अपने यूरोपीय मित्रों की मान-मनौव्वल पर अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप की जिद भारी पड़ी और अमेरिका ने ईरान के साथ परमाणु समझौते से अपने को अलग कर लिया. यह सब तब हुआ, जब किसी को भी परमाणु अप्रसार के प्रति ईरान की प्रतिबद्धता पर कोई संदेह नहीं था. इजरायल और सऊदी अरब को छोड़कर ट्रंप के इस कदम की सभी देशों ने आलोचना की है.

दरअसल ट्रंप को समझ पाना आसान नहीं है, फिर भी कुछ तो समझ में आता है कि आखिर ऐसे सफल सौदे से उन्हें खुद को अलग करना क्यों ठीक लगा? दरअसल ट्रंप खुद को ऐसे युद्धपोतों से घिरा पाते हैं, जिनमें से अधिकतर इजरायल के करीब हैं और जो ईरान के साथ खुले टकराव से कम पर कुछ सुनना ही नहीं चाहते.

दूसरे, शायद यह कि अपने पूर्ववर्ती बराक ओबामा का हर बड़ा फैसला वह खत्म कर देना चाहते हैं. जो भी हो, समझौते को इस तरह तोड़ने ने शेष विश्व के साथ अमेरिका की प्रबिद्धताओं पर सवाल तो उठा ही दिए हैं. इसने आलोचकों को सवाल उठाने का मौका दो दिया है कि अगर अमेरिका एक बहुपक्षीय समझौते का सम्मान नहीं कर सकता, तो उसके बाकी वादों पर कैसे भरोसा किया जाए? वैसे भी मध्य-पूर्व एक जटिल इलाका है, जहां विभिन्न युद्धों में अलग-अलग खिलाड़ी अलग-अलग भूमिकाओं में हैं.

ऐसे में, ईरान की कुछ क्षेत्रीय गतिविधियों की आड़ लेकर समझौता तोड़ना दो अलग-अलग मुद्दों का घालमेल करने से ज्यादा कुछ नहीं है. इस पूरे प्रकरण में संसद में अमेरिकी झंडा जलाने की घटना छोड़ दें, तो ईरान ने अब तक सधी हुई प्रतिक्रिया ही दी है. राष्ट्रपति हसन रूहानी व यूरोपीय संघ के देशों ने भी समझौते के प्रति प्रतिबद्धता जताई है.

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