Story in Hindi
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‘पर उस ने ऐसा कैसे किया. मैं ने सिर्फ और सिर्फ इसी समारोह के लिए कैमरा लिया था और उस ने सब बेकार कर दिया. अब दोबारा यह समय तो नहीं आएगा. मैं ने सोचा था जब आप लोग मेरे कंधे पर स्टार लगाओगे तो उस फोटो को मैं फ्रेम करवा कर ड्राइंगरूम में सजाऊंगा, मगर इस की गलती से सब बेकार हो गया.’
‘क्या बेकार हुआ बता. जा, तू अभी अपनी वरदी पहन. महिमा, तू पापा को बुला कर ला. हम अभी तेरे कंधे पर स्टार लगाते हुए तेरे साथ फोटो खिंचवा लेते हैं. अभी हम जिंदा ही हैं, मरे नहीं, कि दोबारा फोटो न खींच सकें.’
कितना सही कहा था मां ने. जब तक जीवन है, उम्मीद नहीं मरती. मगर जो चले गए इस जीवन से, उन के मातापिता की उम्मीदों का क्या? वे क्या उम्मीद रखें और किस से रखें? आजकल हर कोई अपनी बयानबाजी में जुट कर रोज ही अखबारों व टैलीविजन पर सुर्खियां बटोरने में लगा है. कोई कहता है किस ने इन्हें फौज जौइन करने को कहा था? तो कोई कुछ और.
किसी को आर्मी जौइन करने को कह कर तो देखो, तब पता चल जाएगा. किसी दूसरे के कहने से तो कोई जा भी नहीं सकता. हम अपने देशप्रेम के जज्बे के चलते मरमिटने के लिए ही वरदी पहनते हैं. भले ही हमारे परिवार की सहमति हो या न हो. वे हमें भेजना नहीं चाहते हों, मगर हमारी जिद से उन्हें झुकना भी पड़ता है और शहीद हो जाने का दर्द भी उन्हें ही झेलना होता है. और ये रातदिन बकवास करने वालों का क्या जाता है. अपनी राजनीति चमकाते रहने के अलावा सीखा ही क्या है? क्या वे मोहित की बहन के न सूखने वाले आंसुओं को समेट उन के भाई या बेटे की जिम्मेदारी निभाने जाएंगे? जब ऐसा कुछ भी कर नहीं सकते तो उन के घावों को कुरेदते क्यों हैं?
एक फोटो पर अचानक नजर पड़ते ही राघव अतीत की यादों से बाहर आ गया. उस की उंगलियां आगे बढ़ने से रूक गईं. महिमा के केक काटने की फोेटो थी. अरे, इसी महीने तो महिमा का जन्मदिन पड़ता है. ओह, वह तो सब भूल ही गया था. यहां नैटवर्क भी बहुत कमजोर है. कभी फोन लगता है, कभी नहीं. चलो, अभी मिला कर देखता हूं, मिल गया तो ऐडवांस में ही बधाईर् दे दूंगा.
फोन एक बार में ही मिल गया. तो राघव का मुंह खिल गया, मानो कोई गड़ा हुआ खजाना हाथ लग गया हो.
‘‘हैलो मां, प्रणाम, कैसी हैं आप?’’
‘‘खुश रहो बेटा,’’ आज कितनो दिनों के बाद आवाज सुनने को मिल रही है.’’
‘‘मां, जल्दी से महिमा को फोन दो… हैप्पी बर्थडे टू यू, हैप्पी बर्थ टू डिअर सिस, हैप्पी बर्थडे टू महिमा, हैप्पी…’’
‘‘बस, कर भाई. आज मेरा जन्मदिन नहीं है और तुम्हें उसी दिन ही फोन करना होगा. मैं आज की कौल को नहीं मानती.’’
‘‘अरे, मेरी बात तो सुनो…’’ फोन कट गया. राघव ने फिर कई बार फोन लगाने की कोशिश की मगर फोन नहीं लगा.
राघव फिर अतीत में खो गया. मेरी आवाज तो मेरे घर वालों ने सुन ही ली. फोन की समस्या के चलते घर वाले मेरा फोन हमेशा लाउडस्पीकर पर लगा कर ही बातचीत करते हैं पर क्या मोहित की बहन उस की आवाज कभी सुन पाएगी? और सोमेश की मां, क्या वे अपने इकलौते बेटे की आवाज सुनने का इंतजार अपनी बेबसी के आंसुओं में डूब कर न करती होंगी?
