मुसीबत का सबब बने आवारा पशु

पिछले साल के फरवरी महीने में  मध्य प्रदेश के रायसेन जिले के गांव खापरखेड़ा के जगदीश धाकड़ अपने खेत में लगी गेहूं की फसल में यूरिया डाल रहे थे कि तभी एक आवारा सांड़ खेत में घुस आया, जिसे खदेड़ने के लिए जगदीश दौड़ पड़े.

सांड़ ने भी अपने नथुने फुलाए और सींगो के बल पर जगदीश को जमीन पर पटक दिया. पास के खेत में काम कर रहे कुछ किसानों ने उन्हें अस्पताल पहुंचाया. डाक्टर की सलाह पर जब ऐक्सरे कराया गया, तो जगदीश के दोनों पैर की हड्डियों में फ्रैक्चर निकला.

जगदीश 3 महीने तक बिस्तर पर पड़े रहे. इस दौरान उन की गेहूं की फसल देखरेख की कमी में बुरी तरह बरबाद हो गई. बताया जाता है कि जिस आवारा सांड़ ने उन्हें घायल किया था, उसे गांव  के ही एक दबंग द्वारा किसी माता की पूजापाठ कर के खुला छोड़ा गया था.

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लौकडाउन के पहले दतिया के रेलवे स्टेशन पर आवारा पशुओं का जमावड़ा लगा रहता था. ये आवारा गायबैल मुसाफिरों के खानेपीने की चीजों पर झपट पड़ते थे. क‌ई बार इन आवारा जानवरों के अचानक रेलवे प्लेटफार्म पर दौड़ लगाने से बच्चों, औरतों और बुजुर्गों को चोट भी लग जाती थी.

होशंगाबाद जिले के गांव पचुआ में साल 2018 में चरनोई जमीन पर गांव के कुछ रसूख वाले किसानों ने कब्जा कर लिया, जिस के चलते गांव के आवारा पशु किसानों के खेतों में घुस कर  फसलों को नुकसान पहुंचाने लगे. इस बात को ले कर 2 पक्षों में विवाद हो गया, जिस से एक आदमी की मौत हो गई. दूसरे पक्ष के 2 लोग हत्या के आरोप में हवालात में बंद हैं.

पिछले कुछ सालों में देश के अलगअलग इलाकों में हुई ये घटनाएं बताती हैं कि हमारे देश में पशुओं की आवारगी लोगों के लिए मुसीबत का सबब बन गई है. किसानों की हाड़तोड़ मेहनत से उगाई गई फसल जब आवारा पशु चर लेते हैं तो वे मनमसोस कर रह जाते हैं. गांवकसबों में दबंगों के पाले पशु आवारा घूमते हैं और एससी और बीसी तबके की जमीन पर उगी फसल चट कर जाते हैं. दबंगों के खौफ से इन आवारा पशुओं को कोई रोकने की हिम्मत नहीं कर पाता.

क्या हैं कायदेकानून 

भारतीय संविधान के अनुच्छेद 51(ए) के मुताबिक हर जीवित प्राणी के प्रति सहानुभूति रखना भारत के हर नागरिक का मूल कर्तव्य है. ‘पशु क्रूरता निवारण अधिनियम’ और ‘खाद्य सुरक्षा अधिनियम’ में इस बात का जिक्र है कि कोई भी पशु सिर्फ बूचड़खाने में ही काटा जाएगा और बीमार तथा गर्भधारण कर चुके पशु को मारा नहीं जाएगा.

भारतीय दंड संहिता की धारा 428 और 429 के मुताबिक किसी पशु को मारना या अपंग करना, भले ही वह आवारा क्यों न हो, दंडनीय अपराध है. ‘पशु क्रूरता निवारण अधिनियम’ के मुताबिक किसी पशु को आवारा छोड़ने पर 3 महीने की सजा हो सकती है. पशुओं को लड़ने के लिए भड़काना, ऐसी लड़ाई का आयोजन करना या उस में हिस्सा लेना संज्ञेय अपराध है.

