Family Story: ममा आई हेट यू – क्या आद्या की मां से नफरत खत्म हो पाई?

Family Story: ‘‘आद्या,तुम्हारी मम्मी का फोन है,’’ अपनी बेटी संगीता का फोन आने पर शोभा ने अपनी 10 साल की नातिन को आवाज देते हुए कहा. वह दूसरे कमरे में टैलीविजन देख रही थी. जब कोई उत्तर नहीं मिला तो वे उठ कर उस के पास गईं और अपनी बात दोहराई.

‘‘उफ, नानी मैं ने कितनी बार कहा है कि मुझे उन से कोई बात नहीं करनी. फिर आप क्यों मुझे बारबार कहती हो बात करने को?’’ आद्या ने लापरवाही से कहा.

शोभा उस के उत्तर को जानती थीं, लेकिन वे अपनी बेटी संगीता को खुद उत्तर न दे कर आद्या की आवाज स्पीकर पर सुनवा कर उस से ही दिलवाना चाहती थीं वरना संगीता उन पर इलजाम लगाती कि वही उस की बेटी से बात नहीं करवाना चाहती.

फोन बंद करने के बाद शोभा ने आद्या की मनोस्थिति पता करने के लिए उस से कहा, ‘‘बेटा, वह तुम्हारी मां है. तुम्हें उन से बात करनी चाहिए…’’

बेटा, वह तुम्हारी मां है

अभी उन की बात पूरी भी नहीं हुई थी कि आद्या चिल्ला कर बोली, ‘‘यदि उन्हें मेरी जरा भी चिंता होती तो इस तरह मुझे छोड़ कर दूसरे आदमी के साथ नहीं चली जातीं… मेरी फ्रैंड वान्या को देखो, उस की मां उस के साथ रहती हैं और उसे कितना प्यार करती हैं. जब से मैं ने मां को फेसबुक पर किसी दूसरे आदमी के साथ देखा है, मुझे उन से नफरत हो गई है, अमेरिका में ममा और पापा के साथ रहना मुझे कितना अच्छा लगता था, लेकिन ममा को पापा से झगड़ा कर के इंडिया आते समय एक बार भी मेरा खयाल नहीं आया कि मेरा क्या होगा…मैं पापा के बिना रहना चाहती हूं या नहीं… पापा ने भी तो मुझे एक बार भी नहीं रोका… और फिर यहां आ कर उन्हें भी मुझ से अलग ही रहना था तो फिर मुझे पैदा करने की जरूरत ही क्या थी… मैं जब अपनी फ्रैड्स को अपने मम्मीपापा के साथ देखती हूं, तो कितना ऐंब्रैस फील करती हूं… आप को पता है? और वे सब मुझे इतनी सिंपैथी से देखती हैं. जैसे मैं ने ही कोई गलती की है… ऐसा क्यों नानी? मैं जानती हूं, ममा मुझ से फोन पर क्या कहना चाहती हैं… वे चाहती हैं कि मैं अपने अमेरिका में रहने वाले पापा से कौंटैक्ट करूं, ताकि वे मुझे अपने पास बुला लें और उन का मुझ से  हमेशा के लिए पीछा छूट जाए. उस के बाद वे मुझ से मिलने के बहाने अमेरिका आती रहें, क्योंकि आप को पता है न कि अमेरिका में रहने के लिए ही उन्होंने एनआरआई से लवमैरिज की थी. हमेशा तो फोन पर मुझ से यही पूछती हैं कि मैं ने उन से बात की या नहीं, लेकिन नानी मैं उन के पास नहीं जाना चाहती. मैं तो आप के पास ही रहना चाहती हूं. मैं ममा से कभी बात नहीं करूंगी, ममा आई हेट यू… आई हेट हर… नानी.

आद्या ने एक ही सांस में सारा आक्रोश उगल दिया और किसी अपने बिस्तर पर औंधी हो कर रोने लगी.

शोभा अवाक उस की बातें सुनती रह गईं कि इतनी छोटी उम्र में आद्या को हालात ने कितना परिपक्व बना दिया था.

आद्या के तर्क को सुनने के बाद शोभा गहरे सोच में डूब गईं. इतना समझाने के बाद भी कि अमेरिका में इतनी दूर रहने वाले लड़के के चरित्र के बारे में क्या गारंटी है, विवाह का निर्णय लेने के लिए सिर्फ फेसबुक की जानपहचान ही काफी नहीं है. लेकिन उन की बेटी संगीता ने एक नहीं सुनी और जिद कर के उस से विवाह किया था

विवाह के सालभर बाद ही आद्या पैदा हो गई. उस के पैदा होने के समय शोभा अमेरिका गई थी, लेकिन सुखसुविधा की कोई कमी न होते हुए भी घर में हर समय कलह का वातवरण ही रहता था, क्योंकि राहुल की आदतें बहुत बिगड़ी हुई थीं. उस के विवाह करने का एकमात्र उद्देश्य तो पत्नी के रूप में अनपेड मेड लाना था.

उस दिन संगिता आद्या को लेकर भारत  लौट आई

एक दिन ऐसा आया जब संगीता 4 साल की आद्या को ले कर भारत उन के पास लौट आई, लेकिन संगीता को अमेरिका के ऐश्वर्यपूर्ण जीवन जीने की इतनी आदत पड़ गई थी कि उस का अपनी आईटी कंपनी की नौकरी से गुजारा ही नहीं होता था.

4 साल बीततेबीतते उस ने अपने मातापिता को बताए बिना किसी बड़े बिजनैसमैन से दूसरी शादी कर ली. वह उस से विवाह करने के लिए इसी शर्त पर राजी हुआ कि वह अपनी बेटी को साथ नहीं रखेगी.

धीरेधीरे उम्र के साथ आद्या को सारे हालात समझ में आने लगे और उस का अपनी मां के लिए आक्रोश भी बढ़ने लगा, जिस की प्रतिक्रिया औरौं पर भी दिखने लगी. वह कुंठित हो कर अपनी स्थिति का अनुचित लाभ उठाने लगी. अपनी नानी से भी हर बात में तर्क करने लगी थी. स्कूल से आने के बाद वह घर में टिकती ही नहीं थी. उस की अपनी कालोनी में ही 2-3 लड़कियों से दोस्ती हो गई थी. उन के साथ ही सारा दिन रहती थी.

वहां रहने वाले परिवारों के लोग भी उस की बदसलूकी की उस की नानी से शिकायत करने लगे तो शोभा को बहुत चिंता हुई, लेकिन वह समझाने से भी कुछ समझना नहीं चाहती थी उस का व्यवहार जब सीमा पार करने लगा तो शोभा उसे एक काउंसलर के पास ले गईं. उस ने आद्या से बहुत सारे प्रश्न पूछे. उस का जीवन के प्रति नकारात्मक सोच देख कर उन्होंने शोभा को समझाया कि जोरजबरदस्ती उस से कोई कार्य न करवाया जाए और डांटने से स्थिति और बिगड़ जाएगी. जहां तक हो उसे प्यार से समझाने की कोशिश की जाए.

काउंसलर के कथन का भी आद्या पर नकारात्मक प्रभाव पड़ा. उस के बाद से वह शोभा को इमोशनली ब्लैकमेल करने लगी. जब भी शोभा उसे कुछ समझातीं तो वह तुरंत कहती, ‘‘आप को डाक्टर साहब ने क्या कहा था. कि मेरे मामलों में ज्यादा दखलंदाजी न करें. मेरी तबीयत ठीक नहीं है… आखिर मेरे साथ ही ऐसा क्यों हुआ कि ममापापा ने मुझे अपने से अलग कर दिया है. आखिर मेरा कुसूर क्या है? इतना कह कर वह रोने लगती और फिर खाना छोड़ कर खुद को कमरे में बंद कर लेती.

अपरिपक्व उम्र की होने के कारण उसे इस बात की समझ ही नहीं थी कि उस के इस तरह के व्यवहार से उस की नानी कितनी आहत होती हैं, वे कितनी असहाय हैं, उस की इस स्थिति की दोषी वे तो बिलकुल नहीं है.

शोभा ने उसे बहुत समझाया कि उस के तो नानानानी हैं उसे बहुत समझाया कि उस के तो नानानानी हैं उसे संभालने के लिए, बहुत सारे बच्चों को तो कोईर् देखने वाला भी नहीं होता और अनाथाश्रम में पलते हैं. इस के जवाब में आद्या बोलती कि अच्छा होता वह भी अनाथाश्रम में पलती, कम से कम उसे अपने मातापिता के बारे में तो पता नहीं होता कि वे स्वयं तो मौज की जिंदगी काट रहे हैं और उसे दूसरों के सहारे छोड़ दिया है.

शोभा आद्या का व्यवहार देख कर बहुत चिंतित रहती थीं, उन्हें अपनी बेटी संगीता पर बहुत गुस्सा आता कि विवाह करने से पहले एक बार तो उस ने अपनी बेटी के बारे में सोचा होता कि वह क्या चाहती है? आखिर वह उसे दुनिया में लाई है, तो उस के प्रति भी तो उस की कोई जिम्मेदारी बनती है. कोई मां इतनी स्वार्थी कैसे हो सकती है. उस के गलत कदम उठाने की सजा उन्हें और आद्या को भुगतनी पड़ रही है. जवाब में वह कहती कि वह आद्या के लिए कुछ भी करेगी. बस अपने साथ ही तो नहीं रख सकती.

ज्यादा समस्या है तो उसे होस्टल में डाल देगी.

शोभा को उस की बातें इतनी हास्यास्पद लगतीं कि उस की बेटी की इतनी भी समझ नहीं है कि पहले के जमाने की उपेक्षा नए जमाने के बच्चे को पालना कितना जटिल है और वह भी ऐसे बच्चे को, जो सामान्य वातावरण में नहीं पल रहा.

किसी ने सच ही कहा है कि बच्चे की सही परवरिश उस के मातापिता ही कर सकते हैं और मांबाप में अलगाव की स्थिति में किसी एक के द्वारा उसे प्यार और उस की देखभाल के लिए उसे समय देना जरूरी है वरना बच्चा दिशाहीन हो कर भटक सकता है. केवल भौतिक सुख ही उस के सही पालनपोषण के लिए पर्याप्त नहीं होते.

जिन बच्चों के मातापिता उन्हें बचपन में ही किसी न किसी कारण अपने से अलग कर देते हैं, वे अधिकतर बड़े होने पर सामान्य व्यक्तित्व के न हो कर दब्बू, आत्मविश्वासहीन और अपराधिक प्रवृत्ति के बन जाते हैं, क्योंकि बच्चे जितना अपने मातापिता की परवरिश में अनुशासित बन सकते हैं उतना किसी के भी साथ रह कर नहीं बल्कि स्थितियों का लाभ उठा कर इमोशनली ब्लैकमेल करते हैं और दया का पात्र बन कर ही आत्मसंतुष्टि महसूस करते हैं. मातापिता की जिम्मेदारी है कि विशेष स्थितियों को छोड़ कर अपने किसी स्वार्थवश बच्चों को किसी के सहारे न छोड़े, नानीदादी के सहारे भी नहीं. बच्चा पैदा होने के बाद उन का प्राथमिक कर्तव्य बच्चों का पालनपोषण ही होना चाहिए, क्योंकि वे ही उन्हें प्यार दे सकते हैं.

Hindi Story: अंतर्दाह – अलका ने की अपने से दोगुनी उम्र के आदमी से शादी

Hindi Story, लेखिका: कृतिका गुप्ता

अलका यानी श्रीमती रंजीत चौधरी से मेरा परिचय सिर्फ एक साल पुराना है, पर उन के प्रति मैं जो अपनापन महसूस करता हूं, वह इस परिचय को पुराना कर देता है. आज अलकाजी जा रही हैं. उन के पति रंजीत चौधरी नौकरी से रिटायर हो गए हैं इसलिए अब वह सपरिवार अपने शहर इलाहाबाद वापस जा रहे हैं.

मैं उदास हूं, उन से आखिरी बार मिलना चाहता हूं पर हिम्मत नहीं जुटा पा रहा हूं. उन्हें जाते हुए देखना मेरे लिए कठिन होगा फिर भी मिलना तो है ही. यही सोच कर मेरे कदम उन के घर की ओर उठ गए.

मैं जितने कदम आगे को बढ़ाता था मेरा अतीत मुझे उतना ही पीछे ले जाता था. आखिर मेरे सामने वह दिन आ ही गया जब मैं पहली बार चौधरी साहब के  घर गया था. वैसे मेरा श्रीमती चौधरी से सीधे कोई परिचय नहीं था, मेरा परिचय तो उन के घर रह कर पढ़ने वाले उन के भतीजे प्रभात से था.

मैं स्कूल में अध्यापक था, अत: प्रभात ने मुझे अपनी चाची के बच्चों को पढ़ाने के काम में लगा दिया था. इसी सिलसिले में मैं उन के घर पहली बार गया था. दरवाजा प्रभात के चाचा यानी चौधरी साहब ने खोला था.

सामान्य कद, गोरा रंग, उम्र कोई 55 साल, सिर पर बचे आधे बाल जोकि सफेद थे और आंखें ऐसी मानो मन के भीतर जा कर आप का एक्सरे उतार रही हों. प्रभात से अकसर उस की चाची की जो तारीफ मैं ने सुनी थी उस से अंदाजा लगाया था कि उस की चाची बहुत प्यारी और ममतामयी महिला होंगी.

चौधरी साहब ने प्रभात के साथसाथ अपने बच्चों गौरवसौरभ को भी बुलाया, साथ में आई एक बहुत ही खूबसूरत महिला.

प्रभात ने बताया कि यह उस की चाची हैं. मैं चौंक पड़ा. मैं ने उन्हें ध्यान से देखा. लंबा कद, गोरा रंग, छरहरा बदन, आकर्षक चेहरे पर स्मित मुसकान और उम्र रही होगी कोई 30-32 साल. अगर प्रभात मुझे पहले न बताता तो मैं उन्हें चौधरी साहब की बेटी ही समझता.

पहली बार उन्हें देख कर उन के प्रति एक अजीब सी दया और सहानुभूति का भाव मेरे मन में उमड़ आया था. और उमड़ भी क्यों न आता, 30 साल की खूबसूरत महिला को 55 साल के आदमी की पत्नी के रूप में देखना, इस के अलावा और क्या भाव ला सकता था.

मुझे उन के बच्चों को पढ़ाने का काम मिल गया. मैं हर दोपहर, स्कूल के बाद उन्हें पढ़ाने के लिए जाने लगा था. उस समय चौधरी साहब आफिस गए होते थे और प्रभात कालिज.

बच्चों को पढ़ाते समय वह अकसर मेरे लिए चायनाश्ता दे जाया करती थीं. पहली बार मैं ने मना किया तो वह बोली थीं, ‘कालिज से सीधे यहां पढ़ाने आ जाते हो, भूख तो लग ही आती होगी. थोड़ा खा लोगे तो तुम्हारा भी मन पढ़ाने में ठीक से लगने लगेगा.’

मैं ने फिर कभी उन का चायनाश्ते के लिए प्रतिवाद नहीं किया था.

श्रीमती चौधरी बहुत ही स्नेही और लोकप्रिय महिला थीं. मुझे उन के घर अकसर उन की कोई न कोई पड़ोसिन बैठी मिलती थी, कभी किसी व्यंजन की रेसिपी लिखती तो कभी कोई नया व्यंजन चखती.

एक बार उन्होंने मुझ से कहा था, ‘तुम मुझे बारबार श्रीमती चौधरी कह कर यह न याद दिलाया करो कि मैं रंजीत चौधरी की पत्नी हूं. तुम मुझे अलका कह कर बुला सकते हो.’ तब से मैं उन्हें अलकाजी ही कहने लगा था.

एक रोज मैं ने उन से पूछा, ‘अलकाजी, आप की शादी आप से दोगुने उम्र के इनसान से क्यों हुई?’ मेरे इस सवाल के जवाब में उन्होंने जो कुछ कहा उसे सुन कर मैं झेंप सा गया था. वह बोली थीं, ‘यह शर्मिंदा होने की बात नहीं है, जो सच है वह सच है. मैं एक छोटे से गांव की रहने वाली हूं. मैं तब बहुत छोटी थी, जब मेरे मांबाप गुजर गए थे. मेरे चाचाचाची ने मुझे पालापोसा था. उन्होंने ही मेरी शादी चौधरी साहब से तय की थी. उन्होंने यह तो देखा कि लड़का अच्छी नौकरी में है, अच्छा घर है पर यह नहीं देखा कि वह मुझ से उम्र में कितना बड़ा है और तब मैं इतनी समझ भी नहीं रखती थी कि इस का विरोध कर सकूं.

‘तुम यह भी कह सकते हो कि मुझ में विरोध कर सकने की हिम्मत ही नहीं थी. अपनी किस्मत समझ कर मैं ने इसे स्वीकार कर लिया था. फिर जब मेरे जीवन में गौरव सौरभ आ गए तो लगा कि मुझे फिर से जीने का मकसद मिल गया है और अब तो इतना समय बीत गया है कि मुझे लोगों की घूरती निगाहों, पीठपीछे की कानाफूसी, इस सब की आदत हो गई है.

‘हां, बुरा तब लगता है जब लोग मेरे और प्रभात के रिश्ते पर उंगलियां उठाते हैं. तुम्हीं कहो, अनुपम, क्या मैं इतनी गिरी हुई लगती हूं कि अपने रिश्ते के बेटे के साथ…छी, मुझे तो सोच कर भी शरम आती है. फिर लोग कहते हुए क्यों नहीं झिझकते? तो क्या उन का चरित्र मुझ से भी गयाबीता नहीं है? प्रभात को मैं ने सदा अपना बड़ा बेटा, गौरवसौरभ का बड़ा भाई समझ कर ही स्नेह दिया है.’

इतना कहते हुए उन की आंखों में छलक आई दो बूंदों को मैं ने देख लिया था, जिसे वह जल्दी से छिपा गई थीं. मैं जानता था कि उन के महल्ले में श्रीमती चौधरी और प्रभात को ले कर तरहतरह की बातें कही जाती थीं. कोई कहता कि उन का रिश्ता चाचीभतीजे से बढ़ कर है, कोई कहता, प्रभात उन का पे्रमी है. जितने मुंह उतनी बातें होती थीं.

लोग मुझ से भी पूछते थे, ‘तुम से श्रीमती चौधरी कैसा व्यवहार करती हैं?’ मैं झुंझला जाता था. कभी तो इतना गुस्सा आता था कि जी करता एकएक को पीट डालूं. पर कभीकभी मैं खुद इन्हीं बातों को सोचने के लिए मजबूर हो जाता था.

श्रीमती चौधरी, प्रभात को बहुत महत्त्व देती थीं. हर एक बात पर उस की राय लेती थीं, कभीकभी तो चौधरी साहब की बात को भी काट कर वह प्रभात की ही बात मानती थीं.

कभीकभी मैं सोचने लगता कि यह कैसा रिश्ता है उन दोनों का? पर फिर मुझे लगता कि अगर अलका चौधरी 30 साल की न हो कर 50 साल की होतीं और प्रभात से ऐसा ही बरताव करतीं तो शायद सब उन्हें ममतामयी मां कहते. पर आज वह किसी और ही संबोधन से जानी जाती थीं.

आज मेरे सारे सवालों के जवाब मिल गए थे. मैं ने अलकाजी से कहा, ‘मैं आज तक आप को सिर्फ पसंद करता था, पर अब मैं आप का आदर भी करने लगा हूं. जो आप ने किया वह करना सच में सब के बस की बात नहीं है.’