क्या करूं? कभी सोचता हूं मैं ही कुछ बात कर लूं उन के परिवारों से. मगर फिर सोचता हूं, कहीं उन के घाव मेरी आवाज सुन कर हरे न हो जाएं. इस से अच्छा छुट्टियों में उन के घर ही हो कर आऊंगा. मगर अभी तो सारी छुट्टियां ही कैंसिल हो गई हैं. ओह, छुट्टियों से याद आया कि कल हवलदार लोकेश सिंह का जन्मदिन था और वह कैसे अपने घर वालों को फोन पर मना रहा था.
‘अरे मां, मेरी तरफ से सब को आज ही पार्टी दे दो जन्मदिन की. जब छुट्टियों में घर आऊंगा तो फिर एक बढि़या पार्टी करूंगा. मेरे बच्चों को भी स्कूल के लिए टौफियां, चौकलेट दिला देना. और हां मां, छुटकी जब ससुराल से घर आए तो इस बार उसे एक अंगूठी दिलवा देना. मैं रुपए भेज रहा हूं. हर बार यही कहती है फोन पर कि, भतीजेभतीजी दोनों हो गए पर मुझे क्या मिला. और मां, बापू को शहर ले जा कर जांच करवा देना. बिन्नी कह रही हैं कि बापू की खांसी 2 महीने से बराबर बनी हुई है…’ न जाने कितनी बकबक करे जा रहा था आखिर में एक साथी ने बोल ही दिया, ‘अरे, बस कर. सारी कथा आज ही बांच लेगा क्या?’ एक सम्मिलित ठहाके के साथ सब अपने गमों को छिपा ले गए.
अचानक उसे याद आई कि आज नाइट शिफ्ट है और ड्यूटी का समय हो गया था. वह अतीत के पन्नों से बाहर निकल आया. रात के समय बौर्डर की सभी चौकियों की जानकारी लेना, सब की उपस्थिति देखना जैसे कई कार्य उस की ड्यूटी में शामिल हैं. आज राघव आधा घंटा पहले ही तैयार हो गया था, इसलिए लैपटौप खोल कर बैठा था. उस ने दीवारघड़ी पर नजर डाली और सोचा, बाहर गाड़ी आ गई होगी. उस ने लैपटौप को शटडाउन कर दिया और टेबल पर रखी कैप उठा कर पहन ली. तभी एक तेज धमाके ने पूरी इमारत को हिला कर रख दिया.
धमाका इतना तेज था कि टेबल पर रखा सामान नीचे बिखर गया. राघव तेजी से अपनी पिस्तौल को उठा बाहर को दौड़ पड़ा. बाहर का नजारा बड़ा हृदयविदारक था. उस की गाड़ी धमाके के साथ जल रही थी. ड्राइवर और सहायक धमाके के कारण गाड़ी से उछल कर दूर गिरे पड़े थे. चारों तरफ से सैनिकों ने अपनी पोजीशन संभाल ली. कुछ सैनिक दौड़ कर घायलों को गाड़ी में डाल कर सेना के स्वास्थ्य केंद्र को चले गए. 3 घंटे की अफरातफरी के बाद यह निष्कर्ष निकला कि धमाका पड़ोसी देश की सेना द्वारा किए गए मोर्टार हमले से हुआ है. जिस में
2 सैनिक शहीद हो गए. राघव फिर सोच में डूब गया, कल यही लोकेश अपने घर वालों की आंखों में कईर् सपने दिखा रहा था आज उन्हीं आंखों को सूना कर गया. आज लोकेश शांत हो गया है, कल इस से कहा भी था, ‘अरे, बस कर, सारी कथा आज ही बांच लेगा क्या.’ लेकिन, अब उस की कथा कौन पूरी करेगा?
‘मेरी बहन ने, जब से राखी पोस्ट की है तभी से मां के पीछे पड़ी है, भैया से पूछो न, कैसी लगी? आप तो जानते हैं एक संडे ही मिलता हैं फोन करने को, ऊपर से इतनी लंबी लाइन रहती है कि 4-5 मिनट से ज्यादा बात ही नहीं हो सकती. इसलिए सोचा कि आप की आ गई होगी तो हमारी डाक भी आ ही गई होगी. जाऊं डाक का पता कर के आ जाऊं?’