‘पशु क्रूरता निवारण अधिनियम’ की धारा 22(2) के मुताबिक भालू, बंदर, बाघ, तेंदुए, शेर और बैल को मनोरंजक कामों के लिए ट्रेनिंग देने और मनोरंजन के लिए इन जानवरों का इस्तेमाल करना गैरकानूनी माना गया है.

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पीपुल्स फार एनीमल से जुड़े पत्रकार भागीरथ तिवारी बताते हैं कि सुप्रीम कोर्ट ने जीने के मौलिक अधिकार के दायरे का विस्तार करते हुए इस में पशुओं को भी शामिल कर लिया है. सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि भारतीय संविधान के अनुच्छेद 21 के अनुसार बैलों को भी एक स्वस्थ और स्वच्छ वातावरण में रहने का अधिकार है, उन्हें पीटा नहीं जा सकता. न ही उन्हें शराब पिलाई जा सकती है और न ही तंग बाड़ों में खड़ा किया जा सकता है.

हमारे देश की न्याय व्यवस्था भी दोहरे मापदंड वाली है. एक तरफ सुप्रीम कोर्ट कहती है कि आवारा पशुओं को भी खयाल रखो और अपनी फसलों को भी सहीसलामत रखो. व्यवहार में  यह कैसे संभव है? जमीनी हकीकत यह है कि उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश के इलाकों में नीलगाय, सूअर और गाय, बकरी, भैंस जैसे आवारा पशुओं से फसल बचाने के लिए किसान खेतों में रतजगा कर रहे हैं.

आवारा पशुओं को किसान मार भी नहीं सकते, क्योंकि यह गैरकानूनी है. गांवों में खेती करने वाले छोटेछोटे किसानों के पास जो जमीन है, उस पर किसी बड़े फार्महाउस जैसे तार की फैंसिंग नहीं रहती. गरीब, बीसी और एससी पशुपालक अपने पालतू पशुओं को खुद चराने ले जाते हैं, पर ऊंची जाति के दबंगों के पशु बेखौफ आवारा घूमते हैं. देश का कानून भी उपदेशकों जैसे केवल उपदेश भर देता है.

एक दौर था जब पशुपालन किसानों के लिए आमदनी का जरीया हुआ करता था. लोग गायभैंस, बकरी पाल कर इन के दूध, घी, मक्खन को बेच कर घरपरिवार की जरूरतों की पूर्ति करते थे. बैल खेतीकिसानी के कामों में हल, बखर चलाते थे. बैलगाड़ी में किसान अपनी उपज मंडियों तक ले जाते थे. न‌ई तकनीक आने से अब खेती में कृषि उपकरणों का इस्तेमाल बढ़ गया है. इस के चलते पशुपालन में अब किसानों की दिलचस्पी कम हो गई है. अब लोग पालतू पशुओं को दूध देने तक घर में रखते हैं, बाद में उन्हें आवारा छोड़ देते हैं. आजकल गांवकसबों में आवारा पशुओं के चलते फसलों की सुरक्षा एक बड़ी समस्या बन कर उभर रही है.

मौजूदा दौर में खेती में मशीनीकरण से गौवंश के बैल बेकार होने की बात तो समझ में आती है, लेकिन दूध देने वाली गाय के आवारा होने की बात समझ से परे है. गांवशहर से ले कर दिल्ली तक गौवंश की रक्षा की हिमायती सरकार होने के बावजूद भी आज तक पशुओं की आवारगी पर कोई ठोस नीतिनियम नहीं बन पाए हैं.

समस्या की जड़ है पाखंड

धर्म के ठेकेदारों ने गाय को ले कर जो अंधविश्वास और पाखंड फैलाया है, उसे मानने का खमियाजा भी तो समाज ही भुगत रहा है. कपोलकल्पित कथाओं के जरीए पंडेपुजारी लोगों को बताते हैं कि गाय के अंदर 33 करोड़ देवी देवता रहते हैं. जो पंडित को गाय दान में देते हैं, वे कितने ही पाप कर लें, सीधे स्वर्ग पहुंच जाते हैं.

