Bhojpuri Interview: भोजपुरी में छोटी और कुंठित फिल्में बन रही हैं – अवधेश मिश्रा

Bhojpuri Interview: भोजपुरी सिनेमा इंडस्ट्री में खलनायक का किरदार निभाने वाले कई ऐसे चेहरे हैं, जिन को परदे पर देख कर डर लगने लगता है. उन्हीं एक्टरों में से एक हैं अवधेश मिश्र, जो रविकिशन के बाद भोजपुरी के ऐसे ऐक्टर है, जिन्होंने भोजपुरी के साथसाथ तमिल सिनेमा और बौलीवुड में भी अपने दमदार रोल से दर्शकों के ऊपर अमिट छाप छोड़ी है.

अवधेश मिश्रा खलनायक के रूप में जितनी बार भी परदे पर नजर आते हैं, दर्शकों का रोमांच उतना ज्यादा बढ़ता जाता है. भोजपुरी सिनेमा इंडस्ट्री में खलनायक का किरदार निभाने में उन का कोई सानी नहीं है. उन की खलनायकी से दर्शक स्क्रीन के सामने जोश में भर उठते हैं. भोजपुरिया बैल्ट में विलेन के रूप में अवधेश मिश्र की तुलना बौलीवुड के अमरीश पुरी और आशुतोष राणा जैसे ऐक्टरों से की जाती है. उन्होंने साल 2014 में तमिल फिल्म ‘पूजाई’ और साल 2015 में बौलीवुड फिल्म ‘डर्टी पौलिटिक्स’ में लीड विलेन के रूप में दर्शकों का मन मोह लिया था. उन के फिल्मी सफर को ले कर लंबी बातचीत हुई. पेश हैं, उसी के खास अंश :

भोजपुरी फिल्मों में आप का शुरुआती सफर कैसा रहा?

जब मैं ने सिनेमा इंडस्ट्री में कदम रखा, तो शुरुआती दिनों में काफी संघर्ष का सामना करना पड़ा. लेकिन उस बुरे वक्त में मेरी पत्नी ने हाथ थाम कर मेरा मनोबल बढ़ाया. फिर समय ने पलटी ली और मुझे भोजपुरी फिल्म इंडस्ट्री सहित तमिल और हिंदी फिल्मों में लीड विलेन के तौर पर काम मिलना शुरू हुआ.

आज भोजपुरी सिनेमा केवल टैलीविजन और यूट्यूब तक ही सिमट कर रह गया है. इस की क्या वजह है?

भोजपुरी में पहले जब फिल्में बनती थीं, तो सिनेमाहाल में रिलीज होती थीं. आजकल भोजपुरी में फिल्में ही नहीं, बल्कि टैली फिल्में बन रही हैं, जो टैलीविजन पर प्रसारित और रिलीज होती हैं. इस की 80 फीसदी औडियंस औरतें हैं. जब किसी खास औडियंस को ध्यान में रख कर एक ही ढर्रे पर फिल्में बनेंगी, तो ये फिल्में सिनेमाहाल तक नहीं जा पाती हैं. यही वजह है कि भोजपुरी फिल्म इंडस्ट्री दूसरी फिल्म इंडस्ट्री से काफी पीछे छूट गई है.

आप ने दूसरी फिल्म इंडस्ट्री से भोजपुरी के पिछड़ने की बात कही है. भोजपुरी फिल्में कहां पीछे छूट रही है?

भोजपुरी फिल्में साउथ और बौलीवुड की फिल्मों से बहुत पीछे छूट चुकी हैं. दूसरी फिल्म इंडस्ट्री में माहिर डायरैक्टर और कलाकार होते हैं, वहां सिनेमा को बहुत ऊंचा दर्जा दिया जाता है, जबकि भोजपुरी सिनेमा को नाम और पैसा कमाने का जरीया मान लिया गया है. दूसरी फिल्म इंडस्ट्री के लोग सिनेमा के लिए कुछ भी कर सकते हैं, जबकि भोजपुरी वाले खुद के लिए कुछ भी कर सकते हैं.

आप भोजपुरी सिनेमा इंडस्ट्री को किस मुकाम पर देख पा रहे हैं?

पहली बात तो यह कि भोजपुरी फिल्म इंडस्ट्री नाम की कोई चीज बची ही नहीं है, क्योंकि कुछ लोगों ने इसे फिल्म इंडस्ट्री से अलबम इंडस्ट्री बना दिया है.

क्या वजह है कि भोजपुरी फिल्मों के मूल दर्शक भोजपुरी सिनेमा से कटते जा रहे हैं?

यहां के सिंगर्स ने भोजपुरी सिनेमा को दर्शक की जगह श्रोता बना दिया है. इसलिए भोजपुरी के लिए अच्छा सोचने और करने वालों को फिर से भोजपुरी सिनेमा के लिए लंबी लड़ाई लड़नी पड़ेगी. मैं ने भोजपुरी सिनेमा के जीवनकाल में एक भोजपुरी कलाकार, निर्माता और निर्देशक के तौर पर बहुत अच्छा काम किया है, लेकिन अब लड़ाई और भी गंभीर है.

पिछले कुछ सालों से सासबहू वाले एकजैसे टाइटिल की बाढ़ सी आ गई है. इस की क्या वजह है?

भोजपुरी फिल्मों का टाइटिल जो है, भोजपुरिया बैल्ट की औरतों को देख कर तय किया जा रहा है. भोजपुरिया बैल्ट में सास, बहू, ननद, भौजाई वगैरह के रिश्ते में खटास और कुंठा बढ़ती जा रही है. समाज जिस कुंठा से घिरा हुआ है, भोजपुरी में उसी कुंठा को टारगेट कर के फिल्में बन रही हैं.

महिला दर्शक फिल्मों के कैरेक्टर की जगह खुद को रख कर देखती हैं, इसलिए सासबहू वाली फिल्में ज्यादा पसंद की जा रही हैं. मेरा मानना है कि भोजपुरी में छोटी और कुंठित फिल्में बन रही हैं.

जब फिल्में सिनेमाहाल में रिलीज नहीं हो रही हैं, तो इन की कामयाबी का पैमाना कैसे मापा जाता है?

भोजपुरी फिल्मों की कामयाबी का पैमाना आजकल टैलीविजन के पैमाने पर निर्भर है, जिसे हम टीआरपी और जीआरपी के नाम से जानते हैं. लेकिन फिल्में कामयाबी मापने का यह पैमाना मु?ो मजाक जैसा लगता है.

आप की तुलना अमरीश पुरी और आशुतोष राणा जैसे दिग्गज विलेन से की जाती है. यह सुन कर आप को कैसा लगता है?

मेरी तुलना जब भी अमरीश पुरी और आशुतोष राणा जैसे कलाकारों से होती है, तो दुख होता है. क्योंकि यहां एक घटिया से घटिया अलबम भी मिलियन में देखा जाता है और अच्छे विषय, अच्छे कलाकारों व तकनीकी के साथ बनी फिल्म को दर्शक ही नहीं मिलते हैं. टीआरपी, जीआरपी और मिलियन के जमाने में सब मजाक लगने लगा है. इसलिए मेरा मानना है कि मैं अवधेश मिश्र ही रहूं और उसी रूप में मेरी पहचान हो.

उत्तर प्रदेश की तुलना में बिहार में भोजपुरी फिल्मों की शूटिंग न होने की कोई खास वजह?

पिछले कई सालों से बिहार में भोजपुरी फिल्मों की शूटिंग थम सी गई गई है. फिल्मकार बिहार सरकार के असहयोगी रवैए के चलते बिहार का रुख नहीं करते हैं, जबकि बिहार में सब से ज्यादा भोजपुरी फिल्में देखी जाती हैं.

हाल ही में भोजपुरी जगत के कुछ लोगों ने बिहार सरकार से मुलाकात की थी. आशा है, जल्दी ही बिहार में फिर से भोजपुरी शूटिंग की शुरुआत होगी. फिल्म प्रोत्साहन के मामले में उत्तर प्रदेश सरकार बहुत अच्छी है.

भोजपुरी सिनेमा को पीछे धकेलने में आप किस को दोषी मानते हैं?

भोजपुरी सिनेमा को पीछे धकेलने में केवल दोषी आजकल के सिंगर्स हैं, जिन्होंने भोजपुरी को बहुत पीछे धकेल दिया है.

मिर्जापुर में फिर से दिखेगा मुन्ना भैया का भौकाल

16 नवंबर, 2018 को अमेजन प्राइम वीडियो पर रिलीज हुई वैब सीरीज ‘मिर्जापुर’ ने दर्शकों का मनोरंजन करने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी.