‘आज शुक्रवार है. अगर शाम तक मिल गई तो ठीक, वरना संडे को मीतू से कह देना कि राखी मिल गई, बहुत सुंदर है. तुम्हारी बहन तो अभी छोटी है. यही 10-11 साल की होगी. है न? उसे फुसलाना आसान है. मगर मेरी बहन तो मुझ से केवल 2 साल छोटी है और मुझे ही चरा देती है. पिछले साल मैं ने यही बोला था तो कहने लगी, लिफाफे का कलर बताओ, राखी पर क्या लिखा है, बताओ?’ बड़ी मुश्किल से मैं ने फोन की लंबी लाइन का बहाना बना मां को फोन देने को कहा था.
‘हां सर, ये बहनों की आदत होती है. हर बात की उन्हें पूरी डिटेल चाहिए’ मोहित और मैं दोनों ही हंस पड़े थे.
‘किस बात पर हंस रहे हो दोनों?,’ सोमेश ने कमरे में प्रवेश कर पूछा था,
‘यहां बहनों की आदतों पर चर्चा हो रही है.’
‘मेरी तो कोई भी बहन है नहीं, और न ही कोई भाई. तभी तो मां पूरे समय मेरी ही चिंता करती रहती हैं, यदि होती तो वे अपना ध्यान उन की तरफ कर लेतीं. वे तो हर समय खड़कवासला आने को, मेरा मतलब यहां आने को तैयार बैठी रहती हैं. वे तो पापा मना करते हैं कि 6 महीने में घर तो आ ही जाता है, वहां जा कर क्या करोगी? सिवा उसे डिस्टर्ब करने के, तो पता है क्या कहती हैं?’
‘क्या?’
‘यही, कि पता नहीं वहां कैसे रहता है. मनपसंद खाने को मिलता भी है कि नहीं. मैं ढेर सारा सूखा नाश्ता बना कर ले चलूंगी. उसे मेरे हाथ के बेसन की पिन्नियां बहुत पसंद हैं. वहां उस का रूम भी देखूंगी कि कैसे रहता है. पापा ने समझाबुझा कर रखा है कि अभी इतनी दूर पंजाब से जाओगी, 1-2 घंटे से ज्यादा अंदर रह भी नहीं पाओगी और वह हमारे साथ भी नहीं आ सकता. फिर क्या करोगी जा कर? मगर मां, हर 15-20 दिनों बाद अपनी तैयारियां शुरू कर देती हैं और रोधो कर शांत बैठ जाती हैं.’
‘यह हाल तो मेरी बहन का है. अभी मेरी पासिंगआउट परेड के 2 साल बाकी हैं मगर मेरी बहन की रोज ड्रैस फाइनल हो जाती है कि मुझे यह पहनना है तो कभी वह पहनना है. पापा कहते हैं भाईर् की परेड होगी या तेरी?’ मोहित की बात सुन दोनों हंस पड़े.
‘अरे भाई, हम दोनों की तो 4 महीने बाद ही पासिंगआउट परेड है. सोच रहा हूं, इस वीकैंड पुणे से एक बढि़या कैमरा खरीद लूं. जातेजाते कुछ यादगार रिकौर्डिंग और फोटो तो सहेज ही लूं. जब अपनी परेड होगी तो बहन को पकड़ा दूंगा वह पूरी रिकौर्डिंग कर ही देगी,’ राघव ने अपना प्लान बताया.
‘सर, आप लोग तो सीनियरमोस्ट बैच के हो, आप तो कैमरा रख सकते हैं. सर, मेरे भी कुछ फोटो खींच लीजिएगा और मुझे मेल कर दीजिएगा. वैसे भी सर, आप को ही सब से ज्यादा फोटोग्राफी का शौक है. आप ही हर बार फोटोग्राफर से सब से ज्यादा फोटो खरीदते हैं,’ मोहित ने कहा.
‘हां, मेरी बहन भी चिढ़ाती हुए कहती है कि भाईर् की उंगली भी अगर किसी फोटो में दिख जाए तो वे फोटो खरीद लेंगे. हर 6 महीने में इतनी फोटो जमा कर लेता हूं कि अब तक 200 फोटो तो हो ही गई होंगी. अभी मां से कैमरे के लिए पूछूंगा तो कहेंगी, घर में कैमरा है तो हम वही ले आएंगे. मगर मुझे उस पुराने कैमरे से नहीं, बल्कि लेटैस्ट मौडल के कैमरे से फोटो खींचनी है, आखिर 15 यादगार दिनों की फोटो जो सहेज कर रखनी हैं,’ राघव बोला.