बड़े-बड़े पंडालों में होने वाली कथाओं में बताया जाता है कि दान की गई गाय की पूंछ पकड़ कर स्वर्ग के रास्ते में पड़ने वाली एक वैतरणी नदी को पार करना पड़ता है. इसी पाखंड की वजह से मध्य प्रदेश की एक महिला मुख्यमंत्री तो सड़क पर अपने काफिले को रोक कर गाय को रोटी खिलाती थीं. आखिर लोगों को यह बात समझ में क्यों नहीं आती कि गाय को हरे चारे और भूसे की जरूरत रोटी से कहीं ज्यादा है.

समाजसेवी बृजेंद्र सिंह कुशवाहा कहते हैं कि गौहत्या की चिंता करने वालों को यह चिंता भी करना होगी कि गाय को माता मानने वाले लोग गाय को सड़कों पर मरने के लिए क्यों छोड़ देते हैं? वैसे तो गाय एक बहुपयोगी पशु है, उस के दूध को बहुत गुणकारी माना गया है और आज भी गांवदेहात में कई परिवारों की आजीविका का स्रोत गाय का दूध और उस से बने उत्पाद दही, मक्खन और घी हैं. गाय के गोबर से बने उपले गांवदेहात के लाखों घरों के चूल्हों का ईंधन बने हुए हैं, पर वर्तमान में गाय की बदहाली और अनदेखी भी किसी से छिपी नहीं है.

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गाय के नाम पर सरकारी अनुदान बटोरने वाले तथाकथित गौसेवक गाय का निवाला खा रहे हैं. आधुनिकता की अंधी दौड़ में आज पशुधन से किसान भी विमुख हो रहे हैं. यही वजह है कि गाय जब तक दूध देती है, पशुपालक उस की सेवा करते हैं और जैसे ही गाय दूध देना बंद करती है तो पशुपालक उसे  सड़कों पर खुला छोड़ देते हैं. ऐसे ही लोगो की वजह से गाएं सड़कों पर आवारा घूमती कचरे के ढेर पर प्लास्टिक की पन्नी खाती नजर आती हैं.

मध्य प्रदेश के भोपालजबलपुर नैशनल हाईवे 12 पर आवारा घूमती गायों का समूह सड़क पर घूमता हमेशा नजर आता है. इन में से कुछ गाएं आएदिन ट्रक या दूसरी बड़ी गाड़ियों की चपेट में आ कर मौत का शिकार हो जाती हैं, तो कुछ जिंदगीभर के लिए अपाहिज हो जाती हैं.

सड़कों पर घायल गायों की सुध लेने कोई नहीं आता. औसतन हर 10 किलोमीटर के दायरे में सड़क किनारे मरी पड़ी गाय की बदबू आनेजाने वालों का ध्यान खींचती है, पर किसी जिम्मेदार अफसर या नेता का ध्यान इस ओर नहीं जाता है.

स्थानीय लोग बताते हैं कि गायों की खरीदफरोख्त करने वाले लोग इन गायों को साप्ताहिक लगने वाले एक बाजार से दूसरे बाजार में ट्रकों से ले जाते हैं. कई बार मवेशी बाजार में सही कीमत न मिलने के चलते ट्रांसपोर्ट का खर्चा बचाने या तथाकथित गौरक्षकों के डर से वे उन्हें दूसरे बाजार के लिए नहीं ले जा पाते. कुछ व्यापारी तो गाय के शरीर पर कलर से कोई मार्क बना कर उसे सड़क पर छोड़ देते हैं. अगले हफ्ते वही व्यापारी आ कर उनगायों की तलाश करते हैं और ज्यादातर गाएं उन्हें मिल भी जाती हैं, जिन्हे वे फिर से बाजार में खरीदफरोख्त के लिए ले जाते हैं. आवारा घूमती गायों की यह बदहाली गाय के नाम पर हायतोबा मचाने वाले गौरक्षकों को धत्ता बताती नजर आती है .

मरने-मारने पर उतारू 

गौसेवा का ढोंग करने वाले भगवाधारी घर में भले ही अपने मांबाप का खयाल न रखते हों, पर गौतस्करी करने वाले लोगों को पकड़ कर उन की जान लेने पर उतारू हो जाते हैं.

28 अप्रैल, 2020 को मध्य प्रदेश के रायसेन जिले के उदयपुरा में एक गाय का कटा सिर मिलने की खबर ने माहौल में जहर घोल दिया था. इस मामले में एक समुदाय विशेष की आलोचना से सोशल मीडिया प्लेटफार्म गरमाया हुआ था.

