दिव्या का बहुत ठंडा स्वागत हुआ था. मिस्टर स्वरूप और सरोजिनी तो चौंक ही गए थे उसे घर पर आया देख कर. दिव्या ने उन के पैर छुए तो सिर पर हाथ रख कर इधरउधर हो लिए. वह दादी के पीछेपीछे लगी रहती. इतने बड़े घर में रहने वाले तो नहीं दिखते, पर नौकरनौकरानियां जरूर इधरउधर दौड़तेभागते दिखते थे. उसे अनुज कहीं न दिखा. लगा ही नहीं कि शादी का घर है. किसी को न तो दिव्या में दिलचस्पी थी और न समय था किसी के पास. वह दादी के साथ शाम को सीधे इस बंगले में पहुंच गई थी जहां आयोजन था और अब यहां आ कर पछता रही थी.
‘‘कहां खो गई दिव्या?’’ मीरा ने उस का कंधा हिलाया, उस का हाथ थाम कर बोली, ‘‘सुनो, परेशान न हो. शादी के बाद तुम धीरेधीरे इस लाइफस्टाइल में एडजस्ट कर लोगी. चलो, अब उठो, खाना खाते हैं.’’
दिव्या उठी, तभी खयाल आया, ‘‘भाभी, दीपू और मुन्नी कहां हैं? तुम क्या अकेली आई हो गांव से?’’
‘‘अरेअरे, इतने सवाल,’’ मीरा हंस पड़ी. ‘‘शादी का कार्ड मिला तो सोचा हम भी बड़े लोगों की शादी देख आएं. तुम्हारे भैया तो दिल्ली गए हैं. मैं कल बच्चों के साथ बस से आ गई. यहां मायका है न मेरा. मेरा भाई आया है साथ. बच्चे उसी के साथ हैं.’’
‘‘मैडमजी,’’ 2 प्यारे बच्चे आ कर दिव्या से लिपट गए. वे मीरा के बच्चे थे. दिव्या से पढ़ते थे, इसलिए मैडमजी ही कहते थे. दिव्या से प्यार भी बहुत था. हर समय वे उसी के घर रहते थे.
‘‘वाह रे, मतलबी बच्चो. आइसक्रीम खिलाई मामा ने और प्यारदुलार मैडमजी को,’’ हंसता हुआ संदीप आ गया.