उस दिन मैं ने एक नई अलका को जाना था, जो अकारण ही मुझे बहुत अच्छी लगने लगी थीं. मैं उन के आकर्षण में खोने लगा था, जिसे मैं चाह कर भी रोक नहीं पा रहा था. मैं जानता था कि वह शादीशुदा हैं और 2 बच्चों की मां हैं, पर इस से मेरी भावनाओं के आवेगों में कोई कमी नहीं आ रही थी. वह मुझ से उम्र में 4-5 साल बड़ी थीं फिर भी मैं अपनेआप को उन के बहुत करीब पाता था.

वह भी मेरा बहुत खयाल रखती थीं. कभीकभी तो मुझे लगता था कि वह भी मुझे पसंद करती हैं. फिर अपनी ही सोच पर मुझे हंसी आ जाती और मैं इस विचार को अपने मन से परे धकेल देता.

वक्त अपनी गति से बीत रहा था. शरद ऋतु के बाद अचानक ही कड़ाके की ठंड पड़ने लगी थी. मैं बैठा बच्चों को पढ़ा रहा था. उस दिन चौधरीजी भी घर पर ही थे. अलकाजी मुझे नाश्ता देने आईं तो मैं ने पाया कि उन के बालों से पानी टपक रहा था, वह शायद नहा कर आई थीं. भरी ठंड में शाम ढले उन का नहाना मुझे विचलित कर गया. मैं कुछ सोचता उस से पहले ही मेरे कानों में चौधरीजी की आवाज पड़ी, ‘इतनी ठंड में नहाई क्यों?

अलकाजी ने जवाब दिया, ‘जो आग बुझा नहीं सकते उसे भड़काते ही क्यों हैं? इस जलन को पानी से न बुझाऊं तो क्या करूं?’

चौधरीजी ने क्या जवाब दिया मैं सुन नहीं पाया, शायद उन्होंने टेलीविजन चला दिया था. अगले दिन जब मैं उन के घर पहुंचा तो गौरवसौरभ पड़ोस के घर खेलने गए हुए थे. वह मुझ से बोलीं, ‘तुम बैठो, मैं तुम्हारे लिए चाय लाती हूं.’

वह जाने को मुड़ीं तो मैं ने उन का हाथ पकड़ लिया और कहा, ‘आप बैठो जरा.’

फिर मैं ने उन्हें बिठा कर पानी का गिलास थमाया, जिसे वह एक ही सांस में पी गईं. मैं ने उन से पूछा, ‘आप ठीक तो हैं, अलकाजी? आप की आंखें इतनी लाल क्यों हैं? और यह आप के चेहरे पर चोट का निशान कैसा है?’

मेरी बात सुनते ही वह फफक कर रो पड़ीं. मैं इस के लिए तैयार नहीं था. समझ नहीं पाया कि क्या करूं, उन्हें रोने दूं या चुप कराऊं? फिर कुछ पल रो लेने के बाद उन की आंखों से बरसाती बादल खुद ही तितरबितर हो गए. वह कुछ संयत हो कर बोलीं, ‘परेशान कर दिया न तुम्हें?’

‘कैसी बातें कर रही हैं?’ मैं ने कहा, ‘आप बताएं, आप परेशान क्यों हैं?’ वह बुझे स्वर में बोलीं, ‘तुम नहीं समझ पाओगे, अनुपम?’ मैं ने थोड़ा रुक कर कहा, ‘अलकाजी मैं ने कल आप की और चौधरीजी की सारी बातें सुन ली थीं.’

अलकाजी ने मुझे चौंक कर ऐसे देखा मानो मैं ने उन्हें चोरी करते रंगेहाथों पकड़ लिया हो. वह एक बार फिर सिसक उठीं.

मैं ने उन्हें सांत्वना देते हुए कहा, ‘अलकाजी, परेशान या दुखी होने की जरूरत नहीं. आप मुझ पर भरोसा कर सकती हैं. अगर चाहें तो मुझ से बात कर सकती हैं, इस से आप का मन हलका हो जाएगा. पर आप ने बताया नहीं, यह चोट…क्या आप को किसी ने मारा है?’

अलकाजी ने व्यंग्य से होंठ टेढ़े करते हुए कहा, ‘चौधरी साहब को लगता है कि पड़ोस में रहने वाले श्रीवास्तवजी से मेरा कुछ…’

उन की बात सुन मैं ने सिहर कर पूछा, ‘वह ऐसा कैसे सोच सकते हैं?’

‘वह कुछ भी सोच सकते हैं अनुपम. किसी 56 साल के पुरुष की पत्नी अगर जवान हो तो वह उस के बारे में कुछ भी सोच सकता है.’ श्रीवास्तवजी तो फिर भी ठीक हैं, वह तो दूध वाले तक के लिए मुझ पर शक करते हैं.’

अलकाजी की बातें सुन कर मैं चौधरीजी के प्रति घृणा से भर उठा, ‘आप उन्हें समझाती क्यों नहीं?’ वह झुंझला कर बोलीं, ‘क्या समझाऊं और कब तक समझाऊं? हमारी शादी को 9 साल हो गए हैं. 2 बच्चे हैं हमारे, फिर भी वह मुझ पर शक करते हैं. मैं ही क्यों बारबार अपनी पवित्रता का सुबूत दूं, क्यों मैं ही अग्निपरीक्षा से गुजरूं? क्या मेरा कोई आत्मसम्मान नहीं है?’

उन की बातों ने मुझे झकझोर डाला था. मैं अब तक यही समझता था कि वह एक सुखी गृहस्थी की मालकिन हैं पर आज जब मैं ने उन की हंसती हुई दुनिया का रोता हुआ सच देखा तो जाना कि वह कितनी अकेली और परेशान हैं.

देखतेदेखते एक साल बीत गया. गौरवसौरभ की परीक्षाएं हो चुकी थीं और अब उन्हें मेरी जरूरत न थी. फिर भी मैं किसी न किसी बहाने अलकाजी से मिलने चला ही जाता था. जब कभी प्रभात से मुलाकात होती तो वह कहता, ‘आप को चाचीजी पूछ रही थीं.’

बस, इतनी सी बात का सूत्र पकड़ कर मैं उन के घर पहुंच जाता. पर मन में कहीं एक डर भी था कि कहीं मेरा अधिक आनाजाना अलकाजी के लिए किसी परेशानी का कारण न बन जाए.

फिर एक दिन मुझे प्रभात मिला. उस ने मुझे बताया कि हम सब यह शहर छोड़ कर हमेशाहमेशा के लिए अपने शहर इलाहाबाद जा रहे हैं. मैं चौंक पड़ा, यह खबर मेरे लिए बहुत ही अप्रत्याशित और तकलीफदेह थी.

अतीत की पगडंडियों पर चलतेचलते मैं अलकाजी के दरवाजे तक पहुंच चुका था. हिम्मत कर मैं ने दरवाजा खट- खटाया, दरवाजा अलकाजी ने ही खोला. मुझे देख कर उन की आंखों में एक अनोखी सी खुशी तैर गई थी जिसे छिपाती हुई वह बोलीं, ‘‘अनुपम, आओआओ? मिल गई फुरसत आने की?’’

मैं ने मुसकराते हुए कहा, ‘‘यह शिकायत किसलिए? शिकायत तो मुझे करनी चाहिए थी कि आप जा रही हैं मुझे छोड़ कर…मेरा मतलब हमारा शहर छोड़ कर?’’ अंदर घुसते ही मैं ने देखा, बैठक का सारा सामान खाली हो चुका था, सिर्फ दीवान पड़ा था. मैं ने बैठते हुए कहा, ‘सामान से खाली घर कैसा लगता है न?’

ठीक वैसा ही जैसा भावनाओं और संवेदनाओं से खाली मन लगता है,’’ अलकाजी ने अर्थ भरे नयनों से देखते हुए कहा. बात की गंभीरता को कम करने के लिए मैं ने पूछा, ‘‘सब लोग कहां हैं?’’

‘‘प्रभात, बच्चों को ले कर आज ही गया है. थोड़ी पैकिंग बाकी है, जिसे पूरा कर के मैं और चौधरीजी भी कल निकल जाएंगे,’’ अलकाजी ने बताया. फिर कुछ रुक कर अपने पैर के अंगूठे से फर्श कुरेदती हुई बोलीं, ‘‘अच्छा हुआ अनुपम, जो तुम आज आ गए. बहुत इच्छा थी आखिरी बार तुम से मिलने की.’’

मैं ने उत्सुक हो कर पूछा, ‘‘क्यों, कोई खास काम था क्या मुझ से?’’

‘‘काम…काम तो कुछ नहीं था, पर कुछ है जो तुम्हें बताना शेष रह गया था. न बताऊंगी तो जीवन भर मन ही मन उन्हीं बातों से घुटती रहूंगी.

‘‘तुम जानना चाहते हो कि मैं यहां से क्यों जा रही हूं? डरती हूं कि जिस आग को अब तक अपने मन में दबा कर रखा था वह मुझे ही न जला डाले. अनुपम, मैं यह तो जानती हूं कि तुम मुझ से प्यार करते हो पर शायद तुम नहीं जानते कि मैं भी तुम से प्यार करने लगी हूं.’’

उन की यह बात सुन कर मेरा दिल बल्लियों उछलने लगा था. अपने प्यार की स्वीकृति मिलते ही मेरा मन अचानक उन्हें अपनी बांहों में लेने को मचल उठा. मैं ने तरल निगाहों से उन की ओर देखा, अलका के होंठ खामोश थे पर उन में उठता कंपन बता रहा था कि वे प्रतीक्षित हैं.

मैं अपनी जगह से उठ कर उन की ओर बढ़ा ही था कि उन्होंने कहा, ‘‘अब तक तो चौधरीजी को शक ही था पर डरती हूं कि मेरे मन में फूट आई तुम्हारे प्यार की कोंपल, उन का शक यकीन में न बदल दे, इसीलिए यहां से पलायन कर रही हूं क्योंकि यहां रहते हुए मैं खुद को तुम से मिलने से रोक नहीं पाऊंगी. और अगर ऐसा हुआ तो मेरी अब तक की सारी तपस्या और आत्मसम्मान मिट्टी में मिल जाएगा. तुम्हें यह सब बताना जरूरी भी था क्योंकि इस अनकहे प्यार का अंतर्दाह अब मुझ से और सहन नहीं हो रहा था.’’

इतना कह कर वह चुप हो मेरी ओर देखने लगीं. उन की बातें सुन कर मैं उन के पास गया और उन का चेहरा अपने हाथों में ले कर माथा चूम कर बोला, ‘‘आप का आत्मसम्मान और प्यार दोनों ही मेरे लिए सहेजने और पूजा करने के योग्य हैं. आप से दूर होना मुझे भी अच्छा नहीं लग रहा है, पर शायद यही सही है. यह अंतर्दाह हमारी नियति है.’’

Hindi Story – अदला बदली

Hindi Story : राजीव और अलका के स्वभाव में जमीन- आसमान का फर्क था. जहां अलका महत्त्वाकांक्षी और सफाईपसंद थी वहीं राजीव का जीवन के प्रति नजरिया बड़ा ही अव्यावहारिक था. लेकिन राजीव व अलका के साथ घटित एक घटना ने दोनों की भूमिकाएं ही बदल दीं.

मेरे पति राजीव के अच्छे स्वभाव की परिचित और रिश्तेदार सभी खूब तारीफ करते हैं. उन सब का कहना है कि राजीव बड़ी से बड़ी समस्या के सामने भी उलझन, चिढ़, गुस्से और परेशानी का शिकार नहीं बनते. उन की समझदारी और सहनशीलता के सब कायल हैं.

शादी के 3 दिन बाद का एक किस्सा  है. हनीमून मनाने के लिए हम टैक्सी से स्टेशन पहुंचे. हमारे 2 सूटकेस कुली ने उठाए और 5 मिनट में प्लेटफार्म तक पहुंचा कर जब मजदूरी के पूरे 100 रुपए मांगे तो नईनवेली दुलहन होने के बावजूद मैं उस कुली से भिड़ गई.

मेरे शहंशाह पति ने कुछ मिनट तो हमें झगड़ने दिया फिर बड़ी दरियादिली से 100 का नोट उसे पकड़ाते हुए मुझे समझाया, ‘‘यार, अलका, केवल 100 रुपए के लिए अपना मूड खराब न करो. पैसों को हाथ के मैल जितना महत्त्व दोगी तो सुखी रहोगी. ’’

‘‘किसी चालाक आदमी के हाथों लुटने में क्या समझदारी है?’’ मैं ने चिढ़ कर पूछा था.

‘‘उसे चालाक न समझ कर गरीबी से मजबूर एक इनसान समझोगी तो तुम्हारे मन का गुस्सा फौरन उड़नछू हो जाएगा.’’

गाड़ी आ जाने के कारण मैं उस चर्चा को आगे नहीं बढ़ा पाई थी, पर गाड़ी में बैठने के बाद मैं ने उन्हें उस भिखारी का किस्सा जरूर सुना दिया जो कभी बहुत अमीर होता था.

एक स्मार्ट, स्वस्थ भिखारी से प्रभावित हो कर किसी सेठानी ने उसे अच्छा भोजन कराया, नए कपडे़ दिए और अंत में 100 का नोट पकड़ाते हुए बोली, ‘‘तुम शक्लसूरत और व्यवहार से तो अच्छे खानदान के लगते हो, फिर यह भीख मांगने की नौबत कैसे आ गई?’’

‘‘मेमसाहब, जैसे आप ने मुझ पर बिना बात इतना खर्चा किया है, वैसी ही मूर्खता वर्षों तक कर के मैं अमीर से भिखारी बन गया हूं.’’

भिखारी ने उस सेठानी का मजाक सा उड़ाया और 100 का नोट ले कर चलता बना था.

इस किस्से को सुना कर मैं ने उन पर व्यंग्य किया था, पर उन्हें समझाने का मेरा प्रयास पूरी तरह से बेकार गया.

‘‘मेरे पास उड़ाने के लिए दौलत है ही कहां?’’ राजीव बोले, ‘‘मैं तो कहता हूं कि तुम भी पैसों का मोह छोड़ो और जिंदगी का रस पीने की कला सीखो.’’

उसी दिन मुझे एहसास हो गया था कि इस इनसान के साथ जिंदगी गुजारना कभीकभी जी का जंजाल जरूर बना करेगा.

मेरा वह डर सही निकला. कितनी भी बड़ी बात हो जाए, कैसा भी नुकसान हो जाए, उन्हें चिंता और परेशानी छूते तक नहीं. आज की तेजतर्रार दुनिया में लोग उन्हें भोला और सरल इनसान बताते हैं पर मैं उन्हें अव्यावहारिक और असफल इनसान मानती हूं.

‘‘अरे, दुनिया की चालाकियों को समझो. अपने और बच्चों के भविष्य की फिक्र करना शुरू करो. आप की अक्ल काम नहीं करती तो मेरी सलाह पर चलने लगो. अगर यों ही ढीलेढाले इनसान बन कर जीते रहे तो इज्जत, दौलत, शोहरत जैसी बातें हमारे लिए सपना बन कर रह जाएंगी,’’ ऐसी सलाह दे कर मैं हजारों बार अपना गला बैठा चुकी हूं पर राजीव के कानों पर जूं तक नहीं रेंगती.

बेटा मोहित अब 7 साल का हो गया है और बेटी नेहा 4 साल की होने वाली है अपने ढीलेढाले पिता की छत्रछाया में ये दोनों भी बिगड़ने लगे हैं. मैं रातदिन चिल्लाती हूं पर मेरी बात न बच्चों के पापा सुनते हैं, न ही बच्चे.

राजीव की शह के कारण घर के खाने को देख कर दोनों बच्चे नाकभौं चढ़ाते हैं क्योंकि उन की चिप्स, चाकलेट और चाऊमीन जैसी बेकार चीजों को खाने की इच्छा पूरी करने के लिए उन के पापा सदा तैयार जो रहते हैं.

‘‘यार, कुछ नहीं होगा उन की सेहत को. दुनिया भर के बच्चे ऐसी ही चीजें खा कर खुश होते हैं. बच्चे मनमसोस कर जिएं, यह ठीक नहीं होगा उन के विकास के लिए,’’ उन की ऐसी दलीलें मेरे तनबदन में आग लगा देती हैं.

‘‘इन चीजों में विटामिन, मिनरल नहीं होते. बच्चे इन्हें खा कर बीमार पड़ जाएंगे. जिंदगी भर कमजोर रहेंगे.’’

‘‘देखो, जीवन देना और उसे चलाना प्रकृति की जिम्मेदारी है. तुम नाहक चिंता मत करो,’’ उन की इस तरह की दलीलें सुन कर मैं खुद पर झुंझला पड़ती.

राजीव को जिंदगी में ऊंचा उठ कर कुछ बनने, कुछ कर दिखाने की चाह बिलकुल नहीं है. अपनी प्राइवेट कंपनी में प्रमोशन के लिए वह जरा भी हाथपैर नहीं मारते.

‘‘बौस को खाने पर बुलाओ, उसे दीवाली पर महंगा उपहार दो, उस की चमचागीरी करो,’’ मेरे यों समझाने का इन पर कोई असर नहीं होता.

समझाने के एक्सपर्ट मेरे पतिदेव उलटा मुझे समझाने लगते हैं, ‘‘मन का संतोष और घर में हंसीखुशी का प्यार भरा माहौल सब से बड़ी पूंजी है. जो मेरे हिस्से में है, वह मुझ से कोई छीन नहीं सकता और लालच मैं करता नहीं.’’

‘‘लेकिन इनसान को तरक्की करने के लिए हाथपैर तो मारते रहना चाहिए.’’

‘‘अरे, इनसान के हाथपैर मारने से कहीं कुछ हासिल होता है. मेरा मानना है कि वक्त से पहले और पुरुषार्थ से ज्यादा कभी किसी को कुछ नहीं मिलता.’’

उन की इस तरह की दलीलों के आगे मेरी एक नहीं चलती. उन की ऐसी सोच के कारण मुझे नहीं लगता कि अपने घर में सुखसुविधा की सारी चीजें देखने का मेरा सपना कभी पूरा होगा जबकि घरगृहस्थी की जिम्मेदारियों को मैं बड़ी गंभीरता से लेती हूं. हर चीज अपनी जगह रखी हो, साफसफाई पूरी हो, कपडे़ सब साफ और प्रेस किए हों, सब लोग साफसुथरे व स्मार्ट नजर आएं जैसी बातों का मुझे बहुत खयाल रहता है. मैं घर आए मेहमान को नुक्स निकालने या हंसने का कोई मौका नहीं देना चाहती हूं.

अपनी लापरवाही व गलत आदतों के कारण बच्चे व राजीव मुझ से काफी डांट खाते हैं. राजीव की गलत प्रतिक्रिया के कारण मेरा बच्चों को कस कर रखना कमजोर पड़ता जा रहा है.

‘‘यार, क्यों रातदिन साफसफाई का रोना रोती हमारे पीछे पड़ी रहती हो? अरे, घर ‘रिलैक्स’ करने की जगह है. दूसरों की आंखों में सम्मान पाने के चक्कर में हमारा बैंड मत बजाओ, प्लीज.’’

बड़ीबड़ी लच्छेदार बातें कर के राजीव दुनिया वालों से कितनी भी वाहवाही लूट लें, पर मैं उन की डायलागबाजी से बेहद तंग आ चुकी हूं.

