धर्म के अंधे दलित-पिछड़े भाजपा की जीत की गारंटी

रोहित

यह दोहा 14वीं ईसवी में उत्तर प्रदेश के काशी (बनारस) में जनमे संत रविदास का है. वही रविदास, जो अपने तमाम कथनों में धर्म की जगह कर्म पर विश्वास करते थे और पाखंड के खिलाफ थे. आज की भाषा में अगर उन्हें धार्मिक कट्टरवाद और पोंगापंथ के खिलाफ एक मिसाल माना जाए तो गलत नहीं होगा.

इस दोहे में भी रविदास साफ शब्दों में कहते हैं कि न मुझे मंदिर से कोई मतलब है, न मसजिद से, क्योंकि दोनों में ईश्वर का वास नहीं है.

रविदास निचली जाति से संबंध रखते थे और जूते सिलने का काम करते थे. उन्होंने एक ऐसे समाज की कल्पना की थी, जहां शोषण, अन्याय और गैरबराबरी पर आधारित समाज नहीं होगा, कोई दोयम दर्जे का नागरिक नहीं होगा और न ही वहां कोई छूतअछूत होगा. अपने इस समाज को उन्होंने बेगमपुरा नाम दिया, जहां कोई गम न हो.

समयसमय पर संत रविदास जैसे महापुरुष धर्म पर आधारित सत्ता और पाखंड को चुनौती देते रहे और उन से प्रेरणा लेने वाली दबीशोषित जनता इन पाखंडों के खिलाफ खड़ी होती रही.

जैसे अपनेअपने समय में बुद्ध, कबीर और रविदास ने ब्राह्मणवाद को चुनौती दी, ऐसे ही आधुनिक काल में अय्यंकाली, अंबेडकर और कांशीराम जैसों ने भेदभाव की सोच को इस तरह खारिज किया, जिस से दलितपिछड़ों की आवाज सुनी और बोली जाने लगी.

इतने सालों की कोशिशों और टकरावों के बाद एक ऐसा समय भी आया, जब भले ही दलितपिछड़ों की हालत में बड़ा बदलाव न आया हो, पर देश की राजनीति से ले कर सत्ता तक इन जातियों के प्रतिनिधि संसद, विधानसभा में तो पहुंचे ही, साथ ही सरकार बनाने में भी कामयाब रहे, लेकिन आज हालात वापस पलटते दिखाई दे रहे हैं.

आज रविदास के बेगमपुरा जाने वाले रास्ते में ब्राह्मणवाद की गहरी खाई खुद गई है और इस खाई को खोदने वाले जितने सवर्ण रहे हैं, उस से कई ज्यादा खुद दलितपिछड़े हो गए हैं.

सवर्णों की बेबाकी की चर्चा तो हमेशा की जाती है, लेकिन आज जरूरत इस बात की है कि दलितपिछड़ों की चुप्पी और भगवाधारियों पर मूक समर्थन की चर्चा की जाए, क्योंकि आज हालात ये हैं कि दलितपिछड़ों की राजनीति और उस के मुद्दे धार्मिक उन्माद के शोर में दब चुके हैं और इस की वजह भी वे खुद ही हैं.

5 राज्यों के चुनाव

10 मार्च, 2022 को 5 राज्यों के चुनावी नतीजे सामने आए. इन 5 राज्यों में से 4 राज्यों उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, मणिपुर और गोवा में भगवाधारी भारतीय जनता पार्टी ने अपनी मजबूत वापसी की, वहीं पंजाब में कुल 117 सीटों में से

92 सीटें जीत कर आम आदमी पार्टी ने राज्य के पहले दलित मुख्यमंत्री चरणजीत सिंह चन्नी को सत्ता से बाहर का रास्ता दिखाया.

उत्तर प्रदेश में जहां एक तरफ भाजपा गठबंधन को 403 सीटों में से 273 सीटें, उत्तराखंड में 70 सीटों में से 47 सीटें, मणिपुर में 60 सीटों में से 32 सीटें और गोवा में 40 सीटों में से 20 सीटें मिलीं, वहीं दूसरी तरफ विपक्ष इन चुनावों में पूरी तरह से धराशायी हो गया.

उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी ने अपने लैवल पर थोड़ीबहुत लड़ाई जरूर लड़ी, पर जिस तरह के कयास भारतीय जनता पार्टी को हराने के लगाए जा रहे थे, वे सब धूल में मिल गए.

उत्तर प्रदेश के अलावा भाजपा न सिर्फ दूसरे 3 राज्यों में सरकार बनाने में कामयाब रही, बल्कि उत्तर प्रदेश में तो उस का वोट फीसदी गिरने की जगह बढ़ गया और यह सब इसलिए मुमकिन हो पाया कि दलितपिछड़ों के एक बड़े तबके ने भाजपा को वोट दिए.

दलितपिछड़ा वोटर कहां

पहली बार ऐसा हुआ है कि मायावती की बहुजन समाज पार्टी को महज एक सीट से संतोष करना पड़ा और उस का कोर वोटर इस अनुपात में किसी दूसरी पार्टी में शिफ्ट हुआ.

चुनाव में बुरी तरह हार का मुंह देखने के बाद बसपा मुखिया मायावती ने मीडिया के सामने कहा, ‘‘संतोष की बात यह है कि खासकर मेरी बिरादरी का वोट चट्टान की तरह मेरे साथ खड़ा रहा. मुसलिम समाज अगर दलित के साथ मिलता तो परिणाम चमत्कारिक होते.’’

यह तो वही बात हुई कि खिसियानी बिल्ली खंभा नोचे. मायावती मुसलिमों और सपा पर हार का ठीकरा फोड़ने की जगह अगर इस बात को समझने पर जोर देतीं कि उन का कोर दलित वोटर भाजपा की तरफ कैसे खिसक गया तो शायद उन की जीरो होती राजनीति में यह आगे के लिए एक बेहतर कदम साबित होता. पर अपनी हार का सही विश्लेषण करने की जगह उन की टीकाटिप्पणी यही साबित कर रही है कि वे अभी तक यह नहीं समझ पाई हैं कि जिस तरह से बसपा और मायावती ने भाजपा जैसी हिंदूवादी पार्टी के साथ मेलजोल बढ़ाया है और जो अभी भी जारी है, उसी का  नतीजा है कि उस के अपने वोटरों ने भी भाजपा के धर्म के इर्दगिर्द जुड़े मुद्दों और पाखंडों से संबंध बना लिए हैं.

इसी का खमियाजा है कि बसपा को इस विधानसभा चुनाव में महज 12.8 फीसदी ही वोट मिले, जो पिछली बार के 22.9 फीसदी से 10 फीसदी कम हैं. जाहिर है कि ये वोट पूरी तरह से भाजपा के साथ गए. यह दिखाता है कि सवर्णपिछड़ा तबके के वोटों का जितना नुकसान सपा ने भाजपा का किया, उस से ज्यादा वोटों की भरपाई भाजपा ने बसपा के दलित वोटों को पाखंड के जाल में फंसा कर कर ली.

यह सब इसलिए हुआ कि जिस सियासी जमीन पर कभी कांशीराम ने दलित हितों के लिए बहुजन समाज पार्टी की बुनियाद रखी थी, मायावती ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और भाजपा जैसी दलितों की वैचारिक दुश्मन संस्थाओं के साथ अपने रिश्तों को बढ़ा कर उस बुनियाद को खोखला करने का काम ही किया, जिस का सीधा नतीजा यह है कि वे दलित, जिन्हें सवर्णों के बनाए पाखंडों को चुनौती देनी थी, वे भी उन पाखंडों में रमते चले गए.

यहां तक कि भगवा भारतीय जनता पार्टी को हराने के लिए जहां बसपा को ताकत लगानी चाहिए थी, उसी बसपा ने 122 सीटों पर ऐसे उम्मीदवार खड़े किए, जिन का सीधा टकराव सपा के उम्मीदवारों से ही था. इन में से 91 मुसलिम बहुल और 15 यादव बहुल सीटें थीं. ये ऐसी सीटें थीं, जिन में सपा की जीत की ज्यादा उम्मीद थी, पर इन 122 सीटों में से 68 सीटें भाजपा गठबंधन ने जीतीं.

