पास जा कर देखने पर महसूस हुआ कि उस पीपल के पेड़ के तने पर सैकड़ों की तादाद में बड़ीबड़ी कीलें ठुकी हुई थीं. जाहिर था कि हर बार किसी की मौत होने पर नई कील ठोंकी जा रही थी और परंपरा के नाम पर पीपल के तने को छलनी किया जा रहा था.

मैं ने जब वहां मौजूद कुछ बुजुर्गों से इस बारे में जानने की कोशिश की तो उन में से किसी के पास कोई संतोषजनक जवाब नहीं था.

80 साल के एक गांव के संबंधी ने बताया कि पंडितजी बताते हैं कि किसी के मरने के बाद उस की आत्मा पीपल के पेड़ में निवास करती है, इसलिए इन अस्थियों को पेड़ पर लटकाया जाता है.

दरअसल, इस तरह की परंपराओं का पालन कराने में हर धर्म व संप्रदाय के वे दुकानदार जिम्मेदार हैं, जिन की दुकानदारी इन से चलती है. पीपल और बरगद के पेड़ पर भूतप्रेत का निवास बताने वाले पंडेपुजारी वट सावित्री अमावस्या पर औरतों से इन्हीं पेड़ों की पूजा कराने की कह कर दानदक्षिणा बटोर कर अपनी जेब भरते नजर आते हैं.

समाज में ठीक न होने वाली बड़ी बीमारियों की तरह फैले इन रीतिरिवाजों को कराने से धर्मगुरुओं की रोजीरोटी चलती है. लोगों को कर्म करने का ज्ञान देने वाले तथाकथित उपदेशक खुद ही गद्दी पर बैठ कर बिना कर्म किए मलाई खाते हैं.

ये भी पढ़ें- “अंधविश्वास” ने ली, रुद्र की ‘नरबलि’

इस तरह के तमाम उपदेशक और पंडेपुजारी अब दलितों और पिछड़ों में अमरबेल की तरह पनप रहे हैं. इन का काम लोगों को धर्म का डर दिखा कर जनता से पैसा ऐंठना रह गया है.

अंधविश्वास की जड़ें इनसानों से निकल कर अब पेड़पौधों को बरबाद करने तक पहुंच चुकी हैं. ‘पेड़ लगाओ जीवन बचाओ’ के नारे को अंधविश्वास ने  झूठा साबित कर दिया है. कुछ ढोंगी ओ झा व भगत पेड़ के दुश्मन बन गए हैं.

हैरानी की बात तो यह है कि पढ़ेलिखे लोग भी पेड़ों को बचाने के बजाय काटने पर तुले हैं. पेड़ों को ले  कर समाज में आज भी कई तरह की गलतफहमियां फैली हुई हैं. दरवाजे पर अशोक के पेड़ लगाना अपशकुन माना जाता है, पीपल का पेड़ अगर दरवाजे पर है तो सम िझए, आप के दरवाजे पर भूत का साया है.

मध्य प्रदेश के नरसिंहपुर जिले के एक गांव के किसान रामनारायण सिंह ने एक पंडित के कहने पर अपने घर के सामने लगे नारियल के पेड़ को कटवा दिया, क्योंकि पंडित के मुताबिक इस से उन के वंश पर बुरा असर पड़ रहा था.

रामनारायण सिंह के कोई औलाद न होने के चलते पंडित ने उन्हें बताया था कि जिस घर में नारियल के पेड़ होते हैं, वहां वंश की बेल रुक जाती है.

ऐसे ही तथाकथित पंडेपुजारी के  झांसे में आ कर एक शिक्षक ने अपने घर के पिछवाड़े में लगा कटहल का हराभरा पेड़ कटवा दिया, जबकि गुरुजी पास के एक स्कूल में बच्चों को पर्यावरण का पाठ पढ़ाते हैं.

गांव वालों में भी यह गलतफहमी फैली हुई है कि दरवाजे पर नारियल, नीम, कटहल, गूलर, बरगद, पीपल का पेड़ नहीं लगाना चाहिए. इस से घर पर बुरा साया पड़ जाता है और परिवार को हमेशा मुसीबतों का सामना करना पड़ता है, लेकिन उस के पास इसे साबित करने का कोई सुबूत नहीं है.

