26जनवरी, 2021 से पहले दिल्ली के बौर्डर पर कुहरे की तरह जमा दिखने वाला किसान आंदोलन भीतर ही भीतर उबलते दूध सा खौल रहा था. ऊपर आई मलाई के भीतर क्या खदक रहा था, यह किसी को अंदाजा तक नहीं था.

गणतंत्र दिवस पर एक तरफ जहां देश परेड में सेना की बढ़ती ताकत से रूबरू हो रहा था, वहीं दूसरी तरफ किसानों की ‘ट्रैक्टर परेड’ दिल्ली में हलचल मचाने को उतावली दिख रही थी.

इस के बाद जो दिल्ली में हुआ, वह दुनिया ने देखा. लालकिला, आईटीओ और समयपुर बादली पर किसान और पुलिस आमनेसामने थे. किसान संगठनों ने पुलिस और पुलिस ने किसानों में घुसे दंगाइयों पर इलजाम लगाया.

‘ट्रैक्टर परेड’ की हिंसा पर दिल्ली पुलिस ऐक्शन में दिखी. 33 मुकदमों में दंगा, हत्या का प्रयास और आपराधिक साजिश की धाराएं लगाई गईं. किसान नेता राकेश टिकैत, योगेंद्र यादव और मेधा पाटकर समेत कई लोगों को नामजद किया गया.

इतना ही नहीं, दिल्ली पुलिस की स्पैशल सैल ने सिख फौर जस्टिस के खिलाफ यूएपीए और देशद्रोह की धाराओं में मामला दर्ज किया.

इस किसान आंदोलन से एक सवाल भी उठा कि अगर लोकतंत्र में किसी को भी शांति के साथ अपनी बात आंदोलन के जरीए रखने का हक है, तो सरकार उसे कैसे हैंडल करती है? यह भी देखने वाली बात होती है कि इस सब से जुड़ी खबरों को जनता के पास कैसे पहुंचाना है, इस में मीडिया की कितनी और कैसी जिम्मेदारी होनी चाहिए?

किसी आंदोलन को दंगे में बदलते ज्यादा देर नहीं लगती है, यह दुनिया ने 26 जनवरी को दिल्ली में देखा. इस में गलती किस की थी, यह तो आने वाले समय में सामने आ जाएगा, पर इस या इस से पहले हुए किसी भी दंगे को मीडिया ने कैसे कवर किया, इस पर भी ध्यान देना बड़ा जरूरी है, क्योंकि यह बड़ा ही संवेदनशील मामला जो होता है. जरा सी चूक हुई नहीं कि खुद मीडिया ही दंगे में आग में घी डालने का काम कर देता है.

ये भी पढ़ें- कोरोनिल: बाबा रामदेव के सफेद झूठ

ऐसे ही एक मामले में सुप्रीम कोर्ट ने 28 जनवरी, 2021 को तबलीगी जमात मामले में हुई मीडिया रिपोर्टिंग पर केंद्र सरकार की खिंचाई कर दी थी. उस ने कहा था कि उकसाने वाले टैलीविजन प्रोग्राम रोकने के लिए सरकार कुछ भी कदम नहीं उठा रही है.

सुप्रीम कोर्ट ने 26 जनवरी पर 3 कृषि कानूनों के विरोध में हुई हिंसा के बाद इंटरनैट सेवा बंद किए जाने के मामले का जिक्र करते हुए कहा था कि निष्पक्ष और ईमानदार रिपोर्टिंग करने की जरूरत है. समस्या तब पैदा होती है, जब इस का इस्तेमाल उकसाने के लिए किया जाता है.

याद रहे कि लौकडाउन के दौरान तबलीगी जमात के बारे में हुई मीडिया रिपोर्टिंग पर जमीअत उलेमा ए हिंद ने याचिका दायर कर आरोप लगाया था कि कुछ टैलीविजन चैनलों ने निजामुद्दीन मरकज की घटना से जुड़ी फर्जी खबरें दिखाई थीं.

कोर्ट ने इस याचिका पर केंद्र सरकार से कहा था कि वह बताए कि आखिर इस तरह की खबरों से निबटने के लिए वह क्या कदम उठाएगी.

