खातेपीते खुशहाल घरों की सुंदर, स्लिम, स्मार्ट और पूरी दुनिया को ठेंगे पर रखने की कूवत वाली भरीपूरी स्त्रियां स्कूटर या कार चलाना सीखें, इस से अच्छी बात नहीं हो सकती. अपनी श्रीमती की 2 दर्जन से ऊपर कच्चीपक्की सुंदर, सलोनी और चुस्तचालाक सहेलियों को स्कूटर, कायनी और कार सिखाने का श्रेय इस महाबदौलत को जाता है. सब तरफ स्कूटर सीखने की धुन सवार थी और हम में भी अजीब सी सनक थी कि घरबाहर सबकुछ भुला कर चुलबुली व हसीन अप्सराओं को स्कूटर सिखाते रहो, बस.
हमारा तो सिद्धांत था कि न जाने किस भेस में मिल जाएं भगवान. एक लेडी अगर स्कूटर सीखने में दक्ष हो गई तो 2 दिन पहले ही किसी दूसरी जगह से संदेश आ जाता और हम अपना फटीचर सा स्कूटर उठा कर सुबहसुबह उधर लपक लेते. अंधे को और चाहिए भी क्या-2 आंखें. हुस्न का जादू हमारे चारों ओर बिखरा रहता और हमारी आंखें तृप्त रहतीं. जानकार लोग अच्छी तरह जानतेसमझते हैं कि स्कूटर सीखना और सिखाना बहुत मेहनत, लगन और सब्र के काम हैं. सीखने वाली अगर नादान, फक्कड़ और अल्हड़ स्त्री हो तो मामला और भी पेचीदा व जिम्मेदारीवाला हो जाता है.
जरा सी घबराहट, हड़बड़ी या जल्दबाजी सीखने वाली की टांगें या बाहें तुड़वा सकती है. बड़ी सावधानी से हर दिशा में कदम बढ़ाया जाता है. हम 1-2 हफ्ते तक सीखने वाली की तरफ मंदमंद मुसकराहट फेंकते हैं. उस की सुंदरता की तारीफ में ऊंचेऊंचे जुमले फेंकते हैं, जैसे परसों तुम्हारा पीकौक ब्लूसूट गजब ढा रहा था या तुम्हारी नाक पर छोटा सा डायमंड का कोका बहुत जंच रहा है. हैरानी तो हमें तब होती जब वह स्त्री हमारे तारीफ के अनुरूप ही कपड़े व गहने पहनने लगती. और भी कई तरह के टैस्ट हम उन पर करते तब जा कर इश्क में कुछ निखार आता. अब और क्याक्या बताएं. इतने पतले पापड़ बेलबेल कर हमारी कमर टूट जाती मगर कई चुस्त व चंट लेडी ‘थैंक्यू, भाईसाहब’ कह कर ये जा और वो जा, निकल लेती. बहुत बार तो अंधे के पैरों तले बटेर खुद ही आ गिरता और कई बार पहाड़ खोद डालते पर मरा हुआ चूहा भी हाथ न लगता. माया महाठगनि हम जानि.
स्त्रियों में भेड़चाल बहुत होती है. जहां 4 सहेलियां जुड़ीं, वहीं यह प्रश्न उछलता था, ‘अरे मोना, तूने तो कमाल कर दिया. मैं ने सुना कि कल मेघा की किट्टी पार्टी में तू अकेली कायनी चला कर इतनी दूर से आई. तुम्हारे तो पंख लग गए. कोई रोकनेटोकने वाला नहीं. तेरा तो अच्छा सोशल सर्कल बन जाएगा. हम तो ज्यादातर घर में बैठी कुढ़ती रहती हैं. स्कूटर व कायनी तो हमारे घर में भी खड़े हैं मगर कोई चलाना सिखाए तब न? हम तो पति के मुहताज हो कर 2-4 जगह चली भी जाएं तो क्या खाक मजा आता है. तेरी तो समय ही पलट गया. सच्ची बता, तूने कायनी चलाना कब सीखा, किस ने सिखाया, लाइसैंस कहां से बनवाया?’
उत्तर मिलता, ‘अरे, वो हैं न स्वीटी के हस्बैंड, उन की जानपहचान बहुत है. मेरा ड्राइविंग लाइसैंस भी घर बैठे ही बन गया. बहुत प्यार से स्कूटर चलाना सिखाते हैं. हींग लगे न फिटकरी और रंग भी चोखा. हैं भी बड़े स्मार्ट और समझदार.’ उन सुस्तीभरे सस्ते दिनों में अपने पास एक पुराना सा खटारा स्कूटर था और मन में ढेर सारी बेईमानी व बेशर्मी थी. अपना एक सूत्रीय आदर्श वाक्य था-फालतू का कोई लोचा नहीं. प्यारमुहब्बत के बदनाम पचड़े में हम नहीं पड़ते थे. स्त्री अगर स्कूटर सीखने के दौरान देहस्पर्श के सुख से हमें महरूम न करे तो समझ लो हमारी गुरुदक्षिणा वसूल हो गई. और अगर कोई सडि़यल जलकुकड़ी बातबात पर विरोध व्यक्त करे तो फिर सारी उम्मीदें अगले उम्मीदवार पर रखनी पड़ती हैं.
हमारी श्रीमती ताने देदे कर थक गई, ‘बच्चों के स्कूल की रिपोर्ट देखी है कभी आप ने. मर कर पास होते हैं. मैं सब जानती हूं कि आजकल आप क्याक्या और कहांकहां गुल खिला रहे हैं. घर के काम को छोड़ कर मेरी सहेलियों को स्कूटर सिखाने के बहाने गुलछर्रे उड़ाते फिरते हैं आप. कितनी शर्म आती है मुझे जब लोग ताना देते हैं कि तुम्हारे पति को कोई और कामधंधा नहीं है आजकल. जब देखो गांधी ग्राउंड या नेहरू पार्क में लोगों की पत्नियों को स्कूटर सिखा रहे होते हैं. प्यार अंधा होता है मगर पड़ोसी तो अंधे नहीं होते.’
