Bihar Elections 2025: दलितमुसलिम बनाम पुराणवादी व्यवस्था का चुनाव

Bihar Elections 2025: साल 2014 में जब बिहार की राजनीति भारी उथलपुथल के दौर से गुजर रही थी, तब मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने एक अहम फैसला लेते हुए भाजपा के सहयोग से महादलित मुसहर समुदाय से आने वाले नेता जीतनराम मांझी को मुख्यमंत्री बना दिया था.

यह कोई उदारता नहीं थी, बल्कि नीतीश कुमार की मजबूरी हो गई थी, क्योंकि लोकसभा चुनाव में उन की पार्टी जनता दल (यूनाइटेड) 40 में से केवल 2 सीटें ही जीत पाई थी.

अपने खिलाफ पनप रहे चौतरफा असंतोष और विरोध को काबू करने के लिए उन का यह टोटका तात्कालिक तौर पर कामयाब रहा था, लेकिन दिक्कत उस वक्त खड़ी हो गई, जब जीतनराम मां झी अपने वादे से मुकर गए और यह तक कहने लगे थे कि मैं कोई रबर स्टांप सीएम नहीं हूं.

जीतनराम मांझी के मुख्यमंत्री बन जाने से हुआ क्या, दलितों के लिहाज से इस के कोई खास माने नहीं, क्योंकि उन्होंने भी दलितों के भले के लिए कुछ नहीं किया. 9 महीने के अपने कार्यकाल में जीतनराम मां झी ने जो बड़ी गलतियां की थीं, उन में से एक थी मंदिर जाना.

यों किसी भी मुख्यमंत्री का मंदिर जाना कोई हैरत की बात नहीं होती, लेकिन उन का जाना जरूर हैरत की बात थी, क्योंकि वे वक्तवक्त पर खुद को न केवल नास्तिक कहते रहे हैं, बल्कि मनुवाद सहित हिंदू धर्मग्रंथों की भी आलोचना करते रहे हैं.

मुख्यमंत्री रहते हुए जीतनराम मांझी ने साल 2015 में कहा था, ‘‘मैं भगवान में विश्वास नहीं करता क्योंकि अगर भगवान होते तो दलितों पर इतना अत्याचार क्यों होता? मंदिरों में अब भी दलितों को भेदभाव झेलना पड़ता है, इसलिए मु झे मंदिरों में कोई आस्था नहीं.’’

21 सितंबर को जीतनराम मांझी ने रामायण की कहानी को काल्पनिक बताया और 2 महीने बाद ही 19 दिसंबर को एक सभा को संबोधित करते हुए कहा, ‘‘मैं राम में विश्वास नहीं करता. राम कोई व्यक्ति नहीं था.’’

अंबेडकर जयंती के मौके पर बोलते हुए जीतनराम मांझी ने दलितों को धार्मिक कर्मकांडों से दूर रहने का मशवरा भी दिया था. 17 मार्च, 2023 को उन का एक बयान था, ‘‘रामायण एक काल्पनिक कृति है. रावण राम से अधिक मेहनती और कर्मकांड में निपुण था.’’

इस पर जब हिंदूवादी संगठनों ने उन्हें घेरा तो उन का बयान था कि दलितों को मंदिरों में प्रवेश न देने वाले धर्म के ठेकेदारों को भी आलोचना का सामना करना चाहिए.

जीतनराम मांझी अगर अपनी बातों और बयानों पर टिके रहते तो तय है कि बड़े राष्ट्रीय नेता होते, लेकिन नीतीश कुमार और भाजपा ने उन की इतनी दुर्गति कर दी है कि मौजूदा चुनाव में वे अपने मनमुताबिक सौदेबाजी भी नहीं कर पाए. उन का और उन की हम पार्टी का क्या हुआ, यह तो नतीजे बताएंगे, पर अकसर भाजपा को दलितों की बदहाली का जिम्मेदार ठहराते रहने वाले जीतनराम मां झी और उन के जैसे दलित नेता भी इस गुनाह के कम जिम्मेदार नहीं हैं, जो अपनी खुदगर्जी के लिए जब चाहे रामनामी चादर ओढ़ लेते हैं. इन्हीं तथाकथित ‘नास्तिक’ जीतनराम मां झी की मुख्यमंत्री रहते ही एक मंदिर में जो बेइज्जती हुई थी, तो वे तिलमिला उठे थे.

बेआबरू होते दलित नेता

मामला अगस्त, 2014 का है जब जीतनराम मां झी औररंगाबाद के देव मंदिर में दर्शन और पूजन के लिए चले गए थे. यह सूर्य मंदिर है जहां छठ के दिन बेतहाशा भीड़ उमड़ती है. पूजन और दर्शन की उन की मंशा पूरी नहीं हो पाई, क्योंकि मंदिर के पुजारियों और स्थानीय ब्राह्मण नेताओं ने उन्हें यह कहते हुए मंदिर में दाखिल होने से रोक दिया था कि भले ही वे मुख्यमंत्री हों लेकिन चूंकि दलित हैं, इसलिए सीधे मंदिर में जा कर पूजा नहीं कर सकते.

बड़े बेआबरू हो कर तेरे कूचे से हम निकले की तर्ज पर मंदिर से दलित होने का ‘प्रसाद’ आम दलितों की तरह ले कर जीतनराम मां झी भुनभुना और तिलमिला कर यह कहते रह गए कि जो लोग बाहर मेरे पांव पड़ते हैं वही आज मु झे मंदिर में प्रवेश नहीं करने दे रहे हैं, लेकिन इस अपमान का बदला वे नहीं ले पाए, न ही ब्राह्मणों, पंडेपुजारियों और पुराणवादियों को कोई सबक या नसीहत दे पाए, उलटे मंदिर के बाहर से ही उन्होंने पूजापाठ किया था और तरस खाने वाली एक बात यह भी थी कि उन के जाने के बाद इस मंदिर को धो कर पवित्र किया गया था.

आज उसी ब्राह्मण और बनियावादी भगवा खेमे के साथ मिल कर जीतनराम मां झी चुनाव लड़ रहे हैं, जो सदियों से दलितों को प्रताडि़त करता रहा है, भेदभाव करता रहा है और आज भी उन का शोषण बदस्तूर कर रहा है.

अब भला कौन जीतनराम मां झी और उन जैसे दोहरे चरित्र वाले दलितों से पूछे और किस को वे बताएं कि इस देश में दलित होने के माने क्या होते हैं और क्यों दलित मंदिर जा कर पूजाअर्चना करने की ख्वाहिश और जिद पर अड़े रहते हैं, जबकि शोषण, भेदभाव और जातिगत भेदभाव के उद्गम स्थल यही मंदिर हैं, जहां राज कानून संविधान या उस के आर्टिकल 17 का नहीं, बल्कि पुराणवादियों का चलता है. इस से वे कोई सम झौता किसी भी शर्त पर नहीं करते. हां, तगड़ी दक्षिणा मिले तो दलितों को भी सवर्णों की तरह पूजापाठ करने की इजाजत दे देते हैं, वह भी अहसान की शक्ल में.

प्रसंगवश यह जान लेना जरूरी है कि यही जिद कभी राष्ट्रपति रहते रामनाथ कोविंद ने भी की थी. लेकिन इन पुराणवादियों ने बख्शा उन्हें भी नहीं था.

मामला 18 अक्तूबर, 2018 का है, जब वे अपनी पत्नी सविता कोविंद सहित पुरी के जगन्नाथ मंदिर गए थे. चूंकि मामला राष्ट्रपति जैसे सर्वोच्च संवैधानिक पद का था, लेकिन उस पर बैठा व्यक्ति कोरी यानी दलित समुदाय का था, इसलिए हल्ला कम मचा, क्योंकि मामले पर लीपापोती कर दी गई थी, पर उन्हें भी प्रवेश से रोकने की कोशिश की गई थी, उन के साथ लगभग धक्कामुक्की की गई थी. सच जो भी हो लेकिन मंदिर के अंदर जाने की इजाजत उन्हें मिल गई थी.

ठीक उसी दिन यह खबर भी सुर्खियों में रही थी कि राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद ने पुरी के जगन्नाथ मंदिर को एक लाख रुपए का दान दिया. मुमकिन है कि यह सौदा रहा हो.

ऐसी सौदेबाजियां समाज में अब बेहद आम हैं, जिन के तहत पंडेपुजारी पैसे वाले दलितों के घर मनमुताबिक दक्षिणा मिल जाने पर पूजापाठ करने के लिए चले जाते हैं, क्योंकि उन का सब से बड़ा भगवान यही पैसा होता है जिस के लिए सारे धार्मिक छलप्रपंच रचे गए हैं. ये वे शिक्षित और संपन्न हो गए दलित हैं जो अपना मसीहा तो भीमराव अंबेडकर को मानते हैं, लेकिन यह भूल जाते हैं कि अंबेडकर ने कई बार बहुत साफतौर पर नसीहत दलितों को दे रखी थी कि पुराणवादियों के अत्याचारों से छुटकारा चाहिए तो स्कूलकालेजों को मंदिर सम झो और संविधान को अपना धर्मग्रंथ मानो.

बसपा के संस्थापक कांशीराम ने मंत्र यही दिया था कि मंदिर और धर्मग्रंथ छोड़ो और सीधेसीधे मनुवादियों से राजनातिक स्तर पर भिड़ो, तो जीत भी सकते हो.

ऐसा होता दिखने भी लगा था लेकिन बसपा प्रमुख मायावती ने कैसे भाजपा के सामने हथियार डालते हुए घुटने भी टेक दिए, यह हर किसी ने देखा. यह ठीक है कि मायावती कभी मंदिर नहीं गईं लेकिन इस से उन के गुनाह पर परदा नहीं डल जाता.

बिहार में यही काम जीतनराम मांझी के बाद चिराग पासवान कर रहे हैं जिन के लिए उन के पिता रामविलास पासवान विरासत में अच्छीखासी सियासी पूंजी छोड़ गए हैं.

फिल्मों और क्रिकेट में नाकाम रहे चिराग पासवान ने अपने पिता के उसूलों को तोड़तेमरोड़ते भाजपा का हाथ थामने के लिए खुद को धार्मिक और कर्मकांडी साबित करते हुए पिता की तेरहवीं धूमधाम से की थी, अपना सिर मुंडाया था, गंगा पूजन किया, मृत्युभोज दिया और ब्राह्मण पूजन भी किया था, जबकि रामविलास पासवान का मानना था कि दलितों के पिछड़ेपन और शोषण की बड़ी वजह यही ढोंग और पाखंड हैं, इसलिए वे कभी इन चक्करों में नहीं पड़े और अपनी शर्तों पर भाजपा से सम झौता करते रहे.

लेकिन अब उलटा हो रहा है. चिराग पासवान इतने बेबस हो गए हैं कि भाजपा के इशारे पर नाचते रहने के सिवा उन के पास कोई रास्ता नहीं बचा.

बिहार के ये दोनों ही नेता भाजपा की गोद में बैठ कर मायावती की तरह वोट शिफ्टिंग वाला खेल खेलते हैं. एक तरह से देखा जाए तो सीधेसीधे पुराणवादियों के हाथों की कठपुतली बने हुए हैं.

90 के दशक के लालू राज में दलितपिछड़े साथसाथ थे और राजद प्रमुख लालू प्रसाद यादव को अपना रोल मौडल मानते थे. लालू प्रसाद यादव जानतेसम झते थे कि न केवल दलित पिछड़ों, बल्कि मुसलिमों की भी सब से बड़ी दुश्मन पार्टी भाजपा ही है. लिहाजा, उन्होंने खुलेआम भाजपा, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और उन के मनुवाद के चिथड़े उड़ाते हुए इन दोनों समुदायों को साध लिया था.

मुसलिम भी कम परेशान नहीं

19 फीसदी मुसलिम आबादी वाले बिहार में मुसलिमों की हालत भी दलितों सरीखी ही है. वे भी मुख्यधारा से दूर हैं और पुराणवादियों के धार्मिक तिरस्कार, प्रताड़ना और अनदेखी के शिकार हैं.

