’’ ‘‘तुम करोगे वही जो तुम्हारे मन में होगा,’’ प्रमिला चिढ़ कर बोली, ‘‘आने दो गौरव को, एक मिनट में छुड़वा देगा वह तुम्हारी नौकरी.’’ ‘‘आने तो दें,’’ महेंद्र बाहर निकल कर जोर से बोला, ‘‘लो, सलमा बाजी और उन की बहुएं आ गई हैं तुम्हारी सेवा को.’’ ‘‘हांहां तुम जाओ, मेरी सेवा करने वाले बहुत हैं यहां. पूरा महल्ला क्या, पूरा कसबा मेरा परिवार है. अच्छी थी तो मैं इन सब के घरों पर जा कर सिलाईकढ़ाई सिखाती थी. कितना आनंद आता था दूसरों की सेवा में. ऐसा सुख तो अपनी संतान की सेवा में भी नहीं मिलता था.’’ ‘‘हां, प्रमिला भाभी,’’ सलमा ने अपनी दोनों बहुओं के साथ कमरे में आ कर आदाब किया और प्रमिला की बात के जवाब में बोली, ‘‘तुम से ज्यादा मुंशीजी को मजा आता था दूसरों की खिदमत में.

अपनी दवाओं की दुकान लुटा दी दीनदुखियों की सेवा में. डाक्टरों का धंधा चौपट कर रखा था इन्होंने. कहते थे गौरव हजारों रुपया महीना कमाता है, अब मुझे दुकान की क्या जरूरत है. बस, गरीबों की खिदमत के लिए ही खोल रखी है. वरना घर बैठ कर आराम करने के दिन हैं.’’ ‘‘ठीक कहती हो, बाजी,’’ प्रमिला का कलेजा फटने लगा, ‘‘क्या दिन थे वे भी. कैसा सुखी परिवार था हमारा.’’ कभी महेंद्र और प्रमिला का परिवार बहुत सुखी था. दुख तो जैसे उन लोगों ने देखा ही नहीं था. जहां आज शानदार गौरव निवास खड़ा है वहां कभी 2 कमरों का एक कच्चापक्का घर था. महेंद्र का परिवार छोटा सा था. पतिपत्नी और इकलौता बेटा गौरव. महेंद्र की स्टेशन रोड पर दवाओं की दुकान थी, जिस से अच्छी आय थी. उसी आय से उन्होंने गौरव को उच्च शिक्षादीक्षा दिला कर इस योग्य बनाया था कि आज वह दिल्ली में मुख्य इंजीनियर है. अशोक विहार में उस की लाखों की कोठी है. वह देश का हाकी का जानामाना खिलाड़ी भी तो था. बड़ेबडे़ लोगों तक उस की पहुंच थी और आएदिन देश की विख्यात पत्रपत्रिकाओं में उस के चर्चे होते रहते थे. गौरव ने दिल्ली में नौकरी मिलने के साथ ही अपनी एक प्रशंसक शीला से शादी कर ली थी. महेंद्र व प्रमिला ने सहर्ष खुद दिल्ली जा कर अपने हाथों से यह कार्य संपन्न किया था. शीला न केवल बहुत सुंदर थी बल्कि बहुत धनवान एवं कुलीन घराने से थी. बस, यहीं वे चूक गए. चूंकि शादी गौरव एवं शीला की सहमति से हुई थी, इसलिए वे महेंद्र और प्रमिला को अपनी हर बात से अलग रखने लगे. यहां तक कि शीला शादी के बाद सिर्फ एक बार अपनी ससुराल नसीराबाद आई थी.

फिर वह उन्हें गंवार और उन के घर को जानवरों के रहने का तबेला कह कर दिल्ली चली गई थी. पिछले 15 वर्षों में उस ने कभी पलट कर नहीं झांका था. महेंद्र और प्रमिला पहले तो खुद भी ख्ंिचेखिंचे रहे थे, लेकिन जब उन के पोता और पोती शिखा औैर सुदीप हो गए तो वे खुद को न रोक सके. किसी न किसी बहाने वे बहूबेटे के पास दिल्ली पहुंच जाते. गौरव और शीला उन का स्वागत करते, उन्हें पूरा मानसम्मान देते. लेकिन 2-4 दिन बाद वे अपने बड़प्पन के अधिकारों का प्रयोग शुरू कर देते, उन के निजी जीवन में हस्तक्षेप करना शुरू कर देते. वे उन्हें अपने फैसले मानने और उन की इच्छानुसार चलने पर विवश करते. यहीं बात बिगड़ जाती. संबंध बोझ लगने लगते और छोटीछोटी बातों को ले कर कहासुनी इतनी बढ़ जाती कि महेंद्र और प्रमिला को वहां से भागना पड़ जाता. प्रमिला और महेंद्र आखिरी बार शीला के पिता की मृत्यु पर दिल्ली गए थे. तब शिखा और सुदीप क्रमश: 10 और 8 वर्ष के हो चुके थे.

उन के मन में हर बात को जानने और समझने की जिज्ञासा थी. उन्होंने दादादादी से बारबार आग्रह किया था कि वे उन्हें अपने कसबे ले जाएं ताकि वे वहां का जीवन व रहनसहन देख सकें. गौरव के दिल में मांबाप के लिए बहुत प्यार व आदर था. उस ने घर ठीक कराने के लिए शीला से छिपा कर मां को 10 हजार रुपए दे दिए ताकि शीला को बच्चों को ले कर वहां जाने में कोई आपत्ति न हो. परंतु प्रमिला की असावधानी से बात खुल गई. सासबहू में महाभारत छिड़ गया और एकदूसरे की शक्ल न देखने की सौगंध खा ली गई. परंतु नसीराबाद पहुंचते ही प्रमिला का क्रोध शांत हो गया. वह पोतापोती और गौरव को नसीराबाद लाने के लिए मकान बनवाने लगी. गृहप्रवेश के दिन वे नहीं आए तो प्रमिला को ऐसा दुख पहुंचा कि वह पक्षाघात का शिकार हो गईर् औैर अब प्रमिला को चारों ओर अंधेरा ही अंधेरा दीख रहा था.

महेंद्र डा. बिहारी के यहां से लौटा तो अंधेरा हो चुका था. पर घर का दृश्य देख कर वह हक्काबक्का रह गया. प्रमिला का कमरा अड़ोसपड़ोस के लोगों से भरा हुआ था. प्रमिला अपने पलंग पर रखी नोटों की गड्डियां उठाउठा कर एक अजनबी आदमी पर फेंकती हुई चीख रही थी, ‘‘ले जाओ इन को मेरे पास से और उस से कहना, न मुझे इन की जरूरत है, न उस की.’’ आदमी नोट उठा कर बौखलाया हुआ बाहर आ गया था. उसे भीतर खड़े लोगों ने जबरदस्ती बाहर धकेल दिया था. कमरे से कईकई तरह की आवाजें आ रही थीं. ‘‘जाओ, भाई साहब, जाओ. देखते नहीं यह कितनी बीमार हैं.’’ ‘‘रक्तचाप बढ़ गया तो फिर कोई नई मुसीबत खड़ी हो जाएगी. जल्दी निकालो इन्हें यहां से.’’ और 2 लड़के उस आदमी को बाजुओं से पकड़ कर जबरदस्ती बाहर ले गए. वह अजनबी महेंद्र से टकरताटकराता बचा था. महेंद्र ने भी गुस्से में पूछा था, ‘‘कौन हो तुम?’’ ‘‘मैं गौरव का निजी सहायक हूं, जगदीश. साहब ने ये 50 हजार रुपए भेजे हैं और यह पत्र.’’ महेंद्र ने नोटोें को तो नहीं छुआ, लेकिन जगदीश के हाथ से पत्र ले लिया. पत्र को पहले ही खोला जा चुका था और शायद पढ़ा भी जा चुका था. महेंद्र ने तत्काल फटे लिफाफे से पत्र निकाल कर खोला. पत्र गौरव ने लिखा था: पूज्य पिताजी एवं माताजी, सादर प्रणाम, आप का पत्र मिला. माताजी के बारे में पढ़ कर बहुत दुख हुआ. मन तो करता है कि उड़ कर आ जाऊं, मगर मजबूरी है. शीला और बच्चे इसलिए नहीं आ सकते, क्योंकि वे परीक्षा की तैयारी में लगे हैं. मैं एशियाड के कारण इतना व्यस्त हूं कि दम लेने की भी फुरसत नहीं है. बड़ी मुश्किल से समय निकाल कर ये चंद पंक्तियां लिख रहा हूं. मैं समय मिलते ही आऊंगा. फिलहाल अपने सहायक को 50 हजार रुपए दे कर भेज रहा हूं ताकि मां का उचित इलाज हो सके. आप ने लिखा है कि आप ने हर तरफ से पैसा समेट कर नए मकान के निर्माण में लगा दिया है, जो बचा मां की बीमारी खा गईर्.

