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ढीली सी खाट पर दीवार की ओर करवट बदलते हुए नईमा बी ने ठंडी सांस भर कर आंखें बंद कर लीं. दोपहर ढल रही थी, पर वे ‘दो रोटी’ की अभी तक झूठी आस लगाए पड़ी थीं. वे सोचने लगीं, ‘लगता है, दुलहन अभी तक सो कर नहीं उठी. नाहक ही उस वक्त मैं ने खाने को मना कर दिया. अरे, जब दे रही थी तो खा लेती. अब सारी भी गई और आधी भी... अब मरो, भूखे पेट.’ खुद को कोसते हुए सूख रहे गले को तर करने के लिए नईमा बी ने पास की तिपाई पर रखी सुराही से पानी पीना चाहा,

तो वह भी भिखारी के कटोरे की तरह खाली पड़ी थी. किसी तरह हिम्मत बटोर कर हिलतेकांपते वजूद के साथ वे सुराही ले कर नल पर भरने के लिए चल पड़ीं. नईमा बी जैसे ही सुराही भर कर चलने को हुईं, कदम डगमगा गए. बीमार हड्डियां सूखी टहनी की तरह चरमराईं और वे फर्श पर ढेर हो गईं. बूढ़ी हड्डियां बिखर गईं तो खैर कोई गम नहीं, मुसीबत तो यह हुई कि सुराही भी टूट गई. कुछ टूटने की आवाज जब बहू के कानों से टकराई, तो वह कमरे का दरवाजा खोल कर बाहर निकल आई. सामने फर्श पर नईमा बी पड़ी कराह रही थीं. किसी तरह मुंह बना कर बहू ने उन्हें खाट पर घसीट कर पहुंचाया, फिर बड़बड़ाने लगी, ‘‘किस ने कहा था आप से इधरउधर घूमने को...

बूढ़ी हो गई हैं, लेकिन चैन से एक जगह बैठा नहीं जाता.’’ पैर पटकती हुई वह अपने कमरे में वापस चली गई, मगर एक गहरी धुंध ने नईमा बी की धुंधली आंखों को और भी धुंधला कर दिया. उस के सीने पर रखा बोझ कुछ और ज्यादा भारी हो गया. आज अगर अपना बेटा मुझे कुछ समझता होता तो भला बहू की यह मजाल कि ऐसी बातें सुनाए. जब अपना ही सिक्का खोटा हो तो दूसरे के सिर कुसूर क्या मढ़ना, टूटे दिल को समझाने की कोशिश में नईमा बी के जख्म हरे होने लगे.

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