‘‘तू मानती क्यों नहीं बुढि़या? समझ में नहीं आता क्या? बारबार गेट के पास आ कर खड़ी हो जाती है. चल किनारे हट, वरना उठा कर सड़क के उस पार फेंक दूंगा,’’ मुख्यमंत्री आवास के मेन गेट पर तैनात एक पुलिस जवान शैतान सिंह 75 साल की उस बुढि़या पर बरस पड़ा.

‘‘मैं बहुत दूर से आई हूं बेटा. मु  झे एक बार तो मुख्यमंत्री से मिल लेने दो,’’ बुढि़या गिड़गिड़ाई.

‘‘सीएम साहब से अगर मिलना है, तो 4 दिन के बाद ‘जनदर्शन’ में आना. अभी तुम्हारी कोई सुनवाई नहीं होगी. गांव के लिए कोई गाड़ी हो, तो निकल लो या फिर कहीं रात काट लो. यहां न खड़ी रहो,’’ दूसरे पुलिस जवान जंगबहादुर ने जरा नरमी दिखाई.

‘‘मुख्यमंत्रीजी तो गुदड़ी के लाल हैं. वे गरीबों के मसीहा हैं. वे मु  झ जैसी गरीब बूढ़ी औरतों के भी पैर छू कर आशीर्वाद लेते हैं.

‘‘चुनाव के समय जब वे हमारे गांव गए थे, तो उन्होंने मु  झ से भी आशीर्वाद लिया था. मैं ने तो उन्हें राजा बनने का आशीर्वाद दिया था.

‘‘वे मु  झे देखते ही पहचान जाएंगे. वे कहेंगे, ‘माई, तुम यहां क्यों आईं? बताओ, क्या तकलीफ है तुम्हें? किस की मजाल है कि जिस ने तुम्हें राजधानी आने के लिए मजबूर किया?’

‘‘मैं उन्हें अपनी तकलीफ बताऊंगी, तो वे फौरन कलक्टर को फोन लगाएंगे. फोन के घनघनाते ही कलक्टर साहब सरपंच और पंचायत सचिव की नाक में नकेल डाल देंगे. अगले ही दिन मेरा नाम गरीबों की लिस्ट में जुड़ जाएगा और मु  झे अनाज मिलने लगेगा. मैं भूखी हूं बेटा, इस से मु  झे भरपेट खाना मिलने लगेगा.’’

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