‘ठीक कह रहा है यार, तेरे कैमरे से ही फोटो खीच लेंगे. बाद में तू छांट कर अच्छी वाली मेल कर देना हम सब को,’ सोमेश बोला.
‘ठीक है, यार.’
अब फोटो ही तो बची हैं केवल. मोहित और सोमेश दोनों ही शहीद हो चुके हैं. अपने फोल्डर को खोल कर राघव सोचने लगा. उस की पहली पोस्ंिटग उड़ी में हुई थी. मोहित और सोमेश की भी पहली पोस्ंिटग बौर्डर की थी. वे लगातार आतंकवादी हमले और सीजफायर उल्लंघन झेलते रहे. उन की शहादत पर वह फड़फड़ा कर रह गया था. दोनों को ताबूत में विदा कर कितना रोया था. यह साथ इतना छोटा होगा, उसे अंदाजा नहीं था. मौत यहां हरपल मंडराती रहती है. कब उस पार से बरसे मोर्टार्स किस का खून पिएंगे, कुछ पता नहीं चलता.
यहां तो नहीं, हां, देहरादून में कितने शौक से उस ने अपनी पासिंगआउट परेड के लिए कैमरा भी खरीदा और खूब रिकौर्डिंग भी की और अपनी बहन महिमा को यह कह कर पकड़ा दिया था, ‘इस का 4 जीबी मैमोरी कार्ड भर गया है. इसे संभाल कर रखना और इस 8 जीबी के नए मैमोरी कार्ड से अपनी फोटो खींचना. दोनों कार्ड की फोटो अलग भी रहेंगी और सुरक्षित भी.’ मगर उस ने वह मैमोरी कार्ड ही कहीं गुम कर दिया. आईएमए देहरादून की सारी फोटो चली गईं. लखनऊ पहुंच कर जब उसे पता चला कि मैमोरी कार्ड ही खो दिया महिमा ने, तो लगातार 2 दिनों तक अपनी बहन पर चिल्लाता रहा था और उस बेचारी की रोरो कर आंखें सूज गईं. फिर तो मां बहन के पक्ष में आ गईं.
‘क्या आफत हो गई है. कल से तेरा ड्रामा चल रहा है, क्या हो गया? अगर मैमोरी कार्ड खो भी गया तो क्या हो गया,’ मां गुस्से में बोली.
‘अरे मम्मी, मैं ने कैमरा खरीदा ही इसलिए था कि मैं अपनी परेड, अपने साथियों और सब से महत्त्वपूर्ण वह यादगार पल जब आप और पापा ने मेरे कंधे पर लैफ्टिनैंट के स्टार लगाए, की फोटो खींच सकूं. वे सभी फोटो महिमा की लापरवाही से चले गए.’
‘ठीक है. एक बार बोला, दो बार बोला और कितनी बार कहेगा उसे? उसे भी तो अपनी गलती पता है. माफी भी मांग चुकी है और तू है कि चिल्लाता ही जा रहा है.’
कैप्टन राघव सर्जिकल स्ट्राइक को ले कर टैलीविजन पर चल रही बहस और श्रेय लेने की होड़ से ऊब कर, अपना लैपटौप खोल कर बैठ गए. महीनेभर की भागादौड़ी से फुरसत पा कर, आज यह शाम का समय मिला है कि वे कुछ अपने मन की करें. उड़ी आतंकवादी घटना के बाद से ही मन विचलित हो गया था. मगर यह पूरा माह अत्यंत व्यस्त था, इसलिए जागते समय तो नहीं, किंतु सोते समय अवश्य उन मित्रों के चेहरे नजरों के सामने तैरने लगते थे जो इस साल आतंकियों से लोहा लेते शहीद हो गए थे. आज वे लैपटौप में उस पिक्चर फोल्डर को खोल कर बैठ गए जो उन्होंने एनडीए में ट्रेनिंग के दौरान फोटोग्राफर से लिया था. उस फोटोग्राफर को भी केवल खास मौकों पर अंदर आ कर फोटो लेने की इजाजत मिलती थी, वरना वहां कैमरा और मोबाइल रखने की किसी भी कैडेट को इजाजत नहीं थी.
