सरकारी अस्पताल का मतलब है सरकार द्वारा बनवाया गया ऐसा अस्पताल जहां तकरीबन मुफ्त में ऐसे गरीब लोगों का इलाज भी हो जाए, जो बड़े और महंगे प्राइवेट अस्पताल में जाने की सपने में भी नहीं सोच सकते हैं. ऐसे सरकारी अस्पताल हर राज्य के हर बड़े शहर में बनाए जाते हैं, ताकि आसपास के गरीब लोगों को कम समय में ही इलाज की सुविधा मिल सके.

हरियाणा के फरीदाबाद शहर में बादशाह खान अस्पताल ऐसा ही सरकारी अस्पताल है. साल 2020 के आखिर में मुख्यमंत्री मनोहर लाल के आदेश पर इस अस्पताल का नाम बदल कर हमारे देश के प्रधानमंत्री रह चुके अटल बिहारी वाजपेयी के नाम पर कर दिया गया है.

यह फरीदाबाद का एकलौता 200 बिस्तर का सरकारी अस्पताल है, जिस में रोजाना हजारों की तादाद में मरीज इलाज कराने के लिए आते हैं. पर क्या नाम बदलने से इस अस्पताल की हालत में कोई बदलाव हुआ है या सिर्फ वोट की राजनीति के चलते ही ऐसा हुआ है? वजह, यह अस्पताल कुछ ऐसी खबरों के लिए भी सुर्खियों में रहा है, जो इनसानियत को शर्मसार कर देती हैं.

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साल 2019 की बात है. महीना था अगस्त का. फरीदाबाद के इसी बीके अस्पताल में इलाज कराने आई 12 साल की एक बच्ची के साथ अस्पताल के एक मुलाजिम ने कथिततौर पर छेड़छाड़ कर दी थी.

पुलिस के मुताबिक, 12 साल की उस बच्ची को कुछ दिन पहले चोट लग गई थी. वह अपनी मां के साथ अस्पताल में पट्टी कराने आई थी. पट्टी करने के दौरान आरोपी ने बच्ची के साथ गलत हरकत की. बच्ची ने अपनी मां को बता दिया. बच्ची की मां ने अस्पताल में हंगामा करना शुरू कर दिया. सूचना मिलने पर महिला थाना पुलिस ने आरोपी मुलाजिम, जो कंपाउंडर था, को हिरासत में ले लिया.

इतना ही नहीं, एक बार तो यह अस्पताल इस खबर की भी सुर्खियां बना था कि जब किसी के बच्चा पैदा होता है तो वहां का स्टाफ बच्चे के पिता या दूसरे परिवार वालों से ‘बधाई’ के पैसे नहीं ले लेता, तब तक जच्चाबच्चा को आपरेशन थिएटर से वार्ड में नहीं भेजा जाता है. एक तरह की वसूली या जबरदस्ती की जाती है.

बीके अस्पताल में भ्रष्टाचार भी हद तक है. एक हालिया खबर की बानगी देखिए. फरीदाबाद के एसजीएम नगर के नवीन की मां की कुछ महीने पहले इलाज के दौरान मौत हो गई थी. यह इलाज चिमनीबाई धर्मशाला के पास प्राची अस्पताल में कराया गया था.

नवीन ने प्राची अस्पताल के डाक्टर सुरेश पर इलाज में लापरवाही बरतने का आरोप लगाते हुए सिविल सर्जन को लिखित में शिकायत दी. सिविल सर्जन ने इस मामले की जांच का जिम्मा बीके अस्पताल के एनीथिसिया महकमे के एचडीओ डाक्टर नवदीप सिंघल को सौंप दिया.

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आरोप है कि इस मामले की जांच के दौरान डाक्टर सुरेश और डाक्टर नवदीप सिंघल पीड़ित नवीन पर शिकायत वापस लेने के लिए दबाव डाल रहे थे. यह भी आरोप है कि मामले को रफादफा करने के लिए वे दोनों नवीन को 5 लाख रुपए देने की बात भी कह रहे थे. लेकिन नवीन ने इस की शिकायत विजिलैंस महकमे में कर दी.

विजिलैंस महकमे में डीएसपी कैलाश चंद ने बताया कि जैसे ही शिकायत करने वाले नवीन को डाक्टर नवदीप सिंघल और डाक्टर सुरेश ने रुपए दिए, तभी विजिलैंस महकमे की टीम ने उन्हें रंगेहाथ पकड़ लिया.

