Bihar Politics: बिहार में रिजर्व्ड सीटें

Bihar Politics: बिहार की राजनीति हमेशा से जातपांत, सामाजिक न्याय और राजनीतिक दलों की खींचतान पर टिकी रही है. चुनाव आते ही विकास के वादे किए जाते हैं, लेकिन नतीजे ज्यादातर जातीय समीकरणों और वोट बैंक पर ही तय होते हैं.

खासकर रिजर्व्ड सीटें यानी दलित और आदिवासी समाज के लिए सुरक्षित 40 विधानसभा सीटें चुनावी राजनीति का असली रणक्षेत्र होती हैं. इन्हीं सीटों पर जीतहार से तय होता है कि सत्ता की चाबी किस गठबंधन के हाथ में जाएगी.

साल 2020 के बिहार विधानसभा चुनावों ने इस बात को साफ कर दिया था कि इन 40 सीटों की अहमियत कितनी खास है. उस चुनाव में राजग और महागठबंधन के बीच रिजर्व्ड सीटों पर बेहद करीबी मुकाबला हुआ था. यही वजह है कि साल 2025 के विधानसभा चुनावों की तैयारी में दोनों गठबंधन अपनी पूरी ताकत इन सीटों पर झांकने वाले हैं.

जातीय समीकरण की जड़ें

बिहार का राजनीतिक इतिहास सामाजिक न्याय और जातीय समीकरणों की राजनीति से गहराई से जुड़ा है. 70 के दशक के आखिर और 80 के दशक में जब कर्पूरी ठाकुर जैसे नेताओं ने पिछड़ों को रिजर्वेशन दिलाने की पहल की.

इस के बाद लालू प्रसाद यादव की अगुआई में 90 के दशक में ‘माय समीकरण’ (मुसलिमयादव) का नारा जोरदार तरीके से उभरा. इस दौरान दलित और अति पिछड़ा वर्ग भी इस राजनीति से जुड़ने लगे. दूसरी ओर, भाजपा और जद (यू) ने सवर्ण, अति पिछड़ा और दलित वोट बैंक को साधने की रणनीति अपनाई.

आज हालत यह है कि किसी भी चुनाव में यादव और मुसलिम वोटर महागठबंधन की बुनियाद बनते हैं, जबकि अति पिछड़े और सवर्ण वोट बैंक राजग के साथ रहते हैं. दलित और महादलित वोट बैंक को ले कर दोनों गठबंधनों में सब से ज्यादा खींचतान रहती है.

राजनीतिक अहमियत

बिहार विधानसभा की कुल 243 सीटों में से 40 सीटें अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति वर्ग के लिए रिजर्व्ड हैं. इन में 38 सीटें अनुसूचित जाति और 2 सीटें अनुसूचित जनजाति के लिए रिजर्व्ड हैं. इतिहास बताता है कि बिहार में सरकार बनाने की कुंजी अकसर इन सीटों से ही निकलती है.

साल 2010 का विधानसभा चुनाव : राजग ने इन सीटों पर भारी कामयाबी पाई थी.

साल 2015 का विधानसभा चुनाव : महागठबंधन (जद (यू), राजद और कांग्रेस) ने इन सीटों पर मजबूत पकड़ बनाई थी.

साल 2020 का विधानसभा चुनाव : राजग और महागठबंधन के बीच बेहद करीबी मुकाबला हुआ था.

साल 2020 में बिहार विधानसभा चुनाव में इन 40 सीटों पर नतीजे चौंकाने वाले रहे. भाजपा को 11 सीटें मिलीं. जद (यू) को 7 सीटें मिलीं. राजग की सहयोगी वीआईपी पार्टी को 1 सीट. वहीं महागठबंधन में राजद को 9 सीटें. कांग्रेस को 2 सीटें. भाकपा (माले) को 10 सीटें. इस तरह राजग को कुल 19 सीटें मिलीं, जबकि महागठबंधन ने 21 सीटों पर कब्जा किया.

बिहार की राजनीति का असली संतुलन पिछड़ों और महादलितों पर टिका है. महादलित में पासवान, मुसहर, मांझ, भुइयां जैसी जातियां आती हैं. नीतीश कुमार ने महादलित को अलग पहचान दे कर योजनाओं का फायदा पहुंचाया.

अति पिछड़ा वर्ग में तकरीबन 110 जातियां इस वर्ग में आती हैं. राजग ने इन्हें संगठित करने में बड़ा रोल निभाया है.

पसमांदा मुसलिम में पिछड़े और दलित मुसलमान. राजद और कांग्रेस पर ज्यादा भरोसा करते हैं, लेकिन हाल के सालों में भाजपा ने भी इन के बीच पैठ बनाने की कोशिशें शुरू की हैं, पर इस का असर नहीं देखा जा रहा है.

दलित राजनीति की विरासत

रामविलास पासवान का नाम बिहार की दलित राजनीति में दर्ज है. लोक जनशक्ति पार्टी (रामविलास) के जरीए उन्होंने दलित वोट खासकर पासवान जाति के वोट को अपने तरफ कर लिया.

उन के न रहने के बाद चिराग पासवान ने दलित राजनीति को ‘मौडर्न’ अंदाज देने की कोशिश की है. साल 2020 में लोजपा (रामविलास) ने राजग से अलग हो कर चुनाव लड़ा था, लेकिन भाजपा से नजदीकियां बनाए रखीं. चिराग पासवान की पकड़ भी दलितों में पासवान जाति पर ही खास है. दूसरी दलित जातियां इन के साथ नहीं हैं.

राजग की रणनीति

एनडीए (भाजपा, जद (यू) और लोजपा) का टारगेट दलित और अति पिछड़ा वोट बैंक को मजबूत बनाए रखना है. भाजपा दलित समाज में ‘गांवगांव तक पहुंच’ बनाने पर काम कर रही है. जद (यू) ‘महादलित योजना’ और ‘आरक्षण के विस्तार’ के जरीए समर्थन जुटा रही है.

चिराग पासवान का युवा और आक्रामक तेवर राजग के लिए दलित नौजवानों में आकर्षण पैदा कर सकता है खासकर पासवान जाति तो पूरी मुस्तैदी से इन के साथ है.

महागठबंधन की रणनीति

महागठबंधन (राजद, कांग्रेस और वाम दल) का आधार यादव और मुसलिम वोट बैंक है. लेकिन सत्ता तक पहुंचने के लिए इन्हें दलित और अति पिछड़े वोटों की भी जरूरत है.

तेजस्वी यादव की अगुआई में राजद दलितों को ‘समान अवसर’ और ‘नौकरीरोजगार’ का वादा कर रही है.

माकपा (माले) गांवदेहात में दलितमजदूर वर्ग को संगठित कर रही है. कांग्रेस फिर से अपने परंपरागत दलित वोट बैंक को वापस लाने की कोशिश में है.

बिहार विधानसभा की 40 रिजर्व्ड सीटें केवल चुनावी गणित का हिस्सा नहीं हैं, बल्कि ये समाजशास्त्रीय और राजनीतिक संघर्ष की धुरी हैं.

राजग और महागठबंधन दोनों को पता है कि इन सीटों पर मिली कामयाबी ही सरकार बनाने की कुंजी होगी. साल 2025 का चुनाव दलितपिछड़े समाज की आवाज से यह तय करेगा कि बिहार किस दिशा में आगे बढ़ेगा. Bihar Politics

Editorial: बिहार में हार का डर – वोटर लिस्ट से नाम काटने की राजनीति?

Editorial: बिहार में हार से बचने के लिए भारतीय जनता पार्टी अब खुल्लमखुल्ला चुनाव आयोग को शिखंडी बना कर नेताओं और पार्टियों को नहीं वोटरों को तीरों का निशाना बना रही है. चुनाव आयोग मतदाता सूचियों का रिवीजन कर रहा है और इस बहाने हर उस जने को वोटर लिस्ट से हटाया जा रहा है जिस के पास जन्म प्रमाणपत्र, नागरिकता प्रमाणपत्र, मातापिता दोनों के प्रमाणपत्र जैसे डौक्यूमैंट न हों.