दरअसल, जिस इलाके में गाय का सिर मिला था, वह एक समुदाय विशेष का महल्ला था. इस वज़ह से यही कयास लगाया जाने लगा कि गाय का कत्ल कर के गौमांस निकाल कर सिर फेंका गया है. जब ऐसी घटनाओं से एक समुदाय गुस्से से भर दूसरे समुदाय पर लानतें भेजने लग जाए तो विश्वास का संकट खड़ा हो जाता है. गौहत्या और गौतस्करों पर सियासत करने वाले लोग मौका पाते ही हर घटना को सांप्रदायिक रंग देने से पीछे नहीं हटते हैं.

इस तरह की घटनाओं का दुखद पहलू यह भी है कि गौहत्या का विरोध कर के गुस्से में आ कर मरनेमारने पर उतारू लोग भीड़ तंत्र का हिस्सा तो बन जाते हैं, पर गायों की आवारगी पर बात नहीं करना चाहते.

हो रही हिंसा और चंदा वसूली  

मध्य प्रदेश में तो बाकायदा गौसेवा आयोग बना कर उस के अध्यक्ष को राज्यमंत्री का दर्जा भी दिया जाता है, पर प्रदेश में गायों की बदहाली गौसेवा आयोग के वजूद पर ही सवालिया निशान लगाती ही लगाती है.

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मध्य प्रदेश के कई शहरों में छोटीबड़ी दुकानों पर गाय की आकृति वाली प्लास्टिक की चंदा जमा करने वाली गुल्लक रखी रहती हैं, जिन में दुकान पर आने वाले ग्राहक चंदे के नाम पर कुछ रकम डालते हैं. ऐसे ही एक दुकानदार से सवाल करने पर बताया गया कि गौशाला चलाने वाली संस्थाओं के नुमाइंदे इन गुल्लकों को दुकान पर छोड़ जाते हैं और एक निश्चित समय पर उस की रकम को निकाल कर ले जाते हैं.

गौशाला चलाने वाले ज्यादातर लोग किसी न किसी राजनीतिक दल से जुड़े होते हैं, जो स्वयंसेवी संस्था बना कर शासकीय अनुदान का जुगाड़ करने में माहिर होते हैं. सड़कों पर आवारा घूमती गायों और इन गुल्लकों को देख कर यह सवाल बरबस ही उठता है कि आखिर गौसेवा के नाम पर उगाहे जा रहे इस चंदे का इस्तेमाल कौन सी गायों की सेवा पर किया जाता हैं?

हालांकि कुछ ऐसी गौशालाएं आज भी हैं जो बिना चंदे या शासकीय अनुदान के प्रचार से कोसों दूर निर्बल और रोगी गायों की सेवा का काम कर रही हैं. पर बहुत से संगठन गौसेवा के नाम पर देश में हिंसा फैला रहे हेैं. गौरक्षकों की टोली आएदिन सड़कों पर गायों का परिवहन करने वाले ट्रकों को रोक कर ड्राइवर और क्लीनर से मारपीट कर उन से चौथ वसूली करने में भी पीछे नहीं रहती हैं.

सवाल यह भी उठता है कि सड़कों पर आवारा घूमती गायों को देख कर इन गौरक्षकों का खून क्यों नहीं खोलता? गौहत्या और गौमांस के मुद्दे पर कानों सुनी बातों पर मौब लिंचिंग पर उतारू इन भक्तों की भीड़ को सोचना होगा कि गाय को मां का दर्जा दे कर इस तरह सड़कों पर आवारा छोड़ना भी कोई धर्म नहीं है. गाय को आवारगी से मुक्त करा कर  उस के पालक बनने की पहल भी उन्हें करनी होगी.

चरनोई जमीन पर कब्जा 

पशु चिकित्सा क्षेत्र अधिकारी हरिहर बुनकर मानते हैं कि पशुओं की आवारगी की एक अहम वजह चरनोई जमीन का न होना भी है. चरनोई जमीन पर गांवकसबों के रसूख वाले लोगों ने कब्जा कर रखा है. सरकारी जमीन पर एससी और बीसी तबके द्वारा अपने परिवार का पेट पालने के लिए खेती करने पर पुलिस द्वारा पिटाई करती है, लेकिन दबंगों की दबंगई के आगे पुलिस और बड़े अफसरों को सांप सूंघ जाता है.