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यह आप ने ठीक नहीं किया. बेकार मकान बनवाया, हम लोगों के लिए वह किसी काम का नहीं है. हम कभी नसीराबाद आ कर नहीं बसेंगे. मां की बीमारी पर भी व्यर्थ खर्च किया. पक्षाघात के रोग का कोई इलाज नहीं है. मैं ने कईर् विशेषज्ञ डाक्टरों से पूछा है. उन सब का यही कहना है मां को अधिकाधिक आराम दें. यही इलाज है इस रोग का. मां को दिल्ली लाने की भूल तो कभी न करें. यात्रा उन के लिए बहुत कष्टदायक होगी. रक्तचाप बढ़ गया तो दूसरा आक्रमण जानलेवा सिद्ध होगा. एक्यूपंक्चर विधि से भी इस रोग में कोई लाभ नहीं होता. सब धोखा है… महेंद्र इस से आगे न पढ़ सका. उस का मन हुआ कि उस पत्र को लाने वाले के मुंह पर दे मारे. लेकिन उस में उस का क्या दोष था. उस ने बड़ी कठिनाई से अपने को संभाला और जगदीश को पत्र लौटाते हुए कहा, ‘‘आप उस से जा कर वही कहिए जो उसे जन्म देने वाली ने कहा है. मेरी तरफ से इतना और जोड़ दीजिए कि हम तो उस के लिए मरे हुए ही थे, आज से वह हमारे लिए मर गया.

काश, वह पैदा होते ही मर जाता.’’ जगदीश सिर झुका कर चला गया. महेंद्र प्रमिला के कमरे में घुसा. उस ने देखा कि वहां सब लोग मुसकरा रहे थे. प्रमिला की आंखें भीग रही थीं, लेकिन उस के होंठ बहुत दिनों के बाद हंसना चाह रहे थे. महेंद्र ने प्रमिला के पास जाते हुए कहा, ‘‘तुम ने बिलकुल ठीक किया, पम्मी.’’ तभी बिजली चली गई. कमरे में अंधेरा छा गया. प्रमिला ने देखा कि अंधेरे में खड़े लोगों की परछाइयां उस के समीप आती जा रही हैं. कोई चिल्लाया, ‘‘अरे, कोई मोमबत्ती जलाओ.’’ ‘‘नहीं, कमरे में अंधेरा रहने दो,’’ प्रमिला तत्काल चीख उठी, ‘‘यह अंधेरा मुझे अच्छा लग रहा है. कहते हैं कि अंधेरे में साया भी साथ छोड़ देता है. मगर मेरे चारों तरफ फैले अंधेरे में तो साए ही साए हैं. मैं हाथ बढ़ा कर इन सायों का सहारा ले सकती हूं,’’ प्रमिला ने पास खड़े लोगों को छूना शुरू किया, ‘‘अब मुझे अंधेरे से डर नहीं लगता, अंधेरे में भी कुछ साए हैं जो धोखा नहीं हैं, ये साए नहीं हैं बल्कि मेरे अपने हैं, मेरे असली संबंधी, मेरा सहारा…यह तुम हो न जी?’’ ‘‘हां, पम्मी, यह मैं हूं,’’ महेंद्र ने भर्राई आवाज में कहा, ‘‘तुम्हारे अंधेरों का भी साथी, तुम्हारा साया.’’ ‘‘तुम नौकरी करना डा. बिहारी की. रोगियों की सेवा करना. अपनी संतान से भी ज्यादा सुख मिलता है परोपकार में. मुझे संभालने वाले यहां मेरे अपने बहुत हैं. मैं निचली मंजिल पर सिलाई स्कूल खोल लूंगी, मेरे कंगन औैर चूडि़यां बेच कर सिलाई की कुछ मशीनें ले आना औैर पहियों वाली एक कुरसी ला देना.’’ ‘‘पम्मी.’’ ‘‘हां जी, मेरा एक हाथ तो चलता है. ऊपर की मंजिल किराए पर उठा देना. वह पैसा भी मैं अपने इन परिवार वालों की भलाई पर खर्च करना चाहती हूं. हमारे मरने के बाद हमारा जो कुछ है, इन्हें ही तो मिलेगा.’’ एकाएक बिजली आ गई. कमरे में उजाला फैल गया. सब के साथ महेंद्र ने देखा था कि प्रमिला अपने एक हाथ पर जोर लगा कर उठ बैठी थी. इस से पहले वह सहारा देने पर ही बैठ पाती थी. महेंद्र ने खुशी से छलकती आवाज में कहा, ‘‘पम्पी, तुम तो बिना सहारे के उठ बैठी हो.’’ ‘‘हां, इनसान को झूठे सहारे ही बेसहारा करते हैं.

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मैं इस आशा में पड़ी रही कि कोई आएगा, मुझे अपनी पीठ पर उठा कर ले जाएगा औैर दुनिया के बड़े से बड़े डाक्टर से मेरा इलाज कराएगा. मेरा यह झूठा सहारा खत्म हो चुका है. मुझे सच्चा सहारा मिल चुका है…अपनी हिम्मत का सहारा. फिर मुझे किस बात की कमी है? मेरा इतना बड़ा परिवार जो खड़ा है यहां, जो जरा से पुकारने पर दौड़ कर मेरे चारों ओर इकट्ठा हो जाता है.’’ यह सुन कर महेंद्र की छलछलाई आंखें बरस पड़ीं. उसे रोता देख कर वहां खड़े लोगों की आंखें भी गीली होने लगीं. महेंद्र आंसुओं को पोंछते हुए सोच रहा था, ‘ये कैसे दुख हैं, जो बूंद बन कर मन की सीप में टपकते हैं और प्यार व त्याग की गरमी पा कर खुशी के मोती बन जाते हैं.

सनकी हत्यारा : खून से लथपथ लाश और बेसबौल का डंडा

Crime News in Hindi: सोमनाथ से जबलपुर (Jabalpur) तक आने वाली सोमनाथ एक्सप्रैस ट्रेन 17 दिसंबर, 2018 को शाम करीब 5 बजे जब जबलपुर स्टेशन पहुंची तो सैकड़ों यात्रियों के साथ एक कोच में सवार मनीष वाजपेयी भी प्लेटफार्म नंबर 3 पर उतरे. मनीष वाजपेयी नर्मदा विकास प्राधिकरण (Narmda Development Authority) में इंसपेक्टर (Inspector) के पद पर नौकरी करते थे. मनीष का परिवार जबलपुर के गढ़ा थाना इलाके में इंदिरा गांधी वार्ड की अजनी सोसाइटी में रहता था. मनीष की पोस्टिंग जबलपुर के नजदीक जिले नरसिंहपुर में थी इसलिए वह रोज सुबह ट्रेन से जाने के बाद शाम को सोमनाथ एक्सप्रैस (Somnath Express) से ही वापस घर आ जाते थे. मनीष के 2 बेटे हैं, जिन में से बड़ा बेटा इंदौर में इंजीनियर है और छोटा बेटा नरसिंहपुर के पास मुगली गांव में अपने नानानानी के पास रह कर खेती का काम संभालता है. इस तरह उन की पत्नी विनीता दिन भर में अकेली रह जाती थी. इसलिए शाम को स्टेशन से उतर कर घर जाने से पहले मनीष पत्नी को फोन जरूर करते थे ताकि घर की जरूरत का सामान रास्ते से खरीदते हुए घर पहुंचे.

उस रोज भी मनीष ने जबलपुर स्टेशन से बाहर निकल कर पत्नी विनीता से बात की और फिर सीधे घर पहुंच गए. घर पहुंचने तो उन्हें दरवाजे के चैनल गेट पर अंदर से ताला पड़ा मिला. घर में अकेले रहने पर विनीता चैनल पर ताला लगा देती थी. मनीष ने घंटी बजाई और कुछ देर तक पत्नी द्वारा दरवाजा खोलने का इंतजार किया. लेकिन काफी देर बाद भी विनीता दरवाजा खोलने नहीं आई तो मनीष ने कई बार दरवाजा पीटा व घंटी बजाई. उन्होंने पत्नी के मोबाइल पर भी रिंग की परंतु कोई परिणाम नहीं निकला.
इसी बीच पड़ोस में रहने वाले अशोक वर्मा बाहर आए तो मनीष को दरवाजे पर खड़ा देख कर वह एक मिनट उन के पास रुक कर बात करने लगे. तब मनीष ने विनीता द्वारा दरवाजा न खोलने की बात उन्हें बताई तो अशोक शर्मा ने कहा कि हो सकता है कि विनीता वाशरूम में हो. अशोक मनीष को तब तक अपने घर चाय पीने के लिए ले गए.

मनीष अशोक वर्मा के घर चाय पीतेपीते भी कई बार पत्नी का मोबाइल नंबर मिलाते रहे. लेकिन पत्नी के मोबाइल की घंटी लगातार बज रही थी, पर वह फोन नहीं उठा रही थी. मनीष परेशान थे कि आखिर वह कहां है जो फोन भी नहीं उठा रही.

चाय पीने के बाद दोनों फिर बाहर आ गए. मनीष ने फिर से अपने घर की घंटी बजाई पर कोई नतीजा नहीं निकला. फिर मनीष के कहने पर अशोक वर्मा अपने घर के आंगन से बाउंड्री वाल फांद कर मनीष की छत पर पहुंचे. उन्होंने घर में उतर कर कमरे का नजारा देखा तो वहां उन्हें सब कुछ ठीक नहीं लगा.
अशोक को घबराया देख खुद मनीष भी बाउंड्री वाल फांद कर अपने घर में दाखिल हो गए. जब वह ऊपर की मंजिल पर पहुंचे तो वहां का नजारा देख कर उन के होश उड़ गए.