इन का भी दलितों की तरह कोई सियासी बड़ा नेता नहीं है. आजादी के बाद यह वर्ग कांग्रेस को अपना हितैषी सम झ कर उसे वोट करता रहा, लेकिन लालू युग की शुरुआत से ही राजद का हो लिया.

लालू प्रसाद यादव की तो राजनीति ही यादवों के साथसाथ मुसलिमों के कंधों पर टिकी थी जिसे पुख्ता करने के लिए उन्होंने ‘एमवाय’ का नारा दिया था.

साल 2024 में बिहार में 7 बड़ी सांप्रदायिक घटनाएं दर्ज की गई थीं, जिन में कोई दर्जनभर मुसलिम मारे गए थे. हिंदू तीजत्योहारों पर तो मुसलिमों की शामत सी आ जाती है. मुसलिम बहुल इलाकों से जब हिंदुओं के जुलूस वगैरह निकलते हैं, तो मुसलिम दुआ मांगने लगते हैं कि सब कुछ ठीकठाक निबट जाए, नहीं तो खैर नहीं.

नीतीश राज से उन्हें कोई एतराज या परेशानी नहीं होती, लेकिन जब भी नीतीश राम भक्तों की पार्टी के पहलू में जा बैठते हैं तो मुसलिम खुद को पहले से ज्यादा असुरक्षित और असहज महसूस करने लगते हैं.

मोदी राज में बंगलादेशी घुसपैठियों के नाम पर बिहार में मुसलिमों को निशाने पर अकसर लिया जाता रहा है. पूर्वी सीमांचल के जिलों कटिहार और किशनगंज में तो यह आएदिन की बात हो गई है जहां के मुसलिम खुद को पराया सम झने लगे हैं.

90 फीसदी मुसलिम रोज कमानेखाने वाले हैं, जो छोटेमोटे काम कर के जैसेतैसे गुजारा करते हैं. एसआईआर में दलितों के साथ मुसलिमों के नाम सब से ज्यादा कटे हैं, जिस पर कांग्रेस और राजद ने जम कर बबाल काटा था.

चुनाव आतेआते यह बहुत बड़ा मुद्दा नहीं रह गया है, लेकिन मुसलिम तबका मन बना चुका है कि अब भाजपा से चार हाथ दूर ही रहना है और जनता दल (यू) से भी परहेज करना है.

न केवल धर्म बल्कि सामाजिक और राजनीतिक स्तर पर भी मुसलिम और दलित एकदूसरे को नजदीक महसूस करते रहे हैं. 90 के दशक में दोनों ने दिल से लालू प्रसाद यादव को वोट किया था. इस के बाद नीतीश कुमार पर भी उन्होंने भरोसा जताया और पिछले चुनाव में असदुद्दीन ओवैसी के साथ यह सोचते हो गए थे कि शायद वे हमे सुरक्षा दे पाएं. पर जल्द ही साफ हो गया कि ओवैसी बिहार में मुसलिम वोटों की फसल काटने आए थे, जिन की कोई जमीनी पकड़ या संगठन नहीं है. सभी से मोह भंग होने के बाद इस बार फिर यह तबका महागठबंधन की तरफ झुक रहा है, क्योंकि ज्यादातर दलित भी अब जद (यू) पर भरोसा नहीं कर रहे.

साथ होंगे दलितमुसलिम

मंडल कमीशन के बाद कमंडल की राजनीति बिहार में दूसरे हिंदीभाषी राज्यों की तरह परवान नहीं चढ़ पाई थी, तो लालू प्रसाद यादव इस की एक बड़ी वजह थे. उन की हरमुमकिन कोशिश भाजपा को रोकने की रही, क्योंकि इस के खतरे और नुकसान उन्हें सम झ आ रहे थे कि अगर कभी धोखे से भी भाजपा अपने दम पर बिहार की सत्ता पर काबिज हो पाई तो बिहार में भी पूरी तरह ब्राह्मण राज कायम हो जाएगा.

साल 2020 के चुनाव नतीजों पर नजर डालें तो साफ हो जाता है कि न केवल दलित बल्कि मुसलिम वोट भी बंटे थे. इस चुनाव में राजग को 125 सीटें मिली थीं जिन में से भाजपा को 74 और 43 जनता दल (यू) के खातें में गई थीं. हम और वीआईपी के खाते में 4-4 सीट आई थीं.

महागठबंधन में राजद को 75 और कांग्रेस को 19 सीटें मिली थीं, तो वामपंथी दल 16 सीटें ले जाने में कामयाब रहे थे. लोजपा को गिरते पड़ते एक सीट जमुई की मिल पाई थी, लेकिन ओवैसी की एआईएमआईएम को उम्मीद से ज्यादा 5 सीटें मिली थीं. हालांकि, बाद में उस के 4 विधायक राजद में चले गए थे. हैरत की बात महागठबंधन का वोट शेयर 37.5 फीसदी राजग के 37.3 फीसदी से 0.2 फीसदी ज्यादा होना रहा था.

इस चुनाव में चिराग पासवान की मंशा राजद के वोट काटने की ज्यादा थी, जिस में वे कामयाब भी रहे थे. कोई 15 सीटों पर लोजपा ने राजद के वोट काटे थे, जिन में दलितमुसलिम वोट ज्यादा थे. हालांकि, राजद से कहीं ज्यादा नुकसान जद (यू) को उठाना पड़ा था, लेकिन उस की भरपाई भाजपा ने कर दी थी.

महागठबंधन को दूसरा बड़ा नुकसान एआईएमआईएम ने पहुंचाया था, क्योंकि मुसलिम बहुल सीटें जो राजद और कांग्रेस को मिलनी तय मानी जा रही थीं, उन्हें ओवैसी की पार्टी झटक ले गई थी.

इस जीत ने साफ कर दिया था कि एआईएमआईएम को मुसलिमों के साथ साथ दलित वोट भी मिले हैं. हालांकि, 4 विधायकों के पाला बदल लेने से एआईएमआईएम की साख पर बट्टा ही लगा था. मुसलिमों को सम झ आ गया था कि इस पार्टी से उन के भले की उम्मीद करना बेकार की बात है.

बिहार में मुसलिम वोट तकरीबन 18 फीसदी और दलित वोट 19 फीसदी हैं, जो निर्णायक है और महागठबंधन के पाले में जाना तय हैं, जिस की दावेदारी 14 फीसदी यादव वोटरों की भी है. इस तरह 51 फीसदी वोट अगर महागठबंधन को मिलते हैं, तो उसकी राह में कोई रोड़ा है नहीं.

लेकिन यही अंदाजा पिछले चुनाव में भी सियासी पंडितों का था जो पूरी तरह गलत नहीं निकला था, क्योंकि मामूली ही सही पर महागठबंधन का वोट फीसदी राजग से ज्यादा था. एआईएमआईएम ने 1.25 फीसदी मुसलिम वोटों और 5 सीटों को हथियाया था तो हम और लोजपा ने कोई 7 फीसदी दलित वोटों को अपने पाले में लाने में कामयाबी हासिल कर ली थी.

इस बार इन वोटों में सेंधमारी करने की कोशिश पीके के नाम से मशहूर प्रशांत किशोर की जन सुराज पार्टी कर रही है. लेकिन दलितमुसलिम दोनों ही दूध के जले हैं, लिहाजा छाछ होंठों तक ले जाने की हिम्मत जुटा पाएंगे, ऐसा लग नहीं रहा.

शुरू में ऐसा लग रहा था कि भूमिहार होने के चलते पीके केवल 15 फीसदी सवर्ण वोटों में सेंध लगाएंगे, लेकिन चुनाव की तारीखों के ऐलान के साथ ही उन का दखल दलितमुसलिम बहुल बस्तियों और सीटों में बढ़ा तो साफ हो गया कि उन की असल मंशा क्या है.

वैसे भी बिहार में अनिश्चितता का माहौल है खासतौर से दलितमुसलिम ज्यादा सहमे हुए हैं, जिन्हें प्रशांत किशोर लुभाने की कोशिश कर तो रहे हैं, लेकिन उन के पास कोई ठोस आधार नहीं है सिवा बातों, वादों और आश्वासनों के. ऐसे में वे खुद को बिहार का अरविंद केजरीवाल साबित कर पाएंगे, ऐसा लग नहीं रहा क्योंकि उन के पीछे न कोई अन्ना हजारे है और न ही बड़ा कोई आंदोलन है, जो लोगों का मन बदल सके.

बिहार में बहुतकुछ साफ भी है कि पुराणवादियों का दबदबा खत्म होना चाहिए और इस के लिए दलितमुसलिम एकजुट हो गए तो राजग को झटका भी लग सकता है, क्योंकि नीतीश कुमार अब सिर्फ 3 फीसदी कुर्मियों के नेता रह गए हैं और सेहत भी उन का साथ नही दे रही. राहुल गांधी और तेजस्वी यादव ने संविधान का हवाला और वास्ता दे कर आगाज तो अच्छा कर दिया है. Bihar Elections 2025

Bihar Elections 2025: नई मतदाता सूची पर उठे सवाल

Bihar Elections 2025: बिहार के चुनावों के लिए तैयार की गई मतदाता सूची में काफी नाम जोड़े गए हैं, काफी हटाए गए हैं. पर लगता है कि अब जो सूची तैयार हुई है वह बहुत गलत नहीं है. अब तो मतदान के दिन पता चलेगा, जब लोग वोट डालने जाएंगे और उन्हें अपना नाम नहीं मिलेगा.

नीतीश कुमार और केंद्र सरकार ने काफी कोशिश की थी कि मतदाता सूचियों में ऐसे बदलाव किए जाएं कि मतदान का फैसला उलटा हो सके. सरकार को मालूम है कि बिहार के लोग अपने हकों के लिए लड़ने वाले नहीं हैं. वे ज्यादातर जमींदारों की गुलामी के आदी रहे हैं और अंगरेजों के आने से पहले भी कभी खड़े नहीं हुए, इसीलिए 1700 के बाद जब ईस्ट इंडिया कंपनी ने अपने पैर कोलकाता के सैंटर से उस समय सिर्फ ट्रेड करनेके लिए फैलाने शुरू किए, उन्होंने बिहारी मजदूर और बिहारी सैनिक रखे.

1757 में प्लासी की लड़ाई के बाद अंगरेजों की फौज में 70 फीसदी बिहारी राजपूत और ब्राह्मण हुआ करते थे जिन के बल पर उन्होंने धीरेधीरे पूरे भारत पर कब्जा किया. 1857 के बाद जरूर उन्होंने बिहारी ब्राह्मणों को सेना में रखना कम कर दिया था पर दूसरे गोरे व्यापारी बिहारियों को ही उन की सहने की आदत की वजह से रखते थे.

मौरीशस, फिजी, दक्षिण अफ्रीका, सूरीनाम में एग्रीमैंट कर के गए भारतीयों में से ज्यादातर यहीं के लोग थे, जिन्हें गिरमिटिया मजदूर कहा जाता था. जब मुंबई, अहमदाबाद में मिलें लगनी शुरू हुईं तो ढेरों बिहारी गए, क्योंकि वे हुक्म मानने वाले हुआ करते थे.

नीतीश कुमार जो तकरीबन 20 वर्षों से बिहार के मुख्यमंत्री हैं, इसीलिए सत्ता में हैं क्योंकि एक आम बिहारी की तरह वे जो मालिक है उस के साथ हो जाते रहे हैं. लालू प्रसाद यादव ने बिहारियों को हक दिलाने की कोशिश की पर फिर ऊंची जात वालों ने ऐसे फंदे फेंके कि उन्हें अपनी जिंदगी कचहरियों और जेलों में बितानी पड़ी.

मतदाता सूची में से लाखों नाम कट जाते तो वे चूं नहीं करते और इसीलिए ज्ञानेश कुमार जैसे अफसर को चुनाव आयुक्त की तरह लगाया गया जो पूरी तरह सरकार के साथ था.