पर्यावरण संरक्षण के लिए काम कर रहे डाक्टरी पेशे से जुड़े नीरज श्रीवास्तव इस बारे में कहते हैं कि पेड़पौधे कहीं से भी नुकसानदायक नहीं हैं. पर्यावरण

और मानव जाति के लिए तो पौधे हमेशा वरदान साबित हुए हैं. लेकिन कुछ लोग अंधविश्वास के जरीए लोगों के दिमाग को भटका कर पर्यावरण को भी नुकसान पहुंचा रहे हैं.

धार्मिक अंधभक्ति

हमारे धर्मग्रंथों और तथाकथित धर्मगुरुओं ने लोगों के मन में पापपुण्य को ले कर ऐसी बातें भर दी हैं कि चाहे जितने पाप करो, पर अगर नदियों में डुबकी लगा कर देवीदेवताओं की पूजा और पंडितों को दान करोगे, तो सीधे स्वर्ग पहुंच जाओगे.

स्वर्ग जाने की कामना में भक्त नदियों के जल को प्रदूषित करने के साथसाथ पेड़पौधों को रौंद कर अपनेआप को धन्य सम झ रहे हैं.

महाशिवरात्रि पर बेलपत्र, शमि यानी सफेद कीकर की पत्तियों, गेहूं की बालें, चने की घेंटी, धतूरा चढ़ा कर हम पुण्य कमाने के चक्कर में टनों चीजें बरबाद तो कर ही रहे हैं, साथ ही पर्व के बाद कचरा बनती यही चीजें नदियों, तालाबों में बहा कर धड़ल्ले से हम पर्यावरण को भी गंदा कर रहे हैं.

ये भी पढ़ें- दम तोड़ते परिवार

दशहरे पर सोना लूटने के नाम पर शमि के पत्तों की लूटखसोट की जाती है, तो कभी आंवला नवमी पर औरतों द्वारा पूजन के नाम पर उस के तने पर लपेटे जाने वाले धागे से आंवले के पेड़ को नुकसान पहुंचाया जाता है.

धार्मिक कर्मकांड की दुकान सजा बैठे धर्म के स्वयंभू ठेकेदार सवा लाख शिवलिंग बनाने के नाम पर भक्तों से लाखों रुपए का चढ़ावा वसूलते हैं और फिर कार्यक्रम के बाद बड़ेबड़े ट्रकों में भर कर यही चीजें नदियों में छोड़ दी जाती हैं.

खास बात यह है कि बेसिरपैर की धार्मिक मान्यताओं और अंधविश्वास के नाम पर पर्यावरण को भी निशाना बनाया जा रहा है.

अंधविश्वास की जड़ें गांवदेहात के इलाकों के साथसाथ शहरी इलाकों में भी काफी गहराई तक अपना पैर पसारे हुए हैं. यह काम पंडेपुजारियों द्वारा धड़ल्ले से किया जा रहा है.

धर्म के दुकानदार भक्तों को बताते हैं कि सावन महीने के सोमवार को 1008 बेलपत्र चढ़ाने से भगवान शिव खुश हो जाते हैं और भक्तगण बेल के पेड़ की बड़ीबड़ी डालियों को बेरहमी से काट लाते हैं.

ऐसा नहीं है कि लोग धर्म के प्रति आस्थावान हैं, बल्कि वे धर्म के डर के चलते यह ढोंग करते हैं. आज जहां देश के कई इलाकों में पीने के पानी का संकट है, वहीं दुर्गा उत्सव और गणेशोत्सव के नाम पर ज्यादा तादाद में प्रतिमाएं रखने की होड़ और प्लास्टर औफ पैरिस से बनी मूर्तियों के जल स्रोतों में विसर्जन की परंपरा आज पर्यावरण के लिए खतरे की घंटी?है.

प्रथाएं और भी हैं

मध्य प्रदेश और बुंदेलखंड के तमाम गांवदेहातों में आज भी यह प्रथा प्रचलित है कि लड़केलड़कियों की शादी में मंडप के नीचे आम के पेड़ की लकड़ी से बने खाम यानी मंडप का उपयोग किया जाता है. मान्यता और रीतिरिवाज के अनुसार खाम के चारों ओर फेरे लेने का रिवाज है.

आज गांवदेहात में आम के पेड़ों का कत्लेआम कर के खाम के लिए लकड़ी काटी जाती है. मंडप बनाने के लिए आम और जामुन के पत्तों और डालियों का इस्तेमाल कर के उन्हें नुकसान पहुंचाया जाता है.

