जनता अब ‘महंगाई डायन खाए जात है’ जैसे गाने भले ही न गा रही हो, पर बढ़ती महंगाई उसे परेशान जरूर कर रही है. महंगाई में खाद्यान्नों की बढ़ती कीमतों का बहुत ज्यादा असर पड़ता है. बढ़ती महंगाई से उपभोक्ता परेशान हैं और किसान बेहाल हैं.
उपभोक्ताओं द्वारा ज्यादा कीमत देने के बाद भी किसानों को फसल की लागत भी ढंग से नहीं मिल रही है. केंद्र की मोदी सरकार किसानों की आमदनी को दोगुना करने के अपने वादे को भूल गई है. सरकार कितने भी कृषि कानून बना ले, पर जब तक वह किसानों को उन की उपज के न्यूनतम मूल्य की गारंटी नहीं देगी, तब तक उन की हालत खराब रहेगी.
किसानों की मेहनत का फायदा उन्हें नहीं, बल्कि बिचौलियों को ही होगा. मंडी में निजी खरीदारों के टाई लगा लेने से किसानों की हालत में सुधार नहीं आएगा, न ही महंगाई घटेगी.
किसान फसल बो कर खेत तैयार करते हैं, बीज की बोआई के साथसाथ खाद और कीटनाशकों का इस्तेमाल करते हैं. अच्छी पैदावार के लिए तमाम तरह के उपाय करते हैं. छुट्टा जानवरों से खेत की दिनरात देखभाल करते हैं.
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खेत से कटाई के बाद जब तक फसल महफूज जगह नहीं पहुंच जाती है, तब तक उन्हें चैन नहीं मिलता है. जब यह फसल तैयार हो कर मंडी पहुंचती है, तो मंडी में बैठे खरीदार उस की कम से कम कीमत लगाने की कोशिश करते हैं.
कोरोना के चक्कर में देशभर में हुई तालाबंदी के बाद फैस्टिवल सीजन में आलू की कीमत 60 रुपए से 80 रुपए प्रति किलोग्राम तक बाजार में थी. यह आलू किसान से सीजन के समय मुश्किल से 10 रुपए प्रति किलोग्राम खरीदा गया था. आलू की महंगाई पर सरकार बिचौलियों पर कड़ी कार्यवाही करने की जगह इस बात का इंतजार कर रही है कि दिसंबर महीने तक जब किसानों का नया आलू बाजार में आएगा, तब आलू की कीमत कम हो जाएगी.
सरकार को बिचौलियों से पूछना चाहिए कि 10 रुपए प्रति किलोग्राम का आलू उपभोक्ता को 60 रुपए से 80 रुपए प्रति किलोग्राम में क्यों बिक रहा है? ट्रैजिडी यह देखिए कि जिस आलू की बोआई में किसानों ने अपनी पूरी मेहनत, समय और लागत लगाई, उस को इस के हिसाब से कुछ नहीं मिला. जिस बिचौलिए ने केवल भंडारण किया, वह कई गुना कमाई करने में कामयाब रहा.
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आलू की कहानी हर साल
यह बात केवल आलू की ही नहीं है, बल्कि किसान के खेतों में तैयार हर फसल का यही हाल है. जैसे ही किसान के खेत में फसल तैयार होती है, वैसे ही बाजार में उस के दाम कम हो जाते हैं. यही वह ट्रैजिडी है, जो किसान को मुनाफा नहीं कमाने देती.
नवंबर महीने के आखिरी हफ्ते से उत्तर प्रदेश की मंडियों में यहां के किसानों के खेतों से तैयार आलू पहुंचने लगे हैं. 20 नवंबर तक तकरीबन 2,500 क्विंटल नया आलू बाजार में आ चुका है, जिस से फुटकर बाजार में आलू की कीमत गिरने लगी है.
