अतीत के ढेर में दफन दम तोड़ती, मुड़ीतुड़ी न जाने कैसीकैसी यादों को वह खींच लाती है...घटनाएं चाहे जब की हों पर उन्हें आज के परिवेश में उतारना उसे हमेशा से बखूबी आता है...कुछ भी तो नहीं भूलता उसे. छोटी से छोटी बातें भी ज्यों की त्यों याद रहती हैं.
आज अपना असली रंग खो चुके पुराने स्वेटर के बहाने स्मृतियों को बटोरने चली है...अब स्वेटर क्या अतीत को ही उधेड़ने बैठ जाएगी...उधेड़ती जाएगी...उस में पड़ आई हर सिकुड़न को बारबार छुएगी, सहलाएगी...ऐसे निहारेगी कि बस, पूछो मत...फिर गोले की शक्ल में ढालने बैठ जाएगी.
‘‘तुम्हें कुछ याद भी है नरेंद्र या नहीं, यह स्वेटर मैं ने कब बुना था तुम्हारे लिए? तब बुना था जब तुम टूर पर गए थे कहीं. हां, याद आया हैदराबाद. मालूम है नरेंद्र, अंकिता तब गोद में थी और मयंक मात्र 4 साल का था. तुम लौटे तो मैं ने कहा था कि नाप कर देखो तो इसे...हैरान रह गए थे न तुम, तुम ने मेरे हाथ से स्वेटर ले कर देखते हुए पता है क्या कहा था...’’ उस की नजरें मेरे चेहरे पर आ टिकीं, उस के होंठ मुसकराने लगे.
‘‘क्या कहा था, यही न कि भई वाह, कमाल करती हो तुम भी...तुम्हारा हाथ है या मशीन, कब बनाया? बहुत मेहनत, बहुत लगन चाहिए ऐसे कामों के लिए. यही कहा था न मैं ने...’’ उस की आंखों में आंखें डाल कर कहा मैं ने...नहीं कहता तो कहती कि तुम तो ध्यान से मेरी कोई बात सुनते ही नहीं...जैसे कि तुम्हारा कोई मतलब ही नहीं हो इन बातों से...इस घर में किस से बातें करूं मैं, दीवारों से...
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