बिहार जैसे राज्य में जहां हर साल बाढ़ में सैकड़ों गांवों में पानी भर जाता है, लोग अपनी जान बचाने के लिए भागते हैं, डौक्यूमैंट नहीं. जब गांव की फूस की झोंपडि़यों में आग लगती है तो कौन सा डौक्यूमैंट बचता है, इस की चिंता चुनाव आयोग को नहीं. बिहार से बाहर जाने वाले और फिर लौटने वाले लाखों लोग आतेजाते अपने डौक्यूमैंट खो बैठते हैं.

बिहार के सीधे, आधे पढ़े लोग भी अब तक वोट देते रहे थे क्योंकि कुछ चुनाव आयुक्तों ने पहले सही कदम उठाया था कि वे बेघरों को भी वोट डालने का मौका देंगे चाहे उन के पास डौक्यूमैंट हो या न हो. अब भारतीय जनता पार्टी के कठपुतले चुनाव आयोग को आदेश है कि बिहार में ऐसे लोगों की छंटनी कर दी जाए जिन के पास प्रमाणपत्र नहीं है.

यह काम अमेरिका में हो रहा है जहां गोरों के राजा डोनाल्ड ट्रंप हर ब्राउन, ब्लैक को वोट देने के हक से निकालने के लिए ऐसा ही काम कर रहे हैं और लाखों को जेलों में बंद कर रहे हैं. भारत में जेलों में बंद करने का काम बाद में शुरू होगा, जब चुनाव आयोग कटी हुई सूचियां जारी कर देगा. तब एक बड़े परिवार के कुछ लोग नागरिक माने जाएंगे, कुछ को घुसपैठिया करार कर दिया जाएगा. यह पक्का है कि नीतीश कुमार इस मामले में ज्यादा नहीं बोल पाएंगे क्योंकि उन्हें तो कुरसी प्यारी है और वे अपने राज के अंतिम महीनों में इस छोटी सी बात के लिए, जिस का फर्क लाखों पर पड़ेगा, भारतीय जनता पार्टी से बैर मोल नहीं ले सकते.

पप्पू यादव या कांग्रेस ज्यादा न बोले इस के लिए दोनों के खिलाफ मुकदमे किए हुए हैं, बाकी कई दल तो चुप्पे रह गए हैं. सुप्रीम कोर्ट तक मामला जातेजाते चुनाव हो चुके होंगे क्योंकि चुनाव आयोग पक्का है कि सूचियां चुनाव की तारीखों का ऐलान करने के कुछ दिन पहले ही जारी करेगा.

लेकिन इस का यह मतलब नहीं कि भाजपा की जीत की गारंटी है. जिन का वोट कटेगा उन के साथीरिश्तेदार भाजपा और चुनाव आयोग के गठबंधन को समझ जाएंगे. वे जानते हैं कि वोट का हक छीनना 1975 वाली इमर्जैंसी लगाना है. जैसे उन्होंने इंदिरा गांधी के मनसूबे ढहाए थे, वह काम फिर हो तो बड़ी बात नहीं.

वोट का हक बहुत बड़ा हक है. बाकी सारे हक इसी से निकलते हैं. उसे हाथ से फिसलने देने का मतलब है पौराणिक युग की गुलामी में चले जाना जो मुगलों और अंगरेजों की गुलामी से भी ज्यादा बदतर थी. जमींदारों ने उसी गुलामी को मराठा युग में इस्तेमाल किया था. आज वही न दोहराया जाए.

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कर्ज दे कर पैसा कमाना इस देश के व्यापारियों का मेन काम रहा है. गांवगांव, कसबेकसबे में जो भी व्यापारी थोड़ा पैसा कमा रहा है वह जरूर किसी न किसी तरह सूद पर पैसे देने वाला है. इन छोटेछोटे व्यापारियों, सूदखोरों और कहीं छोटे कारखानेदारों का मुनाफा सिर्फ ब्याज से होता था, क्योंकि ये दिए गए पैसे पर 10 फीसदी नहीं, 30 से 100 फीसदी तक का ब्याज लेते थे.

इन का पहला काम होता था कि गरीबों को इस हालत में लाओ कि वे कर्ज लेने को दौड़ें. इस में पंडितों और मौलवियों का बड़ा साथ था और इसीलिए ये व्यापारी मंदिरमसजिद खूब बनवाते थे. मंदिरों में तो पूजापाठ, कीर्तन, भंडारे, तीर्थयात्रा, प्रवचन, महापंडितों के दौरे चलाए जाते ताकि गरीब बेवकूफ इस जन्म और अगले जन्म को सुधारने के चक्कर में कामधाम छोड़ कर पैसा गांव से लगा कर धर्म की दुकान पर गंवा आए.

जब जेब खाली हो जाए और बीमारी, शादी, बच्चा, काम छूटने से नुकसान होने लगे तो महाजनों के पास जाए. सदियों से यह काम बड़ी शान से चल रहा है. अब इस में सरकारों की शह पा कर और नई टैक्नोलौजी आने से यह लूट छोटे महाजनों से खिसक कर टाई वालों की कंपनियों में पहुंच गई है.

माइक्रोफाइनैंस करने वाली कंपनियों ने देशभर में 4.2 करोड़ लोगों को कर्ज दे रखा है. पिछले साल 2023-24 में 60 हजार करोड़ रुपए कर्ज में दिए गए जिन पर औसतन 25 से 30 फीसदी ब्याज वसूला गया. याद रखें कि इन के पास पैसा जमा कराओ तो ये 9-10 फीसदी भी ब्याज नहीं देते.

अगर मासिक किस्त में देर हो जाए तो ब्याज पर ब्याज और जुर्माना लगने लगता है. माइक्रोफाइनैंस कंपनियां ऐसे ही ग्राहक फंसाती हैं जो समय पर किस्त न भर पाएं. इन के गांवगांव में फैले एजेंट ‘लोन ही लोन’ के परचे बांटते रहते हैं ताकि थोड़ा कमाने वाला बचत करने की जगह कर्ज ले, तीर्थ पर जाए, घर में भोज कराए, मंदिर में बड़ा दान दे, बीमारी में लगाए, शादी में लगाए और फिर किस्त न दे पाए. 60 हजार करोड़ का एक साल

में कर्ज देने वाली कंपनियों का बाजार में इतना ही पैसा उन हाथों में फंसा हुआ है जिन्होंने 90 दिनों तक किस्त नहीं चुकाई.

माइक्रोफाइनैंस कंपनियां अब भारतीय रिजर्व बैंक और सरकार से मिन्नतें कर रही हैं कि इन्होंने जिन बैंकों से कम ब्याज पर पैसा ले रखा है वह सरकार माफ कर दे. यह हो भी जाएगा क्योंकि जब अरबों का बड़े बैंकों से कर्जा लिए माइक्रोफाइनैंस कंपनी बंद हो जाएगी तो बड़े बैंक माइक्रोफाइनैंस कंपनी को दिए कर्ज को भूल जाएंगे.

इस दौरान जिस ने कर्ज लिया वह मूल से ज्यादा दे चुका होगा पर ब्याज इतना ज्यादा हो चुका होगा कि फिर भी बहुत बकाया रह जाएगा. लोन कलैक्टर गुंडे भी इन माइक्रोफाइनैंस कंपनियों ने पाल रखे हैं जो मारपीट पर उतर आते हैं. अमीर और गरीब सब इस की मार खा रहे हैं. कर्ज लो, पछताओ की बात कोई न कहता है और न कोई सुनना चाहता है. Editorial

Bihar Politics: वोटों के लिए मंदिरमंदिर जाते प्रशांत किशोर

Bihar Politics: बिहार में अब एक नए देवता का आगमन हुआ है. नेताओं को चुनाव लड़ने की सलाह देने वाले प्रशांत किशोर ने अपनी एक अलग पार्टी बना ली है जन सुराज पार्टी और वे गांवगांव घूम रहे हैं. उन का कहना है कि वे वोट नहीं मांग रहे, बल्कि वे तो यह बता रहे हैं कि गरीबी से कैसे निकला जाए. उन का कहना है कि बिहार ने पहले 40 साल कांग्रेस को जिताया, फिर लालू प्रसाद यादव को महाराजा मान कर बैठाया और अब नीतीश कुमार अलटीपलटी मार कर बिहार पर राज कर रहे हैं पर बिहार सुधरा नहीं है.