यह तो राहुल गांधी की न्याय यात्रा और वोट चोरी का इलजाम था कि जो मतदाता सूची अब तैयार हुई है उस पर मोटेतौर पर कोई हंगामा नहीं मच रहा. 14 नवंबर को फैसला चाहे जो भी आए, यह तो दिखता है कि आम बिहारी का वोट का हक पक्का रहेगा. राहुल गांधी ने पूरे देश में वोट की कीमत भी बता दी है और चुनाव आयोग अब कानून की आड़ में खड़ा हो कर कहीं भी वोटों की काटाछांटी नहीं कर सकेगा.

संविधान की खैरियत इसी में है कि लोगों का वोटों का हक जान के जैसा रहे. सरकारें इसे छीनेंगी क्योंकि वे अब नहीं चाहतीं कि डैमोक्रेसी के नाम पर उन पर बंदिशें लगें. अब जो जीतता है वह डोनाल्ड ट्रंप की तरह महामहिम बनना चाहता है जो हर सुबह नए तुगलकी फरमान जारी कर सके. अमेरिका में न सही भारत में लगता है वोट का हक अब छीनना आसान नहीं रह गया है.

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खेलों में हारजीत चलती रहती है पर जिस तरह से भारतपाकिस्तान के 3 मैच एशिया कप में लगभग बराबरी पर खत्म हुए उस से साफ है कि इस मामले में दोनों टीमें एकदूसरे के खिलाफ नहीं, एकदूसरे के साथ लाखों जुआ और सट्टा लगाने वालों के लिए खेल रही थीं. 14 सितंबर को हुए मैच में तो भारत की टीम ढंग से खेली पर 21 सितंबर को केवल डेढ़ ओवर आगे रह कर, फाइनल में केवल 3 बौल आगे रह कर दोनों टीमों ने सट्टेबाजों को करोड़ों नहीं, अरबों का फायदा दिलाया था.

भारत और पाकिस्तान अब सिर्फ क्रिकेट खेलते हैं. वह भी 22 लोगों को खिलाते हैं और बाकी तो जुआ खेलते हैं. इस जुए में कि भारत जीतेगा कि पाकिस्तान जीतेगा, इस बौल में कैच आउट होगा या चौका लगेगा, इस बैट्समैन के 10 रन बनेंगे या 50 पर जबरदस्त शर्तें लगती हैं. लाखों को किक मिलती है जो अच्छे से अच्छे खेल में नहीं मिलती.

टीवी पर मैच देखना भारतीय जनता का सब से बड़ा खेल है. मोबाइल पर रील्स देखने के बाद भारत और पाकिस्तान के युवा कुछ करते हैं तो भारतपाकिस्तान का मैच देखते हैं जो कुंभ की तरह कभीकभार ही होते हैं. एशिया कप के आयोजकों ने सम झ लिया था इसीलिए उन्होंने दोनों को 3-3 बार खिलवाया जो साफ है कि एक स्कीम के हिसाब से हुआ.

सट्टेबाजी हर जगह होती है पर यहां अब खेलों के नाम पर सिर्फ सट्टेबाजी बची है. एथलैटिक्स और कुश्ती में जहां भारतीय खिलाड़ी मैडल ले आते हैं, न दर्शक होते हैं, न मैच फिक्सिंग होती है. सट्टेबाजी का तो सवाल ही नहीं उठता.

इस सट्टेबाजी में इस बार प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी लगे हुए थे क्योंकि भारत की टीम के जीतने पर उन्होंने उसे ‘आपरेशन सिंदूर’ से जोड़ते हुए बधाई दे दी. इंटरनैशनल क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड असल में वैसे ही भारत सरकार की एक यूनिट है और सारे फैसले भारत को देख कर लिए जाते हैं क्योंकि क्रिकेट में पैसा तो भारत के दर्शक ही देते हैं. टीवी राइट्स अरबों में बिकते हैं क्योंकि विज्ञापन करने वालों को पता है कि भारतीय बदहाल युवा कामधाम छोड़ कर इन्हें जरूर देखेंगे और वहां वे अपना पानमसाला जबरदस्त तरीके से बेचते हैं.

एशिया कप हो, वर्ल्ड कप हो, टी 20 हो, वनडे हो यह तमाशा चलता रहता है क्योंकि यह एक जगह है जहां से पाकिस्तान के बहाने हिंदुस्तान के मुसलमानों को कहने का मौका मिलता है कि दिखा दिया न, तुम्हारी औकात क्या है.

फुटबाल, टैनिस, फील्ड गेम्स, तैराकी, जिमनास्टिक जैसे बीसियों खेलों में भारत व पाकिस्तान की टीमें कहीं नजर नहीं आएंगी. पहले जिस हौकी पर ब्रिटिश इंडिया के समय से कब्जा था वह खेल भी 20-25 साल पहले हाथ से निकल गया क्योंकि वहां फिक्सिंग नहीं होती, सट्टा नहीं लगता. एशिया कप में भारत और पाकिस्तान दोनों की क्रिकेट टीमें जीती हैं, दोनों के खिलाडि़यों ने न जाने कहांकहां कमाया होगा. Bihar Elections 2025

Bihar Elections 2025: एससी, एसटी, मुसलिम को नेता नहीं मसीहा चाहिए – पर कैसा?

Bihar Elections 2025, लेखक – शकील प्रेम

बिहार के विधानसभा चुनावों में भारतीय जनता पार्टी और कांग्रेस दोनों एससी, एसटी और मुसलिम वोटों को जमा करने के लिए हाथपैर मार रही हैं. पर ये समाज जानते हैं कि वे सताए हुए हैं, उन से जम कर भेदभाव होता है, उन्हें कदमकदम पर बेइज्जत किया जाता है, उन के पढ़ने, साथ बैठ कर खाने के हक, रोटीबेटी के संबंध बनाने में हजारों रुकावटें हैं, फिर भी तकरीबन बहुमत में होते हुए भी वे बेबस हैं, बेचारे हैं, गरीब हैं, गंदे घरों में मैला पानी पीते हैं. सिर्फ वोटों के समय उन की पूछ होती है.

एससी व मुसलिम समाज में नेताओं और बुद्धिजीवियों की कमी नहीं है. नेता तो थोक के भाव में हैं. खुद को मसीहा कहने वाले भी हैं और साहित्य का भी अंबार लगा है, फिर भी यह समाज दलित, गरीब, कमजोर और लाचार बना हुआ है. क्यों?

एससी, एसटी और मुसलिम वर्ग का अगर कोई किसी बड़ी पोस्ट पर पहुंच भी जाए तो उसे या तो मोहरा बन कर रहना होगा वरना उसे बुरी तरह बेइज्जत कर के अलगथलग कर दिया जाएगा.

क्या है असली वजह

दलित समाज, जिसे संवैधानिक तौर पर शैड्यूल कास्ट यानी एससी (अनुसूचित जाति) के रूप में वर्गीकृत किया गया है, की आबादी तकरीबन 17 फीसदी है. एससी वर्ग को राष्ट्रीय स्तर पर 15 फीसदी संवैधानिक आरक्षण मिला हुआ है. तकरीबन पूरा एससी समाज ही आरक्षण के दायरे में है और यह आरक्षण राजनीति, पढ़ाईलिखाई और सरकारी नौकरियों के लिए दिया गया है. सरकारी शिक्षण संस्थानों जैसे आईआईटी, आईआईएम में एससी वर्ग के लिए 15 फीसदी सीटें आरक्षित हैं.

इस के अलावा स्कौलरशिप, फीस छूट और छात्रावास की सुविधाएं भी उपलब्ध हैं. नौकरियों की बात करें तो केंद्रीय और राज्य सरकार की नौकरियों में 15 फीसदी पद आरक्षित हैं. आर्टिकल 16(4ए) के तहत इन्हें प्रमोशन में भी आरक्षण मिलता है और यह सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों में भी लागू है.

लोकसभा और राज्य विधानसभाओं में एससी आबादी के अनुपात में सीटें आरक्षित होती हैं. इस आरक्षण के तहत तकरीबन 84 लोकसभा सीटें एससी के लिए आरक्षित हैं. इन सीटों पर उम्मीदवार एससी वर्ग का होता है, लेकिन वोट सभी मतदाता दे सकते हैं. कुछ और जनरल सीटों पर भी एससी, एसटी, मुसलिम वर्ग के लोग जीत कर आ जाते हैं.

पंचायत स्तर के चुनाव हों या नगरनिगम के चुनाव यहां भी एससी वर्ग के लिए सीटें आरक्षित होती हैं.

ग्रामीण और शहरी विकास योजनाओं में भी आरक्षण के तहत एससी वर्ग को प्राथमिकता दी जाती है.

शिक्षा, राजनीति और नौकरियों में आरक्षण की बदौलत एससी वर्ग के माली और सामाजिक हालात में सुधार हुआ है, लेकिन जातिगत भेदभाव, गरीबी और उत्पीड़न के चलते एससी वर्ग अभी भी हाशिए पर ही है.

पढ़ाईलिखाई, नौकरी और राजनीति में आरक्षण के बावजूद, ग्रामीण क्षेत्रों में 80 फीसदी से ज्यादा दलित व मुसलिम रहते हैं, जहां वे आज भी भूमिहीन और मजदूर हैं. सन 1991 के उदारीकरण के बाद देश के कुछ दलितों के हालात बेहतर हुए हैं, लेकिन ज्यादातर अभी भी गरीबी रेखा से नीचे ही हैं.

गरीबी सूचकांक 2021 के अनुसार एससी वर्ग में एकतिहाई लोग आज भी गरीबी रेखा से नीचे हैं, वहीं 2023 में हुए बिहार सर्वे में एससी परिवारों में से 43 फीसदी परिवार गरीबी रेखा से नीचे हैं.

कुलमिला कर एससी वर्ग में गरीबी राष्ट्रीय औसत (21 फीसदी) से दोगुनी है. अगर ओबीसी को भी उन के साथ जोड़ लिया जाए, जिन के साथ पुराणों में ब्राह्मणों ने व्यवस्था वहीं कर रखी है जो अब एससीएसटी के साथ होती है, तो गरीब 75-80 फीसदी हो जाएंगे. वर्ण व्यवस्था में उन्हें शूद्र कहा गया है.

राष्ट्रीय साक्षरता दर 80.9 फीसदी है, लेकिन एससी में यह सिर्फ 70 फीसदी के आसपास ही है. एससी लड़कियों में साक्षरता दर मात्र 24.4 फीसदी है, जबकि राष्ट्रीय औसत 42.8 फीसदी है. आज भी पैसे की कमी और भेदभाव के चलते प्राइमरी लैवल पर ही 50 फीसदी दलित और मुसलिम बच्चे स्कूल छोड़
देते हैं.

एससी वर्ग के लिए गहरे सवाल

सवाल यह है कि तमाम तरह के संवैधानिक हकों और सरकारी सुविधाओं, अवसरों और प्राथमिकताओं के बावजूद एससी वर्ग मुख्यधारा से नहीं जुड़ पाया है, तो कमी किस की है? इस में कोई दो राय नहीं है कि एससी वर्ग के लिए ऊंचे समाज की सोच में सुधार नहीं हुआ है. हर स्तर पर नाइंसाफी, बेईमानी और भेदभाव जारी है, जिस के चलते आज भी इस वर्ग में गरीबी बनी हुई है. लेकिन इस के लिए दूसरों को दोष कब तक दिया जाएगा?

दुनिया के इतिहास में हर जगह कमजोरों को दबाया गया है और आज भी पूरी दुनिया में कमजोरों के साथ अनेक तरह के भेदभाव होते हैं. कहीं कोई मसीहा नहीं आता, बल्कि कमजोरों को खुद से अपनी कमजोरियों को सम झना और उन से जू झ कर निकलना होता है.

मसीहा सिर्फ धर्म के किस्सों में आते हैं. यूरोप के यहूदियों ने सन 150 से ले कर सन 1945 तक हजारों साल तक यूरोप में दमन और उत्पीड़न को झेला, लेकिन उन्होंने दूसरों पर दोष मढ़ने की बजाय खुद की तरक्की के रास्ते तलाशे और आज वे इजरायल में दुनिया की सब से ताकतवर कौम बन कर उभरे हैं.

