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तब नईमा बी झूठी मुसकान चेहरे पर सजा लेतीं, ‘‘अरे, मैं खाली बैठ कर क्या करूं, तबीयत घबराने लगती है... कामकाज से दिल बहला रहता है. फिर दुलहन के अभी अरमानों भरे दिन हैं, बाद में तो उसे ही अपना घरबार संभालना है.’’ लेकिन बुढ़ापा और गम दोनों ही नईमा बी को भीतर ही भीतर घुन की तरह चाटते गए. कोई अपना नहीं था, जिस से वह अपना दुखदर्द कहतीं.

तसल्ली के दो बोल बोलने वाला कोई नहीं था. नजमा जब तक यहां रही, मां का दुख हलका करने की कोशिश करती रही, पर जल्दी ही वह अपने पति के पास दुबई चली गई. आखिरकार अंदर ही अंदर गम सहते हुए नईमा बी बिस्तर पर पड़ गईं. शुरूशुरू में दिखावे को आसिफ ने मां का इलाज करवाया, पर उन के दिल के जख्मों को कोई न भर सका. वे सुबह से ही कुछ उदास सी थीं.

बच्चे स्कूल जा चुके थे. घर में सन्नाटा था. आसिफ तैयार हो कर दुकान पर जा रहा था, तभी दालान में पड़ी नईमा बी बोलीं, ‘‘बेटा, इस दवा से भी कोई फायदा नहीं हुआ. डाक्टर से कहना, कोई अच्छी दवा लिख दे...’’ ‘‘कहां तक बूढ़ी जान पर पैसा खर्च करेंगे आप? अरे, आज मरे, कल दूसरा दिन... यह हिसाब होता है बूढ़ों का. मेरी मानिए, दवादारू का चक्कर छोडि़ए. आखिर हमें भी तो अपने बच्चों के लिए सोचना है... उन की जिंदगी बनानी है...’’ नईमा बी की बात काटते हुए बहू आगे बढ़ आई थी और आसिफ बिना कोई जवाब दिए बाहर निकल गया.

इस तरह उन का इलाज भी उस दिन से बंद हो गया. मौत के इंतजार में वे टूटी खाट पर पड़ी पलपल गिना करतीं. दो रोटी सुबह और दो शाम को मिल जाती, पेट का दोजख भरने को. दूसरी किसी चीज की जरूरत भी कहां रह गई थी भला उसे. कूड़े की तरह कोने में पड़ी रहतीं नईमा बी. एक नईमा बी खुद, दूसरे शौहर, तीसरा बेटा... जिंदगी का कल, आज और कल. बचपन, जवानी और बुढ़ापा तीनों युगों ने ठगा था उन्हें. अचानक मुंडेर पर बैठा कौआ जोर से कांवकांव करने लगा. नईमा बी टूटी खाट पर पड़ी गुजरे जमाने की उलझी डोर को बीच में ही छोड़ कर गीली आंखों को पोंछने लगीं. फिर आसमान की तरफ देखते हुए वे सोचने लगीं, ‘शायद जिंदगी इसी को कहते हैं.’

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