‘‘अलका, तुम तेरामेरा बहुत करती हो, जरा सोचो कि हम इस दुनिया में क्या लाए थे और क्या ले जाएंगे? मैं तो कहता हूं कि लोगों से प्यार का संबंध नुकसान उठा कर भी बनाओ. अपने अहं को छोड़ कर जीवनधारा में हंसीखुशी बहना सीखो,’’ राजीव के मुंह से ऐसे संवाद सुनने में बहुत अच्छे लगते हैं, पर व्यावहारिक जिंदगी में इन के सहारे चलना नामुमकिन है.

बहुत तंग और दुखी हो कर कभीकभी मैं सोचती हूं कि भाड़ में जाएं ये तीनों और इन की गलत आदतें. मैं भी अपना खून जलाना बंद कर लापरवाही से जिऊंगी, लेकिन मैं अपनी आदत से मजबूर हूं. देख कर मरी मक्खी निगलना मुझ से कभी नहीं हो सकता. मैं शोर मचातेमचाते एक दिन मर जाऊंगी पर मेरे साहब आखिरी दिन तक मुझे समझाते रहेंगे, पर बदलेंगे रत्ती भर नहीं.

जीवन के अपने सिखाने के ढंग हैं. घटनाएं घटती हैं, परिस्थितियां बदलती हैं और इनसान की आंखों पर पडे़ परदे उठ जाते हैं. हमारी समझ से विकास का शायद यही मुख्य तरीका है.

कुछ दिन पहले मोहित को बुखार हुआ तो उसे दवा दिलाई, पर फायदा नहीं हुआ. अगले दिन उसे उलटियां होने लगीं तो हम उसे चाइल्ड स्पेशलिस्ट के पास ले गए.

‘‘इसे मैनिन्जाइटिस यानी दिमागी बुखार हुआ है. फौरन अच्छे अस्पताल में भरती कराना बेहद जरूरी है,’’ डाक्टर की चेतावनी सुन कर हम दोनों एकदम से घबरा उठे थे.

एक बडे़ अस्पताल के आई.सी.यू. में मोहित को भरती करा दिया. फौरन इलाज शुरू हो जाने के बावजूद उस की हालत बिगड़ती गई. उस पर गहरी बेहोशी छा गई और बुखार भी तेज हो गया.

‘‘आप के बेटे की जान को खतरा है. अभी हम कुछ नहीं कह सकते कि क्या होगा,’’ डाक्टर के इन शब्दों को सुन कर राजीव एकदम से टूट गए.

मैं ने अपने पति को पहली बार सुबकियां ले कर रोते देखा. चेहरा बुरी तरह मुरझा गया और आत्मविश्वास पूरी तरह खो गया.

‘‘मोहित को कुछ नहीं होना चाहिए अलका. उसे किसी भी तरह से बचा लो,’’ यही बात दोहराते हुए वह बारबार आंसू बहाने लगते.

मेरे लिए उन का हौसला बनाए रखना बहुत कठिन हो गया. मोहित की हालत में जब 48 घंटे बाद भी कोई सुधार नहीं हुआ तो राजीव बातबेबात पर अस्पताल के कर्मचारियों, नर्सों व डाक्टरों से झगड़ने लगे.

‘‘हमारे बेटे की ठीक से देखभाल नहीं कर रहे हैं ये सब,’’ राजीव का पारा थोड़ीथोड़ी देर बाद चढ़ जाता, ‘‘सब बेफिक्री से चाय पीते, गप्पें मारते यों बैठे हैं मानो मेले में आएं हों. एकाध पिटेगा मेरे हाथ से, तो ही इन्हें अक्ल आएगी.’’

राजीव के गुस्से को नियंत्रण में रखने के लिए मुझे उन्हें बारबार समझाना पड़ता.

जब वह उदासी, निराशा और दुख के कुएं में डूबने लगते तो भी उन का मनोबल ऊंचा रखने के लिए मैं उन्हें लेक्चर देती. मैं भी बहुत परेशान व चिंतित थी पर उन के सामने मुझे हिम्मत दिखानी पड़ती.

एक रात अस्पताल की बेंच पर बैठे हुए मुझे अचानक एहसास हुआ कि मोहित की बीमारी में हम दोनों ने भूमिकाएं अदलबदल दी थीं. वह शोर मचाने वाले परेशान इनसान हो गए थे और मैं उन्हें समझाने व लेक्चर देने वाली टीचर बन गई थी.

मैं ये समझ कर बहुत हैरान हुई कि उन दिनों मैं बिलकुल राजीव के सुर में सुर मिला रही थी. मेरा सारा जोर इस बात पर होता कि किसी भी तरह से राजीव का गुस्सा, तनाव, चिढ़, निराशा या उदासी छंट जाए. ’’

4 दिन बाद जा कर मोहित की हालत में कुछ सुधार लगा और वह धीरेधीरे हमें व चीजों को पहचानने लगा था. बुखार भी धीरेधीरे कम हो रहा था.

मोहित के ठीक होने के साथ ही राजीव में उन के पुराने व्यक्तित्व की झलक उभरने लगी.

एक शाम जानबूझ कर मैं ने गुस्सा भरी आवाज में उन से कहा, ‘‘मोहित, ठीक तो हो रहा है पर मैं इस अस्पताल के डाक्टरों व दूसरे स्टाफ से खुश नहीं हूं. ये लोग लापरवाह हैं, बस, लंबाचौड़ा बिल बनाने में माहिर हैं.’’

‘‘यार, अलका, बेकार में गुस्सा मत हो. यह तो देखो कि इन पर काम का कितना जोर है. रही बात खर्चे की तो तुम फिक्र क्यों करती हो? पैसे को हाथ का मैल…’’

उन्हें पुराने सुर में बोलता देख मैं मुसकराए बिना नहीं रह सकी. मेरी प्रतिक्रिया गुस्से और चिढ़ से भरी नहीं है, यह नोट कर के मेरे मन का एक हिस्सा बड़ी सुखद हैरानी महसूस कर रहा था.

मोहित 15 दिन अस्पताल में रह कर घर लौटा तो हमारी खुशियों का ठिकाना नहीं रहा. जल्दी ही सबकुछ पहले जैसा हो जाने वाला था पर मैं एक माने में बिलकुल बदल चुकी थी. कुछ महत्त्वपूर्ण बातें, जिन्हें मैं बिलकुल नहीं समझती थी, अब मेरी समझ का हिस्सा बन चुकी थीं.

मोहित की बीमारी के शुरुआती दिनों में राजीव ने मेरी और मैं ने राजीव की भूमिका बखूबी निभाई थी. मेरी समझ में आया कि जब जीवनसाथी आदतन शिकायत, नाराजगी, गुस्से जैसे नकारात्मक भावों का शिकार बना रहता हो तो दूसरा प्रतिक्रिया स्वरूप समझाने व लेक्चर देने लगता है.

घरगृहस्थी में संतुलन बनाए रखने के लिए ऐसा होना जरूरी भी है. दोनों एक सुर में बोलें तो यह संतुलन बिगड़ता है.

मोहित की बीमारी के कारण मैं भी बहुत परेशान थी. राजीव को संभालने के चक्कर में मैं उन्हें समझाती थी. और वैसा करते हुए मेरा आंतरिक तनाव, बेचैनी व दुख घटता था. इस तथ्य की खोज व समझ मेरे लिए बड़ी महत्त्वपूर्ण साबित हुई.

आजकल मैं सचमुच बदल गई हूं और बहुत रिलेक्स व खुश हो कर घर की जिम्मेदारियां निभा रही हूं. राजीव व अपनी भूमिकाओं की अदलाबदली करने में मुझे महारत हासिल होती जा रही है और यह काम मैं बड़े हल्केफुल्के अंदाज में मन ही मन मुसकराते हुए करती हूं.

हर कोई अपने स्वभाव के अनुसार अपनेअपने ढंग से जीना चाहता है. अपने को बदलना ही बहुत कठिन है पर असंभव नहीं लेकिन दूसरे को बदलने की इच्छा से घर का माहौल बिगड़ता है और बदलाव आता भी नहीं अपने इस अनुभव के आधार पर इन बातों को मैं ने मन में बिठा लिया है और अब शोर मचा कर राजीव का लेक्चर सुनने के बजाय मैं प्यार भरे मीठे व्यवहार के बल पर नेहा, मोहित और उन से काम लेने की कला सीख गई हूं.

Hindi Story : सूना गला

Hindi Story : उस की मां थी ही निर्मल, निश्छल, जैसी बाहर वैसी अंदर. छल, प्रपंच, घृणा और लालच से कोसों दूर, सब के सुख से सुखी, सब के दुख से दुखी. कभीकभी सौरभ अपनी मां के स्वभाव की सादगी देख अचंभित रह जाता कि आज के प्रपंची युग में भी उस की मां जैसे लोग हैं, विश्वास नहीं होता था उसे.

बचपन से ही सौरभ देखता आ रहा था कि मां हर हाल में संतुष्ट रहतीं. पापा जो भी कमा कर उन के हाथ में थमा देते बिना किसी शिकवाशिकायत के उसी में जोड़तोड़ बिठा कर वह अपना घर चलातीं, कभी अपने अभावों का पोटला किसी के सामने नहीं खोलतीं.

तभी मां की नजर उस पर पड़ गई थी, ‘‘अरे, तू कब जग गया. और ऐसे क्या टुकुरटुकुर देखे जा रहा है.’’

मां की स्निग्ध हंसी ने उसे ममता से सराबोर कर दिया.

‘‘बस, यों ही…आप को अलमारी ठीक करते देख रहा था.’’

वह कैसे कह देता कि कमरे में बैठा उन के निश्छल स्वभाव और संघर्षपूर्ण, त्यागमय जीवन का लेखाजोखा कर रहा था. उन के अपने परिवार के लिए किए गए समर्पण और संघर्ष का, उस सूने गले का जो कभी भारीभरकम सोने की जंजीर और मीनाकारी वाले कर्णफूल से सजासंवरा उन की संपन्नता का प्रतीक था. पिछले 6 वर्षों से उस के नौकरी करने के बाद भी मां का गला सूना ही पड़ा था.

मां को खुद महसूस हो या न हो लेकिन जब भी उस की नजर मां के सूने गले पर पड़ती, मन में एक हूक सी उठती. उसे लगता जैसे उन के जीवन का सारा सूनापन उन के खाली गले और कानों पर सिमट आया हो. इतनी श्रीहीन तो वह तब भी नहीं लगती थीं जब पापा की मृत्यु के बाद उन की दुनिया ही उजड़ गई थी.

सौरभ ने होश संभालने के बाद से ही मां के गले में एक मोटी सी जंजीर और कानों में मीनाकारी वाले कर्णफूल ही देखे थे. तब मां कितनी खुश रहती थीं. हरदम हंसती, गुनगुनाती उस की मां का चेहरा बिना किसी सौंदर्य प्रसाधन के ही दमकता रहता था.

फिर मां की खुशियों और बेफिक्र जिंदगी पर तब पहाड़ टूट कर आ गिरा जब अचानक एक सड़क दुर्घटना में उस के पापा की मौत हो गई. इस असमय आई मुसीबत ने मां को तो पूरी तरह तोड़ ही दिया. वह सूनीसूनी निगाहों से दीवार को देखती बेजान सी महीनों पड़ी रहीं. लेकिन जल्दी ही मां अपने बच्चों के बदहवासी और सदमे से रोते, सहमे चेहरे देख अपनी व्यथा दिल में ही दबा उन्हें संभालने में जुट गई थीं. एक नई जिम्मेदारी के एहसास ने उन्हें फिर से जीवन की मुख्य धारा से जोड़ दिया था.

पति के न रहने से एकाएक ढेरों कठिनाइयां उन के सामने आ खड़ी हुई थीं. पैसों की कमी, जानकारीयों का अभाव, कदमकदम पर जिंदगी उन की परीक्षा ले रही थी. उन का खुद का बनाया संसार उन की ही आंखों के सामने नष्ट होने लगा था लेकिन मां ने धैर्य का पल्लू कस कर थामे रखा.

बचपन में पिता और बाद में पति के संरक्षण में रहने के कारण मां का कभी दुनियादारी और उस के छलप्रपंच से आमनासामना हुआ ही नहीं. अब हर कदम पर उन का सामना वैसे ही लोगों से हो रहा था. लेकिन कहते हैं न कि समय और अभाव आदमी को सबकुछ सिखा देता है, मां भी दुनियादारी सीखने लगी थीं.

मां अपने टूटते आत्मबल और अपनी सारी अंतर्वेदनाओं को अपने अंतस में छिपाए सामान्य बने रहने की कोशिश करतीं लेकिन उन की तमाम कोशिशों के बावजूद सौरभ से कुछ भी छिपा नहीं था. वही एकमात्र गवाह था मां के कतराकतरा टूटने और जुड़ने का. कितनी बार ही उस ने देखा था मां को रात में अपने बच्चों से छिप कर रोते, पापा को याद कर तड़पते. तब उस के दिल में तड़प सी उठती कि कैसे क्या करे जो मां के सारे दुख हर ले.

वह चाह कर भी मां के लिए कुछ नहीं कर पाया, जबकि मां ने उन दोनों भाईबहनों का जीवन संवारने के लिए जो कर दिखाया, सभी के लिए आशातीत था. क्या नहीं किया मां ने, पोस्टआफिस की एजेंसी, स्कूल की नौकरी, ट्यूशन, कपड़ों की सिलाई यानी एकएक पैसे के लिए संघर्ष करतीं.

जब भी वह मां के संघर्ष से विचलित हो कर अपने लिए काम ढूंढ़ता, मां उसे काम करने की इजाजत ही नहीं देतीं. बस, उन्हें एक ही धुन थी कि किसी तरह उन का बेटा पढ़लिख कर सरकारी नौकरी में ऊंचा पद प्राप्त कर ले.

पापा के साथ जब वह भयंकर दुर्घटना हुई थी तब सौरभ 10वीं में पढ़ता था. मांबेटा दोनों ही व्यापार में पूरी तरह कोरे थे जिस का फायदा व्यापार में उस के पिता के साथ काम कर रहे दूसरे लोगों ने उठाया और व्यापार में लगा उस के पापा का करीबकरीब सारा पैसा डूब गया. थोड़ाबहुत जो भी पैसा बचा था, नेहा दीदी की शादी का खयाल कर मां ने बैंक में जमा करवा दिया.

नेहा दीदी की शादी में सारी जमापूंजी के साथसाथ मां के करीबकरीब सारे गहने निकल गए थे, फिर भी मां बेहद खुश थीं. नेहा को सुंदर, संस्कारी और विवेकशील पति के साथसाथ ससुराल में संपन्नता भरा परिवार जो मिला था.

नेहा दीदी की शादी के बाद 4 वर्ष बड़े ही संघर्षपूर्ण रहे. स्नातक करने के बाद सौरभ नौकरी प्राप्त करने के अभियान में जुट गया. जल्दी ही उसे सफलता भी मिली. एक बैंक अधिकारी के पद पर उस की नियुक्ति हो गई. इस दौरान जगहजगह इतने फार्म भरने पडे़ कि गहनों के नाम पर मां के गले में बची एकमात्र जंजीर भी उतर गई.

मां की साड़ी पर भी जगहजगह पैबंद नजर आने लगे थे. इतनी विकट परिस्थिति में भी मां ने हिम्मत नहीं हारी, न ही किसी रिश्तेदार के घर आर्थिक तंगी का रोना रोने या सहायता मांगने गईं. परिस्थिति ने उन्हें धरती सा सहिष्णु बना दिया था.

नौकरी मिलने के बाद जब उस ने पहली पगार मां को सौंपी थी तब खुशी के आंसू पोंछती मां ने उसे गले से लगा लिया था, ‘अरे, पगले…मां भला इन रुपयों का क्या करेगी? अब तो सारी जिम्मेदारियां तू ही संभाल, मैं तो बस, बैठेबैठे आराम करूंगी.’

इस के बाद भी सौरभ हर महीने तनख्वाह का सारा पैसा ला कर मां के हाथों में देता रहा और मां पूर्ववत घर चलाती रहीं.

शादी के लिए आए कई प्रस्तावों में से मां को निधि की सुंदरता ने इस कदर प्रभावित किया कि बिना ज्यादा खोजबीन किए वे निधि से उस की शादी करने के लिए तैयार हो गईं. जब दहेज की बात आई तो उन्होंने शादी में किसी तरह का दहेज लेने से साफ मना कर दिया. ऐसा कर शायद वह अपने पति के उन आदर्शों को कायम रखना चाहती थीं जो उन्होंने खुद की शादी में दहेज न ले कर लोगों और समाज के सामने कायम किया था. जितना भी उन के पास पैसा था उसी से उन्होंने शादी की सारी व्यवस्था की.

मां के आदर्शों और भावनाओं को समझने के बदले अमीर घर की निधि की नजरों में दहेज न लेना बेवकूफी भरी आदर्शवादिता थी. हमेशा अपनी आधुनिका मां की तुलना में वह अपनी सास के साधारण से रहनसहन को उन का देहातीपन समझ मजाक उड़ाती रहती और जबतब अपनी जबान की कैंची से उसे कतरती रहती. ऐसे मौके पर उस का दिल चाहता कि निधि से पूछे कि सभ्यता का यह कौन सा सड़ागला रूप है जिस में ससुराल के बुजुर्गों की नहीं, सिर्फ मायके के बुजुर्गों की इज्जत करना सिखाई जाती है, लेकिन वह चुप ही रहता.

ऐसा नहीं था कि वह निधि से डरता था, कहीं मां पर निधि की असलियत जाहिर न हो जाए, इसी भय से भयभीत रहता था. जिंदगी के इस सुखद मोड़ पर वह नहीं चाहता था कि निधि की किसी बात से मां आहत हों और वर्षों से उन के दिल में जो बहू की तसवीर पल रही थी वह धुंधली हो जाए.

निधि समझे या न समझे वह जानता था, मां निधि को बेहद प्यार करती थीं.

निधि ने घर में आते ही मां के सीधेसादे स्वभाव को परख कर बड़ी होशियारी से उन के बेटे, पैसे और घर पर अपना अधिकार कर, उन के अधिकारों को इस तरह सीमित कर दिया कि वह अपने ही घर में पराई बन कर रह गई थीं.

वह हर बार सोचता, इस महीने जरूर मां के लिए सोने की जंजीर ले आएगा, लेकिन कोई न कोई खर्च हर महीने निकल आता और वह चाह कर भी जंजीर नहीं खरीद पाता. वैसे भी शादी के बाद से घर के खर्च काफी बढ़ गए थे. अब तक साधारण ढंग से चलने वाले घर का रहनसहन काफी ऊंचे स्तर का हो गया था. एक नौकर भी आ गया था जो निधि के हुक्म का गुलाम था.

तभी सौरभ की तंद्रा मां की आवाज से टूट गई थी.

‘‘कब से पुकारे जा रही हूं, कहां खोया बैठा है. चाय बना दूं?’’

मां को यों सामने पा कर जाने क्यों सौरभ की आंखें भर आई थीं. इनकार में सिर हिला, अपने आंसू छिपाता वह बाथरूम में जा घुसा था.

उसी दिन आफिस जाने के बाद सौरभ अपनी एक फिक्स्ड डिपोजिट तोड़ कर मां के लिए एक जंजीर और मीनाकारी वाला कर्णफूल खरीद लाया था. यह सोच कर कि एक हफ्ते बाद मां के आने वाले जन्मदिन पर उन्हें देगा, उस ने गहनों का डब्बा अपनी अलमारी में संभाल कर रख दिया.