उन की पत्नी विनीता खून से लथपथ फर्श पर पड़ी थी. विनीता के गले में पतली रस्सी भी बंधी थी. और पास ही खून से सना बेसबौल का डंडा पड़ा था. यह सब देख कर मनीष अपना होश खो बैठे. उन्होंने तत्काल गैलरी के गेट का ताला तोड़ कर पुलिस व ऐंबुलेंस को फोन किया.

घटना की जानकारी मिलते ही गढ़ा थानाप्रभारी शफीक खान पुलिस फोर्स ले कर घटनास्थल पर पहुंच गए. पहली ही नजर में साफ था कि विनीता की मौत हो चुकी थी. गले में रस्सी बंधी थी और चेहरा पूरी तरह से खराब हो चुका था. मामला हत्या का देख कर थानाप्रभारी ने एसपी अमित सिंह, एएसपी संजीव उइक सीएसपी दीपक मिश्रा को भी घटना की जानकारी दे दी. जिस से एएसपी उइक और सीएसपी दीपक मिश्रा के अलावा एफएसएल और फिंगरप्रिंट एक्सपर्ट की टीम भी मौके पर पहुंच गई.

इंसपेक्टर खान ने पूरे मकान का बारीकी से निरीक्षण किया तो पाया कि हत्यारे ने मकान में फ्रेंडली एंट्री की थी. इस का मतलब यह निकला कि हत्यारा विनीता का परिचित ही था. घटनास्थल की जांच और जरूरी काररवाई करने के बाद पुलिस ने विनीता की लाश पोस्टमार्टम के लिए भेज दी.

पुलिस ने मनीष से पूछताछ की तो उन्होंने बताया कि उन की शाम करीब 5 बजे विनीता से फोन पर उस समय बात हुई थी जब वह ट्रेन से जबलपुर स्टेशन पर उतरे थे. स्टेशन से घर आने में उन्हें 25 मिनट लगे थे. उसी दौरान विनीता के साथ वारदात हुई थी.

चूंकि घर का सभी सामान सुरक्षित था इसलिए हत्या का मकसद लूट नहीं था. 25 मिनट में इतनी सफाई से हत्या कर हत्यारा भाग ही नहीं सकता था. इस से साफ था कि हत्यारा विनीता के साथ घर में पहले से मौजूद रहा होगा. हत्यारा विनीता का मोबाइल अपने साथ ले गया. मतलब साफ था कि मोबाइल के माध्यम से हत्यारे की पहचान संभव थी.

पुलिस ने मृतका विनीता के मोबाइल फोन की काल डिटेल्स निकलवाने के अलावा उस के बैकग्राउंड की भी जांच शुरू कर दी. इस के अलावा मनीष वाजपेयी के यहां आनेजाने वालों की सूची बना कर उन सब से भी पूछताछ की.

इस दौरान पता चला कि इन सब में से एक परिचित शहर से लापता मिला और उस का मोबाइल फोन भी बंद आ रहा था. इसलिए पुलिस ने शक की सुई उसी आदमी की तरफ घुमा दी.

इसी बीच पुलिस का ध्यान एक ऐसे फोन नंबर की तरफ भी गया जिस से विनीता के पास अकसर फोन आता था. इस नंबर पर दोनों के बीच वाट्सऐप पर हुई चैटिंग की पुलिस ने जांच की तो पता चला कि उक्त नंबर वाला युवक विनीता पर अनैतिक संबंध बनाने का दबाव बना रहा था.

पुलिस ने इसी बात को ध्यान में रख कर जांच आगे बढ़ाई तो पता चला कि घटना वाले समय उक्त फोन नंबर जबलपुर में ही था. इतना ही नहीं दोपहर 12 बजे से साढ़े 5 बजे के बीच उस की लोकेशन भी विनीता के घर के पास के टौवर के टच में थी. यह फोन घटना से 3 दिन पहले से जबलपुर में था और घटना वाले दिन सुबह के समय उस फोन से विनीता से बात भी की थी.

इसलिए पुलिस ने पूरा ध्यान इस फोन नंबर पर ही लगा दिया. उस फोन का सिमकार्ड शिवकांत उर्फ रिंकू पुत्र धर्मनारायण पांडे, निवासी बड़ा शिवाला मझनपुर, जिला कौशांबी, उत्तर प्रदेश के नाम से खरीदा गया था.

पुलिस ने इस संदिग्ध फोन नंबर को सर्विलांस पर लगा दिया. साइबर सेल की मदद से जांच टीम को जानकारी मिली कि उस फोन की लोकेशन कस्बे में कक्षपुर ब्रिज के पास है. टीम तुरंत वहां पहुंच गई और एक युवक को कक्षपुर ब्रिज के पास से गिरफ्तार कर लिया.

उस ने अपना नाम शिवकांत उर्फ रिंकू बताया. उस के कपड़ों पर खून के कुछ दाग लगे मिले जिस से पुलिस को पूरा भरोसा हो गया कि विनीता का कातिल कोई और नहीं रिंकू ही है. पूछताछ में रिंकू विनीता को जानने से भी इनकार करता रहा लेकिन जब पुलिस ने उस का मिलान विनीता के घर के पास लगे सीसीटीवी कैमरों के फुटेज से किया तो रिंकू दोपहर लगभग 12 बजे विनीता के घर आता हुआ और शाम साढ़े 5 बजे वहां से वापस जाता दिखा.

अब रिंकू सीसीटीवी फुटेज को गलत साबित नहीं कर सकता था. लिहाजा चारों तरफ से घिर जाने पर रिंकू ने अपना अपराध स्वीकार कर लिया. उस ने विनीता की हत्या की जो कहानी बताई, वह हैरान कर देने वाली निकली—

कोई 25 साल पहले नरसिंहपुर के मुगली गांव की रहने वाली विनीता की शादी नर्मदा विकास प्राधिकरण में कार्यरत मनीष वाजपेयी के साथ हुई थी. दोनों के 2 बेटे हैं.

मनीष संपन्न परिवार के अकेले बेटे थे तो वहीं विनीता भी उच्च परिवार की एकलौती बेटी थी. सरकारी नौकरी में मनीष अच्छे पद पर थे. इसलिए घर में रुपएपैसों की कोई कमी नहीं थी.

पूरा परिवार काफी सभ्य और सुलझे विचारों वाला था. विनीता धार्मिक प्रवृत्ति की थी. वह शहर में होने वाले धार्मिक आयोजनों में अकसर शामिल होती रहती थी. विनीता जितनी सुंदर देखने में थी, उतनी ही वह मन की भी साफ थी.

कुछ समय पहले वह एक धार्मिक कार्यक्रम में हिस्सा लेने वृंदावन गई थी. उस कार्यक्रम में कौशांबी से शिवकांत मिश्रा उर्फ रिंकू फोटोग्राफी करने वहां आया हुआ था. उस कार्यक्रम में शामिल कई लोग रिंकू से अपने फोटो खिंचवा रहे थे. विनीता को ऐसे मौके पर फोटो खिंचाने का शौक नहीं था. इसलिए वह चुपचाप भीड़ से अलग खड़ी थीं.  इस दौरान रिंकू की नजर विनीता पर पड़ी तो वह उस की सुंदरता पर मोहित हो गया. वह विनीता के पास आ गया और विनीता से अपनी फोटो खिंचवाने का आग्रह करने लगा.
पहले तो विनीता ने उसे मना कर दिया लेकिन जब रिंकू ने जिद की तो विनीता ने अपने कुछ फोटो उस से खिंचवाए. जिस के बाद औनलाइन फोटो भेजने के लिए रिंकू ने उन का वाट्सऐप नंबर भी ले लिया.
इस के 2 दिन बाद रिंकू ने विनीता के सारे फोटो वाट्सऐप से भेज दिए. साथ ही फोटो खिंचवाने के लिए उस ने विनीता का आभार भी व्यक्त किया.

विनीता जैसी खुद सरल स्वभाव की थी, वैसा ही वह फोटोग्राफर रिंकू को समझ रही थी. लेकिन रिंकू ऐसा था नहीं. कुछ दिन बाद फोटो मिलने की बात पूछने के बहाने रिंकू ने विनीता को फोन किया और दोस्ती बढ़ाने के लिए वह उस से मीठीमीठी बातें करने लगा. धीरेधीरे जब उस ने विनीता के घर का पता सहित उस के बारे में सब कुछ जान लिया तो वह अपनी औकात पर आ गया.

वाट्सऐप मैसेज भेज कर वह विनीता से उस की खूबसूरती की तारीफ करने लगा और बातोंबातों में उस ने उस से अपने प्यार का इजहार भी कर दिया. विनीता को यह बात अजीब लगी. कोई दूसरी महिला होती तो शायद वह उस की शिकायत पुलिस से कर देती. लेकिन विनीता ने ऐसा न कर के पहले उसे समझाने की कोशिश की लेकिन वह उसे जितना समझाने की कोशिश करती, रिंकू उतनी ही आशिकी भरी बातें करता.