इस वैब सीरीज में पंकज त्रिपाठी, अली फजल, दिव्येंदु शर्मा, विक्रांत मेस्सी, श्वेता त्रिपाठी, रसिका दुग्गल, जैसे ऐक्टर्स ने कमाल के रोल प्ले किए थे.

इस वैब सीरीज में दर्शकों ने कालीन भैया, मुन्ना भैया, गुड्डू पंडित और बबलू पंडित के अभिनय को बहुत पसंद किया था जोकि पंकज त्रिपाठी, दिव्येंदु शर्मा, अली फजल और विक्रांत मेस्सी द्वारा निभाए गए थे.

ऐक्शन और रोमांस का तड़का

इस वैब सीरीज में जम कर गालीगलौच और खूनखराबा दिखाया गया था और इस वजह से यह वैब सीरीज ए सर्टिफाइड थी. ‘मिर्जापुर’ वैब सीरीज को ज्यादातर युवाओं ने पसंद किया था.

तकरीबन 2 साल बाद 23 अक्तूबर, 2020 को ‘मिर्जापुर’ वैब सीरीज का ‘मिर्जापुर सीजन 2’ रिलीज किया गया था. ‘मिर्जापुर सीजन 2’ को भी दर्शकों ने खूब प्यार दिया और यह सीजन भी सुपरहिट साबित हुआ.

‘मिर्जापुर सीजन 2’ की सफलता के बाद दर्शकों ने ‘मिर्जापुर सीजन 3’ का बेसब्री से इंतजार करना शुरू कर दिया था. दर्शकों को यकीन था पिछले 2 सीजंस की तरह ‘मिर्जापुर सीजन 3’ भी सुपरहिट होगा लेकिन ऐसा बिलकुल नहीं हुआ.

खत्म हुआ इंतजार

पूरे 4 साल के लंबे इंतजार के बाद 5 जुलाई, 2024 को ‘मिर्जापुर सीजन 3’ रीलीज हुआ जिस ने दर्शकों की उम्मीदों पर पानी फेर दिया। वजह मुन्ना भैया यानी कि दिव्येंदु शर्मा इस सीरीज में नहीं थे.

दरअसल, ‘मिर्जापुर सीजन 3’ के शुरुआत में ही मुन्ना भैया की मृत्यु दिखा दी गई थी, जिस वजह से मुन्ना भैया पूरे सीजन में नजर नहीं आए. शो के मेकर्स को यह बात समझ आ चुकी होगी कि ‘मिर्जापुर सीजन 3’ के फ्लौप होने का कारण है मुन्ना भैया का इस सीरीज में न रहना.

हाल ही में अमेजन प्राइम वीडियो ने सोशल मीडिया पर एक वीडियो शेयर किया है जिस में उन्होनें ‘मिर्जापुर सीजन 3’ का एक बोनस ऐपिसोड रीलीज करने की घोषणा की है. आप को बता दें कि ‘मिर्जापुर सीजन 3’ का यह बोनस एपिसोड 30 अगस्त, 2024 को रिलीज हो रहा है जिस में मुन्ना भैया का कमबैक होता नजर आ रहा है.

देखने वाली बात

इस घोषित वीडियो से मिर्जापुर सीरीज के फैंस काफी खुश होते नजर आ रहे हैं. अब देखने वाली बात यह होगी कि क्या क्या ‘मिर्जापुर सीजन 3’ का यह बोनस एपिसोड दर्शकों का मनोरंजन करने में सफल हो पाएगा या नहीं।

कंगना के बदले तेवर : कड़वा बोलने वाली जबान हुई मीठी

2 ‘नैशनल अवार्ड’ जीतने के अलावा साल 2020 में ‘पद्मश्री’ से नवाजी जा चुकी अदाकारा कंगना राणावत हमेशा अपने बेखौफ बयानों के साथसाथ अपनी बेहतरीन ऐक्टिंग से हिंदी फिल्म इंडस्ट्री में पहचान बनाती आई हैं, लेकिन पिछले कुछ सालों से जब से उन्होंने एक खास राजनीतिक दल की तरफ झुक कर विवादास्पद बयान देना शुरू किया है, तब से उन का ऐक्टिंग कैरियर ग्राफ भी लगातार गिरता चला गया है. उन की ‘कट्टीबट्टी’, ‘रंगून’, ‘सिमरन’, ‘मणिकर्णिका : द क्वीन औफ झांसी’, ‘जजमैंटल है क्या’, ‘थलैवी’, ‘धाकड़’ जैसी फिल्मों ने बौक्स औफिस पर पानी तक नहीं मांगा. कंगना ने ऐक्टिंग करने के अलावा फिल्म ‘सिमरन’ की कहानी लिखी थी और ‘मणिकर्णिका : द क्वीन औफ झांसी’ का कोडायरैक्शन भी किया था.

मगर हमेशा विद्रोही स्वभाव की रही कंगना राणावत ने इन फिल्मों की नाकामी या भाजपा के प्रति अपने रवैए के चलते दूसरे राजनीतिक दलों के निशाने पर आने की कोई परवाह नहीं की. जब उन्हें अहसास हुआ कि भाजपा के प्रति उन की नरमी और स्वभाव के चलते अब बौलीवुड में बतौर हीरोइन उन्हें काम मिलने से रहा, तो कंगना राणावत ने ‘मणिकर्णिका फिल्म्स’ नामक अपनी खुद की फिल्म प्रोडक्शन कंपनी खोल ली और फिल्मों की प्रोडक्शन, डायरैक्शन और उन में ऐक्टिंग करना शुरू कर दिया.

कंगना राणावत ने एक फिल्म ‘इमरजेंसी’ का प्रोडक्शन व डायरैक्शन करने के साथ ही इस में इंदिरा गांधी का किरदार भी निभाया है, जिसे वे दिसंबर, 2023 तक सिनेमाघरों में पहुंचाना चाहती हैं. बौलीवुड का एक तबका मान कर चल रहा है कि इस फिल्म के रिलीज होने के बाद विवाद पैदा होना स्वाभाविक है.

कंगना राणावत ने अपने प्रोडक्शन हाउस के तहत फिल्म ‘टीकू वैड्स शेरू’ भी बनाई है. इस फिल्म के लेखक व डायरैक्टर साईं कबीर हैं और इस में कंगना ने ऐक्टिंग नहीं की है, बल्कि इस में नवाजुद्दीन सिद्दीकी के साथ ‘चिड़ियाखाना’ फेम हीरोइन अवनीत कौर की जोड़ी है. यह फिल्म सिनेमाघरों के बजाय 23 जून, 2023 से ओटीटी प्लेटफार्म ‘अमेजौन प्राइम’ पर स्ट्रीम होगी.

ट्रेलर लौंच पर कंगना के बदले तेवर

14 जून, 2023 को जब फिल्म ‘टीकू वैड्स शेरू’ का ट्रेलर लौंच हुआ, तो इस मौके पर कंगना राणावत अपनी अब तक की इमेज के उलट नजर आईं. उन की चालढाल में अकड़ नहीं थी और न ही उ नका चिरपरिचित अंदाज वाला मुंहफट स्वभाव ही नजर आया. उन्होंने ‘अमेजौन प्राइम’, नवाजुद्दीन सिद्दीकी और अवनीत कौर की भी जम कर तारीफ की.

तो क्या प्रोड्यूसर बनते ही कंगना राणावत की चालढाल और स्वभाव बदल गया? पत्रकार बिरादरी आज भी फिल्म ‘जजमैंटल है क्या’ के ट्रेलर लौंच के मौके पर कंगना राणावत के तेवरों को भूली नहीं है. उस समय तो उन्होंने कुछ पत्रकारों को ही आड़े हाथ लिया था. लेकिन अपनी होम प्रोडक्शन फिल्म ‘टीकू वैड्स शेरू’ के ट्रेलर लौंच के समय उन की जबान में मिठास थी.

आमतौर पर ‘नैपोटिजम, बौलीवुड के अंदर चलने वाली राजनीति, ड्रग्स वगैरह के बारे में बिना कुछ पूछे बयान देने वाली कंगना राणावत काफी सधी हुई बातें करती नजर आईं. अपनी मीठी जबान में उन्होंने साफ कर दिया कि इस फिल्म में बौलीवुड के कड़वे सच के बारे में बात की गई है. संघर्ष के दिनों में हर कलाकार को औडिशन के समय जिस रवैए से गुजरना पड़ता है, उस की भी बात की गई है.