साफ है कि उत्तर प्रदेश में एक नया और बड़ा तबका भारतीय जनता पार्टी के समर्थन में आया है. इसी तरह समाजवादी पार्टी को पिछड़ों के एक हिस्से ने भाजपा से अलग हो कर वोट जरूर दिया, पर यह इतना नहीं था कि भाजपा को चोट पहुंचा सके.

बसपा के वोट फीसद और सीटों के रुझान को देखें, तो यह पता चलता है कि भाजपा को पड़े और बढ़े वोट दलितों के ही बसपा से शिफ्ट हुए, जो आगे की राजनीति (लोकसभा चुनाव) में भाजपा के लिए वरदान और दलितपिछड़ों व अल्पसंख्यकों के लिए चिंता का सबब बनेंगे.

पोंगापंथ में फंसे दलितपिछड़े

5 राज्यों के चुनाव खासकर उत्तर प्रदेश के चुनाव से सीधेसीधे समझ आता है कि दलितपिछड़ों का एक बड़ा तबका भाजपा और संघ के पोंगापंथ में फंस चुका है. वह खुद नहीं समझ पा रहा है कि जिस पार्टी का समर्थन कर रहा है, वह न सिर्फ उस की वैचारिक दुश्मन है, क्योंकि संघ और भाजपा ब्राह्मणवादी संस्कृति से प्रभावित रहे हैं, बल्कि जिस हिंदुत्व के लिए वह भाजपा को समर्थन दे रहा है, उस हिंदुत्व की बुनियाद ही दलितपिछड़ों के शोषण पर टिकी हुई है, जो आज नहीं तो कल सामने आने वाला ही है.

यह बहुत हद तक सामने आने भी लगा है, क्योंकि रामराज्य से खुद को जोड़ रहा दलित समाज सरकारी संपत्तियों के बिकने पर अपने आरक्षण की चढ़ती भेंट को नहीं देख पा रहा है. वह यह नहीं समझ पा रहा है कि मंदिर का मुद्दा उस के किसी काम का नहीं है, यह मुद्दा तो बस उसे पाखंड में शामिल करने को ले कर है, ताकि उस के दिमाग में यह बात फिट कर दी जाए कि सारी इच्छाएं, कष्ट सब मोहमाया है, इनसान तो मरने के लिए जन्म लेता है, आत्मा अजरअमर है, इस जन्म में पिछले जन्म का पापपुण्य भोगना पड़ता है, इसलिए जो भूख और तकलीफ है, वह सब पुराने जन्म के कर्मों का फल है, इसलिए ज्यादा इच्छाएं मत पालो, सरकार से सवाल मत पूछो. बस कर्म करो, फल की चिंता मत करो.

जाहिर है कि भाजपा दलितबहुजनों का इस्तेमाल बस अपने एजेंडे के लिए ही करेगी, बाकी इस के आगे अगर हाथ फैलाए तो रोहित वेमुला हत्याकांड, ऊना, सहारनपुर और हाथरस कांड के उदाहरण भी सब के सामने हैं. रविदास, कबीर, नानक, बुद्ध, अंबेडकर, कांशीराम क्या कह गए, यह भले ही दलितों को पता न चले, पर इन के मंदिर और मूर्तियां बना कर उन्हें ही भगवान बना दो, सब सही हो जाएगा.

भाजपा ने अपना पूरा चुनाव हिंदुत्व और कठोर राजकाज के मुद्दे पर लड़ा. ये दोनों मुद्दे ही किसी लोकतंत्र और संविधान के लिए घातक हैं. ऐसे में आने वाले समय में हिंदुत्व की गतिविधियां तेज होंगी, जो खुद दलितपिछड़े समाज के लिए घातक होंगी. आज दलितपिछड़े ऐसे रामराज्य का सपना देख रहे हैं, जिस में नुकसान उन्हीं का होना है.