विनीता ने एक गलती जो की थी, वह यह थी कि जिस रोज रिंकू ने पहली बार उस से इश्क का इजहार किया था, उसी रोज उसे बात पति को बता देनी चाहिए थी, पर नहीं बताई. दरअसल उस का सोचना था कि वह अपने स्तर से इस समस्या को सुलझा लेगी. लेकिन अब पानी सिर से ऊपर पहुंचने लगा था.
समस्या कितनी बड़ी है इस बात का अंदाजा उसे उस रोज लगा जब रिंकू कई दूसरे कार्यक्रम में फोटोग्राफी करने जबलपुर तक आने लगा. विनीता के घर का पता उस ने पहले ही ले लिया था.
उसे यह भी मालूम था कि विनीता अकसर घर पर अकेली रहती है. इसलिए वह रोज अचानक ही वह उस के घर आ धमका.

उस के घर आ कर भी वह उस से अपने प्यार का इजहार करने लगा. इस पर विनीता ने उसे समझाया, ‘‘देखो रिंकू, मैं शादीशुदा हूं, इसलिए मुझ से इस तरह की उम्मीद करना गलत है.’’
‘‘मैं शादी करने की बात कहां कर रहा हूं. मैं तो केवल साथ में एक रात बिताने की मांग कर रहा हूं.’’ रिंकू ने बेशर्मी से कहा.

उस की बात पर विनीता को गुस्सा तो बहुत आया, लेकिन कोई तमाशा खड़ा न हो इसलिए उसे समझाबुझा कर वापस भेज दिया. लेकिन इस घटना के बाद वह विनीता को वाट्सऐप पर काफी अश्लील मैसेज भेजने लगा. जिस से तंग आ कर विनीता ने उसे सख्त शब्दों में आगे से कोई मैसेज या फोन न करने की चेतावनी दे दी.

रिंकू ने पुलिस को बताया कि वह विनीता की खूबसूरती का इतना दीवाना हो चुका था कि वह हर हाल में उसे पाना चाहता था. घटना वाले दिन जब वह जबलपुर आया तो उस ने पहले ही निर्णय कर लिया था कि इस बार विनीता के घर से खाली वापस नहीं आएगा. इसलिए उस रोज मनीष के नरसिंहपुर के लिए रवाना होते ही वह उस के घर पहुंच गया.

घर पहुंच कर वह विनीता पर अपनी बात मनवाने का दबाव बनाने लगा. लेकिन विनीता ने साफतौर पर उस की बात मारने से इनकार कर दिया. इतना ही नहीं उस ने रिंकू से वहां से चले जाने को कह दिया.

लेकिन रिंकू उस के घर पर जम कर बैठ गया. इस पर विनीता ने उस से कहा कि अगर अब भी वह सही रास्ते पर नहीं आया तो वह उस की सारी वाट्सऐप चैटिंग पति को दिखा कर उस की शिकायत पुलिस से भी कर देगी. पर विनीता की बात का रिंकू पर कोई असर नहीं पड़ा.

इसी बीच शाम 5 बजे मनीष ने जबलपुर स्टेशन आ कर विनीता को फोन किया तो उस समय रिंकू वहीं बैठा था. उसे लगा कि आज विनीता अपने पति को सब कुछ बता देगी. इसलिए विनीता के साथ वह जबरदस्ती करने लगा. उस का सोचना था कि अगर वह किसी तरह से संबंध बनाने में कामयाब हो गया तो शायद वह उस की शिकायत पति से नहीं कर पाएगी.

लेकिन विनीता ने रिंकू को धक्का दे कर खुद से दूर कर दिया और बचने के लिए वह ऊपर के कमरे में भागी, जहां पीछे से रिंकू भी पहुंच गया. उसी समय रिंकू ने साथ लाई पतली रस्सी उस के गले पर कस दी जिस से उस की सांस रुक गई. फिर पास रखे बेसबौल के डंडे से उस के चेहरे पर बेहताशा वार किए. उसे लगा कि यह मर चुकी है, तो वह वहां से विनीता का फोन ले कर भाग गया.

उस ने विनीता का फोन कक्षपुरा ब्रिज के पास छिपा दिया था, जो पुलिस ने बरामद कर लिया. रिंकू का सोचना था कि विनीता ने उस की पहचान के बारे में किसी तीसरे को जानकारी नहीं दी है इसलिए उस का नाम कभी भी इस मामले में सामने न आने पर वह कभी नहीं पकड़ा जाएगा.

पर उस की सोच गलत साबित हुई. पुलिस ने रिंकू से पूछताछ करने के बाद उसे न्यायालय में पेश किया जहां से उसे जेल भेज दिया.

Short Story : दर्पण

लेखक- मंजरी सक्सेना

‘‘आजकल बड़ा लजीज खाना भेजती हो बेगम,’’ आफिस से आ कर जूते खोलते हुए सुजय ने कहा. ‘‘क्यों, अच्छा खाना न भेजा करूं,’’ मैं ने कहा, ‘‘इन दिनों कुकिंग कोर्स ज्वाइन किया है. सोचा, रोज नईनई डिश भेज कर तुम्हें सरप्राइज दूं.’’ ‘‘शौक से भेजिए सरकार, शौक से. आजकल तो सभी आप के खाने की तारीफ करते हैं,’’ सुजय ने हंस कर कहा. मैं ने आश्चर्य से पूछा, ‘‘सभी कौन?’’ ‘‘अरे भई, अभी आप यहां किसी को नहीं जानती हैं. हमें यहां आए दिन ही कितने हुए हैं. जब एक बार पार्टी करेंगे तो सब से मुलाकात हो जाएगी. यहां ज्यादातर अधिकारी मैस में ही खाना खाते हैं.

हां, मैं तुम्हें बताना भूल गया था कि निसार भी पिछले हफ्ते ट्रांसफर पर यहीं आ गया है. उसे मेरी सब्जियां बहुत पसंद आती हैं. एक दिन कह रहा था कि जब ठंडे खाने में इतना मजा आता है तो गरम कितना लजीज होगा,’’ सुजय मेरे खाने की तारीफों के पुल बांध रहे थे. मैं ने पूछा, ‘‘यह निसार क्या सरनेम हुआ?’’ ‘‘वह निसार नाम से गजलें लिखता है, वैसे उस का नाम निश्चल है,’’ सुजय ने बताया. ‘‘अच्छा,’’ कह कर मैं चुप हो गई पर चाय के उबाल के साथसाथ मेरे विचारों में भी उबाल आ रहे थे. ‘‘तुम्हें याद नहीं क्या मौली? हमारी शादी में भी निसार आया था.’’ ‘‘हूं, याद है,’’ अतीत की यादें आंधी की तरह दिल के दरवाजे में प्रवेश करने लगी थीं. मुंह दिखाई की रस्म शुरू हो चुकी थी. घर के सभी बड़े, ताऊ, चाचा, मामी, मामा कोई भी उपहार या गहना ले कर आता और पास बैठी छोटी ननद मेरा घूंघट उठा देती. बड़ों को चरण स्पर्श और छोटों को प्रणाम में मैं हाथ जोड़ देती थी. इतना सब करने पर भी मेरी पलकें झुकी ही रहतीं. घूंघट की ओट से अब तक बीसियों अनजान चेहरे देख चुकी थी. अचानक स्टेज के पास निश्चल को देखा तो हैरत में पड़ गई. सोचा, कोई दोस्त होगा, पर वह जब पास आया तो वही अंदाज. ‘भाभी, ऐसे नहीं चलेगा.

आप को मुंह दिखाई के समय आंखें भी दिखानी होंगी. कहीं भेंगीवेंगी आंख वाली तो नहीं?’ कह कर किसी ने घूंघट उठाना चाहा तो आवाज सुन कर मेरा मन हुआ कि आंखें खोल कर पुकारने वाले को देख तो लूं, पर संकोचवश पलक झपक कर रह गए थे. ‘अरे, दुलहन, दिखा दो अपनी आंखें वरना तुम्हारा यह देवर मानने वाला नहीं,’ किसी बूढ़ी औरत का स्वर सुन कर मैं ने आंखें खोल दीं. ऐसा लगा जैसे शिराओं में खून जम सा गया हो. तो यह निश्चल और सुजय आपस में रिश्तेदार हैं. मन ही मन सोचती मैं कई वर्ष पीछे लौट गई थी. निश्चल और कोई नहीं, मेरे स्कूल के दिनों का सहपाठी था जो रिकशे में मेरे साथ जाता था. सारे बच्चे मिल कर धमा- चौकड़ी मचाते थे. इत्तेफाक से कालिज में भी वह साथ रहा और 2-3 बार हमारा पिकनिक भी साथ ही जाना हुआ था. पता नहीं क्यों निश्चल की आंखों की भाषा पढ़ कर हमेशा ऐसा लगता था जैसे उस की आंखें कुछ कहनासुनना चाहती हैं. तब कहां पता था कि एक दिन पापा मेरे रिश्ते के लिए उसी का दरवाजा खटखटाने पहुंचेंगे. निश्चल का बायोडाटा काफी दिनों तक पापा की जेब में पड़ा रहा था. वह उस समय न्यूयार्क में कंप्यूटर इंजीनियर था. 2 महीने बाद भारत आने वाला था. घर वालों को फोटो पसंद आ चुकी थी. बस, जन्मपत्री मिलानी बाकी थी. हरसंभव कोशिशों के बाद भी जन्मपत्री नहीं मिली थी. चूंकि निश्चल के मातापिता जन्मपत्री में विश्वास करते थे इसलिए शादी टल गई थी. उन्हीं दिनों वैवाहिक विज्ञापन के जरिए सुजय से शादी की बात चली. सुजय से जन्मपत्री मिलते ही शादी की रस्म पूरी होगी. ‘‘क्या सोच रही हो, मौली?’’ सुजय की आवाज से मैं अतीत से वर्तमान में आ गई. ‘‘कुछ नहीं,’’ होंठों पर बनावटी हंसी लाते हुए मैं ने कहा.

