विपक्ष की ऐतिहासिक एकता : सत्ता डरी हुई क्यो है

पटना में बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के आह्वान पर राहुल गांधी, ममता बनर्जी, लालू यादव, शरद पवार और अन्य महत्त्वपूर्ण नेताओं की “विपक्षी एकता” को देखकर भारतीय जनता पार्टी और उसकी सरकार के माथे पर साफ-साफ पसीना देखा जा सकता है. लोक तंत्र में सत्ता के विरुद्ध विपक्ष का एक होना एक सामान्य बात है. अब लोकसभा चुनाव में ज्यादा समय नहीं है ऐसे में अगर विपक्ष एक हो रहा है तो यह भारतीय जनता पार्टी और नरेंद्र मोदी सरकार के लिए स्वाभाविक रूप से चिंता का विषय है. क्योंकि जब तक विपक्ष में एकता नहीं है भारतीय जनता पार्टी सत्ता में बनी रहेगी यह सच विपक्ष के सामने भी और सत्ता में बैठी भाजपा के नेताओं को भी पता है. यही कारण है कि जब पटना में विपक्ष के लगभग सारे राजनीतिक दलों में एक सुर में भारतीय जनता पार्टी को 2024 के लोकसभा चुनाव में उखाड़ फेंकने का ऐलान किया तो भारतीय जनता पार्टी और उसके नेता तिलमिला गए उनके बयानों से दिखाई देता है कि उन्हें अपनी कुर्सी हिलती हुई दिखाई दे रही है . दरअसल ,भारतीय जनता पार्टी और आज की केंद्र सरकार का एजेंडा जगजाहिर हो चुका है. बड़े-बड़े नेता यह ऐलान कर चुके हैं कि हम तो 50 सालों तक सत्ता पर काबिज रहेंगे, यह बोल कर के इन भाजपा के नेताओं और सत्ता में बैठे चेहरों ने बता दिया है कि उनकी आस्था लोकतंत्र में नहीं है और सत्ता उन्हें कितनी प्यारी है. और उनकी मंशा क्या है यही कारण है कि आज एक वर्ग द्वारा लोकतंत्र को खतरे में माना जा रहा है. क्योंकि सत्ता में बैठे हुए अगर यह कहने लगे कि हम तो उसी छोड़ेंगे ही नहीं इसका मतलब यह है कि असंवैधानिक तरीके से सत्ता पर काबिज रहने के लिए आप कुछ भी कर सकते हैं. यही कारण है कि विपक्ष आरोप लगा रहा है कि नरेंद्र मोदी सरकार की नीतियां कुछ इस तरह की है जिससे चंद लोगों को लाभ है अदानी और अंबानी इसके बड़े उदाहरण हमारे सामने हैं. अब हालात यह है कि विपक्षी दलों के एकजुट होने की कोशिश की आलोचना करते हुए पटना की बैठक को ‘स्वार्थ का गठबंधन’, ‘नाटक’ और ‘तस्वीर खिंचवाने का अवसर बताकर भारतीय जनता पार्टी के नेता अपना बचाव कर रहे हैं.

भाजपा की बैचेनी जगजाहिर

बिहार की राजधानी पटना में विपक्षी दलों की ओर से साल 2024 के लोकसभा चुनाव में साथ मिलकर लड़ने की घोषणा के तत्काल बाद दिल्ली मे पार्टी मुख्यालय केंद्रीय मंत्री स्मृति ईरानी मोर्चा संभाला और कहा ” जो राजनीतिक दल कभी एक दूसरे को आंखों नहीं सुहाते थे, वे भारत को आर्थिक प्रगति से वंचित करने के संकल्प से एकत्रित हुए हैं.”
अपने चिर परिचित अंदाज में स्मृति ईरानी ने कहा, ‘कहा जाता है कि भेड़िये शिकार के लिए झुंड में आते हैं और यह राजनीतिक झुंड पटना में मिला. उनका ‘शिकार’ भारत का भविष्य है.’
महत्वपूर्ण बात या की पटना में विपक्षी एकता चल रही थी और केंद्रीय गृहमंत्री और भाजपा के चाणक्य कहे जाने वाले अमित शाह जम्मू मे थे उनसे भी नहीं रहा गया और बोल पड़े ” विपक्षी एकता लगभग असंभव है. उन्होंने कहा, ‘आज पटना में एक फोटो सेशन चल रहा है। सारे विपक्ष के नेता संदेश देना चाहते हैं कि हम भाजपा और मोदी को चुनौती देंगे मैं सारे विपक्ष के नेताओं को यह कहना चाहता हूं कि कितने भी हाथ मिला लो, आपकी एकता कभी संभव नहीं है और हो भी गई … कितने भी इकट्ठा हो जाइए और जनता के सामने आ जाइए…. 2024 में 300 से ज्यादा सीटों के साथ मोदी का प्रधानमंत्री बनना तय है.’
दूसरी तरफ भारतीय जनता पार्टी के अध्यक्ष जेपी नड्डा उड़ीसा कालाहांडी में थे, उन्होंने वहीं से कहा “आज जब सभी विपक्षी दल पटना में गलबहियां कर रहे हैं तो उन्हें आश्चर्य होता है कि कांग्रेस विरोध के साथ अपनी राजनीति को आगे बढ़ाने वाले नेताओं की स्थिति क्या से क्या हो गई है. उन्होंने कहा, ‘यही लालू प्रसाद यादव पूरे 22 महीने जेल में रहे. कांग्रेस की इंदिरा … राहुल की दादी ने उन्हें जेल में डाला था. यही नीतीश कुमार पूरे 20 महीने जेल की सलाखों के पीछे रहे.”
सूचना एवं प्रसारण मंत्री अनुराग ठाकुर भी चुप नही बैठे उन्होने विपक्षी दलों की बैठक को एक ‘तमाशा’ करार दिया. अब आप स्वयं देखें और विवेचना करें कि राजनीतिक दल भारतीय जनता पार्टी के खिलाफ जो एकता कर रहे हैं वह कितना देश हित में है और भारतीय जनता पार्टी पर जो सत्ता का मद चढ़ा हुआ है उससे देश को किस तरह हानि हो रही है

विपक्षी एकता डरी सत्ता

साल 2024 के लोकसभा चुनाव को देखते हुए देश की सभी बड़ी विपक्षी पार्टियां जैसे कांग्रेस, राष्ट्रीय जनता दल, जनता दल (यूनाइटेड), आम आदमी पार्टी यानी जो भारतीय जनता पार्टी से इतर विचारधारा रखती हैं, एक हो कर अलगअलग जगह बैठक कर रही हैं. इस से देश को एक संदेश देने की कोशिश की जा रही है कि विपक्ष एकसाथ है.

यह भी सच है कि विपक्ष की एकता का आगाज बहुत पहले हो गया था, मगर इस के साथ ही मानो भारतीय जनता पार्टी की कुंभकर्णी नींद टूट गई और आननफानन में वह उन राजनीतिक दलों को एक करने में जुट गई है, जिन्हें सत्ता के घमंड में आ कर उस ने कभी तवज्जुह नहीं दी थी.

सब से बड़ा उदाहरण है रामविलास पासवान की लोक जनशक्ति पार्टी का, जबकि उन के बेटे चिराग पासवान आंख बंद कर के नरेंद्र मोदी की भक्ति करते देखे गए हैं. यही नहीं, नीतीश कुमार के साथ भी भाजपा ने दोयम दर्जे का बरताव किया था. इस तरह गठबंधन का धर्म नहीं निभा कर भारतीय जनता पार्टी में एक तरह से अपने सहयोगियों के साथ धोखा किया था, जिसे सत्ता के लालच में आज छोटीछोटी पार्टियां भूल गई हैं. इस की क्या गारंटी है कि साल 2024 में नरेंद्र  मोदी की सत्ता आने के बाद इन के साथ समान बरताव किया जाएगा?

कहा जाता है कि एक बार धोखा खाने के बाद समझदार आदमी सजग हो जाता है, मगर भारतीय जनता पार्टी के भुलावे में आ कर 38 उस के साथ आ कर खड़े हो गए हैं. मगर यह सच है कि यह सिर्फ एक छलावा और दिखावा मात्र है. एक तरफ विपक्ष अभी 26 दलों का गठबंधन बना पाया है, वहीं भारतीय जनता पार्टी खुद को हमेशा की तरह बड़ा दिखाने के फेर में छोटेछोटे दलों को भी आज नमस्ते कर रही है.

भाजपा का देश को यह सिर्फ आंकड़ा दिखाने का खेल है. वह यह बताना चाहती है कि उस के पास देश के सब से ज्यादा राजनीतिक दलों का समर्थन है और विपक्ष जो आज एकता की बात कर रहा है वह उन के सामने नहीं ठहर सकता है, जबकि असलियत यह है कि यह सब भाजपा डर के मारे कर रही है ताकि आने वाले समय में उस के हाथों से देश की केंद्रीय सत्ता निकल न जाए.

कांग्रेस के नेतृत्व में

10 साल की राजग सरकार के भ्रष्टाचार और घोटालों का एक खाका खींचने के मद्देनजर विपक्षी गठबंधन के लिए एक साझा न्यूनतम कार्यक्रम बनाया जा रहा है और आपसी तालमेल के साथ रैलियां, सम्मेलन, आंदोलन करने जैसे मुद्दों को ले कर मसौदा तैयार करने के लिए एक उपसमिति बनाने का भी प्रस्ताव है.

विपक्षी दल साल 2024 के लोकसभा चुनावों में भाजपा के खिलाफ एकजुट हो कर लड़ने के लिए अपनी रणनीति तैयार करेंगे. कांग्रेस के मुताबिक अगले लोकसभा चुनाव के लिए भारतीय जनता पार्टी के खिलाफ विपक्षी दलों की एकजुटता भारत के राजनीतिक दृश्य के लिए बदलाव वाली साबित होगी और जो लोग अकेले विपक्षी पार्टियों को हरा देने का दंभ भरते थे, वे इन दिनों ‘राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन के भूत’ में नई जान फूंकने कोशिश में लगे हुए हैं.

कुल जमा कहा जा सकता है कि विपक्ष की एकता से भारतीय जनता पार्टी के माथे पर पसीना उभर आया है और उसे यह समझते देर नहीं लगी है कि अगर वह सोती रहेगी तो राहुल गांधी के नेतृत्व में विपक्ष भारी पड़ सकता है.

बड़ी लाइन खींचने की कोशिश

भारतीय जनता पार्टी ने जब देखा कि केंद्र की सत्ता उस के हाथों से निकल सकती है तो वह आननफानन में उन राजनीतिक दलों को अपने साथ मिलाने मिल गई है, जो कभी उस के रूखे बरताव और सत्ता के घमंड को देख कर छोड़ कर चले गए थे.

मंगलवार, 18 जुलाई, 2023 को भारतीय जनता पार्टी ने दिल्ली में अपने साथी राजनीतिक दलों के नेताओं की बैठक आयोजित की, जिस से जनता में संदेश जाए कि हम किसी से कम नहीं हैं.