इस मौके पर कंगना राणावत ने साफसाफ कहा, “नवाज सर सहित हम सभी उन संघर्षपूर्ण दिनों से गुजरे हैं. मुझे याद है कि लंबा संघर्ष करने के बाद साल 2006 में मुझे फिल्म ‘गैंगस्टर’ में अभिनय करने का अवसर मिला था. आज 17 साल बाद ‘टीकू वैड्स शेरू’ से मेरे कैरियर की नई शुरुआत हो रही है. आज का दिन मेरे लिए बहुत खास दिन है. आज हमारे पास सबकुछ है, स्टारडम है और फैंस हैं और दुनिया हम पर बहुत मेहरबान है, लेकिन हम ने मुंबई का दूसरा पक्ष भी देखा है और बौलीवुड के कड़वे सच से रूबरू हुए हैं.”

शायद दबे शब्दों में कंगना राणावत ‘कास्टिंग काउच’ की तरफ ही इशारा कर रही थीं, पर बाद में उन्होंने मुंबई शहर की तारीफ (याद होगा कि तकरीबन 2 साल पहले कंगना ने मुंबई शहर की जम कर बुराई की थी और शिव सेना के गुस्से का शिकार भी हुई थीं) में कसीदे पढ़ते हुए कहा, “मुंबई की सब से बड़ी खूबी है कि वह हर दिन दूसरे राज्यों से आने वाले लाखों लोगों को न सिर्फ अपने अंदर समाहित करती है, बल्कि उन का पालनपोषण भी करती है. हमारी यह फिल्म उन लोगों के लिए प्यार और प्रेमपत्र है, जो इस शहर में अपने सपने ले कर आते हैं और कहीं उन के सपने खो जाते हैं.”

इतना ही नहीं, कंगना राणावत ने बड़ी विनम्रता के साथ स्वीकार किया कि यह फिल्म पुरानी फिल्म है, जो नए नाम के साथ आ रही है. उन्होंने कहा, “तकरीबन 8 साल पहले एक फिल्म की प्रैस वार्ता हुई थी. उस फिल्म का नाम था ‘डिवाइन लवर्स’, जिस का लेखन व डायरैक्शन साईं कबीर कर रहे थे और इस में मेरे साथ इरफान खान अभिनय करने वाले थे, पर साईं कबीर के बीमार हो जाने से यह फिल्म नहीं बनी. 4 साल तक वे बीमार रहे. इसी बीच इरफान साहब का भी देहांत हो गया. अब हम ने उसी को ‘टीकू वैड्स शेरू’ के नाम से बनाया है.”

‘टीकू वैड्स शेरू’ की कहानी के केंद्र में तसलीम टीकू खान (अवनीत कौर) और शिराज शेरू खान अफगानी (नवाजुद्दीन सिद्दीकी) हैं. दोनों ही सनकी हैं. दोनों की अपनीअपनी दुनिया है और अपनीअपनी इच्छाएं हैं.

शेरू बौलीवुड में जूनियर आर्टिस्ट है, मगर अपने गांव में वह खुद को स्टार ही बताता है. शेरू की उम्र हो गई है, पर शादी नहीं हुई है. उसे शादी करने की जल्दी भी है. उधर टीकू को बौलीवुड में हीरोइन बनना है.

टीकू जो अपने बड़े रूढ़िवादी मुसलिम परिवार के साथ भोपाल में रहती है, वह सोचती है कि शेरू से शादी कर के भोपाल से बौलीवुड पहुंच कर हीरोइन बन जाएगी, इसलिए शादी कर लेती है, जबकि दोनों में असमानताएं ही हैं. बाद में वे दोनों अंडरवर्ल्ड, ड्रग्स और रोमांस की अराजकता के बीच फंस जाते हैं और अपने दुख से निबटने के लिए एक के बाद एक ट्रैजिडी का सामना करते हैं.

सर मेडम सरपंच रिव्यू: वर्तमान सामाजिक व राजनीतिक परिवेश पर जोरदार तमाचा

  • रेटिंगः तीन स्टार
  • निर्माताः सनकाल प्रोडक्षन इंटरनेशनल
  • निर्देशकः प्रवीण मोरछले
  • कलाकारः सीमा बिस्वास,भवन तिवारी,अरियाना सजनानी,अजय चैरे,तनिष्का अठानवले,हेमंत देवलेकर, ज्योति
  • दुबे, शुभांगिनी श्रीवास
  • अवधिः एक घंटा बयालिस मिनट

मानवीय संवेदनाओं और रिष्तों को काव्यात्मक तरीके से सिनेमा में पेश करने के लिए पहचान रखने वाले फिल्मकार प्रवीण मोरछले इस बार वर्तमान सामाजिक व राजनीतिक परिदृष्य के साथ वर्तमान सरकार के समय में पुस्तकों के प्रति सरकारी रैवेए पर कटाक्ष करने वाली फिल्म ‘‘सर मेडम सरपंच’’ लेकर आए हैं,जो कि 14 अप्रैल से हिंदी व अंग्रेजी सहित सात भाषाओं में पूरे देा के सिनेमाघरों में पहुॅचने वाली है.

कहानीः

कहानी के केंद्र में अमरीका में न्यूकलियर टेक्नोलाॅजी में पीएचडी करने के बाद अपने पिता के सपने को पूरा करने के लिए एना (एरियाना सजनानी) मध्य प्रदेश के बड़गाँव में एक पुस्तकालय खोलने के लिए वापस आती है,जहां उसके चाचा गुरूदेव(हेमंत देवलेकर), दादी (सीमा बिस्वास ),चाची व चचेरी बहन (तनिष्का अठानवले ) रहती है.एना को पता चलता है कि अपने पिता की जिस जगह पर वह पुस्तकालय खोलना चाहती है,उस पर गांव के नेता राजनारायण भइया(भगवान तिवारी) ने कब्जा कर रखा है.राजनारायण की पत्नी सुधा (ज्योति दुबे) गांव की सरपंच है,पर असली सरपंच तो राज नारायण (भवन तिवारी) ही हैं. एना की दादी (सीमा विश्वास) को मोबाइल की लत है,जो अपनी पोती और बहू के साथ मनमुटाव करती है और मोाबइल पर व्हाट्सअप पर व्यस्त रहती है.एना पुस्तकालय की जगह के लिए भैयाजी (भवन तिवारी) से भिड़ जाती है.अब षुरू होता है एना का उसके पिता के सपने को साकार करने के लिए संघर्ष… जी हाॅ!एना अपने नेक काम को पूरा करने के लिए संघर्ष करती है.जबकि नेता भईया जी के इषारे पर स्कूल प्रिंसिपल से लेकर स्थानीय अधिकारियों की हास्यास्पद मांगों के चलते एना पुस्तकालय के लिए दस एनओसी नही जुटा पाती.पर जब एना खुद ही सरपंच का चुनाव लड़ने का ऐलान करती है,तो किस तरह चीजें बदलती है.राज नारायण किस तरह गिरगिट की तरह रंग बदलते हैं.

लेखन व निर्देशनः

बेहतरीन पटकथा व निर्देशन के चलते फिल्म षुरू से ही कई ज्वलंत मुद्दों को हास्य व्यंग के साथ उठाते हुए दर्षकों को बांधकर रखती है.लेकिन एना के चुनाव लड़ने के ऐलान के बाद फिल्मकार की फिल्म पर से पकड़ कुछ ढीली पड़ जाती है.‘न्यू इंडिया‘(जब दादी अपनी पोती से सवाल करती है कि ‘न्यू इंडिया का होत है?), ट्रिलियन इकोनॉमी, अमरीका की दबंगई, पाठ्यपुस्तकों में इतिहास को संशोधित करने, जाति और सांप्रदायिक राजनीति, क्राउड- फंडिंग,सोशल मीडिया,गांवों में स्वास्थ्य सेवा,ग्रामीण राजनीति,नेता बनकर गांव वालों की जमीन पर जबरन कब्जा,नारी षोशण से लेकर हर उस बात को व्यंगकार हरिषंकर परसाइ के ही अंदाज में फिल्म मेें पेश करने में फिल्मकार प्रवीण मोरछले सफल रहे हैं.मगर जब इंटरवल के बाद फिल्मकार का ध्यान चुनाव पर आ जाता है,तो वह भटक जाते हैं.फिर वह पुस्तकों को लेकर कोई बात नही करते.उन्होने फिल्म में ग्रामीण परिवेश,वर्तमान सामाजिक व राजनीतिक उथल पुथल आदि को सजीवता प्रदान की है.कई जगह वह सरकार पर हास्यव्यंग षैली में गंभीर चोट भी करते हैं.आठवीं पास नेता जी का षिक्षा को लेकर संवाद-‘‘देश की तरक्की हो रही है,तो हमें पढ़ने की क्या जरुरत.?’सरकार व षिक्षा प्रणाली पर जबरदस्त तमाचा है. स्कूल के प्रिंसिपल एना को पुस्तकालय खोलने के लिए वास्तु विभाग से एनओसी प्राप्त करने के लिए कहते हैं.क्योंकि उनकी राय में कुछ किताबें इतनी शक्तिशाली होती हैं कि वह सरकारों को हिला सकती हैं. फिल्म के कुछ संवाद- मसलन-‘पढ़ाई और नौकरी तलाकषुदा हैं. ’,‘पुस्तकें कई विचारधाराओं की होती हैं.’‘हिंदुस्तान में किताबें भी दान देना आसान नहीं.’,‘गांधी जी एक विचार धारा है,जो मिट नही सकती.’अच्छे बन पड़े हैं.