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निश्चल कुछ ज्यादा मजाकिया स्वभाव का है. उस की बातों का बुरा नहीं मानना तुम. वैसे भी बेचारा अकेला है. न्यूयार्क में किसी अमेरिकन लड़की से शादी कर ली थी पर वह छोड़ कर चली गई…’’ उदार हृदय, पति बताते रहे और मैं हूं, हां करती चाय के कप से उड़ती हुई भाप देखती रही. निरीक्षण भवन में सुजय ने पार्टी का इंतजाम कराया था. खाने की प्लेट हाथ में लिए मैं खिड़की से बाहर का नजारा देखने लगी थी. रात के अंधेरे में मकानों की रोशनी आसमान में चमकते सितारों सी जगमगा रही थी. ‘‘आप बिलकुल नहीं बदलीं,’’ किसी ने पीछे से आवाज दी. निश्चल को देख कर मैं चौंक कर बोली, ‘‘आप ने मुझे पहचान लिया?’’ ‘‘लो, जिस के साथ बचपन से जवान हुआ उसे न पहचानने की क्या बात है. तब आप संगमरमर की तरह गोरी थीं, आज दूध की तरह सफेद हैं,’’ निश्चल ने कहा. ‘‘पर समय के साथ शक्ल और यादें दोनों बदल जाती हैं,’’ मैं ने यों ही कह दिया. ‘‘आप गलत कह रही हैं. समय का अंतराल यहां नहीं चल पाया. आप 13 साल पहले भी ऐसी ही थीं,’’ निश्चल ने हंसते हुए कहा तो शर्म से मेरी पलकें झुक गई थीं. तभी किसी को अपने आसपास यह कहते सुना, ‘‘ओहो, इस उम्र में भी क्या ब्लश कर रही हैं आप?’’ सुन कर मेरे गाल लाल हो गए थे. प्लेट रख कर हाथ धोने के बहाने दर्पण में अपना चेहरा देख कर मैं खुद ही शरमा गई थी. जब से निश्चल ने मेरी तारीफ में कसीदे पढ़े, मेरी जिंदगी ही बदल गई. जेहन में बारबार यह सवाल उठते कि क्यों कहा निश्चल ने मुझे संगमरमर की तरह गोरी और दूध की तरह सफेद…तब तो चौराहे की भीड़ की तरह मुझे छोड़ कर निश्चल ने पीछे मुड़ कर देखा तक नहीं और अपना रास्ता ही बदल लिया था.

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अब, जब हमारे रास्ते अलग हो गए, मंजिलें बदल गईं फिर उस कहानी को याद दिलाने की जरूरत किसलिए? मुझे किसी से भी किसी बात की शिकायत नहीं है, न क्षोभ न पछतावा, पर नियति ने क्यों मेरी जिंदगी में उस व्यक्ति को सामने खड़ा कर दिया जिस को मैं ने बचपन से चाहा. मैं सोच नहीं पाती, क्यों मन बारबार संयम का बांध तोड़ना चाहता है? क्या ऐसा नहीं हो सकता कि उस से मुलाकात का कोई रास्ता ही न रह जाए. क्लब में तो हर हफ्ते ही मुलाकात होती है. उस पर भी अगर संतोष कर लिया जाए तो ठीक लेकिन गुस्सा तो मुझे अपने ऊपर इसलिए आता था कि जिस का अब जिंदगी से कोई वास्ता नहीं तो फिर क्यों मन उस चीज को पाना चाहता है. क्यों तिरछी बौछार में भीगने की चाहत है, क्या मैं समझती नहीं, निश्चल की आंखों की भाषा? सोचसोच कर मेरी रातों की नींद उड़ने लगी थी. मुलाकातों का सिलसिला अपने आप चलता जा रहा था. अपनी भांजी की शादी में जाना था. व्यस्तताओं के चलते सुजय दिल्ली आ कर मुझे प्लेन में बैठा गए थे. वहीं निश्चल को भी प्लेन में बैठा देख कर मैं हैरान थी कि अचानक उस का कार्यक्रम कैसे बन गया था, मैं समझ नहीं पा रही थी. प्लेन में कई सीटें खाली पड़ी थीं. निश्चल मेरे पास ही आ कर बैठ गया. धरती से हजारों मील ऊपर क्षितिज को अपने बहुत पास देख कर मन पुलकित हो रहा था या निश्चल का साथ पा कर, यह मैं समझ नहीं पा रही थी.

एक दिन पेट में तेज दर्द से अचानक तबीयत खराब हो गई. फोन कर के डाक्टर को घर पर बुला लिया था. उन्होंने ब्लड टेस्ट, अल्ट्रासाउंड की रिपोर्ट देख कर कहा था कि आपरेशन करना पड़ेगा. डाक्टर ने ब्लड का इंतजाम करने को कहा क्योंकि मेरा ब्लड गु्रप ‘ओ पाजिटिव’ था. ‘‘अब क्या होगा?’’ मैं घबरा गई. ‘‘होना क्या है, कोई न कोई दाता तो मिल ही जाएगा,’’ डाक्टर ने कहा. ‘‘यहां कौन है? अभी तो हम ने किसी को खबर भी नहीं दी है,’’ सुजय ने कहा. मैं ने निश्चल को फोन मिलाया. ‘‘क्या कोई खास बात, आप परेशान लग रही हैं, मैं अभी आता हूं,’’ कह कर निश्चल ने फोन रख दिया. 10 मिनट के बाद ही निश्चल मेरे सामने था. उस को देखते ही सुजय ने कहा, ‘‘ब्लड का इंतजाम करना पड़ेगा.’’ निश्चल तुरंत अपना ब्लड टेस्ट कराने चला गया और लौट कर बोला, ‘‘सुनो, तुम्हारा और मेरा एक ही ब्लड गु्रप है.’’ ‘‘काश, घर वाले जन्मपत्री की जगह ‘ब्लड गु्रप’ मिला कर शादी करने की बात सोचते तब तो मैं जरूर ही तुम्हें कहीं न कहीं से ढूंढ़ निकालता.’’ अवाक् सी मैं निश्चल को देखती रह गई. शर्म से मेरे गाल लाल हो गए.

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सुजय ने हंस कर कहा, ‘‘फिर तो हम घाटे में रहते.’’ आपरेशन के बाद होश में आने में कई घंटे लग गए थे. पानीपानी कहते हुए मैं ने आंखें खोलीं तो सामने निश्चल को देखा. मेरी आंखें सुजय को तलाश रही थीं. मुझे देख कर निश्चल ने कहा, ‘‘सुजय सब को फोन करने गया है कि आपरेशन ठीक हो गया और होश आ गया है, लेकिन पता है भाभी, आपरेशन के बाद से अब तक सुजय ने एक बूंद पानी तक नहीं पिया है, क्योंकि आप को भी पानी नहीं देना है. वैसे आप को तो ड्रिप चढ़ाई जा रही है,’’ रूमाल से मेरे होंठों को गीला कर के निश्चल बाहर सुजय के इंतजार में खड़ा रहा. निश्चल के कहे शब्दों से मैं अंदर तक हिल गई. जिस दर्पण में भावुक, टूट कर चाहने वाले इनसान का प्रतिबिंब हो उसे मैं खंडित करने की सोच भी नहीं सकती. अगर उस में जरा सी दरार आ जाए तो वह बेकार हो जाता है. अपने मन के दर्पण को मैं खंडित नहीं होने दूंगी. ‘खंडित दर्पण नहीं बनूंगी मैं,’ मन ही मन बुदबुदा रही थी. सुजय की मेरे प्रति आस्था ने मेरी दिशा ही बदल दी. जरा सी दरार जो दर्पण को खंडित कर देती है उस से मैं अपने को संयत कर पाई.

अकेले होने का दर्द

लेखक- डा. पंकज धवन

वातावरण में औपचारिक रुदन का स्वर गहरा रहा था. पापा सफेद कुरतेपजामे और शाल में खड़े थे. सफेद रंग शांति का प्रतीक माना जाता है पर मेरे मन में सदा से ही इस रंग से चिढ़ सी थी. उस औरत ने समाज का क्या बिगाड़ा है जिस के पति के न होने पर उसे सारी उम्र सफेद वस्त्रों में लिपटी रहने के लिए बाध्य किया जाता है. मेरे और पापा के साथ हमारे कई और रिश्तेदार कतारबद्ध खड़े थे. धीरेधीरे सभी लोग सिर झुकाए हमारे सामने से चले गए और पंडाल मरघट जैसे सन्नाटे में तबदील हो गया. हमारे दूरपास के रिश्तेनाते वाले भी वहां से चले गए. सभी के सहानुभूति भरे शब्द उन के साथ ही चले गए.