दरअसल, यह बैठक सत्तारूढ़ गठबंधन के शक्ति प्रदर्शन के रूप में देखी गई. इस बैठक में भाजपा के कई मौजूदा और नए सहयोगी दल मौजूद रहे. सत्तारूढ़ पार्टी ने हाल के दिनों में नए दलों को साथ लेने और गठबंधन छोड़ कर जा चुके पुराने सहयोगियों को वापस लाने के लिए कड़ी मेहनत की है.

भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नड्डा के मुताबिक, हम ने अपने सहयोगियों को न पहले जाने के लिए कहा था और न अब आने के लिए मना कर रहे हैं. उन्होंने कहा जो हमारी विचारधारा और देशहित में साथ आना चाहता है, आ सकता है.

हालांकि जनता दल (यूनाइटेड), उद्धव ठाकरे के नेतृत्व वाली शिव सेना और अकाली दल जैसे अपने कई पारंपरिक सहयोगियों को खोने के बाद भाजपा महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री एकनाथ शिंदे के नेतृत्व वाली शिव सेना, राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी के अजित पवार के नेतृत्व वाले गुट, उत्तर प्रदेश में ओम प्रकाश राजभर के नेतृत्व वाली सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी, जीतनराम मांझी के नेतृत्व वाले हिंदुस्तानी अवाम मोर्चा (सैक्युलर) और उपेंद्र कुशवाला के नेतृत्व वाले राष्ट्रीय लोक जनता दल के साथ गठबंधन करने में कामयाब रही है.

मगर यह देखना खास है कि ये सारे दल देश की राजनीति में कोई ज्यादा अहमियत नहीं रखते हैं और भाजपा का सिर्फ कोरम पूरा करने का काम कर रहे हैं.

क्या काँग्रेस अपना परचम फिर लहरा पाएगी

गुजरात व हिमाचल प्रदेश की विधानसभाओं के, दिल्ली की म्युनिसिपल कमेटी के, उत्तर प्रदेश, बिहार व उड़ीसा के उपचुनावों से एक बात साफ है कि न तो भारतीय जनता पार्टी के खिलाफ कोई बड़ा माहौल बना है और न ही भारतीय जनता पार्टी इस देश की अकेली राजनीतिक ताकत है. जो सोचते हैं कि मोदी है तो जहां है वे भी गलत हैं और जो सोचते हैं कि धर्म से ज्यादा महंगाई बीरोजगारी, ङ्क्षहदूमुसलिम खाई से जनता परेशान है, वे भी गलत है.

गुजरात में भारतीय जनता पार्टी ने अपनी सीटें बढ़ा ली क्योंकि कांग्रेस और आम आदमी पार्टी में बोट बंट गई. गुजरात की जनता का बड़ा हिस्सा अगर भाजपा से नाराज है तो भी उसे सुस्त कांग्रेस औैर बडबोली आम आदमी पार्टी में पूरी तरह भरोसा नहीं हुआ. गुजरात में वोट बंटने का फायदा भारतीय जनता पार्टी को जम कर हुआ और उम्मीद करनी चाहिए कि नरेंद्र मोदी की दिल्ली की सरकार अब तोहफे की शक्ल में अरङ्क्षवद केजरीवाल को दिल्ली राज्य सरकार और म्यूनिसिपल कमेटी चलाने में रोकटोक कम कर देंगे. उपराज्यपाल के भाषण केंद्र सरकार लगाकर अरङ्क्षवद केजरीवाल को कीलें चुभाती  रहती है.

कांग्रेस का कुछ होगा, यह नहीं कहा जा सकता. गुजरात में हार धक्का है पर हिमाचल की अच्छी जीत एक मैडल है. हां यह जरूर लग रहा है कि जो लोग भारत को धर्म, जाति और बोली पर तोडऩे में लगे है, वे अभी चुप नहीं हुए है और राहुल गांधी को भारत जोड़ो यात्रा में मिलते प्यार और साथ से उन्हें कोर्ई फर्क नहीं पड़ता.

देशों को चलाने के लिए आज ऐसे लोग चाहिए जो हर जने को सही मौका दे और हर नागरिक को बराबर का समझें. जो सरकार हर काम में भेदभाव करे और हर फैसले में धर्म या जाति का पहलू छिपा हो, वह चुनाव भले जीत जाए, अपने लोगों का भला नहीं कर सकती. धर्म पर टिकी सरकारें मंदिरों, चर्चों का बनवा सकती हैं पर नौकरियां नहीं दे सकीं. आज भारत के लाखों युवा पढऩे और नौकरी करने दूसरे देशों में जा रहे हैं और विश्वगुरू का दावा करने वाली सरकार के दौरान यह गिनती बढ़ती जा रही है. यहां विश्व गुरू नहीं, विश्व सेवक बनाए जा रहे हैं. भारतीय युवा दूसरे देशों में जा कर वे काम करते हैं जो यहां करने पर उन्हें धर्म और जाति से बाहर निकाल दिया जाए.

अफसोस यह है कि भाजपा सरकार का यह चुनावी मुद्दा था ही नहीं. सरकार तो मान अपमान, धर्म, जाति, मंदिर की बात करती रही और कम से कम गुजरात में तो जीत गई.

देश में तरक्की हो रही है तो उन मेहनती लोगों की वजह से जो खेतों और कारखानों में काम कर रहे हैं और गंदी बस्तियों में जानवरों की तरह रह रहे हैं. देश में किसानों के मकान और जीवन स्तर हो या मजदूरों का उस की ङ्क्षचता किसी को नहीं क्योंकि ऐसी सरकारें चुनी जा रही है जो इन बातों को नजरअंदाज कर के धर्म का ढोल पीट कर वोट पा जाते हैं.

ये चुनाव आगे सरकारों को कोई सबक सिखाएंगे, इस की कोई उम्मीद न करें. हर पार्टी अपनी सरकार वैसे ही चलाएगी. जैसी उस से चलती है. मुश्किल है कि आम आदमी को सरकार पर कुछ ज्यादा भरोसा है कि वह अपने टूटफूट के फैसलों से सब ठीक कर देगी. उसे लगता है तोडज़ोड़ कर बनाई गई महाराष्ट्र, कर्नाटक, गोवा, मध्यप्रदेश जैसी सरकारें भी ठीक हैं. चुनावों में तोडफ़ोड़ की कोई सजा पार्टी को नहीं मिलती. नतीजा साफ है जनता को सुनहरे दिनों को भूल जाना चाहिए. यहां तो हमेशा धुंधला माहौल रहेगा.

हलचल: भारत जोड़ो यात्रा- भाजपा चंचला, राहुल गांधी गंभीरा

राहुल गांधी ने इस पदयात्रा का आगाज ‘विवेकानंद पौलीटैक्निक’ से 118 दूसरे ‘भारत यात्रियों’ और कई नेताओं व कार्यकर्ताओं के साथ 7 सितंबर, 2022 को शुरुआत की थी. कांग्रेस ने राहुल गांधी समेत 119 नेताओं को ‘भारत यात्री’ नाम दिया है, जो कन्याकुमारी से पदयात्रा करते हुए कश्मीर तक जाएंगे. ये लोग कुल 3,570 किलोमीटर की दूरी तय करेंगे.

कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने कन्याकुमारी से अपनी ‘भारत जोड़ो’ यात्रा की औपचारिक शुरुआत की और इस मौके पर पार्टी अध्यक्ष सोनिया गांधी ने एक लिखित संदेश में कहा, ‘यह यात्रा भारतीय राजनीति के लिए परिवर्तनकारी क्षण है और यह कांग्रेस के लिए संजीवनी का काम करेगी.’

इस तरह कहा जा सकता है कि राहुल गांधी की यह पदयात्रा कई माने में गंभीर संदेश देश को देने लगी है. देश के प्रधानमंत्री रह चुके और अपने पिता राजीव गांधी को श्रीपेरंबदूर में श्रद्धांजलि देने के बाद यह पदयात्रा शुरू हुई थी, जो देखतेदेखते भाजपा के लिए सिरदर्द बन गई और कांग्रेस अब आगे निकलती दिखाई दे रही है.

भाजपा के आरोप

राहुल गांधी की पदयात्रा शुरू होने से पहले से ही भारतीय जनता पार्टी की घबराहट दिखाई देने लगी थी और उस के नेता इस पदयात्रा पर उंगली उठाने लगे थे. जैसेजैसे पदयात्रा का समय निकट आता गया, भारतीय जनता पार्टी और भी आक्रामक होती चली गई.

पदयात्रा शुरू होने के साथ भाजपा के नेताओं की जैसी आदत है, उन्होंने हर मुमकिन तरीके से राहुल गांधी की इस ऐतिहासिक पदयात्रा को शुरू में ही मानसिक रूप से ध्वस्त और कमजोर करने की भरसक कोशिश की. देश में यह संदेश फैलाने का काम किया कि यह सब तो सिर्फ और सिर्फ बेकार की कवायद है.

भाजपा के एक नेता ने कहा कि भारत जोड़ो यात्रा का क्या मतलब है भाई? भारत तो पहले से ही जुड़ा हुआ है. इस तरह इस अभियान पर सवालिया निशान लगाने की पूरी कोशिश की गई.

मगर आश्चर्यजनक रूप से भाजपा का यह अमोघ ब्रह्मास्त्र फेल हो गया, क्योंकि देश की जनता राहुल गांधी को बड़ी गंभीरता से देख रही है और भारत जोड़ो यात्रा को पौजिटिव भाव से ले रही थी.

भाजपा का जब भारत जोड़ो यात्रा पर सवाल उठाने वाला तीर नहीं चला, तो उस ने दूसरा तीर चलाया और कहा कि राहुल गांधी तो 41,000 रुपए की महंगी टीशर्ट पहन कर पदयात्रा पर निकले हैं, लेकिन भाजपा का यह तीर भी भोथरा साबित हुआ, क्योंकि देश की जनता ने उसे गंभीरता से नहीं लिया.

वजह, आरोप लगाने वाले भाजपाई नेता चाहे वे प्रधानमंत्री हों या गृह मंत्री या फिर दूसरे बड़े नेता खुद लाखों रुपए के बेशकीमती कपड़े पहनते हैं. इन की फुजूलखर्ची सारा देश देख रहा है. इन के स्वभाव में कहीं भी किफायतदारी नहीं है. ऐसे में यह तीर ‘पर उपदेश कुशल बहुतेरे’ कहावत बन कर रह गया.

राहुल गांधी की इस पदयात्रा से अब जहां भाजपा हैरान है, वहीं विपक्ष के कई बड़े नेताओं का भी होश काम नहीं कर रहा है. चाहे वे नीतीश कुमार हों या ममता बनर्जी या फिर अरविंद केजरीवाल, प्रधानमंत्री पद के दावेदार सभी के मुंह पर ताला लग गया है.

वैसे तो होना यह चाहिए था कि विपक्ष की एकता की बात करने वाले ये नेता खुल कर राहुल गांधी की पदयात्रा का समर्थन करते. अभी तक शिव सेना प्रमुख उद्धव ठाकरे ने राहुल गांधी की पदयात्रा के पक्ष में अपना बयान दिया है, बाकी सारे नेता खामोश हैं और उन की खामोशी अपनेआप में एक बड़ा सवाल है.