चरनोई जमीन न होने से पशु आवारा घूमते हैं और फसलों को नुकसान पहुंचाते हैं, जिस से क‌ई बार लड़ाई-झगड़े के हालात भी बन जाते हैं.

आवारा पशुओं की समस्या का समाधान केवल जुमलों से होने वाला नहीं है. इस के लिए सरकार को चरनोई जमीन को दबंगों के चंगुल से मुक्त कराना होगा. बीमार, लाचार, आवारा पशुओं को गौशालाओं में पहुंचा कर गांवकसबों में चरनोई जमीन का रकबा तय कर के और व्यावहारिक कानून बना कर आवारा पशुओं की समस्या से नजात मिल सकती है.

वन्य प्राणी “दंतैल हाथियों” की हत्या जारी

छत्तीसगढ़ में आए दिन वन्य प्राणी हाथियों को मारा जा रहा है. कभी जहर दे कर, अभी करंट से और कभी भूख प्यास से हाथी मारे जा रहे हैं. आज 28 सितंबर को सुबह सुबह छत्तीसगढ़ के गरियाबंद के “धवलपुर वन परीक्षेत्र” से एक हाथी के करंट से मारे जाने की दुखद खबर आई है.

दरअसल, छत्तीसगढ़ सरकार को दुर्लभ वन्य प्राणियों के संरक्षण की गंभीर पहल करनी चाहिए मगर जमीनी हालात यह है कि  बेवजह हाथी मारे जा रहे हैं,और हत्यारे साफ बच निकलते हैं. विपक्ष भाजपा नेता इस मसले पर निरंतर मुख्यमंत्री भूपेश बघेल व वन मंत्री मोहम्मद अकबर को घेर रहे हैैं. सामाजिक कार्यकर्ता हाई कोर्ट तक अपनी आवाज बुलंद कर रहे हैं. मगर सरकार के कानों में जूं तक नहीं रेंग रही . अब स्थिति यह है कि आए दिन अखबारों में यह समाचार सुर्खियों में रहता है कि एक और हाथी मरा बिजली के कर्रेंट से……धरमजयगढ़ बना हाथियों का “मौतगढ़”….. बिजली करंट से प्रदेश में हुई मौतों में से आधी सिर्फ धरमजयगढ़ में!

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जबकि हकीकत यह है कि सरकार के कुंभकरणी  नींद के कारण वन विभाग और बिजली कंपनी में मिलीभगत से लगातार हाथी जैसे विशालकाय वन्य प्राणी  की मौत हो रही है. और सरकार का वन अमला सिर्फ कागजी खाना पुर्ती में लगा रहता है.

नर हाथी कैसे मारा गया?

छत्तीसगढ़ के जिला रायगढ़ के धरमजयगढ़ के  मेंढ़रमार गांव में बोर के लिए खींचे गए नंगे तार की चपेट में आने से हुई नर हाथी की मौत पर दुख व्यक्त करते हुए सामाजिक कार्यकर्ता नितिन सिंघवी ने वन विभाग और बिजली कंपनी के अधिकारियों पर आरोप लगाया  है कि इन दोनों विभागों की मिलीभगत के कारण विलुप्ति के कगार पर खड़े मूक प्राणी “हाथियों” की मौतें हो रही है.

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छत्तीसगढ़ निर्माण के पश्चात बिजली करंट से प्रदेश में 46 हाथियों की मौतें हुई है, इनमें से 24 मौतें सिर्फ  जिला रायगढ़ के धर्मजयगढ़ वन मंडल में हुई है अर्थात बिजली से मरने वाले हाथियों में 52% अकेले धरमजयगढ़ में मरे हैं. छत्तीसगढ़ में अभी तक कुल 163 हाथियों की मौतें हुई है जिसमें से 46 हाथी बिजली करंट से मरे हैं.