उत्तर प्रदेश उद्यान विभाग के उद्यान निदेशक एसबी शर्मा कहते हैं, ‘प्रदेश का उत्पादित नया आलू अच्छी मात्रा में दिसंबर महीने तक बाजार में आ जाएगा. अभी ज्यादातर आलू पंजाब, हरियाणा और गुजरात से आ रहा है. जैसेजैसे किसान अपना नया आलू बाजार में लाएंगे, वैसेवैसे आलू की कीमत घट जाएगी.’
उत्तर प्रदेश में आलू की खुदाई नवंबर महीने के दूसरे हफ्ते से शुरू हो जाती है. कानपुर, फर्रुखाबाद, आगरा, कन्नौज, हाथरस और फिरोजाबाद की मंडियों में 20 नवंबर से 25 नवंबर तक नया आलू मंडियों तक पहुंच जाता है.
किसान अच्छी कीमत पाने के चक्कर में आलू की खुदाई कुछ समय पहले ही कर देते हैं, जिस की वजह से आलू में पानी की मात्रा ज्यादा होती है और यह खाने में पसंद नहीं किया जाता है. इस के मुकाबले पुराना आलू ज्यादा बिकता है.
किसानों का यही आलू सस्ते में खरीद कर बिचौलिए भंडारण कर लेते हैं. बाद में जब किसानों का आलू बिक जाता है, तो बिचौलिए अपने आलू की कीमत बढ़ा देते हैं. आलू की इस कहानी से किसान और बिचौलिए के फायदेनुकसान और लागत की बात साफ दिख रही है.
कमोबेश यही हालत दूसरी फसलों की भी होती है. बात केवल उत्तर प्रदेश की ही नहीं है, बल्कि हर प्रदेश में ऐसे ही हालात हैं.
उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ से 40 किलोमीटर दूर इटौंजा में किसान रामफल सब्जी की खेती करते हैं. वे बताते हैं, ‘हमारे यहां से बैगन 5 रुपए से 7 रुपए प्रति किलोग्राम के हिसाब से बिका और दुबग्गा की सब्जी मंडी में वही बैगन 25 रुपए से 30 रुपए प्रति किलोग्राम बिक रहा था. इस में न तो बिचौलिया किसी भी तरह का भंडारण का बोझ ढो रहा है और न ही कोई लागत लगा रहा है, इस के बाद भी वह 5 गुना तक का मुनाफा कमा रहा है.
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‘यही हाल मटर, धनिया, टमाटर और भिंडी का होता है. बिचौलिए के मुनाफे से आम आदमी और किसान दोनों ठगे जा रहे हैं. मोटा अंदाजा यह है कि बिचौलिए 8 से 10 गुना ज्यादा कीमत पर हरी सब्जियां बेच रहे हैं.
‘केरल में इस तरह की समस्या के समाधान के लिए वहां की सरकार ने सब्जियों का न्यूनतम समर्थन मूल्य तय कर रखा है, जिस से कम पर किसी भी तरह के किसान से कोई सब्जी नहीं खरीद सकता है. ऐसी व्यवस्था पूरे देश में हो, तो किसान और उपभोक्ता दोनों को राहत मिलेगी.’
कैसे होता है मुनाफे का खेल
लखनऊ के मोहनलालगंज इलाके में रहने वाले शुभम सिंह खेतीकिसानी करने के साथसाथ किसानों की राजनीति और अपना कारोबार भी करते हैं. वे बताते हैं, ‘हम एक बार अपने खेत की भिंडी ले कर लखनऊ की दुबग्गा सब्जी मंडी गए. वहां बिचौलिए ने 8 रुपए प्रति किलोग्राम में भिंडी की कीमत तय की. कैसरबाग की फुटकर सब्जी मंडी में यही भिंडी 50 रुपए से 60 रुपए प्रति किलोग्राम हो गई और घरघर तक पहुंचने की कीमत 80 रुपए प्रति किलोग्राम हो गई.