कुछ अतिनिकट परिचितों के साथ हम अपने घर आ गए. पापा मूक एवं निरीह प्राणी की तरह आए और अपने कमरे में चले गए. बाकी बचे परिजनों के साथ मैं ड्राइंगरूम में बैठ गई. कुछ औपचारिक बातों के बाद मैं किचन से चाय बनवा कर ले आई. एक गिलास में चाय डाल कर मैं पापा के पास गई. वह बिस्तर पर लेटे हुए सामने दीवार पर टंगी मम्मी की तसवीर को देखे जा रहे थे. उन की आंखों में आंसू थे. ‘‘पापा, चाय,’’ मैं ने कहा. पापा ने मेरी तरफ देखा और पलकें झपका कर आंसू पोंछते हुए बोले, ‘‘थोड़ी देर के लिए मुझे अकेला छोड़ दो, मानसी.’’ उन की ऐसी हालत देख कर मेरे गले में रुकी हुई सिसकियां तेज हो गईं. मैं भी पापा को अपने मन की बात बता कर उन से अपना दुख बांटना चाहती थी, पर लगा था वह अपने ही दुख से उबर नहीं पा रहे हैं. किसे मालूम था कि मम्मी, पापा को यों अकेला छोड़ कर इस संसार से प्र्रस्थान कर जाएंगी. इस हादसे के बाद तो पापा एकदम संज्ञाशून्य हो कर रह गए. मैं ने अपनी छोटी बहन दीप्ति को अमेरिका में तत्काल समाचार दे दिया. पर समयाभाव के कारण मां के पार्थिव शरीर को वह कहां देख पाई थी. पापा इस दुख से उबरते भी कैसे. जिस के साथ उन्होंने जिंदगी के 40 वर्ष बिता दिए, मां का इस तरह बिना किसी बीमारी के मरना पापा कैसे भूल सकते थे. कई दिनों तक रोतेरोते क्रमश: रुदन तो समाप्त हो गया पर शोक शांत न हो सका. पापा की ऐसी हालत देख कर मैं ने धीरे से उन का दरवाजा बंद किया और वापस ड्राइंग- रूम में आ गई, जहां मेरे पति राहुल बैठे थे.

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चाचाजी वहां बैठे हुए हलवाई, टैंट वाले, पंडितजी आदि का हिसाब करते जा रहे थे. मुझे देखते ही उन्होंने कहा, ‘‘आजकल छोटे से छोटे कार्य में भी इतना खर्च हो जाता है कि बस…’’ यह कहतेकहते उन्होंने राहुल को सारे बिल पकड़ा दिए. मैं ने राहुल को इशारे से सब का हिसाब चुकता करने को कहा. पापा अपने गम में इतने डूबे हुए थे कि उन से कुछ भी इस समय कहने का साहस मुझ में न था. ‘‘अच्छा, मानसी बिटिया, अब मैं चलता हूं. कोई काम हो तो बताना,’’ कहते हुए चाचाजी ने मुझे इस अंदाज से देखा कि मैं कोई दूसरा काम न कह दूं और उन के साथ ही कालोनी की 3-4 महिलाएं भी चल दीं. मुझे इस बात से बेहद दुख हुआ कि मम्मी इतने वर्षों से सदा सब के सुखदुख में हमें भी नजरअंदाज कर उन का साथ देती थीं, लेकिन आज सभी ने उन के गुजरने के साथ ही अपने कर्तव्यों से भी इतिश्री मान ली थी. शाम को खाने की मेज पर मैं ने राहुल से पूछा, ‘‘तुम्हारा क्या प्रोग्राम है अब?’’ ‘‘मैं तो रात को ही वापस जाना चाहता हूं. तुम साथ नहीं चल रही हो क्या?’’ राहुल ने पूछा. ‘‘पापा को ऐसी हालत में छोड़ कर कैसे चली जाऊं,’’ मैं ने रोंआसी हो कर कहा, ‘‘लगता है ऐसे ही समय के लिए लोग बेटे की कामना करते हैं.’’ ‘‘पापा को साथ क्यों नहीं ले चलतीं,’’ राहुल बोले, ‘‘थोड़ा उन के लिए भी चेंज हो जाएगा.’’ ‘‘नहीं बेटा,’’

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तब तक पापा अपने कमरे से आ चुके थे, ‘‘तुम लोग चले जाओ, मैं यहीं ठीक हूं.’’ ‘‘पापा, आप को तो ठीक से खाना बनाना भी नहीं आता…मां होतीं तो…’’ और इतना कहतेकहते मैं रो पड़ी. ‘‘क्यों, महरी है न. तुम चिंता क्यों करती हो?’’ ‘‘पापा, वह तो 9 बजे आती है. आप की बेड टी, अखबार, दूध, नहाने के कपड़े, दवाइयां कुछ भी तो आप को नहीं मालूम…आज तक आप ने किया हो तो पता होता.’’ ‘‘उस ने मुझे इतना अपाहिज बना दिया था…पर अब क्या करूं? करना तो पडे़गा ही न…कुछ समझ में नहीं आएगा तो तुम से पूछ लूंगा,’’ कहतेकहते पापा ने मेरी तरफ देखा. उन का स्वर जरूरत से ज्यादा करुण था. ‘‘अब क्यों रुलाते हो, पापा,’’ कहते हुए मैं खाना छोड़ कर उन से लिपट गई. मेरे सिर पर स्नेहिल स्पर्श तक सीमित होते हुए पापा ने कहा, ‘‘उसी ने अभी तक सारे परिवार को एकसूत्र में बांध कर रखा था. पंछी अपना नीड़ छोड़ कर उड़ चला और यह घोंसला भी एकदम वीराने सा हो गया…मैं क्या करूं,’’ कातरता झलक रही थी उन के स्वर में. ‘‘पापा, आप हिम्मत मत हारो, कुछ दिनों के लिए ही सही, हमारे साथ ही चलो न.’’ ‘‘नहीं बेटे, जब अकेले जी नहीं पाऊंगा तो कह दूंगा,’’ फिर एक लंबी सांस लेते हुए बोले, ‘‘अभी तो यहां बहुत काम हैं, तुम्हारी मम्मी का इंश्योरेंस, बैंक अकाउंट, उन के फिक्स्ड डिपोजिट सभी को तो देखना पड़ेगा न.’’ ‘‘जैसी आप की इच्छा, पापा,’’ कह कर राहुल अपने कमरे में चले गए. अगले दिन महरी को सबकुछ सिलसिलेवार समझा कर मैं थोड़ी आश्वस्त हो गई. 2 दिन बाद… मेरी सुबह की ट्रेन थी. जाने से एक रात पहले मैं पापा के पास जा कर बोली, ‘‘पापा, कल सुबह आप मुझे छोड़ने नहीं जाएंगे.

नहीं तो मैं जा नहीं पाऊंगी,’’ इतना कह मैं भरे कंठ से वहां से चली आई थी. सुबह जल्दीजल्दी उठी. तकिये के पास पापा के हाथ की लिखी चिट पड़ी थी, ‘जाने से पहले मुझे भी मत उठाना…मैं रह नहीं पाऊंगा. साथ ही 500 रुपए रखे हैं इन्हें स्वीकार कर लेना. वैसे भी यह सारे आडंबर तुम्हारी मां ही संभालती थी.’ मैं ही जानती हूं कि मैं ने वह घर कैसे छोड़ा था. मैं हर रोज पापा को फोन करती. उन का हाल जानती, फिर महरी को हिदायतें देती. मैं अपनी सीमाएं भी जानती थी और दायरे भी. राहुल को मेरी किसी बात का बुरा न लगे इसलिए पापा से आफिस से ही बात करती. कभीकभी वह छोटीछोटी चीजों को ले कर परेशान हो जाते थे. ऊपर से सामान्य बने रहने के बावजूद मैं भांप जाती कि वह दिल से इस सत्य को स्वीकार नहीं कर पा रहे हैं. वह वहां रहने के लिए विवश थे. उन की दुनिया उन्हीं के इर्दगिर्द सिमट कर रह गई थी. एक दिन सुबह मैं ने पापा को उन के जन्मदिन की बधाई देने के लिए फोन किया.

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देर तक फोन की घंटी बजती रही और उधर से कोई उत्तर नहीं मिला. फिर मैं ने कई बार फोन किया और हर बार यही हाल रहा. मेरी घबराहट स्वाभाविक थी. तरहतरह के कुविचारों ने मन में डेरा डाल लिया. पड़ोस में रहने वाली कविता आंटी को फोन किया तो उन का भी यही उत्तर था कि घर पर शायद कोई नहीं है. मेरी आंखों मेें आंसू आ गए. पापा तो कभी कहीं जाते नहीं थे. मेरी हालत देख कर राहुल बोले, ‘‘तुम घबराओ नहीं. थोड़ी देर में फिर से फोन करना. नहीं तो कुछ और सोचते हैं.’’ ‘‘मेरा दिल बैठा जा रहा है राहुल,’’ मैं ने कहा. ‘‘थोड़ा धीरज रखो, मानसी,’’ कह कर राहुल मेज पर अखबार रख कर बोले, ‘‘हम इतनी दूर हैं कि चाह कर भी कुछ नहीं कर पा रहे और पापा यहां आना नहीं चाहते, तुम वहां जा नहीं सकतीं…’’ ‘‘तो उन को ऐसी ही हालत में छोड़ दें,’’ मैं सुबक पड़ी, ‘‘जानते हो, पापा को कुछ भी नहीं आता है. बाजार से आते ही पर्स टेबल पर छोड़ देते हैं. अलमारी में भी चाबियां लगी छोड़ देते हैं. अभी पिछले दिनों उन्होंने नई महरी रखी है…कहीं उस ने तो कुछ…आजकल अकेले रह रहे वृद्ध इन वारदातों का ही निशाना बन रहे हैं.’’ इतने में फोन की घंटी बजी. पापा की आवाज सुनी तो थोड़ी राहत महसूस हुई, मैं ने कहा, ‘‘कहां चले गए थे आप पापा, मैं बहुत घबरा गई थी.’’ ‘‘तू इतनी चिंता क्यों करती है, बेटी. मैं एकदम ठीक हूं.