आदिवासियों पर जुल्म करती सरकार

देश में अपने हक बनाए रखना उतना ही मुश्किल हो रहा है जितना रोटी कमाना. सरकार की मशीन ऐंसी है कि अच्छेअच्छे हक मांगने वालों की कमर तोड़ देती है. आजकल पुलिस का हथकंडा है कि अगर कहीं जुर्म हुआ है तो किसी भी बेगुनाह को पकड़ कर जेल में ठूंस दो और खूब जुल्म करो. उस के घरवाले अपनेआप जुर्म करने वाले को पकड़ लाएंगे.

यदि असल गुनाहगार नहीं पकड़ा गया तो क्या, 5-7 साल बाद उसे कोई जज छोड़ेगा कि सुबूत तो हैं ही नहीं. बेगुनाह की ङ्क्षजदगी तो गई. 2017 में मध्यप्रदेश के कुरकापाल में माओवादियों ने एक हमला किया तो पुलिस ने गुनाहगारों के नाम पर 112 गरीब फटेहाल आदिवासियों को पकड़ कर जेल में ठूंस दिया जिन्हें जुलाई 2022 में जज ने रिहा किया. इन में से एक मदकम हूंगा जब घर पहुं्र्रचा तो मां मिली, 2 में से एक बेटी मिली जिसे वह पहचान तक नहीं पाया. बीबी किसी और मर्द के साथ रहने चली गई जैसा उन की विरादरी में आम होता है.

आदिवासी क्या मांग रहे हैं. वे चाहते हैं कि जैसे ही रहे हैं, जीने दो पर देश के शासकों की उन की जमीनों पर नजर है, उन की मजूरी पर नजर है, उन की औरतों पर नजर है. जमीन छीन कर वहां या तो खनिज निकाले जाएंगे या खेत बनाए जाएंगे जिन में ये आदिवासी कम दाम पर मजूरी करेंगे, बाकी शहरों में जाएंगे. औरतें चकलाघरों में जाएंगी या ऊंचों के घरों में बर्तन साफ करेंगी.

आदिवासियों को पढ़ाने या सही धारा में डालने में न कांग्रेस ने कोई काम किया न भाजपा ने. ईसाई मिशनरी जरूर कुछ करते रहे जिस से घबरा कर संघ के लोग इन इलाकों में उन लोगों को अपने भगवान दे रहे हैं पर इन से काम वैसे ही लिया जाएगा जैसे राम रावण युद्ध में लिया गया था. लड़ाई जीतने के बाद बाली की फौज को घरों में भेज दिया गया. उन्हें कोई मुआबजा मिला हो, अयोध्या लाया गया हो ऐसा नहीं दिखता.

आज यही दिख रहा है. आदिवासी अगर आवाज उठाता है तो बंदूक के बल पर उस की आवाज दवाई जाती है. वह बंदूक का जवाब बंदूक से देने की कोशिश करता है तो पूरे गांव जला दिए जाते हैं.

अपने हकों को बचाना आदिवासी हो, आम मैदानी इलाकों के किसान हो, सोचने वाले हो, बड़ा मुश्किल होता जा रहा है. न्याय नाम की चीज देश में दिखावटी ज्यादा लगती है क्योंकि असल में सजा तो न्याय की देहरी तक पहुंचने से पहले दे दी जाती है. मुट्ठी भर जज बड़ी साजिशों का खजाना लिए सरकारी मशीनरी के सामने कहां टिक सकते है?

अगर देश में हरेक को न्याय चाहिए तो उसे आवाज उठाने के ढंग सीखने होंगे. संविधान में खुद ऐसे रास्ते हैं जिन्हें बाईपास किया जाता है पर रास्तों को खत्म नहीं किया जा पा रहा. उसी रास्ते पर चलना होगा. आदिवासी हो, सवर्णों की औरतें हो, पिछड़ों हों, दलित हों, अल्पसंख्यक हो, उन्हें अपने को बिकाऊ होने से बचना होगा. कुछ को प्रसाद के पकाने डाल कर जब तक खरीदा जा सकेगा. तब तक न उन का कल्याण होगा न देश का कल्याण होगा.

पुलिस जुल्म आज भी पूरी दुनिया पुराने धाॢमक युगों की तरह कायम है पर इसलिए कि दुनिया की बड़ी जनता आज भी धर्म के नाम पर सरकारें चुन रही हैं. जब तक यह होगा मदकम हूंगा की तरह के आदिवासी सालों साल जेलों में सड़ेंगे.

प्रशांत किशोर नहीं अपने कामों पर भरोसा करे कांग्रेस

भाजपाई नेता और देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने बचपन में चाय बेची थी या नहीं, इस का कोई सुबूत किसी ने नहीं देखा. इस के बाद भी देश के सामने उन्होंने खुद को चाय बेचने वाला साबित कर दिया.

इस के उलट विपक्ष में बैठी कांग्रेस ने अपने राज में देश और समाज के सुधार के लिए कई बड़े काम किए थे, पर न जाने क्यों अब वह उस का बखान जनता के सामने करने में नाकाम हो रही है.

भले ही कांग्रेस ने अभी हुए चिंतन शिविर में खुद को जनता के सामने अच्छे से रखने की बात कही है, पर सच तो यह है कि उस के सुविधाभोगी नेता कलफदार कुरतापाजामा पहन कर एयरकंडीशनर कमरों से बाहर निकलने को तैयार नहीं हैं.

देश में ‘कांग्रेस मुक्त भारत’ की राजनीति भी नई नहीं है. राममनोहर लोहिया, जयप्रकाश नारायण और विश्वनाथ प्रताप सिंह ने अपनेअपने दौर में कांग्रेस को सत्ता से बेदखल करने का काम किया था. इस के बाद भी कांग्रेस सत्ता में वापस आई. साल 2024 के लोकसभा चुनाव में देश की जनता कांग्रेस को तब अहमियत देगी, जब कांग्रेस खुद को सत्ता का दावेदार साबित करने में कामयाब होगी.

पर आज की तारीख में तो ऐसा लगता है कि कांग्रेस सत्ता की रेस से दूर क्या हुई पार्टी का खुद पर से पूरी तरह से भरोसा उठ गया है. पर राजनीति में कब क्या होगा, यह बता पाना आसान नहीं है.

साल 1984 में राजीव गांधी इतिहास में सब से बड़ा बहुमत हसिल कर के देश के प्रधानमंत्री बने थे. 5 साल के बाद ही जनता ने उन पर भरोसा बरकरार नहीं रखा और वे सत्ता से बाहर हो गए थे.

साल 2004 में भाजपा की अगुआई वाली अटल सरकार को यह गुमान हो गया था कि उन के कार्यकाल में इंडिया शाइन कर रहा है, लिहाजा समय से 6 महीने पहले अटल सरकार ने लोकसभा चुनाव कराने का फैसला ले लिया था. पर चुनाव के नतीजे एक बार फिर उम्मीद के खिलाफ गए थे. अटल सरकार चुनाव हार गई. जिस कांग्रेस को खत्म मान लिया गया था, वह न केवल सत्ता में आई, बल्कि उस ने पूरे 10 साल सरकार चलाई.

साल 2014 में कांग्रेस लोकसभा चुनाव हारी. इस के बाद कई प्रदेशों में भी उसे चुनावी हार का सामना करना पड़ा. साल 2019 के लोकसभा चुनाव में भी कांग्रेस को हार का मुंह देखना पड़ा. इस हार के बाद एक बार फिर से कांग्रेस को खत्म माना जा रहा है. कांग्रेस के तमाम नेता पार्टी छोड़ कर दूसरे दलों में जा रहे हैं. ‘जी-23’ नाम से कांग्रेस में एक अंसतुष्ट खेमा बन गया है.

उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव में जब कांग्रेस को केवल 2 सीटें मिलीं, तो पार्टी का मनोबल टूट गया. अब उसे लगने लगा कि पार्टी का समय चला गया है. इस के बाद भी देश की जनता कांग्रेस को ही सब से प्रमुख विपक्षी दल मान रही है.

कांग्रेस को चुनावी लड़ाई में वापस लाने के लिए तरहतरह के उपाय सोचे जाने लगे हैं. इस में यह योजना भी बनी कि राजनीतिक रणनीतिकार प्रशांत किशोर की मदद ली जाए. कई बार ऐसी खबरें सुनाई पड़ीं कि प्रशांत किशोर जिन शर्तों के साथ कांग्रेस में आना चाहते हैं या कांग्रेस के साथ काम करना चाहते हैं, वह कांग्रेस हाईकमान को मंजूर नहीं है, इसलिए प्रशांत किशोर और कांग्रेस का गठजोड़ अधर में लटक गया.

प्रशांत किशोर नरेंद्र मोदी से ले कर ममता बनर्जी तक तमाम बड़े नेताओं के लिए काम कर चुके हैं. ऐसे में उन पर सहज भरोसा नहीं किया जा सकता. कांग्रेस के पुराने नेता मानते हैं कि देश की तरक्की में कांग्रेस द्वारा कराए गए कामों का अहम रोल रहा है. लिहाजा, कांग्रेस को प्रशांत किशोर के ऊपर निर्भर रहने की जरूरत नहीं है. उसे अपने अच्छे कामों को ले कर जनता के बीच जाना चाहिए.

कांग्रेस की मजबूत बुनियाद

कांग्रेस का पूरा नाम ‘भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस’ है. कांग्रेस की स्थापना ब्रिटिश राज में 28 दिसंबर, 1885 को हुई थी. इस के संस्थापकों में एओ ह्यूम (थियोसोफिकल सोसाइटी के प्रमुख सदस्य), दादाभाई नौरोजी और दिनशा वाचा शामिल थे.

भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना 72 प्रतिनिधियों की उपस्थिति के साथ 28 दिसंबर, 1885 को बंबई (अब मुंबई) के गोकुल दास तेजपाल संस्कृत महाविद्यालय में हुई थी. इस के संस्थापक महासचिव एओ ह्यूम थे, जिन्होंने कलकत्ता (अब कोलकाता) के व्योमेश चंद्र बनर्जी को अध्यक्ष नियुक्त किया था.

भारत को आजादी दिलाने वाले आंदोलन में कांग्रेस की भूमिका प्रमुख थी. इसी वजह से 1947 में आजादी के बाद कांग्रेस भारत की प्रमुख राजनीतिक पार्टी बन गई. आजादी से ले कर साल 2014 तक, 16 आम चुनावों में से कांग्रेस ने 6 आम चुनावों में पूरा बहुमत मिला है और 4 आम चुनावों में सत्तारूढ़ गठबंधन की अगुआई की है. इस तरह 49 सालों तक वह केंद्र सरकार का हिस्सा रही.

भारत में कांग्रेस के 7 प्रधानमंत्री रह चुके हैं. इन में 1947 से 1964 तक जवाहरलाल नेहरू, 1964 से 1966 तक लाल बहादुर शास्त्री, 1966 से 1977 और 1980 से 1984 तक  इंदिरा गांधी, 1984 से 1989 तक राजीव गांधी, 1991 से 1996 तक पीवी नरसिंह राव और 2004 से 2014 तक डाक्टर मनमोहन सिंह शामिल हैं.