हाईकोर्ट के आदेश की धज्जियां उड़ा रहे हैं विभाग

एक जनहित याचिका के बाद छत्तीसगढ़ उच्च न्यायालय ने आदेश जारी कर कहा था कि -“आंकड़े बताते हैं कि धरमजयगढ़ में बिजली करंट से सबसे ज्यादा मौतें हो रही हैं इसलिए वन विभाग के अधिकारी, राज्य शासन के अधिकारी और बिजली कंपनी के अधिकारी फोकस करेंगे कि धर्मजयगढ़ में अब एक भी हाथी की मौत बिजली करंट से नहीं हो।”

जबकि तथ्य बताते हैं कि एक भी अधिकारी हाईकोर्ट के आदेश का पालन करने में तत्पर नहीं रहा है. नितिन संघवी बातचीत में बताते हैं- धरमजयगढ़ में हाथियों की मौत बिजली करंट से लगातार हो रही है, यह उच्च न्यायलय के आदेशों की अवमानना है.

मामले का वन विभाग वाले करते हैं रफा-दफा

एक प्रकरण का खुलासा यह है- धर्मजयगढ़ की छाल रेंज में 6 जून 2016 को एक मादा हथनी की मौत हो गई. इसके बाद वहां के वन परिक्षेत्र अधिकारी ने कनिष्ठ यंत्री विद्युत वितरण कंपनी एडु (चंद्रशेखरपुर) और सहायक यंत्री विधुत वितरण कंपनी खरसिया को नोटिस दिया की विधुत तारों के सुधार कार्य के लिए उसके पूर्व उनके द्वारा पांच पत्र लिखे जा चुके हैं. और 6 जून 2016 को 11000 वोल्टेज हाई टेंशन लाइन की चपेट में आने से मादा हथनी की मौका स्थल पर मृत्यु हो गई है .

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घटनास्थल पर विधुत लाइन के तीन तारों में से एक तार टूट कर जमीन पर गिरा और मृत हथिनी के शरीर से लगा था जिसमें प्रभावित विद्युतीकरण के कारण मादा हथनी की मौत हुई तथा उस क्षेत्र में जमीनों पर घास भी जले मिले.

विधुत लाइन खंबे में लगे 2 तारों की ऊंचाई घटनास्थल पर जमीन सतह से 3 मीटर की थी. यह जाहिर है कि जिस तार की चपेट से मादा हथनी की मृत्यु हुई वह तार भी कम ऊंचाई पर था इसलिए बिजली कंपनी के अधिकारियों पर वन प्राणी संरक्षण अधिनियम 1972 भारतीय दंड संहिता तथा विभिन्न अधिनियम के तहत क्यों ना कार्यवाही की जाए?

मामले को रफा-दफा करने के लिए, कुछ दिनों बाद उप-वनमंडलअधिकारी ने वन मंडलअधिकारी धर्मजयगढ़ को पत्र लिखा की बिजली कंपनी वालों ने ग्रामीणों और सरपंच के साथ घटनास्थल का मुआयना किया.हथिनी के सूंड में फंसी पत्तियों को देखकर ग्रामीणों ने कहा कि संभवत: हथिनी ने समीपस्थ वृक्ष की पत्तियों को तोड़ने के लिए अपनी सूंड ऊपर उठाई होगी. जिससे सूंड का  संपर्क 11kv लाइनों के तार से हो गया होगा.अन्यथा सामान्य तौर पर लाइनों की ऊंचाई पर्याप्त थी. ग्रामवासियों और सरपंच ने बताया कि हथिनी द्वारा विद्युत खंभे से छेड़छाड़ की गई है.  उप वनमंडलअधिकारी ने वन मंडलाधिकारी को लिखा कि यह  एक दुर्घटना प्रतीत होती है. इस प्रकार बिना जाँच किये बिजली कंपनी, ग्रामवासियों और सरपंच के बयानों  के आधार पर  मामला रफा-दफा कर दिया गया जब कि खुद वन विभाग ने उस इलाके में बिजली तारों को ऊँचा करने के लिए कई पत्र लिख रखे थे. सामाजिक कार्यकर्ता सिंघवी ने बताया कि इस प्रकरण की मुख्यालय में शिकायत करने के बाद भी मुख्यालय के अधिकारियों द्वारा कोई जांच भी नहीं की गई है.

