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‘‘भई, अब तो नईमा अप्पी भी परवीन बाजी की तरह खूब चमचमाती साडि़यां पहना करेंगी. झुमके, झाले और पता नहीं क्याक्या, इन की बराबरी भला कहां कर पाएंगे हम लोग...’’ नईमा बनावटी ठंडी सांस भर फिर से गोटा टांकने लगी. ‘‘अप्पी, हम से मिलने रोज आना दूल्हा भाई के साथ,’’ छोटी नाजिया की बात पर सब बहनें हंस पड़ीं. ‘‘परवीन बाजी तो रोज आती हैं अपने दूल्हा के साथ... तुम क्यों नहीं आओगी?’’ नाजिया बेचारी खिसिया कर बोली.

‘‘आऊंगी नाजो, मैं भी आया करूंगी रोज,’’ गालों पर शर्म की लाली बिखेरती नईमा ने जवाब दिया. उस की आंखों में परवीन का चेहरा चमक गया, ‘वाकई परवीन की तरह मैं भी खूब सजधज कर मायके आया करूंगी, बल्कि उस से भी ज्यादा.’ परवीन नईमा के पड़ोस में रहती थी. दोनों बचपन की सहेलियां थीं. परवीन के घर काफी पैसा था. उस के बाप की कपड़े की दुकान थी. परवीन का घर भी शानदार था. पैसे की रेलपेल थी, सो छोटी सी उम्र में उस के लिए अच्छेअच्छे पैगाम आने लगे थे. पढ़ाई के बीच ही उस की शादी भी हो गई. वह तीसरेचौथे रोज सजधज कर अपने पति के साथ गाड़ी में मायके आती थी. ‘मैं भी उन के साथ खूब घूमा करूंगी,’

नईमा हर समय खोई रहती थी. पर सपने कभी सच नहीं होते. इस बात का एहसास नईमा को शादी के चंद दिनों बाद ही होने लगा था. नईमा के पति की बिजली के सामान की छोटी सी दुकान थी, जिस में वह दिनरात खटता रहता. उस से 2 छोटे भाई थे. एक मोटर का काम सीख रहा था, दूसरा पढ़ने जाता था. बाप अपने जमाने के बेहतरीन कारीगर थे, पर अब नजर बेकार हो जाने के चलते कुछ नहीं करते थे. इस तरह सारे घर की जिममेदारी जाकिर मियां पर थी, जिस से वह अकसर परेशान और चिढ़चिढ़ा रहता था. एक सास थी, जिन की जबान दिनभर चलती रहती थी और निशाना बेचारी नईमा बनती. उन की मिलने वाली कोईर् न कोई रोज आ जाती और बूढ़ी सास तेरीमेरी बहूबेटियों के बहाने नईमा को सौ बातें सुनाती रहतीं. इन्हीं तानों की मार के डर से बेचारी नईमा कई कई महीनों तक मायके जाने का नाम न लेती. सुबह से रात तक बावर्चीखाने में जुटी रहती.

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