साल 2014 के आम चुनाव में कांग्रेस ने आजादी से अब तक का सब से खराब प्रदर्शन किया और 543 सदस्यीय लोकसभा सीटों में से केवल 44 सीटें ही जीत पाई. तब से ले कर अब तक कांग्रेस कई विवादों में घिरी हुई है. उस के भविष्य पर सवालिया निशान लग रहे हैं.

गांधी युग की शुरुआत

साल 1907 में कांग्रेस में 2 दल बन चुके थे, गरम दल और नरम दल. गरम दल का नेतृत्व बाल गंगाधर तिलक, लाला लाजपत राय और बिपिन चंद्र पाल, जिन्हें लालबालपाल भी कहा जाता है, कर रहे थे. वहीं नरम दल का नेतृत्व गोपाल कृष्ण गोखले, फिरोजशाह मेहता और दादाभाई नौरोजी कर रहे थे. गरम दल पूरे स्वराज की मांग कर रहा था, पर नरम दल ब्रिटिश राज में स्वशासन चाहता था.

पहला विश्व युद्ध छिड़ने के बाद साल 1916 की लखनऊ बैठक में दोनों दल फिर एक हो गए थे और होम रूल आंदोलन की शुरुआत हुई थी, जिस के तहत ब्रिटिश राज में भारत के लिए अधिराजकीय पद (डोमेनियन स्टेटस) की मांग की गई थी. इस के बाद कांग्रेस एक जन आंदोलन के रूप में देश के सामने खड़ी होने लगी थी.

साल 1915 में मोहनदास करमचंद गांधी का भारत आगमन होता है. उन के आने के बाद कांग्रेस में बहुत बड़ा बदलाव आया. चंपारण और खेड़ा में भारतीय स्वतंत्रता संग्राम को जनसमर्थन से अपनी पहली कामयाबी मिली.

साल 1919 में जलियांवाला बाग हत्याकांड के बाद महात्मा गांधी कांग्रेस के महासचिव बने. तब कांग्रेस में राष्ट्रीय नेताओं की एक नई पीढ़ी का आगमन हुआ, जिस में सरदार वल्लभभाई पटेल, जवाहरलाल नेहरू, डाक्टर राजेंद्र प्रसाद, महादेव देसाई और सुभाष चंद्र बोस जैसे लोग शामिल थे.

महात्मा गांधी के नेतृत्व में प्रदेश कांग्रेस कमेटियों का निर्माण हुआ. कांग्रेस में सभी पदों के लिए चुनाव की शुरुआत हुई और कार्यवाहियों के लिए भारतीय भाषाओं का इस्तेमाल शुरू हुआ. कांग्रेस ने कई प्रांतों में सामाजिक समस्याओं को हटाने की कोशिश की, जिन में छुआछूत, परदा प्रथा और मद्यपान वगैरह शामिल थे.

राष्ट्रव्यापी आंदोलन शुरू करने के लिए कांग्रेस को पैसों की कमी का सामना करना पड़ता था. महात्मा गांधी ने एक करोड़ रुपए से ज्यादा का पैसा जमा किया और इसे बाल गंगाधर तिलक के स्मरणार्थ ‘तिलक स्वराज कोष’ का नाम दिया. 4 आना का नाममात्र सदस्यता शुल्क भी शुरू किया गया था.

नया नहीं है कांग्रेस विरोध

राम मनोहर लोहिया लोगों को आगाह करते आ रहे थे कि देश की हालत सुधारने में कांग्रेस नाकाम रही है. कांग्रेस शासन नए समाज की रचना में सब से बड़ा रोड़ा है. उस का सत्ता में बने रहना देश के लिए हितकर नहीं है, इसलिए लोहिया ने ‘कांग्रेस हटाओ, देश बचाओ’ का नारा दिया.

साल 1967 के आम चुनाव में एक बड़ा बदलाव हुआ. देश के 9 राज्यों पश्चिम बंगाल, बिहार, उड़ीसा (अब ओडिशा), मध्य प्रदेश, तमिलनाडु, केरल, हरियाणा, पंजाब और उत्तर प्रदेश में गैरकांग्रेसी सरकारें गठित हो गईं. इस को लोहिया की बड़ी जीत के रूप में देखा गया.

जयप्रकाश नारायण ने इंदिरा गांधी की सत्ता को उखाड़ फेंका. साल 1974 में जयप्रकाश नारायण ने इंदिरा गांधी की सत्ता को उखाड़ फेंकने के लिए ‘संपूर्ण क्रांति’ का नारा दिया. इस आंदोलन को भारी जनसमर्थन मिला.

इस से निबटने के लिए इंदिरा गांधी ने देश में इमर्जेंसी लगा दी. विरोधी नेताओं को जेल में डाल दिया गया. इस का आम जनता में जम कर विरोध हुआ. जनता पार्टी की स्थापना हुई और साल 1977 में कांग्रेस पार्टी बुरी तरह से हारी. पुराने कांग्रेसी नेता मोरारजी देसाई के नेतृत्व में जनता पार्टी की सरकार बनी.

विश्वनाथ प्रताप सिंह ने बोफोर्स दलाली कांड को ले कर राजीव गांधी को सत्ता से हटा दिया. साल 1987 में यह बात सामने आई थी कि स्वीडन की हथियार कंपनी बोफोर्स ने भारतीय सेना को तोपें सप्लाई करने का सौदा हथियाने के लिए 80 लाख डौलर की दलाली चुकाई थी. उस समय केंद्र में कांग्रेस की सरकार थी और उस के प्रधानमंत्री राजीव गांधी थे. स्वीडन रेडियो ने सब से पहले 1987 में इस का खुलासा किया. इसे ही ‘बोफोर्स घोटाला’ नाम से जाना जाता है.

इस खुलासे के बाद विश्वनाथ प्रताप सिंह ने सरकार के खिलाफ भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन चलाया, जिस के चलते कांग्रेस की हार हुई और विश्वनाथ प्रताप सिंह प्रधानमंत्री बने.

हालांकि कांग्रेस की सत्ता में फिर वापसी हुई. इस के बाद गांधी परिवार का कोई भी नेता देश का प्रधानमंत्री नहीं बन सका. एक बार पीवी नरसिंह राव और 2 बार डाक्टर मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री बने.

साल 2014 के लोकसभा चुनाव के पहले ही अन्ना आंदोलन के सहारे कांग्रेस को सत्ता से बाहर करने का काम शुरू हुआ. भारतीय जनता पार्टी ने भी कांग्रेस मुक्त भारत का अपना अभियान शुरू किया. नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद सत्ता में कांग्रेस की वापसी मुश्किल हो गई. 2019 के लोकसभा चुनाव की हार के बाद अब 2024 की तैयारी चल रही है.

कांग्रेस विरोध का इतिहास नया नहीं है. पर हर बार कांगेस ने वापसी की है. कांग्रेस के इतिहास के मुकाबले राजनीतिक रणनीतिकार प्रशांत किशोर का राजनीतिक अनुभव और साख दोनों ही कम है. वे कई नेताओं के साथ काम कर चुके हैं. ऐसे में कांग्रेसीजन उन पर यकीन करने को तैयार नहीं हैं.

रणनीतिकार प्रशांत किशोर

जिस समय कांग्रेस अपने सब से अच्छे दौर में थी, उस समय प्रशांत किशोर  ने जन्म लिया था. वे रोहतास जिले के कोनार गांव के रहने वाले हैं. उन के पिता श्रीकांत पांडे एक डाक्टर थे, जो बक्सर में ट्रांसफर हो गए थे. वहां प्रशांत किशोर ने अपनी माध्यमिक शिक्षा पूरी की.

प्रशांत किशोर ने अपने कैरियर की शुरुआत संयुक्त राष्ट्र संघ में काम कर के की थी. वहां वे स्वास्थ्य के क्षेत्र में काम कर रहे थे. इस के बाद प्रशांत किशोर ने भारतीय राजनीति में रणनीतिकार के रूप में अपनी सेवाएं देनी शुरू कीं.

उन्होंने भाजपा और कांग्रेस दोनों के लिए चुनावी रणनीतिकार के रूप में काम किया है. उन का पहला प्रमुख राजनीतिक अभियान 2011 में नरेंद्र मोदी की मदद करने का था.

2014 के आम चुनाव की तैयारी के लिए प्रशांत किशोर ने मीडिया और प्रचार कंपनी ‘सिटीजन्स फोर अकाउंटेबल गवर्नेंस’ को बनाया. प्रशांत किशोर 16 सितंबर, 2018 को जनता दल ‘यूनाइटेड’ में शामिल हो गए.

प्रशांत किशोर ने चुनावी प्रचार को ले कर जो अभियान चलाए, उन में नरेंद्र मोदी की ‘चाय पर चर्चा’, ‘3 डी रैली’, ‘रन फोर यूनिटी’, ‘मंथन’ और ‘सोशल मीडिया कार्यक्रम’ प्रमुख थे.

प्रशांत किशोर 2014 के आम चुनावों से पहले महीनों तक मोदी की टीम का सब से महत्त्वपूर्ण हिस्सा थे. 2016 में कांग्रेस द्वारा पंजाब के अमरिंदर सिंह के अभियान में मदद करने के लिए प्रशांत किशोर को पंजाब विधानसभा चुनाव 2017 के लिए नियुक्त किया गया था. लगातार 2 विधानसभा चुनाव हारने के बाद कांग्रेस को पंजाब में चुनाव प्रचार में मदद मिली.

प्रशांत किशोर को मई, 2017 में वाईएस जगनमोहन रेड्डी के राजनीतिक सलाहकार के रूप में नियुक्त किया गया था. उन्होंने ‘समराला संवरवरम’, ‘अन्ना पिलुपु’ और ‘प्रजा संकल्प यात्रा’ जैसे अभियान शुरू किए, जिस से कई चुनावी अभियानों की शुरुआत हुई.

प्रशांत किशोर ने साल 2017 में उत्तर प्रदेश में कांग्रेस के लिए काम किया, पर कामयाबी नहीं मिली. एक दल से दूसरे दल के सफर में प्रशांत किशोर पश्चिम बंगाल के विधानसभा चुनाव में ममता बनर्जी के साथ खड़े हुए. ममता बनर्जी की जीत का श्रेय प्रशांत किशोर को दिया गया.

इस के बाद से साल 2024 के लोकसभा चुनाव में प्रशांत किशोर की भूमिका खास हो गई. पर उन के खाते में चुनावी कामयाबी और नाकामी दोनों रही हैं. ऐसे में यह सोचना कि अकेले प्रशांत किशोर के बल पर कांग्रेस खड़ी हो जाएगी, यह मुमकिन नहीं है.

कांग्रेस के फैसले

देश की माली और सामाजिक व्यवस्था को मजबूत करने के लिए कांग्रेस की सरकारों ने कई महत्त्वपूर्ण काम किए हैं. इन में बैंक के राष्ट्रीयकरण का फैसला अहम था. साल 1969 में भारत में काम करने वाले 14 प्रमुख वाणिज्यिक बैंकों का राष्ट्रीयकरण किया गया. 1980 में अन्य 6 बैंकों का राष्ट्रीयकरण किया गया, जिस से राष्ट्रीयकृत बैंकों की कुल संख्या बढ़ कर 20 हो गई.