रात को उस ने अपने इस ‘सरप्राइज गिफ्ट’ की बात जैसे ही निधि को बताई, उस के तो तनबदन में आग लग गई. अब तक शब्दों पर चढ़ा मुलम्मा उतार, मां के सारे बलिदानों पर पानी फेरते हुए वह बिफर पड़ी थी, ‘‘यह तुम्हें क्या सूझी है, बुढ़ापे में अब वह इतने भारी गहनों को ले कर क्या करेंगी? अब तो उन के नातीपोते खिलाने के दिन हैं फिर भी उन की तो जैसे गहनों में ही जान अटकी पड़ी है.’’

पूरा हफ्ता उस चेन को ले कर निधि के साथ उस का शीतयुद्ध चलता रहा, फिर भी वह डटा रहा. अभी वह इतना गयागुजरा नहीं था कि उस की बातों में आ कर मां के प्रति अपने प्यार और फर्ज को भूल जाता.

एक सप्ताह बाद जब मां का जन्मदिन आया, सुबहसुबह मां को जन्मदिन की मुबारकबाद दे कर उस ने जतन से पैक किया गया गहनों का डब्बा उन के हाथों में थमा दिया था.

‘‘अरे, बेटा, यह क्या ले आया तू? अब क्या मेरी उम्र है उपहार लेने की. अच्छा, देखूं तो मेरे लिए तू क्या ले आया है.’’

डब्बा खोलते ही मां जड़ सी हो गई थीं. जाने कब तक किंकर्तव्यविमूढ़ हो यों ही खड़ी रहतीं, अगर सौरभ उन्हें गहनों को पहनने की याद नहीं दिलाता. सौरभ की आवाज में जाने कैसी कशिश थी कि जंजीर पहनतेपहनते उन की आंखें छलछला आई थीं. फिर कुछ सोच सौरभ का गाल थपथपा कर निधि को बुलाने लगीं.

कमरे में कदम रखते ही निधि की नजर मां के गले में पड़ी जंजीर पर गई, जिसे देखते ही चोट खाई नागिन सी उस की आंखों से लपट सी उठी थी, जो सौरभ से छिपी नहीं रही, पर उस की सीधीसादी मां को उस का आभास तक नहीं हुआ. तभी अपने गले से जंजीर निकाल कर निधि के गले में डालते हुए मां बोलीं, ‘‘बहू, इसे तुम मेरी तरफ से रख लो. जाने कितने अरमान थे मेरे दिल में अपनी बहू के लिए. जब सौरभ छोटा था तभी से अपने कितने ही गहने तुम्हारे नाम रख छोडे़ थे. सोचती थी एक ही तो बहू होगी मेरी, सजा दूंगी गहनों से, लेकिन परिस्थितियां ऐसी पलटीं कि सारे अरमान दिल में ही दफन हो गए.’’

सौरभ अभी कुछ बोलना चाह ही रहा था कि मां जाने कैसे समझ गईं.

‘‘न…तू कुछ नहीं बोलेगा. यह मेरे और बहू के बीच की बातें हैं. वैसे भी इस उम्र में मैं गहनों का क्या करूंगी.’’

मां के इस अप्रत्याशित फैसले ने निधि को भौचक कर दिया था. अपने छोटेपन का आभास होते ही वह सौरभ से नजरें नहीं मिला पा रही थी. उस की सारी कुटिलताएं मां के सीधेपन के सामने धराशायी हो चुकी थीं. जिस जंजीर के लिए उस ने अपने पति का जीना हराम कर रखा था, इतनी आसानी से मां उसे सौंप चुकी थीं.

निधि की नजरों में आज पहली बार सास के लिए सच्ची श्रद्धा उत्पन्न हुई थी. साथ ही यह बात शिद्दत से उसे शूल की तरह चुभ रही थी कि जिस सास को मां की तुलना में वह हमेशा गंवार और बेवकूफ समझती थी और अपनी ससुराल वालों की तुलना में अपने मायके वालों को श्रेष्ठ और आधुनिक दिखाने की कोशिश करती थी, उस की उसी सास के सरल, सादे और ऊंचे संस्कारों के सामने अब उसे अपनी गर्वोक्ति व्यर्थ का प्रलाप लगने लगी थी.

दूसरे दिन सौरभ को यह देख कर सुखद आश्चर्य हो रहा था कि निधि एक सोने की जंजीर मां को जबरदस्ती पहना रही थी. मां के बारबार मना करने पर भी वह जिद पर उतर आई थी.

‘‘मांजी, मैं ने बडे़ प्यार से इसे आप के लिए खरीदा है और अगर आप ने लेने से इनकार कर दिया तो मुझे लगेगा कि आप ने कभी मुझे बेटी माना ही नहीं.’’

इस के बाद मां इनकार नहीं कर सकी थीं. सदा से ही कम बोलने वाली मां की आंखों में अपनी बहू के लिए ढेर सारा प्यार और अपनापन उमड़ पड़ा था. मां की खुशी देख सौरभ ने नजरों से ही निधि के प्रति अपनी कृतज्ञता जता दी थी, जिसे संभालना निधि के लिए मुश्किल हो रहा था. वह नजरें चुराती, यहांवहां काम में व्यस्त होने का नाटक करने लगी.

आज पहली बार अपनी गलतियों का एहसास निधि को बुरी तरह कचोट रहा था. सास के सच्चे प्रेम और अपनेपन ने उस की आत्मा को झकझोर दिया था. बारीबारी वे बातें याद आ रही थीं जिस का समय रहते उस ने कभी कोई मूल्य नहीं समझा था. वह बीमार पड़ती तो सास उस की देखभाल बडे़ प्यार और लगन से अपने बच्चों की तरह करतीं. इतने प्यार और लगन से तो कभी उस की अपनी मां ने भी उस की सेवा नहीं की थी.

जिस सास ने अपना बेटा, घर, संपत्ति सबकुछ उसे सौंप, अपना विश्वास, प्यार और सम्मान दिया, उसी सास को महज अपना वर्चस्व साबित करने के लिए उस ने घरपरिवार से भी बेगाना कर रखा था. शादी के बाद से आज यह पहला अवसर था जब सौरभ उस के किसी काम से इतना खुश और संतुष्ट नजर आ रहा था. अपने लिए उस की नजरों से छलकता प्यार और कृतज्ञता देख निधि को बारबार नानी की नसीहतें याद आ रही थीं.

उस की नानी के पास जब भी उस की मां अपनी सास की शिकायतों की पोटली खोलतीं, नानी उन्हें समझातीं, ‘देख…नंदनी, एक बात तू गांठ बांध ले कि पति के बचपन का पहला प्यार उस की मां ही होती है, जिस का तिरस्कार वह कभी बरदाश्त नहीं कर पाता है. अगर पति का सच्चा प्यार और घर का सुख प्राप्त करना है तो उस से ज्यादा उस की मां को अहमियत देना सीख. उन की सेवा कर, उन का खयाल रख तो कुछ ही दिनों बाद उसी सास में तुम्हें अपनी मां भी दिखेगी, साथ ही तुम्हें पति को भी अपनी अहमियत जताने की जरूरत नहीं पडे़गी. वह खुद ही प्यार के अटूट बंधन में बंधा ताउम्र तुम्हारे ही चक्कर लगाएगा.’

मां हमेशा नानी की नसीहत को मजाक में उड़ा, अपनी मनमानी करतीं, नतीजतन, अपने सारे रिश्तों से मां अलग तो हुईं ही, पापा के साथ रहते हुए भी जीवन की इस संध्या बेला में काफी अकेली हो गई थीं.

एकांत पाते ही निधि अपने सारे मानअपमान और स्वाभिमान को भूल कर सौरभ के पास आ गई थी. शर्मिंदगी के भाव से भरी उस की आंखों से अविरल आंसू बह निकले.

बिना कुछ कहे पति की शांत और मुग्ध दृष्टि से आश्वस्त हो कर निधि उस की बांहों में समा गई थी. निधि को अपनी बांहों में समेटते हुए सौरभ को लगा जैसे कई दिनों की बारिश के बाद काले बादल छंट गए हैं और आकाश में खिल आई धूप ने मौसम को काफी सुहावना बना दिया है.

लेखिका- रीता कुमारी

Hindi Story : रेखाएं – क्या कच्ची रेखाएं विद्या को कमजोर बना रही थी

Hindi Story : ‘‘छि, मैं सोचती थी कि बड़ी कक्षा में जा कर तुम्हारी समझ भी बड़ी हो जाएगी, पर तुम ने तो मेरी तमाम आशाओं पर पानी फेर दिया. छठी कक्षा में क्या पहुंची, पढ़ाई चौपट कर के धर दी.’’

बरसतेबरसते थक गई तो रिपोर्ट उस की तरफ फेंकते हुए गरजी, ‘‘अब गूंगों की तरह गुमसुम क्यों खड़ी हो? बोलती क्यों नहीं? इतनी खराब रिपोर्ट क्यों आई तुम्हारी? पढ़ाई के समय क्या करती हो?’’

रिपोर्ट उठा कर झाड़ते हुए उस ने धीरे से आंखें ऊपर उठाईं, ‘‘अध्यापिका क्या पढ़ाती है, कुछ भी सुनाई नहीं देता, मैं सब से पीछे की लाइन में जो बैठती हूं.’’

‘‘क्यों, किस ने कहा पीछे बैठने को तुम से?’’

‘‘अध्यापिका ने. लंबी लड़कियों को  कहती हैं, पीछे बैठा करो, छोटी लड़कियों को ब्लैक बोर्ड दिखाई नहीं देता.’’

‘‘तो क्या पीछे बैठने वाली सारी लड़कियां फेल होती हैं? ऐसा कभी नहीं हो सकता. चलो, किताबें ले कर बैठो और मन लगा कर पढ़ो, समझी? कल मैं तुम्हारे स्कूल जा कर अध्यापिका से बात करूंगी?’’

झल्लाते हुए मैं कमरे से निकल गई. दिमाग की नसें झनझना कर टूटने को आतुर थीं. इतने वर्षों से अच्छीखासी पढ़ाई चल रही थी इस की. कक्षा की प्रथम 10-12 लड़कियों में आती थी. फिर अचानक नई कक्षा में आते ही इतना परिवर्तन क्यों? क्या सचमुच इस के भाग्य की रेखाएं…

नहींनहीं. ऐसा कभी नहीं हो सकेगा. रात को थकाटूटा तनमन ले कर बिस्तर पर पसरी, तो नींद जैसे आंखों से दूर जा चुकी थी. 11 वर्ष पूर्व से ले कर आज तक की एकएक घटना आंखों के सामने तैर रही थी.

‘‘बिटिया बहुत भाग्यशाली है, बहनजी.’’

‘‘जी पंडितजी. और?’’ अम्मां उत्सुकता से पंडितजी को निहार रही थीं.

‘‘और बहनजी, जहांजहां इस का पांव पड़ेगा, लक्ष्मी आगेपीछे घूमेगी. ननिहाल हो, ददिहाल हो और चाहे ससुराल.’’

2 महीने की अपनी फूल सी बिटिया को मेरी स्नेहसिक्त आंखों ने सहलाया, तो लगा, इस समय संसार की सब से बड़ी संपदा मेरे लिए वही है. मेरी पहलीपहली संतान, मेरे मातृत्व का गौरव, लक्ष्मी, धन, संपदा, सब उस के आगे महत्त्वहीन थे. पर अम्मां? वह तो पंडितजी की बातों से निहाल हुई जा रही थीं.

‘‘लेकिन…’’ पंडितजी थोड़ा सा अचकचाए.

‘‘लेकिन क्या पंडितजी?’’ अम्मां का कुतूहल सीमारेखा के समस्त संबंधों को तोड़ कर आंखों में सिमट आया था.

‘‘लेकिन विद्या की रेखा जरा कच्ची है, अर्थात पढ़ाईलिखाई में कमजोर रहेगी. पर क्या हुआ बहनजी, लड़की जात है. पढ़े न पढ़े, क्या फर्क पड़ता है. हां, भाग्य अच्छा होना चाहिए.’’

‘‘आप ठीक कहते हैं, पंडितजी, लड़की जात को तो चूल्हाचौका संभालना आना चाहिए और क्या.’’

किंतु मेरा समूचा अंतर जैसे हिल गया हो. मेरी बेटी अनपढ़ रहेगी? नहींनहीं. मैं ने इंटर पास किया है, तो मेरी बेटी को मुझ से ज्यादा पढ़ना चाहिए, बी.ए., एम.ए. तक, जमाना आगे बढ़ता है न कि पीछे.

‘‘बी.ए. पास तो कर लेगी न पंडितजी,’’ कांपते स्वर में मैं ने पंडितजी के आगे मन की शंका उड़ेल दी.

‘‘बी.ए., अरे. तोबा करो बिटिया, 10वीं पास कर ले तुम्हारी गुडि़या, तो अपना भाग्य सराहना. विद्या की रेखा तो है ही नहीं और तुम तो जानती ही हो, जहां लक्ष्मी का निवास होता है, वहां विद्या नहीं ठहरती. दोनों में बैर जो ठहरा,’’ वे दांत निपोर रहे थे और मैं सन्न सी बैठी थी.

यह कैसा भविष्य आंका है मेरी बिटिया का? क्या यह पत्थर की लकीर है, जो मिट नहीं सकती? क्या इसीलिए मैं इस नन्हीमुन्नी सी जान को संसार में लाई हूं कि यह बिना पढ़ेलिखे पशुपक्षियों की तरह जीवन काट दे.

दादी मां के 51 रुपए कुरते की जेब में ठूंस पंडितजी मेरी बिटिया का भविष्यफल एक कागज में समेट कर अम्मां के हाथ में पकड़ा गए.

पर उन के शब्दों को मैं ने ब्रह्मवाक्य मानने से इनकार कर दिया. मेरी बिटिया पढ़ेगी और मुझ से ज्यादा पढ़ेगी. बिना विद्या के कहीं सम्मान मिलता है भला? और बिना सम्मान के क्या जीवन जीने योग्य होता है कहीं? नहीं, नहीं, मैं ऐसा कभी नहीं होने दूंगी. किसी मूल्य पर भी नहीं.

3 वर्ष की होतेहोते मैं ने नन्ही निशा का विद्यारंभ कर दिया था. सरस्वती पूजा के दिन देवी के सामने उसे बैठा कर, अक्षत फूल देवी को अर्पित कर झोली पसार कर उस के वरदहस्त का वरदान मांगा था मैं ने, धीरेधीरे लगा कि देवी का आशीष फलने लगा है. अपनी मीठीमीठी तोतली बोली में जब वह वर्णमाला के अक्षर दोहराती, तो मैं निहाल हो जाती.

5 वर्ष की होतेहोते जब उस ने स्कूल जाना आरंभ किया था, तो वह अपनी आयु के सभी बच्चों से कहीं ज्यादा पढ़ चुकी थी. साथसाथ एक नन्हीमुन्नी सी बहन की दीदी भी बन चुकी थी, लेकिन नन्ही ऋचा की देखभाल के कारण निशा की पढ़ाई में मैं ने कोई विघ्न नहीं आने दिया था. उस के प्रति मैं पूरी तरह सजग थी.

स्कूल का पाठ याद कराना, लिखाना, गणित का सवाल, सब पूरी निष्ठा के साथ करवाती थी और इस परिश्रम का परिणाम भी मेरे सामने सुखद रूप ले कर आता था, जब कक्षा की प्रथम 10-12 बच्चियों में एक उस का नाम भी होता था.

5वीं कक्षा में जाने के साथसाथ नन्ही ऋचा भी निशा के साथ स्कूल जाने लगी थी. एकाएक मुझे घर बेहद सूनासूना लगने लगा था. सुबह से शाम तक ऋचा इतना समय ले लेती थी कि अब दिन काटे नहीं कटता था.

एक दिन महल्ले की समाज सेविका विभा के आमंत्रण पर मैं ने उन के साथ समाज सेवा के कामों में हाथ बंटाना स्वीकार कर लिया. सप्ताह में 3 दिन उन्हें लेने महिला संघ की गाड़ी आती थी जिस में अन्य महिलाओं के साथसाथ मैं भी बस्तियों में जा कर निर्धन और अशिक्षित महिलाओं के बच्चों के पालनपोषण, सफाई तथा अन्य दैनिक घरेलू विषयों के बारे में शिक्षित करने जाने लगी.

घर के सीमित दायरों से निकल कर मैं ने पहली बार महसूस किया था कि हमारा देश शिक्षा के क्षेत्र में कितना पिछड़ा हुआ है, महिलाओं में कितनी अज्ञानता है, कितनी अंधेरी है उन की दुनिया. काश, हमारे देश के तमाम शिक्षित लोग इस अंधेरे को दूर करने में जुट जाते, तो देश कहां से कहां पहुंच जाता. मन में एक अनोखाअनूठा उत्साह उमड़ आया था देश सेवा का, मानव प्रेम का, ज्ञान की ज्योति जलाने का.

पर आज एका- एक इस देश और मानव प्रेम की उफनतीउमड़ती नदी के तेज बहाव को एक झटका लगा. स्कूल से आ कर निशा किताबें पटक महल्ले के बच्चों के साथ खेलने भाग गई थी. उस की किताबें समेटते हुए उस की रिपोर्ट पर नजर पड़ी. 3 विषयों में फेल. एकएक कापी उठा कर खोली. सब में लाल पेंसिल के निशान, ‘बेहद लापरवाह,’ ‘ध्यान से लिखा करो,’  ‘…विषय में बहुत कमजोर’ की टिप्पणियां और कहीं कापी में पूरेपूरे पन्ने लाल स्याही से कटे हुए.

देखतेदेखते मेरी आंखों के सामने अंधेरा छाने लगा. यह क्या हो रहा है? बाहर ज्ञान का प्रकाश बिखेरने जा रही हूं और घर में दबे पांव अंधेरा घुस रहा है. यह कैसी समाज सेवा कर रही हूं मैं. यही हाल रहा तो लड़की फेल हो जाएगी. कहीं पंडितजी की भविष्यवाणी…

और निशा को अंदर खींचते हुए ला कर मैं उस पर बुरी तरह बरस पड़ी थी.

दूसरे दिन विभा बुलाने आईं, तो मैं निशा के स्कूल जाने की तैयारी में व्यस्त थी.

‘‘क्षमा कीजिए बहन, आज मैं आप के साथ नहीं जा सकूंगी. मुझे निशा के स्कूल जा कर उस की अध्यापिका से मिलना है. उस की रिपोर्ट काफी खराब आई है. अगर यही हाल रहा तो डर है, उस का साल न बरबाद हो जाए. बस, इस हफ्ते से आप के साथ नहीं जा सकूंगी. बच्चों की पढ़ाई का बड़ा नुकसान हो रहा है.’’

‘‘आप का मतलब है, आप नहीं पढ़ाएंगी, तो आप की बेटी पास ही नहीं होगी? क्या मातापिता न पढ़ाएं, तो बच्चे नहीं पढ़ते?’’