गहरी पैठ: भारतीय जनता पार्टी और जातिवाद

भारतीय जनता पार्टी उत्तर प्रदेश में चुनावों में बारबार जातिवादी पार्टियों को कोस रही है कि वे कभी किसी का भला नहीं कर सकतीं. असल में अगर देश में आज सब से बड़ी जातिवादी पार्टी है तो वह भारतीय जनता पार्टी है, जिस ने पूरे देश में पौराणिक जातिवाद को हर पायदान पर बिना साफ किए लागू कर दिया है.

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यह जातिवादी तौरतरीकों का नतीजा है कि आज देश में भूखा ब्राह्मण सुदामा सरीखा कहीं नहीं मिलेगा, क्योंकि हर गांव में 5-6 मंदिर और हर शहर की हर गली में 5-6 मंदिर खुलवा दिए गए हैं जिन में ऋषिमुनियों की संतानें ठाठ से ‘हमारे पास तो कुछ नहीं है’, ‘सब भगवान का है’ कह कर रेशमी कपड़ों में, एयरकंडीशंड हालों में, हलवापूरी रोज चार बार खा रहे हैं.

सरकार को संविधान के हिसाब से 50 फीसदी नौकरियां पिछड़ों और दलितों को दे देनी थीं, पर किसी भी सरकारी दफ्तर में घुस जाएं, वहां इक्केदुक्के ही सपाबसपा वाले नाम दिखेंगे. वहां काम कर रहे लोग ज्यादातर ठेकों पर काम कर रहे हैं और ठेकदार को जाति के हिसाब से रखने का कोई कानून नहीं है. ठेकेदार ऊंची जातियों का है और उस ने जिन्हें रखा होगा वे भी ऊंची जातियों के ही होंगे.

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भारतीय जनता पार्टी बारबार माफिया को नीची जातियों से जोड़ रही है. यह पुरानी तरकीब है. पुराणों में हर कहानी में दस्युओं को, जो कहर ढाते थे, नीची जाति का दिखाया गया है. रामायण में मारीच, शूर्पणखा, रावण, कुंभकर्ण, मेघनाद सब को माफिया की तरह दिखाया गया है और पिछले 200 सालों से हर शहर में रामलीला के दौरान उन्हें काला भुजंग बता कर दिखाया जाता है. जब अमित शाह कहते हैं कि कमल पर वोट नहीं दिया तो जातिवादी माफिया आ जाएगा, उन का इशारा इन्हीं की ओर होता है. उन के लिए ये जातियां पौराणिक युग के दस्युओं, शूद्रों और अछूतों की संतानें हैं. शंबूक या एकलव्य जैसों के लिए भारतीय जनता पार्टी में कोई जगह नहीं है.
सरकार के 500 सब से ऊंचे अफसरों में से मुश्किल से 60 अफसर उन जातियों के हैं जिन्हें रिजर्वेशन मिला हुआ है.

भारतीय जनता पार्टी चुनचुन कर ऊंची जातियों के लोगों को ताकत दे रही है. वैसे भी हर पार्टी में चाहे वह समाजवादी हो या बहुजन समाज या तृणमूल कांग्रेस, ऊंची जातियों के ही लोग ऊंचे पदों पर हैं पर फिर भी कम से कम वे बात तो उन जातियों की करते हैं जिन के बच्चे आज पढ़ कर आगे आ गए हैं और हर बाधा पार करने को तैयार हैं.

यह न भूलें कि देश चलता उन मजदूरों और किसानों के बल है जिन्हें भारतीय जनता पार्टी माफिया कहती है. यहां तक कि पुलिस और ठंडी हड्डियां जमाने वाली पहाड़ी सीमाओं पर यही लोग हैं. इन्हें माफिया के साथ होने की गाली दे कर भारतीय जनता पार्टी जाति के नाम पर देश को बांट रही है.

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देश का बंटवारा हिंदूमुसलिम के नाम पर तो 1947 में भी नहीं हुआ था, क्योंकि जो लोग पिछले 500-600 सालों में मुसलमान बने थे, उन में ज्यादातर उन जातियों के थे जिन्हें माफिया की गाली दी जा रही है. इसी गाली को एकलव्य को सुनना पड़ा था, घटोत्कच को सुनना पड़ा था, हिरण्यकश्यप को सुनना पड़ा था, बाली को सुनना पड़ा था. आज नए दौर में नए नेता सुन रहे हैं.