अभिनयः

पूरी फिल्म में मोबाइल पर व्यस्त रहने के साथ ही समाज व राजनीति पर बेपरवाह मगर सटक बात कह देने वाली अम्मा के किरदार में सीमा बिस्वास ने दमदार परफॉर्मेंस दी है.वह दर्षकों के दिलो दिमाग पर लंबे समय तक छायी रहती हैं. भइया जी के किरदार में भवन तिवारी कुछ जगह खतरनाक नजर आते हैं,मगर कुछ दृष्यों में वह मसत खा गए हैं.अमरीका से वापस आयी एना के किरदार में एरियाना सजनानी अपने अभिनय का जादू नही जगा पायी.हालाँकि,उनका संवाद अदायगी मेें अमरीकी लहजा उनके चरित्र को प्रामाणिक बनाता है.नाई के छोटे किरदार में अजय चैरे अपनी उपस्थिति दर्ज कराने में सफल रहे हंै.छोटी बच्ची चुटकी के किरदार में अपने अभिनय से तनिष्का अठानवले दर्षकों का मन मोह लेती हैं.कई जगह चुटकी को देखकर समझ में आता है कि वर्तमान समय के राजनीतिक व सामाजिक परिवेश में बच्चे किस तरह समय से पहले ही परिपक्व हो जाते हैं.

लॉस्ट फिल्म रिव्यू: यामी गौतम से हुई बड़ी चूक, फिल्म बेहतर होते-होते रह गई

  • रेटिंगः दो स्टार
  • निर्माताः नमह पिक्चर्स और जी स्टूडियो
  • लेखकःश्यामल सेन गुप्ता
  • संवाद लेखकः रितेश शाह
  • निर्देशकः अनिरुद्ध रौय चैधरी
  • कलाकारः यामी गौतम धर,नील भूपालन,तुशार पांडे,पंकज कपूर,कौशिक सेन,जोगी मलंग,राहुल खन्ना व अन्य.
  • अवधि: दो घंटे दस मिनट
  • ओटीटी प्लेटफार्म: जी 5

 

कोई भी आईडियोलाॅजी /विचार धारा हो,लेकिन जैसे ही उसमें हिंसा का समावेश हो जाता है,वह विचारधारा अपने आप खत्म हो जाती है.फिर जिस चीज से आप नफरत करते हैं,आप स्वयं वही बन जाते हो.इसी मूल संदेश के इर्द घूमने वाली पोलीटिकल थ्रिलर फिल्म ‘‘लाॅस्ट’’ लेकर आए हैं फिल्म ‘पिंक’ फेम फिल्मकार अनिरुद्ध रौय चैधरी.जो कि 16 फरवरी से ‘ओटीटी’ प्लेटफार्म पर स्ट्ीम हो रही है.इतना ही नही यह फिल्म दलित व अल्प संख्यकों की आवाज को संवैधानिक व असंवैधानिक सहित हर तरीके से दबाने को भी रेखांकित करती है.मगर सब कुछ अधपका सा है.

 

कहानीः

फिल्म की कहानी शुरू होती है कलकत्ता,पश्चिम बंगाल में नमिता द्वारा अपने पति अमन के साथ पुलिस स्टेशन में अपने भाई ईशान भारती के गुम होने की रिपोर्ट लिखाने से.ईशान भारती (तुशार पांडे) दलित युवक और नुक्कड़ नाटक करने वाला रंगकर्मी हैं.नमिता की बात मशहूर अपराध जगत की पत्रकार विधि (यामी गौतम) कहानी सुन लेती है,जो कि आपने माता पिता की बजाय अपने नाना व अवकाश प्राप्त प्रोफेसर श्रीवास्तव के साथ रहती है.विधि को लगता है कि इसमें रोचक कहानी है.पुलिस को ईशान की तलाश करने मंे कोई रूचि नही है.बल्कि उल्टे पुलिस इशान की बहन नमिता,बहनोई अमन व अपाहिज मां को ही परेशान करने पर आमादा नजर आती है.विधि सहानी अपने अंदाज में ईशान भारती के गायब होने का सच सामने लाने के लिए कार्य शुरू करती है.इस प्रक्रिया में पुलिस अफसरों,पुलिस कमिश्नर,मंत्री बर्मन (राहुल खन्ना),विपक्षी नेता मुखर्जी से लेकर माओवादी नेता भीष्म राणा तक षक के घेरे में आते हैं.ईशान भारती की प्रेमिका अंकिता चैहाण (पिया बाजपेयी) की चुप्पी का अपना अलग योगदान है.

 

लेखन निर्देशनः

कहानीकार व निर्देशक ने इस बात को बाखूबी चित्रित किया है कि पत्रकारिता के क्षेत्र में एक पत्रकार की प्रतिस्पर्धा व दुश्मनी दूसरे अखबार से नही बल्कि अपने ही सहकर्मी से होती है.इस बात को विधि साहनी के किरदार से समझा जा सकता है. फिल्मकार अनिरूद्ध रौय चैधरी ने  विषय अच्छा चुना.इस तरह के विषयों पर खुलकर बात करनी चाहिए,पर वह बहुत जल्द भटक गए और सब कुछ डर डर कर ही पेश किया.

फिल्म की गति धीमी होने  के साथ ही इसकी कमजोर कड़ी एडीटर व मिक्सिंग हैं.कई जगह पर फिल्म के दृश्य के परदे पर आने से पहले ही संवाद आते हैं.फिल्म की दूसरी कमजोर कड़ी यह है कि निर्देशक ने कहानी के केंद्र में पत्रकार विधि को न सिर्फ रखा है,बल्कि कहानी उसी के इर्द गिर्द घूमती रहती है,जिसके चलते दूसरे किरदारो के साथ न्याय करने में वह विफल रहे हैं.अफसोस फिल्म की नायिका घर से जिन कपड़ांे को पहनकर निकलती है,सड़क पर पहुॅचते ही उसके कपड़े बदल जाते हैं.वाह क्या बात है.

कथानक के कुछ सब प्लाॅट बेवजह कहानी को भटकाते हैं.विधि द्वारा कुटिल राजनेता बर्मन का इंटरव्यू लेना भी अजीब सा लगता है. फिल्मकार ने सब कुछ बहुत सतही स्तर पर ही पेश किया है.फिल्म में चरम पंथियों,राजनीति व मीडिया के आपराधिक गंठजोड,राजनीति व औद्योगिक घरानों ़के गंठजोड़ से लेकर मानवाधिकारों पर यह फिल्म महज अपरोक्ष रूप से ईशारा कर चुप्पी साध लेती है.तो क्या फिल्मकार ने डर की वजह से सच को फिल्म में नही पिरोया? फिल्म देखते समय कई बार लगता है कि क्या यामी गौतम के लिए ही इस फिल्म को गढ़ा गया है?

इस फिल्म की कमजोर कड़ीमंे संवाद लेखक रितेश शाह के साथ ही इसका गीत संगीत भी है.

अभिनयः

युवा क्राइम पत्रकार विधि साहनी के किरदार में यामी गौतम कई जगह चूक गयी हैं.उनके अब तक के कैरियर की यह सबसे अच्छी परफार्मेंस वाली फिल्म बनते बनते रह गयी.घटनाक्रम व परिस्थितियों के अनुरूप उनके चेहरे के भाव नहीं बदलते. वह क्राइम रिपोर्टर की बौडी लैंगवेज को भी पकड़ नही पायी.विधि के नाना व अवकाशप्राप्त प्रोफेसर के किरदार में अति अनुभवी अभिनेता पंकज कपूर हैं,जिनकी अभिनय क्षमता पर सवालिया निशान लग ही नही सकता.उन्हे परदे पर देखकर इस बात का अहसास ही नही होता कि वह अभिनय कर रहे हैं.फिल्म का जो संदेश है,वह पंकज कपूर के किरदार से ही सामने आता है.ईशान भारती के छोटे किरदार में तुशार पांडे बहुत ज्यादा प्रभावित नही करते.बल्कि उनके अभिनय में दोहराव ज्यादा नजर आता है.तुशार पांडे को अपने अभिनय को सुधारने पर ज्यादा ध्यान देने की जरुरत है.वैसे वह एक एक्टिंग स्कूल में अभिनय भी सिखाते हैं.इशान की प्रेमिका रही अंकिता चैहाण के छोटे किरदार में पिया बाजपेयी ने ठीक ठाक अभिनय किया है.धूर्त व कुटिल राजनेता बर्मन के किरदार में राहुल खन्ना हैं,जो कि अभिनेता अक्षय खन्ना के बड़े भाई व अभिनेता स्व.विनोेद खन्ना के बेटे हैं.एक भ्रष्ट और कुटिल राजनेता के किरदार में वह अपने अभिनय से छा जाते हैं.अन्य किरदार ठीक ठाक हैं.पूरी फिल्म तो पंकज कपूर की ही है.