अब वे कहते हैं कि आप बिहारी उन के कहे मुताबिक वोट देंगे तो बिहार में पढ़ाई व नौकरियां टपकना शुरू हो जाएंगी. इसी तरह के वादे पहले वे पार्टियों को बरगलाने के लिए कर चुके हैं कि उन के कहे मुताबिक चुनाव लड़ा गया तो जीत पक्की ही है.

प्रशांत किशोर ब्राह्मण हैं और वे यह नहीं कहेंगे, भूल कर भी, कि बिहार की गरीबी की वजह पोंगापंथी, पाखंडबाजों का राज रहा है जो जाति के नाम पर मंदिरों को अमीर करते रहे हैं. बिहार में अयोध्या और तिरुपति जैसे विशाल मंदिर नहीं हैं पर वहां जितना पैसा लोग पूजापाठ पर करते हैं और कहीं नहीं करते क्योंकि वहां के जमींदारों ने जम कर धर्म बेचा है.

लालू प्रसाद यादव ने निचली जातियों की बात की पर उन्हें कभी पूजापाठ के जंजाल से नहीं निकाला. वे खुद तिरुमला मंदिर में पत्नी के साथ गए थे. देवघर में बैजनाथ मंदिर में मई, 2025 को भोलेनाथ की पूजा करने पहुंचे थे. वहां उन्होंने यह भी कहा कि बाबा का आशीर्वाद पाने के बाद उन्हें जनता का आशीर्वाद चुनाव में मिलेगा. 22 मई को एकमा के बिशनपुर कला गांव में उन्होंने गोपेश्वर बाबा के मंदिर की देहरी पर सिर झुकाया और कहा कि अब बिहार की जनता जाग चुकी है.

इस से पहले सितंबर, 2024 में उन्होंने पूर्णिया में पूरणदेवी को पूजाअर्चना की और बिहार के लिए आशीर्वाद मांगा जिस का कोरा मतलब है कि वे अपनी चुनावी जीत चाहते थे.

प्रशांत किशोर हों या दूसरे नेता जब तक धर्म से चिपके रहेंगे, सत्ता में चाहे आ जाएं, बिहार का उद्धार नहीं कर सकेंगे. बिहार की कमजोरी की वजह अधपढ़ों की बढ़ती गिनती है जो सर्टिफिकेट या डिगरी तो ले लेते हैं पर हर काम पूरा करने के लिए भरोसा पूजापाठ पर करते हैं. कोई भी नेता उन्हें इस दलदल से निकालने की कोशिश तक नहीं करता. जरूरत से ज्यादा समझदार प्रशांत किशोर भी उसी गिनती में आ गए हैं.

Happy Birthday Tejasvi Yadav : लालू यादव के 9 बेटेबेटियों में सबसे लायक छोटा बेटा

आज बिहार के पूर्व डिप्‍टी सीएम तेजस्‍वी यादव अपना 31वां जन्‍म दिन मना रहे हैं.  आइए जानें राजद सुप्रीमो और बिहार के पूर्व मुख्‍यमंत्री लालू यादव के लिए तेजस्‍वी ही सही उत्‍तराधिकारी क्‍यों हैं ?  

गंभीर नेता की छवि है तेजस्‍वी की

तेजस्‍वी यादव ने अपनी छवि को अपने पिता लालू प्रसाद यादव की तुलना में ज्‍यादा गंभीर बनाई है. लालू यादव ने अपनी शुरुआती राजनैतिक सफर में एक परिपक्‍व नेता की छवि बनाई थी, जिनके पास मुद्दे थे, जो बिहार की गरीबी को अच्‍छी तरह समझते थे, जो वहां के लोगों की समस्‍याओं से भलीभांति परिचित थे लेकिन बाद में उनकी यह छवि धूमिल हो गई. उन पर घोटालों का आरोप लगता गया. इनमें चारा घाेटाला और लैंड फौर जौब स्‍कैम शामिल है. लालू यादव पर यह आरोप लगा था कि वह 2004 से 2009 तक रेलमंत्री रहते हुए  लोगों को नौकरी देने के नाम परर उनकी जमीन अपने नाम लिखवा ली.

मजाकिया अंदाज से बिगड़ी छ‍वि 

 

राजनीति के शुरुआती दिनों में मंच से दिए गए लालू यादव के  भाषणों का मजाकिया अंदाज लोगों को इसलिए पसंद आता था क्‍योंकि उसमें व्‍यंग्‍य होता था. विपक्ष के खिलाफ गंभीर तंज होता था लेकिन बाद में उनके इस अंदाज को मसखरापन माना जाने लगा.  लालू के भाषणों से भरपूर मनोरंजन की उम्‍मीद जताई जाने लगी. वह अपने भाषणों में व्‍यंग्‍य बाण के लिए नहीं गंवई अंदाज के लिए चर्चा में रहने लगे. इसके ठीक विपरीत तेजस्‍वी यादव ने अपनी छवि को गंभीर बनाए रखा है. 9 नवंबर 1989 को जन्‍मे तेजस्‍वी यादव बिहार के उप मुख्‍यमंत्री भी रहे.  वे 10 अगस्‍त 2022 से लेकर 28 जनवरी 2024 तक डिप्‍टी सीएम के पद पर रहे. वे कभी भी बेवजह चुटीली बातें या मसखरापन करते नहीं नजर आते हैं.  उनकी यही छवि आने वाले दिनों में उनके राजनैतिक कैरियर को आगे बढ़ाने का काम करेगी. 

लालू के बेटों में सबसे लायक

इसमें दो राय नहीं है कि लालू के 9 बच्‍चों में तेजस्‍वी यादव सबसे योग्‍य हैं.  लालू यादव के बड़े बेटे तेजप्रताप यादव अपनी अजीबोगरीबों हरकतों की वजह से चर्चा में रहते हैं जबकि तेजस्‍वी ऐसी चीजों से दूर ही रहते हैं.  तेजप्रताप यादव अपनी शादी की वजह से भी विवादों में रहे जबकि तेजस्‍वी यादव ने अपनी शादी में नई मिसाल कायम की.  उन्‍होंने दूसरे धर्म की लड़की रैचेल  से प्रेम विवाह किया.  उनके लिए यह आसान नहीं था लेकिन उन्‍होंने अपने परिवार को इसके लिए रजामंद किया और धूमधाम से शादी की.  रैचल को अब राजश्री यादव के नाम से जाना जाता है. अकसर पारिवारिक समारोहों में वह अपनी पत्‍नी और बेटी के साथ दिखते हैं. इससे तेजस्‍वी की इमेज एक फैमिली मैन की बनी है.
लालू के सभी बच्‍चों की तुलना में तेजस्‍वी में राजनैतिक सूझबूझ भी ज्‍यादा है और चुनाव के दिनों में सक्रिय भी रहते हैं. इससे आम लोगों में यंग लीडर के रूप में उनकी स्‍वीकार्यता भी बढ़ी है. 

बिहार में दो यंग लीडर्स से है उम्‍मीद 

आज की बिहार की राजनीत‍ि में यंग लीडर्स की बात करें, तो एक हैं राम विलास पासवान के बेटे  चिराग पासवान और दूसरे हैं लालू के बेटे तेजस्‍वी यादव. तेजस्‍वी यादव की तुलना अगर अखिलेश यादव से की जाए, तो शायद यह कहना गलत नहीं होगा क‍ि अखिलेश यादव ने अपने पिता मुलायम सिंह की जिंदगी में ही खुद को उनकी छत्रछाया से अलग कर लिया था.  जिन बातों में वह अपने पिता से सहमत नहीं होते, उसका विरोध करते.