जब से दुनियाभर में सोशल मीडिया ने अपनी जड़ें जमाई हैं, तब से मोबाइल फोन के कैमरों से ऐसेऐसे सच सामने आए हैं, जिन को जनता के सामने पेश होना भी चाहिए या नहीं, यह एक बड़ा गंभीर सवाल है. अब तो ‘औफ द रिकौर्ड’ वाली बात ही खबर है, क्योंकि वह सनसनीखेज ज्यादा होती है. पर यह सनसनी समाज के सामने कैसे पेश करनी है, इस की जिम्मेदारी कोई लेने को तैयार नहीं है.

कुछ समय पीछे जाएं तो पता चलेगा कि तब अखबारों और पत्रिकाओं में लिखे हुए शब्दों को लोग बड़ी गंभीरता से लेते थे. किसी आंदोलन और दंगे के समय तो प्रैस की आचार संहिता का कड़ाई से पालन किया जाता था. दंगे में हुई हिंसा में शामिल और शिकार समुदाय की पहचान और तादाद नहीं बताई जाती थी.

पर आज जैसे ही इन बातों का खुलासा होता है कि फलां जगह हुई हिंसा में एक समुदाय ने दूसरे समुदाय को इतना नुकसान पंहुचाया, उस से लोगों में बड़ी तीव्र प्रतिक्रिया होती है. इस से दंगा खत्म होने के बजाय बढ़ जाता है या बढ़ने के चांस होते हैं.

हालिया रिंकू शर्मा हत्याकांड में दिल्ली में 2 समुदायों के बीच नफरत फैलाने में सोशल मीडिया में तैरते वे वीडियो भी कम कुसूरवार नहीं हैं, जिन में इस हत्याकांड से जुड़े फुटेज थे. ऐसे फुटेज पुलिस को मामले की तह में जाने के लिए तो मददगार साबित होते हैं, पर जब वे वीडियो मीडिया दुनिया को दिखाता है तो बात गंभीर हो जाती है.

मामला तब और ज्यादा पेचीदा हो जाता है, जब मीडिया और सरकार का गठजोड़ हो जाता है. इस में मीडिया वालों के अपने निजी फायदे, धार्मिक पूर्वाग्रह और सांप्रदायिक पक्षपात बड़ी तेजी से काम करते हैं.

यह ‘गोदी मीडिया’ शब्द सब के सामने यों ही नहीं आया है. दिल्ली के शाहीन बाग में धरने पर बैठे लोगों ने खास सोच के टैलीविजन चैनलों को अपने पास फटकने नहीं दिया था, क्योंकि उन के मुताबिक वे चैनल सरकारी एजेंडा के मद्देनजर उन के धरने को कमजोर करने की साजिश कर रहे थे. यही सब हालिया चल रहे किसान आंदोलन में भी देखने को मिला है.

कठघरे में खबरची

किसी संवेदनशील खबर को कैसे जनता के सामने पेश करना है और उस से जुड़े फोटो या वीडियो को दिखाना भी है या नहीं, इस की सम झ किसी पत्रकार को तभी आ सकती है, जब उसे इस बात की ट्रेनिंग मिली हुई हो. सब से पहले खबर देने के चक्कर में बड़ेबड़े पत्रकार भी इन बातों की अनदेखी कर देते हैं. सब से बड़ा जुर्म तो सुनीसुनाई बातों के आधार पर खबर बना देना होता है.

अगर आप को 11 सितंबर, 2001 को अमेरिका में हुआ आतंकी हमला याद है, तो यहां यह बता देना बड़ा जरूरी है कि इस में हजारों लोगों की जान चली गई थी. इस के बावजूद सीएनएन, बीबीसी, फौक्स न्यूज और दूसरे बड़े मीडिया चैनलों ने इस घटना में मारे गए लोगों की क्षतविक्षत लाशों को नहीं दिखाया था.

भारत में ऐसी संवेदनशीलता की कमी दिखती है. न्यायमूर्ति पीबी सावंत (आप भारतीय प्रैस परिषद के अध्यक्ष रहे थे) ने 23 मार्च, 2002 के राष्ट्रीय सहारा अखबार के ‘हस्तक्षेप’ में ‘दंगा और मीडिया’ विषय पर अपने एक लेख में गुजरात दंगे पर लिखा था, ‘गुजरात के ताजा हालात में गुजराती के कई अखबारों ने ऐसी खबरें छापीं, जिन से कम होने के बदले दंगा और बढ़ता गया.’