एससीएसटी के साथ इतिहास में हिंदू राजाओं और बाद में दूसरों के हाथों भी बहुत नाइंसाफी हुई है, जिस की वजह से वे संसाधनों से वंचित रहे, लेकिन सन 1950 में संविधान ने उन्हें मौका दिया. बराबरी का दर्जा दिया, जिस की वजह से इस समाज में मुट्ठीभर नेता पैदा हुए. कुछ बड़े अफसर भी बने. कहींकहीं उद्योगपति भी उभरे, फिर भी ज्यादातर समाज वहीं का वहीं रहा.

आजादी के बाद से देश की संसद में एससी वर्ग के कम से कम 84 सांसद बैठे होते हैं. दलितों की आबादी के अनुपात के हिसाब से संसद में बराबर की नुमाइंदगी होते हुए भी कैसा रोना? राजनीतिक रूप से मजबूत होने के बावजूद एससी वर्ग कमजोर क्यों है? इस सवाल पर इस वर्ग को सोचविचार जरूर करना चाहिए.

पढ़ाईलिखाई पाने के मौके में इस पूरी आबादी को रिजर्वेशन मिला है. उन के दरवाजे हर सरकारी स्कूल के लिए खुले हैं. इस के बावजूद यह समाज सब से ज्यादा अंगूठाछाप क्यों है? इस समाज के पढ़ेलिखे लोग क्या कर रहे हैं? क्या पढ़ेलिखे और अमीर लोगों की अपने समाज के प्रति कोई जिम्मेदारी नहीं बनती? जो आगे बढ़ चुके हैं, वे दूसरों के लिए सीढि़यां क्यों नहीं बना रहे हैं और उन्हें गहरे गड्ढे से निकाल क्यों नहीं रहे हैं? वे क्यों नहीं भेदभाव की खाई पाट पा रहे हैं?

विचार जरूरी है

विचारों से दुनिया बदलती है. विचारों की ताकत से हालात बदले जा सकते हैं, लेकिन एससी वर्ग ने विचारों को अहमियत ही नहीं दी. विचारों का मतलब तक जानने की कोशिश नहीं की. वे व्यक्तिपूजा में लग गए. उन्हें लगा कि ऊंची जातियों की तरह वे भी किसी बुत को पूज कर अपना भाग्य सुधार लेंगे.

विचारों से ही तरक्की होती है, लेकिन तरक्की के विचार जिस समाज में पैदा ही न हों, उस समाज में कितने ही मसीहा जन्म लें, तरक्की नहीं हो सकती.

एससी समाज में डाक्टर भीमराव अंबेडकर पैदा हुए, जिन के नाम पर हजारों संगठन बने. इन संगठनों से निकल कर हजारों नेता पैदा हुए जिन्होंने डाक्टर अंबेडकर की पूजा करवानी शुरू कर दी, लेकिन इन नेताओं ने समाज को स्कूली पढ़ाईलिखाई भी पाने का फायदा नहीं सम झाया. पढ़ाईलिखाई से अच्छी समझ पैदा होती है. सम झ सही हो तो समाज यकीनन तरक्की करता है.

इस वर्ग के कुछ लोग पढ़ेलिखे जरूर, लेकिन वे समाज से कट गए. जो नेता बने उन्होंने अपने फायदे की खातिर समाज का फायदा उठाया और जमीन से इतने ऊपर उठ गए कि समाज से ही गायब हो गए. बाकी का समाज किसी मसीहा के इंतजार में वहीं का वहीं पड़ा है. उलटे वह जुल्म करने वाले ऊंचों की चाटुकारिता ज्यादा जोर से कर रहा है.

कैसा मसीहा चाहिए

मसीहा कोई एक इनसान नहीं होता, बल्कि मसीहा हर वह इनसान होता है जो हालात को बदल देता है. अगर कोई अनपढ़ है, लेकिन उस ने अपने बच्चों को केवल पढ़ायालिखाया ही नहीं, बल्कि सम झदार और होशियार भी बना दिया है, तो वह अपने बच्चों के लिए मसीहा ही है. अगर कोई गरीब है और अपनी मेहनत से संसाधन जुटा लेता है तो वह अपने परिवार के लिए मसीहा ही है. अगर कोई पढ़ालिखा इनसान अपने समाज के बच्चों को पढ़ाता है, हुनरमंद बनाता है तो वह उस समाज के लिए मसीहा ही है.

जिस इनसान को अपने समाज के दर्द से मतलब नहीं, वह पढ़ालिखा होते हुए भी गंवार ही होता है. और जो अनपढ़ होते हुए भी अपने समाज की चिंता करे वही सम झदार कहलाता है. एससी वर्ग में कितने तथाकथित मसीहा आए और गए, लेकिन समाज वहीं का वहीं रहा.

यहूदियों में कोई मसीहा नहीं पैदा हुआ फिर भी वे आज सब से ताकतवर कौम बन कर उभरे हैं. इस की वजह यह है कि यहूदियों ने किसी मसीहा का इंतजार नहीं किया, बल्कि हर यहूदी अपनेआप में मसीहा बना. यहूदियों ने पढ़ाईलिखाई की अहमियत को सम झा और बुरे हालात में भी इस से सम झौता नहीं किया.

ब्राह्मण समाज आज सब से अमीर है. क्या ऐसा करने में उस के किसी मसीहा का नाम मालूम है? किसी नेता का क्या योगदान रहा है उन के आज हर जगह सत्ता में रहने का? पारसियों के बीच कितने मसीहा पैदा हुए?

पारसियों को कभी किसी मसीहा की जरूरत ही नहीं पड़ी. हर पारसी अपनेआप में मसीहा है, क्योंकि वह पढ़ालिखा है. जो गरीब है, कमजोर है, उसे ही मसीहा की जरूरत होती है. लेकिन ऐसा कोई मसीहा जो आप के हालात बदल दे, कभी आता ही नहीं.

पढ़ाई से बदलेंगे हालात

डाक्टर भीमराव अंबेडकर बहुत महान थे, इस बात से आज के अनपढ़ एससी को क्या फायदा मिल सकता है? लेकिन डाक्टर अंबेडकर ने किन विकट हालात से जू झ कर पढ़ाईलिखाई हासिल की इस बात को सम झने से एससी वर्ग के हालात बदल सकते हैं. डाक्टर अंबेडकर ने तब मेहनत की जब एससी वर्ग का कोई संघ या पार्टी नहीं थी, कोई रिजर्वेशन भी नहीं था.

पढ़ाईलिखाई अपनेआप में एक बहुत बड़ी ताकत है. जिस समाज ने इस की अहमियत को सम झा वह समाज कभी भी कमजोर नहीं रहा. एससी वर्ग की बदहाली की वजह पढ़ाईलिखाई से उस की दूरी है.

सामाजिक भेदभाव एक समस्या है, रुकावट नहीं. यह बहाना कब तक ढोया जाएगा?

एससी समाज के पढ़ेलिखे लोगों को अपनी जिम्मेदारियां तय करनी होंगी. उन्हें समाज के लिए मसीहा बनना होगा. समाज का एक टीचर चाहे तो अपने समाज से हजारों टीचर पैदा कर सकता है. एक पढ़ालिखा इनसान हजारों अफसर पैदा कर सकता है, लेकिन एससी वर्ग के पढ़ेलिखे लोग कहां सोए हुए हैं?

ऐजूकेशन ही कामयाबी की कुंजी है. एससी वर्ग के प्रति समाज की सोच कैसी भी हो, यह आप को पढ़नेलिखने से नहीं रोक सकती. तमाम विरोधाभासों के बावजूद एससी वर्ग के लिए हायर ऐजूकेशन तक के रास्ते खुले हुए हैं, फिर बहानेबाजी क्यों?

संस्थागत भेदभाव का शिकार हुए रोहित वेमुला हायर ऐजूकेशन में सताए जाने का उदाहरण हैं, तो जज, वैज्ञानिक और तमाम आईएएसआईपीएस के भी उदाहरण हैं, जो दलित समाज से निकले हैं.

याद रखिए कि जो जितना कमजोर होता है, उस के लिए जद्दोजेहद उतनी ही बड़ी होता है. अगर वंचित समाज को अपनी कमजोरियों से बाहर निकलना है, तो उसे अपनी जद्दोजेहद तेज करनी होगी.

पढ़ाईलिखाई का मतलब सिर्फ स्कूलकालेज में पढ़ना नहीं है, बल्कि इस का मतलब है दूसरों की कही या लिखी बात जिंदगीभर पढ़ते रहना, लगातार लिखते रहना है. अपने मौकों का पूरा फायदा उठाने के लिए हर समय जूझना है. एससी, एसटी और मुसलिम धर्म के चक्करों में डाल दिए गए हैं और वे उन्हीं बातों के लिए दूसरों के सिर फोड़ रहे हैं, जिन से उन्हें जंजीरें पहनाई जाती हैं.

अपनी पहचान बनाने के लिए कोई देखादेखी खास रंग का गमछापट्टा पहन रहा है, कोई टोपी लगा रहा है. उन के नेता यही सम झा रहे हैं और खुद अपनी रोटी, मकान, गाड़ी और रुतबे का इंतजाम कर रहे हैं.

मसीहा कोई हाड़मांस का जना नहीं हो सकता. आज तक कभी कोई ऐसा जना नहीं हुआ, जिस ने देश और समाज को बदल डाला हो. गांधी, अंबेडकर, नेहरू मसीहा नहीं थे. तिलक, गोखले, गोलवलकर भी ऊंचों के मसीहा नहीं थे. ऊंचों ने पिछले 50 साल में साइंस का फायदा उठा कर बिना मसीहा के पढ़ कर, समझ कर फायदा उठाया है.

आज बिहार में नीतीश कुमार, तेजस्वी यादव और प्रशांत कुमार एससी, एसटी और मुसलिम वर्ग को जीत कर भी कुछ नहीं दे पाएंगे, क्योंकि इन वर्गों को पानी का गिलास भर कर खुद ही पीना होगा.

कार्ल मार्क्स ने कहा था कि बुरी दशा से निकलने के लिए समाज बदलो, सरकार का ढांचा बदलो और उस के लिए वर्ग संघर्ष करो. मार्क्सवादी नजरिया मसीहा की जरूरत को सिरे से नकारता है.

कार्ल मार्क्स के मुताबिक, सामाजिक बदलाव किसी एक जने की इच्छा से नहीं, बल्कि प्रोडक्शन के साधनों, उन की मिल्कियत में बदलाव और वर्ग संघर्ष जैसी जमीनी व धन के रखने के तरीकों से होता है.

किसी राहुल गांधी, तेजस्वी यादव या प्रशांत किशोर के कहने या किसी मां के मंदिर के बनाने से जो गरीब है, कुचला है, वंचित है, बीमार है, भूखा है, अपनी हालत सुधार नहीं सकता, उसे तो पढ़ कर, सम झ कर संघर्ष कर के बढ़ना होगा. समाज की तरक्की के लिए, ‘मसीहा’ की नहीं, बल्कि एक बड़े वर्ग में जागरूकता और क्रांतिकारी सामूहिक कार्रवाई की जरूरत होती है, जो कांवड़ यात्रा में नाचने या बैनर लगाने से नहीं आती.

बिहार चुनाव में वोट देते समय खयाल रहे कि कौन पढ़ने का मौका देगा और कौन हकों और मौकों पर डाका डालने के लिए बैठा है. एससी, एसटी और मुसलिम के लिए मसीहा किताबें हैं, पत्रिकाएं हैं, वे टीवी चैनल हैं जो न तो बिकाऊ हैं और न ही मदारी का खेल खिला रहे हैं. आगे बढ़ना है तो ऐसे अखबार खरीदें जो आप को बेचे नहीं, बल्कि बनाएं.