दस्तावेज पर कुंडली मारे बैठे

6 जून 2016 को जो मादा हथनी मरी थी, उसके संबंध में जारी नोटिस के और जवाब कोई सार्वजनिक  नहीं करना चाहता. तब के तत्कालीन डीएफओ ने यह कहकर सूचना नहीं दी कि आपको जानकारी दे देंगे तो आप अपराधियों को पकड़ने और अभियोजन की प्रक्रिया में अड़चन डाल सकते हैं. सामाजिक कार्यकर्ता सिंघवी ने वन विभाग के अधिकारियों की इस शर्मनाक सोच को दुर्भाग्य पूर्ण बताते हुए कहा कि अगर उस वक्त वो जवाब की प्रति दी देते तो बिजली कंपनी के अधिकारियों को बचा नहीं पाते.इससे स्पष्ट होता है कि वन विभाग के अधिकारी बिजली कंपनियों के अधिकारियों को बचाने के लिए किसी भी हद तक जा सकते हैं.

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हाथियों के मृत्यु  प्रकरण में क्या कार्यवाही हुई?

सिंघवी ने बताया कि वन विभाग के मुख्यालय ने डीएफओ धरमजयगढ़ से पूछा गया कि उनके क्षेत्र में विधुत करंट से मरे  हाथियों के प्रकरण में क्या-क्या कार्रवाई की गई हैं? तो जवाब में डीएफओ ने बताया कि 18 जून 2020 तक 23 हाथियों की मौत हुई है जिसमें से  11 मौतों के मामले में वह परिक्षेत्र अधिकारी से जानकारी ले करके बताएंगे. सिंघवी ने कहा कि वन विभाग के अधिकारी हाथियों की मौत को लेकर के चिंतित ही नहीं है और उन्हें पता ही नहीं कि हाथियों की मौत बिजली करंट से होने के बाद में दोषियों के विरुद्ध क्या कार्यवाही की गई. नितिन

सिंघवी ने भूपेश बघेल सरकार से मांग की है कि हाथी विचरण इलाके के वनग्रामो में बोर और खेतों में जा रहे तारों को वन विभाग चिन्हित करे और सभी तारों को कवर्ड कंडक्टर के बदलने के लिए बिजली कंपनी को दे. बिजली कंपनी अपने वित्तीय संसाधनों से कवर्ड कंडक्टर लगाए और वन क्षेत्रों में बिजली तारों की ऊंचाई बढ़ाएं. छत्तीसगढ़ के संदर्भ में कहा जा सकता है कि हाईकोर्ट , विपक्ष भाजपा और विधानसभा में मामले उठने के बाद भी भूपेश बघेल सरकार आंखों में पट्टी बांधकर सो रही है.

कुल्हाड़ी से वार पर वार : ऊंटनी का बच्चा हुआ हलाल

यह मामला बेहद अमानवीय और इनसानियत को शर्मसार करने वाला है. बेजुबान जानवर ऊंटनी के बच्चे की गलती सिर्फ इतनी थी कि उस ने खेत में जा कर फसल खराब कर दी थी. इतनी सी गलती के लिए 3 लोगों ने न सिर्फ उस पर कुल्हाड़ी से ताबड़तोड़ वार किया, बल्कि उस की आगे की टांगें भी काट दीं. इलाज के दौरान देर रात उस ऊंटनी के बच्चे की मौत हो गई.

बेजबान जानवरों को भले ही जबान न दी गई हो, पर वह समझता हर बात है. चाहे वह गायभैंस, भेड़बकरी हों या गधासांड या फिर हाथी, शेर, चीता, सांपबिच्छू वगैरह ही क्यों न हों. लेकिन इन पर अत्याचार के मामले देशभर में थमने का नाम ही नहीं ले रहे. चाहे केरल में गर्भवती हथिनी को विस्फोटक भरा अनानास खिलाने का मामला हो या राजस्थान के चूरू जिले की सरदारशहर तहसील के साजनसर गांव में ऊंटनी के बच्चे को कुल्हाड़ी से काटने का.

