छोटी जात की बहू

दिनेश जब से काम के लिए लखनऊ गया है, उस की पत्नी भूरी परेशान है. इस की वजह है भूरी का जेठ सुरेश, जो कई बार उस के साथ गलत हरकत कर चुका है. वह हर वक्त उसे ऐसे घूरता है, मानो आंखों से ही निगल जाएगा. जब देखो तब किसी न किसी बहाने उसे छूने की कोशिश करता है.

आज सुबह तो हद ही हो गई. भूरी नहाने के बाद छत पर धोए हुए कपड़े सुखाने गई तो सुरेश उस के पीछेपीछे छत पर पहुंच गया.

भूरी बालटी से कपड़े निकाल कर रस्सी पर डाल ही रही थी कि सुरेश ने चुपचाप पीछे से आ कर उसे कमर से पकड़ लिया.

भूरी मछली की तरह तड़प कर उस की जकड़ से निकली और उस को धक्का मारते हुए सीढि़यों से नीचे भागी.

रसोई के दरवाजे पर पहुंच कर वह सास के आगे फूटफूट कर रोने लगी.

उस को इस तरह रोते देख सास ने पूछा, ‘‘क्या हुआ? क्यों रोती है?’’

भूरी बस छत की ओर उंगली उठा कर रह गई, कुछ बोल नहीं पाई.

‘‘अरे बोल न, कौन मर गया?’’

भूरी चुपचाप आंसू पोंछती हुई सास के सामने से हट कर अपनी कोठरी में आ गई. सास से जेठ की शिकायत करना फुजूल था. वह उलटा भूरी पर ही बदचलनी का आरोप लगा देती. फिर दरवाजे पर बैठ कर दहाड़ें मारमार कर सिर पटकती कि बेटे ने निचली जात की औरत से ब्याह कर के खानदान की नाक कटवा दी. देखो, खुद बदन उघाड़े घूमती है और फिर जेठ और ससुर पर इलजाम लगाती है.

इस महल्ले के ज्यादातर लोग इन्हीं लोगों की जात वाले हैं. वे इन्हीं की बातों पर भरोसा करेंगे, भूरी का दर्द कोई नहीं समझेगा. हद तो उस दिन हो गई थी, जब दिनेश पहली बार भूरी को ले कर मंदिर में गया और पुजारी ने भूरी को मंदिर की पहली सीढ़ी पर ही रोक दिया.

पुजारी ने दिनेश से साफ कह दिया कि वह चाहे तो मंदिर आए, मगर अपनी पत्नी को हरगिज न लाए.

पुजारी की बात का दिनेश विरोध भी नहीं कर पाया था, उलटे हाथ जोड़ कर पुजारी से माफी मांगने लगा था. फिर भूरी को सीढि़यों पर छोड़ कर वह मंदिर के भीतर चला गया था.

दिनेश सारे रास्ते भूरी को समझाता आया था कि अभी नईनई बात है, धीरेधीरे सब उसे स्वीकार कर लेंगे. उसे इन बातों का बुरा नहीं मानना चाहिए.

दरअसल, भूरी का परिवार दिहाड़ी मजदूर था. लखनऊ में दिनेश एक छोटे से रैस्टोरैंट में वेटर का काम करता था. उसी रैस्टोरैंट के सामने वाली मल्टीस्टोरी बिल्डिंग में काम चल रहा था, जहां भूरी अपने मांबाप और भाइयों के साथ ईंटगारा ढोने का काम कर रही थी. भूरी का पूरा परिवार बिल्डिंग के कंपाउंड में ही तंबू डाल कर रह रहा था. बिल्डिंग का काम अभी कई साल चलना था, इसलिए ठेकेदार ने गांव के कई परिवारों को यहां दिहाड़ी मजदूरी पर रखा हुआ था. इसी में से एक परिवार भूरी का भी था.

काफी समय से रात में रैस्टोरैंट का काम खत्म होने के बाद दिनेश भी इन लोगों के साथ आ कर बैठने लगा था. भूरी के भाई से उस की दोस्ती हो गई थी. दिनेश ने जब भूरी को देखा तो उस का दिल भूरी पर आ गया. भूरी को भी दिनेश अच्छा लगता था. दोनों के बीच प्यार हो गया. 2-4 बार संबंध भी बन गए, जबकि जगह भी सही नहीं थी.