ए मैन काल्ड ओटो रिव्यू: जिंदगी जीने के लिए होती है, आत्महत्या करने के लिए नहीं

रेटिंग: तीन स्टार

निर्माता: टाॅम हैंक्स और रीटा विल्सन
लेखकः डेविड मैगी
निर्देषकः मार्क फोस्र्टर
कलाकार: टाॅम हैंक्स, ट्यूमैन,राहेल केलर, मारियाना ट्रेविएना व अन्य…
अवधिः दो घंटे सात मिनट
प्रदर्षनः दस फरवरी से भारतीय सिनेमाघरो में,हिंदी,अंग्रेजी,तमिल ,तेलगू भाषाओ में

‘एवरीथिंग पुट टुगेदर’,‘द काइट रनर’,‘क्रिस्टोफर रौबिन’ सहित तेरह फिल्में निर्देषित कर चुके स्वीडिष फिल्मकार मार्क फोस्र्टर मानवीय रूचि वाली भावनाआंे से सराबोर फिल्म ‘‘ए मैन काल्ड ओटो’’ लेकर आए हैं.यह फिल्म स्वीडिष किताब ‘ए मैन काल्ड ओवे’’ पर आधारित है.इस किताब पर एक स्वीडिष फिल्म भी बन चुकी है.यह स्वीडिष फिल्म अपने ेदेष की सर्वाधिक कमायी करने वाली तीसरी फिल्म साबित हो चुकी है.
फिल्म इस बात को भी रेखंाकित करती है कि नियति अटल है.तो वहीं यह फिल्म परिस्थितिवष बदलते इंसानी स्वभाव और इस सवाल का जवाब भी देती है कि हर इंसान अपनी जिंदगी को अपने तरीके से जी सकता है या नहीं…? फिल्म यह संदेष भी देती है कि वह जिस इंसान के पास अच्छे दोस्त हों,उसे कोई हरा नही सकता.

कहानीः

यह कहानी एक सफलतम इंजीनियर एंडरसन उर्फ ओटो की हैं,जो कि अपनी जिंदगी के अंतिम पड़ाव पर हैं.इस उम्र में वह काफी खूसट हो गए हैं.खुद को नियमों का पहरेदार मान बैठे हैं.ओटो अपने ऊपर अपने ही पूर्व अधीनस्थ इंसान को पदोन्नत देखकर नौकरी से त्यागपत्र दे देते हैं.फिर वह बाजार से रस्सी खरीदकर लाते हैं,जिससे फांसी का फंदा बनाकर वह उस पर लटककर अपनी जिंदगी को खत्म करना चाहते हैं.पर रस्सी टूट जाती है.वह बच जाते हैं.
अपने आस पास के लोगों से वह ढंग से बात नही करते हैं.कुछ लोग इनसे तंग आ चुके हैं.उनके सामने वाले फ्लैट में एक मैक्सिन औरत मैरिसोल (मारियाना ट्रेविएनो) अपने पति टाॅमी(मैनुअल गार्सिया रुल्फो) व दो बेटियों के साथ रहने आती है.जबकि वह तीसीर बार मां बनने वाली है.एंडरसन उर्फ ओटो,मैरिसोल के साथ भी रुखा व्यवहार करते हैं.पर मैरिसोल किसी न किसी बहाने एंडरसन के करीब आने व उनसे बातें करने की कोषिष करती रहती है.मैरिसोल ,ओटो को अपने मेक्सिको के व्यंजन और कुकीज पेश करती रहती है.बार बार ओटो से मदद मांगती रहती है.ओटो ,मेरिसोल को कार चलाना भी सिखाते हैं.
बीच बीच में ओटो अपनी पत्नी सोनिया (राहेल केलर) कब्र पर जाकर फूल चढ़ते रहते हैं.इसी के साथ उनकी अतीत की जिंदगी के कुछ पन्ने सामने आते रहते हैं.
जब ओटो,मैरिसोल से उनके फोन से किसी को फोन करना चाहते हैं,तब ओटो को अपनी कहानी बतानी पड़ती हैं.तब ओटो की जिंदगी की प्रेम कहानी पता चलती है.युवावस्था में ओटो(ट्यूमैन)े की पहली मुलाकात सोन्या (राहेल केलर) से ट्ेन में एक किताब को देने से होती है,जो कि सोन्या के हाथ से सड़क पर गिर गयी थी.फिर दोनों में प्यार हो जाता है.जब सोन्या मां बनने वाली होती है,तो छठे मांह मंे दोनो नागरा फाल्स घूमने जाते हेै,वापस आते हुए बस दुर्घटनाग्रस्त हो जाती है.सोन्या अस्पताल पहुॅचती है,वह अपने बच्चे को खोने के साथ ही अपाहिज हो जाती है.उन्हे एक अलग जगह पर रखा जाता है.पर छह माह पहले ही सोन्या की मौत हो गयी थी.तब से ओटो आत्महत्या कर सोन्या के पास जल्द से जल्द पहुंचने का असफल प्रयास करते रहते हैं.इन्ही प्रयासो के बीच मारिसोल भी आती हैं.तो वहीं ट्ांस युवक के अलावा एक अन्य पड़ोसी व दोस्त रूबेन की भी कहानी चलती रहती है.

लेखन व निर्देषनः

फिल्म की धीमी गति वाली षुरूआत इसकी कमजोर कड़ी है. स्क्रिप्ट लेखन बहुत अच्छा है.इसमेंभरपूर मनोरंजन है.काॅमेडी का टच भी है.तो वहीं भावनाओं का सैलाब भी है.फिल्म में क्रोधी वभाव के बुजुर्ग इंसान की जिंदगी को सही तरीके से उकेरा गया है.फिल्म में कहीं कोई मेलोड्ामा नही है. साधारण कहानी पर जबरदस्त व प्रभावषाली पटकथा लिखी गयी है.निर्देषक ने अपनी कमाल की निर्देषकीय प्रतिभा कमाल की हैं.यह लेखन व निर्देषन की खूबी के चलते हुए ओटो की जिंदगी में बदलाव नजर आता है,जिसमें कहीं कोई मेलोड्ामा,हंगामा या संवाद बाजी नही है.पड़ोसी से रिष्तों को भी खूबसूरती से रेख्ंााकित किया गया है.फिल्म का क्लायमेक्स दर्षक की आॅंखों में आंसू आ ही जाते हैं.
यॅॅंू तो भारत में सलमान खान स्वयं ‘य हो’ व ‘बजरंगी भाईजान’ जैसी दो तीन फिल्मों मे मानवता व लोगो की मदद करने का संदेष देने वाली घटिया व अप्रभावषाली तरीके से परोस चुके हैं.मगर यहां फिल्मकार मार्क फोस्टर बिना उपदेष झाड़े मानवता व लोगों की मदद करने का संदेष पहुॅचाने मंे सफल रहते हैं.वह मनोरंजक तरीके से इस बात को भी लोगों के दिलों में उतारते हंै कि इंसान हमेषा अपनी मर्जी से अपनी जिंदगी नही जी सकता.कोई अदृष्य षक्ति उन्हे जिंदगी जीना सिखाती है.

