लेखक- माया प्रधान

पूर्व कथा

पुरवा का पर्स चोर से वापस लाने में सुहास मदद करता है. इस तरह दोनों की जानपहचान होती है और मुलाकातें बढ़ कर प्यार में बदल जाती हैं. सुहास पुरवा को अपने घर ले जाता है. वह अपनी मां रजनीबाला और बहन श्वेता से उसे मिलवाता है. रजनीबाला को पुरवा अच्छी लगती है. उधर पुरवा सुहास को अपने पिता से मिलवाने अपने घर ले आती है तो उस के पिता सहाय साहब सुहास की काम के प्रति लगन देख कर खुश होते हैं.

सुहास की बहन श्वेता को देखने लड़के वाले आते हैं. इंजीनियर लड़के गौरव से श्वेता का विवाह तय हो जाता है. मिठाई  के डब्बे के साथ बहन की सगाई का निमंत्रण ले कर सुहास सहाय साहब के घर जाता है. घर पर बीमार सहाय साहब का हालचाल पूछने उन के मित्र आए होते हैं. सहाय साहब सुहास की तारीफ करते हुए सब को बताते हैं कि वह उस के लिए मोटरपार्ट्स की दुकान खुलवा रहे हैं. सुहास अपनी तारीफ सुन कर खुश होता है.

श्वेता की सगाई पर आए सहाय साहब के परिवार से मकरंद वर्मा परिवार के सभी सदस्य उत्साहपूर्वक मिलते हैं. दोनों परिवार वाले सुहास और पुरवा के रिश्ते से खुश थे.

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समय तेजी से गुजरता रहा. सुहास व्यापार शुरू कर देता है, लेकिन कई बार काम के लिए बंध कर बैठना उस के लिए मुश्किल हो जाता क्योंकि किसी भी जगह जम कर रह पाना उस के स्वभाव में नहीं था.

अंतत: श्वेता के विवाह का दिन आ जाता है. उस दिन पुरवा का सजाधजा रूप देख कर सुहास दीवाना हो जाता है. पुरवा से शीघ्र विवाह करने के लिए सुहास दुकान पर मन लगा कर काम करने लगता है. यह सब देख सहाय साहब खुश थे. आखिरकार वह एक दिन वर्मा साहब के घर पुरवा का रिश्ता ले कर पहुंच जाते हैं. सभी की मौजूदगी में खुशी से पुरवासुहास का रिश्ता पक्का हो जाता है और शीघ्र ही धूमधाम से विवाह हो जाता है.

सुहागसेज पर दोनों हजारों सपने संजोते हैं और हनीमून पर ऊटी जाते हैं. वापस आने पर घर में सब उन का स्वागत करते हैं. इधर श्वेता से बात करने पर पुरवा को पता चलता है कि बड़े परिवार के कारण वह ससुराल में नाखुश है. उधर अपनी व्यवहारकुशलता से पुरवा ससुराल में जल्द ही सब से घुलमिल जाती है.

पुरवा महसूस कर रही थी कि सुहास का ध्यान समाजसेवा में अधिक रहता है. वह दूसरों की मदद के लिए दुकान पर भी ध्यान न देता.

एक दिन श्वेता ससुराल से लड़झगड़ कर मायके आती है. पुरवा के समझाने पर वह उलटा पुरवा को ही सुहास द्वारा कुछ न कमाने का ताना देती है. यह बात सच थी इसीलिए पुरवा सब चुपचाप सुन लेती है लेकिन अब उस के दिमाग में श्वेता के शब्द गूंज रहे थे.

पुरवा अब निरंतर सुहास को उस की जिम्मेदारी का अहसास कराने की कोशिश करती. शीघ्र ही वह दिन भी आता है जब पुरवा को पता चलता है कि वह मां बनने वाली है. सुहास पापा बनने के सुखद अहसास से झूम उठता है. अब आगे…

गतांक से आगे…

उस रात पुरवा ने सुहास पर क्रोध करते हुए कहा, ‘‘तुम ने चारों तरफ इतना ढिंढोरा क्यों पीटा?’’

सुहास बहुत प्रसन्न था अत: उसे मनाते हुए बोला, ‘‘तुम्हें क्या बताऊं पुरू, मैं कितना खुश हूं. बैठेबैठे यही कल्पना  करता हूं कि एक नन्हा सा बच्चा जब ‘पापा’ कह कर बुलाएगा तब भला कैसा लगेगा.’’