ये भी पढ़ें- ‘सड़क से संसद तक लड़ाई लड़ेंगे’: तुलेश्वर सिंह मरकाम

गोधरा की घटना के बाद अखबारों ने सरकार के साथ मिल कर हिंदू समुदाय की भावनाओं को भड़काने में मुख्य भूमिका निभाई. वहां के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी ने ‘स्टार’ चैनल की आलोचना की, क्योंकि यह चैनल सरकारी मशीनरी की विफलता और दंगों में स्थानीय पुलिस की भागीदारी को बेनकाब कर रहा था. दूसरी ओर ‘आजतक’ की तारीफ की, क्योंकि यह चैनल जिस कंपनी का है, वह इस समय दक्षिणपंथी रु झान को प्रश्रय दे रही है.’

इलैक्ट्रौनिक मीडिया में तो टीआरपी में कैसे सब को पछाड़ना है, यह सोच हावी हो जाती है. बड़े पत्रकार भी इस बीमारी से अछूते नहीं हैं. ‘रिपब्लिक टीवी’ के एडिटर इन चीफ अरनब गोस्वामी पर टीवी रेटिंग एजेंसी बार्क के सीईओ रह चुके पार्थ दासगुप्ता ने इलजाम लगाया था कि फर्जी टीआरपी मामले में उन्हें 40 लाख रुपए की रिश्वत दी गई थी.

सब से खतरनाक हालात तब होते हैं, जब कोई केस कोर्ट में चल रहा हो, तब मीडिया अपना खुद का विश्लेषण, गवाही और नतीजा बता कर एक समानांतर केस चलाने लगे, जिस आम जनता खुद आरोपियों को कुसूरवार या बेकुसूर मानने लगे, तो इसे ‘मीडिया ट्रायल’ कहा जाता है.

फिल्म कलाकार सुशांत सिंह राजपूत के खुदकुशी मामले में यह ‘मीडिया ट्रायल’ अपनी हद पर दिखा था. इस के चलते किसी शख्स को होने वाले नुकसान को सुप्रीम कोर्ट ने गंभीरता से लेते हुए कहा कि इस पर अंकुश लगाने की जरूरत है.

आपराधिक मामलों में मीडिया की रिपोर्टिंग को ले कर दिशानिर्देश जारी करने पर भी बड़ी अदालत ने विचार करने का फैसला लिया है.

चीफ जस्टिस जेएस खेहर की अध्यक्षता वाली पीठ ने कहा कि किसी आपराधिक मामले में एफआईआर दर्ज की जाती है और आरोपियों को गिरफ्तार किया जाता है. पुलिस संवाददाता सम्मेलन कर आरोपियों को मीडिया के सामने पेश करती है. इस आधार पर मीडिया में आरोपियों के बारे में खबरें चलती हैं, लेकिन अगर बाद में आरोपी बेकुसूर साबित हो जाता है, तब तक  उस शख्स की साख पर बट्टा लग चुका होता है.

ये भी पढ़ें- रालोपा ने भी कहा राजग को अलविदा

इस तरह की खबरें मीडिया की विश्वसनीयता को कम करती हैं. अपने फायदे के लिए खबरों को गढ़ना, उन में मिर्चमसाला लगाना, आंदोलनकारी को दंगाई दिखाना ऐसा अपराध है, जो समाज को बांटता है, उस में नफरत के बीज बोता है और देश को उस अराजकता की तरफ धकेल देता है, जो हर तरफ जहर ही फैलाती है.

याद रखिए कि मीडिया का काम समाज की त्रुटियों और विसंगतियों को जनता के सामने पेश करना होता है, पर उसे वक्त की नजाकत को भांप कर रिपोर्टिंग करनी चाहिए. सच को पेश करना भी एक कला है, जिस में पत्रकार की निडरता के साथसाथ उस की निष्पक्षता का तालमेल होना बहुत  जरूरी है. कम से कम संवेदनशील मामलों में तो इस बात का खास खयाल रखना चाहिए.

और कहानियां पढ़ने के लिए क्लिक करें...