साल 1962 में चीन और साल 1965 में पाकिस्तान के साथ युद्धों ने सरकारी खजाने पर बहुत ज्यादा दबाव डाला था. लगातार 2 साल तक सूखे के चलते खाद्यान्न की गंभीर कमी हो गई थी और राष्ट्रीय सुरक्षा (पीएल 480 कार्यक्रम) से भी समझौता किया गया. सार्वजनिक निवेश में कमी के कारण परिणामी तीनवर्षीय योजना अवकाश ने कुल मांग को प्रभावित किया.

1960-70 के दशक में भारत की आर्थिक वृद्धि मुश्किल से जनसंख्या वृद्धि को पीछे छोड़ पाई और औसत आय स्थिर हो गई. 1951 और 1968 के बीच वाणिज्यिक बैंकों द्वारा औद्योगिक क्षेत्र में ऋण वितरण का अंश तकरीबन दोगुना हो गया, जबकि कृषि को कुल ऋण का 2 फीसदी से भी कम प्राप्त हुआ. इस तथ्य के बावजूद कि 70 फीसदी से ज्यादा आबादी थी, उस पर निर्भर है.

बैंकों के राष्ट्रीयकरण से देश को मदद मिली. बैकों में नौकरियां मिलने लगीं, जिस से बेरोजगारी घटी और आरक्षण लागू होने के चलते कमजोर तबकों को भी सरकारी नौकरी का फायदा मिल सका.

जमींदारी उन्मूलन कानून

संविधान बनाते समय जिन अहम मुद्दों से लड़ना था, उन में भारत की सामंतीशाही व्यवस्था प्रमुख थी, जिस ने आजादी से पहले देश के सामाजिक तानेबाने को बुरी तरह चोट पहुंचाई थी. उस वक्त जमीन का मालिकाना हक कुछ ही लोगों के पास था, जबकि बाकी लोगों की जरूरतें भी पूरी नहीं हो पाती थीं. इस असमानता को खत्म करने के लिए सरकार कई भूमि सुधार कानून ले कर आई, जिस में से एक जमींदारी उन्मूलन कानून 1950 भी था.

प्रिवीपर्स कानून

भारत जब आजाद हो रहा था, तब यहां तकरीबन 570 के आसपास रियासतें थीं. इन सभी को भारत में विलय के बाद एक खास तरीके से प्रिवीपर्स की रकम इन के राजाओं के लिए तय की गई. इस का फार्मूला था, उस स्टेट से सरकार को मिलने वाले कुल राजस्व की तकरीबन साढ़े 8 फीसदी रकम उत्तराधिकारियों को दी जाए. सब से ज्यादा प्रिवीपर्स मैसूर के राजपरिवार को मिला, जो 26 लाख रुपए सालाना था. हैदराबाद के निजाम को 20 लाख रुपए मिले.

वैसे, प्रिवीपर्स की रेंज भी काफी दिलचस्प थी. काटोदिया के शासक को प्रिवीपर्स के रूप में महज 192 रुपए सालाना की रकम मिली. 555 शासकों में 398 के हिस्से 50,000 रुपए सालाना से कम की रकम आई. 1947 में भारत के खाते से 7 करोड़ रुपए प्रिसीपर्स के रूप में निकले. 1970 में यह रकम घट कर 4 करोड़ रुपए सालाना रह गई.

साल 1971 में इंदिरा ने प्रिवीपर्स रोकने का कानून बना दिया. इस कानून को लागू करने के पीछे सारे नागरिकों के लिए समान अधिकार और सरकारी धन के व्यर्थ व्यय का हवाला दिया. यह बिल 26वें संवैधानिक संशोधन के रूप में पास हो गया. इस के साथ ही राजभत्ता और राजकीय उपाधियों का भारत में हमेशा के लिए अंत हो गया.

हालांकि इस विधेयक के पास होने के बाद कई पूर्व राजवंश अदालतों की शरण में गए, लेकिन वहां उन की सारी याचिकाएं खारिज हो गईं. इसी के विरोध में कई राजाओं ने 1971 के चुनाव में खड़े होने और नई पार्टी बनाने का फैसला किया, लेकिन उन्हें कामयाबी नहीं मिल पाई. इस कानून के जरीए भारत में राजशाही का खात्मा हुआ.

रोजगार गारंटी कानून

कांग्रेस के ही कार्यकाल में महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम (मनरेगा) 7 सितंबर, 2005 को लागू हुआ. इस योजना में हर वित्तीय वर्ष में किसी भी ग्रामीण परिवार के उन वयस्क सदस्यों को 100 दिन का रोजगार उपलब्ध कराना सरकार का काम था. प्रतिदिन 220 रुपए की न्यूनतम मजदूरी मिलती थी. इस कानून ने गांव के लोगों की क्रयशक्ति को बढ़ाने का काम किया. इस का असर गांव वालों के रहनसहन पर देखने को मिला.

कांग्रेस के ही कार्यकाल में जमीन अधिग्रहण कानून बना, जिस के जरीए किसानों को बाजार मूल्य का 4 गुना पैसा मिलने लगा. बेटियों को अपने पिता की जायदाद में हक देने का काम भी कांग्रेस सरकार में हुआ. सूचना अधिकार कानून और शिक्षा अधिकार कानून भी कांग्रेस सरकार के समय लागू हुए.

कांग्रेस इन का प्रचार कर के लोगों को अपने कामों के बारे में बता सकती है. आज भी देश के बहुत सारे लोग कांग्रेस की नीतियों पर भरोसा करते हैं. पर कांग्रेस की दिक्कत यह है कि वह जनता तक अपनी आवाज पहुंचा नहीं पा रही है.

कांग्रेस लंबे समय तक सत्ता में रहने के चलते सुविधाभोगी हो गई थी. उस के नेता जनता से दूर हो गए हैं. अगर सत्ता वापस लानी है, तो जनता के बीच जा कर विरासत को बता कर लोगों से जुड़ना होगा. प्रशांत किशोर जैसे लोग चुनावी मैनेजमैंट तो कर सकते हैं, पर वोट दिलाने का काम नहीं कर सकते.

पिछड़ों और दलितों से घबराई भाजपा की ठंडी गरमी

 शैलेंद्र सिंह

भारतीय जनता पार्टी के नेताओं और कार्यकर्ताओं का जिस तरह से विरोध हो रहा है, उस से शिमला सी ठंड में भी भाजपा के पसीने छूट रहे हैं. चुनाव की गरमी जैसेजैसे बढ़ रही है, भाजपा की बेचैनियां भी वैसेवैसे बढ़ रही हैं. महंगाई, बेरोजगारी और खेतीकिसानी के मुद्दों के आगे धर्म की बातें सुनना लोगों को पसंद नहीं आ रहा है.

उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव की घोषणा होते ही राजनीतिक दलों में वैसे ही भगदड़ मच गई, जैसे प्लेटफार्म पर रेलगाड़ी के आने के समय होती है. जिस का रिजर्वेशन होता है, वह भी और जिस का साधारण टिकट होता है, वह भी भगदड़ का हिस्सा होता है. जिस के पास ट्रेन का टिकट नहीं होता, वह सब से ज्यादा उछलकूद करता है. सब का मकसद एक ही होता है, रेलगाड़ी पर चढ़ कर अपनी मंजिल तक पहुंचना.

चुनाव आते ही सब नेताओं का एक ही मकसद होता है कि चुनाव जीत कर विधायक बनना. राजनीतिक दल कमजोर नेता को हटा कर मजबूत नेता को टिकट देना चाहते हैं, जिस से उन की सरकार बन सके. नेता टिकट कटने पर पार्टी के प्रति सारी निष्ठा को छोड़ कर अपने जुगाड़ में लग जाता है. उत्तर प्रदेश में चुनावी रेलगाड़ी अब प्लेटफार्म से चल चुकी है. जिस नेता को जहां बैठना था, बैठ चुका है.

ये भी पढ़ें: चुनाव और लालच : रोग बना महारोग

चुनावी गरमी अब बढ़ चुकी है. हालांकि प्रदेश के मौसम में पहले जैसी गरमी नहीं है, खासकर प्रदेश में सरकार चलाने वाली भारतीय जनता पार्टी के खेमे में माहौल बेहद ठंडा महसूस हो रहा है. उत्तर प्रदेश का चुनाव जीतने के लिए भाजपा ने ही नहीं, बल्कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने भी पूरी ताकत झोंक दी है.

भाजपा के कार्यकर्ता धर्म के सहारे राजनीति करने में माहिर हैं. वे धर्म का प्रचार बेहतर तरीके से कर सकते हैं. बेरोजगारी, महंगाई और किसानों के मुद्दे पर हो रहे विरोध का वे सही जवाब नहीं दे पा रहे हैं. यही वजह है कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने अपने 40 संगठनों के 4 लाख कार्यकर्ताओं को चुनाव प्रचार में उतार दिया है. ये कार्यकर्ता घरघर जा कर यह सम?ाने का काम कर रहे हैं कि वोट बेरोजगारी, महंगाई और किसान के मुद्दे पर नहीं, बल्कि धर्म के मुद्दे पर दें.

सवालों में घिरी ‘बुलडोजर सरकार’

पश्चिमी उत्तर प्रदेश में चुनाव प्रचार करते केंद्र सरकार में गृह मंत्री अमित शाह ने यह कहा कि ‘वोट यह देख कर मत दें कि विधायक, मंत्री और मुख्यमंत्री कौन है? वोट प्रधानमंत्री के हाथों को मजबूत करने के लिए दें’.

इस का सीधा सा मतलब यह था कि भाजपा बेरोजगारी, महंगाई और किसान के मुद्दे पर चुनाव लड़ने से डर रही है. इसी वजह से वह राष्ट्रवाद, धर्म और केंद्र सरकार के नाम पर वोट मांग रही है.

उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ अपने चुनाव प्रचार में कहते हैं, ‘कुछ नेताओं की गरमी अभी शांत नहीं हुई है. 10 मार्च को चुनाव नतीजा आने के बाद यह गरमी शांत कर दी जाएगी. मईजून के महीने में भी हम उत्तर प्रदेश को शिमला बना देते हैं’. मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ का यह बयान उन की ‘ठोंक दो’ शैली को बढ़ावा देने वाला है.

ये भी पढ़ें: विधानसभा चुनाव 2022: दलित, पिछड़े और मुसलिम

योगी आदित्यनाथ और भाजपा के बड़े नेता डर और आतंक का माहौल बना कर वोट हासिल करना चाहते हैं. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी कहते हैं, ‘उत्तर प्रदेश में 5 साल पहले दबंग, दंगाई ही कानून थे. उन का कहा ही सरकार का आदेश हुआ करता था. हम उत्तर प्रदेश  के बदलाव के लिए खुद को खपा रहे हैं. विपक्ष के लोग बदला लेने के लिए ठान कर बैठे हैं. इन बदला लेने वालों के बयानों को देख कर लगता है कि वे पहले से ज्यादा खतरनाक हैं.

‘कोई भूल नहीं सकता कि 5 साल पहले व्यापारी लुटता था, बेटी घर से बाहर निकलने में घबराती थी, माफिया सरकारी संरक्षण में घूमते थे. प्रदेश  दंगों की आग में जल रहा होता था और सरकार उत्सव मना रही होती थी.’