दिनेश भी पूरी तरह से भूरी के लिए कुरबानी करने को तैयार हो गया. दिनेश ने भूरी के बाप से उस का हाथ मांग लिया. भूरी के बाप ने दिनेश को जातपांत समझाई, मगर दिनेश ने यह कह कर उन को चुप करा दिया कि वह ये सब बातें नहीं मानता है. उसे उन लोगों से कोई दानदहेज भी नहीं चाहिए. वे बस भूरी को उस के साथ दो कपड़ों में ब्याह दें.

भूरी के पिता को और क्या चाहिए था. अच्छाखासा लड़का मिल रहा था. पढ़ालिखा था. रैस्टोरैंट में वेटर था और उन से ऊंची जाति का था.

भूरी के परिवार वालों ने दिनेश के परिवार की ज्यादा खोजबीन नहीं की. अपने परिवार के बारे में दिनेश ने जितना बताया, उसी पर यकीन कर लिया.

दिनेश लखनऊ में 4 दोस्तों के साथ एक कमरा शेयर कर के रह रहा था. उस ने भूरी के बाप से कहा कि शादी के बाद वह जल्दी ही लखनऊ में कोई छोटा सा घर ले लेगा, तब तक भूरी को अपने साथ नहीं रख पाएगा. भूरी उन्नाव में उस के घर पर परिवार के साथ रहेगी.

भूरी के पिता राजी हो गए तो दिनेश ने लखनऊ में ही एक मंदिर में भूरी से शादी कर ली. शादी में उस के परिवार से तो कोई नहीं आया, लेकिन उस के रैस्टोरैंट के दोस्त और मालिक जरूर शामिल हुए.

शादी के बाद जब दिनेश भूरी को ले कर अपने घर उन्नाव आया, तो वहां का हाल देख कर भूरी सहम गई. सब ने मिल कर दोनों को खूब खरीखोटी सुनाई. भूरी से उस की जातपांत पूछी. दानदहेज में क्या मिला, यह पूछा. और जब पता चला कि भूरी निचली जाति की है और उस पर खाली हाथ आई है तो सब उस के दुश्मन हो गए.

शादी के बाद बस हफ्तेभर की छुट्टी दिनेश को मिली थी. हफ्ता खत्म हुआ तो वह लखनऊ जाने को तैयार हो गया. भूरी ने लाख मिन्नत की कि वह उसे अपने साथ ले चले, मगर उस ने कहा कि वह यहीं रहे और घर वालों की सेवा करे. मगर इस घर में भूरी किसी की क्या सेवा करती? वह तो यहां किसी चीज को हाथ भी नहीं लगा सकती थी. भूरी को स्वीकार करना तो दूर, यहां तो लोग उस की बेइज्जती पर ही उतर आए.

भूरी का ससुर और जेठ, जो दिन में उस पर ‘नीच जात की औरत’ बोल कर उस के हाथ का पानी भी नहीं पीते हैं, रात के अंधेरे में उस के जिस्म का सुख उठाने के लिए तैयार रहते हैं. उन की लाललाल आंखों से हर वक्त हवस टपकती है.

भूरी को पता है कि उन की इस मंशा में उस की सास की पूरी सहमति है. वे तो चाहती हैं कि भूरी के साथ कोई अनहोनी हो जाए और फिर वे उस पर आरोप लगा कर, उसे बदचलन साबित कर के घर से बाहर का रास्ता दिखा दें.

दिनेश के लखनऊ जाने के बाद तो उन का मुंह खूब खुलता है. खूब ताने मारती हैं, गालीगलौज करती हैं.

भूरी ब्याह कर आई तो सास ने बड़ी हायतोबा मचाई थी. रसोई में कदम नहीं धरने दिया था. तब दिनेश ने भूरी के लिए आंगन के कोने में एक चूल्हा और कुछ राशनबरतन का इंतजाम कर दिया था. तब से भूरी अपना और दिनेश का खाना वहीं बनाती है.

