तकरीबन 10 साल गांव से दूर रहने के बाद मूलक दोबारा लौटा था. जब वह यहां से गया था, तब यह गांव 20-30 झोंपडि़यों वाला एक छोटा सा डेरा था.

गांव के ज्यादातर मर्द कोयले और लोहे की खदानों में काम करते थे. दिनभर बदनतोड़ मेहनत के बाद कोई ताड़ी तो कोई कच्ची शराब पी कर नमकभात खा कर पड़ जाते थे. किसीकिसी परिवार की औरतें भी खदानों में काम करती थीं.

यह गांव मध्य प्रदेश के उस इलाके में था, जो अब छत्तीसगढ़ में आता है. जब मूलक गांव वापस लौटा, तब छत्तीसगढ़ बन चुका था. ज्यादातर गांव अभी भी मुख्य शहरों से बस कच्ची सड़कों से ही जुड़े थे. चारों ओर वही जंगली घास और बीहड़ थे.

गांव के कच्चे रास्तों पर सवारी के साधनों की अभी भी पूरी तरह कमी थी. संचार के साधन भी अभी तक केवल अमीरों को ही सुलभ थे. गरीब तो आज भी चिट्ठीपत्री के ही भरोसे पर थे.

भिलाई से गांव पहुंचतेपहुंचते मूलक को अच्छीखासी रात हो चुकी थी. दीए बुझ चुके थे और चारों तरफ घनघोर अंधेरा पसरा हुआ था. कहींकहीं एकाध जुगनू झिलमिल कर के मूलक को यहां की पगडंडी दिखा देता था.

यह पगडंडी बिलकुल भी नहीं बदली थी. एकदम वैसी ही एकडेढ़ गज चौड़ी, दोनों ओर जंगली बेर की कंटीली झाडि़यां और भुलावा की बेल...

‘अरे, यहां तो भुलना की बेल होती हैं. अगर उन पर मेरा पैर पड़ गया, तो मैं सब भूल जाऊंगा,’ अचानक चलतेचलते मूलक को बचपन में सुनी हुई बात याद आई और उस के कदम ठिठक गए.

‘‘भुलना की बेल... भला बेल भी किसी को रास्ता भुला सकती है?’’ मूलक ने खुद से कहा और तेजी से चलने लगा. अब सामने घना जंगल था और उस जंगल के उस पार नदी किनारे पर उस का गांव.

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