तेरी मम्मी आज के दिन अनाथाश्रम के बच्चों को वस्त्र दान करती थी सो उस का वह काम पूरा करने चला गया था.’’ ‘‘पापा, आप एक मोबाइल ले लो. कम से कम चिंता तो नहीं रहेगी न,’’ मैं ने सुझाव दिया. ‘‘इस उम्र में मोबाइल,’’ कहतेकहते पापा हंस पड़े, ‘‘तू मेरी चिंता छोड़ दे बस.’’ दिन बीतते गए. उन की जिंदगी उन के सिद्धांतों और समझौतों के बीच टिक कर रह गई. मैं लगातार पापा के संपर्क में बनी रही. मुझे इस बात का एहसास हो गया कि वह लगातार सेहत के प्रति लापरवाह होते जा रहे हैं. अंगरेजी दवाओं के वह खिलाफ थे इसलिए जो देसी दवाओं का ज्ञान मुझे मां से विरासत में मिला था मैं उन्हें बता देती. कभी उन को आराम आ जाता तो कभी वह चुप्पी साध लेते. एक दिन सुबह कविता आंटी ने फोन पर बताया कि पापा सीढि़यों से फिसल गए हैं. अभी पापा को वह अस्पताल छोड़ कर आई हैं. एक दिन वह डाक्टरों की देखरेख में ही रहेंगे. शायद फ्रैक्चर हो. ‘‘उन के साथ कोई है?’’ मैं ने चिंतित होते हुए पूछा.

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‘‘आईसीयू में किसी की जरूरत नहीं होती. डाक्टर को वह जानते ही हैं,’’ कविता आंटी ने बेहद लापरवाह स्वर में कहा. कविता आंटी की बातें सुन कर मुझे दुख भी हुआ और बुरा भी लगा. इनसान इतना स्वार्थी कैसे हो सकता है. मेरा मन पापा से मिलने के लिए तड़पने लगा. राहुल ने मेरी मनोस्थिति भांपते हुए कहा, ‘‘मानसी, तुम इस तरह न अपने घर पर ध्यान दे सकोगी और न ही उन का.’’ ‘‘उन का मेरे सिवा और कोई करने वाला भी तो नहीं है. मैं ने कहीं पढ़ा था कि एक औरत की दुनिया में 2 ही मर्द सब से ज्यादा अहमियत रखते हैं. एक उस का पति जो उस की अस्मत की रक्षा करता है, दूसरा उस का पिता जो उस के वजूद का निर्माता होता है. तुम्हें तो मैं अपने से भी ज्यादा प्यार करती हूं, पर उन्हें क्या यों ही तिलतिल मरता छोड़ दूं?’’ ‘‘तो इस बार उन्हें किसी न किसी बहाने यहां ले आओ फिर सोचेंगे,’’ राहुल ने निर्देश दिया. मैं अगले ही दिन पापा के पास रवाना हो गई. अस्पताल में मैं ने उन्हें देखा तो विश्वास ही नहीं हुआ.

पापा की दयनीय स्थिति देख कर कलेजा मुंह को आ गया. वह सफेद चादर में लिपटे हुए दूसरी तरफ मुंह किए लेटे थे. डाक्टर से पता चला कि पापा हाई ब्लडपै्रैशर के मरीज हो गए हैं और उन का वजन भी घट कर अब आधा रह गया था. मैं उन के पास जा कर बैठ गई. पापा मुझे देखते ही बोले, ‘‘मानसी, तुझे किस ने बताया?’’ ‘‘पापा, तो क्या यह बात भी आप मुझ से छिपा कर रखना चाहते थे. मैं तो समझती थी कि आप ने धीरेधीरे खुद को संभाल लिया होगा…और यहां तो…’’ मेरा गला रुंध गया. बाकी के शब्द होंठों में ही फंस कर रह गए. ‘‘मैं सब बताता रहता तो तू मेरी चिंता करती…राहुल क्या सोचेगा?’’ ‘‘ठीक है पापा, मैं भी तब तक राहुल के पास नहीं जाऊंगी जब तक आप मेरे साथ नहीं चलेंगे. मेरा घर उजड़ता है तो उजड़े. मैं आप को यों अकेला छोड़ कर नहीं जा सकती.’’ ‘‘मानसी, यह क्या कह दिया तू ने,’’ कह कर वह थोड़ा उठने को हुए. तभी नर्स ने आ कर उन्हें फिर लिटा दिया. सीढि़यों से फिसलने के बाद पापा को चोट तो बहुत आई थी पर कोई फ्रैक्चर नहीं हुआ. मैं उन्हें अस्पताल से घर ले गई और बिस्तर पर लिटा दिया.

मेरी निगाहें घर के चारों तरफ दौड़ गईं. घर की हालत देख कर लगता ही नहीं था कि यहां कोई रहता है. बड़े बेढंगे तरीके से कपड़ों को समेट कर एक तरफ रखा हुआ था. पापा के बिस्तर की बदरंग चादर, सिंक में रखे हुए गंदे और चिकने बरतन, गैस पर अधपके खाने के टुकड़े और चींटियों की कतारें, समझ में नहीं आ रहा था काम कहां से शुरू करूं. आज मेरी समझ में आ रहा था कि सुचारु रूप से चल रहे इस घर में मम्मी का कितना सार्थक श्रम और निस्वार्थ समर्पण था. इस हालत में पापा को अकेले छोड़ कर जाना ठीक नहीं था. इसलिए मैं पापा को ले कर वापस अपने घर दिल्ली आ गई. 1-2 दिन मैं पूरे समय पापा के साथ ही रही. आफिस जाते हुए मुझे संकोच हो रहा था पर पापा मन की बात जान गए और निसंकोच मुझे आफिस जाने के लिए कह दिया. राहुल और मैं एक ही समय साथसाथ आफिस जाते थे. उस दिन शाम को हम लोग खाना खा रहे थे, तभी दरवाजे की घंटी बजी. मैं ने दरवाजा खोला, सामने मीरा आंटी खड़ी थीं.

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मैं ने कहा, ‘‘आइए आंटी, कहां से आ रही हैं इस समय?’’ ‘‘दिल्ली हाट तक गई थी, थोड़ी देर हो गई. सामने की दुकान से कोई पानी देने तो नहीं आया था?’’ ‘‘नहीं, अच्छा तो आप भीतर तो आइए…मेरे से एक बोतल पानी ले जाइए,’’ कहते हुए मैं वापस खाने की टेबल पर आ गई, ‘‘खाना खाएंगी न आंटी.’’ ‘‘नहीं बेटा, आज मन नहीं है.’’ मैं ने पापा को उन का परिचय कराते हुए कहा, ‘‘पापा, यह मीरा आंटी हैं. सामने के फ्लैट में रहती हैं. बेहद मिलनसार और केयरिंग भी. राहुल को जब भी कुछ नया खाने का मन करता है आंटी बना देती हैं.’’ ‘‘अरे, बस बस,’’ कह कर वह सामने आ कर बैठ गईं. मैं ने उन की तरफ प्लेट सरकाते हुए कहा, ‘‘अच्छा, कुछ तो खा लीजिए. हमारा मन रखने के लिए ही सही,’’ और इसी के साथ उन की प्लेट में मैं ने थोड़े चावल और दाल डाल दी. ‘‘लगता है आप यहां अकेली रहती हैं?’’ पापा ने पूछा. ‘‘हां, पापा,’’ इन के पति आर्मी में हैं. वहां इन को साथ रहने की कोई सुविधा नहीं है,’’ राहुल ने कहा. ‘‘फिर तो आप को बड़ी मुश्किल होती होगी अकेले रहने में?’’ ‘‘नहीं, अब तो आदत सी पड़ गई है,’’ आंटी बेहद उदासीनता से बोलीं, ‘‘बेटीदामाद भी कभीकभी आते रहते हैं, फिर जब कभी मन उचाट हो जाता है मैं उन से स्वयं मिलने चली जाती हूं.’’ ‘‘पापा, इन की बेटीदामाद दोनों डाक्टर हैं और चेन्नई के अपोलो अस्पताल में काम करते हैं,’’ मैं ने कहा. बातों का सिलसिला देर तक यों ही चलता रहा. जातेजाते आंटी बोलीं, ‘‘मैं सामने ही रहती हूं…किसी वस्तु की जरूरत हो तो बिना संकोच बता दीजिएगा.’’