योगी आदित्यनाथ ने अपनी छवि ‘बुलडोजर सरकार’ की बनाई है, जहां ‘ठोंक दो’, ‘गाड़ी पलटा दो’ जैसे अलंकार उन की सरकार की शोभा बढ़ाते हैं. यही जुमले अब भाजपा कार्यकर्ताओं के लिए वोट मांगने में मुश्किल खड़ी कर रहे हैं. तमाम दांवपेंच और सत्ता के दबाव के बाद भी भाजपा अकेली पड़ गई है. दूसरी तरफ समाजवादी पार्टी ने लोकदल सहित छोटेछोटे दलों के साथ सीधा गठबंधन कर लिया है.

कांग्रेस भी समाजवादी पार्टी के साथ है. कांग्रेस ने सपा प्रमुख अखिलेश यादव और उन के चाचा शिवपाल यादव के सामने कांग्रेस का कोई उम्मीदवार नहीं उतारा है. कांग्रेस और समाजवादी पार्टी के बीच यह नया नहीं है. समाजवादी पार्टी भी कांग्रेस नेता सोनिया गांधी और राहुल गांधी के खिलाफ कभी अपना उम्मीदवार नहीं उतारती थी.

उत्तर प्रदेश के इस विधानसभा चुनाव में कांग्रेस और समाजवादी पार्टी अलगअलग चुनाव लड़ रही हैं. इस के बाद भी टिकट बंटवारे में उन का टारगेट यह है कि किस तरह से भाजपा के उम्मीदवार को हराया जा सके. इस के लिए दोनों दलों में आपसी सहमति बनी हुई है.

पश्चिमी उत्तर प्रदेश में प्रचार करते हुए जब सड़क पर प्रियंका गांधी वाड्रा के काफिले के सामने सपा नेता अखिलेश यादव और लोकदल के नेता जयंत चौधरी मिल गए थे, तो दोनों काफिले रुक गए थे और आपसी अभिवादन के बाद ही आगे बढ़े थे.

ये भी पढ़ें: उत्तर प्रदेश: लोकतंत्र में विरोध के स्वर को दबाने के लिए मारी

यह इन नेताओं की आपसी सम?ाबू?ा को दिखाता है. असल में कांग्रेस सपा गठबंधन से इस वजह से अलग है, जिस से वह अलग चुनाव लड़ कर भाजपा की अगड़ी जातियों खासकर ब्राह्मणों के वोट अपनी तरफ कर के भाजपा को नुकसान कर सके.

बेरोजगारी, महंगाई, किसान पर लाचारी

वोट मांगने के लिए घरघर जाने वाले कार्यकर्ताओं से लोग सवाल करते हैं कि पैट्रोल 100 रुपए लिटर, खाने का तेल 200 रुपए लिटर और रसोई गैस का सिलैंडर 1,000 रुपए का है, ऐसे में गृहस्थी कैसे चलेगी? इन सवालों के जवाब भाजपा का प्रचार करने वालों के पास नहीं है. शहरों से हट कर जब गांव के लोगों से वोट मांगे जाते हैं, तो वहां के लोग छुट्टा जानवरों से खेत में होने वाले नुकसान, खाद के महंगे दाम की बात करने लगते हैं.

इन सवालों के जवाबों से लाचार हो कर भाजपा ने नई रणनीति बनाई है. अब वह वोट मांगने के लिए उन घरों में जा रही है, जिन को सरकार की किसी न किसी योजना का लाभ मिला है. भाजपा की भाषा में इन को ‘लाभार्थी’ कहा जाता है.

प्रचार पर जाने वाले कार्यकर्ताओं को उन के क्षेत्र के लाभार्थियों के नाम की लिस्ट पहले से दे दी जाती है. कार्यकर्ता इन घरों पर ही जा रहे हैं. वहां उन से महंगाई, बेरोजगारी और किसानों के सवाल कम होते हैं. भले ही ‘लाभार्थी’ कहा जाने वाला यह वर्ग सीधे सवाल नहीं करता, पर उस के मन में भी यह सवाल उठता है कि महंगाई, बेरोजगारी और किसानों की क्या हालत है?

भाजपा के लिए चुनौती देने वाली बात यही है कि उस का समर्थन करने वाले से ज्यादा लोग उस का विरोध करने वालों का कर रहे हैं.

एक लोकगायिका हैं नेहा सिंह राठौर. वे बिहार की रहने वाली हैं. उत्तर प्रदेश में उन का ननिहाल है. बिहार विधानसभा चुनाव के समय उन्होंने एक गाना ‘बिहार मा का बा’ गाया था, जिस के जरीए नेहा सिंह को सोशल मीडिया पर बहुत तारीफ मिली थी. अब उत्तर प्रदेश के चुनाव में भी नेहा सिंह राठौर ने ‘यूपी में का बा’ गाने के सहारे यहां की अव्यवस्था पर सवाल किया. इन सवालों के घेरे में नेहा सिंह ने ‘मोदीयोगी’ को निशाने पर लिया.

नेहा सिंह राठौर को जनता ने हाथोंहाथ लिया, जिस से बौखला कर भाजपा की आईटी सैल और अंधभक्तों ने नेहा को जबरदस्त ट्रोल करना शुरू कर दिया. पर नेहा ने हौसला नहीं हारा और हिम्मत से ‘यूपी में का बा’ के अलगअलग गाने गाती रहीं.

भाजपा का विरोध जनता के बीच इतना है कि उस का प्रचार करने वालों को दिक्कत का सामना करना पड़ रहा है. कार्यकर्ताओं को ही नहीं, बल्कि भाजपा के विधायकों और कई नेताओं को उन के क्षेत्र में घुसने से रोका गया. पहले भी इस तरह का इक्कादुक्का विरोध होता था, जिस में जनता को सामने कर के विपक्ष के लोग बैनरपोस्टर टांग देते थे कि ‘प्रचार के लिए यहां संपर्क न करें’. लेकिन नेता के सामने आ कर कोई विरोध नहीं करता था.

इस बार जनता विरोध कर रही है और भाजपा नेताओं को क्षेत्र में घुसने नहीं दे रही है. इस तरह की घटनाएं पूरे प्रदेश में घट रही हैं. उत्तर प्रदेश में 20 जनवरी से 30 जनवरी के बीच 9 नेताओं को जनता का विरोध ?ोलना पड़ा. लोगों ने इन को गांव में घुसने नहीं दिया.

मंत्री से ले कर विधायक का विरोध

इस में उत्तर प्रदेश के उपमुख्यमंत्री केशव प्रसाद मौर्य से ले कर तमाम नेता शामिल हैं. वे कौशांबी जिले की सिराथू सीट से विधानसभा का चुनाव लड़ रहे हैं. 22 जनवरी, 2022 को जब वे गुलामीपुर चुनाव प्रचार करने गए, तो महिलाओं ने उन को घेर कर नारेबाजी शुरू कर दी.

प्रयागराज से एमएलसी सुरेंद्र चौधरी को अफजलपुर में लोगों ने चुनाव प्रचार नहीं करने दिया. सुरेंद्र चौधरी सम?ाते रहे कि ‘सरकार ने राम मंदिर बनवाया’, पर लोगों ने एक नहीं सुनी. सुरेंद्र चौधरी को वहां से प्रचार छोड़ कर जाना पड़ा.

जालौन की उरई सीट से विधायक गौरी शंकर वर्मा चुनाव प्रचार करने गए, तो विरोध में नारेबाजी शुरू कर दी गई. लोगों ने जब सड़क, नल, पानी का हिसाब मांगा, तो गौरी शंकर वर्मा वहां से चलते बने.

इस तरह की घटनाएं पूरे प्रदेश में घट रही हैं. बुलंदशहर में देवेंद्र सिंह लोधी स्याना सीट से विधायक हैं. जब वे प्रचार करने गए, तो लोगों ने विरोध किया. उन का आरोप था कि ‘5 साल न कोई नल दिया, न सड़क. अब वोट मांगने क्यों आए हो?’ पहले तो देवेंद्र सिंह ने लोगों को सम?ाने की कोशिश की, पर जब बात नहीं बनी तो चुपचाप वापस चले आए.

ये भी पढ़ें: पंजाब:  नवजोत सिंह सिद्धू  राजनीति के “गुरु”

पश्चिमी उत्तर प्रदेश में भाजपा विधायकों से लोग नाराज हैं कि अपने ही वोटरों को किसान आंदोलन में मुकदमे में फंसा दिया. इसी बात को ले कर खतौली से भाजपा विधायक विक्रम सैनी का विरोध हुआ. यही नहीं, कई जगहों पर वोट मांगने पर जनता ने भाजपा विधायकों के खिलाफ नारेबाजी की.

यहां के किसानों ने कहा कि उन पर जिस तरह से मुकदमे किए गए, कील और आंसू गैस का इस्तेमाल किया गया, वह दर्द वे भूले नहीं हैं. यह सब देख कर ही भाजपा के बड़े नेताओं को प्रचार के लिए उतारना पड़ा, जिन के साथ पूरा लावलश्कर चलता है. इस से जनता विरोध नहीं कर पाती है.

किसान आंदोलन के साथसाथ महंगाई और बेरोजगारी भी विरोध की एक बड़ी वजह है. भाजपा इस कारण से इन मुद्दों को पीछे छोड़ कर धर्म, राष्ट्र, पलायन और बदमाशी पर बात कर रही है. भाजपा इन मुद्दों के नाम पर वोटर को डरा कर वोट लेना चाहती है.

‘अंडर करंट’ साबित होंगे

महंगाई और बेरोजगारी को भले ही विपक्ष चुनावी मुद्दा न बना पा रहा हो, पर महंगाई और बेरोजगारी को ले कर जनता के बीच गुस्सा बना हुआ है. पहले यह उबलते दूध की तरह होता था, जो कुछ समय में शांत हो जाता था.

इस चुनाव में केवल उत्तर प्रदेश में ही नहीं, बल्कि पंजाब, उत्तराखंड, मणिपुर और गोवा में भी यह मुद्दा बना हुआ है. जनता इसी कारण विपक्षी दलों के साथ खड़ी है. भले ही विपक्षी दल खुद इन मुद्दों को ले कर बात करने से बच रहा हो, पर एक तरह से देखा जाए तो उत्तर प्रदेश में इस बार जनता चुनाव लड़ रही है. उस का यह गुस्सा ‘अंडर करंट’ की तरह ही है, जो अब वोट देते समय निकल कर सामने आएगा.

ये भी पढ़ें: सियासत : इत्र, काला धन और चुनावी शतरंज

सीएमआईई के आंकड़े बताते हैं कि दिसंबर, 2021 में बेरोजगारी दर 7.84 फीसदी हो गई है. उत्तर प्रदेश में बेरोजगारी की दर 4.9 फीसदी हो गई है. भले ही विपक्षी दल प्रमुखता से यह बात नहीं कर पा रहे हैं, पर उत्तर प्रदेश के बेरोजगारों ने ‘यूपी मांगे रोजगार’ नाम से अलग मुहिम चला रखी है.