पानी के लिए जहां घर के बाकी लोग नल का इस्तेमाल करते थे, वहीं भूरी गोशाला में लगे हैंडपंप से पानी भरती थी. पिछवाड़े में बने टूटेफूटे शौचालय का भूरी इस्तेमाल करती थी. उस ने कई बार अपने जेठ को इस शौचालय के इर्दगिर्द मंडराते देखा था. वह कोशिश करती थी कि जब जेठ घर पर न हो, तभी उधर जाए.

अपने ससुर और जेठ से भूरी जैसेतैसे अपनी इज्जत बचाए हुए है. रात को वह अपनी कोठरी का दरवाजा कस के बंद करती है, फिर कमरे में पड़ी लकड़ी की अलमारी खिसका कर दरवाजे से अड़ा देती है. भूरी की जेठानी 2 बच्चों के साथ अपने मायके में ही रहती है.

दरअसल, उस की भी सास से बनती नहीं है. हालांकि वह इन्हीं लोगों की जात की है और सुना है कि बड़ी तेजतर्रार औरत है. जेठ उस से दबता है. महीने के महीने खर्चे के पैसे उसे उस के घर दे कर आता है. जब सुरेश 2-3 दिनों के लिए अपनी ससुराल जाता है, तब भूरी को बड़ा सुकून मिलता है. उस के जिस्म से लिपटी गंदी नजरों की जंजीरें थोड़ी कम हो जाती हैं. ससुर की अभी इतनी हिम्मत नहीं पड़ी है कि उसे छू ले, मगर घूरता जरूर रहता है.

दिनेश ने जाते वक्त भूरी से कहा था कि वह अपने अच्छे बरताव से घर वालों का दिल जीत ले, लेकिन यहां तो हाल ही अलग है. सब नीच कह कर उसे दुत्कारते रहते हैं और उस का उपभोग भी करना चाहते हैं. ऐसे लोगों का वह क्या दिल जीते? ऐसे लोगों को वह क्या अपना समझे? इन से तो वह हर समय डरीसहमी रहती है. पता नहीं, कब क्या कांड कर बैठें.

ऊंची जातियों के लड़के चाहे पिछड़ों की लड़कियों से शादी करें या दलितों की, मुश्किल से ही निभा पाते हैं, क्योंकि कम परिवार ही उन्हें घर में जगह देते हैं. पंडेपुजारियों का जाल चारों ओर इस तरह फैल गया है कि बारबार कुंडली, रीतिरिवाजों की दुहाई दी जाती है. इस में पिछड़ों के लड़केलड़कियां बुरी तरह पिसे हैं. वे मनचाहे से प्रेम नहीं कर सकते, दोस्ती तक करने में जाति आड़े आती है.

जब तक दिल मजबूत न हो और ऊंची या नीची जाति का पति अपने पैरों पर खड़ा न हो, ऐसी शादियों को आज की पंडा सरकार भी कोई बचाव न करेगी, यह तो खुद करना होगा. पिछड़ों का इस्तेमाल तो किया जाएगा, पर उन्हें बराबर की जगह न मिलेगी चाहे पत्नी ही क्यों न बन जाए.

तुम रोको, हम तो खेलेंगी फुटबाल

जब कभी हम किसी गलत सोच के विरोध की बात करते हैं तो हाथ में किताब या हथियार उठाने को कहते हैं, पर कुछ संथाली लड़कियों ने विरोध के अपने गुस्से की फूंक से फुटबाल में ऐसी हवा भरी है जो उन की एक लात से उस सोच को ढेर कर रही है, जो उन्हें फुटबाल खेलने से रोकती है.

मामला उस पश्चिम बंगाल का है, जहां आप को फुटबाल हर अांगन में उगी दिखाई देगी, पर जब इन बच्चियों ने इस की नई पौध लगाने की सोची तो कट्टर सोच के कुछ गांव वालों को लगा कि घुटने के ऊपर शौर्ट्स पहने हुई ये बालिकाएं उन के रिवाजों की घोर बेइज्जती कर रही हैं. इस बेइज्जती के पनपने से पहले ही उन्होंने लड़कियों में ऐसा खौफ पैदा करने की सोची कि दूसरे लोग भी सबक ले कर ऐसी ख्वाहिश मन में न पाल लें.

