सर्दी का मौसम था. धूप खिली हुई थी. गांव की चौपाल पर बैठे लोग कहकहे लगा रहे थे कि लेकिन अचानक वे चुप हो गए. थोड़ी ही दूरी पर कंजूस मनकूलाल आता दिखाई दिया. सिर पर पुरानी टोपी, सस्ती सूती कमीज, धोती और टूटी चप्पलों को पैरों में घसीटता सा वह चला आ रहा था.

मनकूलाल पहले से ही जानता था कि चौपाल पर बैठे लोग उस पर ताने कसेंगे, इसलिए वह दूर से ही मुसकराने लगा. जैसे ही वह करीब आया, एक नौजवान ने पूछा, ‘‘क्यों कंजूस चाचा, आज इधर कैसे?’’

‘‘हाट जा रहा हूं भाई,’’ मनकूलाल ने उसी तरह मुसकराते हुए जवाब दिया.

‘‘अरे, तो पैदल क्यों जा रहे हो? बस भी तो आने वाली है.’’

‘‘मैं तो पैदल ही जाऊंगा. बेकार में 25 रुपए खर्च हो जाएंगे. हाट यहां से है ही कितना दूर. इतनी दूर तो शहर के लोग सैर करने जाते हैं.’’

‘‘अरे, तो जनाब सैर करने जा रहे हैं?’’ दूसरे नौजवान ने ताना कसते हुए कहा.

तभी वहां एक जोरदार ठहाका गूंज उठा. पर मनकूलाल पर इस का कोई असर नहीं हुआ. वह उसी तरह मुसकराता चला गया.

चौपाल पर बैठे लोगों में से एक ने कहा, ‘‘यह कभी नहीं सुधरेगा.’’

‘‘उस के पास बहुत रुपए हैं, पर खर्च तो वह एक पाई भी नहीं करता,’’ दूसरा आदमी बोला.

‘‘अरे, यह सब कहने की बातें हैं...’’ एक अधेड़ आदमी बुरा सा मुंह बना कर बोला, ‘‘कंजूस का धन कौए खाते हैं. अभी पिछले दिनों उस के घर चोरी हो गई थी. अभीअभी उस का छोटा बेटा बीमार पड़ गया था. एक हफ्ते तक अस्पताल में भरती रहा. न जाने कितना रुपया खर्च हुआ होगा...’’

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