पुरवा ने मुसकरा कर उसे देखा. बोली, ‘‘यह कल्पना तो मैं भी करती हूं सुहास. यह जो मेरे अंदर पनप रहा है, इस की रचनाकार मैं हूं, यह भावना ही विचित्र रोमांच से भर देती है.’’

‘‘नहीं पुरवा, रचनाकार तो कुदरत है. तुम और मैं तो बस माध्यम हैं पर यह पूरी तरह से हम दोनों का होगा. जैसे मैं अपने मातापिता से अपनी इच्छाएं पूरी करवाता हूं, वैसे ही…’’

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‘‘हां सुहास,’’ पुरवा ने उसे बीच में ही टोक दिया, ‘‘लेकिन सोचो जरा, अब हमारी जिम्मेदारी कितनी बढ़ गई है.’’

सुहास अपने उत्साह में डूबा हुआ ही बोला, ‘‘तो क्या पुरवा, मैं बहुत मेहनत करूंगा, एक दिन फैक्टरी खड़ी करूंगा, फिर उसे भी आगे बढ़ाऊंगा. इस घर में कोई व्यापारी नहीं है, पर मैं बन कर दिखाऊंगा,’’ उसे इतना उल्लसित देख कर पुरवा भी गद्गद हो उठी.

धीरेधीरे पुरवा अपने तनमन में विचित्र सा बदलाव महसूस करने लगी. मन के अंदर ममता का स्रोत फूटने लगा था. कैसा होगा मेरा बच्चा? किस पर जाएगा. जब वह मां कहेगा तो कैसा लगेगा. अनेक बातें उसे गुदगुदाती रहतीं. और शरीर में विचित्र सी व्याकुलता, चलने में, उठने में उलझन सी, खानेपीने में अरुचि. पुरवा सोचती, यह कैसा आनंद है जो कष्ट भी साथ ही साथ लाया है. सुहास दुकान छोड़ कर बीच में ही भाग आता तो पुरवा क्रोध करती, ‘‘यह क्या, इतनी जल्दी आ गए.’’

सुहास उस के पेट पर प्यार से हाथ फेरता, ‘‘हां, मुझे इस की बहुत याद आ रही थी.’’

‘‘बहानेबाज.’’ पुरवा मुसकरा देती.

‘‘तुम्हें तो दुकान छोड़ कर भागते रहने का बहाना चाहिए.’’

‘‘नहीं सच्च. मुझे लगा कि तुम भी मुझे याद कर रही हो, आखिर तुम्हारा ध्यान रखना भी तो मेरा ही कर्तव्य है न,’’ सुहास ने सफाई दी.

पुरवा ने प्यार से उसे देखा और कहा, ‘‘सुहास, तुम्हारे प्यार पर मुझे सदा बहुत गर्व होता रहा है. पर कभीकभी मुझे लगने लगता है कि तुम प्यार और कर्तव्य निभातेनिभाते अपने उत्तरदायित्व को भूल जाते हो.’’

सुहास ऐसे में उसे गुदगुदा कर बात पलटने की कोशिश करता और कहता, ‘‘मुझे वह भी याद है पुरू. अपने आने वाले बच्चे के लिए मुझे बहुत परिश्रम करना है. एक सफल व्यवसायी बनना है. वह कहते हैं न कि हर सफल व्यक्ति के पीछे एक स्त्री होती है,’’ सुहास पुरवा को चिढ़ाते हुए कहता, ‘‘तो तुम हो न मुझे घड़ीघड़ी सही राह दिखाने वाली. मुझे मालूम है कि तुम मुझे कभी भटकने नहीं दोगी,’’ ऐसे में सदा पुरवा गर्व से भर उठती. सोचती, सुहास को पसंद कर के मैं ने कोई गलती नहीं की है.

श्वेता अपनी यात्रा से वापस आ गई थी. अपने सुखद अनुभव सब को सुना कर वह फूली नहीं समाती थी. पुरवा भी सुनती और खुश होती. सोचती, शुक्र है कि श्वेता की नादानी अब राह नहीं खोज पाएगी. पुरवा का स्वास्थ्य प्राय: खराब हो जाता था. मां उस का बहुत ध्यान रखती थीं. सुहास भी दुकान से सीधे घर आ जाता था. कभीकभी वह पुरवा को घुमाने ले जाता. दोनों बहुत सी पुरानी यादों को दोहराते और भविष्य के सपने बुनते. उन स्वप्नों में एक नन्हा शिशु भी किलकारियां भरता.