पश्चिम के एक विचारक हेनरी वार्ड बीचर ने कहा, ‘‘एक अच्छा अखबार या पत्रिका लोगों के लिए अनगिनत लाखों सोने से भी बड़ा खजाना है. आप इस खजाने को लुटने न दें.’’

अमेरिका के शुरुआती सालों में तब के राष्ट्रपति थौमस जैफरसन ने कहा था, ‘‘अगर मु झे यह तय करना होता कि हमें बिना अखबारों, पत्रिकाओं और किताबों के सरकार चाहिए या बिना सरकार के अखबार, पत्रिकाएं, किताबें तो मैं बाद वालों को चुनने में एक पल का भी संकोच नहीं करता.’’

क्या दलित अखबार, पत्रिकाएं पढ़ रहे हैं? आप रील देखने में लगे हैं, पौराणिक कथाओं को दोहराने वाले अखबारों और चैनलों को देखने में लगे हैं या अपनी सम झ का दायरा बढ़ाने वाली बात जानने, सुनने, पढ़ने में, इस का फैसला आप को करना है.

एससी, एसटी और मुसलिम का मसीहा नवंबर में वोटिंग मशीन से नहीं निकलने वाला, बल्कि उस के बारे में तो अंगरेजी लेखक चार्ल्स डिकेंस 150 साल पहले कह गया है कि अखबारों और किताबों को पढ़ने की आदत से एक कौशल का विकास होता है. अखबार, पत्रिकाएं और किताबें पढ़ने की आदत आप को भाषा, लेखन और ताजा जलते मुद्दों पर पूरी गहराई से सही सम झ देती है, जो सरकार को सही रास्ते पर चलने के लिए मजबूर करने के लिए जरूरी है और व्यावसायिक तरक्की में मददगार है.

याद रहे कि मसीहा सफेद चोगा पहने गलीगली नहीं घूमते, बल्कि वे आपके दिमाग में, मन में, दिल में पैदा होते हैं.

नहीं निकले काबिल नेता

डाक्टर भीमराव अंबेडकर के बाद भारतीय राजनीति में दलित समाज से कई नेता उभरे लेकिन वे दलितों के फायदे के लिए कोई क्रांतिकारी आंदोलन खड़ा नहीं कर पाए. आजादी के बाद दलित समाज से जो भी नेता हुए वे आगे चल कर अवसरवादी राजनीति का शिकार हो कर रह गए. ज्यादातर दलित नेताओं ने दलितों के उत्थान के नाम पर दलित वोटों को बेचने का ही काम किया.

यही हाल मुसलिमों का भी रहा. मुसलिम समाज के बीच से नेता तो कई उभरे लेकिन वे किसी न किसी राजनीतिक पार्टी के दलाल की भूमिका में ही रहे. मुसलिम नेताओं से मुसलिम समाज को कोई फायदा नहीं हुआ. मुसलिमों के फायदे की राजनीति करने की आड़ में इन मुसलिम नेताओं ने अपना और अपनी पार्टी का ही भला किया.

यही वजह है कि आज की राजनीति में दलितों और मुसलिमों का कोई सर्वमान्य नेता नजर नहीं आता. आज की राजनीति में दलितों के बड़े नेताओं में मायावती, चंद्रशेखर रावण, रामदास अठावले, चिराग पासवान, जीतनराम मां झी जैसे लोग ही नजर आते हैं, जिन के लिए विचारधारा की कोई कीमत नहीं रह गई है.

मायावती सिर्फ जाटवों की नेता बन कर रह गई हैं. चिराग पासवान दुसाध जाति के नेता हैं. चंद्रशेखर रावण भी दलितों की कुछ जातियों के नेता हैं और जीतनराम मां झी मुसहर समाज के नेता हैं. इस से ज्यादा इन नेताओं की कोई पहचान नहीं रह गई है.

मेनस्ट्रीम मीडिया के बंद दरवाजे

मीडिया में नुमाइंदगी नहीं होने के चलते दलितों, मुसलिमों और आदिवासियों की असली समस्याएं कभी हाईलाइट ही नहीं हो पातीं. गरीबी, बेरोजगारी का दंश झेलते इन तीनों समाजों का जम कर शोषण होता है, अत्याचार होते हैं, लेकिन इन की यह त्रासदी कभी भी मेनस्ट्रीम मीडिया तक नहीं पहुंच पाती.

मुख्यधारा की मीडिया में दलित, मुसलिम और आदिवासी समाज की भागीदारी बिलकुल जीरो है. ये तीनों वर्ग न्यूजरूम, कवरेज, एंकरिंग और नेतृत्व वाले पदों से कोसों दूर खड़े हैं.

औक्सफैम इंडिया और न्यूजलौन्ड्री की रिपोर्ट के मुताबिक, मीडिया में केवल ऊंची जातियों का ऐसा दबदबा है कि ये तकरीबन 86-90 फीसदी पदों पर काबिज हैं. इन तीनों वर्गों का लेखन, रिपोर्टिंग, एंकरिंग में भागीदारी जीरो है. एक भी दलित, मुसलिम या आदिवासी मेन स्ट्रीम के किसी भी मीडिया ग्रुप का हैड नहीं है.

यही वजह है कि इन तबकों से जुड़े मुद्दों को ले कर अंगरेजी अखबारों में 5 फीसदी से कम लेख छपते हैं, तो हिंदी अखबारों में महज 10 फीसदी ही छपते हैं.

मीडिया के 121 प्रमुख पदों में से 106 पदों पर ऊंची जाति के लोग बैठे हैं और यहां एससी, एसटी, ओबीसी का कोई प्रतिनिधित्व नहीं है.

एनडीटीवी, आजतक, जी न्यूज आदि में एससी, एसटी एंकर एक भी नहीं है. 972 प्रमुख पत्रिकाओं में से केवल 10 पत्रिकाओं की कवर स्टोरी ही दलित और आदिवासी मुद्दों पर केंद्रित होती हैं.

यह एससी, एसटी और मुसलिम की अपनी जिम्मेदारी है कि वे इन चैनलों, अखबारों, पत्रिकाओं का त्याग करें और अपने मतलब के मीडिया को सपोर्ट करें.

यह देखने की बात है कि अंगरेजी की किताबें बेचने वाली दुकानें तो खुली हुई हैं, पर हिंदी में जहां एससी, एसटी और मुसलिम के मतलब की किताबें हो सकती हैं, बंद हो चुकी हैं, क्योंकि अत्याचारों का रोना रोने वाले ये वर्ग अपने मुद्दों के बारे में भी जानने की कोशिश नहीं कर रहे.

बिना नायक की वंचित आबादी

भारत में दलितों की आबादी तकरीबन 24 करोड़ है, जो देश की कुल आबादी का 17 फीसदी है. आदिवासी समाज कुल आबादी का 9 फीसदी हैं यानी तकरीबन 11 करोड़. वहीं मुसलिमों की कुल आबादी तकरीबन 14 फीसदी यानी 20 करोड़ के आसपास है.

दलित, मुसलिम और आदिवासी समाज की हालत तकरीबन एकजैसी ही है. अर्जुन सेन गुप्ता की रिपोर्ट को सच मानें तो ज्यादातर मुसलिमों के हालात दलितों से भी बदतर हैं. दलितों, मुसलिमों और आदिवासियों की कुल आबादी को जोड़ दिया जाए तो देश की आबादी में इन तीनों समाजों का अनुपात तकरीबन 40 फीसदी हो जाता है. इस में ईसाई, सिख, बौद्ध और दूसरे अल्पसंख्यक समाजों को भी जोड़ लिया जाए तो यह फीसद 50 के पार पहुंच जाएगा लेकिन विडंबना यह है कि मौजूदा राजनीतिक माहौल में देश की यह आधी आबादी पूरी तरह सत्ता विहीन नजर आती है.

40 फीसदी आबादी होने के बावजूद मुसलिम, दलित और आदिवासी तो पूरी तरह हाशिए पर हैं. नेता नहीं, मीडिया नहीं, उद्योगपति नहीं, लेखक नहीं और कोई नायक नहीं.

बिहार की राजनीति में सामाजिक न्याय की बातें करने वाले नेताओं का लंबा इतिहास रहा है. बाबू जगजीवन राम, कर्पूरी ठाकुर, बाबू जगदेव प्रसाद और लालू प्रसाद यादव जैसे नेताओं ने बिहार में सामाजिक न्याय की लड़ाई में अहम भूमिका निभाई.

आज की राजनीति की बात करें तो सामाजिक न्याय की बातें तो नीतीश कुमार भी करते हैं, लेकिन भाजपा के साथ गठबंधन के बाद नीतीश कुमार के लिए सामाजिक न्याय पीछे छूट गया है. 2023 के बिहार जाति सर्वे के अनुसार बिहार की कुल आबादी में दलितों की आबादी 20 फीसदी है और पासवान जाति की कुल आबादी बिहार की कुल आबादी का 5.3 फीसदी है. इस तरह अकेले पासवान समाज ही दलितों का तकरीबन 27 फीसदी हैं और बिहार में पासवान वोटों का बड़ा हिस्सा चिराग पासवान को जाता है.

लोजपा के राजग में होने के चलते इस का फायदा सीधे भाजपा को मिलता है. यही वजह है कि पासवान जाति से इतर की तमाम दलित जातियों पर हर नेता की नजर है और वे दलितों को आकर्षित करने का कोई मौका नहीं छोड़ते, पर उन के साथ हो रही सामाजिक या सरकारी बेईमानी, बेइज्जती, लूट के बारे में सब चुप हैं. यह कोई नेता नहीं करेगा. यह तो इन एससी, एसटी और मुसलिम वर्गों को अपने बलबूते पर, अपनी जागरूकता से कराना होगा. पर क्या पितापुत्र पासवानों ने एससी के इस वर्ग को हाथ पकड़ कर ऊपर खींचने के लिए कुछ किया? वे तो सत्ता में मजे लेने में लगे रहे. Bihar Elections 2025

Bihar Elections: बिहार में भाजपा की मुश्किलें

Bihar Elections: हार की राजनीति हमेशा से ही उतारचढ़ाव से भरी रही है. यहां जनता का रुझान किसी एक दल के लिए परमानैंट नहीं रहता, बल्कि काम और हालात को देख कर बदलता रहता है.

मौजूदा हालात में देखा जाए तो भारतीय जनता पार्टी या राजग गठबंधन के लिए जनता का झुकाव उतना नहीं है, जितना कि मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के लिए है.

नीतीश कुमार की सरकार ने सड़क और बिजली जैसी बुनियादी सहूलियतों में सुधार किया, जिस के चलते आम लोग उन्हें ‘काम करने वाला नेता’ मानते हैं. गांवगांव में सड़कें बनीं, बिजली पहुंची और शहरों में अस्पताल व स्कूल की आलीशान इमारतें खड़ी की गईं, लेकिन एक हकीकत यह भी है कि इन इमारतों के भीतर सहूलियतों की भारी कमी है.

अस्पतालों में न तो डाक्टर मिलते हैं और न ही दवाएं. स्कूलों में टीचर तो गिनती के हैं, पर पढ़ाई का लैवल गिरा हुआ है. यही वजह है कि सरकारी स्कूलों में बच्चे जाना पसंद नहीं करते. ऊपर से भ्रष्टाचार ने पूरे तंत्र को खोखला कर दिया है.

नीतीश कुमार खुद भी अब चाह कर कुछ कर पाने की हालत में नहीं दिखते. इस वजह से आने वाला चुनाव उन के लिए भारी हो सकता है.

भाजपा की हालत और राजग की बैसाखी

बिहार में भाजपा की पकड़ उतनी मजबूत नहीं है जितनी वह दूसरे राज्यों में बना चुकी है. उस के पारंपरिक वोटर सवर्ण और वैश्य समुदाय से हैं, जिन की तादाद उतनी ही है, जितनी राजद के यादव वोटरों की. ऐसे में भाजपा को जीत पक्की करने के लिए जद (यू) जैसी पार्टी की बैसाखी चाहिए.

