14 अप्रैल को देशभर में अंबेडकर जयंतियां मनाई गईं और दलित वोटों के खिसकने के डर की वजह से भारतीय जनता पार्टी ने कुछ ज्यादा जोरों से अंबेडकर की मूर्तियों को मालाएं पहनाईं. दलितों के एकलौते देवता के रूप में भीमराव अंबेडकर भी भारतीय जनता पार्टी के ही चेले थे, यह साबित करने की पूरी कोशिश राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, संघ प्रमुख से ले कर हर जिले के भाजपा अध्यक्ष ने की.

अफसोस यही रहा है कि भाजपा अंबेडकर पर वह एकलौता हक नहीं जमा पाई जो वह राम, कृष्ण, शिव, गणेश और हनुमान पर जमा पाती है. दलितों का छोटा वर्ग ही भाजपा के साथ दिखा. ज्यादातर दूसरी पार्टियों के साथ या अलगथलग थे.

अंबेडकर की मूर्तियों को मालाएं पहनाना ही दलितों और ऊंची जातियों के बीच सदियोें की खाई पाटने के लिए काफी नहीं है. जब तक वर्ण भेद मन से नहीं जाएगा कुछ फर्क नहीं पड़ेगा और यह तब तक न जाएगा जब तक ऊंची जातियों के हिंदू अपने कर्मकांड खत्म न करेंगे.

हिंदू जन्म से ही साबित करने लगते हैं कि वे कौन सी जाति के हैं. यह उन के नाम के साथ चिपका होता है. उन के जन्म के रीतिरिवाजों के साथ लगा होता है. हाथ में पहने कलेवे से जाहिर होता है. माथे पर तिलक इस का सार्वजनिक विज्ञापन करता है. निजी इंगलिश मीडियम स्कूल में दाखिला लेने का मतलब होता है कि बच्चा ऊंची जाति का है क्योंकि सिवा ईडब्लूएस कोटे के इन स्कूलों में यदाकदा ही दलित बच्चों को जगह मिलती है.

कालेजों में मैस में ऊंची जातियों और नीची जातियों के छात्रों का अलगअलग बैठना साबित करता है कि कौन क्या है. प्रेम विवाहों में ऊंचीनीची जातियों पर देशभर में हो रहे विवाद साबित करते हैं कि यह भेदभाव तो युवाओं तक में है. यह सब कोई पिछले जमाने की बात नहीं है.

भारतीय जनता पार्टी के तेजतर्रार नेता जो हवा देते हैं उस से साफ लगता है कि उन के दिलों पर जाति का अहम सवार है. पार्टी में काफी दलित है पर उन्हें क्या बराबर का सा स्तर मिलता है यह दिखता नहीं है. भारतीय जनता पार्टी का समाज सुधार का कोई प्रोग्राम नहीं है. जाति तोड़ने का कोई जिक्र नहीं है. मंदिर प्रेम छोड़ने का कोई इरादा नहीं है. ये सब गुजरे जमाने की बातें हैं जिन की मंगलयानों और कंप्यूटरों के युग में जरूरत नहीं. वे सिर्फ देवी जागरण की जगह अंबेडकर परिक्रमा कर के दलित वोटों को पटाना चाहते हैं पर उन्हें अलग करने वाली खाई को पाटना नहीं चाहते.

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