एक दिन अंधमहाविद्यालय से पुरवा के लिए एक पत्र आया. राष्ट्रपति के सम्मुख एक विशेष आयोजन में विद्यालय के बच्चों को कार्यक्रम प्रस्तुत करना था. पुरवा को कार्यक्रम तैयार करवाने में सहायतार्थ बुलाया गया था. उस ने मां से पूछा तो उन्होंने कहा, ‘‘जाने में तो कोई हर्ज नहीं है पर तुम्हारी तबीयत तो ठीक नहीं रहती है और रिहर्सल करवाने रोज जाना पड़ेगा.’’

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‘‘जानती हूं मम्मी, पर वहां जा कर शायद मैं अपनी अस्वस्थता के बारे में कुछ देर भूली रहूं.’’

मां हंस दी थीं. बोलीं, ‘‘हां, यह तर्क भी ठीक है.’’ इस तरह पुरवा को एक बार पुन: कुछ घंटों के लिए अपना पुराना समय वापस मिल गया था. उसे बस या स्कूटर से जानेआने की आज्ञा नहीं थी, इसलिए कभी कार से कभी टैक्सी से ही उसे जाना पड़ रहा था. उस के चेहरे पर पुरानी चमक वापस आ रही थी. आंखों में उत्साह झलकने लगा था. सुहास भी उन दिनों बहुत देर से घर वापस आता था. पुरवा सोचती कि वह घर पर नहीं मिलती है शाम को शायद इसीलिए वह देर से वापस आता है पर एक दिन वह घर पहुंची तो उसे बड़ी विचित्र स्थिति का सामना करना पड़ा. वह टैक्सी वाले को पैसे चुका कर जैसे ही पोर्च तक पहुंची तो ड्राइंगरूम से ऊंचीऊंची बहसों का स्वर उसे चौंका गया. जिस घर में कभी भी ऊंचे स्वर में बात नहीं की जाती है, वहां थोड़ा सा ऊंचा स्वर भी चौंकाने के लिए काफी था. वह हतप्रभ आंखों से सब को देखती हुई अंदर पहुंची तो सब चुप हो गए.

‘‘क्या हुआ?’’ उस ने सुहास की तरफ देखते हुए पूछा. सुहास बिना कुछ बोले उठ कर अंदर चला गया. पुरवा ने मां व पापा की ओर दृष्टि घुमाई तो मां ने मुसकराने का प्रयास करते हुए कहा, ‘‘कोई विशेष बात नहीं है. हम लोग सुहास को व्यापार की ऊंचनीच समझा रहे थे.’’ मां ने थकी हुई पुरवा को बैठाते हुए स्नेह से उसे देखा, ‘‘और तुम्हारी रिहर्सल कैसी चल रही है?’’

पुरवा ने भी मुसकराहट बिखेर कर कहा, ‘‘ठीक चल रही है मम्मीजी. बस, कार्यक्रम समाप्त होते ही फुरसत हो जाएगी.’’

‘‘चलो अच्छा है. कुछ मन भी बहला रहता है तुम्हारा. उठ कर फ्रेश हो लो. सब खाने को बैठे हैं.’’

कमरे में पहुंची तो सुहास लेटा हुआ था. पुरवा सिरहाने बैठ गई और बोली, ‘‘क्या हुआ? तबीयत तो ठीक है?’’

‘‘हां, ठीक है सब. तुम नहाना चाहो तो नहा लो,’’ सुहास ने जैसे बात टालते हुए कहा. पुरवा को लगा, उस से कुछ छिपाया जा रहा है, पता नहीं क्यों? वह गर्भवती है इसलिए, अथवा कोई अन्य कारण है. मन में चिंता सी हो आई पर ऊपर से उस ने कुछ भी प्रदर्शित नहीं होने दिया. सुबह जब सुहास जाने लगा तब पुरवा ने मां को कहते सुना, ‘‘जो भी करना, सोचसमझ कर करना.’’

सारा दिन यह वाक्य उसे दंश देता रहा था. आखिर व्यापार संबंधी वह कौन सी समस्या है जो उसे नहीं बताई जा रही है. जब से सुहास ने अपनी दुकान खोली है, कभी उस ने यह नहीं देखा कि सुहास ने मम्मीपापा को व उसे कुछ ला कर दिया हो. उसे जेठानी की बात याद आ गई. हंसीहंसी में ही उन्होंने कहा था, ‘सुहास को तो मम्मीजीपापाजी के आंचल में दुबक कर रहने की आदत पड़ी हुई है.’