वहीं तेजस्‍वी यादव अभी भी अपने पिता लालू यादव की छाया तले नजर आते हैं.  इसकी एक वजह यह भी है कि लालू भी अपने पुत्र के विरोध में नहीं जाते और उनके बच्‍चों में तेजस्‍वी यादव से बेहतर दूसरा कोई राजनैतिक उत्‍तराधिकारी नजर नहीं आता है.  लालू यादव ने अपनी बड़ी बेटी मीसा भारती को भी राजनीति में उतारा था लेकिन मीसा उनके भरोसे पर खरी नहीं उतरी.  वह चुनाव भी हार गईं.  लालू यादव की एक और बेटी, रोहिणी आचार्य ने भी राजनीति में पैर जमाने की कोशिश की थी लेकिन उन्‍हें भी चुनाव में हार का सामना करना पड़ा, ऐसे में लालू के पास तेजस्‍वी से बेहतर दूसरा कोई औप्‍शन नहीं है.  

जब फूटफूट कर रो पड़े थे ये नेता जी, वीडियो हुए वायरल

नेताओं को भाषण देते हुए तो आपने खूब सुना होगा. अपने भाषणों में अच्छा बुरा सब बोलते हुए देखे गए है, लेकिन कभी कभी नेता मंच पर पुराने किस्से या नेताओं को याद कर इमोशनल भी हो जाते है. ऐसे कई नेता जी है जिनकी वीडियो सोशल मीडिया पर रोने की खूब वायरल होती रहती है. आप भी देखें एक झलक कि आखिर क्यों और कहां रो पड़े ये नेतगण.

 

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प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी हुए थे इमोशनल, कर दी थी सबकी आंखे नम

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को कई बार इमोशनल होते देखा गया है. उनकी कई ऐसी वीडियोज है जिनमें वे काफी इमोशनल होते दिखे है. मोदी कई बार इंटरव्यू में भी कई किस्से सुनाते हुए भावुक नजर आए है. लेकिन पहली दफा जब नरेंद्र मोदी संसद भवन के अंदर गए थे. तो पहले तो सेंट्रल हौल में जाने से पहले सीढियों पर झुके और फिर अपनी पार्टी के सदस्यों को संबोधित करते हुए रो पड़े.

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वैशाली में चिराग पासवान ने रो रो के कर लिया था बुरा हाल

चिराग पासवान वैशाली में एक बार काफी भावुक हो गए थे. वे बुरी तरह रो पड़े थे, हालांकि मंजर ही कुछ ऐसा था. राम विलास पासवान की 76वीं जयंती के मौके पर जब लोगों के आंसू छलके, तब चिराग पासवान भी फूट फूट कर रोने लगे. हालांकि वे इससे पहले भी कई बार विपक्ष के वार पर बोलते हुए भी इमोशनल हो चुके है.

मंच पर फूट फूट कर रोने लगे थे पप्पू यादव

राजेश रंजन, जिन्हें ‘पप्पू यादव’ के नाम से जाना जाता है. एक नेता है. जो अपने बयानों को लेकर सुर्खियों में रहते है. हालांकि उन्हे हमेशा बेबाकी से बोलते हुए देखा है. लेकिन उनके साथ ऐसा भी हुआ है कि वे बी मंच पर बोलते बोलते इमोशनल हो गए. जी हां, पुरनिया में भाषण के दौरान पप्पू यादव रोने लगे थे. उन्होंने कहा था कि मेरी पार्टी खत्म की, मुझसे नफरत और अब ऐसी दुश्मनी.. ये बातें कर पप्पू यादव रो पड़े थे.

भाषण के दौरान रो पड़े थे राहुल गांधी

राहुल गांधी ने एक युवा नेता के रुप में सबके दिलों पर राज किया. आज भी राहुल गांधी को चुनावी रैलियों में देखा जाता है कभी मंच पर, कभी रोड़ पर. राहुल गांधी भी एक बार काफी इमोशनल हो गए थे. जब वे लोकसभा में मंच पर खड़े होकर भाषण दे रहे थे. वे मंच पर कुछ ऐसे गहरे शब्द कह गए. जिनसे वे भावुक हो उठे.

कर्पूरी ठाकुर को भारत रत्न, पिछड़ों और दलितों को फंसाने का खेल

बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री कर्पूरी ठाकुर को भारत रत्न सम्मान नरेंद्र मोदी सरकार के हाथों से मिलना कोई ताली बजाने वाली बात नहीं है. यह सिर्फ मई, 2024 के चुनावों की दांवपेंच वाली बात है. नरेंद्र मोदी सरकार उसी तरह कुरुक्षेत्र का युद्ध जीतने की कोशिश कर रही है जैसे कृष्ण ने महाभारत की कहानी में किया था. कृष्ण ने युद्ध से हिचक रहे अर्जुन को पट्टी पढ़ाई, दांवपेंच खेले, अपनों को कौरवों की तरफ भेजा, कौरवों के साथियों को फोड़ा, नियमरिवाज ताक पर रखे ताकि कौरव और पांडव दोनों के परिवार खत्म हो जाएं.

आज जो हो रहा है वह पिछड़ों और दलितों को फंसाने के लिए हो रहा है. कर्पूरी ठाकुर से भारतीय जनता पार्टी या कांग्रेस को कोई प्रेम नहीं है क्योंकि उन्होंने बिहार के अमीर, जमींदार, ऊंची जातियों के दबदबे को खत्म करने की बात उठाई थी. उन्होंने भारतीय जनसंघ (तब भारतीय जनता पार्टी का यही नाम था) और कांग्रेस के खिलाफ दबीकुचली जनता को जमा किया था.

आज भारत रत्न दे कर उन्हें असल में मरने के बाद इस्तेमाल किया जा रहा है जैसे कांगे्रसी वल्लभभाई पटेल और सुभाषचंद्र बोस को किया गया था. मंदिर की राजनीति भी पुरानी हार के गड़े मुरदों के पुतले खड़े कर के वोट जमा करना है. भारतीय जनता पार्टी हमेशा दूसरे घरों में तोड़फोड़ करा कर सत्ता में बने रहने की कोशिश करती है. यह हमारी धार्मिक कला है जिस में घरों में आने वाला पुरोहित बड़ेबड़े शब्दों में जजमान की तारीफ करता है और पड़ोसियों के राज जगजाहिर करता है ताकि उसे मोटी दक्षिणा मिल सके. भारतीय जनता पार्टी इसी बात को राष्ट्रीय पैमाने पर कर रही है और कर्पूरी ठाकुर के गुणगान कर के अब बिहार के पिछड़ों से वोट दक्षिणा में मांग रही है.

यह काबिलेतारीफ है कि धर्म के दुकानदार आसानी से हार नहीं मानते. ईसाई मिशनरी हों या इसलामी मौलवी या बौद्ध भिक्षु या निरंकारी सिख, उन्होंने धर्म के नाम पर हर तरह की आफतें झेली हैं ताकि इन के भाईबंदों को हलवापूरी मिलती रहे. यही वजह है कि 2000 साल की गुलामी के बावजूद गांवों से दक्षिणा देने का रिवाज कभी कम नहीं हुआ. जो हिंदू अपने धर्म को छोड़ कर गए, उन्हें नए धर्म में उसी तरह दक्षिणा देना शुरू करना पड़ा.

कर्पूरी ठाकुर को भारत रत्न देकर उन के परिवार वालों को राष्ट्रपति भवन में बुला कर फोटो हर जगह छपवा और चिपकवा दी जाएगी पर चुनावों के बाद कर्पूरी ठाकुर ने जो कहा था, जो करना चाहा था वह कभी नहीं किया जाएगा. हमारे दक्षिणापंथी कभी भी राजपाट पिछड़ों व दलितों के हाथों में नहीं जाने देंगे, चाहे वे पढ़लिख जाएं, पार्टियां बना लें, चुनाव जीत जाएं. पार्टियों में तोड़फोड़, मुकदमे, जीभर के पैसा लुटाना इसीलिए किया जाता है न.

बिहार : जातिगत जनगणना और जनता का सच

2 अक्तूबर, 2023 को मोहनदास करमचंद गांधी की जन्मतिथि होती है और देश उन्हें अपनेअपने तरीके से याद करता है. इस बार बिहार ने उन्हें अलग तरीके से याद किया है और जिन वंचितों, दबेकुचलों के हकों की बात महात्मा गांधी करते थे, राज्य में उन की तादाद कितनी है उसे जातिगत जनगणना के आधार पर उजागर किया है.