क्या ‘नरेंद्र मोदी’ नाम का जहाज डूब रहा है!

कि भारत में भारतीय जनता पार्टी के नरेंद्र दामोदरदास मोदी की “सत्ता- सरकार” का जहाज जब डूबने डूबने को हो रहा था तो मोदी अपने सिद्धांतों और कही हुई बातों से मुकर गए और मोदी नाम का जहाज़ डूब गया.

नरेंद्र दामोदरदास मोदी ने जब 2014 में देश के प्रधानमंत्री की शपथ ली थी तो उन्होंने अपने मुंह से और आचरण से जो जो बातें कहीं, क्या वह आपको याद है. हमारे देश की यही फितरत है- “आगे पाठ पीछे सपाट” यही कारण है कि मोदी ने जो जो आशा आकांक्षाएं देश की जन जन के बीच जागृत की थी और लोग उनके मुरीद होते चले गए थे. आज लगभग 7 साल बीत जाने के बाद मोदी को एहसास हो चला है कि उनका बनाया हुआ “मायाजाल” अब बिखर रहा है. देश की आवाम इस जादुई “भ्रम जाल” से बाहर निकल रहा हैं, ऐसे में मोदी के आचरण में वही घबराहट दिख रही है जो नाव या जहाज डूबने के समय नाविक और कैप्टन के चेहरे पर नजर आती है.

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नरेंद्र दामोदरदास मोदी को यह एहसास हो चला है कि आने वाले समय में लोकतंत्र की दुहाई देकर, देश प्रेम की अग्नि जलाकर, देश को विकास के एक नए मॉडल के सपने दिखाकर उन्होंने जो सत्ता हासिल की है वह अब उनकी हाथों से निकल रही है. यही कारण है कि उन्होंने बीते दिनों जो केंद्रीय मंत्रिमंडल का पुनर्गठन किया वह स्वयं उनके लिए आइना बन गया है, जो बता रहा है कि आपने जो जो कहा था, उससे आप मुकर गए हैं. सत्ता के लिए आप भी वही सब कुछ कर रहे हैं जो अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने किया था.

मोदी के इस संपूर्ण व्यवहार और सिद्धांत पर आइए हम दृष्टिपात करते हैं.

दिग्गज मंत्रियों को हटाने का “लक्ष्य”!

लोगों के एक आदर्श बन चुके प्रधानमंत्री नरेंद्र दामोदरदास मोदी की कथनी और करनी में अंतर साफ साफ दिखाई देता है. वो जो कहते हैं के पीछे का सच कुछ और होता है और जो कुछ नहीं कहते हैं उसके आगे का सच कुछ और होता है. बिलकुल वैसे ही जैसे तीतर के दो आगे तीतर तीतर के दो  पीछे तीतर बताओ कितने तीतर!

देशभर में नरेंद्र मोदी के मंत्रिमंडल की चर्चा हो रही है कि किस तरह उन्होंने डॉ हर्षवर्धन, प्रकाश जावड़ेकर जैसे दिग्गज मंत्रियों को बाहर का रास्ता दिखा दिया है. और किस तरह महिलाओं को, पिछड़ों को और उत्तर प्रदेश, पश्चिम बंगाल, बिहार, तमिलनाडु को उन्होंने प्रतिनिधित्व दिया है. महिलाओं का कोटा बढ़ा दिया है ऐसी बातें पढ़ कर के और देख कर के हमें यह समझना होगा कि आखिरकार प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी कि इसके पीछे रणनीति क्या है?

नरेंद्र मोदी के बारे में सारा देश और दुनिया जानती है कि वही प्रधानमंत्री हैं और वही कैबिनेट और राज्यमंत्री भी! उनकी बिना सहमति और निगाह के किसी मंत्री की कोई बखत नहीं है. देश को एकमात्र वही अपनी उंगलियों पर चला रहे हैं या कहें नचा रहे हैं ऐसे में इन बड़े-बड़े दिग्गज मंत्रियों को अचानक हटाने के पीछे की मंशा क्या है.