‘क्या मतलब?’ पुरवा ने आश्चर्य से पूछा था.

‘मतलब सीधा सा है. दुलार के मारे उसे जरा से कष्ट में देख नहीं सकते हैं पापाजी और मम्मीजी. जो मांगते हैं, तुरंत हाजिर कर देते हैं,’ इला भाभी ने कहा था.

‘पर ऐसा तो सभी मातापिता करते हैं,’ पुरवा ने तर्क किया था.

‘तुम्हारा कहना ठीक है, पर फिर भी हर मांबाप बच्चे को जीवन की कठिनाइयों से भागने को उचित नहीं समझते हैं बल्कि जो मातापिता बच्चों को हर मुश्किल का सामना करने के लिए प्रेरणा देते हैं, वही ठीक करते हैं.’

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इला की बात पर पुरवा ने आश्चर्य से उसे देखा था. तब विस्तार से इला भाभी ने समझाया था कि सुहास ने पढ़ाई में भी बहुत लापरवाही बरती. दोनों बड़े भाई चाहते थे कि उन की तरह ही सुहास भी प्रतियोगिताओं में बैठ कर एक ठोस राह पकड़े. पर सुहास का पढ़ाई में या शायद परिश्रम में अधिक मन नहीं लगता था. मम्मीजी व पापाजी ने भी इसे उस का बचपना कह कर टाल दिया. मम्मीजी कहतीं, ‘बच्चों के साथ जबरदस्ती नहीं करनी चाहिए, समय आने पर कोई न कोई राह उसे भी मिल ही जाएगी.’

उस समय पुरवा ने इन बातों को गंभीरता से नहीं लिया था, पर अब कुछ समय से उन बातों को प्राय: याद कर लेती है. जैसे उस की हर आवश्यकता मम्मीजी अपने पर्स से पूरी करती रहती हैं. कभीकभी तो सुहास को भी मम्मीजी से ही रुपए लेते पुरवा ने देखा है.

कल शाम से जो हालात हैं घर में, उन्हें देख कर एक बार फिर उसे इला की बातें याद आ रही हैं, तो क्या वह यह सोचे कि सुहास परिश्रम करने से बचता रहता है, पर व्यापार का पहला सिद्धांत ही यह है कि व्यक्ति को परिश्रमी, साहसी व उद्यमी होना चाहिए. सब से अधिक दुख उसे इस बात का था कि उसे कुछ भी बताया नहीं जा रहा था. इतना अधिक अस्वस्थ भी नहीं है वह कि उसे कुछ भी  बताया ही न जा सके.

शाम को वह कार्यक्रम के अंतिम चरण की तैयारी करने गई थी. रविवार को कार्यक्रम प्रस्तुत होना था. सभी बच्चे पूरी लगन के साथ तैयारी में जुटे हुए थे.

बीच के समय में रोज चाय ले कर मदन आया करता था पर उस शाम यकायक कपड़ों में सजाधजा, चुस्तदुरुस्त सा जो युवक चाय ले कर आया, उसे देख कर पुरवा चौंक उठी. उस युवक ने चाय मेज पर रख दी और टटोल कर पुरवा के पैर छूने लगा तो पुरवा संकोच से बोली, ‘‘नहींनहीं, यह क्या?’’

‘‘दीदी, आप ने पहचाना नहीं क्या?’’ युवक वहीं फर्श पर बैठ गया. पुरवा ने सोचते हुए कहा, ‘‘तुम प्रभात हो न.’’

युवक मुसकराया. उस के चेहरे की हर शिकन पर उत्साह की चमक थी. बोला, ‘‘हां दीदी.’’

‘‘कैसे हो प्रभात?’’ पुरवा ने प्रसन्नता से पूछा.

‘‘आप की कृपा से बहुत अच्छा हूं दीदी,’’ उस के स्वर में प्रसन्नता और उत्साह साथसाथ तैर रहे थे. पुरवा को भी उसे देख कर बहुत ही अच्छा लग रहा था. एक दिन यही प्रभात बहुत ही रोंआसे स्वर में उस से बोला था, ‘दीदी, मैं शीघ्र से शीघ्र अपने पैरों पर खड़ा होना चाहता हूं. मेरी मां बहुत बीमार रहती हैं. पिता शराब में अपना वेतन फूंक देते हैं. घर में 2 भाई और एक बहन भी हैं.’