इस प्रदेश में भाजपा लगातार दलितों और पिछड़ों के बीच जगह बनाने की कोशिश करती रही है, लेकिन सांप्रदायिक एजेंडे और ‘हिंदूमुसलिम’ के रटेरटाए नारे उसे कामयाबी दिलाने में नाकाम रहे हैं.

राजग की सभाओं में भी वह जोश और भीड़ नहीं दिखती, जो महागठबंधन की यात्राओं में देखने को मिलती है. महागठबंधन के नेता राहुल गांधी और तेजस्वी यादव जब जनता के बीच पहुंचते हैं, तो भीड़ अपनेआप उमड़ पड़ती है. ‘वोट चोर, गद्दी छोड़’ के नारे के बाद महागठबंधन को एक नई मजबूती मिली है.

इस के उलट भाजपा की सभाओं में भीड़ जुटाने के लिए सरकारी और प्राइवेट स्कूलों को बंद किया जाता है, ‘जीविका दीदीयों’ को बुलाने के लिए प्रशासनिक दबाव बनाया जाता है और आम दर्शकों को भाड़े पर लाया जाता है. यह सब दिखाता है कि भाजपा के पास असली जनाधार की कमी है.

मुद्दों से ध्यान भटकाने की राजनीति

राजनीति में अकसर देखा जाता है कि असली मुद्दों से ध्यान हटाने के लिए भावनात्मक कार्ड खेला जाता है. हाल ही में बिहार में भी कुछ ऐसा ही हुआ.

एक आदमी ने मंच से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की मां के खिलाफ अपशब्द कहे. यह घटना बहुत गलत थी, लेकिन भाजपा ने इसे बड़ा मुद्दा बना कर महंगाई, बेरोजगारी और भ्रष्टाचार जैसे असली सवालों से ध्यान हटाने की कोशिश की.

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने विदेश से लौटते ही एक कार्यक्रम में आधे घंटे के भाषण में तकरीबन 25 मिनट अपनी मां का जिक्र कर दिया और यह कहा कि ‘मेरी मां का अपमान देश का अपमान है’.

लेकिन सवाल यह भी उठता है कि जब भाजपा के कई नेता संसद से ले कर सार्वजनिक मंचों तक विपक्षी नेताओं की माताओं और आम औरतों का अपमान करते रहे हैं, तब प्रधानमंत्री ने कभी इस पर चिंता क्यों नहीं जताई? राजनीति में उन का यही दोहरापन जनता अच्छी तरह समझती है.

बिहार बंद काम न आया

भाजपा ने इस मां का अपमान करने वाले मुद्दे को आधार बना कर बिहार बंद का आह्वान किया. लेकिन बंद को कामयाब बनाने के लिए औरतों और आम जनता को अपमानित किया गया. सड़कों पर बदसुलूकी हुई, जबरन दुकानें बंद कराई गईं. पैसे दे कर भीड़ बुलाने जैसे आरोप लगाए गए.

यह सब लोकतंत्र के मूल्यों और जनता की गरिमा के खिलाफ था. सवाल यह है कि अगर किसी ने गाली दी भी थी, तो उस की गिरफ्तारी हो चुकी थी, फिर भी जनता को परेशान करना किस हद तक सही कहा जा सकता है?

बिहार की राजनीति इस समय एक चौराहे पर खड़ी है. नीतीश कुमार की इमेज अब भी भाजपा की तुलना में थोड़ी अच्छी है, लेकिन भ्रष्टाचार और कामकाज की कमजोरी ने उन के कद को भी कम किया है.

दूसरी ओर भाजपा अपने सांप्रदायिक एजेंडे से आगे नहीं बढ़ पा रही है. यही वजह है कि जनता का भरोसा महागठबंधन की ओर ज्यादा झुकता दिख रहा है.

राजनीति में जनता सिर्फ नारों और भावनाओं से नहीं, बल्कि काम और सहूलियत चाहती है. अगर भाजपा और राजग इसे समझने में नाकाम रहे, तो बिहार में उन की राह और मुश्किल हो जाएगी.

सब से बड़ी बात तो यह है कि अब भारतीय जनता पार्टी और नरेंद्र मोदी बिहार में अपनी पकड़ खोते नजर आ रहे हैं. स्थानीय भाजपा नेताओं का भी वोटरों पर ज्यादा भरोसा नहीं बन पा रहा है. यह राजग के लिए खतरे की घंटी हो सकती है. Bihar Elections

Bihar Politics: बिहार में रिजर्व्ड सीटें

Bihar Politics: बिहार की राजनीति हमेशा से जातपांत, सामाजिक न्याय और राजनीतिक दलों की खींचतान पर टिकी रही है. चुनाव आते ही विकास के वादे किए जाते हैं, लेकिन नतीजे ज्यादातर जातीय समीकरणों और वोट बैंक पर ही तय होते हैं.

खासकर रिजर्व्ड सीटें यानी दलित और आदिवासी समाज के लिए सुरक्षित 40 विधानसभा सीटें चुनावी राजनीति का असली रणक्षेत्र होती हैं. इन्हीं सीटों पर जीतहार से तय होता है कि सत्ता की चाबी किस गठबंधन के हाथ में जाएगी.

साल 2020 के बिहार विधानसभा चुनावों ने इस बात को साफ कर दिया था कि इन 40 सीटों की अहमियत कितनी खास है. उस चुनाव में राजग और महागठबंधन के बीच रिजर्व्ड सीटों पर बेहद करीबी मुकाबला हुआ था. यही वजह है कि साल 2025 के विधानसभा चुनावों की तैयारी में दोनों गठबंधन अपनी पूरी ताकत इन सीटों पर झांकने वाले हैं.

जातीय समीकरण की जड़ें

बिहार का राजनीतिक इतिहास सामाजिक न्याय और जातीय समीकरणों की राजनीति से गहराई से जुड़ा है. 70 के दशक के आखिर और 80 के दशक में जब कर्पूरी ठाकुर जैसे नेताओं ने पिछड़ों को रिजर्वेशन दिलाने की पहल की.

इस के बाद लालू प्रसाद यादव की अगुआई में 90 के दशक में ‘माय समीकरण’ (मुसलिमयादव) का नारा जोरदार तरीके से उभरा. इस दौरान दलित और अति पिछड़ा वर्ग भी इस राजनीति से जुड़ने लगे. दूसरी ओर, भाजपा और जद (यू) ने सवर्ण, अति पिछड़ा और दलित वोट बैंक को साधने की रणनीति अपनाई.

आज हालत यह है कि किसी भी चुनाव में यादव और मुसलिम वोटर महागठबंधन की बुनियाद बनते हैं, जबकि अति पिछड़े और सवर्ण वोट बैंक राजग के साथ रहते हैं. दलित और महादलित वोट बैंक को ले कर दोनों गठबंधनों में सब से ज्यादा खींचतान रहती है.

राजनीतिक अहमियत

बिहार विधानसभा की कुल 243 सीटों में से 40 सीटें अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति वर्ग के लिए रिजर्व्ड हैं. इन में 38 सीटें अनुसूचित जाति और 2 सीटें अनुसूचित जनजाति के लिए रिजर्व्ड हैं. इतिहास बताता है कि बिहार में सरकार बनाने की कुंजी अकसर इन सीटों से ही निकलती है.

साल 2010 का विधानसभा चुनाव : राजग ने इन सीटों पर भारी कामयाबी पाई थी.

साल 2015 का विधानसभा चुनाव : महागठबंधन (जद (यू), राजद और कांग्रेस) ने इन सीटों पर मजबूत पकड़ बनाई थी.

साल 2020 का विधानसभा चुनाव : राजग और महागठबंधन के बीच बेहद करीबी मुकाबला हुआ था.

साल 2020 में बिहार विधानसभा चुनाव में इन 40 सीटों पर नतीजे चौंकाने वाले रहे. भाजपा को 11 सीटें मिलीं. जद (यू) को 7 सीटें मिलीं. राजग की सहयोगी वीआईपी पार्टी को 1 सीट. वहीं महागठबंधन में राजद को 9 सीटें. कांग्रेस को 2 सीटें. भाकपा (माले) को 10 सीटें. इस तरह राजग को कुल 19 सीटें मिलीं, जबकि महागठबंधन ने 21 सीटों पर कब्जा किया.

बिहार की राजनीति का असली संतुलन पिछड़ों और महादलितों पर टिका है. महादलित में पासवान, मुसहर, मांझ, भुइयां जैसी जातियां आती हैं. नीतीश कुमार ने महादलित को अलग पहचान दे कर योजनाओं का फायदा पहुंचाया.

अति पिछड़ा वर्ग में तकरीबन 110 जातियां इस वर्ग में आती हैं. राजग ने इन्हें संगठित करने में बड़ा रोल निभाया है.

पसमांदा मुसलिम में पिछड़े और दलित मुसलमान. राजद और कांग्रेस पर ज्यादा भरोसा करते हैं, लेकिन हाल के सालों में भाजपा ने भी इन के बीच पैठ बनाने की कोशिशें शुरू की हैं, पर इस का असर नहीं देखा जा रहा है.

दलित राजनीति की विरासत

रामविलास पासवान का नाम बिहार की दलित राजनीति में दर्ज है. लोक जनशक्ति पार्टी (रामविलास) के जरीए उन्होंने दलित वोट खासकर पासवान जाति के वोट को अपने तरफ कर लिया.

उन के न रहने के बाद चिराग पासवान ने दलित राजनीति को ‘मौडर्न’ अंदाज देने की कोशिश की है. साल 2020 में लोजपा (रामविलास) ने राजग से अलग हो कर चुनाव लड़ा था, लेकिन भाजपा से नजदीकियां बनाए रखीं. चिराग पासवान की पकड़ भी दलितों में पासवान जाति पर ही खास है. दूसरी दलित जातियां इन के साथ नहीं हैं.

राजग की रणनीति

एनडीए (भाजपा, जद (यू) और लोजपा) का टारगेट दलित और अति पिछड़ा वोट बैंक को मजबूत बनाए रखना है. भाजपा दलित समाज में ‘गांवगांव तक पहुंच’ बनाने पर काम कर रही है. जद (यू) ‘महादलित योजना’ और ‘आरक्षण के विस्तार’ के जरीए समर्थन जुटा रही है.

चिराग पासवान का युवा और आक्रामक तेवर राजग के लिए दलित नौजवानों में आकर्षण पैदा कर सकता है खासकर पासवान जाति तो पूरी मुस्तैदी से इन के साथ है.

महागठबंधन की रणनीति

महागठबंधन (राजद, कांग्रेस और वाम दल) का आधार यादव और मुसलिम वोट बैंक है. लेकिन सत्ता तक पहुंचने के लिए इन्हें दलित और अति पिछड़े वोटों की भी जरूरत है.

तेजस्वी यादव की अगुआई में राजद दलितों को ‘समान अवसर’ और ‘नौकरीरोजगार’ का वादा कर रही है.

माकपा (माले) गांवदेहात में दलितमजदूर वर्ग को संगठित कर रही है. कांग्रेस फिर से अपने परंपरागत दलित वोट बैंक को वापस लाने की कोशिश में है.

बिहार विधानसभा की 40 रिजर्व्ड सीटें केवल चुनावी गणित का हिस्सा नहीं हैं, बल्कि ये समाजशास्त्रीय और राजनीतिक संघर्ष की धुरी हैं.

राजग और महागठबंधन दोनों को पता है कि इन सीटों पर मिली कामयाबी ही सरकार बनाने की कुंजी होगी. साल 2025 का चुनाव दलितपिछड़े समाज की आवाज से यह तय करेगा कि बिहार किस दिशा में आगे बढ़ेगा. Bihar Politics

Editorial: बिहार में हार का डर – वोटर लिस्ट से नाम काटने की राजनीति?

Editorial: बिहार में हार से बचने के लिए भारतीय जनता पार्टी अब खुल्लमखुल्ला चुनाव आयोग को शिखंडी बना कर नेताओं और पार्टियों को नहीं वोटरों को तीरों का निशाना बना रही है. चुनाव आयोग मतदाता सूचियों का रिवीजन कर रहा है और इस बहाने हर उस जने को वोटर लिस्ट से हटाया जा रहा है जिस के पास जन्म प्रमाणपत्र, नागरिकता प्रमाणपत्र, मातापिता दोनों के प्रमाणपत्र जैसे डौक्यूमैंट न हों.