बिहार सरकार की तरफ से विकास आयुक्त विवेक सिंह ने मीडिया को बताया कि बिहार सरकार ने जातिगत जनगणना का काम पूरा कर लिया है.

बिहार में जातिगत जनगणना के जो आंकड़े जारी किए गए हैं, उन के मुताबिक राज्य में सब से ज्यादा आबादी अति पिछड़े वर्ग की है. इस रिपोर्ट के मुताबिक, बिहार में सवर्ण यानी ऊंची जाति वाले एक तरह से काफी कम आबादी में सिमट गए हैं.

आबादी के हिसाब से अत्यंत पिछड़ा वर्ग 36.01 फीसदी है, जिस की संख्या 4,70,80,514 है. वहीं पिछड़ा वर्ग 27.12 फीसदी है जिन की तादाद 3,54,63,936 है, जबकि अनुसूचित जाति के 19.6518 फीसदी हैं और इन की आबादी 2,56,89,820 है.

अनुसूचित जनजाति की आबादी 21,99,361 है जो कुल आबादी का 1.6824 फीसदी है. अनारक्षित यानी जनरल कास्ट, जिसे सवर्ण भी कह सकते हैं, की आबादी 2,02,91,679 है, जो बिहार की कुल आबादी का 15.5224 फीसदी है.

बिहार में हिंदुओं की आबादी सब से ज्यादा है. ये आबादी 81.9986 फीसदी हैं. वहीं अति पिछड़ा वर्ग की आबादी 36.01 फीसदी, पिछड़े वर्ग की आबादी 27.12 फीसदी, एससी19.65 फीसदी, एसटी 1.6 फीसदी और मुसहर की आबादी 3 फीसदी बताई गई है.

बिहार सरकार की जातिगत जनगणना की रिपोर्ट के मुताबिक, राज्य की कुल आबादी 13 करोड़ से ज्यादा यानी 13,07,25,310 है. धर्म के हिसाब से आबादी की बात करें तो हिंदू धर्म की आबादी 81.99 फीसदी है, जो तादाद के लिहाज से 10,71,92 958 है. इसलाम धर्म 17.70 फीसदी है और आबादी 2,31,49,925 है. ईसाई धर्म 0.05 फीसदी है और आबादी 75,238 है.

सिख धर्म 0.011 फीसदी है और आबादी 14, 753 है. बौद्ध धर्म 0.0851 फीसदी है और आबादी 1,11,201 है. जैन धर्म 0.0096 फीसदी है और आबादी 12,523 है. दूसरे धर्म 0.1274 फीसदी हैं. आबादी 1,66,566 है. वहीं, कोई धर्म नहीं मानने वाले 0.0016 फीसदी हैं. वे आबादी के लिहाज से 2,146 हैं.

जाति पर गरमाई सियासत

नीतीश कुमार की इस कूटनीतिक चाल का सब से ज्यादा असर भारतीय जनता पार्टी पर पड़ा. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने बिना किसी का नाम लिए आरोप लगाए, “वे पहले भी गरीबों की भावनाओं से खेलते थे. आज भी वे यही खेल खेल रहे हैं. वे पहले भी जाति के नाम पर समाज को बांटते थे और आज भी वही पाप कर रहे हैं. पहले वे भ्रष्टाचार के दोषी थे आज वे और ज्यादा भ्रष्टाचारी हो गए हैं. वे तब भी सिर्फ और सिर्फ एक परिवार का गौरवगान करते थे. वे आज भी वही करने में अपना भविष्य देखते हैं.”

प्रधानमंत्री की इस तिलमिलाहट से साफ जाहिर हो रहा है कि विपक्ष इस जातिगत मुद्दे को भुना कर अपना पक्ष जनता खासकर वंचित समाज की बात बड़ी ही ऊंची आवाज में उठाने की पुरजोर कोशिश करेगा.

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इसे कांग्रेस के नजरिए से समझते हैं. बिहार में जातिगत जनगणना के आंकड़े जारी होने के बाद कांग्रेस सांसद राहुल गांधी ने भी काफी कड़ी टिप्पणी की.

राहुल गांधी ने सोशल प्लेटफार्म ‘एक्स’ पर लिखा, ‘बिहार की जातिगत जनगणना से पता चला है कि वहां ओबीसी+एससी+एसटी 84 फीसदी हैं. केंद्र सरकार के 90 सचिवों में सिर्फ 3 ओबीसी हैं, जो भारत का महज 5 फीसदी बजट संभालते हैं, इसलिए, भारत के जातिगत आंकड़े जानना जरूरी है. ‘जितनी आबादी, उतना हक’ यह हमारा प्रण है.’

जनता के क्या हाल

देश में आखिरी जातिगत जनगणना साल 1931 में हुई थी. साल 1941 में दूसरे विश्व युद्ध के चलते जातिगत जनगणना नहीं कराई जा सकी थी. आजादी के बाद 1951 में पहली जनगणना हुई थी. तब केंद्र की जवाहरलाल नेहरू की सरकार ने तय किया था कि आजाद भारत में जाति आधारित भेदभाव को खत्म करना है, इसलिए जातिगत जनगणना की जरूरत नहीं है.

अब चूंकि बिहार में जातिगत जनगणना हो गई है और इस का पूरे देश की सियासत पर क्या असर पड़ेगा, यह तो आने वाले समय में पता चल ही जाएगा, पर फिलहाल ये जो 84 फीसदी वाले ओबीसी, एससी और एसटी तबके के लोग हैं, उन के हालात क्या हैं और क्या आने वाले समय में उन का कुछ भला होगा? यह खुद में लाख टके का सवाल है.

2 साल पहले की एक रिपोर्ट पर नजर डालते हैं. नीति आयोग ने तब नैशनल मल्टीडाइमैंशनल पोवर्टी इंडैक्स- बेसलाइन रिपोर्ट जारी की थी. उस रिपोर्ट के मुताबिक, बिहार की 51.91 फीसदी आबादी मल्टीडाइमैंशनली गरीब है, जबकि 51.88 फीसदी लोग न्यूट्रिशन से वंचित हैं. गरीबी, न्यूट्रिशन, मां की सेहत, स्कूल में हाजिरी, रसोई ईंधन और बिजली के मामले में बिहार का नंबर देशभर में सब से ज्यादा खराब है.

बिहार के ऐसे 26.27 फीसदी बच्चे हैं जिन्होंने स्कूली पढ़ाईलिखाई पूरी नहीं की है. यहां के 12.52 फीसदी बच्चे जमात 8 तक स्कूल नहीं गए हैं. इतना ही नहीं, बिहार में 63.20 फीसदी आबादी पारंपरिक इंधरों पर निर्भर है यानी लोग उपले, लकड़ी, चारकोल या कोयले पर खाना बना रहे हैं. यह देश के सभी राज्यों के मुकाबले ज्यादा है.

ये जो बिहार की कुल आबादी के 84 फीसदी लोग हैं वे ज्यादा पढ़ेलिखे नहीं हैं और बहुत से तो दूसरे राज्यों में बेहद कम मजदूरी में बेगार करने को मजबूर हैं और वहां जिल्लत भरी जिंदगी बिताने पर मजबूर हैं.

याद रखिए, बिहार वही राज्य है जिसे विशेष राज्य का दर्जा देने की मांग खुद नीतीश कुमार करते रहे हैं. अब जातिगत जनगणना कराने के बाद वे राज्य में हर तबके की तरक्की की बात कर रहे हैं, जो होनी भी चाहिए, पर उस के लिए रोड मैप बनना भी जरूरी है.

अगर ऐसा नहीं हुआ और जातिगत जनगणना पर सिर्फ सियासत हुई तो गरीबों और वंचितों को आगे बढ़ाने की बात कागजों में सिमट कर रह जाएगी और वे केवल वोट बैंक बन कर रह जाएंगे, जो इस जातिगत जनगणना का मकसद कतई नहीं है.