‘‘नहीं, नहीं बहन, यह बात नहीं है. मेरी छोटी बेटी ऋचा बिना पढ़ाए कक्षा में प्रथम आती है, पर निशा पढ़ाई में जरा कमजोर है. उस के साथ मुझे बैठना पड़ता है. हां, खेलकूद में कक्षा में सब से आगे है. इधर 3 वर्षों में ढेरों इनाम जीत लाई है. इसीलिए…’’

‘‘ठीक है, जैसी आप की मरजी, पर समाज सेवा बड़े पुण्य का काम होता है. अपना घर, अपने बच्चों की सेवा तो सभी करते हैं…’’

वह पलट कर तेजतेज कदमों से गाड़ी की ओर बढ़ गई थी.

घर का काम निबटा कर मैं स्कूल पहुंची. निशा की अध्यापिका से मिलने पर पता चला कि वह पीछे बैठने के कारण नहीं, वरन 2 बेहद उद्दंड किस्म की लड़कियों की सोहबत में फंस कर पढ़ाई बरबाद कर रही थी.

‘‘ये लड़कियां किन्हीं बड़े धनी परिवारों से आई हैं, जिन्हें पढ़ाई में तनिक भी रुचि नहीं है. पिछले वर्ष फेल होने के बावजूद उन्हें 5वीं कक्षा में रोका नहीं जा सका. इसीलिए वे सब अध्यापिकाओं के साथ बेहद उद््दंडता का बरताव करती हैं, जिस की वजह से उन्हें पीछे बैठाया जाता है ताकि अन्य लड़कियों की पढ़ाई सुचारु रूप से चल सके,’’ निशा की अध्यापिका ने कहा.

सुन कर मैं सन्न रह गई.

‘‘यदि आप अपनी बेटी की तरफ ध्यान नहीं देंगी तो पढ़ाई के साथसाथ उस का जीवन भी बरबाद होने में देर नहीं लगेगी. यह बड़ी भावुक आयु होती है, जो बच्चे के भविष्य के साथसाथ उस का जीवन भी बनाती है. आप ही उसे इस भटकन से लौटा सकती हैं, क्योंकि आप उस की मां हैं. प्यार से थपथपा कर उसे धीरेधीरे सही राह पर लौटा लाइए. मैं आप की हर तरहसे मदद करूंगी.’’

‘‘आप से एक अनुरोध है, मिस कांता. कल से निशा को उन लड़कियों के साथ न बिठा कर कृपया आगे की सीट पर बिठाएं. बाकी मैं संभाल लूंगी.’’

घर लौट कर मैं बड़ी देर तक पंखे के नीचे आंखें बंद कर के पड़ी रही. समाज सेवा का भूत सिर पर से उतर गया था. समाज सेवा पीछे है, पहले मेरा कर्तव्य अपने बच्चों को संभालना है. ये भी तो इस समाज के अंग हैं. इन 4-5 महीने में जब से मैं ने इस की ओर ध्यान देना छोड़ा है, यह पढ़ाई में कितनी पिछड़ गई है.

अब मैं ने फिर पहले की तरह निशा के साथ नियमपूर्वक बैठना शुरू कर दिया. धीरेधीरे उस की पढ़ाई सुधरने लगी. बीचबीच में मैं कमरे में जा कर झांकती, तो वह हंस देती, ‘‘आइए मम्मी, देख लीजिए, मैं अध्यापिका के कार्टून नहीं बना रही, नोट्स लिख रही हूं.’’

उस के शब्द मुझे अंदर तक पिघला देते, ‘‘नहीं बेटा, मैं चाहती हूं, तुम इतना मन लगा कर पढ़ो कि तुम्हारी अध्यापिका की बात झूठी हो जाए. वह तुम से बहुत नाराज हैं. कह रही थीं कि निशा इस वर्ष छठी कक्षा हरगिज पास नहीं कर पाएगी. तुम पास ही नहीं, खूब अच्छे अंकों में पास हो कर दिखाओ, ताकि हमारा सिर पहले की तरह ऊंचा रहे,’’ उस का मनोबल बढ़ा कर मैं मनोवैज्ञानिक ढंग से उस का ध्यान उन लड़कियों की ओर से हटाना चाहती थी.

धीरेधीरे मैं ने निशा में परिवर्तन देखा. 8वीं कक्षा में आ कर वह बिना कहे पढ़ाई में जुट जाती. उस की मेहनत, लगन व परिश्रम उस दिन रंग लाया, जब दौड़ते हुए आ कर वह मेरे गले में बांहें डाल कर झूल गई.

‘‘मां, मैं पास हो गई. प्रथम श्रेणी में. आप के पंडितजी की भविष्यवाणी झूठी साबित कर दी मैं ने? अब तो आप खुश हैं न कि आप की बेटी ने 10वीं पास कर ली.’’

‘‘हां, निशा, आज मैं बेहद खुश हूं. जीवन की सब से बड़ी मनोकामना पूर्ण कर के आज तुम ने मेरा माथा गर्व से ऊंचा कर दिया है. आज विश्वास हो गया है कि संसार में कोई ऐसा काम नहीं है, जो मेहनत और लगन से पूरा न किया जा सके. अब आगे…’’

‘‘मां, मैं डाक्टर बनूंगी. माधवी और नीला भी मेडिकल में जा रही हैं.’’

‘‘बाप रे, मेडिकल. उस में तो बहुत मेहनत करनी पड़ती है. हो सकेगी तुम से रातदिन पढ़ाई?’’

‘‘हां, मां, कृपया मुझे जाने दीजिए. मैं खूब मेहनत करूंगी.’’

‘‘और तुम्हारे खेलकूद? बैडमिंटन, नैटबाल, दौड़ वगैरह?’’

‘‘वह सब भी चलेगा साथसाथ,’’ वह हंस दी. भोलेभाले चेहरे पर निश्छल प्यारी हंसी.

मन कैसाकैसा हो आया, ‘‘ठीक है, पापा से भी पूछ लेना.’’

‘‘पापा कुछ नहीं कहेंगे. मुझे मालूम है, उन का तो यही अरमान है कि मैं डाक्टर नहीं बन सका, तो मेरी बेटी ही बन जाए. उन से पूछ कर ही तो आप से अनुमति मांग रही हूं. अच्छा मां, आप नानीजी को लिख दीजिएगा कि उन की धेवती ने उन के बड़े भारी ज्योतिषी की भविष्यवाणी झूठी साबित कर के 10वीं पास कर ली है और डाक्टरी पढ़ कर अपने हाथ की रेखाओं को बदलने जा रही है.’’

‘‘मैं क्यों लिखूं? तुम खुद चिट्ठी लिख कर उन का आशीर्वाद लो.’’

‘‘ठीक है, मैं ही लिख दूंगी. जरा अंक तालिका आ जाने दीजिए और जब इलाहाबाद जाऊंगी तो आप के पंडितजी के दर्शन जरूर करूंगी, जिन्हें मेरे भाग्य में विद्या की रेखा ही नहीं दिखाई दी थी.’’

आज 6 वर्ष बाद मेरी निशा डाक्टर बन कर सामने खड़ी है. हर्ष से मेरी आंखें छलछलाई हुई हैं.

दुख है तो केवल इतना कि आज अम्मां नहीं हैं. होतीं तो उन्हें लिखती, ‘‘अम्मां, लड़कियां भी लड़कों की तरह इनसान होती हैं. उन्हें भी उतनी ही सुरक्षा, प्यार तथा मानसम्मान की आवश्यकता होती है, जितनी लड़कों को. लड़कियां कह कर उन्हें ढोरडंगरों की तरह उपेक्षित नहीं छोड़ देना चाहिए.

‘‘और ये पंडेपुजारी? आप के उन पंडितजी के कहने पर विश्वास कर के मैं अपनी बिटिया को उस के भाग्य के सहारे छोड़ देती, तो आज यह शुभ दिन कहां से आता? नहीं अम्मां, लड़कियों को भी ईश्वर ने शरीर के साथसाथ मन, मस्तिष्क और आत्मा सभी कुछ प्रदान किया है. उन्हें उपेक्षित छोड़ देना पाप है.’’

‘‘तुम भी तो एक लड़की हो, अम्मां, अपनी धेवती की सफलता पर गर्व से फूलीफूली नहीं समा रही हो? सचसच बताना.’’

पर कहां हैं पुरानी मान्यताओं पर विश्वास करने वाली मेरी वह अम्मां?

Hindi Story : नाज पर नाज

Hindi Story : अशरफ काफी समय से बीमार रहता था. वह तकरीबन सभी तरह के इलाज करा चुका था, पर कोई फायदा नहीं हुआ. अगर थोड़ाबहुत फायदा होता भी सिर्फ वक्ती तौर पर ही होता और बीमारी बदस्तूर जारी रहती.

अम्मीअब्बा के बहुत जिद करने पर अशरफ ने इस बार शहर जा कर एक नामी डाक्टर को दिखाया. उस डाक्टर ने तमाम जांचें करवाईं, ऐक्सरे भी करवाए और बाद में जो रिपोर्ट आई, उस ने सब के होश उड़ा दिए.

रिपोर्ट में पता चला कि अशरफ की दोनों किडनी पूरी तरह खराब हो चुकी थीं.

डाक्टर साहब ने भी सिर हिलाते हुए कह दिया, ‘‘अब ले जाइए इन्हें. जितनी भी सेवा करनी है कीजिए, बाकी दवाएं चलने दीजिए. आप लोग इन को ज्यादा से ज्यादा खुश रखने की कोशिश कीजिए.’’

अशरफ को ले कर उस के अब्बा ऐसे घर लौट आए, जैसे कोई जुए में अपना सबकुछ हार कर लौट जाता है.

कुछ दिन बीते. अब घर के लोगों ने एकदूसरे से थोड़ाबहुत बोलना शुरू किया. शायद घर के माहौल को खुशनुमा बनाने की एक नाकाम कोशिश.

अशरफ के अब्बू घर के बाहर ही लकड़ी की टाल पर बैठते थे. अब अशरफ भी उन का हाथ बंटाने लगा मानो उस पर अपनी तबीयत का कोई असर ही नहीं हुआ हो.

किसी ने सच ही कहा है कि जब दर्द हद से गुजर जाता है तो दवा बन जाता है. अब यही दर्द अशरफ के लिए दवा बनने वाला था.

एक दिन अब्बू ने घर के सभी लोगों को अपने कमरे में ठीक 8 बजे इकट्ठा होने को कहा. परिवार में अम्मी के अलावा अशरफ और उस का छोटा भाई आदिल थे. एक बहन सबा थी, जिस का निकाह पहले ही हो चुका था.

शाम को ठीक 8 बजे अशरफ, अम्मी और आदिल अब्बू के कमरे में पहुंचे चुके थे.

थोड़ी देर बाद अब्बू भी कमरे में आ गए, पर आज उन की चाल में एक अलग तरह की खामोशी थी.

‘‘देखो अशरफ और आदिल, तुम दोनों मु झे अपनी जिंदगी में सब से प्यारे हो.  तुम दोनों काबिल हो. सबा जैसी प्यारी बेटी है, जो अब अपने ससुराल को रोशन कर रही है. खैर…’’ अब्बू ने एक गहरी सांस छोड़ी और फिर बोलना शुरू किया. इस बार उन के लहजे में थोड़ी सख्ती भी थी, ‘‘जैसा कि तुम लोगों को पता है कि अशरफ बीमार है और डाक्टरों ने बताया है कि हमें उस को हर हाल में खुश रखना है…’’

अशरफ की पीठ पर हाथ फेरते हुए अब्बू ने कहा, ‘‘कभीकभी जिंदगी हम से कुछ ऐसे फैसले कराती है, जो वक्ती तौर पर तो ठीक नहीं लगते, पर धीरेधीरे सही साबित होने लगते हैं. आज हम ऐसा ही फैसला लेने जा रहे हैं.

‘‘दरअसल, डाक्टर ने हम से कहा है कि हो सके तो अशरफ की शादी जल्द से जल्द करा दी जाए, तो इस की तबीयत में सुधार हो सकता है,’’ अब्बू ने एक सांस में कह कर मानो अपना बो झ हलका कर दिया था.

अब्बू का फैसला सुन कर अम्मी तो बुत बनी बैठी रहीं, पर छोटे बेटे आदिल को यह बात कुछ नागवार सी लगी, क्योंकि अशरफ की बीमारी की बात आदिल भी जानता था और वह यह भी जानता था कि अशरफ भाईजान एक या 2 साल के ही मेहमान हैं, क्योंकि जिस आदमी की दोनों किडनी खराब हो चुकी हों, उस की सांसें कभी भी थम सकती हैं और ऐसे में उस का निकाह करा देना, मतलब एक और बेगुनाह की जिंदगी तबाह कर देना था.

इस फैसले का विरोध तो सब से ज्यादा अशरफ की ओर से आना था, पर वह तो खामोश सा बैठा हुआ सब सुन रहा था. तो क्या यह माना जाए कि अशरफ भी मरने से पहले अपनी जिंदगी पूरी तरह से जी लेना चाहता था या फिर यों कह लें कि मरने से पहले वह किसी औरत के जिस्म को पूरी तरह सम झ लेना चाहता था?

बहरहाल, इस समय अशरफ के चेहरे पर बेबसी के साथ एक चमक भी थी, जिसे वह बखूबी सब से छुपा ले रहा था.

‘‘आप लोग जैसा सही सम झें वैसा करें,’’ कह कर आदिल अपने कमरे में आ गया.

आखिरकार आननफानन अशरफ का निकाह तय हो गया. लड़की गरीब घर की थी, पर बेहद खूबसूरत थी.

पूरे घर में निकाह की खुशियां थीं, पर आदिल का मन भारी था. उस का जी चाह रहा था कि वह जाए और लड़की वालों को रिपोर्ट के सारे कागज दिखा कर सबकुछ सच बता दे या फिर अशरफ के पास जा कर खूब खरीखोटी सुनाए, पर यह मुद्दा इतना संजीदा था कि आदिल ने अपनी जबान सिल ली और आंखों पर पट्टी बांध ली.

निकाह हो चुका था. अब्बू और अम्मी के चेहरे पर खुशियां चमक रही थीं, पर इस के पीछे जो काली बदली थी, उस से सब अनजान थे या अनजान होने का दिखावा कर रहे थे.

अशरफ और नाज की शादी को एक साल पूरा हो गया और नाज उम्मीद से थी यानी वह मां बनने वाली थी.

घर में सब खुश थे, पर हमेशा अंदर ही अंदर डरे हुए और फिर वह स्याह दिन भी आ गया, जिस को कोई बुलाना नहीं चाहता था.

अशरफ की तबीयत अचानक बिगड़ गई. पीरफकीर,  झाड़फूंक कोई कसर नहीं छोड़ी गई, पर सब बेमानी साबित हुआ.

नाज अब बेवा हो चुकी थी. उस पर दुखों का पहाड़ टूट पड़ा था. सभी का सम झानाबु झाना बेकार साबित हुआ. वह तो रोरो कर हलकान हुए जाती थी. आंसू थे कि थमने का नाम ही नहीं ले रहे थे.

कहते हैं कि वक्त बहुत बड़ा मरहम होता है और इस मरहम ने इस परिवार पर भी अपना असर दिखाया. अब रोनापीटना तो नहीं था, पर नाज की उदासी और उस के कमरे से आती सिसकियों का जवाब किसी के पास नहीं था और होता भी कैसे. अगर नाज के बेवा होने में कोई जिम्मेदार था, तो यही सब लोग थे.

अशरफ को गुजरे 6 महीने हो गए. तब अब्बू ने अपने घर में महल्ले के एक बड़े बुजुर्ग, शहर के काजी और नाज के अब्बा को बुलाया.

तय समय पर सभी लोग इकट्ठा हुए, आंगन में कुरसियां डाल दी गईं.

शरबतपानी के बाद अब्बू ने बोलना शुरू किया, ‘‘आप मेरे बुलावे पर मेरे घर तशरीफ लाए हैं, इस का मैं शुक्रिया अदा करता हूं और जैसा कि आप लोगों को मालूम है कि मेरा बड़ा बेटा अशरफ अब नहीं रहा. घर में उस की बेवा है और वह बच्चे की मां भी बनने वाली है. उस की आगे की जिंदगी बेहतरी से गुजरे और हमारे घर की इज्जत घर में ही रहे, इस के लिए हम चाहते हैं कि हमारी बहू को हमारा छोटा बेटा आदिल सहारा दे और नाज से निकाह कर ले, जिस से नाज को सहारा भी मिल जाएगा और उस के आने वाले बच्चे को अपने अब्बा का नाम भी मिल जाएगा.

‘‘अगर मेरी बात से किसी को भी एतराज हो तो बे िझ झक अपनी बात कह सकता है,’’ कह कर अब्बू चुप हो गए.

अब्बू की बात का हर शब्द आदिल के कानों में चुभता चला गया.

‘आज अब्बू क्या करना चाहते हैं. पहले तो बीमार अशरफ का निकाह करा दिया और अब उस की बेवा से मेरी शादी कराना चाहते हैं. ठीक है नाज भाभी को सहारे की जरूरत है, पर मेरे भी ख्वाब हैं, मेरे भी अरमान हैं,’ आदिल सोचता चला गया.

महल्ले के बुजुर्ग, काजी किसी को कोई दिक्कत नहीं थी.

इतने लोगों के सामने आदिल की भी कुछ बोलने की हिम्मत न हुई और सभी के राजीनामे के बाद आदिल और नाज के निकाह का ऐलान किया जाने वाला था कि तभी परदे के पीछे से नाज की धीमी मगर सख्त लहजे वाली आवाज आई, ‘‘आप सब बड़े काबिल लोगों के सामने मु झे यों बोलना नहीं चाहिए और मैं इस गलती के लिए आप सब से माफी मांगती हूं, पर यहां बात 3 जिंदगियों की है, इसलिए मु झे बोलना ही पड़ रहा है.

‘‘सब से पहले अब्बू मैं आप से कहना चाहती हूं कि आप तो मु झे अपनी बेटी बना कर लाए थे. सबा के ससुराल जाने के बाद इस घर की बेटी की कमी मैं ने ही पूरी की थी न, फिर आज अचानक मैं आप को गैर लगने लगी. क्या मेरा और आप का रिश्ता सिर्फ इन तक ही था और इन के जाते ही मैं आप को बो झ लगने लगी?

‘‘और आप सब हजरात ऐसा क्यों सम झ रहे हैं कि एक बेवा को हमेशा ही किसी मर्द के सहारे की जरूरत होती है? क्या इतना काफी नहीं है कि वह अपने पति की यादों के सहारे जिंदगी काट दे? क्या दोबारा निकाह कराना मेरी रूह पर चोट पहुंचाने जैसा नहीं होगा? जिस जिस्म और रूह पर मैं उन का नाम लिख चुकी हूं, उस पर किसी और को हक कैसे दे सकती हूं?

‘‘और जहां तक आदिल की बात है, वह तो अभी पढ़ रहा है और उस की अभी शादी की उम्र भी नहीं है. उस की अपनी एक अलहदा जिंदगी है, जिसे वह अपने अंदाज से जीना चाहेगा. जहां तक मेरी बात है तो मेरे लिए किसी को परेशान होने की जरूरत नहीं है. मैं अपना गुजारा खुद कर सकती हूं. मैं ने बीए तक पढ़ाई की है. मैं बच्चों को ट्यूशन पढ़ा सकती हूं. मु झे सिलाई का काम भी आता है. मैं घर बैठे सिलाई कर सकती हूं. मु झे बाकी कुछ नहीं चाहिए.