‘‘आंटी, पापा को सुबह इंजेक्शन लगवाना है. किसी को जानती हैं आप, जो यहीं आ कर लगा सके.’’ ‘‘अरे, इंजेक्शन तो मैं ही लगा दूंगी…बेटी ने इतना तो सिखा ही दिया है.’’ ‘‘ठीक है आंटी, मैं सुबह इंजेक्शन भी ले आऊंगी और पट्टी भी,’’ कहते- कहते मैं भी उठ गई. ‘‘हां, बेटा, यह तो मेरा सौभाग्य होगा,’’ कह कर आंटी चली गईं. शाम को मैं आफिस से आई और पापा का हालचाल पूछा. आज वह थोड़ा स्वस्थ लग रहे थे. कहने लगे, ‘‘सुबह इंजेक्शन और डे्रसिंग के बाद थोड़ा रिलैक्स अनुभव कर रहा हूं. फिर शाम को सामने पार्क में भी घूमने गया था.’’ मैं चाहती थी पापा कुछ दिन और यहां रहें. हर रोज कोई न कोई बहाना बना कर वह जतला देते थे कि वह वापस जाना चाहते हैं. यहां रहना उन के सिद्धांतों के खिलाफ है. मेरी शंका जितनी गहरी थी पर समाधान उतना ही कठिन. मैं ने और राहुल ने भरसक प्रयत्न किया कि उन्हें यहीं पास में कोई और मकान ले देते हैं पर वह किसी भी तरह नहीं माने. फिर हम ने उन्हें इस बात के लिए मना लिया कि 1 महीने के बाद दीवाली आ रही है तब तक वह यहीं रहें.

हमारी आशाओं के अनुकूल उन्होंने यह स्वीकार कर लिया था. मुझे थोड़ी सी तसल्ली हो गई. उस दिन मैं और राहुल प्रगति मैदान जाने का मन बना रहे थे, जहां गृहसज्जा के सामान की प्रदर्शनी लगी हुई थी. मैं ने पापा को भी साथ चलने के लिए कहा. उन्होंने यह कह कर मना कर दिया कि मैं वहां जा कर क्या करूंगा. ‘‘पापा, आप साथ चलेंगे तो हमें अच्छा लगेगा. मानसी कई दिनों से माइक्रोवेव लेने का मन बना रही थी. आप रहेंगे तो राय बनी रहेगी,’’ राहुल ने विनती करते हुए कहा. ‘‘तुम्हारा मुझे इतना मान देने के लिए शुक्रिया बेटा…पर जा नहीं पाऊंगा, क्योंकि पार्क में आज इस कालोनी के बुजुर्गों की एक बैठक है.’’ हम दोनों ही वहां चले गए. प्रगति मैदान से आने के बाद जैसे ही हम ने कार पार्क की कि मीरा आंटी के घर से डाक्टर अवस्थी को निकलते देखा. मैं एकदम घबरा गई और तेजी से जा कर पूछा, ‘‘डाक्टर साहब, क्या हुआ मीरा आंटी को? सब ठीक तो है न.’’ ‘‘हां, अब सब ठीक है. उन के घर में किसी की तबीयत अचानक बिगड़ गई थी.’’ इस से पहले कि मैं कुछ सोच पाती, मीरा आंटी सामने से आती हुई बोलीं, ‘‘तुम्हारे पापा इधर हैं, तुम लोग अंदर आ जाओ.’’ ‘‘क्यों, क्या हुआ उन को?’’ ‘‘दरअसल, तुम्हारे जाने के बाद उन्होंने मेरी घंटी बजा कर कहा था कि उन्हें बहुत घबराहट हो रही है. मैं थोड़ा घबरा गई थी.

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मैं उन्हें सहारा दे कर अपने यहां ले आई और डाक्टर को फोन कर दिया. उन का ब्लडप्रैशर बहुत बढ़ा हुआ था. शायद गैस हो रही होगी. अभी उन्हें सोने का इंजेक्शन और कुछ दवाइयां दी हैं,’’ कहते हुए उन्होंने मुझे वह परचा पकड़ा दिया. ‘‘आंटी, बुढ़ापा नहीं, पापा अकेलेपन का शिकार हैं,’’ कहतेकहते मैं पापा के पास ही बैठ गई, ‘‘62 साल की उम्र भी कोई बुढ़ापे की होती है.’’ राहुल जब तक अपने फ्लैट से फ्रेश हो कर आए आंटी ने चाय बना दी. मैं पुन: पापा की इस हालत से चिंतित थी और परेशान भी. वह पूरी रात हम ने उन के पास बैठ कर बिताई. कुछ दिन और बीत गए. पापा अब फिर सामान्य हो गए थे. आंटी का हमारे घर निरंतर आनाजाना बना रहता था. हम पापा में फिर से उत्साह पैदा करने की कोशिश करते रहे. एक पल वह खुश हो जाते और दूसरे ही पल उदास और गंभीर. रविवार को हम सवेरे बरामदे में बैठे चाय पी रहे थे. बातोंबातों में राहुल ने आंटी का उदाहरण देते हुए कहा कि वह कितने मजे से जिंदगी काट रही हैं.

‘‘सचमुच वह बहुत ही भद्र और मिलनसार महिला हैं. इस उम्र में तो उन के पति को भी रिटायरमेंट ले लेना चाहिए. कब से वह अकेली जिंदगी जी रही हैं और आजकल के हालात देखते हुए एक अकेली औरत…’’ पापा बोले. ‘‘पापा, आप को एक बात बताऊं,’’ राहुल ने सारा संकोच त्याग कर कहा, ‘‘मैं ने पहले दिन आप से झूठ बोला था कि आंटी के पति आर्मी में हैं. दरअसल, उन के पति की मृत्यु 8 साल पहले हो चुकी है. तब उन की बेटी मेडिकल कालिज में पढ़ती थी. बड़ी मुश्किलों से आंटी ने उसे पढ़ाया है. पिछले ही साल उस की शादी की है.’’ ‘‘ओह, यह तो बहुत बुरा हुआ. उन्होंने कभी बताया भी नहीं.’’ ‘‘सभी लोगों को उन्होंने यही बता रखा है जो मैं ने आप को बताया था. एक अकेली औरत का सचमुच अकेला रहना कितना कठिन होता है, यह उन से पूछिए. इसलिए मैं जब भी आंटी को देखती हूं मुझे आप की चिंता होने लगती है. औरत होने के नाते वह तो अपना घर संभाल सकती हैं पर पुरुष नहीं.

उन्हें सचमुच एक सहारे की जरूरत होती है. पापा, आप को लगता है कि आप यों अकेले जीवन बिता पाएंगे…मैं बेटी हूं आप की…मम्मी के बाद आप का ध्यान रखना मेरा फर्ज है…मेरा अधिकार भी है और कर्तव्य भी…मैं जो कह रही हूं आप समझ रहे हैं न पापा…मैं मीरा आंटी की बात कर रही हूं.’’ मैं अपनी बात कह चुकी थी. और अब पापा के चेहरे पर घिर आए भावों को पढ़ने की कोशिश करने लगी. ‘‘मानसी ठीक कह रही है, पापा,’’ राहुल बोले, ‘‘बहुत दिनों तक सोचने के बाद ही डरतेडरते हम ने आप से कहने की हिम्मत जुटाई है. बात अच्छी न लगे तो हमें माफ कर दीजिए.’’ ‘‘बेटे, इस उम्र में शादी. मैं कैसे भूल पाऊंगा तुम्हारी मम्मी को, और फिर लोग क्या सोचेंगे,’’ पापा का स्वर किसी गहरे दुख में डूब गया. ‘‘पापा, लोग बुढ़ापे के लिए तो एकदूसरे का सहारा ढूंढ़ते हैं. इस उम्र में आप को कई बीमारियों ने आ घेरा है, उपेक्षित से हो कर रह गए हैं आप. अब जो हो गया उस पर हमारा जोर तो नहीं है. फिर लोगों से हमें क्या लेनादेना. आप दोनों तैयार हों तो हमें दुनिया से क्या लेना.’’

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‘‘मीरा से भी तुम ने बात की है?’’ उन्होंने बेहद संजीदगी से पूछा. ‘‘हां, पापा, हम ने उन्हें भी मुश्किल से मनाया है. यदि आप तैयार हों तो…आप हमारा हमेशा ही भला चाहते रहे हैं. क्या आप चाहते हैं कि हम सदा आप के लिए चिंतित रहें. बहुत सी बातें आप छिपा भी जाते हैं. मैं पहले भी आप से इस बारे में बात करना चाहती थी मगर हर बार संकोच की दीवार सामने आ जाती थी.’’ वह कुछ असहज भी थे और असामान्य भी, किंतु जिस लाड़ भरी निगाहों से उन्होंने मुझे देखा, मुझे लगा मेरी यह हरकत उन्हें अच्छी लगी है. ‘‘पापा, प्लीज,’’ कह कर मैं उन के पास आ कर बैठ गई, ‘‘आप को सुखी देख कर हम लोग कितनी राहत महसूस करेंगे. यह मैं कैसे बताऊं . आप की ऐसी हालत देख कर मेरा जी भर आता है. मैं आप को बहुत प्यार करती हूं पापा,’’ कहतेकहते मैं रो पड़ी. पापा धीरे से मुसकराए. शिष्टाचार के सभी बंधन तोड़ कर मैं उन से लिपट गई. महीनों से खोई हुई उन की हंसी वापस उन के चेहरे पर थी. उन का ठंडा मीठा स्पर्श आज अर्से बाद मुझे मिला था. ‘‘थैंक्स, पापा,’’ कहतेकहते मेरी आवाज आंसुओं के चलते भर्रा गई.

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