‘किसान से उपभोक्ता तक सब्जी पहुंचने में 3 तरह के बिचौलिए जैसे थोक मंडी, फुटकर मंडी और दुकानदार शामिल होते हैं. 10 गुना फायदे में इन की हिस्सेदारी होती है. किसान महीनों मेहनत कर के जिस भिंडी से केवल 8 रुपए प्रति किलोग्राम पाते हैं, जबकि इस में उन की लागत और समय दोनों ही लगा होता है, पर 3 बिचौलिए केवल उपभोक्ता तक सामान पहुंचाने के नाम पर सारा मुनाफा एक ही दिन में कमा लेते हैं. ये लोग पहले से ऐसी कीमत लगाते हैं, जिस में खराब होने वाली या न बिकने वाली सब्जी की कीमत भी जुड़ी होती है.’
शुभम सिंह आगे बताते हैं कि मंडी में किसान की फसल की कीमत कुछ बिचौलिए बोली लगा कर तय करते हैं. इसी कीमत पर किसान को अपनी फसल बेचनी होती है. मनमुताबिक कीमत न मिलने के बाद भी किसान पैदावार बेचने को मजबूर होते हैं. मंडी के बिचौलिए, आढ़ती और दलाल किसानों से किसी भी तरह की हमदर्दी नहीं रखते हैं. किसान को तो 2 फीसदी मंडी शुल्क भी अदा करना पड़ता है.
उत्तर प्रदेश सरकार मंडी शुल्क में कटौती कर के किसानों को राहत देने का दावा कर रही है. उत्तर प्रदेश सरकार की मंडियों में किसानों को अपनी फसल बेचने के लिए उन से 2 फीसदी मंडी शुल्क लिया जाता है. इस शुल्क से बचने के लिए किसान बिचौलियों को मंडी के बाहर ही अपनी फसल बेच देते हैं.
सरकार ने मंडियों में किसानों को अपनी उपज बेचने के लिए बढ़ावा देने के लिए मंडी शुल्क घटा कर आधा कर दिया है. अब किसानों को केवल एक फीसदी मंडी शुल्क देना होगा. किसान और उस से जुडे संगठन काफी दिनों से यह मांग कर रहे थे. इस से किसानों को कितना फायदा होगा, यह देखने वाली बात है.
नए कृषि कानून में किसानों की उपज को खरीदने का काम निजी कारोबारियों और मंडियों को भी दिया गया है. ऐसे में यह जरूरी है कि फसल का न्यूनतम मूल्य जरूर तय किया जाए.
किसानों का शोषण
मंडियों में किस तरह से किसानों को मजबूर किया जाता है, इस को बताते हुए नवनीत सिंह कहते हैं, ‘जब किसान कोई जल्दी खराब होने वाली अपनी उपज ले कर मंडी जाता है, तो वहां बिचौलिए उस की बोली लगाने से ही इनकार कर देते हैं. किसानों को लगता है कि कम से कम आनेजाने और कुछ सामान खरीदने भर का ही पैसा मिल जाए. उन की मजबूरी को समझने के बाद भी बिचौलिए उपज की बोली नहीं लगाते हैं. ये लोग इतने संगठित होते हैं कि अगर एक ने मना कर दिया, तो दूसरा भी खरीदता नहीं है.
‘एक बार हम अपने खेत से उगाई गई हरी प्याज बेचने मंडी गए. हरी प्याज के जल्दी खराब होने और सड़ने का खतरा रहता है. कई बार तो यह रातभर भी नहीं रुक पाती है. मंडी में इस को खरीदने से इनकार कर दिया गया. बहुत कहा तो एक आढ़ती ने कहा कि चबूतरे पर रख जाओ, सड़ीगली निकाल कर. अगर कुछ बिक गई तो पैसा दे देंगे.
‘एक तरह से कूड़े की तरह हम अपनी हरी प्याज के 10 गट्ठर फेंक कर चले आए. बदले में आढ़ती ने केवल 1,000 रुपए दिए.’
जिस प्याज को वह आढ़ती सड़ीगली, कूड़ा कह रहा था, उसे उस ने खोल कर छोटेछोटे गट्ठर बना लिए और 10 रुपए प्रति गट्ठर फुटकर मंडी के किसान को बेच दिया. वैसे, कई बार किसान परेशान हो कर ऐसी उपज को फेंक देते हैं या पशुओं को खिला देते हैं.