‘‘अब्बू और अम्मी, आप लोगों को भी मेरे हाल पर अफसोस करने की जरूरत नहीं है. शादी की पहली ही रात में उन्होंने मु झे अपनी बीमारी के बारे में सबकुछ सचसच बता दिया था और अपनी सारी रिपोर्टें मु झे दिखा दी थीं. उन्होंने यह बता दिया था कि वे कभी भी मेरा साथ छोड़ कर जा सकते हैं.

‘‘उन्होंने यह बात मु झे इसलिए बताई, क्योंकि वे चाहते थे कि उन के जाने के बाद मैं उन्हें धोखेबाज न कहूं और न ही उन के सीने पर कोई भी बो झ रहे. उन्होंने यह सब बताने के बाद मु झ से कहा था कि अब मैं चाहूं तो उन को तलाक दे सकती हूं, पर मैं ने उन को तलाक देने से ज्यादा उन की बेवा बनना ठीक सम झा, क्योंकि मान लीजिए कि उन्हें कोई बीमारी न होती और फिर भी वे किसी हादसे का शिकार हो जाते तो ऐसे में कोई क्या कर लेता.

‘‘उन की निशानी मेरे अंदर पल रही है. मैं उन की यादों के सहारे ही बाकी जिंदगी काट सकती हूं. अब उन की निशानी बेटे के रूप में आए या बेटी के रूप में, रगों में उन का ही खून दौड़ेगा न,’’ इतना कह कर नाज पल्लू से अपनी गीली आंखें पोंछने लगी.

अब्बू परदा हटा कर अंदर आए और नाज को गले से लगा लिया. वे बोले, ‘‘नाज बेटी, तुम्हारा नाम तुम्हारे मायके वालों ने सही रखा है. आज उन की नाज पर हम सब को भी नाज है.’’

सभी लोगों की आंखें ससुरबहू के इस प्यार पर बारबार भर आती थीं.

Hindi Story : ऐसा ही होता है

Hindi Story : जब से यह पता चला कि गंगूबाई धंधा करते हुए पकड़ी गई है,  तब से लक्ष्मी की बस्ती में हड़कंप मच गया. क्यों?  ‘‘सुनती हो लक्ष्मी…’’ मांगीलाल ने आ कर जब यह बात कही, तब लक्ष्मी बोली, ‘‘क्या है… क्यों इतना गला फाड़ कर चिल्ला रहे हो?’’

‘‘गंगूबाई के बारे में कुछ सुना है तुम ने?’’

‘‘हां, उसे पुलिस पकड़ कर ले गई…’’ लक्ष्मी ने सीधा सपाट जवाब दिया, ‘‘अब क्यों ले गई, यह मत पूछना.’’

‘‘मु झे सब मालूम है…’’ मांगीलाल ने जवाब दिया, ‘‘कैसा घिनौना काम किया. अपने मरद के साथ ही धोखा किया.’’

‘‘धोखा तो दिया, मगर बेशर्म भी थी. उस का मरद कमा रहा था, तब धंधा करने की क्या जरूरत थी?’’ लक्ष्मी गुस्से से उबल पड़ी.

‘‘उस की कोई मजबूरी रही होगी,’’ मांगीलाल ने कहा.

‘‘अरे, कोई मजबूरी नहीं थी. उसे तो पैसा चाहिए था, इसलिए यह धंधा अपनाया. उस का मरद इतना कमाता नहीं था, फिर भी वह बनसंवर के क्यों रहती थी? अरे, धंधे वाली बन कर ही पैसा कमाना था, तो लाइसैंस ले कर कोठे पर बैठ जाती. महल्ले की सारी औरतों को बदनाम कर दिया,’’ लक्ष्मी ने अपनी सारी भड़ास निकाल दी.

‘‘उस का पति ट्रक ड्राइवर है. बहुत लंबा सफर करता है. 8-8 दिन तक घर नहीं आता है. ऐसे में…’’

‘‘अरे, आग लगे ऐसी जवानी को…’’ बीच में ही बात काट कर लक्ष्मी  झल्ला पड़ी, ‘‘मैं उस को अच्छी तरह जानती हूं. वह पैसों के लिए धंधा करती थी. अच्छा हुआ जो पकड़ी गई, नहीं तो बस्ती की दूसरी औरतों को भी बिगाड़ती. न जाने कितनी लड़कियों को अपने साथ इस धंधे में डालने की कोशिश करती वह बदचलन औरत.’’

‘‘उस के साथ तो और भी औरतें होंगी?’’ मांगीलाल ने पूछा.

‘‘हांहां, होंगी क्यों नहीं, बेचारा मरद तो ट्रक ड्राइवर है. देश के न जाने किसकिस कोने में जाता रहता है. कभीकभार तो 15-15 दिन तक घर नहीं आता है. तब गंगूबाई की जवानी में आग लगती होगी… बु झाने के बहाने यह धंधा अपना लिया.’’

‘‘क्या करें लक्ष्मी, जवानी होती ऐसी है…’’ मांगीलाल ने जब यह बात कही, तब लक्ष्मी गुस्से से बोली, ‘‘तू क्यों इतनी दिलचस्पी ले रहा है?’’

‘‘पूरी बस्ती में गंगूबाई की थूथू जो हो रही है,’’ मांगीलाल ने बात पलटते हुए कहा.

लक्ष्मी बोली, ‘‘दिन में कैसी सती सावित्री बन कर रहती थी.’’

‘‘मगर, तू उसे बारबार कोस क्यों रही है?’’ मांगीलाल ने पूछा.

‘‘कोसूं नहीं तो क्या पूजा करूं उस बदचलन की,’’ उसी गुस्से से फिर लक्ष्मी बोली, ‘‘करतूतें तो पहले से दिख रही थीं. उसे मेहनत कर के कमाने में जोर आता था, इसलिए नासपीटी ने यह धंधा अपनाया.’’

‘‘अब तू लाख गाली दे उसे, उस ने तो कमाई का साधन बना रखा था. अरे, कई औरतें कमाई के लिए यह धंधा करती हैं…’’ मांगीलाल ने जब यह कहा, तब लक्ष्मी आगबबूला हो कर बोली,

‘‘तू क्यों बारबार दिलचस्पी ले रहा है? तेरा क्या मतलब? तु झे काम पर नहीं जाना है क्या?’’

‘‘जा रहा हूं बाबा, क्यों नाराज हो रही हो?’’ कह कर मांगीलाल तो चला गया, मगर लक्ष्मी न जाने कितनी देर तक गंगूबाई की करतूतों को ले कर बड़बड़ाती रही, फिर वह भी बरतन मांजने के लिए कालोनी की ओर बढ़ गई.

इस कालोनी में लक्ष्मी 4-5 घरों में बरतन मांजने का काम करती है. मांगीलाल किराने की दुकान पर मुनीमगीरी करता है. उस के एक बेटा और एक बेटी है. छोटा परिवार होने के बावजूद घर का खर्च मांगीलाल की तनख्वाह से जब पूरा नहीं पड़ा, तब लक्ष्मी भी घरघर जा कर बरतनबुहारी करने लगी. वह कालोनी वालों के लिए एक अच्छी मेहरी साबित हुई. वह रोजाना जाती थी. कभी जरूरी काम से छुट्टी भी लेनी होती थी, तब वह पहले से सूचना दे देती थी.

गंगूबाई लक्ष्मी की बस्ती में ही उस के घर से 5वें घर दूर रहती है. उस का मरद ट्रक ड्राइवर है, इसलिए आएदिन बाहर रहता है. उस के 2 बेटे अभी छोटे हैं, इसलिए उन्हें घर छोड़ कर गंगूबाई रात में कमाई करने जाती है.

पूरी बस्ती में यही चर्चा चल रही थी. गंगूबाई पर सभी थूथू कर रहे थे.

छिप कर शरीर बेचना कानूनन अपराध है. उसे कई बार आधीआधी रात को घर आते हुए देखा था. वह कई बार किसी अनजाने मरद को भी अपने घर में बुला लेती थी, फिर बस्ती वालों को भनक लग गई. उन्होंने एतराज किया कि अनजान मर्दों को घर में बुला कर दरवाजा बंद करना अच्छी बात नहीं है.

तब गंगूबाई ने गैरमर्दों को घर बुलाना बंद कर दिया. तब से उस ने कमाने के लिए किसी होटल को अड्डा बना लिया था. पुलिस ने जब उस होटल पर छापा मारा, तब उस के साथ 3 औरतें और पकड़ी गई थीं. मतलब, होटल वाला पूरा गिरोह चला रहा था.

बस्ती वालों को शक तो बहुत पहले से था, मगर जब तक रंगे हाथ न पकड़ें तब तक किसी पर कैसे इलजाम लगा सकें. छोटे बच्चे जब पूछते थे, तब गंगूबाई कहती थी, ‘‘मैं ने नौकरी कर ली है. तुम्हारा बाप तो 10-15 दिन तक ट्रक पर रहता है, तब पैसे भी तो चाहिए.’’

ऐसी ही बात गंगूबाई बस्ती वालों से कहती थी कि वह नौकरी करती है.

बस्ती वाले सवाल उठाते थे कि नौकरी तो दिन में होती है, भला रात में ऐसी कौन सी नौकरी है, जो वह करती है?

मगर, गंगूबाई ऐसी बातों को हंसी में टाल देती थी. मगर जब भी उस का मरद घर पर होता था, तब वह शहर नहीं जाती थी. तब बस्ती वाले सवाल उठाते, ‘जब तेरा मरद घर पर रहता है, तब तू क्यों नहीं नौकरी पर जाती है?’

तब वह हंस कर कहती, ‘‘मरद 10-15 दिन बाद सफर कर के थकाहारा आता है. तब उस की सेवा में लगना पड़ता है.’’

तब बस्ती वाले कहते, ‘तू जोकुछ कह रही है, उस में जरा भी सचाई नहीं है. कभीकभी आधी रात को आना शक पैदा करता है. लगता है कि नौकरी के बहाने…’

‘‘बसबस, आगे मत बोलो. बिना देखे किसी पर इलजाम लगाना अपराध है. आप मेरी निजी जिंदगी में  झांक रहे हैं. क्या पेट भरने के लिए नौकरी करना भी गुनाह है?’’

तब बस्ती वालों ने गंगूबाई को अपने हाल पर छोड़ दिया. मगर वे सम झ गए थे कि गंगूबाई धंधा करती है.

‘‘लक्ष्मी, कहां जा रही है?’’ लक्ष्मी की सारी यादें टूट गईं. यह उस की सहेली कंचन थी.

लक्ष्मी बोली, ‘‘बरतन मांजने जा रही हूं साहब लोगों के बंगले पर.’’

‘‘धत तेरे की, कुछ गंगूबाई से सबक सीख,’’ कंचन मुसकराते हुए बोली.

‘‘किस नासपीटी का नाम ले लिया तू ने,’’ लक्ष्मी गुस्से से उबल पड़ी.

‘‘बिस्तर पर सो कर कमा रही थी और तू उसे नासपीटी कह रही है?’’

‘‘उस ने औरत जात को बदनाम कर दिया है. मरद तो बेचारा परदेश में पड़ा रहता है और वह छोटे बच्चों को घर छोड़ कर गुलछर्रे उड़ा रही थी. उस के बच्चों का क्या हुआ?’’

‘‘अरे, पुलिस उस के बच्चों को भी अपने साथ ले गई है…’’ कंचन ने जवाब दिया, ‘‘गंगूबाई पर शक तो बहुत पहले से था.’’

‘‘मगर, किसी ने उसे आज तक रंगे हाथ नहीं पकड़ा है,’’ लक्ष्मी ने जरा तेज आवाज में कहा.

‘‘हां, पकड़ा तो नहीं…’’ कंचन ने कहा, फिर वह आगे बोली, ‘‘अरे, तु झे काम पर जाना है न, जा बरतन मांज कर अपनी हड्डियां गला.’’

लक्ष्मी साहब के बंगले की तरफ बढ़ चली. आज उसे देर हो गई, इसलिए वह जल्दीजल्दी जाने लगी. सब से पहले उसे त्रिवेदीजी के बंगले पर जाना था.

जब लक्ष्मी त्रिवेदीजी के बंगले पर पहुंची, तब मेमसाहब उसी का इंतजार कर रही थीं. वे नाराजगी से बोलीं, ‘‘आज देर कैसे हो गई लक्ष्मी?’’

‘‘क्या करूं मेमसाहब, आज बस्ती में एक लफड़ा हो गया.’’

‘‘अरे, बस्ती में लफड़ा कब नहीं होता. वहां तो आएदिन लफड़ा होता रहता है.’’

‘‘बात यह नहीं है मेमसाहब. गंगूबाई नाम की औरत धंधा करती हुई पकड़ी गई है.’’

‘‘इस में भी कौन सी नई बात है. बस्ती की गरीब औरतें यह धंधा करती हैं. गंगूबाई ने ऐसा कर लिया, तब तो उस की कोई मजबूरी रही होगी.’’

‘‘अरे मेमसाहब, यह बात नहीं है. वह शादीशुदा है और 2 बच्चों की मां भी है.’’

‘‘तो क्या हुआ, मां होना गुनाह है क्या? पैसा कमाने के लिए ज्यादातर औरतें यह धंधा करती हैं…’’ मेम साहब बोलीं, ‘‘औरतें इस धंधे में क्यों आती हैं? इस की जड़ पैसा है. इन गरीब घरों में ऐसा ही होता है.’’

‘‘मेमसाहब, आप पढ़ीलिखी हैं, इसलिए ऐसा सोचती हैं. मगर, मैं इतना जरूर जानती हूं कि छिप कर शरीर बेचना कानूनन अपराध है. अब आप से कौन बहस करे… यहां से मुझे गुप्ताजी के घर जाना है. अगर देर हो गई तो वहां भी डांट पड़ेगी,’’ कह कर लक्ष्मी रसोईघर में चली गई.

Hindi Story : रिश्तों की कसौटी

Hindi Story : मां के फोन वैसे तो संक्षिप्त ही होते थे पर इतना महत्त्वपूर्ण समाचार भी वह सिर्फ 2 मिनट में बता देंगी, मेरी कल्पना से परे ही था.

‘‘शुचिता की शादी तय हो गई है. 15 दिन बाद का मुहूर्त निकला है, तुम सब लोगों को आना है,’’ बस, इतना कह कर वह फोन रखने लगी थीं.

‘‘अरे, मां, कब रिश्ता तय किया है, कौन लोग हैं, कहां के हैं, लड़का क्या करता है?’’ मैं ने एकसाथ कई प्रश्न पूछ डाले थे.

‘‘सब ठीकठाक ही है, अब आ कर देख लेना.’’

मां और बातें करने के मूड में नहीं थीं और मैं कुछ और कहती तब तक उन्होंने फोन रख दिया था.

लो, यह भी कोई बात हुई. अरे, शुचिता मेरी सगी छोटी बहन है, इतना सब जानने का हक तो मेरा बनता ही है कि कहां शादी तय हो रही है, कैसे लोग हैं. अरे, शुचि की जिंदगी का एक अहम फैसला होने जा रहा है और मुझे खबर तक नहीं. ठीक है, मां का स्वास्थ्य इन दिनों ठीक नहीं रहता है, फिर शुचिता की शादी को ले कर पिछले कई सालों से परेशान हो रही हैं. पिताजी के असमय निधन से और अकेली पड़ गई हैं. भाई कोई है नहीं, हम 3 बहनें ही हैं. मैं, नमिता और शुचिता. मेरी और नमिता की शादी हुए काफी अरसा हो गया है पर पता नहीं क्यों शुचिता का हर बार रिश्ता तय होतेहोते रह जाता था. शायद इसीलिए मां इतनी शीघ्रता से यह काम निबटाना चाह रही हों.

जो भी हो, बात तो मां को पूरी बतानी थी. शाम को मैं ने फिर शुचिता से ही बात करनी चाही थी पर वह तो शुरू से वैसे भी मितभाषी ही रही है. अभी भी हां-हूं ही करती रही.

‘‘दीदी, मां ने बता तो दिया होगा सबकुछ…’’ स्वर भी उस का तटस्थ ही था.

‘‘अरे, पर तू तो पूरी बात बता न, तेरे स्वर में भी कोई खास उत्साह नहीं दिख रहा है,’’ मैं तो अब झल्ला ही पड़ी थी.

‘‘उत्साह क्या, सब ठीक ही है. मां इतने दिन से परेशान थीं, मैं स्वयं भी अब उन पर बोझ बन कर उन की परेशानी और नहीं बढ़ाना चाहती. अब यह रिश्ता तो जैसे एक तरह से अपनेआप ही तय हो गया है, तो अच्छा ही होगा,’’ शुचिता ने भी जैसेतैसे बात समाप्त ही कर दी थी.

राजीव तो अपने काम में इतने व्यस्त थे कि उन को छुट्टी मिलनी मुश्किल थी. मेरा और बच्चों का रिजर्वेशन करवा दिया. मैं चाह रही थी कि 4-5 दिन पहले पहुंचूं पर मैं और नमिता दोनों ही रिजर्वेशन के कारण ठीक शादी वाले दिन ही पहुंच पाए थे.

मेरी तरह नमिता भी उतनी ही उत्सुक थी यह जानने के लिए कि शुचि का रिश्ता कहां तय हुआ और इतनी जल्दी कैसे सब तय हो गया पर जो कुछ जानकारी मिली उस ने तो जैसे हमारे उत्साह पर पानी ही फेर दिया था.

जौनपुर का कोई संयुक्त परिवार था. छोटामोटा बिजनेस था. लड़का भी वही पुश्तैनी काम संभाल रहा था. उन लोगों की कोई मांग नहीं थी. लड़के की बूआ खुद आ कर शुचिता को पसंद कर गई थीं और शगुन की अंगूठी व साड़ी भी दे गई थीं.

‘‘मां,’’ मेरे मुंह से निकल गया, ‘‘जब इतने समय से रिश्ते देख रहे हैं तो और देख लेते. आप को जल्दी क्या थी. ऐसी क्या शुचि बोझ बन गई थी? अब जौनपुर जैसा छोटा सा पुराना शहर, पुराने रीतिरिवाज के लोग, संयुक्त परिवार, शुचि कैसे निभेगी उस घर में.’’

‘‘सब निभ जाएगी,’’ मां बोलीं, ‘‘अब मेरे इस बूढ़े शरीर में इतनी ताकत नहीं बची है कि घरघर रिश्ता ढूंढ़ती रहूं. इतने बरस तो हो गए, कहीं जन्मपत्री नहीं मिलती, कहीं दहेज का चक्कर… और तुम दोनों जो इतनी मीनमेख निकाल रही हो, खुद क्यों नहीं ढूंढ़ दिया कोई अच्छा घरबार अपनी बहन के लिए.’’

मां ने तो एक तरह से मुझे और नमिता दोनों को ही डपट दिया था.

यह सच भी था, हम दोनों बहनें अपनेअपने परिवार में इतनी व्यस्त हो गई थीं कि जितने प्रयास करने चाहिए थे, चाह कर भी नहीं कर पाए.

खैर, सीधेसादे समारोह के साथ शुचिता ब्याह दी गई.

मैं और नमिता दोनों कुछ दिन मां के पास रुक गए थे पर हम रोज ही यह सोचते कि पता नहीं कैसे हमारी यह भोलीभाली बहन उस संयुक्त परिवार में निभेगी. हम लोग ऐसे परिवारों में कभी रहे नहीं. न ही हमें घरेलू काम करने की अधिक आदत थी. पिताजी थे तब काफी नौकरचाकर थे और अभी भी मां ने 2 काम वाली बाई लगा रखी थीं और खाना भी उन्हीं से बनवा लेती थीं.