बिहार जैसे राज्य में जहां हर साल बाढ़ में सैकड़ों गांवों में पानी भर जाता है, लोग अपनी जान बचाने के लिए भागते हैं, डौक्यूमैंट नहीं. जब गांव की फूस की झोंपडि़यों में आग लगती है तो कौन सा डौक्यूमैंट बचता है, इस की चिंता चुनाव आयोग को नहीं. बिहार से बाहर जाने वाले और फिर लौटने वाले लाखों लोग आतेजाते अपने डौक्यूमैंट खो बैठते हैं.

बिहार के सीधे, आधे पढ़े लोग भी अब तक वोट देते रहे थे क्योंकि कुछ चुनाव आयुक्तों ने पहले सही कदम उठाया था कि वे बेघरों को भी वोट डालने का मौका देंगे चाहे उन के पास डौक्यूमैंट हो या न हो. अब भारतीय जनता पार्टी के कठपुतले चुनाव आयोग को आदेश है कि बिहार में ऐसे लोगों की छंटनी कर दी जाए जिन के पास प्रमाणपत्र नहीं है.

यह काम अमेरिका में हो रहा है जहां गोरों के राजा डोनाल्ड ट्रंप हर ब्राउन, ब्लैक को वोट देने के हक से निकालने के लिए ऐसा ही काम कर रहे हैं और लाखों को जेलों में बंद कर रहे हैं. भारत में जेलों में बंद करने का काम बाद में शुरू होगा, जब चुनाव आयोग कटी हुई सूचियां जारी कर देगा. तब एक बड़े परिवार के कुछ लोग नागरिक माने जाएंगे, कुछ को घुसपैठिया करार कर दिया जाएगा. यह पक्का है कि नीतीश कुमार इस मामले में ज्यादा नहीं बोल पाएंगे क्योंकि उन्हें तो कुरसी प्यारी है और वे अपने राज के अंतिम महीनों में इस छोटी सी बात के लिए, जिस का फर्क लाखों पर पड़ेगा, भारतीय जनता पार्टी से बैर मोल नहीं ले सकते.

पप्पू यादव या कांग्रेस ज्यादा न बोले इस के लिए दोनों के खिलाफ मुकदमे किए हुए हैं, बाकी कई दल तो चुप्पे रह गए हैं. सुप्रीम कोर्ट तक मामला जातेजाते चुनाव हो चुके होंगे क्योंकि चुनाव आयोग पक्का है कि सूचियां चुनाव की तारीखों का ऐलान करने के कुछ दिन पहले ही जारी करेगा.

लेकिन इस का यह मतलब नहीं कि भाजपा की जीत की गारंटी है. जिन का वोट कटेगा उन के साथीरिश्तेदार भाजपा और चुनाव आयोग के गठबंधन को समझ जाएंगे. वे जानते हैं कि वोट का हक छीनना 1975 वाली इमर्जैंसी लगाना है. जैसे उन्होंने इंदिरा गांधी के मनसूबे ढहाए थे, वह काम फिर हो तो बड़ी बात नहीं.

वोट का हक बहुत बड़ा हक है. बाकी सारे हक इसी से निकलते हैं. उसे हाथ से फिसलने देने का मतलब है पौराणिक युग की गुलामी में चले जाना जो मुगलों और अंगरेजों की गुलामी से भी ज्यादा बदतर थी. जमींदारों ने उसी गुलामी को मराठा युग में इस्तेमाल किया था. आज वही न दोहराया जाए.

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कर्ज दे कर पैसा कमाना इस देश के व्यापारियों का मेन काम रहा है. गांवगांव, कसबेकसबे में जो भी व्यापारी थोड़ा पैसा कमा रहा है वह जरूर किसी न किसी तरह सूद पर पैसे देने वाला है. इन छोटेछोटे व्यापारियों, सूदखोरों और कहीं छोटे कारखानेदारों का मुनाफा सिर्फ ब्याज से होता था, क्योंकि ये दिए गए पैसे पर 10 फीसदी नहीं, 30 से 100 फीसदी तक का ब्याज लेते थे.

इन का पहला काम होता था कि गरीबों को इस हालत में लाओ कि वे कर्ज लेने को दौड़ें. इस में पंडितों और मौलवियों का बड़ा साथ था और इसीलिए ये व्यापारी मंदिरमसजिद खूब बनवाते थे. मंदिरों में तो पूजापाठ, कीर्तन, भंडारे, तीर्थयात्रा, प्रवचन, महापंडितों के दौरे चलाए जाते ताकि गरीब बेवकूफ इस जन्म और अगले जन्म को सुधारने के चक्कर में कामधाम छोड़ कर पैसा गांव से लगा कर धर्म की दुकान पर गंवा आए.

जब जेब खाली हो जाए और बीमारी, शादी, बच्चा, काम छूटने से नुकसान होने लगे तो महाजनों के पास जाए. सदियों से यह काम बड़ी शान से चल रहा है. अब इस में सरकारों की शह पा कर और नई टैक्नोलौजी आने से यह लूट छोटे महाजनों से खिसक कर टाई वालों की कंपनियों में पहुंच गई है.

माइक्रोफाइनैंस करने वाली कंपनियों ने देशभर में 4.2 करोड़ लोगों को कर्ज दे रखा है. पिछले साल 2023-24 में 60 हजार करोड़ रुपए कर्ज में दिए गए जिन पर औसतन 25 से 30 फीसदी ब्याज वसूला गया. याद रखें कि इन के पास पैसा जमा कराओ तो ये 9-10 फीसदी भी ब्याज नहीं देते.

अगर मासिक किस्त में देर हो जाए तो ब्याज पर ब्याज और जुर्माना लगने लगता है. माइक्रोफाइनैंस कंपनियां ऐसे ही ग्राहक फंसाती हैं जो समय पर किस्त न भर पाएं. इन के गांवगांव में फैले एजेंट ‘लोन ही लोन’ के परचे बांटते रहते हैं ताकि थोड़ा कमाने वाला बचत करने की जगह कर्ज ले, तीर्थ पर जाए, घर में भोज कराए, मंदिर में बड़ा दान दे, बीमारी में लगाए, शादी में लगाए और फिर किस्त न दे पाए. 60 हजार करोड़ का एक साल

में कर्ज देने वाली कंपनियों का बाजार में इतना ही पैसा उन हाथों में फंसा हुआ है जिन्होंने 90 दिनों तक किस्त नहीं चुकाई.

माइक्रोफाइनैंस कंपनियां अब भारतीय रिजर्व बैंक और सरकार से मिन्नतें कर रही हैं कि इन्होंने जिन बैंकों से कम ब्याज पर पैसा ले रखा है वह सरकार माफ कर दे. यह हो भी जाएगा क्योंकि जब अरबों का बड़े बैंकों से कर्जा लिए माइक्रोफाइनैंस कंपनी बंद हो जाएगी तो बड़े बैंक माइक्रोफाइनैंस कंपनी को दिए कर्ज को भूल जाएंगे.

इस दौरान जिस ने कर्ज लिया वह मूल से ज्यादा दे चुका होगा पर ब्याज इतना ज्यादा हो चुका होगा कि फिर भी बहुत बकाया रह जाएगा. लोन कलैक्टर गुंडे भी इन माइक्रोफाइनैंस कंपनियों ने पाल रखे हैं जो मारपीट पर उतर आते हैं. अमीर और गरीब सब इस की मार खा रहे हैं. कर्ज लो, पछताओ की बात कोई न कहता है और न कोई सुनना चाहता है. Editorial

Bihar Politics: वोटों के लिए मंदिरमंदिर जाते प्रशांत किशोर

Bihar Politics: बिहार में अब एक नए देवता का आगमन हुआ है. नेताओं को चुनाव लड़ने की सलाह देने वाले प्रशांत किशोर ने अपनी एक अलग पार्टी बना ली है जन सुराज पार्टी और वे गांवगांव घूम रहे हैं. उन का कहना है कि वे वोट नहीं मांग रहे, बल्कि वे तो यह बता रहे हैं कि गरीबी से कैसे निकला जाए. उन का कहना है कि बिहार ने पहले 40 साल कांग्रेस को जिताया, फिर लालू प्रसाद यादव को महाराजा मान कर बैठाया और अब नीतीश कुमार अलटीपलटी मार कर बिहार पर राज कर रहे हैं पर बिहार सुधरा नहीं है.

अब वे कहते हैं कि आप बिहारी उन के कहे मुताबिक वोट देंगे तो बिहार में पढ़ाई व नौकरियां टपकना शुरू हो जाएंगी. इसी तरह के वादे पहले वे पार्टियों को बरगलाने के लिए कर चुके हैं कि उन के कहे मुताबिक चुनाव लड़ा गया तो जीत पक्की ही है.

प्रशांत किशोर ब्राह्मण हैं और वे यह नहीं कहेंगे, भूल कर भी, कि बिहार की गरीबी की वजह पोंगापंथी, पाखंडबाजों का राज रहा है जो जाति के नाम पर मंदिरों को अमीर करते रहे हैं. बिहार में अयोध्या और तिरुपति जैसे विशाल मंदिर नहीं हैं पर वहां जितना पैसा लोग पूजापाठ पर करते हैं और कहीं नहीं करते क्योंकि वहां के जमींदारों ने जम कर धर्म बेचा है.

लालू प्रसाद यादव ने निचली जातियों की बात की पर उन्हें कभी पूजापाठ के जंजाल से नहीं निकाला. वे खुद तिरुमला मंदिर में पत्नी के साथ गए थे. देवघर में बैजनाथ मंदिर में मई, 2025 को भोलेनाथ की पूजा करने पहुंचे थे. वहां उन्होंने यह भी कहा कि बाबा का आशीर्वाद पाने के बाद उन्हें जनता का आशीर्वाद चुनाव में मिलेगा. 22 मई को एकमा के बिशनपुर कला गांव में उन्होंने गोपेश्वर बाबा के मंदिर की देहरी पर सिर झुकाया और कहा कि अब बिहार की जनता जाग चुकी है.

इस से पहले सितंबर, 2024 में उन्होंने पूर्णिया में पूरणदेवी को पूजाअर्चना की और बिहार के लिए आशीर्वाद मांगा जिस का कोरा मतलब है कि वे अपनी चुनावी जीत चाहते थे.

प्रशांत किशोर हों या दूसरे नेता जब तक धर्म से चिपके रहेंगे, सत्ता में चाहे आ जाएं, बिहार का उद्धार नहीं कर सकेंगे. बिहार की कमजोरी की वजह अधपढ़ों की बढ़ती गिनती है जो सर्टिफिकेट या डिगरी तो ले लेते हैं पर हर काम पूरा करने के लिए भरोसा पूजापाठ पर करते हैं. कोई भी नेता उन्हें इस दलदल से निकालने की कोशिश तक नहीं करता. जरूरत से ज्यादा समझदार प्रशांत किशोर भी उसी गिनती में आ गए हैं.

Happy Birthday Tejasvi Yadav : लालू यादव के 9 बेटेबेटियों में सबसे लायक छोटा बेटा

आज बिहार के पूर्व डिप्‍टी सीएम तेजस्‍वी यादव अपना 31वां जन्‍म दिन मना रहे हैं.  आइए जानें राजद सुप्रीमो और बिहार के पूर्व मुख्‍यमंत्री लालू यादव के लिए तेजस्‍वी ही सही उत्‍तराधिकारी क्‍यों हैं ?  