भाजपा के वोटरों में सब से बड़ी तादाद  नौजवानों की है, जो 18 से 35 साल की उम्र के हैं. इन के पास रोजगार का सब से बड़ा संकट है. प्रयागराज में प्रतियोगिता परीक्षा की तैयारी करने वाले नौजवानों पर जिस तरह से लाठियां बरसाई गईं, वह भाजपा के लिए बड़ा संकट बन रहा है.

युवा कार्यकर्ता जब वोट मांगने जा रहे हैं, तो उन के साथी ही उन का विरोध कर रहे हैं. इन के विरोध की गंभीरता को इस बात से भी समझा जा सकता है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के चुनावी क्षेत्र वाराणसी के नौजवानों ने उन के जन्मदिन को ‘राष्ट्रीय बेरोजगार दिवस’ के रूप में मनाया था.

बेरोजगारों के गुस्से की वजह यह है कि कोरोना काल के दौरान तालाबंदी से निजी क्षेत्र को जब नुकसान हुआ, तो वहां से तमाम लोगों को नौकरियों से बाहर कर दिया गया. ये युवा अब अपने सुरक्षित भविष्य के लिए सरकारी नौकरियों की तरफ जाना चाहते हैं. वहां परीक्षा पेपर आउट हो जा रहा है. परीक्षा का रिजल्ट सालोंसाल नहीं आता. जिन का रिजल्ट आ जाता है, उन को अपौइंटमैंट लैटर नहीं दिया जाता.

सरकार अब अपने विभागों में भी संविदा पर नौकरियां देने लगी है. वहां भी भाईभतीजावाद और सिफारिश चल रही है. इस वजह से छात्रों का गुस्सा उन के अंदर भरा हुआ है.

साल 2017 के विधानसभा चुनाव में बड़ी तादाद में नौजवानों ने भाजपा को वोट दिया था. उस को यह लगा था कि ‘डबल इंजन’ सरकार उत्तर प्रदेश में रोजगार के अवसर खोलेगी.

नौजवानों को झांसा देने के लिए योगी सरकार ने ‘इंवैस्टर मीट’ और ‘डिफैंस ऐक्सपो’ जैसे कई आयोजन किए. नौजवानों को यह बताने की कोशिश भी की थी कि चीन से भाग कर विदेशी कंपनियां उत्तर प्रदेश में कारखाने लगाने जा रही हैं, जिस से नौजवानों को रोजगार मिल सकेगा.

उत्तर प्रदेश को फिल्म सिटी बनाने का झांसा भी दिया गया. इन में से कोई भी घोषणा जमीन पर नहीं उतरी. इस वजह से बेरोजगारों का गुस्सा अंडर करंट के रूप में काम कर रहा है, जिस का पता 10 मार्च को चल पाएगा.

भाजपा के नेताओं और कार्यकर्ताओं का जिस तरह से विरोध हो रहा है, उस से शिमला की ठंड में भी भाजपा के पसीने छूट रहे हैं.

पंजाब:  नवजोत सिंह सिद्धू  राजनीति के “गुरु”

सुरेशचंद्र रोहरा

पंजाब में कांग्रेस की सरकार है और संपूर्ण देश में यह एक ऐसा प्रदेश है जहां प्रदेश अध्यक्ष के रूप में नवजोत सिंह सिद्धू अपने ही सरकार को चैलेंज करते, पटखनी देते दिखाई देते हैं, और  बघिया उघरते हुए चरणजीत सिंह चन्नी को ऐसा घेरते हैं, मानो, सिद्धू उन्हें फूटी आंख नहीं देखना चाहते मानो, सिद्धू प्रदेश अध्यक्ष नहीं कोई विपक्ष हों. दरअसल, जो राजनीति की नई मिसाल उन्होंने दिखानी शुरू की है उसका सार संक्षिप्त यही है कि आने वाले समय में पंजाब विधानसभा चुनाव में कांग्रेस की सफलता संदिग्ध नहीं रही.

यक्ष प्रश्न यह है कि क्या यह सब कांग्रेस आलाकमान की सहमति से हो रहा है. जानबूझकर हो रहा है. पहली नजर में तो यह सब कांग्रेस के विपरीत मालूम पड़ता है मगर क्या इसमें कांग्रेस का हित है?

दरअसल,यह सब राजनीति के मैदान में देश कई दशक बाद देख रहा है. मजे की बात यह है कि यह सब कांग्रेस आलाकमान सोनिया गांधी, राहुल और प्रियंका की नजरों के सामने हो रहा है. ऐसे में सवाल यह है कि क्या मुख्यमंत्री और प्रदेश अध्यक्ष का यह आपसी मल युद्ध पंजाब में कांग्रेस को रसातल की ओर ले जाएगा, तो इसका जिम्मेदार कौन है?

आज कांग्रेस के लिए देशभर में संक्रमण का समय नजर आ रहा है. कांग्रेस, दुनिया की सबसे बड़ी पार्टी का ढोल पीट रही भाजपा के सामने निरंतर कमजोर होती चली जा रही है अथवा रणनीति के साथ कांग्रेस को खत्म करने का प्रयास चल रहा है. ऐसे में पंजाब जहां कांग्रेस की अपनी सरकार है और भाजपा तीसरे नंबर पर ऐसे में सवाल है कि आखिर कांग्रेस क्या अपने ही पैरों में कुल्हाड़ी मार रही है या यह एक रणनीति के तहत हो रहा है.

वस्तुत: पंजाब में जैसी परिस्थितियां स्वरूप ग्रहण कर रही हैं उसे राजनीतिक समीक्षक मानते हैं कि धीरे-धीरे कांग्रेस हाशिए की ओर जा रही है. इसका एकमात्र कारण प्रदेश की कमान संभाल रहे नवजोत सिंह सिद्धू हैं. एक सवाल और भी है कि क्या नवजोत सिंह सिद्धू जैसा राजनीति का खिलाड़ी जानबूझकर ऐसा कर रहा है. क्या कांग्रेस आलाकमान ने उसे जानते समझते हुए खुली छूट दे रखी है कि कांग्रेस को कुछ इस तरह खत्म करना है या फिर आज जो परिदृश्य है उसमें नवजोत सिंह सिद्धू कुछ ऐसा खेल खेलने वाले हैं जो 2022  विधानसभा चुनाव में नया गुल खिलाएगा और कांग्रेस पुनः सत्ता में आ जाएगी? प्रदेश अध्यक्ष की हैसियत से जिस तरीके से नवजोत सिंह सिद्धू घोषणाएं कर रहे हैं महिलाओं को गैस सिलेंडर देंगे और 2000 रूपए प्रति माह देंगे यह सब इसी राजनीति का हिस्सा है. इसका परिणाम यह निकल सकता है कि सिद्धू पंजाब में राजनीति के नए “गुरु” के रूप में स्थापित हो जाएंगे.

धज्जियां उड़ाते सिद्धू

कांग्रेस पार्टी के निर्णय की धज्जियां उड़ाते प्रदेश अध्यक्ष नवजोत सिंह सिद्धू हर रोज चर्चा में हैं. दो दिन पहले नवजोत सिंह सिद्धू ने चुटकी लेते हुए कहा, “दूल्हे के बिना कैसी बारात?” उन्होंने पिछले उथल-पुथल के दिनों का जिक्र करते हुए कहा कि संकट से बचने के लिए एक सही “मुख्यमंत्री” जरूरी था.

दरअसल, जब कांग्रेस आलाकमान ने यह स्पष्ट कर दिया  कि पंजाब में आगामी विधानसभा चुनाव सामूहिक रूप से मुख्यमंत्री चरणजीत सिंह चन्नी जो कांग्रेस का “दलित चेहरा” हैं के अलावा प्रदेश अध्यक्ष नवजोत सिद्धू (जाट चेहरा) और पूर्व पीपीसीसी प्रमुख सुनील जाखड़ (हिंदू चेहरा) के सामुहिक नेतृत्व में लड़ा जाएगा. तो अपने स्वभाव या कहें रणनीति के तहत नवजोत सिंह सिद्धू चुप नहीं बैठे और जो कहना था कह डाला.

नवजोत सिंह सिद्धू ने बेअदबी मामले की जांच किए जाने में हुई देरी पर भी  मुख्यमंत्री चरणजीत चन्नी पर निशाना साध दिया. सिद्धू ने कहा – हर कोई घोषणा करता है, लेकिन यह संभव नहीं है. राजकोषीय घाटा देखिए. आर्थिक स्थिति के अनुसार घोषणा की जानी चाहिए.

कुल जमा नवजोत सिंह सिद्धू के तेवर अपने आप में चर्चा का विषय बन गए हैं क्योंकि कांग्रेस में वर्तमान समय में यह परिपाटी नहीं रही है कि मुख्यमंत्री के विरुद्ध जाकर  सार्वजनिक बयान किया जाए. मगर सिद्धू हर रोज कुछ न कुछ ऐसा कहते हैं जो विपक्ष नहीं कह पाता. इस तरह पंजाब में कांग्रेस पार्टी के अध्यक्ष ही विपक्ष की भूमिका भी निभा रहे हैं और सारा देश चटकारे ले करके यह सब देख सुन रहा है. आगामी विधानसभा चुनाव में क्या कांग्रेस के मुख्यमंत्री चरणजीत सिंह चन्नी नंबर 1 और नवजोत सिंह सिद्धू नंबर दो पर रहेंगे. अर्थात क्या कांग्रेस की सरकार की वापसी होगी इस रणनीति के पीछे काम हो रहा है या फिर अरविंद केजरीवाल की आप पार्टी में जिस तरह नगर निगम चुनाव में बढ़त हासिल की है चुनाव में भाजपा और कांग्रेस का खेल बिगाड़ कर बाजी मार ले जाएगी यह सब समय के गर्भ में है.

एक टीवी चैनल के घोषणा पत्र में नवजोत सिंह सिद्धू ताल ठोक कर कह रहे हैं कि पंजाब के मुख्यमंत्री चन्नी को क्या उन्होंने  बनाया है, नहीं, राहुल गांधी ने बनाया है.

कुल मिलाकर सार यह है कि सिद्धू चाहे जितना पंजाब के मुख्यमंत्री चरणजीत सिंह चन्नी को राजनीति के तहत हाथों हाथ लेते हैंपर उसके पीछे सत्ता का संधान ही लक्ष्य है. देखना यह है कि अब पंजाब की राजनीति का ऊंट किस करवट बैठता है.

पंजाब: पैरों में कुल्हाड़ी मारते अमरिंदर सिंह

पंजाब के पूर्व मुख्यमंत्री अमरिंदर सिंह का राजनीतिक कद राष्ट्रीय स्तर का है. कांग्रेस से बाहर आने के बाद अब उन्होंने एक नई राजनीतिक पार्टी, किसानों और पंजाब के भविष्य को मजबूत बनाने की बात कह कर ऐलान किया है.

अमरिंदर सिंह की पार्टी के एलान के बाद पंजाब का राजनीतिक परिदृश्य कुछ ऐसा हो जाएगा मानो सत्ता ना तो अब कांग्रेस के हाथों में होगी और ना ही भाजपा के हाथों में. एक ऐसी त्रिशंकु सरकार बनाने में मददगार हो सकती है अमरिंदर सिंह की नई राजनीतिक पार्टी.