बिहार में जातियों के लिए खुलेंगे बंद दरवाजे

बिहार उच्च न्यायालय ने जातियों की गिनती को कानूनी बता कर मई में लगाई रोक हटा ली है और अब नीतीश कुमार सरकार एक बार फिर गिनती शुरू कर सकती है कि किस जाति के लोग कितने है और उन की माली हालत कैसे हैं. अगर सुप्रीम कोर्ट ने रोक फिर नहीं लगाई या कुछ महीनों में पता चल जाएगा देश में लोकतंत्र की असली चाबी किस के पास है और शायद जातियों के लिए बंद दरवाजे खुलने लगे.

यह बात तो पक्की है कि चाहे मामला सरकारी नौकरियों का हो, दुकानदारी का हो, छोटे धंधों में नौकरियों का हो, पढ़ाई का हो थोड़े से मुट्ठी भर लोग एक लंबी पौराणिक समय में चली आ रही साजिश के तहत देश की 80-85′ आबादी से पैसा ही नहीं इज्जत भी छीन कर अपने पास गिरवी रख लेते हैं.

नई तकनीक के 200 सालों और आजादी के 75 साल बाद भी जरा सा ही फर्क आया है कि अब पिछड़ों दलितों को अमीरों और ऊंचों के घर के सामने से गुजरते हुए चप्पल बगल में नहीं दबानी पड़ती. कर्पूरी ठाकुर जयप्रकाश नारायण, लालू यादव के बदलावों से पिछड़ों को अहसास तो हो गया है कि वे जानवर नहीं है और धर्म की पट्टी को आंखों और दिमाग पर बांधी गई है उस ने फिर उन्हें अपनेअपने  टोलों में धकेल दिया है और वे अपनी बुरी हालत के लिए पहले की तरह पिछड़े जन्मों के कर्मों को जिम्मेदार मानते हैं और अब जोरशोर से अपनेअपने मंदिरों में जाने लगे हैं जहां से पैसा सारा ऊंची जमातों के पंडे पुजारियों के हाथ में ही जाता है.

जाति सवो से शायद पता चले कि किस जाति के लोग कितने गरीब हैं. यह भी हो सकता है कि ऊंची जातियों के लोगों के पास केवल जाति का ठप्पा ही हो और जब उन की खाली हो. सर्वे से, जो जनगणना की तरह है पर जनगणना नहीं, यह पता चलेगा कि सरकार किस पर कितना खर्च करे.

पिछले कुछ सालों से एयरपोर्टो, चमचम करते रेलवे स्टेशनों, बंदे भारत टे्रनों, 6 और 8 लेन के हाईवे, बड़ी सांसद, भव्य मीङ्क्षटग हाल, ऊंची मूॢतयां, नए मंदिर बनाने की लग पड़ गई है. सरकारी स्कूलों, सरकारी अस्पतालों, सरकारी मंडियों, बाजारों, घरों के आगे सडक़ों, सीवरों, पीने का पानी सब पीछे रह गया है. प्रधानमंत्री हर रोज एक ऐसी चीज का उद्घाटन करते नजर आते है जो अमीरों को सुख देती है, गरीब किसान मजदूर, सफाई कर्मचारी और सवर्णों की औरतों को नहीं हो सकता है इस एक सर्वे से कुछ फायदा हो पर लगता यही है कि सर्वे की रिपोर्ट भी किसी दफ्तर में फाइलों में बंद हो जाएगी क्योंकि जो नेता आज सत्ता में हैं कल हों या न हों. पता नहीं. नीतीश कुमार और तेजस्वी यादव अगर सत्ता में नहीं रहे तो इस सर्वे के गंगा में बहा दिया जाएगा,

तेजस्वी यादव: भाजपा के लिए खतरा

राज्य के मोकामा और गोपालगंज विधानसभा क्षेत्रों में उपचुनाव राष्ट्रीय जनता दल के लिए बेहद खास थे. जनता दल (यूनाइटेड) और भाजपा के अलग होने के बाद ये पहले चुनाव थे. भारतीय जनता पार्टी चाहती थी कि राजद एक भी सीट न जीते, जिस से उस की साख पर बट्टा लग सके. इस के लिए भाजपा ने राजद नेता और बिहार के उपमुख्यमंत्री तेजस्वी यादव के मामा साधु यादव और मामी इंदिरा यादव को अपनी तरफ मिला लिया था. वह भाजपा की बी टीम की तरह से काम कर रहे थे. इस के बाद भी राजद ने उपचुनाव में मोकामा सीट पर जीत हासिल कर ली. तेजस्वी यादव कहते हैं, ‘‘गोपालगंज सीट पर भी हम ने भाजपा के वोटों में सेंधमारी की है. साल 2020 के विधानसभा चुनाव में हमें 40,000 वोटों से हार मिली थी, जबकि उपचुनाव में सहानुभूति वोट के बाद भी केवल 1,700 वोटों से हारे हैं.

‘‘इस से इस बात का प्रमाण भी मिल गया है कि तेजस्वी यादव ने अब अपनी पकड़ मजबूत कर ली है. अब बिहार में राजद ही भाजपा को रोकने का काम कर सकती है.’’

33 साल के तेजस्वी यादव को 2 बार बिहार का उपमुख्यमंत्री बनने का मौका मिल चुका है. राजनीतिक जानकार तेजस्वी यादव को बिहार के भविष्य का नेता मान रहे हैं. बिहार में रामविलास पासवान की लोक जनशक्ति पार्टी अपना वजूद खो बैठी है. नीतीश कुमार की जनता दल (यूनाइटेड) में नीतीश कुमार का उत्तराधिकारी कोई बन नहीं पाया है. नीतीश कुमार अब बिहार की राजनीति में हाशिए पर जा रहे हैं. कांग्रेस बिहार में अपने को मजबूत नहीं कर पा रही और भाजपा भी अपने बलबूते कुछ चमत्कार नहीं कर पा रही है. ऐसे में बिहार में सब से मजबूत पार्टी राजद के रूप में सामने है. ट्वैंटी20 क्रिकेट सा धमाल जिस तरह से 20 ओवर के क्रिकेट मैच में दमदार खिलाड़ी आखिरी ओवर तक रोमांच बना कर रखता है, कभी हिम्मत नहीं हारता है, ठीक वैसे ही तेजस्वी यादव भी हिम्मत नहीं हारते हैं और हारी बाजी अपने नाम कर लेते हैं. जिस भाजपा और जद (यू) गठबंधन ने तेजस्वी यादव को सत्ता से बाहर किया था, मौका मिलते ही तेजस्वी यादव ने उस बाजी को पलट कर वापस सत्ता में हिस्सेदारी कर ली.

तेजस्वी प्रसाद यादव का जन्म 10 नवंबर, 1989 को हुआ था. वे राष्ट्रीय जनता दल के सुप्रीमो लालू प्रसाद यादव और राबड़ी देवी के बेटे हैं. तेजस्वी यादव क्रिकेट खेलना भी जानते हैं. उन्होंने दिल्ली डेयरडेविल्स के लिए आईपीएल भी खेला है. दिसंबर, 2021 में दिल्ली की एलेक्सिस से उन की शादी हुई थी. तेजस्वी और एलेक्सिस दोनों एकदूसरे को 6 साल से जानते थे और पुराने दोस्त थे. तेजस्वी यादव को महज 26 साल की उम्र में बिहार का उपमुख्यमंत्री बनने का मौका मिला था. तब वे डेढ़ साल तक नीतीश कुमार की 2015 वाली सरकार में बिहार के उपमुख्यमंत्री रहे थे.

साल 2020 के विधानसभा चुनाव में तेजस्वी यादव ने अपनी पार्टी राजद को मजबूत किया. वे कांग्रेस गठबंधन में चुनाव लड़े. राजद सब से बड़ी पार्टी के रूप में सामने आई. किसी भी दल को पूर्ण बहुमत न मिलने के चलते नीतीश कुमार और भाजपा ने मिल कर सरकार बनाई. उस समय तेजस्वी यादव बिहार विधानसभा में विपक्ष के नेता बने. 10 अगस्त, 2022 को नीतीश कुमार और भाजपा में अलगाव हो गया. इस के बाद नीतीश कुमार और राजद का तालमेल हुआ, जिस के बाद तेजस्वी यादव को दोबारा बिहार का उपमुख्यमंत्री बनने का मौका मिला. वे बिहार विधानसभा में राघोपुर से विधायक हैं.