12वीं की परीक्षा के बाद जहां उस के सहपाठी इंजीनियरिंग और मैडिकल कालेज के परिणामों का इंतजार कर रहे थे वहीं वह बेसब्री से एनडीए के परिणाम का इंतजार कर रहा था. हालांकि मां की खुशी के लिए यूपीटीयू के अलावा उस ने और भी अन्य प्रतियोगी परीक्षाएं भी दी थीं मगर इंतजार एनडीए के परिणाम का ही था. यदि लिखित में पास हो गया तो फिर एसएसबी (साक्षात्कार) के लिए तो वह जीजान लगा देगा.
मां को तो पूरा विश्वास था कि वह इस में पास नहीं हो सकता, इसलिए उन्होंने उस परीक्षा को एक बार में ही पास करने की शर्त रख दी थी. उस दिन नीमा मौसी ने मां से बोला भी था, ‘तुम अपने इकलौते बेटे के सेना में जाने से रोकती क्यों नहीं?’ और मां ने कहा, ‘अरे, परीक्षा दे कर उसे अपना शौक पूरा कर लेने दो. परीक्षा में लाखों बच्चे बैठते हैं, लेकिन सिलैक्शन तो 3-4 सौ का ही हो पाता है. कौन सा इस का हो ही जाएगा. मैं तो यही सोच कर खुश हूं कि इसे ही लक्ष्य मान परीक्षा की तैयारियां तो करता है वरना यह भी सड़क पर अन्य नवयुवकों के संग बाइक ले कर स्टंट करता घूमता.’
मौसी चुप हो गईं. मां व मौसी की ये बातें सुन कर मैं जीजान से तैयारी में जुट गया कि कहीं पहली बार में पास नहीं कर पाया तो फिर मां को बहाना मिल जाएगा सेना में न भेजने का. मां हमेशा फुसलातीं, ‘बेटा, सरकारी इंजीनियरिंग कालेज न मिले तो कोई बात नहीं, तुम यहीं लखनऊ के ही किसी प्राइवेट इंजीनियरिंग कालेज में ऐडमिशन ले लेना, घर से ही आनाजाना हो जाएगा.’ मैं कहता, ‘मां, मुझे इंजीनियरिंग करनी ही नहीं, आप समझती क्यों नहीं.’
सोमेश भी तो यही कहता था. यहां आने वाले हर दूसरे कैडेट की यही कहानी है. किस की मां अपने कलेजे के टुकड़े को गोलियों की बौछार के आगे खड़ा कर खुश होगी. सोमेश तो अपने मातापिता की इकलौती औलाद था. उस की मां तो एनडीए में ऐडमिशन के समय साथ ही आई थी. एक हफ्ते पुणे में रुकी रही कि शायद सोमेश का मन बदल जाए तो वे उसे अपने साथ ले कर वापस लौट जाएंगी. भले ही अब जुर्माना भी क्यों न भरना पड़े पर सोमेश न लौटा और उस की मां ही लौट गईं. उस दिन वे कितना रो रही थीं, शायद उन के मन को आभास हो गया था.
मैं और सोमेश एक ही हाउस में थे. शुरू के 3 महीने तो सब से कठिन समय था. कब आधी रात को दौड़ना पड़ जाए, कब तपतपाती गरमी में सड़क पर बदन को रोल करना पड़ जाए, कब दसियों बार रस्सी पर अपडाउन करने का फरमान आ जाए और कब किस समय कौन सा कानून भंग हो जाए, पता ही नहीं चलता था. मगर सजा देने वाले सीनियर के पास पूरा हिसाब रहता और उस सीनियर को सजा देने का हक उस के सीनियर का रहता. हर 6 महीने में एक नया बैच जौइन करता और उसी के साथ अगला बैच सीनियर बन जाता और सब से पुराना बैच, 3 साल पूरे कर पासिंगआउट परेड कर रवाना हो जाता आर्मी गु्रप आइएमए उत्तराखंड के देहरादून में, नेवी ग्रुप अलगअलग अपने जहाज में और एयरफोर्स ग्रुप एयरफोर्स एकेडमी, बेंगलुरु में. बस, यहीं से सभी कैडेट जैंटलमैन में बदल अपनी अलग औफिसर ट्रेनिंग के लिए एकदूसरे से विदा लेते.