अभिनयः

क्रोधी बुजुर्ग इंसान के किरदार में टाॅम हैंक्स ने का अभिनय दिल को छू जाता है.वह खड़ूस होने के साथ साथ लोगों की मदद करने से पीछे नहीं रहते.हर तरह के भाव उनके चेहरे पर पढ़ा जा सकता है.खड़ूस मगर अच्छे दिल वाले ओटो के चरित्र में टाॅम हैंक्स ने मानवता व इंसानियत का सबक बिना किसी प्रयास के दर्षकांे तक पहुॅचाने में ेसफल रहे है.हैंक्स ने अपने अभिनय से यह बताने में सफल रहते हैं कि ओटो का दुख लगभग उनके नियंत्रण से बाहर है और क्रोध उनकी निराशा का विकल्प है.उनके युवा वस्था के किरदार में उनके निजी जीवन के बेटे व अभिनेता ट्यूमैन ने भी कमाल का अभिनय किया है.ट्ांस किषोर के छोटे किरदार में ट्रांस अभिनेता मैक बायडा अपने अभिनय की छाप छोड़ जाते हैं.मैरीसोल के किरदार में ट्रेविनेओ मैरिसोल भी अपनी छाप छोड़ जाती हैं. टाॅमी के किरदार में मैनुअल गार्सिया रुल्फो के हिस्से करने को कुछ खास रहा ही नहीं.अन्य कलाकारों का अभिनय ठीक ठाक है.
षान्तिस्वरुप त्रिपाठी

लकड़बग्घा फिल्म रिव्यू: कमजोर स्क्रीन प्ले पर कलाकारों की बेहतरीन एक्टिंग

  • रेटिंग: तीन स्टार
  • निर्माताः फस्ट रे फिल्मस
  • निर्देषकः विक्टरमुखर्जी
  • कलाकारः अंषुमन झा,मिलिंद सोमण, रिद्धि डोगरा,परेष पाहुजा,इकक्षा केरुंग, व अन्य
  • अवधिः दो घंटे 12 मिनट

पुरुष प्रेमियों के लिए एक जानवर की क्या अहमियत होती है, इसे समझने के लिए एक्षन,इमोषन व रोमांच से भर पूर फिल्म ‘‘लकड़बग्घा’’ से बेहतर कुछ नही हो सकता. लेकिन फिल्म की धीमीगति व रोमांच की कमी अखरतीहै.

कहानीः

फिल्म की कहानी के केंद्र में कोलकता का एक साधारण युवक अर्जुन बख्षी ( अंषुमनझा ) है,जो कूरियरब्वौय और अपने इलाके के बच्चों को मार्शल आर्ट की ट्रेनिंग भी देताहै.अर्जुन को बेजुबान जानवरों से काफी प्यार करता है.उसने भारतीय नस्ल के कुत्तों को पाल रखा है.उसके पिता (मिलिंद सोमण ) ने उसे बचपन से ही बेजुबान और बेसहारा जानवरों,खास कर कुत्तों के लिए लड़ना सिखाया है.जब कोई इंसान किसी कुत्ते को नुकसान पहुंचाताहै, तो अर्जुन उसका दुष्मन बन जाता है.अर्जुन ऐसे ही पषुओं के दुष्मनों की हड्डी पसली तोड़ता रहता है.कोलकत्ता शहर में आए दिन बुरी तरह से घायल लोग मिलते हैं,इससे पुलिस हरकत में आती हैं.

इसकी जांच का जिम्मा क्राइम ब्रांच अफसर अक्षरा डिसूजा (रिद्धि डोगरा ) को सौंपा जाता है.अर्जुन बख्षी,अक्षरा का कूरियर देने जाता है ,तब दोनों की पहली मुलाकात होती है. उसके बाद अर्जुन अपने भारतीय नस्ल के कुत्ते शौंकु के लापता की षिकायतलिखने अक्षरा के पास जाता है.अपने कुत्ते षौंकू की तलाष के दौरान अर्जुन को अवैध पशु व्यापार के बारे में पता चलता है.अर्जुन को यह भी पता चलता है कि कई रेस्टोरेंट में मटन के नाम पर कुत्तों के मीट की बिरयानी खिलायी जाती है.एक दिन अचानक आर्यन की मुलाकात दुर्लभ लाल-धारी लकड़बग्घा (लकड़बग्घा) से हो जाती है,जिसे आर्यन विदेष भेजने की फिराक मेथा,पर अर्जुन उसे अपने साथ ले आने में सफल हो जाता है.

कहानी आगे  बढ़ती है और अक्षरा के साथ अर्जुन उसके भाई आर्यन डिसूजा से मिलता है और आर्यन की जानवरों के प्रतिसंवेदनशीलता की कमी से असहज महसूस करता है .परवह आर्यन के ेअसली व्यापार सेपरिचित नही होता.अर्जुन को बहुत देर से पता चलता है कि पषुओं का असली दुष्मन आर्यन डिसूजा ही है.आर्यन एक निर्दयीव्यवसायी, मांसप्रेमी, पशु-दवातस्करहै.इसके बाद अर्जुन और पशुओं के अवैध व्यापार में संलग्न आर्यन डिसूजा ( परेषपाहुजा ) के बीच युद्ध छिड़ जाताहै.अब क्या अर्जुन उन पशु सरगना का पर्दा फाश कर पाएगा?

समीक्षाः

भारतीय नस्ल के कुत्तों व जानवरों केा बाने ,उनसे प्रेम करने का एक अति आवष्यक संदेष देने वाली एक्षन व रोमांच प्रधान फिल्म की कमजोर कड़ी इसकी पटकथा है.फिल्म में रोमांचक का अभा है.फिल्मकार ने कलकत्ता में षूटिंग की है, मगर कलकत्ता पोर्ट से पषुओं की होने वाली तस्करी के दृष्योंको नही रखा है.जब कि इस तरह के दृष्य होने चाहिए थे.फिल्म कार ने कुछ बातों को महज संवादों में ही समेट दिया.हो सकता है कि बजट की कमी के चलते ऐसा किया गया हो,मगर इससे फिल्म थोड़ी कमजोर हो जाती है.इतना ही नही एक क्राइम ब्रांच अफसर अक्षरा डिसूजा आखिर अपने ही घर यानी कि अपने भाई आर्यन डिसूजा की काली करतूतों से कैसे अनजान रहती है,यह समझ से परे है.

कमजोर पटकथा के बावजूद यह फिल्म अपनी अनूठी कहानी और विनम्र शैली में काफी प्रभावशाली है.अक्षरा व अर्जुन के बीच के रोमांस को और अधिक बेहतर किया जास कता था.निर्देषक विक्टर मुखर्जी सफल रहे हैं .फिल्म के कुछ दृष्य काफी बेहतर बने हैं.यह फिल्म पष्चि मीनस्ल के पालतू जानवरों के मालिकों कीमान सिकता को उजागर करने में सफल रही है, जोदे सी कुत्तों दूर भागते हैं.फिल्म में बिना मे लोड्ामा के कुछ भावुक दृष्य भी हैं.फिल्म की धीमी गति अखरतीहै. बेल्जियन संगीतका रसाइमन फ्रैंक्के टदेसी संगीत पर अपनी छाप छोड़ने में सफल रहे हैं.जीन मार्क सेल्वा का कैमरा वर्क कमाल का है.

अभिनयः

पषु प्रेमी अर्जुन के किरदार में अंषुमन झा थोड़ा कमजोर नजर आए हैं,मगर एक्षन दृष्योंमेे ंउन्होेने जबरदस्त कमाल किया है.उनकी मेहनत साफ साफ झलकती है.मार्शल आर्ट ट्रेनर के रूप में अंशुमन झा ने अपने किरदार को बाखूबी निभाया है.अंषुमन झा में काफी संभावनाएं हैं.क्राइम ब्रांच अफसर अक्षरा के किरदार में रिद्धि डोगरा ने एक बार फिर अपने अभिनय काजलवा विखेरने मंे सफल रही हैं.क्राइम ब्रांच अफसर के तौर पर उनके अंदर क्या चल रहा है,वह क्या सोच रही हैं,इसकी भनक वहदर्ष कों कोन हीं लगने देती .दर्षक लगातार कन्फ्यूज होता रहता है कि अक्षरा,अर्जुन के साथ है या अर्जुन को गिरफ्तार करना चाहती हैं?

इस फिल्म के दोआष्र्चय जनक पर फार्मेंस हैं. एक हैं परेष पाहुजा.अब तक रोमांटिक किरदार निभाते आए परेष पाहुजा ने इस फिल्म में अहंकारी, बुद्धिमान, परिष्कृत व अवैध पषु व्यापार में संलग्न विलेन आर्यन डिसूजा  के किरदार में परेष पाहुजा एकदम नए अवतार में नजर आए हैं.तो वहीं आर्यन की राइट हैंड फाइटर के किरदार में इष्का केरुंग ने जिस तरह के खतरनाक एक्षन दृष्य किए हैं,वह बिरला कलाकार ही कर सकता है.सिक्किम पुलिस की अफसर इक्षा की यह पहली फिल्म है,मगर जबरदस्त परफार्मेंस देकर वह  किसी का ध्यान अपनी तरफ खींचने में कामयाब रही हैं.मिलिंद सोमण की प्रतिभा को जाया किया गया है.