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दरअसल इसके पीछे सिर्फ और सिर्फ अपनी छवि को निखारना है. आप याद करिए जब  कोरोना कोविड-19 का देश में आगमन हुआ था तो किस तरह  “नमस्ते ट्रंप” का  आयोजन प्रधानमंत्री मोदी के नेतृत्व में हुआ था. कोरोना जैसे-जैसे रफ्तार पकड़ता गया, दीप जलाओ ताली बजाओ और लॉकडाउन का खेल चला और यह कहा गया कि अब कोरोनावायरस देश से खत्म हो जाएगा.मगर जब दांव उल्टा पड़ने लगा तो अपनी छवि बनाने के लिए नरेंद्र दामोदरदास मोदी ने मंत्रिमंडल के दिग्गज मंत्रियों की छुट्टी करके यह संदेश देने का प्रयास किया है कि देखिए! किस तरह हम एक्शन लेते हैं.

यह भी सच है कि जिन जिन मंत्रियों को कैबिनेट से बाहर का रास्ता दिखाया गया है आने वाले समय में आप देखेंगे कि देश के अन्य महत्वपूर्ण स्थानों पर यही लोग विराजमान दिखेंगे. इसका सीधा सा अर्थ यह है कि अभी लोगों को ध्यान बटाने के लिए यह एक सीधी सी ट्रिक चली गई है जो कामयाब होती भी दिख रही है. क्योंकि हमारे देश में लोगों के जल्द भूल जाने की फितरत है. उसी का लाभ हमारे नेताओं को गाहे-बगाहे मिल जाता है.

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राहुल गांधी के समक्ष “प्रधानमंत्री” पद!

राहुल गांधी के जन्मदिवस पर यह पहली बार हुआ कि देशव्यापी स्तर पर उनके व्यक्तित्व और कार्यशैली पर चर्चा हुई यह अपने आप में एक अनोखी और महत्वपूर्ण बात है कि राहुल गांधी को जन्मदिवस पर इस दफा जिस तरीके से उन्हें नोटिस में लिया गया वह यह बता गया कि आगामी समय में राहुल गांधी देश के प्रधानमंत्री पद के सशक्त दावेदार हैं.

जैसा कि हम सभी जानते हैं राहुल गांधी ने 19 जून को 51 वर्ष पूरे किए और बावनवें वर्ष की देहरी पर पांव रखा है. सुबह से ही राहुल गांधी के जन्मदिन पर सोशल मीडिया में चर्चा का दौर शुरू हो गया, लोगों ने यह खुलकर कहना शुरू कर दिया कि जिस तरीके से वर्तमान प्रधानमंत्री नरेंद्र दामोदरदास मोदी असफलताओं से गिर गए हैं और एक ऐसे चक्र व्यूह में फंस गए हैं उससे निकल पाना अब मुश्किल जान पड़ता है. ऐसे में आखिर देश का नेतृत्व कौन सा व्यक्ति कर सकता है. इसमें लगभग लोगों की यही राय थी कि राहुल गांधी की चाहे विपक्ष के लोग कितने ही मजाक उड़ा कर उनकी छवि खराब करने का प्रयास करें मगर उन में बहुत सारी खुशियां भी है. जिस तरीके से उन्होंने सादगी और मानवता का बार-बार परिचय दिया है वह यह बताता है कि वह  दिल के साफ है, यही कारण है कि लोगों दिलों में राहुल गांधी अब राज करने लगे हैं.

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यह माना जा रहा है कि 2024 के लोकसभा  चुनाव में जब भाजपा चारों खाने चित हो जाएगी तो राहुल गांधी के नेतृत्व में केंद्र में सरकार बनेगी और प्रधानमंत्री बन कर राहुल गांधी देश को एक सशक्त नेतृत्व दे सकते हैं.

दरअसल, राहुल गांधी ने बारंबार यह जाहिर किया है कि वे देश और देश की माटी यहां के जन-जन से इस तरीके से वाकिफ हो चुके हैं यहां के माहौल को जिस नवाचार के साथ उन्होंने आत्मसात किया है वैसा नेतृत्व दूसरी राजनीतिक दल में कहीं दिखाई नहीं देता.