प्रवेश के प्रांरभिक 3 महीने सब से कठिन होते. उस समय में जो कैडेट एनडीए में टिक गया, वह फिर जिंदगीभर अपने कदम पीछे नहीं कर सकता. मां की सहेली का भाईर् यहां से महीनेभर में ही वापस चला गया था. तभी से उन के मन में एक भयंकर तसवीर बन गई थी, उसी कठोर प्रशिक्षण के बारे में सुन कर ही वे मुझे यहां नहीं भेजना चाहती थीं. पर वैसे भी, किस की मां खुशीखुशी भेजती है.
सोमेश ने बताया था कि जब वह पहले सैमेस्टर के बाद घर गया तो मां के सामने शर्ट नहीं उतारता था कि वे कहीं पीठ पर बने निशान न देख लें जो डामर रोड पर रोलिंग करने से बन गए थे, वरना वे फिर से हायतौबा मचा कर मुझे वापस ही न आने देतीं. यही हाल मेरी मां का भी था. हर वक्त यही कहती थीं, ‘कितना चुप रहने लगा है, कुछ बताता क्यों नहीं वहां की बात. पहले तो बहुत बोलता था, अब क्या हुआ?’ क्या बोलता मैं, अगर यहां की कठिन दिनचर्या बताता तो फिर वे मुझे भूल कर भी वापस न आने देतीं.
बहन सुनीति बोली थी, ‘मैं ने सुना, 3 साल में आप को वहां से जेएनयू की डिगरी मिलेगी,’
‘हां, तो,’ मैं ने लापरवाही से कहा.
‘वाह, पुणे में रहते हुए, आप को जेएनयू की डिगरी मिल जाएगी, दिल्ली भी जाना नहीं पड़ेगा,’ सुनीति चहकी थी.
‘हां, हम जेएनयू नहीं, बल्कि जेएनयू हमारे पास आएगा,’ मैं ने उसे चिढ़ाया था.
‘अजी, मजे हैं आप के भाई,’ सुनीति बोली.
‘तू भी आ जा, तुझे भी मिल जाएगी,’ मैं ने कहा.
‘न भाई न, मेरे अंदर इतना स्टैमिना नहीं है कि मैं मीलों दौड़ लगाऊं. वह भी पीठ पर वजन लाद कर. न सोने का ठिकाना, न खाने का. इस के बजाय मैं अपनी डिगरी मौज काटते हुए ले लूंगी. आप की तरह मुझे अपने शरीर को कष्ट नहीं देना. इस से कई गुना मस्त हमारी यूनिवर्सिटी है जहां सालभर नारेबाजी, धरना, प्रदर्शन और फैशन परेड ही चलती रहती है.’
बहन और भाई के रिश्ते में प्यार है, तकरार भी. एक को कुछ कष्ट हो तो दूसरे को बरदाश्त नहीं हो पाता. वह मेरी कठिन ट्रेनिंग से हमेशा विचलित हो जाती. जब मैं ने उस से कहा, ‘अब मैं कमांडो ट्रेनिंग पर भी जाऊंगा,’ तो गुस्सा हो गई. ‘क्या जरूरत है इतनी कठिन ट्रेनिंग पर जाने की, आप शांति से अपनी जौब करते रहो, अब और कहीं जाने की जरूरत नहीं.’
शुरुआत में सोमेश तो फिर भी बहुत स्ट्रौंग था पर मोहित अकसर उदास हो जाता था. उस की स्थिति डावांडोल होने लगी थी. एक दिन कहता, ‘घर जाना है’ तो दूसरे ही दिन, ‘यहीं रहना है,’ का राग अलापता. सोमेश उसे समझाबुझा कर मना ही लेता. फिर तो हम तीनों की बहुत अच्छी जमने लगी थी. मोहित हमारा जूनियर था, मगर मौका पा हमारे रूम में झांक ही जाता, ‘सर, कुछ लाना तो नहीं, मैं कैंटीन जा रहा हूं?’
एक दिन आ कर बोला, ‘सर, आ की राखी आ गई?’
‘नहीं, अभी तो बहुत दिन हैं राखी आने के, आ जाएगी, क्यों परेशान हो?’