Review: ‘वेल्ले’- समय व पैसे की बर्बादी

रेटिंग: एक़ स्टार

निर्माताः अभिषेक नामा, सुनील एस सैनी, नंदिनी शर्मा, गणेश एम सिंह, जोहरी टेलर

निर्देशकः देवेन मुंजाल

लेखकः पंकज मट्टा

कलाकारः करण देओल, आन्या सिंह, अभय देओल, मौनी रॉय, जाकिर हुसैन, विशेष तिवारी,  सावंत सिंह प्रेमी, राजेश कुमार, महेश ठाकुर,  अनुराग अरोड़ा व अन्य

अवधिः दो घंटा चार मिनट

धर्मंन्द्र के पोते और सनी देओल के बेटे करण देओल असफल फिल्म ‘‘पल पल दिल के पास’’ के बाद अब हास्य फिल्म ‘‘वेल्ल’े ’ में नजर आ रहे हैं,जो कि 2019 में प्रदर्शित तेलगू फिल्म ‘‘ब्रोचेवारेवारूरा’’ का हिंदी रीमेक है. वेले का मतलब हाते है ऐसे लोग जिनके पास र्काइे काम नहीं होता. फिल्म ‘वेले’ में भी करण देओल अपने अभिनय का जलवा दिखाने में बुरी तरह से असफल रहे हैं.

काश करण देओल धड़ाधड़ फिल्में करने की बनिस्बत अपनी अभिनय प्रतिभा को निखारने पर वक्त देते.

कहानीः

लेखक व निर्देशक ऋषि सिंह  अभय देआ देओल अपनी नई कहानी पर फिल्म बनाने के लिए निर्माता की तलाश के साथ ही अपनी इस फिल्म में मशहूर अदाकारा रोहिणी, मौनी रॉय को हीरोइन लेना चाहते है. ऋषि सिंह अभिनेत्री रोहिणी को कहानी सुनाने बैठते हैं. वह कहानी सुना रहे है.

यह कहानी 12 वीं कई वर्षां  से पढ़ रहे तीन दोस्तों- राहुल- करण देओल, राम्बो- सावंत सिंह प्रेमी और राजू- विशेष तिवारी के गैंग की है. यह वही गैंग है यानी कि ‘वेल्ले’  जो सिर्फ मस्ती करते हैं. इनकी जिंदगी का मकसद रिलैक्स करने के साथ मौज मस्ती करना है. यह तीनों जिस स्कूल में पढ़ते हैं, वहां के सख्त प्रिंसिपल राधेश्याम 1की बेटी रिया को अपने गैंग का हिस्सा बनाकर अपने गैंग को ‘आर 4’ नाम देते हैं.वास्तव मं े रिया की मां नही है.उसे पढ़ने की बजाय नृत्य का शौक है.पर रिया के पिता नृत्य के खिलाफ हैं.राहुल अपने दोस्त रितेषदीप की मदद से नृत्य का परषिक्षण दिलाने की बात करता है. पर पैसा नही है. तब रिया एक योजना बनाती है. जिसमें राहुल,रम्बो व राजू फंस जाते हैं. रिया की येाजना के अनुरूप यह लोग रिया का अपहरण कर रिया के पिता से आठ लाख रूपए वसूलते है. फिर रिया घर से भागकर राहुल के मित्र रितेषदीप की मदद से नृत्य की कोचिंग क्लासेस में प्रवेश लेती है.

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इसी बीच एक गैंग रिया का अपहरण कर रिया के कहने पर राहुल को फाने कर दस लाख रूपए की मांग करता है अन्यथा वह रिया को बेच देने की धमकी देता है.उधर ऋषि सिंह के पिता अस्पताल पहुंच गए हैं, जिनके ऑपरेशन के लिए दस लाख रूपए चाहिए.

रोहिणी उसे दस लाख रूपए देने के साथ ही ऋषि सिंह के साथ अस्पताल रवाना होती है.रास्ते में राहुल व उसके साथी यह दस लाख रूपए छीन लते हैं. फिर कई घटनाक्रम तेजी से बदलते हैं. अंततः राधेश्याम का अपनी बेटी रिया के प्रति प ्रेम उमड़ता है.राहुल ,ऋषि सिंह व राधेश्याम को पैसे वापस दे देत.सभी सुधर जाते हैं.

लेखन व निर्दशनः

इस फिल्म की सबसे बड़ी कमजारे कड़ी इसकी कथा व पटकथा तथा कथा कथन शैली है. फिल्मकार एक बात भूल जाते है कि दक्षिण भारत की कहानी को उत्तर भारत के दशर्क के लिए ज्यो का त्यों नही परासे जाना चाहिए. इसके लिए पटकथा में आवशयकक बदलाव करने के लिए मेहनत की जानी चाहिए, जो कि लेखक व निर्देशको ने नहीं किया. इतना ही नही किरदारों के लिए कलाकारो का चयन भी गलत रहा. फिल्म के निर्देशक दवे ने मुंजाल बुरी तरह से मात खा गए हैं.

फिल्म देखते समय कई जगह ऐसा लगता है कि निर्देशक ने कलाकारो से कह दिया कि कुछ करते रहा. हिसाब से करना है,यह बताना भलू गए या वह स्वयं नहीं समझ पाए.कई दृष्यों का दोहराव भी अजीबो गरीब तरीके से किया गया है. बतौर निर्देशक देवेन मुंजाल फिल्म के किरदारों और फिल्म के मूल संघर्ष को स्थापित करने में विफल रहे हैं. एडीटर ने भी अपने काम को सही ढंग से अंजाम नही दिया.

अभिनयः

राहुल के किरदार में करण दोओल ने बुरी तरह से निराश किया है. उनके चेहरे पर न भाव है और न ही किरदार के अनुरूप उनकी बौडी लैंगवेज है. करण देओल को अपनी संवाद अदायगी पर भी मेहनत करने की जरुरत है. महज सुंदर हाने से अभिनय नही आ जाता. करण देओल की बनिस्बत उनके दास्त बने विशेष तिवारी व सावंत सिंह ज्यादा बेहतर नजर आए है.

ऋषि सिंह के किरदार में अभय देओल के लिए करने को कुछ खास रहा नही. जो कुछ दृश्य उनके हिस्से आए, वह लेखक व निर्देशक की महे रबानी से उभर नही पाए. अभिनेत्री रोहिणी के किरदार में मौनी रॉय भी निराश करती है.

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मौनी रॉय खुद को सदैव सूर्खियां में रखने के लिए उल जलूल खबरें फैलाने में अपना वक्त व पैसा बर्बाद करने के अभिनय को निखारने पर ध्यान देती. मौनी रॉय की बनिस्बत रिया के किरदार में आन्या सिंह बाजी मार ले जाती है. आन्या सिंह कई दृश्यों में लोगों का ध्यान अपनी तरफ खींचन में सफल रही है. राजेश कुमार जैसे प्रतिभाशली व अनुभवी कलाकार ने यह फिल्म क्यों की,  यह समझ से परे है.

Film Review- बली: अस्पताल व डाक्टरी पेशे से जुड़े अहम मुद्दे को ‘रहस्य व रोमांच की चाशनी में’

रेटिंग: दो स्टार

निर्माता: अर्जुन सिंह बरन,कार्तिक निशानदर

निर्देशक: विशाल फूरिया

कलाकार: स्वप्निल जोशी,पूजा सावंत, बाल कलाकार

समर्थ जाधव, बाल कलाकार अभिषेक

बचनकर,प्रीतम कगने,रोहित कोकटे, संजय रणदिवे,

श्रृद्धा कौल, महेश बोडस

अवधि: एक घंटा 44 मिनट

ओटीटी प्लेटफार्म: अमजाॅन प्राइम वीडियो

कुछ समय पहले प्रदर्शित फिल्म ‘‘छोरी’’ के निर्देशक विशाल फुरिया अब एक मराठी भाषा की रहस्य व रोमांच से भरपूर फिल्म ‘‘बली’’ लेकर आए हैं, जो कि नौ दिसंबर 2021 से ‘अमेजाॅन प्राइम वीडियो’’ पर स्ट्रीम हो रही है.

फिल्म ‘बली’ में डाक्टरी पेशे से जुड़े एक अहम मुद्दे को उठाकर अस्पतालों में आम इंसानों के साथ होने वाली ठगी आदि का चित्रण है.

कहानीः

कहानी के केंद्र में मध्यम वर्गीय श्रीकांत साठे और उनका सात वर्षीय बेटा मंदार साठे है.श्रीकांत साठे की पत्नी की मौत हो चुकी है.श्रीकांत ही मंदार का पालन पोषण कर रहे हैं.मंदार अच्छा क्रिकेट खेलता है.एक दिन क्रिकेट खेलते हुए मंदार बेहोश होकर गिर पड़ता है. मंदार को जन संजीवनी अस्पताल में भर्ती किया जाता है,जहां वह एक रहस्यमयी एलिजाबेथ नामक नर्स से बातें करना शुरू करता है.