लगभग 80 वर्ष की उम्र में अमरिंदर सिंह का जज्बा जहां आकर्षित करता है वहीं सोचने को विवश करता है.

ये भी पढ़ें- क्वाड शिखर सम्मेलन: भारत का प्लस माइनस

अखिल भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस में 80 के दशक में अमरिंदर सिंह ने अपनी राजनीतिक पारी की शुरुआत की थी आगे जब ऑपरेशन ब्लू स्टार घटित हुआ तो उन्होंने पार्टी से इस्तीफा दे दिया था और लंबे समय बाद फिर राजीव गांधी के साथ उन्होंने राजनीति के हाईवे पर दौड़ना शुरू किया. परिणाम स्वरूप दो दफा पंजाब के मुख्यमंत्री रहे पंजाब कांग्रेस पार्टी के अध्यक्ष रहे और एक समय तो ऐसा भी आ गया जब अमरिंदर सिंह पंजाब में कांग्रेस का पर्याय बन गए. अखिल भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस आलाकमान को एक तरह से नजरअंदाज करते हुए उन्होंने लंबे समय तक मुख्यमंत्री के रूप में अपनी भूमिका निर्वाह की, शायद यही कारण था कि आलाकमान ने नवजोत सिंह सिद्धू को शतरंज की बिसात पर आगे बढ़ा दिया. और अभी हाल ही में पिछले दिनों देश ने देखा कि किस तरह पंजाब की राजनीति ने एक नई करवट बदली है नवजोत सिंह सिद्धू के प्रदेश अध्यक्ष बनने के बाद जिस तरह सिद्धू ने राजनीतिक दांव खेले परिणाम स्वरूप अमरिंदर सिंह के सामने दो विकल्प रह गए या तो कांग्रेस आलाकमान के सामने आत्मसमर्पण करना  अथवा मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा. और जैसा कि सभी ने देखा अमरिंदर सिंह ने एक झटके में आलाकमान को बिना जानकारी दिए ही राज्यपाल से मिलकर के 21 सितंबर 2021 को अपना इस्तीफा सौंप कर मानो कोप भवन में चले गए.

निसंदेह अमरिंदर सिंह के पास दीर्घ राजनीतिक अनुभव है उनकी छवि भी एक लोकप्रिय राजनेता की रही है. मगर राजनीति में बहुत आगे तक वही जाता है जो सबको लेकर चलता है या जिसमें एक दूर दृष्टि होती है. अमरिंदर सिंह ने अपने राजनीति के इस उत्तरार्ध काल में जहां आलाकमान के साथ दो दो हाथ करके अपना नुकसान किया है वहीं कांग्रेस पार्टी का भी नुकसान स्पष्ट दिखाई दे रहा है. क्योंकि नवजोत सिंह सिद्धू और चरणजीत सिंह चन्नी दोनों का ही मल युद्ध अगर चलाता रहा तो कांग्रेस की कब्र बनाने के लिए पर्याप्त माना जा रहा है.

ये भी पढ़ें- कांग्रेस: कन्हैया और राहुल

अमरिंदर सिंह का “कोप भवन”

यह सत्य है कि अमरिंदर सिंह को पंजाब में कांग्रेस पार्टी ने जो कुछ दिया वह बहुत कम लोगों के भाग्य में होता है. मगर स्वयं को अंतिम ताकतवार मान करके उन्होंने जिस तरह राजनीतिक दांवपेच खेले हैं वह अपने ही पैरों में कुल्हाड़ी मारने जैसा है. आलाकमान को नजरअंदाज करना किसी भी राजनीतिक पार्टी या फिर व्यवस्था के लिए नुकसानदायक ही होता है. अनुशासन तो होना ही चाहिए. एक समय ऐसा भी था जब अमरिंदर सिंह कांग्रेस अनुशासन से बहुत दूर हो करके स्वतंत्र अपना काम कर रहे थे. और जब आलाकमान की तलवार चली और विधायक सिद्धू की तरफ भागने लगे तो नाराज अमरिंदर सिंह “कोप भवन” में चले गए. और अब 80 की उम्र में उनका ताल ठोकना देश की राजनीति का एक भदेस सच है.

ऐसा देश के जन-जन ने पहले भी देखा है जब पार्टी लाइन से हटकर के प्रादेशिक दिग्गजों ने अपनी लाइन खींचने की कोशिश की और बुरी तरह मात खाई जिनमें मध्य प्रदेश के दिग्गज अर्जुन सिंह उत्तर प्रदेश के दिग्गज नेता नारायण दत्त तिवारी, भाजपा में उमा भारती आदि नाम गिनाए जा सकते हैं. वहीं यह भी सच है कि पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी ने आंध्र प्रदेश में जगन मोहन रेड्डी ने महाराष्ट्र में शरद पवार ने अपनी राजनीतिक बखत को दिखाया है. मगर पंजाब में अमरिंदर सिंह के मामले में यह कहा जा सकता है कि उम्र के इस पड़ाव में क्या आम मतदाता उन्हें तरजीह देंगे या फिर वह सिर्फ कांग्रेस को नेस्तनाबूद करने के लिए खिसियानी बिल्ली खंबा नोचे की तरह भूमिका निभा करके राजनीतिक इतिहास के पन्नों में रह जाएंगे.

कांग्रेस: कन्हैया और राहुल

जैसा कि लंबे समय से प्रतिक्षा थी कांग्रेस में कोई कन्हैया कुमार जैसा ऊर्जा वान युवक अकर  अखिल भारतीय कांग्रेस को ऊर्जा से भर दे. अखिल यह हो ही गया. आज कांग्रेस को कन्हैया कुमार जैसे समझ वाले युवाओं की आवश्यकता है जिससे अखिल भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस पार्टी का भविष्य उज्जवल होने की संभावना है.

क्योंकि जिस तरीके से देश में भारतीय जनता पार्टी और उसके प्रमुख नेताओं ने चक्रव्यूह बुना है उसे कोई कन्हैया कुमार जैसा नेता भी तोड़ सकता है. कन्हैया कुमार का कांग्रेस में आना जहां पार्टी के लिए शुभ है वही देश के लिए भी मंगलकारी कहा जा रहा है क्योंकि बहुत ही कम समय में कन्हैया कुमार ने अपनी राजनीतिक सोच और वक्तव्य से देशभर में बहुत लोगों को अपना मुरीद बना लिया है. ऐसे में यह कहा जा सकता है कि जहां राहुल गांधी ने एक महत्वपूर्ण कदम बढ़ाया है कन्हैया कुमार को कांग्रेस पार्टी में महत्वपूर्ण जिम्मेदारी देकर के कांग्रेस में एक नई ऊर्जा का संचार किया जा सकता है. कांग्रेस का यह मास्टर स्ट्रोक, पहल  इसलिए आज चर्चा का विषय बन गई है क्योंकि भाजपा के सामने कांग्रेस लगातार कमजोर होती जा रही है.इसका एक ही कारण है कि कांग्रेस में प्रभावशाली और लोकप्रिय नेताओं की कमी हो गई है. एक तरफ जहां भाजपा लगातार कांग्रेस को कमजोर करने में लगी है और उसके नेताओं को अपनी पार्टी में जोड़ने का प्रयास कर रही है जोड़ती चली जा रही है उससे कांग्रेस की हालत देखने लायक हो गई है.

ये भी पढ़ें- क्वाड शिखर सम्मेलन: भारत का प्लस माइनस

कांग्रेस और कन्हैया कुमार

कन्हैया कुमार 2015 में जेएनयू के प्रेसिडेंट बने थे और उसके बाद धीरे धीरे उनका व्यक्तित्व निखर कर सामने आया. आज उनकी उम्र सिर्फ 37 वर्ष है इतनी कम उम्र में इतनी राजनीतिक ऊंचाई नाप लेना अपने आप में महत्वपूर्ण है. जहां वे एक देशव्यापी नेता के रूप में अपनी पहचान बना चुके हैं वहीं उन पर कथित रूप से देश के खिलाफ नारे लगाने का भी आरोप लगा और जेल यात्रा भी करके आ गए हैं, चुनाव लड़ने  का भी अनुभव हो चुका है.

कम्यूनिस्ट पार्टी में रहकर के उन्होंने एक तरह से अपने आप को तौल लिया है कि आखिर उनकी उड़ान कितनी हो सकती है.

दरअसल, कम्युनिस्ट पार्टी के अपने नियम कानून कायदे होते हैं और वहां व्यक्ति विशेष की नहीं बल्कि विचारधारा की चलती है. ऐसे में कन्हैया कुमार के पास एक ही विकल्प था कि वह कम्युनिस्ट दायरे से बाहर आकर के किसी राष्ट्रीय पार्टी का दामन थाम लें ऐसे में कांग्रेस और राहुल का आगे आकर के  कुमार को हाथों हाथ लेना जहां कन्हैया कुमार को एक नई धार तेवर दे गया है उन्हें देश में काम करने का मौका भी मिलेगा.

अब सिर्फ एक ही सवाल है कि कांग्रेस पार्टी अपनी संकीर्ण धाराओं से निकल कर के कन्हैया कुमार को कुछ ऐसा दायित्व दे जिससे पार्टी को भी लाभ हो और देश को भी. आने वाले समय में बिहार में भी कन्हैया कुमार की उपस्थिति का लाभ कांग्रेस पार्टी को मिलने की कोई संभावना है. यही कारण है कि कांग्रेस में आते ही पटना में कांग्रेस मुख्यालय में कन्हैया कुमार और राहुल गांधी के बड़े-बड़े पोस्टर दिखाई देने लगे.

ये भी पढ़ें- कांग्रेस : मुश्किल दौर में भी मजबूत

राहुल गांधी और कन्हैया कुमार

लंबे समय से यह कयास लगाया जा रहा था कि कांग्रेस पार्टी में कन्हैया कुमार और जिग्नेश पटेल युवा आ रहे हैं. इस खबर से जहां कांग्रेस पार्टी में एक नई ऊर्जा का संचार दिखाई दे रहा था वहीं भाजपा में भी इसको लेकर के चिंता की लकीरें स्पष्ट दिखाई दे रही हैं. क्योंकि कन्हैया और जिग्नेश जैसे युवा किसी भी पार्टी को एक नई दिशा देने में सक्षम है. सिर्फ आवश्यकता है इनका उपयोग करने की समझ. यह माना जा रहा है कि अगर राहुल गांधी और प्रियंका गांधी कन्हैया कुमार जैसे नेताओं को आगे कर के देशभर में आम जनमानस से मिलने निकल पड़े और छोटी-छोटी सभाएं करके लोगों से सीधा संवाद करें भाजपा और नरेंद्र दामोदरदास मोदी की महत्वपूर्ण गलतियों पर चर्चा करें तो देखते-देखते माहौल बदल सकता है.

दरअसल, माना यह जा रहा है कि भाजपा के पास जो संगठननिक ताकत है जो अनुशासन है वह कांग्रेस में दिखाई नहीं देता इसे ला करके कांग्रेस पार्टी देश को एक नई दिशा दे सकती है.

अनलिमिटेड कहानियां-आर्टिकल पढ़ने के लिएसब्सक्राइब करें