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18 जुलाई, 2020 को राजस्थान के चूरू जिले की सरदारशहर तहसील के साजनसर गांव में यह ताजा मामला देखने को मिला, जहां एक ऊंटनी के 4 साला बच्चे के साथ कुछ दबंग युवकों ने बर्बरता की. इतना ही नहीं, ऊंटनी के बच्चे पर आरोपियों ने ताबड़तोड़ कुल्हाडियों से वार किए. साथ ही, उस के आगे के पैरों को तोड़ कर अलग कर दिया.

दर्द से कलपते ऊंटनी के बच्चे को बचाने गए 2 लोगों को भी आरोपियों ने कुल्हाडी से काट देने की धमकी दी.

घायल ऊंटनी के बच्चे को गांव कल्याणपुरा बिदावतान की गौशाला में इलाज के लिए पहुंचाया गया, जहां देर रात दम तोड दिया.

पुलिस से मिली जानकारी के मुताबिक, मेहरासर चाचेरा गांव के ओमप्रकाश सिंह ने सरदारशहर थाने में इस मामले की शिकायत  दर्ज कराई. गांव के पन्नाराम, गोपीराम और लिछूराम के खिलाफ दी गई शिकायत में बताया कि ये ही 2 बाइक से उस का पीछा कर रहे थे.

प्रत्यक्षदर्शी ओमप्रकाश सिंह के मुताबिक, 18 जुलाई की सुबह 10 बजे वे गांव साजनसर की गोचर जमीन में अपने पशु चरा रहे थे. इस दौरान उन के साथ वहां नोपाराम जाट भी थे, तभी  एक ऊंटनी का बच्चा भागता हुआ आया. उस के पीछेपीछे 2 मोटरसाइकिल पर 3 लोग पीछा करते हुए आए.

ऊंटनी का बच्चा बदहवास भागा जा रहा था, तभी आगे का रास्ता बंद होने से जैसे ही वह रुका, तो उसे तीनों ने घेरा दे कर जमीन पर पटक दिया और कुल्हाड़ी से उस के आगे के दोनों पैर काटने लगे.

इस दौरान ऊंटनी का बच्चा तड़पता रहा, कलपता रहा, पर उन दरिंदों के दिल नहीं पसीजे. उस की आवाज सुन कर कुछ लोग वहां पहुंचे, तो आरोपियों ने उन्हें भी जान से मारने की धमकी दे दी.

उन दबंगों या कहें दरिंदों का कहना था कि इस ऊंटनी के बच्चे ने हमारे खेत में नुकसान किया है, लेकिन लोगों ने जब शोर मचाना शुरू किया, तो तीनों मोटरसाइकिल ले कर भाग गए. बाद में पुलिस को खबर की गई और घायल ऊंटनी के बच्चे को गांव कल्याणपुरा बिदावतान की गौशाला में इलाज के लिए पहुंचाया गया था, जहां देर रात उस ने दम तोड दिया.

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18 जुलाई, 2020 को गांव के पन्नाराम, गोपीराम और लिछमणराम के खिलाफ ओमप्रकाश सिंह की शिकायत सरदारशहर थाने में ले ली गई और अगले दिन यानी 19 जुलाई, 2020 को पुलिस ने इन तीनों को गिरफ्तार कर लिया, पर आने वाले समय में देखते हैं कि कोर्ट में इन तीनों पर क्या कार्यवाही होती है?

इन तीनों ने 4 साल की ऊंटनी के बच्चे को बड़ी  निर्ममतापूर्वक मारा, काटा, जगहजगह जख्मी किया.  इनसानियत को शर्मसार करने वाली ऐसी वारदात अब कम ही  लोगों के दिल दहलाती है. वजह, इनसानियत धीरेधीरे खत्म जो होती जा रही है. वहीं सोचनेसमझने की ताकत भी.

पर क्या किसी को मार देने से उस नुकसान की भरपाई हो पाएगी? नामुमकिन. पर, ऐसे बेजबान जानवरों के साथ अमानवीयता की सारी हदें लांघ दी जाती हैं. कोई हमदर्दी नहीं, कोई रहम नहीं. यही वजह है कि ये बेजबान जानवर भी अनदेखी के शिकार होते जा रहे हैं.

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