मंदार के अनुसार यह नर्स जन संजीवनी अस्पताल की पुरानी इमारत में रहती है,जो कि आठ माह से बंद पड़ी है.कहानी ज्यों ज्यों आगे बढ़ती है, त्यों त्यों रहस्य गहराता जाता है.अंततः जो सच सामने आता है,उससे इंसान दहल जाता है.

लेखन व निर्देशनः

लेखक व निर्देशक ने डाक्टरी पेशा व अस्पतालों से जुड़े एक अहम मुद्दे को रहस्य व रोमांच के ताने बाने के तहत पेश किया है. फिल्म में डाक्टरी की पढ़ाई में असफल रहे इंसान का डाक्टर के रूप में अपने पिता के अस्पताल का मुखिया बनकर लोगों को मौत के मुंह में ढकेलने से लेकर गलत रिपोर्ट के आधार पर एनजीओ से पैसे ऐठने तक के मुद्दे उठाए हैं. पर वह इसे सही अंदाज में पेश करने में बुरी तरह से असफल रहे हैं.फिल्म की गति काफी धीमी है.

निर्देशक ने बेवजह के बोझिल दृष्य पिरोकर फिल्म को लंबा खींचने के साथ ही बेकार कर दिया.वैसे निर्देषक विषाल फुरिया ने दर्शकों को डराने के मकसद से अत्यधिक कूदने वाले या भयानक भूतों के चेहरों का इस्तेमाल नहीं किया.जबकि कई दृष्यों को भयवाहता के साथ पेश करने की जरुरत थी.पर फिल्म की कहानी का रहस्य और मूल मुद्दा सब कुछ अंतिम बीस मिनट में ही समेट दिया है.

अभिनयः

सात वर्षीय बेटे के पिता श्रीकांत साठे के किरदार में स्वप्निल जोशी का अभिनय उत्कृष्ट है.मंदार के किरदार में समर्थ जाधव अपने अभिनय से लोगों को अपनी तरफ आकर्षित करता है.वह उन दृश्यों और स्थितियों में भी अत्यधिक अभिव्यंजक हैं,जो केवल सर्वश्रेष्ठ की मांग करते हैं.बाकी कलाकारों का अभिनय ठीक ठाक है.डा.राधिका के किरदार में पूजा सावंत सुंदर नजर आयी हैं,मगर अभिनय के लिए उन्हे काफी मेहनत करने की आवश्यकता है.

Film Review- बंटी और बबली 2: पुराने स्थापित ब्रांड को भुनाने की असफल कोशिश

रेटिंग: डेढ़ स्टार

निर्माता: यशराज फिल्मस

लेखक व निर्देशक: वरूण वी शर्मा

कलाकार: रानी मुखर्जी, सैफ अली खान, सिद्धांत चतुर्वेदी,  शारवरी वाघ, यशपाल शर्मा, पंकज त्रिपाठी

अवधि: 2 घंटे 13 मिनट

यशराज फिल्मस की 2005 में कान फिल्म ‘‘बंटी और बबली’’ ने बॉक्स आफिस पर जबरदस्त सफलता बटोरी थी- इस फिल्म में बंटी के किरदार में अभिषेक बच्चन और बबली के किरदार में रानी मुखर्जी थीं- छोटे शहर के इन बंटी और बबली की चालाकी व धुर्ततता ने दर्शकों का दिल जीत लिया था-अब 16 वर्ष बाद यशराज फिल्मस अपनी इसी फिल्म का सिक्वअल ‘‘बंटी और बबली2’’ लेकर आया है,जिसमें बबली के किरदार में रानी मुखर्जी हैं, मगर बंटी के किरदार में अभिषेक बच्चन की जगह पर

सैफ अली खान आ गए हैं. इसी के साथ नई  पीढ़ी के बंटी के किरदार में सिद्धांत चतुर्वेदी और बबली के किरदार में शारवरी वाघ हैं.  मगर सिक्वअल फिल्म ‘‘बंटी और बबली 2’’ की वजह से पुराने ब्रांड को नुकसान पहुंचाता है.

कहानीः

अब बंटी और बबली धुर्ततता छोड़कर फुरसगंज में रह रहे हैं- बंटी यानी कि राकेश त्रिवेदी ( सैफ अली खान) अब रेलवे में नौकरी कर रहे हैं-बबली यानी कि विम्मी त्रिवेदी (रानी मुखर्जी)  अब एक साधारण गृहिणी  हैं- उनका अपना एक बेटा है- अचानक एक दिन पता चलता है कि बंटी और बबली की तर्ज पर काम करने वाले कुणाल सिंह (सिद्धांत चतुर्वेदी) और सोनिया कपूर (शारवरी वाघ) नामक दो ठग पैदा हो गए हैं.

जिन्होने बंटी और बबली स्टाइल में ठगी करने के बाद लोगों के पास  पास बंटी और बबली का पुराना लेबल छोड़ देते हैं. यह दोनों कम्प्यूटर इंजीनियर हैं, मगर नाकैरी न मिलने के कारण इस काम में लग गए हैं. अब उनका मूल मंत्र ठगों और ऐश करो हो गया है. मगर ठगी के 16 वर्ष पुराने वाले तरीके  ही आजमा रहे हैं- नए बंटी  और बबली के कारनामों के चलते पुलिस विभाग  हरकत में आता है- अब दशरथ सिंह के रिटायरमेट की वजह से पुलिस अफसर जटायु सिंह (पंकज त्रिपाठी) इसकी जांच शुरू करते हैं, उन्हं लगता है कि पुराने बंटी और बबली वापस अपनी कारगुजारी दिखा रहे हैं, इसलिए, वह इन्हें पकड़ कर जेल में डाल देता है- लेकिन न, बंटी और बबली दूसरी ठगी करते हैं, तब जटायु सिंह को अहसास हो जाता है कि जिन्हे उन्होंने जिसे जेल में बंद किया है, वह निर्दोष हैं- तब वह इन्हें नए बंटी और बबली को पकड़ने की जिम्मेदारी देता है- अब चूहे बिल्ली का खेल शुरू होता है-फिर कहानी फुरसत गंज से आबू धाबी व दिल्ली तक जाती है-इस बीच जटायु सिंह की बेवकूफियां भी उजागर होती रहती ह हैं-

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लेखन व निर्देशनः

इस नई सिक्वअल फिल्म से उम्मीद थी कि बंटी और बबली नए अंदाज में ठगी ,छल, धोखा देने वाला काम करेंगे पर वह तो वही 16 वर्ष पुराना तरीका ही अपनाते हुए नजर आते हैं- यह फिल्म डिजिटल युग  में बनी हैं-इ सके बंटी और बबली कम्प्यूटर इंजीनियर हैं, मगर वह इटंरनेट का उपयोग कर ठगी नहीं करते हैं- पिछली फिल्म में बंटी आ और बबली ने ताजमहल बेचा था तो  नए  बंटी और बबली ने गंगा का पानी बेच दिया. मगर नए बंटी और बबली कुछ भी नया करते हुए  नजर नहीं आते- फिल्म की सबसे बड़ी कमजारे यह है कि 16 साल पुरानी फिल्म के मसालों से पुरानी कढ़ी में उबाल लान का  असफल प्रयास किया गया है- निर्देशक वरुण वी शर्मा अपना कमाल नही दिखा पाया- ‘यशराज फिल्मस’ के आदित्य चोपड़ा ने अपने स्थापित ब्राडं को तहस नहस करने के अलावा कुछ नही किया- संवाद बहुत साधारण है- ठगी के दृ’य भी रोमाचंक या फनी नहीं है. पटकथा काफी कमजार है- इसका एक भी गाना करणप्रिय नहीं है. फिल्म की गति काफी धीमी है- होली का दृश्य भी मजा किरकिरा करता है-

अभिनय:

सैफअली खान व रानी मुखर्जी  का अभिनय औसत दर्जे का ही है-पुरानी फिल्म के अनुरूप इस फिल्म में बंटी व बबली के रूप में सैफ अली खान व रानी मुखर्जी के बीच कमिस्ट्री जम नहीं पायी है.

शारवरी वाघ महज खूबसूरत नजर आती हैं, मगर उनका अभिनय काफी कमजोर है- सिद्धांत चतुर्वेदी भी कुछ खास कमाल नही दिखा पाया  हैं-जटायु सिंह के किरदार में अभिनेता पंकज त्रिपाठी अपने आपको दोहराते हुए नजर आये हैं. यशपाल शर्मा  ने यह फिल्म क्यो की, यह समझ से परे है.

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