सबकुछ चुपचाप सहना पड़ता है. प्यार के मामले में कितनी भी गोपनीयता रख लो मगर इश्क और मुश्क कहां छिपते हैं. अब ओखली में सिर दे ही दिया हो तो फिर मूसलों से क्या डरना. उन दिनों नारीमुक्ति आंदोलन अपने चरम पर था. स्त्रीमुक्ति का सब से प्रभावशाली प्रतीक था- स्कूटर. अर्थात घर की चारदीवारी से विद्रोह. स्कूटर सीखने की अदम्य इच्छा रखने वाली नवयौवना का सब से अधिक विरोध उस का पति तथा विशेषरूप से उस की सास करती थी. उन्हें डर था कि स्कूटर सीखा नहीं कि बंद पिंजरे की चिडि़या आजाद हो जाएगी. काबू में नहीं रहेगी. जाएगी कहीं और आ कर बताएगी कि मंदिर गई थी.
जब भी कोई सुकुमारी स्कूटर सीखने की जिद करती तो उसे एक ही रटारटाया उत्तर मिलता था, ‘क्या करोगी इस उम्र में स्कूटर सीख कर? तुम को कौन सा दफ्तर, स्कूल या कचहरी जाना है. वैसे भी तुम्हारे बेटे बबलू को तो चलाना आता ही है. वही ले जाएगा तुम्हें बाजार. फिर तुम्हें स्कूटर सिखाएगा कौन? मालूम है लाइसैंस बनवाने में कितने झंझट हैं. पहले 6 महीने तक कच्चा बनवाओ और फिर डीसी दफ्तर में जा कर पुलिस वालों को टैस्ट दो. बबलू तो ट्यूशन के चक्कर में इधरउधर भटकता है और तुम्हारे पति सुरेश को तो दुकान से ही फुरसत नहीं है. फिर तुम्हें स्कूटर चलाना सिखाएगा कौन?’ पूरे महल्ले में एकमात्र मैं ही ऐसा नायक था जिस के पास इस कौन का उत्तर था और बड़ा संतोषजनक उत्तर था. मैं कोई कमउम्र का लंपट भी नहीं था कि लोगों को बेवजह शक हो. अच्छाखासा इज्जतदार और अधेड़ पक्की हुई उम्र का संजीदा आदमी था मैं. स्त्रियों की राय तो मैं नहीं जानता मगर आसपास और जानपहचान के आदमी मुझे औसतन अच्छी नजर से देखते थे. इसलिए स्त्रियों के मामले में मेरी साख अच्छी थी.
मुझे न तो दफ्तर जाना होता था और न किसी दुकान पर. मांबाप की अच्छीखासी जायदाद थी जहां से अच्छा किराया आ जाता था. इधर मैं ने समय पर ज्योतिष विज्ञान में डिगरी प्राप्त कर ली थी. अच्छे मोटे ग्राहक चंगुल में फंस जाते थे. अपनी व्यस्त दिनचर्या में से स्कूटर सिखाने के लिए समय हम निकाल ही लेते थे.
सिखाने वाला एक था और सीखनेवालियों की संख्या में लगातार बढ़ोतरी हो रही थी. एक अनार और सौ बीमार वाली अजीब अटपटी स्थिति थी. फिर भी हम खुश थे. अभी एक शोख हसीना को स्कूटर चलाना सिखा रहे होते तो दूसरी जगह से किसी मित्र या परिचित का फोन आ जाता, ‘यार, मेरी पत्नी कई दिनों से मेरे पीछे पड़ी है. मैं ने उस से वादा किया है कि नया कायनी ले कर दूंगा. तुम्हारे पास वक्त है, स्कूटर चलाना सिखा दो उसे. लाइसैंस भी बनवा देना. खर्चा मैं दे दूंगा. तुम्हें तो पता ही है कि मैं तो टूर पर रहता हूं.’ नारीमुक्ति की इतनी तेज आंधी चल रही थी कि सुबह हम सुनीता को स्कूटर चलाना सिखाते, दोपहर को संगीता को और शाम को अनीता के पहलूनशीं होते. किसी सुपरस्टार हीरो की तरह 3-3 शिफ्टों में काम मिल रहा था हमें. हमारी तो पांचों उंगलियां घी में थीं. दुनिया के सभी गमों से बेखबर हमें बस एक ही धुन थी कि शहर की सभी चुलबुली व तेजतर्रार स्त्रियां स्कूटर चलाना सीख जाएं तथा अपनी गुलामी की जंजीरें हम से खुलवा लें.
इन दिनों हम कार चलाना सिखा रहे हैं. जिनजिन प्यारी सखियों ने हम से स्कूटर चलाना सीखा था वही अब कार चलाना भी सीख रही हैं. कल जब नारीमुक्ति आंदोलन का इतिहास लिखा जाएगा तब उस में हमारा नाम स्वर्ण अक्षरों में लिखा जाएगा. हमारे कंपीटिशन में 3-4 ड्राइविंग स्कूल हैं मगर हम में और उन में जमीनआसमान का अंतर है. हम मुफ्त में सिखाते हैं और बड़े प्यार व लगन से सिखाते हैं. सारे महल्ले में सब से खटारा कार हमारे पास है. नौसिखिए को नई कार से सीखने कौन देता है भला. हमारा कलेजा और जिगर देखिए- कार हमारी, वक्त हमारा और पैट्रोल भी हमारा. जनून की हद है यह.
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