तेजस्वी से डरती है भाजपा जिस तरह से लालू प्रसाद यादव ने 1990 के दशक में भाजपा के बढ़ते रथ को बिहार में रोका था और उसे अपने बल पर सत्ता में नहीं आने दिया था, वही काम अब तेजस्वी यादव कर रहे हैं. लालू प्रसाद यादव की राजनीति को खत्म करने के लिए भाजपा ने उन्हें चारा घोटाले में फंसाया था, वैसे ही अब तेजस्वी यादव को आईआरसीटी घोटाला मामले में फंसाने का काम हो रहा है. भाजपा समझ रही है कि अगर तेजस्वी यादव को रोका नहीं गया, तो उसे बिहार में सत्ता नहीं मिलेगी.

आईआरसीटी घोटाला मामले में तेजस्वी यादव के वकीलों ने केंद्र सरकार पर विपक्ष के खिलाफ सीबीआई व ईडी का गलत इस्तेमाल का आरोप लगाया. आईआरसीटी घोटाला मामले में सुनवाई के दौरान तेजस्वी यादव के वकीलों ने कहा कि विपक्ष के नेता होने के नाते केंद्र सरकार के गलत कामों का विरोध करना उन का फर्ज है. कोर्ट ने दोनों पक्षों की दलीलें सुनने के बाद बिहार के डिप्टी सीएम को फटकारते हुए कहा कि वे सार्वजनिक रूप से बोलते वक्त जिम्मेदाराना बरताव करें और उचित शब्दों का इस्तेमाल करें. आईआरसीटी घोटाला साल 2004 में संप्रग सरकार में लालू प्रसाद यादव के रेल मंत्री रहने के दौरान का है. रेलवे बोर्ड ने उस वक्त रेलवे की कैटरिंग और रेलवे होटलों की सेवा को पूरी तरह निजी क्षेत्र को सौंप दी थी. इस दौरान झारखंड के रांची और ओडिशा के पुरी के बीएनआर होटल के रखरखाव, संचालन और विकास को ले कर जारी टैंडर में अनियमितताएं किए जाने की बातें सामने आई थीं.

यह टैंडर साल 2006 में एक प्राइवेट होटल सुजाता होटल को मिला था. आरोप है कि सुजाता होटल के मालिकों ने इस के बदले लालू प्रसाद यादव के परिवार को पटना में 3 एकड़ जमीन दी थी, जो बेनामी संपत्ति थी. इस मामले में भी लालू प्रसाद यादव, राबड़ी देवी और तेजस्वी यादव समेत 11 लोग आरोपी हैं. सीबीआई ने जुलाई, 2017 में लालू प्रसाद यादव, तेजस्वी यादव समेत 11 आरोपियों के खिलाफ मामला दर्ज किया था. इस के बाद सीबीआई की एक विशेष अदालत ने जुलाई, 2018 में लालू प्रसाद यादव और अन्य के खिलाफ दायर आरोपपत्र पर संज्ञान लिया था. मामा का लिया सहारा तेजस्वी यादव को घेरने के लिए भाजपा उन के मामा साधु यादव का प्रयोग भी कर रही है. साधु यादव और उन की पत्नी इंदिरा यादव तेजस्वी का विरोध कर रहे हैं. परिवार का होने के कारण तेजस्वी यादव उन के खिलाफ खुल कर बोलने से बचते हैं.

साल 2020 में हुए विधानसभा चुनाव में 75 विधायकों के साथ राजद सब से बड़ी पार्टी बनी थी. उपचुनाव में एक सीट पर जीत मिलने के बाद उस के विधायकों की संख्या 76 हो गई है. दूसरी तरफ भाजपा ने वीआईपी पार्टी के 3 विधायकों को अपने खेमे में शामिल कर लिया था. इस के बाद भाजपा 77 विधायकों के साथ बिहार की पहले नंबर की पार्टी बन गई थी. असदुद्दीन ओवैसी की पार्टी एआईएमआईएम के 4 विधायकों के पाला बदलते ही बिहार में राजद के पास विधानसभा में विधायकों की संख्या 80 हो गई है.

आने वाले दिनों में भाजपा और राजद के बीच सीटों को ले कर सांपसीढ़ी का यह खेल चलता रहेगा. लेकिन इस में तेजस्वी यादव भारी न पड़ जाएं, इस के लिए भाजपा उन की मजबूत घेराबंदी कर रही है. साधु यादव और उन की पत्नी इंदिरा यादव इस में सब से बड़ा मोहरा बन रहे हैं. आने वाले दिनो में बिहार में बड़ा उलटफेर हो सकता है, जिस के बाद बिहार में सरकार चलाने के लिए तेजस्वी यादव को नीतीश कुमार की जरूरत खत्म हो सकती है. राजद के साथ कुल

80 विधायक हैं. कांग्रेस और वाम दल तो पहले से ही महागठबंधन में हैं. इस से संख्या कुलमिला कर 114 है. अगर तेजस्वी यादव कहीं जीतनराम मांझी के 4 विधायक और कुछ निर्दलीय विधायकों को अपनी तरफ मोड़ने में कामयाब रहे, तो उन के साथ विधायकों की कुल संख्या 121 हो जाएगी, जो नीतीश कुमार के लिए खतरनाक हो जाएगा. आने वाले दिनों में बिहार की राजनीति में तेजस्वी यादव सब से बड़े नेता के रूप में उभर रहे हैं. यह भाजपा के लिए खतरा है. वह तेजस्वी यादव में मंडल युग का लालू प्रसाद यादव वाला असर देख रही है.

शर्मनाक: Bihar में अफसरशाही और भ्रष्टाचार

लेखक- धीरज कुमार

जनता दल (यूनाइटेड) के नेता और बिहार सरकार के समाज कल्याण मंत्री मदन साहनी ने अफसरशाही से तंग आ कर मंत्री पद से इस्तीफा देने की घोषणा की.

मदन साहनी ने यह आरोप लगाया, ‘‘मंत्री पद पर रहते हुए मैं आम लोगों के काम नहीं कर पा रहा हूं. जब भी मैं अपने अफसरों को निर्देश देता हूं, तो वे बात मानने के लिए तैयार नहीं होते हैं.

‘‘अफसर क्या विभाग के चपरासी तक मंत्रियों की बात नहीं सुनते हैं. किसी को काम करने के लिए भेजा जाता है, तो उस से पूछा जाता है कि आप मंत्री के पास क्यों चले गए? क्या मंत्रीजी को ही काम करना है?

‘‘मंत्री बनने के बाद बंगला और गाड़ी तो मिल गया है, पर क्या मंत्री इसीलिए बने थे कि मंत्री बन जाने के बाद मेरे आगेपीछे कई गाडि़यां चलेंगी और मुझे रहने के लिए बड़ा सा बंगला मिल जाएगा? इस से आम लोगों को फायदा हो जाएगा?

‘‘मैं 15 सालों से अफसरशाही से पीडि़त हूं. मैं ही क्यों, मेरी तरह और भी कई मंत्री परेशान हैं, लेकिन वे सब बोल नहीं पा रहे हैं.

‘‘मैं सिर्फ सुविधा भोगने के लिए मंत्री नहीं बना हूं. मेरी आत्मा इस के लिए गवाही नहीं दे रही है, इसलिए मैं अपना इस्तीफा बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के पास भेज रहा हूं. वैसे, मैं अपने क्षेत्र में रह कर पार्टी के काम करता रहूंगा.’’

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दरअसल, समाज कल्याण मंत्री मदन साहनी के खफा होने की वजह यह है  कि उन्होंने 134 बाल विकास परियोजना पदाधिकारियों (सीडीपीओ) के तबादले के लिए फाइल विभाग के अपर मुख्य सचिव के पास भेजी थी. जिन पदाधिकारियों को तबादले के लिए लिस्ट भेजी गई थी, वे 3 साल से ज्यादा समय से एक ही जगह पर जमे हुए थे. वे सभी पदाधिकारी ठीक से काम नहीं कर रहे थे. इस की उन्हें लगातार शिकायतें मिल रही थीं.