भंडारा में दुखद हादसा

महाराष्ट्र के भंडारा जिले का एक दिल दहलाने वाला मामला ही लीजिए. इस साल की शुरुआत में 8 जनवरी, शुक्रवार की देर रात को वहां के एक सरकारी अस्‍पताल में आग लगने से एक वार्ड की सिक न्यूबौर्न केयर यूनिट में रखे गए 10 नवजात बच्‍चों की दर्दनाक मौत हो गई.

इस वार्ड में 17 नवजात बच्‍चों को रखा गया था. एक नर्स ने जब वार्ड से धुआं निकलते हुए देखा तो उसे इस हादसे के बारे में पता चला.

दरअसल, इस अस्‍पताल में आग रात के तकरीबन 2 बजे लगी थी. आग लगने की वजह शौर्ट सर्किट बताया गया. इस वार्ड में एक दिन से ले कर 3 महीने तक के बच्‍चों को रखा गया था. यह एक खास तरह का वार्ड होता है जिस में उन्‍हीं बच्‍चों को रखा जाता है जिन की हालत काफी नाजुक होती है और जन्‍म के समय जिन का वजन बहुत कम होता है.

मौके पर गए कई मीडिया हाउस वालों की रिपोर्ट से पता चला था कि बच्चों की उस यूनिट में आग लगने से धुआं भर गया था. जब फायर ब्रिगेड वाले और अस्पताल के मुलाजिम किसी तरह दरवाजा तोड़ कर अंदर गए तो उन्होंने पाया कि कुछ बच्चे बुरी तरह जल गए थे, जबकि कुछ बच्चे धुएं के चलते अपनी जान गंवा चुके थे.

इस हादसे पर देश के हर छोटेबड़े नेता ने अपना दुख जाहिर किया. प्रदेश सरकार ने अस्पताल प्रशासन की इस घोर लापरवाही के लिए उसे लताड़ लगाई तो विपक्ष ने सत्ता पक्ष को आड़े हाथ लिया. पीड़ित परिवारों को मुआवजे का मरहम लगाया गया, पर क्या कुछ लाख रुपए की रकम से उन मांबाप का दर्द किया जा सकता है, जिन्होंने अपने उन नवजातों को खोया है, जिन्होंने अपनी आंखें भी ढंग से नहीं खोली थीं?

दुख की बात तो यह है कि देश तकरीबन हर सरकारी अस्पताल में बदहाली का आलम एकजैसा है. कभी उत्तर प्रदेश के बुलंदशहर से खबर आती है कि वहां के जिला अस्पताल में एक वार्डबौय किसी घायल मरीज के टांके लगा रहा था, तो कभी पश्चिम बंगाल के मालदा अस्पताल में 24 घंटों में 9 नवजात शिशुओं की मौत दिल दहला देती है. एक साल की उम्र से कम के इन नवजात शिशुओं की मौत की वजह तय समय से पहले जन्म, कम वजन और सांस लेने संबंधी समस्याएं थीं.

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मध्य प्रदेश के जबलपुर में एक अजीब सा ही मामला सामने आया. जनहित याचिका दायर करने वाले एक आदमी के वकील ने वीडियो कौंफ्रैंसिंग के जरीए हाईकोर्ट में दलील रखी कि मध्य प्रदेश के असंगठित क्षेत्र के मजदूरों खासकर बीड़ी कामगार और माइनिंग फील्ड के मजदूर कोरोना काल में खतरे में हैं. ऐसा इसलिए है, क्योंकि वहां डाक्टरों की कमी के साथसाथ दूसरे संसाधनों की भी बेहद कमी है. अगर डाक्टर हैं भी उन की ड्यूटी एकसाथ 2 से ज्यादा अस्पतालों में लगा दी गई है. इन अस्पतालों में पीपीटी किट, मास्क और सैनेटाइजर मुहैया नहीं हैं.

इस दलील के बाद हाईकोर्ट ने हैरानी जाहिर की कि ऐसे अस्पतालों का संचालन महज चपरासियों के भरोसे कैसे चल सकता है.

सरकारी अस्पतालों की बदहाली, भ्रष्टाचार और बदइंतजामी का ही नतीजा है कि आज छोटे कसबों में भी प्राइवेट अस्पताल खुल रहे हैं. गरीब लोग उन में जा भी रहे हैं, फिर चाहे उन्हें अपनी जमापूंजी ही को ही क्यों न स्वाहा करना पड़े.

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