विरोध और लोगों के दिलों में जगह!

धीरे-धीरे इस बात का भी खुलासा हो चुका है कि विपक्ष अर्थात भारतीय जनता पार्टी और उसकी अनेक संस्थाओं के सोशल मीडिया कर्मियों ने राहुल गांधी के खिलाफ सोची-समझी रणनीति के तहत उन्हें बार-बार पप्पू का कहकर देश के जनमानस में उन्हें एक बेचारा शख्स बना करके यह जताया कि देश को एक सशक्त नेतृत्व की आवश्यकता है.

देश को नरेंद्र दामोदरदास मोदी जैसे 56 इंच के व्यक्ति की आवश्यकता है जो देश के भीतर और देश के बाहर दोनों जगह पर देश के आत्म सम्मान को ऊंचाई देकर  देश  को समझ सके और अच्छा कर सके.

लोग सोशल मीडिया के  प्रपंच में फंस करके राहुल गांधी के अच्छाइयों को न देखते हुए सिर्फ बताई गई बिना तथ्य की बातों के आधार पर मन, भावना बना कर कांग्रेस और राहुल को हाशिए पर डालते चले गए.

धीरे धीरे नरेंद्र मोदी विफलताओं के शिखर की ओर बढ़ रहे हैं तो लोगों को सच्चाई का एहसास हो रहा है कि किस तरीके से सोशल मीडिया में  सफेद झूठ बता करके उन्हें भ्रमित किया गया था. परिणाम स्वरूप अब राहुल गांधी के प्रति लोगों की संवेदना जाग रही है. लोगों को उनकी अच्छाइयां दिख रही हैं. उनके जन्मदिवस पर जिस तरीके से लोगों ने उनके प्रधानमंत्री पद संभालने की अपेक्षा के साथ स्नेह पूर्वक याद किया वह अपने आप में अत्यंत महत्वपूर्ण कहा जा सकता है. और यह बात आने वाले समय में सच भी सिद्ध हो सकती है.

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चुनौतियां ही चुनौतियां हैं!

मगर, इसके बावजूद राहुल गांधी के सामने चुनौतियां कम नहीं है. एक तरफ कांग्रेस के भीतर वे चुनौतियों से घिरे हुए हैं तो दूसरी तरफ भारतीय जनता पार्टी का नेतृत्व किस तरीके से इन दिनों राजनीति की एक नई एबीसीडी लिख रहा है उसमें एक सीधे सरल सादगी पसंद राहुल गांधी को चक्रव्यू भेद पाना मुश्किल दिखाई देता है. क्योंकि आज की राजनीति इतनी गंदली हो चुकी है उसमें साम, दाम, दंड, भेद से आगे का खेल खेला जाता है.

कांग्रेस अपने सिद्धांतों के साथ राजनीति के मैदान में लोगों से वोट मांगती है मगर आज की राजनीति उससे आगे निकल कर के एक ऐसे खतरनाक और भयावह रास्ते पर बढ़ गई है जिसमें कोई नैतिकता, कोई धर्म नहीं बचता. इसके अलावा भी राहुल के समक्ष बहुत सारी चुनौतियां हैं जिसमें महत्वपूर्ण है उनका आत्मविश्वास के साथ भाजपा के साथ चुनाव में उतरना, कांग्रेस का नेतृत्व का मामला भी एक बड़ा प्रश्न है जिसे सबसे पहले सुलझाना होगा, इसके साथ ही जिस तरीके से कांग्रेस के नेता पार्टी को छोड़कर जा रहे हैं या फिर उन्हें लालच देकर के आकर्षित किया जा रहा है यह भी राहुल गांधी के लिए एक अनसुलझा सवाल है.

इन सब के बावजूद जिस तरीके से सोशल मीडिया में राहुल गांधी को उनके जन्मदिवस पर लोगों ने इसमें पूर्वक और एक सम्मान के भाव के साथ याद किया वह बताता है कि आने वाला समय राहुल गांधी का है.

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