उस दिन के प्रभात में और आज के प्रभात में कितना अंतर था. पुरवा ने पूछा, ‘‘तुम्हारा व्यापार कैसा चल रहा है प्रभात.’’

उस ने दोनों हाथ जोड़ लिए और गद्गद स्वर में बोला, ‘‘आप का ही आशीर्वाद है दीदी. अंकल ने जो राह दिखाई थी, उसी पर चल कर आज मेरी अपनी छोटी सी कंपनी है, जहां बड़े पैमाने पर देशविदेश के लिए रेडीमेड कपड़े तैयार होते हैं.’’

पुरवा ने सुना तो हतप्रभ रह गई. एक व्यक्ति जिसे कुदरत ने आंखों की रोशनी नहीं दी, फिर भी वह जल्द से जल्द अपने पैरों पर खड़ा हो जाना चाहता था. पुरवा ने अपने पापा के सामने उस की समस्या रखी और उन्होंने अपनी गारंटी पर प्रभात को बैंक से ऋण दिलवाया और रेडीमेड कपड़ों के बनाने और बेचने में सहायता की. प्रभात में साहस और लगन की कमी नहीं थी. अत: बहुत शीघ्र ये सारे कार्य उस ने कुशलतापूर्वकसंभाल लिए और सहाय साहब को अपनी सहायता से मुक्त कर दिया.

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इस बीच पुरवा के जीवन में बहुत से परिवर्तन हुए. वह एम.ए. की परीक्षा में व्यस्त हो गई, फिर उस के जीवन में सुहास आ गया और वह उस की पत्नी बन गई. प्रभात से मिले उसे बहुत लंबा अरसा हो गया था. कई वर्षों से वह अंध- महाविद्यालय से जुड़ी हुई थी, इसलिए उसे वहां बहुत सम्मान प्राप्त था. प्रभात ने इतने थोड़े समय में इतनी अधिक सफलता प्राप्त कर ली थी, यह देख कर पुरवा हतप्रभ थी. मन ही मन में वह प्रभात की तुलना सुहास से कर रही थी. सुहास को भी तो पापा ने पूरी सहायता दी थी. स्वयं उस के मम्मीपापा भी बराबर उस का ध्यान रखते हैं पर अभी तक ऐसा कुछ भी तो दिखाई नहीं दिया कि लगे कि सुहास एक दिन सफल व्यापारी बन पाएगा. ऊपर से कुछ नई समस्या भी शायद उत्पन्न हो गई है जिस से उसे दूर रखा जा रहा है, तो क्या वह समझे कि सुहास एक गैरजिम्मेदार व्यक्ति है? या वह जीवन संघर्ष से दूर भागने का आदी है.

पुरवा के मन में उथलपुथल मची हुई थी. एक मन सुहास के प्यार में डूबा हुआ था, पर सोच को क्या करे, जो सच और झूठ के बीच कसमसा रहा था. प्यार करते समय कहां पता चलता है कि जीवन को क्या दिशा मिलने वाली है. कभीकभी सोचती है कि वह भी सुहास की तरह ही मान कर चले कि जीवन तो आनंद से व्यतीत हो रहा है. जो चाहती है मिल जाता है. घूमनाफिरना भी हो जाता है. बहुत से मित्र, बहुत सारे संबंधी हैं, जिन से निरंतर मिलनाजुलना चलता रहता है. प्यार करने वाला पति व प्यार देने वाले सासससुर भी हैं और क्या चाहिए.

पर उस का आत्मसम्मान सदा उस के आड़े आ जाता है. विवाह के उपरांत पति के उत्तरदायित्व पत्नी के प्रति बढ़ जाते हैं. लेकिन सुहास के पास किसी भी उत्तरदायित्व के निर्वाह के लिए समय नहीं है. उसे डाक्टर के पास अधिकतर मां ले जाती हैं. सुहास को तो अपने परिचितों की सेवाटहल से ही फुरसत नहीं है.

प्रभात की प्रसन्नता छिपाए नहीं छिप रही थी. पुरवा की तंद्रा भंग करते हुए उस ने कहा, ‘‘दीदी, आप कैसी हैं?’’

‘‘बहुत अच्छी हूं प्रभात. तुम से मिल कर बहुत खुशी हो रही है.’’

‘‘हमें भी बहुत याद आती थी दीदी, पर व्यापार जमाने में बहुत झंझट थे, आप से मिल ही नहीं पाए.’’