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लेकिन मुख्य सचिव ने लिस्ट में से सिर्फ 18 लोगों का ही ट्रांसफर किया, बाकी लोगों के ट्रांसफर पर रोक लगा दी.

इस विवाद के बाद समाज कल्याण विभाग के अपर मुख्य सचिव त्रिपुरारी शरण ने अपने सफाई में कहा, ‘‘उन की भेजी गई फाइल अध्ययन के लिए रखी गई है. अध्ययन के बाद उस आदेश पर  कार्यवाही की जाएगी.’’

बिहार के मुख्यमंत्री रह चुके और ‘हम’ पार्टी के अध्यक्ष जीतन राम मांझी ने भी समाज कल्याण मंत्री मदन साहनी की बातों का समर्थन किया. उन्होंने मीडिया वालों से कहा, ‘‘यह सही बात  है कि बिहार में विधायकों और कई मंत्रियों की बातों को अफसर तरजीह नहीं देते हैं.

‘‘मैं एनडीए विधानमंडल दल की बैठक में भी इस मसले को उठा चुका हूं. मैं माननीय मुख्यमंत्री नीतीश कुमार  को भी इस संबंध में बोल चुका हूं.  सभी विधायकों की इज्जत तभी बढ़ेगी, जब इन की बातों को विभागीय अफसर सुनेंगे. यह बात हम पहले भी कह चुके हैं. मंत्री मदन साहनी की बात बिलकुल सही है.

‘‘इस्तीफा देने से पहले हम ने मुख्यमंत्री को इसलिए नहीं बताया कि लोग समझने लगेंगे कि मैं मुख्यमंत्री को अपनी बात मनवाने के लिए ब्लैकमेल कर रहा हूं.

‘‘हम मंत्री हैं, गुलाम नहीं. अब बरदाश्त से बाहर हो रहा है. हम 6 साल से मंत्री हैं. इस के पहले खाद और आपूर्ति विभाग में सचिव पंकज कुमार हुआ करते थे. वे भी हमारी बात नहीं सुनते थे. समाज कल्याण विभाग में एसीएस अतुल प्रसाद 4 साल से बने हैं. उन का भी वही हाल है. उन से 3 साल से एक ही जगह जमे अफसरों को हटाने की बात हुई थी.

‘‘मैं ने उन के पास 22 डीपीओ और 134 सीडीपीओ की सूची बना कर भेजी थी. मंत्री को जून में तबादला करने का अधिकार होता है. लेकिन मेरी फाइलों पर कोई कार्यवाही नहीं की गई.’’

पटना के बाढ़ क्षेत्र के भाजपा के सीनियर विधायक ज्ञानेंद्र सिंह ज्ञानू ने राज्य सरकार की कार्यप्रणाली पर ही सवाल उठाया है और उन का कहना है, ‘‘इस बार जून में जो भी सरकार के द्वारा तबादले किए गए हैं, उस में मोटी रकम ली गई है. इस में 80 फीसदी भाजपा के मंत्रियों ने खूब माल बटोरा है.

‘‘दरअसल, मोटी रकम ले कर ही पदाधिकारियों की मनचाही जगह पर पोस्टिंग की गई है. लोगों को मनचाही जगह पर जाने के लिए पैसे की बोली लगाई गई है. इस में जद (यू) के मंत्रियों की संख्या थोड़ी कम है, क्योंकि उन्हें नीतीश कुमार से थोड़ाबहुत डर रहता  है. लेकिन भाजपा के मंत्रियों ने सारे  रिकौर्ड तोड़ दिए हैं.

‘‘मनचाही पोस्टिंग पाने के लिए अधिकारियों, इंजीनियरों को लालच भी दिया गया था. इस के एवज में उन से खूब माल बटोरा गया है. कई जगह पर पोस्टिंग के लिए भारीभरकम राशि  की बोलियां लगाई हैं. जिस ने ज्यादा  पैसे दिए, उसे मनचाही जगह पोस्टिंग मिल गई.’’

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वहीं बिसफी, मधुबनी के भाजपा विधायक हरिभूषण ठाकुर बचौल विधायकों की हैसियत को ले कर सरकार पर खूब भड़के. उन का कहना है, ‘‘विधायकों की हालत चपरासी से भी बदतर हो गई है. ब्लौक में इतना भ्रष्टाचार बढ़ गया है कि शिकायत करने पर कोई कार्यवाही नहीं होती है. हम विधायक जब अपने क्षेत्र की समस्याओं को ले कर जाते हैं, तो ब्लौक के अफसर नहीं सुनते हैं.

‘‘आखिर हम लोग अपने क्षेत्र की समस्याओं को ले कर किस के पास जाएंगे? विधायक अपने क्षेत्र का जनप्रतिनिधि होता है. इस नाते अपने क्षेत्र के लोगों की समस्याओं को ले कर ब्लौक में जाते हैं, तो कोई भी अफसर सुनने को तैयार नहीं होता है. इस तरह हमारी इज्जत दांव पर लगी हुई है.’’

पीएचईडी मंत्री और भाजपा विधायक डाक्टर रामप्रीत पासवान ने कहा, ‘‘कुछ पदाधिकारी मनमानी करते हैं. इस से इनकार नहीं किया जा सकता है. हम शुरू से ही कहते रहे हैं कि मंत्री बड़ा होता है, न कि सचिव.’’

सीतामढ़ी जिले के भाजपा विधायक डाक्टर मिथिलेश का कहना है, ‘‘पद से बड़ा सिद्धांत होता है. मदन साहनी के त्याग की भावना को मैं सलाम करता हूं. मंत्री ने जो मुद्दा उठाया है, उस की जांच होनी चाहिए.’’

मधुबनी जिले के भाजपा के ही एक और विधायक अरुण शंकर प्रसाद ने भी कहा, ‘‘विधायिका के सम्मान में कुछ अफसरों का अंहकार आड़े आ रहा है. अगर मदन साहनी की बातें सही हैं, तो यह बहुत दुखद और वर्तमान सरकार के लिए हास्यास्पद भी है.’’

रोहतास जिले के एक शिक्षक संघ के नेता का कहना है, ‘‘बिहार सरकार के कार्यालय में इतनी अफसरशाही बढ़ गई है कि अफसर नाजायज उगाही के लिए एक नैटवर्क तैयार कर रखे हैं. कई बार तो जानबूझ कर मामले को उलझा देते हैं, ताकि शिक्षकों या आमजनों से पैसे की वसूली की जाए.

‘‘छोटेमोटे कामों के लिए अफसरों को पैसा देना पड़ता है, तब जा कर काम होता है. यही हाल बिहार के तकरीबन सभी विभागों का हो चुका है.

‘‘अफसर काफी मनमानी करने लगे हैं. उन्हें आम लोगों की समस्याओं से कोई सरोकार नहीं है. आप अगर पैसे देंगे तो आप का काम हो जाएगा, वरना आप दफ्तर में दौड़ते रह जाएंगे.’’

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अगर यही बात विपक्ष के नेता तेजस्वी यादव सदन में खड़े हो कर बोलते हैं, तो सत्ता पक्ष वालों की तरफ से मजाक उड़ाया जाता है या फिर बहुत हलके में लिया जाता है.

आज जब सत्ता पक्ष के लोगों ने भ्रष्टाचार और अफसरशाही पर खुल कर बोलना शुरू कर दिया है, तो समाज कल्याण मंत्री मदन साहनी के बयान पर कई नेताओं की प्रतिक्रिया उन के पक्ष में आती दिख रही है और साथ ही उन के सरकार के आरोपों पर सत्ता पक्ष के दूसरे नेता गोलबंद होने लगे हैं तो यह देखना दिलचस्प होगा कि बिहार के मुख्यमंत्री और वर्तमान सरकार इस संबंध में क्या कदम उठाती है.

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