मंडियों में भी आपस में किसानों की खरीद को ले कर एक समझौता होता है. कोई किसान चाह कर भी अपनी उपज फुटकर मंडी या दुकानदार को नहीं बेच सकता. इसी तरह कोई उपभोक्ता अगर चाहे कि वह फुटकर मंडी या थोक मंडी से अपने रोज की जरूरत के लिए कुछ खरीद ले, तो नहीं खरीद सकता है. शहरों में रेहड़ी लगाने के लिए भी किसान को इजाजत नहीं होती. इस के अलावा वह सस्ती कीमत पर भी उपभोक्ता को सीधे उपज नहीं बेच सकता है.
मोहनलालगंज, लखनऊ की ब्लौक प्रमुख विजय लक्ष्मी कहती हैं, ‘किसानों को उपज का दाम लागत से भी कम मिल रहा है. केंद्र सरकार को नया कृषि कानून बनाने से पहले यह तय करना चाहिए था कि किसानों को उपज की सही कीमत मिले. किसानों के हितों की हिफाजत करने के लिए सरकार को गंभीरता से विचार करना चाहिए.’
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महंगाई पर पड़ता असर
सब्जियों और दूसरे खाद्यान्नों की महंगाई का असर आम जीवन पर भी पड़ता है. तालाबंदी के दौर में भी रसोई की जरूरतों को नजरअंदाज करना मुश्किल काम नहीं था. भंडारण कर के रखी जाने वाली चीजों की ज्यादा खरीदारी की गई, जिस में आटा, चावल, आलू, प्याज, दालें और तेलमसाले प्रमुख थे.
मुनाफाखोरों ने इन के दामों में न केवल बढ़ोतरी कर दी, बल्कि घटिया माल की सप्लाई भी की. तालाबंदी के समय में फैक्टरियों में माल तैयार नहीं हो रहा था. बाजार में बढ़ती मांग को पूरा करने के लिए तमाम लोकल ब्रांड भी माल बना कर बेचने लगे, जो उतना अच्छा भले ही नहीं होता था, पर कीमत में बहुत अंतर नहीं था.
लखनऊ के सप्रू मार्ग पर शर्मा चाट का एक ठेला लगता है. तालाबंदी के पहले वह 30 रुपए प्लेट की दर से आलू की टिक्की बेचता था. तालाबंदी के बाद जब सरकार ने सड़कों पर दुकानें खोलने की इजाजत दे दी, तो उस ने चाट की कीमत में बढ़ोतरी कर दी.
इसे चलाने वाले प्रकाश शर्मा का कहना है कि 50 रुपए प्रति प्लेट टिक्की इसलिए करनी पड़ी, क्योंकि हर चीज के दाम बढ़ गए हैं खासकर आलू के दाम बहुत बढ़े हुए हैं. इस के अलावा हम ने 3 साल के बाद दाम बढ़ाए हैं और करीबकरीब हर जगह इसी कीमत पर चाट बिक रही है. दुकानों में तो 80 रुपए प्रति प्लेट टिक्की बिक रही है.
उपभोक्ता मामलों के जानकार पत्रकार रजनीश राज कहते हैं, ‘तालाबंदी के बाद घाटे को पूरा करने के लिए कुछ कारोबारियों ने कीमतों में बढ़ोतरी कर दी. इस का असर यह हुआ कि खानेपीने की हर चीज 15 फीसदी से ले कर 30 फीसदी तक महंगी हो गई.
‘दुकानदार महंगाई का बहाना बना कर दाम बढ़ा देते हैं, लेकिन दाम घटने पर कोई माल सस्ता नहीं बिकता है. आलू के महंगे होने से टिक्की के दाम बढ़ गए, पर आलू के सस्ते होने पर टिक्की के दाम घटेंगे नहीं. खानेपीने की चीजों में इस तेजी की वजह लेबर की कमी और फैक्टरियों में कम उत्पादन होना भी है.’