गंभीर नेता की छवि है तेजस्‍वी की

तेजस्‍वी यादव ने अपनी छवि को अपने पिता लालू प्रसाद यादव की तुलना में ज्‍यादा गंभीर बनाई है. लालू यादव ने अपनी शुरुआती राजनैतिक सफर में एक परिपक्‍व नेता की छवि बनाई थी, जिनके पास मुद्दे थे, जो बिहार की गरीबी को अच्‍छी तरह समझते थे, जो वहां के लोगों की समस्‍याओं से भलीभांति परिचित थे लेकिन बाद में उनकी यह छवि धूमिल हो गई. उन पर घोटालों का आरोप लगता गया. इनमें चारा घाेटाला और लैंड फौर जौब स्‍कैम शामिल है. लालू यादव पर यह आरोप लगा था कि वह 2004 से 2009 तक रेलमंत्री रहते हुए  लोगों को नौकरी देने के नाम परर उनकी जमीन अपने नाम लिखवा ली.

मजाकिया अंदाज से बिगड़ी छ‍वि 

 

राजनीति के शुरुआती दिनों में मंच से दिए गए लालू यादव के  भाषणों का मजाकिया अंदाज लोगों को इसलिए पसंद आता था क्‍योंकि उसमें व्‍यंग्‍य होता था. विपक्ष के खिलाफ गंभीर तंज होता था लेकिन बाद में उनके इस अंदाज को मसखरापन माना जाने लगा.  लालू के भाषणों से भरपूर मनोरंजन की उम्‍मीद जताई जाने लगी. वह अपने भाषणों में व्‍यंग्‍य बाण के लिए नहीं गंवई अंदाज के लिए चर्चा में रहने लगे. इसके ठीक विपरीत तेजस्‍वी यादव ने अपनी छवि को गंभीर बनाए रखा है. 9 नवंबर 1989 को जन्‍मे तेजस्‍वी यादव बिहार के उप मुख्‍यमंत्री भी रहे.  वे 10 अगस्‍त 2022 से लेकर 28 जनवरी 2024 तक डिप्‍टी सीएम के पद पर रहे. वे कभी भी बेवजह चुटीली बातें या मसखरापन करते नहीं नजर आते हैं.  उनकी यही छवि आने वाले दिनों में उनके राजनैतिक कैरियर को आगे बढ़ाने का काम करेगी. 

लालू के बेटों में सबसे लायक

इसमें दो राय नहीं है कि लालू के 9 बच्‍चों में तेजस्‍वी यादव सबसे योग्‍य हैं.  लालू यादव के बड़े बेटे तेजप्रताप यादव अपनी अजीबोगरीबों हरकतों की वजह से चर्चा में रहते हैं जबकि तेजस्‍वी ऐसी चीजों से दूर ही रहते हैं.  तेजप्रताप यादव अपनी शादी की वजह से भी विवादों में रहे जबकि तेजस्‍वी यादव ने अपनी शादी में नई मिसाल कायम की.  उन्‍होंने दूसरे धर्म की लड़की रैचेल  से प्रेम विवाह किया.  उनके लिए यह आसान नहीं था लेकिन उन्‍होंने अपने परिवार को इसके लिए रजामंद किया और धूमधाम से शादी की.  रैचल को अब राजश्री यादव के नाम से जाना जाता है. अकसर पारिवारिक समारोहों में वह अपनी पत्‍नी और बेटी के साथ दिखते हैं. इससे तेजस्‍वी की इमेज एक फैमिली मैन की बनी है.
लालू के सभी बच्‍चों की तुलना में तेजस्‍वी में राजनैतिक सूझबूझ भी ज्‍यादा है और चुनाव के दिनों में सक्रिय भी रहते हैं. इससे आम लोगों में यंग लीडर के रूप में उनकी स्‍वीकार्यता भी बढ़ी है. 

बिहार में दो यंग लीडर्स से है उम्‍मीद 

आज की बिहार की राजनीत‍ि में यंग लीडर्स की बात करें, तो एक हैं राम विलास पासवान के बेटे  चिराग पासवान और दूसरे हैं लालू के बेटे तेजस्‍वी यादव. तेजस्‍वी यादव की तुलना अगर अखिलेश यादव से की जाए, तो शायद यह कहना गलत नहीं होगा क‍ि अखिलेश यादव ने अपने पिता मुलायम सिंह की जिंदगी में ही खुद को उनकी छत्रछाया से अलग कर लिया था.  जिन बातों में वह अपने पिता से सहमत नहीं होते, उसका विरोध करते.

वहीं तेजस्‍वी यादव अभी भी अपने पिता लालू यादव की छाया तले नजर आते हैं.  इसकी एक वजह यह भी है कि लालू भी अपने पुत्र के विरोध में नहीं जाते और उनके बच्‍चों में तेजस्‍वी यादव से बेहतर दूसरा कोई राजनैतिक उत्‍तराधिकारी नजर नहीं आता है.  लालू यादव ने अपनी बड़ी बेटी मीसा भारती को भी राजनीति में उतारा था लेकिन मीसा उनके भरोसे पर खरी नहीं उतरी.  वह चुनाव भी हार गईं.  लालू यादव की एक और बेटी, रोहिणी आचार्य ने भी राजनीति में पैर जमाने की कोशिश की थी लेकिन उन्‍हें भी चुनाव में हार का सामना करना पड़ा, ऐसे में लालू के पास तेजस्‍वी से बेहतर दूसरा कोई औप्‍शन नहीं है.  

जब फूटफूट कर रो पड़े थे ये नेता जी, वीडियो हुए वायरल

नेताओं को भाषण देते हुए तो आपने खूब सुना होगा. अपने भाषणों में अच्छा बुरा सब बोलते हुए देखे गए है, लेकिन कभी कभी नेता मंच पर पुराने किस्से या नेताओं को याद कर इमोशनल भी हो जाते है. ऐसे कई नेता जी है जिनकी वीडियो सोशल मीडिया पर रोने की खूब वायरल होती रहती है. आप भी देखें एक झलक कि आखिर क्यों और कहां रो पड़े ये नेतगण.

 

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प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी हुए थे इमोशनल, कर दी थी सबकी आंखे नम

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को कई बार इमोशनल होते देखा गया है. उनकी कई ऐसी वीडियोज है जिनमें वे काफी इमोशनल होते दिखे है. मोदी कई बार इंटरव्यू में भी कई किस्से सुनाते हुए भावुक नजर आए है. लेकिन पहली दफा जब नरेंद्र मोदी संसद भवन के अंदर गए थे. तो पहले तो सेंट्रल हौल में जाने से पहले सीढियों पर झुके और फिर अपनी पार्टी के सदस्यों को संबोधित करते हुए रो पड़े.

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वैशाली में चिराग पासवान ने रो रो के कर लिया था बुरा हाल

चिराग पासवान वैशाली में एक बार काफी भावुक हो गए थे. वे बुरी तरह रो पड़े थे, हालांकि मंजर ही कुछ ऐसा था. राम विलास पासवान की 76वीं जयंती के मौके पर जब लोगों के आंसू छलके, तब चिराग पासवान भी फूट फूट कर रोने लगे. हालांकि वे इससे पहले भी कई बार विपक्ष के वार पर बोलते हुए भी इमोशनल हो चुके है.

मंच पर फूट फूट कर रोने लगे थे पप्पू यादव

राजेश रंजन, जिन्हें ‘पप्पू यादव’ के नाम से जाना जाता है. एक नेता है. जो अपने बयानों को लेकर सुर्खियों में रहते है. हालांकि उन्हे हमेशा बेबाकी से बोलते हुए देखा है. लेकिन उनके साथ ऐसा भी हुआ है कि वे बी मंच पर बोलते बोलते इमोशनल हो गए. जी हां, पुरनिया में भाषण के दौरान पप्पू यादव रोने लगे थे. उन्होंने कहा था कि मेरी पार्टी खत्म की, मुझसे नफरत और अब ऐसी दुश्मनी.. ये बातें कर पप्पू यादव रो पड़े थे.

भाषण के दौरान रो पड़े थे राहुल गांधी

राहुल गांधी ने एक युवा नेता के रुप में सबके दिलों पर राज किया. आज भी राहुल गांधी को चुनावी रैलियों में देखा जाता है कभी मंच पर, कभी रोड़ पर. राहुल गांधी भी एक बार काफी इमोशनल हो गए थे. जब वे लोकसभा में मंच पर खड़े होकर भाषण दे रहे थे. वे मंच पर कुछ ऐसे गहरे शब्द कह गए. जिनसे वे भावुक हो उठे.

कर्पूरी ठाकुर को भारत रत्न, पिछड़ों और दलितों को फंसाने का खेल

बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री कर्पूरी ठाकुर को भारत रत्न सम्मान नरेंद्र मोदी सरकार के हाथों से मिलना कोई ताली बजाने वाली बात नहीं है. यह सिर्फ मई, 2024 के चुनावों की दांवपेंच वाली बात है. नरेंद्र मोदी सरकार उसी तरह कुरुक्षेत्र का युद्ध जीतने की कोशिश कर रही है जैसे कृष्ण ने महाभारत की कहानी में किया था. कृष्ण ने युद्ध से हिचक रहे अर्जुन को पट्टी पढ़ाई, दांवपेंच खेले, अपनों को कौरवों की तरफ भेजा, कौरवों के साथियों को फोड़ा, नियमरिवाज ताक पर रखे ताकि कौरव और पांडव दोनों के परिवार खत्म हो जाएं.

आज जो हो रहा है वह पिछड़ों और दलितों को फंसाने के लिए हो रहा है. कर्पूरी ठाकुर से भारतीय जनता पार्टी या कांग्रेस को कोई प्रेम नहीं है क्योंकि उन्होंने बिहार के अमीर, जमींदार, ऊंची जातियों के दबदबे को खत्म करने की बात उठाई थी. उन्होंने भारतीय जनसंघ (तब भारतीय जनता पार्टी का यही नाम था) और कांग्रेस के खिलाफ दबीकुचली जनता को जमा किया था.

आज भारत रत्न दे कर उन्हें असल में मरने के बाद इस्तेमाल किया जा रहा है जैसे कांगे्रसी वल्लभभाई पटेल और सुभाषचंद्र बोस को किया गया था. मंदिर की राजनीति भी पुरानी हार के गड़े मुरदों के पुतले खड़े कर के वोट जमा करना है. भारतीय जनता पार्टी हमेशा दूसरे घरों में तोड़फोड़ करा कर सत्ता में बने रहने की कोशिश करती है. यह हमारी धार्मिक कला है जिस में घरों में आने वाला पुरोहित बड़ेबड़े शब्दों में जजमान की तारीफ करता है और पड़ोसियों के राज जगजाहिर करता है ताकि उसे मोटी दक्षिणा मिल सके. भारतीय जनता पार्टी इसी बात को राष्ट्रीय पैमाने पर कर रही है और कर्पूरी ठाकुर के गुणगान कर के अब बिहार के पिछड़ों से वोट दक्षिणा में मांग रही है.

यह काबिलेतारीफ है कि धर्म के दुकानदार आसानी से हार नहीं मानते. ईसाई मिशनरी हों या इसलामी मौलवी या बौद्ध भिक्षु या निरंकारी सिख, उन्होंने धर्म के नाम पर हर तरह की आफतें झेली हैं ताकि इन के भाईबंदों को हलवापूरी मिलती रहे. यही वजह है कि 2000 साल की गुलामी के बावजूद गांवों से दक्षिणा देने का रिवाज कभी कम नहीं हुआ. जो हिंदू अपने धर्म को छोड़ कर गए, उन्हें नए धर्म में उसी तरह दक्षिणा देना शुरू करना पड़ा.

कर्पूरी ठाकुर को भारत रत्न देकर उन के परिवार वालों को राष्ट्रपति भवन में बुला कर फोटो हर जगह छपवा और चिपकवा दी जाएगी पर चुनावों के बाद कर्पूरी ठाकुर ने जो कहा था, जो करना चाहा था वह कभी नहीं किया जाएगा. हमारे दक्षिणापंथी कभी भी राजपाट पिछड़ों व दलितों के हाथों में नहीं जाने देंगे, चाहे वे पढ़लिख जाएं, पार्टियां बना लें, चुनाव जीत जाएं. पार्टियों में तोड़फोड़, मुकदमे, जीभर के पैसा लुटाना इसीलिए किया जाता है न.

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