अंधविश्वास के नाम पर पेड़पौधों पर होने वाली यह बर्बरता चिंता की बात है. ऐसी परंपराओं को तोड़ने की हिम्मत गांव वालों के सामने किसी चुनौती से कम नहीं है.

ये भी पढ़ें- अलविदा 2019: वो विदेशी शख्सियत जिन्होंने दुनिया को अलविदा कहा

विज्ञान के आविष्कारों ने भले ही जिंदगी के हर क्षेत्र में अपनी दस्तक से तरक्की की इबारत लिख दी हो, पर हम अपने अंदर वैज्ञानिक सोच पैदा करने में नाकाम रहे हैं. धार्मिक कथापुराणों में लिखी गई अप्रमाणिक बातें आज भी लोगों के सिर चढ़ कर बोल रही हैं.

आज भी धार्मिक आस्था के नाम पर देवीदेवताओं को चढ़ाने वाली चीजों का उपयोग न केवल पेड़पौधों को नुकसान पहुंचा रहा है, बल्कि पर्यावरण के संतुलन को भी प्रभावित कर रहा है. पेड़पौधे हमें छांव, फल, फूल देते हैं, पर हम पेड़ लगाने के बजाय उन का खात्मा करने पर तुले हुए हैं.

विज्ञान भी इस बात को सच साबित कर चुका है कि नीम, बरगद और पीपल वायुमंडल में औक्सिजन देते हैं. नीम का पेड़ कीटाणुनाशक है. जिस दरवाजे पर नीम का पेड़ है, वहां की हवा बिलकुल शुद्ध और जीवाणुमुक्त रहती है. इस से आसपास के लोगों को शुद्ध हवा के साथ संक्रामक बीमारियों से सुरक्षा भी मिल जाती है.

विज्ञान के इस युग में हम भले ही अंतरिक्ष को मुट्ठी में करने और चांद से ले कर मंगलग्रह तक घर बसाने की सोच रहे हों, लेकिन इस तरक्की के बावजूद हम दिमागी रूप से अब तक तरक्की नहीं कर पाए हैं और अंधविश्वास जैसी सामाजिक बुराइयों का साथ आज भी नहीं छोड़ पा रहे हैं.

अब तो अंधविश्वास के चलते पेड़पौधों और पर्यावरण को भी नुकसान पहुंच रहा है. जैसेजैसे विज्ञान तरक्की कर रहा है, वैसेवैसे अंधविश्वास पर हमारा विश्वास और भी मजबूत होता जा रहा है.

उम्मीद की किरण

मध्य प्रदेश की पिछली भारतीय जनता पार्टी की सरकार ने गांवगांव में करोड़ों रुपए वृक्षारोपण के नाम पर स्वाहा कर दिए, लेकिन कोई पौधा पेड़ की शक्ल नहीं ले पाया.

तमाम विरोधाभासों व अंधविश्वासों के बावजूद भी समाज में कुछ लोग ऐसे भी मौजूद हैं, जो न केवल अंधविश्वासों को तोड़ रहे हैं, बल्कि पर्यावरण की चिंता कर पेड़ लगाने का काम कर रहे हैं.

नरसिंहपुर जिले की गाडरवारा तहसील की ‘कदम’ संस्था ने पिछले 15 सालों में हजारों पौधों को पेड़ बना कर खड़ा कर दिया है. जन्मदिन हो या वैवाहिक वर्षगांठ वगैरह अवसरों पर उत्सव मना कर ये पेड़ लगाए जा रहे हैं.

ये भी पढ़ें- डाक्टर के बजाय चपरासी क्यों बनना चाहते हैं युवा

इसी तरह साईंखेड़ा कसबे की ‘कल्पतरू’ संस्था ने पिछले 2 साल में 1,000 से ज्यादा पेड़ लगा कर पर्यावरण संरक्षण की दिशा में लोगों को जागरूक करने का काम किया है. सालीचैका रेलवे स्टेशन की ‘वृक्षमित्र’ संस्था भी प्रकृति को हरियाली की चुनरी ओढ़ाने में कोई कोरकसर नहीं छोड़ रही है. मौजूदा समय में इस तरह की कोशिशों की ही जरूरत है, जो धर्म की दुकानदारी को खत्म कर लोगों में पर्यावरण संरक्षण के प्रति सचेत कर सकें.

और कहानियां पढ़ने के लिए क्लिक करें...