फिर शुचि का तो स्वभाव भी सरल सा है. तेजतर्रार सास, ननदें, जेठानी सब मिल कर दबा लेंगी उसे.

जब चचेरा भाई रवि विदा कराने गया तब हम लोग यही सोच कर आशंकित थे कि पता नहीं शुचि आ कर क्या हालचाल सुनाए. पर उस समय तो उस की सास ने विदा भी नहीं किया. रवि से यह कह कर कि महीने भर बाद भेजेंगी, अभी किसी बच्चे का जन्मदिन है, उसे भेज दिया था.

उधर रवि कहता जा रहा था, ‘‘दीदी, शुचि दीदी को आप ने कैसे घर में भेज दिया, वह घर क्या उन के लायक है. छोटा सा पुराने जमाने का मकान, उस में इतने सारे लोग…अब आजकल कौन बहुओं से घूंघट निकलवाता है, पर शुचि दीदी से इतना परदा करवाया कि मेरे सामने ही मुश्किल से आ पाईं.

‘‘ऊपर से सास, ननदें सब तेजतर्रार. सास ने तो एक तरह से मुझे ही झिड़क दिया कि बहू से घर का कामकाज तो होता नहीं है, इतना नाजुक बना कर रख दिया है लड़की को कि वह चार जनों का खाना तक नहीं बना सकती, पर गलती तो इस की मां की है जो कुछ सिखाया नहीं. अब हम लोग सिखाएंगे.

‘‘सच दीदी, इतनी रोबीली सास तो मैं ने पहली बार देखी.’’

रवि कहता जा रहा है और मेरा कलेजा बैठता जा रहा था कि इतने सीधेसादे ढंग से शादी की है, कहीं लालची लोग हुए तो दहेज के कारण मेरी बहन को प्रताडि़त न करें. वैसे भी दहेज को ले कर इतने किस्से तो आएदिन होते रहते हैं.

शुचि से मिलना भी नहीं हो पाया. मां से भी इस बारे में अधिक बात नहीं कर पाई. वैसे भी हृदय रोग की मरीज हैं वे.

शुचि से फोन पर कभीकभार बात होती तो जैसा उस का स्वभाव था हांहूं में ही उत्तर देती.

बीच में दशहरे की छुट्टियों में फिर मां के पास जाना हुआ था. सोचा कि शायद शुचि भी आए तो उस से भी मिलना हो जाएगा पर मां ने बताया कि शुचि की सास बीमार हैं…वह आ नहीं पाएगी.

‘‘मां, इतने लोग तो हैं उस घर में फिर शुचि तो नईनवेली बहू है, क्या अब वही बची है सास की सेवा को, जो चार दिन को भी नहीं आ सकती,’’ मैं कहे बिना नहीं रह पाई थी. मुझे पता था कि उस की ननदें, जेठानी सब इतनी तेज हैं तो शुचि दब कर रह गई होगी.

उधर मां कहे जा रही थीं, ‘‘सास का इलाज होना था तो पैसे की जरूरत पड़ी. शुचि ने अपने कंगन उतार कर सास के हाथ पर धर दिए…सास तो गद्गद हो गईं.’’

मैं ने माथे पर हाथ मारा. हद हो गई बेवकूफी की भी. अरे, छोटीमोटी बीमारी का तो इलाज यों ही हो जाता है फिर पुश्तैनी व्यापार है, इतने लोग हैं घर में… और सास की चतुराई देखो, जो थोड़ा- बहुत जेवर शुचि मायके से ले कर गई है उस पर भी नजरें गड़ी हैं.

उधर मां कहती जा रही थीं, ‘‘अच्छा है उस घर में रचबस गई है शुचि…’’

मां भी आजकल पता नहीं किस लोक में विचरण करने लगी हैं. सारी व्यावहारिकता भूल गई हैं. शुचि के पास कुछ गहनों के अलावा और है ही क्या.

मेरा तो मन ही उचट गया था. घर आ कर भी मूड उखड़ाउखड़ा ही रहा. राजीव से यह सब कहा तो उन का तो वही चिरपरिचित उत्तर था.

‘‘तुम क्यों परेशान हो रही हो. सब का अपनाअपना भाग्य है. अब शुचि के भाग्य में जौनपुर के ये लोग ही थे तो इस में तुम क्या कर सकती हो और मां से क्या उम्मीद करती हो? उन्होंने तो जैसे भी हो अपना दायित्व पूरा कर दिया.’’

फोन पर पता चला कि शुचि बीमार है, पेट में पथरी है और आपरेशन होगा. दूसरी कोई शिकायत हो सकती है तो पहले सारे टेस्ट होंगे, बनारस के एक अस्पताल में भरती है.

‘‘तुम लोग देख आना, मेरा तो जाना हो नहीं पाएगा,’’ मां ने खबर दी थी.

नमिता भी छुट्टी ले कर आ गई थी. वहीं अस्पताल के पास उस ने एक होटल में कमरा बुक करा लिया था.

‘‘रीता, मैं तो 2 दिन से ज्यादा रुक नहीं पाऊंगी, बड़ी मुश्किल से आफिस से छुट्टी मिली है,’’ उस ने मिलते ही कहा था.

‘‘मैं भी कहां रुक पाऊंगी, छोटू के इम्तहान चल रहे हैं, नौकर भी आजकल बाहर गया हुआ है. बस, दिन में ही शुचि के पास बैठ लेंगे, रात को तो जगना भी मुश्किल है मेरे लिए,’’ मैं ने भी अपनी परेशानी गिना दी थी.

सवाल यह था कि यहां रुक कर शुचि की देखभाल कौन करेगा? कम से कम 10 दिन तो उसे अस्पताल में ही रहना होगा. अभी तो सारे टेस्ट होने हैं.

हम दोनों शुचि को देखने जब अस्पताल पहुंचे तो पता चला कि उस की दोनों ननदें आई हुई हैं. बूढ़ी सास भी उसे संभालने आ गई हैं और उन लोगों ने काटेज वार्ड के पास ही कमरा ले लिया था.

दबंग सास बड़े प्यार से शुचि के सिर पर हाथ फेर रही थीं.

‘‘फिक्र मत कर बेटी, तू जल्दी ठीक हो जाएगी, मैं हूं न तेरे पास. तेरी दोनों ननदें भी अपनी ससुराल से आ गई हैं. सब बारीबारी से तेरे पास सो जाया करेंगे. तू अकेली थोड़े ही है.’’

उधर शुचि के पति चम्मच से उसे सूप पिला रहे थे, एक ननद मुंह पोंछने का नैपकिन लिए खड़ी थी.

‘‘दीदी, कैसी हो?’’ शुचि ने हमें देख कर पूछा था. मुझे लगा कि इतनी बीमारी के बाद भी शुचि के चेहरे पर एक चमक है. शायद घरपरिवार का इतना अपनत्व पा कर वह अपनी बीमारी भूल गई है.

पर पता नहीं क्यों मेरे और नमिता के सिर कुछ झुक गए थे. कई बार इनसानों को समझने में कितनी भूल कर देते हैं हम.

मैं ऐसा ही कुछ सोच रही थी.

Hindi Story : रिश्ते की बुआ

Hindi Story : माधुरी के बेटे से मेरे लिए बुआजी का संबोधन सुन कर राकेश ने भारत की महिमा का जो गुणगान किया उस से मेरी आंखें छलछला उठीं, लेकिन वह इन छलछलाती आंखों के पीछे छिपे दर्द की उस कहानी से अनभिज्ञ था जिस की भुक्तभोगी मैं स्वयं भी थी.

इस बार मैं अपने बेटे राकेश के साथ 4 साल बाद भारत आई थी. वे तो नहीं आ पाए थे. बिटिया को मैं घर पर ही लंदन में छोड़ आई थी, ताकि वह कम से कम अपने पिता को खाना तो समय पर बना कर खिला देगी.

पिछली बार जब मैं दिल्ली आई थी तब पिताजी आई.आई.टी. परिसर में ही रहते थे. वे प्राध्यापक थे वहां पर 3 साल पहले वे सेवानिवृत्त हो कर आगरा चले गए थे. वहीं पर अपने पुश्तैनी घर में अम्मां और पिताजी अकेले ही रहते थे. पिताजी की तबीयत कुछ ढीली रहती थी, पर अम्मां हमेशा से ही स्वस्थ थीं. वे घर को चला रही थीं और पिताजी की देखभाल कर रही थीं.

वैसे भी उन की कौन देखरेख करता? मैं तो लंदन में बस गई थी. बेटी के ऊपर कोई जोर थोड़े ही होता है, जो उसे प्यार से, जिद कर के भारत लौट आने के लिए कहते. बेटा न होने के कारण अम्मां और पिताजी आंसू बहाने लगते और मैं उन का रोने में साथ देने के सिवा और क्या कर सकती थी.

पहले जब पिताजी दिल्ली में रहते थे तब बहुत आराम रहता था. मेरी ससुराल भी दिल्ली में है. आनेजाने में कोई परेशानी नहीं होती थी. दोपहर का खाना पिताजी के साथ और शाम को ससुराल में आनाजाना लगा ही रहता था. मेरे दोनों देवर भी बेचारे इतने अच्छे हैं कि अपनी कारों से इधरउधर घुमाफिरा देते.

अब इस बार मालूम हुआ कि कितनी परेशानी होती है भारत में सफर करने में. देवर बेचारे तो स्टेशन तक गाड़ी पर चढ़ा देते या आगरा से आते समय स्टेशन पर लेने आ जाते. बाकी तो सफर की परेशानियां खुद ही उठानी थीं. वैसे राकेश को रेलगाड़ी में सफर करना बहुत अच्छा लगता था. स्टेशन पर जब गाड़ी खड़ी होती तो प्लेटफार्म पर खाने की चीजें खरीदने की उस की बहुत इच्छा होती थी. मैं उस को बहुत मुश्किल से मना कर पाती थी.

आगरा में मुझे 3 दिन रुकना था, क्योंकि 10 दिन बाद तो हमें लंदन लौट जाना था. बहुत दिल टूट रहा था. मुझे मालूम था ये 3 दिन अच्छे नहीं कटेंगे. मैं मन ही मन रोती रहूंगी. अम्मां तो रहरह कर आंसू बहाएंगी ही और पिताजी भी बेचारे अलग दुखी होंगे.

पिताजी ने सक्रिय जिंदगी बिताई थी, परंतु अब बेचारे अधिकतर घर की चारदीवारी के अंदर ही रहते थे. कभीकभी अम्मां उन को घुमाने के लिए ले तो जाती थीं परंतु यही डर लगता था कि बेचारे लड़खड़ा कर गिर न पड़ें.

रेलवे स्टेशन पर छोटा देवर छोड़ने आया था. उस को कोई काम था, इसलिए गाड़ी में चढ़ा कर चला गया. साथ में वह कई पत्रिकाएं भी छोड़ गया था. राकेश एक पत्रिका देखने में उलझा हुआ था. मैं भी एक कहानी पढ़ने की कोशिश कर रही थी, पर अम्मां और पिताजी की बात सोच कर मन बोझिल हो रहा था.

गाड़ी चलने में अभी 10 मिनट बाकी थे तभी एक महिला और उन के साथ लगभग 7-8 साल का एक लड़का गाड़ी के डब्बे में चढ़ा. कुली ने आ कर उन का सामान हमारे सामने वाली बर्थ के नीचे ठीक तरह से रख दिया. कुली सामान रख कर नीचे उतर गया. वह महिला उस के पीछेपीछे गई. उन के साथ आया लड़का वहीं उन की बर्थ पर बैठ गया.

कुली को पैसे प्लेटफार्म पर खड़े एक नवयुवक ने दिए. वह महिला उस नवयुवक से बातें कर रही थी. तभी गाड़ी ने सीटी दी तो महिला डब्बे में चढ़ गई.

‘‘अच्छा दीदी, जीजाजी से मेरा नमस्ते कहना,’’ उस नवयुवक ने खिड़की में से झांकते हुए कहा.

वह महिला अपनी बर्थ पर आ कर बैठ गई, ‘‘अरे बंटी, तू ने मामाजी को जाते हुए नमस्ते की या नहीं?’’

उस लड़के ने पत्रिका से नजर उठा कर बस, हूंहां कहा और पढ़ने में लीन हो गया. गरमी काफी हो रही थी. पंखा अपनी पूरी शक्ति से घूम रहा था, परंतु गरमी को कम करने में वह अधिक सफल नहीं हो पा रहा था. 5-7 मिनट तक वह महिला चुप रही और मैं भी खामोश ही रही. शायद हम दोनों ही सोच रही थीं कि देखें कौन बात पहले शुरू करता है.

आखिर उस महिला से नहीं रहा गया, पूछ ही बैठी, ‘‘कहां जा रही हैं आप?’’

‘‘आगरा जा रहे हैं. और आप कहां जा रही हैं?’’ मैं ने पूछा.

‘‘हम तो आप से पहले मथुरा में उतर जाएंगे,’’ उस ने कहा, ‘‘क्या आप विदेश में रहती हैं?’’

‘‘हां, पिछले 15 वर्षों से लंदन में रहती हूं, लेकिन आप ने कैसे जाना कि मैं विदेश में रहती हूं?’’ मैं पूछ बैठी.

‘‘आप के बोलने के तौरतरीके से कुछ ऐसा ही लगा. मैं ने देखा है कि जो भारतीय विदेशों में रहते हैं उन का बातचीत करने का ढंग ही अनोखा होता है. वे कुछ ही मिनटों में बिना कहे ही बता देते हैं कि वे भारत में नहीं रहते. आप ने यहां भ्रमण करवाया है, अपने बेटे को?’’ उस ने राकेश की ओर इशारा कर के कहा.

‘‘मैं तो बस घर वालों से मिलने आई थी. अम्मां और पिताजी से मिलने आगरा जा रही हूं. पहले जब वे हौजखास में रहते थे तो कम से कम मेरा भारत भ्रमण का आधा समय रेलगाड़ी में तो नहीं बीतता था,’’ मेरे लहजे में शिकायत थी.

‘‘आप के पिताजी हौजखास में कहां रहते थे?’’ उस ने उत्सुकता से पूछा.

‘‘पिताजी हौजखास में आई.आई.टी. में 20 साल से अधिक रहे,’’ मैं ने कहा, ‘‘अब सेवानिवृत्त हो कर आगरा में रह रहे हैं.’’

‘‘आप के पिताजी आई.आई.टी. में थे. क्या नाम है उन का? मेरे पिताजी भी वहीं प्रोफेसर हैं.’’

‘‘उन का नाम हरीश कुमार है,’’ मैं ने कहा.

मेरे पिताजी का नाम सुन कर वह महिला सन्न सी रह गई. उस का चेहरा फक पड़ गया. वह अपनी बर्थ से उठ कर हमारी बर्थ पर आ गई, ‘‘जीजी, आप मुझे नहीं जानतीं? मैं माधुरी हूं,’’ उस ने धीमे से कहा. उस की वाणी भावावेश से कांप रही थी.

‘माधुरी?’ मैं ने मस्तिष्क पर जोर डालने की कोशिश की तो अचानक यह नाम बिजली की तरह मेरी स्मृति में कौंध गया.

‘‘कमल की शादी मेरे से ही तय हुई थी,’’ कहते हुए माधुरी की आंखें छलछला उठीं.

‘कमल’ नाम सुन कर एकबारगी मैं कांप सी गई. 12 साल पहले का हर पल मेरे समक्ष ऐसे साकार हो उठा जैसे कल की ही बात हो. पिताजी ने कमल की मृत्यु का तार दिया था. उन का लाड़ला, मेरा अकेला चहेता छोटा भाई एक ट्रेन दुर्घटना का शिकार हो गया था. अम्मां और पिताजी की बुढ़ापे की लाठी, उन के बुढ़ापे से पहले ही टूट गई थी.

कमल ने आई.आई.टी. से ही इंजीनियरिंग की थी. पिताजी और माधुरी के पिता दोनों ही अच्छे मित्र थे. कमल और माधुरी की सगाई भी कर दी गई थी. वे दोनों एकदूसरे को चाहते भी थे. बस, हमारे कारण शादी में देरी हो रही थी. गरमी की छुट्टियों में हमारा भारत आने का पक्का कार्यक्रम था. पर इस से पहले कि हम शादी के लिए आ पाते, कमल ही सब को छोड़ कर चला गया. हम तो शहनाई के माहौल में आने वाले थे और आए तब जब मातम मनाया जा रहा था.

मैं ने माधुरी के कंधे पर हाथ रख कर उस की पीठ सहलाई. राकेश मेरी ओर देख रहा था कि मैं क्या कर रही हूं.

मैं ने राकेश को कहा, ‘‘तुम भोजन कक्ष में जा कर कुछ खापी लो और बंटी को भी ले जाओ,’’ अपने पर्स से एक 20 रुपए का नोट निकाल कर मैं ने रोकश को दे दिया. वह खुशीखुशी बंटी को ले कर चला गया.

उन के जाते ही मेरी आंखें भी छलछला उठीं, ‘‘अब पुरानी बातों को सोचने से दुखी होने का क्या फायदा, माधुरी. हमारा और उस का इतना ही साथ था,’’ मैं ने सांत्वना देने की कोशिश की, ‘‘यह शुक्र करो कि वह तुम को मंझधार में छोड़ कर नहीं गया. तुम्हारा जीवन बरबाद होने से बच गया.’’

‘‘दीदी, मैं सारा जीवन उन की याद में अम्मां और पिताजी की सेवा कर के काट देती,’’ माधुरी कमल की मृत्यु के बाद बहुत मुश्किल से शादी कराने को राजी हुई थी. यहां तक कि अम्मां और पिताजी ने भी उस को काफी समझाया था. कमल की मृत्यु के 3 वर्ष बाद माधुरी की शादी हुई थी.

‘‘तुम्हारे पति आजकल मथुरा में हैं?’’ मैं ने पूछा.

‘‘हां, वे वहां तेलशोधक कारखाने में नौकरी करते हैं.’’

‘‘तुम खुश हो न, माधुरी?’’ मैं पूछ ही बैठी.

‘‘हां, बहुत खुश हूं. वे मेरा बहुत खयाल रखते हैं. बड़े अच्छे स्वभाव के हैं. मैं तो खुद ही अपने दुखों का कारण हूं. जब भी कभी कमल का ध्यान आ जाता है तो मेरा मन बहुत दुखी हो जाता है. वे बेचारे सोचसोच कर परेशान होते हैं कि उन से तो कोई गलती नहीं हो गई. सच दीदी, कमल को मैं अब तक दिल से नहीं भुला सकी,’’ माधुरी फूटफूट कर रोने लगी. मेरी आंखों से भी आंसू बहने लगे. कुछ देर बाद हम दोनों ने आंसू पोंछ डाले.

‘‘मुझे पिताजी से मालूम हुआ था कि चाचाचाची आगरा में हैं. इतने पास हैं, मिलने की इच्छा भी होती है, पर इन से क्या कह कर उन को मिलवाऊंगी? यही सोच कर रह जाती हूं,’’ माधुरी बोली.

‘‘अगर मिल सको तो वे दोनों तो बहुत प्रसन्न होंगे. पिताजी के दिल को काफी चैन मिलेगा,’’ मैं ने कहा, ‘‘पर अपने पति से झूठ बोलने की गलती मत करना,’’ मैं ने सुझाव दिया.

‘‘अगर कमल की मृत्यु न होती तो दीदी, आज आप मेरी ननद होतीं,’’ माधुरी ने आहत मन से कहा.