‘‘वह भी तो जरूरी था प्रभात. तुम ने इतना परिश्रम कर के अपने नाम को सार्थक कर दिखाया है,’’ पुरवा ने कहा.

‘‘जो कुछ भी है दीदी, आप की और अंकल की ही कृपा है. मुझे तो बस कर्म करना था. अभी तो बस नींव पड़ी है. छोटी सी फैक्टरी लगा ली है, शायद किसी दिन और भी कुछ कर सकूं,’’ प्रभात ने चाय का नया कप बना कर पुरवा को दिया था.

‘‘अच्छा दीदी, आप के पति कैसे हैं?’’

प्रभात ने पूछा तो पुरवा मुसकरा दी, ‘‘बहुत अच्छे हैं प्रभात. हम ने एकदूसरे को पसंद कर के विवाह किया है,’’ पुरवा की बात सुन कर प्रभात मुसकरा दिया.

‘‘आप की शादी की बात पता चली थी, पर जरा देर से. तब से ही मन था कि आप से और जीजाजी से मिलूं.’’

प्रभात सुहास के बारे में भी पूछता रहा. जब वह जाने लगा तो पुरवा ने कहा, ‘‘एक दिन हमारे घर जरूर आना, मैं सुहास से तुम्हें मिलवाना चाहती हूं.’’

‘‘हां दीदी, अवश्य आऊंगा,’’ प्रभात पैर छू कर चला गया पर पुरवा सोच में डूब गई. ऐसे कर्मठ लोग उसे बहुत अच्छे लगते हैं.

उस शाम के शोरगुल का कारण पुरवा को बहुत शीघ्र पता चल गया था. कारण जान कर वह हत्प्रभ रह गई थी. सुहास अब पुराना सब बेच कर कंप्यूटर का कार्य आरंभ करना चाहता था. उसे किन लोगों ने यह सलाह दी थी, यह बात पता नहीं चली थी.

पुरवा सोच में पड़ गई थी. जाने कैसेकैसे मित्र बनाए हैं इन दिनों सुहास ने. कभीकभी घर पर भी आ धमकते हैं. जितनी देर बैठते हैं वे सब चाय के साथ अपनी नेक सलाहें देते रहते हैं. कभीकभी मां भी उन की सलाहों से परेशान हो जाती हैं.

मां और पापा के चेहरे पर तनाव स्पष्ट दिखाई देता था. शायद उन्होंने भी कभी यह नहीं सोचा था कि उन का लाड़प्यार सुहास को इतना गैरजिम्मेदार बना देगा.

पुरवा के मन में भी लगातार हलचल मची हुई थी.

उस के गर्भ में सुहास का बच्चा था. सुहास को कम से कम अपने इस नए उत्तरदायित्व के प्रति सचेत होना चाहिए था. मां व पापाजी कब तक उस के सारे उत्तरदायित्व निभाते रहेंगे.

सुहास के बारे में सोचतेसोचते पुरवा को प्रभात का ध्यान आ गया. कुदरत ने उसे आंखें नहीं दी हैं, फिर भी वह जीवन के प्रति कितना गंभीर है. अपने मातापिता का दुख दूर करने के लिए उस ने राह बनाई और उस में सफलतापूर्वक आगे बढ़ भी रहा है. उस दिन भी पुरवा यही सोचती रही थी कि विकलांग हो कर भी प्रभात में आत्म- विश्वास कूटकूट कर भरा हुआ है. और तभी उसे यह भी सोचना पड़ा था कि क्या सुहास में आत्मविश्वास की कमी है. पहले तो कभी ऐसा नहीं लगा था फिर अब…अपनी नित नई सोच से घबरा कर कभीकभी वह अपना आत्म- विश्लेषण भी कर बैठती है.

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कई बार अपनेआप से उस ने प्रश्न किया है, ‘पुरवा, साथ रह कर क्या तुम सुहास में बस त्रुटियां खोजने लगी हो? तुम्हारे प्यार के वे सारे दावे कहां खो गए हैं?’

कई बार चौंक कर वह यह भी सोचती है, कहीं ऐसा न हो कि भविष्य की चिंता में वर्तमान भी हाथ से छूट जाए. यही सब सोच कर पुरवा ने निर्णय लिया कि वह सुहास को प्यार से समझाने का प्रयास करेगी. वह उस दिन व्यग्रता से सुहास की प्रतीक्षा करने लगी.

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