सुबह के 7 बजे होंगे जब हम अपनी सैर खत्म कर के घर को लौट रहे थे. तभी लुंगीबनियान में दूध की थैलियां घर ले जाते कवि श्री फुंदीलालजी से मुलाकात हो गई. वैसे तो उन के चेहरे पर नूर कभीकभार ही झलकता था यानी कि तब, जब किसी पत्रपत्रिका में उन की कोई रचना छपती थी, लेकिन आज उन का चेहरा कुछ ज्यादा ही बेनूर दिख रहा था.

हमें याद आया कि पिछले साल भी राज्य सरकार द्वारा घोषित साहित्य पुरस्कारों की लिस्ट में उन का नाम नदारद था, तब भी उन के चेहरे पर कई दिनों तक मुर्दनी छाई हुई थी.

वैसे, पिछले साल ही क्या, साल दर साल उन का नाम पुरस्कारों की लिस्ट से नदारद ही रहता है, हालांकि अपने साले की प्रिंटिंग प्रैस से उन के आधा दर्जन कविता संग्रह आ चुके हैं.

नमस्ते करने के साथ हम ने पूछा, ‘‘आप की तबीयत तो ठीक है न? चेहरा एकदम उदास लग रहा है.’’
‘‘ठीक है, लेकिन पता नहीं क्यों एसिडिटी बहुत हो रही है. पेट में जलन है कल से. थोक में दवा खा चुके हैं, लेकिन ठीक होने का नाम ही नहीं ले रही है,’’ वे बोले.

फिर अचानक उन्होंने हम से पूछा, ‘‘पता चला आप को कि अपनी गली के कवि फलांजी को ‘साहित्यश्री पुरस्कार’ मिला है?’’

‘‘हां, अच्छा लिखते हैं वे, फिर पिछले साल उन का उपन्यास काफी चर्चा में भी रहा था,’’ हम ने कहना चाहा.

‘‘अरे, काहे का अच्छा लिखता है…’’ इस बार उन्होंने उस साहित्यकार के नाम के साथ कई असंसदीय शब्दों का इस्तेमाल करते हुए कहा, ‘‘जानते भी हैं कि कुछ संपादकों से उस की दोस्तीयारी है और कुछेक से रिश्तेदारी है. सो, उस ने अपने उपन्यास की तारीफें छपवा ली हैं.

‘‘सुना तो यह भी है कि पुरस्कार समिति में उस के साले का भी दखल है, सो पुरस्कार तो उसे मिलना ही था.’’

‘‘लेकिन पिछले साल का पड़ोसी प्रदेश का पुरस्कार भी तो…’’ हम ने उन्हें समझाना चाहा.
‘‘वही तो, जुगाड़ लगाना कोई उस से सीखे,’’ फुंदीलालजी कुढ़ते हुए बोले.

‘‘आज बंगलादेश से क्रिकेट मैच है अपना,’’ हम ने मुद्दा बदलने की गरज से कहा, मगर उन का ‘जिया जले… जान जले… पुरस्कारों की लिस्ट तले’ खत्म होने का नाम ही नहीं ले रहा था, सो वे बोले, ‘‘आज अपने प्रदेश के पुरस्कार भी घोषित हुए हैं और उस के कविता संग्रह को भी…’’ वे फिर कुछ असंसदीय शब्द हमारे कान में उड़ेलते हुए बोले.

‘‘होता है फुंदीलालजी, फिर अभी आप ने बताया तो कि पुरस्कार समिति में उन के साले का दखल है,’’ हम ने उन्हें फौरी राहत पहुंचाने की गरज से कहा, ताकि उन की एसिडिटी कुछ कम हो.

‘‘पुरस्कार समिति के शर्माजी और दुबेजी से तो हमारी भी अच्छी बनती है. अभी पिछले महीने ही हम किसी काम से उन की कालोनियों में गए थे, तब अपनी किताब दोनों को दे आए थे, मगर हमें क्या पता था कि किताब के साथ…’’ उन्होंने बात आधी छोड़ दी.

‘‘सीने में जलन, आंखों में तूफान सा क्यों है…’ यह गजल शायद उन्हीं की तरह किसी पुरस्कार वंचित कवि के लिए लिखी गई होगी,’ हमारे दिमाग में अचानक यह खयाल आया.

हम समझ नहीं पा रहे थे कि पुरस्कार से वंचित किसी कवि को दिलासा कैसे दी जाए, सो हम ने पिछले दिनों उन के द्वारा सोशल मीडिया पर हमें भेजी किसी अनियतकालीन पत्रिका में छपी उन की रचना की बात छेड़ी और कहा, ‘‘बढि़या रचना थी आप की.’’

‘‘आप जैसे कदरदान हमारी रचनाओं की तारीफ करते हैं, हमारे लिए तो यही राज्य पुरस्कार और यही ज्ञानपीठ पुरस्कार है…’’ वे कुछकुछ राहत महसूस करते हुए बोले, ‘‘बहुत दिनों बाद मिले आप, वैसे किसी अपने से बात कर लो तो बहुत अच्छा लगता है.’’

‘‘जी, वह तो है,’’ हमें अच्छा लगा कि हमारे शाब्दिक मरहम से वे अपने दुख से उबर रहे थे.
‘‘लेकिन इतना अच्छा लिखने के बाद भी पुरस्कार दूसरे ले जाते हैं, तब तकलीफ तो होती ही है न,’’ वे फिर पुरस्कार न मिलने के दुख के सागर में गोता खाने लगे थे.

तभी हमारी कालोनी के गुप्ताजी और श्रीवास्तवजी वहां से गुजरे, जिन्हें फुंदीलालजी ने रोक लिया और कहा, ‘‘आप को पता चला कि अपनी गली के उस फलां को ‘साहित्यश्री पुरस्कार’ मिला है…’’

फुंदीलालजी को रोने के लिए नए कंधे मिल गए थे, सो हम ने मन ही मन गुप्ताजी और श्रीवास्तवजी से कहा कि ‘अब तुम्हारे हवाले पुरस्कार वंचित कवि साथियो’… और फिर हम वहां से खिसक लिए.

 

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