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गांव के दलिया लोहार की लड़की चमेली के रूप और जवानी की चर्चा सारे गांव में होने लगी थी. 16वां साल पार करते ही उस में जवानी का ऐसा निखार आया, जो सावनभादो की बाढ़ की तरह रोके न रुकता था.

गांव के जिस रास्ते से चमेली निकल जाती, लोगों की निगाहें उस पर जम जातीं. वह 10वीं जमात तक पढ़ भी चुकी थी और अब कलर जींसटौप पहने रहती थी, पर उस की मांसपेशियों में पूरा दम था, इसलिए वह ऊंची जाति की लड़कियों से ज्यादा आंखों में आती थी.

पहाड़ों के इन गांवों में छुआछूत का अभी भी चलन है. ऊंची जातियां अपने को निचले दर्जे की जातियों से अलगथलग ही रखती हैं. सिर्फ वोट मांगने के लिए इन की बस्तियों में जाया जाता है.

इन निचली जातियों में अकसर खूबसूरती का अभाव रहता है, लेकिन इन लोगों में कभीकभार ऐसा निखरा हुआ रूप भी नजर आता है, जिस की ओर आंख उठाने में ऊंची जाति के लोग भी लाजशर्म नहीं करते.

ऊंची जाति के लड़कों की आंखें फटी रह जातीं, जब इन परियों को देखने पर वे भी घूर कर देखतीं कि लड़के सकपका जाते.

एक दिन शिव मंदिर का पुजारी भोला पंडित मंदिर में जल चढ़ा रहा था कि उस ने खेतों में काम करने के लिए जाती हुई चमेली को देखा. भोला पंडित पूजा के काम को वहीं छोड़ कर बाहर निकल आया और मुसकराते हुए चमेली से बोला, ‘‘किधर जा रही है चमेली? इतनी तड़के भी कहीं काम होता है. इधर आ, मंदिर में आ कर प्रसाद तो लेती जा.’’

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