आज 2 महीने हो गए थे. देशपांडे साहब ने हमारे घर को बनाने का काम अपने हाथों में लिया था. चूंकि हम जिस घर में रहते थे, वह घर भी हमारे बन रहे घर के सामने ही था, इसलिए वहां पर काम करने वाले मजदूरों, बिल्डर और मैटीरियल सप्लाई करने वाले को मैं अच्छी तरह पहचानने लगा था.
कभीकभार दोपहर के खाने के समय जब वहां पानी नहीं होता था, तब सब मजदूर हमारे घर से ही पीने का पानी ले जाया करते थे.
इन 2 महीनों में मैं ने एक बात पर अच्छी तरह गौर किया कि हर बार मजदूर बदलते रहते हैं, पर एक औरत जो मजदूर का ही काम करती है, पिछले 2 महीने से हमेशा काम पर आ रही है. न जाने क्यों, उसे देखते ही मुझे उस की शक्ल कुछ जानीपहचानी सी लगा करती थी. आज भी वह दूसरे मजदूरों के साथ हमारे घर पानी मांगने आई, ‘‘साहब, जरा पीने का पानी दीजिएगा.’’
‘‘हांहां, क्यों नहीं...’’ उस के लोटे में पानी डालतेडालते मैं ने उस से सवाल किया, ‘‘तुम्हारा नाम क्या है?’’
‘‘कमला.’’
‘‘कहां रहती हो? मतलब कौन से गांव की हो?’’ मैं ने एकसाथ 2 सवाल किए.
‘‘मैं केडगांव की हूं. यहां नजदीक ही मालिक के घर के पास रहती हूं,’’ उस औरत ने जवाब दिया.
‘‘तुम्हारे घर में और कौनकौन हैं?’’
‘‘मेरे पति, मैं और डेढ़ साल का एक बेटा है,’’ उस ने जवाब दिया, तभी खाने की छुट्टी खत्म होने की घंटी बजी और दूसरे मजदूरों के साथ वह भी काम पर चली गई. वह औरत तो चली गई, लेकिन मेरे मन में उथलपुथल होने लगी.