मैं उस की इस बात का क्या उत्तर देती. बच्चों को भोजन कक्ष में गए काफी देर हो गई थी. मथुरा स्टेशन भी कुछ देर में आने वाला ही था.

‘‘तुम को लेने आएंगे क्या स्टेशन पर,’’ मैं ने बात को बदलने के विचार से कहा.

‘‘कहां आएंगे दीदी. गाड़ी 3 बजे मथुरा पहुंचेगी. तब वे फैक्टरी में होंगे. हां, कार भेज देंगे. घर पर भी शाम के 7 बजे से पहले नहीं आ पाते. इंजीनियरों के पास काम अधिक ही रहता है.’’

?तभी दोनों लड़के आ गए. माधुरी का बंटी बहुत ही बातें करने लगा. वह राकेश से लंदन के बारे में खूब पूछताछ कर रहा था. राकेश ने उसे लंदन से ‘पिक्चर पोस्टकार्ड’ भेजने का वादा किया. उस ने अपना पता राकेश को दिया और राकेश का पता भी ले लिया. गाड़ी वृंदावन स्टेशन को तेजी से पास कर रही थी. कुछ देर में मथुरा जंक्शन के आउटर सिगनल पर गाड़ी खड़ी हो गई.

‘‘यह गाड़ी हमेशा ही यहां खड़ी हो जाती है. पर आज इसी बहाने कुछ और समय आप को देखती रहूंगी,’’ माधुरी उदास स्वर में बोली.

मैं कभी बंटी को देखती तो कभी माधुरी को. कुछ मिनटों बाद गाड़ी सरकने लगी और मथुरा जंक्शन भी आ गया.

एक कुली को माधुरी ने सामान उठाने के लिए कह दिया. बंटी राकेश से ‘टाटा’ कर के डब्बे से नीचे उतर चुका था. राकेश खिड़की के पास खड़ा बंटी को देख रहा था. सामान भी नीचे जा चुका था. माधुरी के विदा होने की बारी थी. वह झुकी और मेरे पांव छूने लगी. मैं ने उसे सीने से लगा लिया. हम दोनों ही अपने आंसुओं को पी गईं. फिर माधुरी डब्बे से नीचे उतर गई.

‘‘अच्छा दीदी, चलती हूं. ड्राइवर बाहर प्रतीक्षा कर रहा होगा. बंटी बेटा, बूआजी को नमस्ते करो,’’ माधुरी ने बंटी से कहा.

बंटी भी अपनी मां का आज्ञाकारी बेटा था, उस ने हाथ जोड़ दिए. माधुरी अपनी साड़ी के पल्ले से आंखों की नमी को कम करने का प्रयास करती हुई चल दी. उस में पीछे मुड़ कर देखने का साहस नहीं था. कुछ समय बाद मथुरा जंक्शन की भीड़ में ये दोनों आंखों से ओझल हो गए.

अचानक मुझे खयाल आया कि मुझे बंटी के हाथ में कुछ रुपए दे देने चाहिए थे. अगर वक्त ही साथ देता तो बंटी मेरा भतीजा होता. पर अब क्या किया जा सकता था. पता नहीं, बंटी और माधुरी से इस जीवन में कभी मिलना होगा भी कि नहीं? अगर बंटी लड़के की जगह लड़की होता तो उसे अपने राकेश के लिए रोक कर रख लेती. यह सोच कर मेरे होंठों पर मुसकान खेल गई.

राकेश ने मुझे काफी समय बाद मुसकराते देखा था. वह मेरे हाथ से खेलने लगा, ‘‘मां, भारत में लोग अजीब ही होते हैं. मिलते बाद में हैं, पहले रिश्ता कायम कर लेते हैं. देखो, आप को उस औरत ने बंटी की बूआजी बना दिया. क्या बंटी के पिता आप के भाई लगते हैं?’’

राकेश को कमल के बारे में विशेष मालूम नहीं था. कमल की मृत्यु के बाद ही वह पैदा हुआ था. उस का प्रश्न सुन कर मेरी आंखों से आंसू बहने लगे.

राकेश घबराया कि उस ने ऐसा क्या कह दिया कि मैं रोने लगी, ‘‘मुझे माफ कर दो मां, आप नाराज क्यों हो गईं? आप हमेशा ही भारत छोड़ने से पहले जराजरा सी बात पर रोने लगती हैं.’’

मैं ने राकेश को अपने सीने से लगा लिया, ‘‘नहीं बेटा, ऐसी कोई बात नहीं… जब अपनों से बिछड़ते हैं तो रोना आ ही जाता है. कुछ लोग अपने न हो कर भी अपने होते हैं.’’

राकेश शायद मेरी बात नहीं समझा था कि बंटी कैसे अपना हो सकता है? एक बार रेलगाड़ी में कुछ घंटों की मुलाकात में कोई अपनों जैसा कैसे हो जाता है, लेकिन इस के बाद उस ने मुझ से कोई प्रश्न नहीं किया और अपनी पत्रिका में खो गया.

Hindi Story : जमानत- क्या अदालत में सुभाष को जमानत मिली

Hindi Story : पढ़ेलिखे व भोलेभाले सुभाष चंद एक सिपाही के कहने मात्र पर उस के साथ थाने चले गए, जहां उन्हें हवालात में बंद कर दिया गया. कानून से अनभिज्ञ सुभाष की पत्नी अपने पति की जमानत लेने के लिए थाने गई, फिर वकील की शरण में पहुंची, और तब अदालत…

‘‘बाबूजी, अपना स्कूटर इधर खड़ा कर दो,’’ स्कूटर से उतरते सुभाष चंद को इशारा करते हुए एक सिपाही ने कहा.

स्कूटर खड़ा कर हकबकाया सा सुभाष चंद सदर थाने की बड़ी और आधुनिक शैली में बनी इमारत में सिपाही के साथ प्रविष्ट हुआ. सुभाष का सामना कभी पुलिस से नहीं पड़ा था. वह थाने कभी नहीं आया था. 2-3 दफा स्कूटर का चालान होने पर ट्रैफिक पुलिस से उस का वास्ता पड़ा था और कोई अनुभव नहीं था.

‘थानाध्यक्ष कक्ष’ लिखे कमरे के अंदर प्रविष्ट होते ही सुभाष का सामना विशाल मेज के पीछे बैठे लाललाल आंखों और लालभभूका चेहरे वाले भारी शरीर के एक पुलिस अधिकारी से हुआ जो देखते ही बोला, ‘‘ले आए.’’

‘‘जी, जनाब.’’

‘‘आप सुभाष चंद वल्द कलीराम, हैड क्लर्क, सांख्यिकी विभाग, निवासी बड़ा महल्ला हो?’’

‘‘जी हां,’’ सकपकाए से सुभाष ने कहा.

‘‘आप ने कल शाम शहर की सीमा पर स्थित देशी शराब के ठेके पर शराब पीने के बाद किसी सुमेर सिंह निवासी रसूलपुर से झगड़ा किया और उस को जान से मारने की धमकी दी थी?’’

इस पर सुभाष चंद ने हैरानी से थानेदार की तरफ देखा और कहा, ‘‘जनाब, मैं न तो शराब पीता हूं, न कभी किसी ठेके पर गया हूं, न ही किसी सुमेर सिंह नाम के आदमी को जानता हूं और न ही कभी रसूलपुर गांव का नाम सुना है.’’

‘‘फिर आप के खिलाफ दरख्वास्त कैसे लग गई?’’ थानेदार ने कुटिलता से मुसकराते हुए कहा.

‘‘मुझे क्या पता? शायद आप को गलत सूचना मिली हो?’’

‘‘हमें गलत सूचना नहीं मिली. आप अपने खिलाफ लगी दरख्वास्त खुद देख लो,’’ थानेदार के इशारे पर एक हवलदार ने फाइल खोल कर कुछ कागज सुभाष चंद को थमा दिए.

चश्मा साफ कर सुभाष ने तहरीर पढ़ी और वह हैरानी और रोष से भर उठा. जो कुछ थानेदार ने कहा वही लिखा था.

‘‘साहब, यह झूठा आरोप है. सरासर किसी की बदमाशी है.’’

‘‘ऐसा सब कहते हैं. आप ऐसा करें, साथ के कमरे में बैठ जाएं. थोड़ी देर में आप के खिलाफ शिकायत करने वाला अपने गवाहों के साथ आएगा तब आप का सामना करवा देंगे.’’

मनोरंजन कक्ष लिखे एक बड़े कमरे में 3-4 सादे कपड़ों में पुलिस वाले टीवी पर कोई फिल्म देख रहे थे और बीचबीच में ठहाके लगा रहे थे. सुभाष चंद को एक कुरसी पर बैठा कर उस को थाने लाया सिपाही बाहर चला गया.

थोड़ी देर बाद सुभाष के मोबाइल पर घंटी बजी. एक कोने में जा कर फोन सुना. उस की पत्नी का फोन था. सिपाही उस को एकदम से ‘आप को थाने में साहब ने बुलाया है’ कह कर ले आया था.

‘‘क्या बात है?’’

‘‘किसी सुमेर सिंह नाम के आदमी ने मेरे खिलाफ शिकायत की है कि मैं ने कल रात शराब पी कर उसे जान से मारने की धमकी दी थी. थानेदार कहता है कि अभी थोड़ी देर के बाद उस से मेरा सामना करवाएगा.’’

‘‘अरे, यह कौन है?’’

‘‘पता नहीं. तुम ऐसा करना अगर 1 घंटे तक मैं न आऊं तो रमेश को साथ ले कर थाने आ जाना.’’

‘‘थाने में?’’ पत्नी के स्वर में घबराहट थी.

‘‘हांहां, थाने में. थाना है कोई फांसीघर नहीं.’’

1 घंटा बीत गया. कोई नहीं आया. थोड़ी देर बाद सुभाष को थाने ले कर आया सिपाही अंदर आया और उसे ले कर ‘स्वागत कक्ष’ लिखे एक कमरे में पहुंचा जहां मौजूद एक एएसआई ने सुभाष को गौर से देखा.

‘‘आप का नाम सुभाष चंद वल्द कलीराम है?’’

‘‘जी, हां.’’

‘‘आप के खिलाफ सुमेर सिंह वल्द फतेह सिंह निवासी रसूलपुर ने शिकायत की है कि आप ने कल रात उस को शराब पी कर जान से मारने की धमकी दी थी.’’

‘‘नहीं जनाब, यह सब झूठ है.’’

‘‘अपनी सफाई में जो भी कहना है, कोर्ट में कहना. आप के खिलाफ झगड़ा करने और शांति भंग करने के आरोप में धारा 107 और 151 में मामला दर्ज किया गया है. आप अपनी जामातलाशी दे दें. आप को हवालात में बंद करना पड़ेगा.’’

‘‘हवालात,’’ सुभाष चंद के चेहरे पर मातमी छा गई.

‘470 रुपए नकद, एक घड़ी, एक अंगूठी, एक रुमाल, एक चमड़े की बैल्ट, एक पैन, एक छोटा कंघा’, इस सारे सामान की सूची बना उस पर सुभाष के हस्ताक्षर करवा सामान एक दराज में बंद कर, ‘एएसआई’ ने सिपाही को इशारा किया.

भारी कदमों से सुभाष उस के साथ बाहर आया. ‘बंदी कक्ष’ लिखे एक जंगले वाले दरवाजे के बाहर आ सिपाही ने भारीभरकम ताला खोला. फिर कुंडी खोल कर बोला, ‘‘जाओ, अंदर जाओ.’’

सुभाष दरवाजे के अंदर चला गया.

‘‘ठहरो, अपना चश्मा मुझे दे दो और जब बाहर निकलो, ले लेना,’’ कहते हुए सिपाही ने उस का चश्मा उतार कर ले लिया.

‘‘अरे, भाई बिना चश्मे के मुझे जरा भी नहीं दिखता.’’

मगर सिपाही उस की बात अनसुनी कर ताला लगा, चला गया. निसहाय सुभाष कमरे में आगे बढ़ा. एक छोटा मटमैला कमरा था जिस में कम पावर का एक बल्ब जल रहा था.

कमरे में दरी बिछी थी. दीवार के साथ टेक लगा कर कई चेहरे बैठे थे. कोई बीड़ी पी रहा था तो कोई सिगरेट. कमरे में कसैला धुआं भरा हुआ था. थोड़ी देर तक सुभाष खड़ा रहा फिर वह आगे बढ़ा तो उस की नाक में सड़ांध  घुसी. उस ने बदबू की दिशा में देखा तो उधर शौचालय था. बदबू असहनीय थी. आराम से बैठे उस ने रुमाल के लिए जेब में हाथ डाला तो रुमाल नहीं था. उसे ध्यान आया कि वह भी जामातलाशी में उस से ले लिया गया था.

तभी मोबाइल की घंटी बजी. मुंशी उस की ऊपरी जेब की तलाशी लेना भूल गया था. वह उठा, शौचालय में गया. फोन पत्नी का था, ‘‘क्या पोजीशन है?’’

‘‘मुझ पर शांति भंग करने और झगड़ा करने का केस बना दिया गया है. इस समय हवालात में बंद हूं. ऐसा कर, रमेश को ले कर यहां आ जा. घबरा मत.’’

आधे घंटे बाद बड़े लड़के के साथ पत्नी टिफिन बाक्स लिए आ गई. वही सिपाही दरवाजे पर आया. सुभाष उठ कर दरवाजे के समीप आया. सिपाही ने दरवाजा खोल टिफिन उसे थमा दिया. पत्नी कभी थाने नहीं आई थी. वह रोंआसी सी थी. एकदम से क्या हो गया था? किसी से कभी कोई झगड़ा नहीं था. फिर यह मामला कैसे बन गया.

सुभाष पत्नी की मनोस्थिति समझ रहा था.

‘‘घबराओ मत, गली में कपड़े प्रैस करने वाला रामू है, तू उस से मिल लेना. वह अनुभवी बुजुर्ग है, कोई न कोई रास्ता बता देगा.’’

स्कूटर बाहर खड़ा था. रमेश स्कूटर चलाना जानता था. सो मम्मी को पीछे बैठा कर वह स्कूटर चला कर ले गया.

रामू ने सारी बात ध्यान से सुनी.

‘‘बिटिया, यह या तो साहब के किसी दफ्तर के साथी की करतूत है या फिर मकानमालिक की शरारत. उन्होंने किसी किराए के बदमाश की मदद से यह शरारत की होगी.’’

‘‘अब हम क्या करें?’’

‘‘धीरज रखें. पहले साहब की जमानत करवाते हैं फिर आगे जो होगा साहब ही देखेंगे.’’

‘‘जमानत?’’ पत्नी को भला कानूनी मामलों की कहां समझ थी?

‘‘जी हां, पहले वकील करना पड़ेगा. पुलिस कल साहब को जब कोर्ट में पेश करेगी तो वह उन की जमानत करवाएगा.’’

‘‘मैं किसी वकील को नहीं जानती,’’ पत्नी सचमुच घबरा गई थी.

‘‘मेरी जानकारी में एक वकील है, अभी उस के पास चलते हैं,’’ पौश कालोनी में वकील साहब की कोठी काफी बड़ी और आलीशान थी.

‘‘आप के पति पढ़ेलिखे हो कर भी भोले हैं. इस तरह सिपाही के साथ थाने नहीं जाना था. सिपाही को 200 रुपए दे देने थे. उस को टाल देना था, बाद में अग्रिम जमानत करवानी थी,’’ सफेद बालोें वाले बुजुर्ग वकील की बात सुभाष की पत्नी को कुछ समझ में आई, कुछ नहीं आई थी.

‘‘आप की फीस क्या है?’’

‘‘5 हजार रुपए और अन्य खर्चे.’’

‘‘ठीक है,’’ पत्नी ने 2 हजार रुपए वकील साहब को थमा दिए.

अगली सुबह पत्नी और बड़ा बेटा नाश्ता लाए थे. सिपाही ने 50 का नोट ले दरवाजा खोल उसे बरामदे में एक स्टूल पर बैठा दिया था. सारी रात विपरीत माहौल और शौचालय की बदबू के चलते सुभाष टिफिन नहीं खोल पाया था. भूखे सुभाष ने बिना नहाए, बिना पेस्ट किए ही मजबूरी में नाश्ता किया.

दोपहर बाद एक जिप्सी में अन्य बंदियों के साथ सुभाष को उपमंडल अधिकारी के कोर्ट में ले जाया गया.

कोर्ट नए सचिवालय में था. एसडीएम साहब 3 बजे आते थे.

सुभाष को दूसरे कैदियों के हाथ के पंजे में पंजा फंसा कर अदालत लाया गया था और अब साहब का इंतजार था.

साढ़े 3 बजे साहब आए. 30-32 साल का चश्माधारी नौजवान एसडीएम था.

‘‘आप का जमानती कौन है?’’ सुभाष को पेश करते ही साहब ने पूछा.

इस पर वकील ने सुभाष की पत्नी को आगे कर दिया. एक सरसरी नजर फाइल में लगे कागजों पर डाल साहब ने सुभाष को कहा, ‘‘ठीक है, जाइए,’’ और चंद मिनटों में जमानत हो गई थी.

अगली पेशी 15 दिन बाद थी. सुभाष, उस की पत्नी, बेटा भी आए थे. साहब शाम को 4 बजे आए. चंटचालाक 100-50 रुपए का नोट थमा अपनी तारीख ले चले गए.

अगली पेशी पर सुभाष अकेला आया. थोड़ी देर इंतजार किया फिर उस ने भी 50 रुपए का नोट थमा पेशी ली और वापस हो लिया.

इस के बाद जैसे यह सिलसिला ही बन गया. 15-20 दिन बाद की पेशी पड़ती. 50 रुपए थमा सुभाष चला जाता.

‘‘ऐसा कब तक चलेगा?’’ पत्नी का सीधा सवाल था.

‘‘पता नहीं.’’

‘‘यह सुमेर सिंह आखिर है कौन?’’

‘‘पता नहीं. वकील का मुंशी बताता है कि इस तरह के आदमी या पार्टी किसी को फंसाने के लिए पुलिस पहले तैयार रखती है.’’

‘‘यह किस की शरारत हो सकती है?’’

‘‘कई जने कहते हैं कि मकान मालिक हम से यह मकान खाली करवाना चाहता है इसलिए उस की शरारत है.’’

‘‘हम मकान खाली कर देते हैं.’’

‘‘जिस ने हम पर यह झूठा मुकदमा बनवाया है क्या उस पर हम कोई मुकदमा नहीं कर सकते?’’

‘‘वकील साहब कहते हैं कि विपरीत मुकदमा करने के लिए आप के पास अपने गवाह होने चाहिए. आप को साबित करना पड़ेगा कि आप शराब नहीं पीते, झगड़ा नहीं करते. फीस और जमाखर्च अलग है.’’

‘‘अब हम क्या करें?’’ पत्नी ने हैरानी से पूछा.

‘‘कुछ नहीं. 6 महीने तक इंतजार करेेंगे. मुकदमे की मियाद पूरी हो जाने पर मुकदमा अपनेआप समाप्त हो जाएगा. विपरीत केस करना संभव है पर ठीक नहीं तो इसे ही नियति मान सब्र कर लेना होगा.’’

6 महीने बाद मुकदमा समाप्त हो गया. सुभाष चंद अपना तबादला करवा कर दूसरे शहर चला गया.

अनलिमिटेड कहानियां-आर्टिकल पढ़ने के लिएसब्सक्राइब करें