पर वे लड़कियां ही क्या, जो मुसीबतों से घबरा जाएं. पश्चिम बंगाल के बीरभूम जिले के पिछड़े आदिवासी संथाल समाज की इन लड़कियों में से एक है 16 साल की हांसदा. 5 भाईबहनों में सब से छोटी इस बच्ची के पिता नहीं हैं और मां बड़ी मुश्किल से रोजाना 300 रुपए कमा पाती हैं.

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ऐसे गरीब परिवार की 10वीं जमात में पढ़ने वाली हांसदा फुटबाल खेल कर अपने समाज और देश का नाम रोशन करना चाहती है. वह पहलवान बहनों गीताबबीता की तरह साबित करना चाहती है कि संथाली लड़कियां किसी भी तरह किसी से कमजोर नहीं हैं. वह पति की गुलाम पत्नी बन कर अपनी जिंदगी नहीं बिताना चाहती है कि बच्चों की देखभाल करो और घुटो घर की चारदीवारी के भीतर.

इसी तरह किशोर मार्डी भी मानती है कि वह फुटबाल से अपनी जिंदगी बदल सकती है. वह तो डंके की चोट पर कहती है कि ऐसे किसी की नहीं सुनेगी, जो उसे फुटबाल खेलने से रोकने की कोशिश करेगा.

गांव गरिया की 17 साला लखी हेम्ब्रम ने बताया कि 2 साल पहले उस का फुटबाल को ले कर जुनून सा पैदा हो गया था. एक गैरसरकारी संगठन उधनाऊ ने उसे खेलने के लिए बढ़ावा दिया था. तब ऐसा लगा था कि फुटबाल उस के परिवार को गरीबी से ऊपर उठा सकती है. पर कुछ गांव वालों के इरादे नेक नहीं थे. जब कुछ जवान लड़कों ने इन लड़कियों को शौर्ट्स में खेलते देखा तो उन्होंने इन पर बेहूदा कमैंट किए.

हद तो तब हो गई, जब नवंबर, 2018 को गांव गरिया में फुटबाल की प्रैक्टिस कर रही इन लड़कियों पर गांव के कुछ लोगों ने धावा बोल दिया. उन्होंने फुटबाल में पंचर कर के अपनी भड़ास निकाली. लेकिन जब लड़कियां नहीं मानीं तो उन सिरफिरों ने लातघूंसों से उन्हें पीटा. साथ ही, धमकी भी दी कि अगर फुटबाल खेलना नहीं छोड़ोगी तो इस से भी ज्यादा गंभीर नतीजे होंगे.

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ये गंभीर नतीजे क्या हो सकते हैं, इस का अंदाजा आसानी से लगाया जा सकता है कि लड़कियां नहीं मानीं तो उन का रेप हो सकता है, तेजाब से मुंह झुलसा दिया जा सकता है या फिर जान से ही मार दिया जा सकता है.

पर क्या इस से लड़कियों के बीच डर का माहौल बना? नहीं. वे अब जगह बदल कर फुटबाल की प्रैक्टिस करती हैं. उन के पास गांव वालों की नफरत तो खूब है, पर फुटबाल से जुड़ी बुनियादी जरूरतें नहीं हैं. वे जंगली बड़ी घास और झाडि़यों से घिरी जमीन पर फुटबाल खेलती हैं, जहां रस्सियों से बंधे बांस गोलपोस्ट के तौर पर खड़े कर दिए जाते हैं.

ऐसे उलट हालात में फुटबाल खेलती रामपुरहाट ब्लौक की गरिया और भलका पहाड़ा गांव की रहने वाली ये संथाली लड़कियां आत्मविश्वास से भरी हैं और मानो पूरे समाज से पंगा ले रही हैं कि तुम कितना भी विरोध कर लो, एक दिन हमारी लगन साबित कर देगी कि हम ने जो देखा है, उस सपने को पूरा कर के रहेंगी.

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